इंडियन पीनल कोड, 1860 के तहत धारा 124A का अर्थ, उत्पत्ति और आवश्यक तत्व

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India Penal Code 1860
Image Source- https://rb.gy/lbfd5z

यह लेख राजीव गांधी नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, पंजाब की बीए प्रथम वर्ष की छात्रा Jessica kaur द्वारा लिखा गया है। यहां, वह भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 124A में दी गई राजद्रोह की अवधारणा पर चर्चा करती है। इस लेख का अनुवाद Priyamvada Singh ने किया है, जो गलगोटिया यूनिवर्सिटी की छात्रा हैं।

Table of Contents

परिचय  (इंट्रोडक्शन)

देशद्रोह (सेडिशन) एक विवादास्पद शब्द है, जिसे आज के समय में बड़े पैमाने पर और लापरवाही से इस्तेमाल किया जाता है। आम जनता में सरकार की नीतियों (पॉलिसी) का विरोध, युवाओं द्वारा असंतोष दिखाने को अक्सर देशद्रोह के रूप में पहचाना जाता है। हालाँकि, बहुत से लोग नहीं जानते कि यह वास्तव में क्या है। आखिर कानून में देशद्रोह का क्या अर्थ है?

इस लेख में, हम देशद्रोह के अपराध से संबंधित अलग-अलग पहलुओं को देखेंगे। जैसे इंडियन पीनल कोड, 1860 की धारा 124A में दिए गए इसके आवश्यक तत्व, और कुछ महत्वपूर्ण केस कानून, जिनके कारण इसका विकास और स्थापना हुई है। हम न्यायालय द्वारा दिए गए प्रमुख निर्णयों की मदद से कानून की संवैधानिक (कॉंस्टीटूशनल) वैधता (वैलिडिटी) और उन सुधारों को देखेंगे जो इसमें लाए जा सकते हैं।

‘देशद्रोह’ का अर्थ (मीनिंग ऑफ़ ‘सेडिशन’) 

भारत का संविधान,1950 हमें कुछ मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट्स) प्रदान करता है। ये हमारे बुनियादी मानवाधिकारों और स्वतंत्रताओं का प्रतिनिधित्व (रिप्रजेंटेशन) करते हैं, जिनका हम सभी को हक़ है। इनमें से एक अधिकार ‘भाषण और अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता का अधिकार’ है, जो आर्टिकल 19(1)(a) में दिया गया है। हालांकि इन अधिकारों पर विशिष्ट (स्पेसिफिक) स्थितियों में कुछ उचित बंधन लगाए जा सकते हैं, जैसे – किसी अन्य व्यक्ति की मानहानि (डेफेमेशन) को रोकना, सार्वजनिक व्यवस्था और शालीनता (इंटीग्रिटी) का रखरखाव, राष्ट्र की अखंडता (इंटीग्रिटी) की सुरक्षा, आदि- इनके बारे में आर्टिकल 19(2) में बात की गयी है। जिन मामलों में ‘भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार’ को प्रतिबंधित किया जा सकता है, उनमें से एक देशद्रोह का मामला है।

देशद्रोह का मतलब किसी इंसान द्वारा मौखिक या लिखित रूप में खुले तौर पर किए गए कोई काम, इशारा या भाषण से है, जो राज्य में स्थापित सरकार के खिलाफ हिंसा को भड़काने के उद्देश्य से असंतोष व्यक्त करता है। 1870 से भारत में एक अपराध के रूप में वर्गीकृत (क्लासीफाइड), इसे इंडियन पीनल कोड, 1860 के अध्याय VI की धारा 124A के तहत परिभाषित किया गया है। यह धारा कहती है कि जो कोई भी, बोलकर या लिखित शब्दों, संकेतों आदि द्वारा घृणा को उत्तेजित या उत्तेजित करने का प्रयास करता है तो उसने भारत सरकार के प्रति राजद्रोह का अपराध किया है।

आइए कुछ मुख्य मामलों पर एक नजर डालते हैं जिन्होंने इस कानून के मतलब पर प्रकाश डाला है|

क्वीन बनाम अलेक्जेंडर मार्टिन सुलिवन (1868)

इस मामले में, जज फिट्जेराल्ड ने बताया “शब्द, कार्य या लेखन द्वारा”, एक राज्य में शांति को भंग करने और राज्य में सरकार के खिलाफ असंतोष को भड़काता है, उसे राजद्रोह कहते हैं। उन्होंने कहा कि देशद्रोह का मकसद राज्य में विरोध और विद्रोह को भड़काना है। यह राज्य के प्रति निष्ठा न होने का सबूत है। उन्होंने आगे कहा कि राजद्रोह समाज के खिलाफ एक अपराध है और यह देशद्रोह के समान है। इस मामले ने राजद्रोह की स्थापना में एक आधार का काम किया।

क्वीन बनाम जोगेंद्र चंदर बोस और अन्य (1891)

तथ्य (फैक्ट्स)

इस मामले में, जोगेंद्र चंदर बोस पर ‘बंगोबासी’ नाम की अपनी बंगाली पत्रिका में लिखे एक लेख के जरिए भड़काने का आरोप लगा था। इस लेख में, उन्होंने ऐज ऑफ़ कंसेंट एक्ट, 1891 की आलोचना की थी, जिसने महिलाओं के लिए संभोग (सेक्सुअल इंटरकोर्स) के लिए कानूनी आयु 10 से बढ़ाकर 12 वर्ष कर दी थी। उन्होंने हिंदू रीति-रिवाजों में ब्रिटिश सरकार के हस्तक्षेप की आलोचना करते हुए इसे ज़बरदस्ती का “यूरोपीयकरण (यूरोपीयनाइजेशन)” कहा था। 

फैसला (जजमेंट)

हालाँकि यह अधिनियम भारतीय समाज के लिए एक वरदान था और सुधारकों और महिला अधिकार समूहों द्वारा समर्थित था, पर यहाँ सवाल राजद्रोह और सरकार के खिलाफ हिंसा भड़काने का था। इस मामले में मुख्य न्यायाधीश पेथेरम द्वारा सरकार के प्रति “असंतोष” को “नापसंद या घृणा” के रूप में परिभाषित किया गया था।

इस मामले में, बोस को जमानत पर रिहा कर दिया गया और उनके खिलाफ मामला बंद कर दिया गया।

क्वीन बनाम बाल गंगाधर तिलक (1897)

यह पहला मामला था जिसमें धारा 124A को परिभाषित और लागू किया गया था।

तथ्य (फैक्ट्स)

इस मामले में, वकील और प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी- बाल गंगाधर तिलक पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया था। उन्होंने भारतीय सिविल सेवा अधिकारी रैंड के खिलाफ बात की, जो पुणे में प्लेग के लिए लाये गए अफसर थे। तिलक सहित कई लोगों द्वारा रैंड की प्लेग नियंत्रण विधियों को अत्याचारी माना जाता था। उनके क्रांतिकारी भाषणों ने अन्य व्यक्तियों को अंग्रेजों के खिलाफ हिंसा फैलाने के लिए प्रोत्साहित किया, जिससे दो ब्रिटिश अधिकारियों की मृत्यु हुई। 

फैसला (जजमेंट)

अदालत ने नाखुशी को स्नेह की अनुपस्थिति के रूप में परिभाषित किया। इसलिए, इसका अर्थ है “घृणा, शत्रुता, नापसंदगी ​​​​और सरकार के प्रति हर तरह की दुर्भावना।” 

अदालत ने आगे कहा कि किसी भी व्यक्ति को इस तरह के असंतोष को उत्तेजित करने या उत्तेजित करने का प्रयास नहीं करना चाहिए; उसे किसी को भी सरकार के प्रति किसी प्रकार की शत्रुता का अनुभव नहीं कराना चाहिए और न ही ऐसा करने का प्रयास करना चाहिए। इसे ध्यान में रखते हुए अदालत ने स्वतंत्रता सेनानी को देशद्रोह के अपराध में दोषी ठहराया और 18 महीने के कठोर कारावास की सजा सुनाई। हालांकि, बाद में उन्हें 1898 में बेल मिल गई।

किन गतिविधियों को देशद्रोह माना जाता है (व्हिच एक्टिविटीज आर कंसीडर्ड सेडिशस)?

भारतीय अदालतों के अनुसार, निम्नलिखित गतिविधियों के कुछ उदाहरण हैं जिन्हें देशद्रोही प्रकृति का माना जाता है:

  • समूह में भारत सरकार के खिलाफ नारे लगाना
  • किसी व्यक्ति का भाषण, जो स्पष्ट रूप से हिंसा या सार्वजनिक अव्यवस्था को बढ़ाता है।
  • कोई समाचार पत्र इत्यादी के लेख, जो हिंसा या सार्वजनिक अव्यवस्था को उकसाता है।

देशद्रोह की सजा

  • जैसा कि आईपीसी की धारा 124 A के तहत दिया गया है, राजद्रोह के दोषी व्यक्ति को 3 साल से लेकर आजीवन कारावास, जुर्माना, या दोनों से दंडित किया जा सकता है। 
  • देशद्रोह एक संज्ञेय (कॉग्निजिएबल) अपराध है- पुलिस देशद्रोह के आरोपी व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है। 
  • देशद्रोह एक गैर-जमानती (नॉन-बेलेबल) अपराध है, यानी राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार व्यक्ति को उसके अधिकार के रूप में पुलिस द्वारा बेल पर रिहा नहीं किया जा सकता है। 
  • उसे अदालत या मजिस्ट्रेट के समक्ष बेल के लिए आवेदन करना होता है। राजद्रोह एक गैर-शमनीय (नॉन-कम्पाउंडेबल) अपराध है, मतलब इसे आरोपी और पीड़ित के बीच समझौते से नहीं सुलझाया जा सकता है।

भारत में राजद्रोह की उत्पत्ति (ओरिजिन ऑफ़ सेडिशन इन इंडिया)

भारत में राजद्रोह विरोधी कानून पहली बार 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार-राजनेता, थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था। लेकिन जब इंडियन पीनल कोड वर्ष 1860 में लागू किया गया था, तो इसे उसमे शामिल नहीं किया गया था।

1870 में धारा 124A को इंडियन पीनल कोड के अध्याय VI में जोड़ा गया, जो राज्य के खिलाफ अपराधों से संबंधित है। यह सैयद अहमद बरेलवी के नेतृत्व में बढ़ते कट्टरपंथी (रेडिकल) वहाबी आंदोलन की प्रतिक्रिया के रूप में किया गया था। इसके अलावा, लोग तेजी से भारत के लिए अधिक स्वतंत्रता मांग रहे थे। यह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ था। इसलिए, उसने इस कानून के माध्यम से लोगों के भाषण और अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने की कोशिश की।

ब्रिटिश राज के दौरान कुछ सबसे प्रसिद्ध राजद्रोह के मामलों में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं के खिलाफ आरोप शामिल थे। उनमें से पहला 1891 में जोगेंद्र चंद्र बोस का मुकदमा था, जिसकी हमने ऊपर चर्चा की थी। भारतीयों द्वारा लिखे गए भाषणों और अखबारों के लेखों के खिलाफ और भी कई मामले थे। हालांकि, सबसे प्रसिद्ध मामले बाल गंगाधर तिलक (जिनमें से एक पर हमने पहले चर्चा की थी) और 1922 में महात्मा गांधी के मुकदमे के तीन मामले थे। इस मामले में, महात्मा गांधी और शंकरलाल बैंकर पर तीन लेखों के लिए राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। ‘यंग इंडिया’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ, जिसने ब्रिटिश सरकार की आलोचना की। अदालत में गांधी के शक्तिशाली भाषण, जहां उन्होंने अपने खिलाफ आरोपों के लिए दोषी ठहराया, उनके पक्ष में फैसला सुनाया।

स्वतंत्रता के बाद, कांस्टीट्यूशन (फर्स्ट अमेंडमेंट) एक्ट, 1951 में आर्टिकल 19(2) में “सार्वजनिक व्यवस्था” शब्द जोड़ा गया। इसका मतलब था कि सार्वजनिक व्यवस्था और स्थिरता बनाए रखने के लिए, एक नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधों में लाया जा सकता है। इस प्रकार, राजद्रोह को एक अपराध के रूप में मान्यता दी गई थी, हालांकि उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की राय थी कि राजद्रोह विरोधी कानूनों का स्वतंत्र भारत में कोई स्थान नहीं है। तब से, देशद्रोह से जुड़े कई मामले सामने आए हैं जहां अदालतों ने इसकी वैधता पर सवाल उठाया है, लेकिन केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) में सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून के पक्ष में फैसला सुनाया। आज भी अदालत का यही निर्णय कायम है।

धारा 124A के आवश्यक तत्त्व (एसेंशियल इंग्रेडिएंट्स ऑफ़ सेक्शन 124A)

किसी व्यक्ति की हर हरकत को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है, चाहे उनमे असंतोष ही क्यों न दिखे।  देशद्रोही माने जाने के लिए कुछ आवश्यक तत्व हैं जिनका मौजूद होना ज़रूरी है। आईपीसी की धारा 124A में दिए गए देशद्रोह की व्याख्या में ये पाए जाते हैं। आइए इन पर एक नजर डालते हैं।

शब्द या संकेत (वर्ड्स और साइंस)

धारा 124A के तहत राजद्रोह का पहला और सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व-  ठोस इशारा या शब्द- जिनसे आरोपी का पता लगाया जा सकता है। उसके बिना उसके खिलाफ राजद्रोह का मामला भी नहीं हो सकता। राजद्रोह के मुकदमे में, पहली चीज जो साबित होनी चाहिए वह यह है कि व्यक्ति वास्तव में देशद्रोही था या नहीं। 

घृणा या अवमानना लाना या लाने का प्रयास करना या विद्रोह उत्तेजित करना या उत्तेजित करने का प्रयास करना (ब्रिंग्स और  अटेंप्ट्स टू ब्रिंग इनटू हैट्रेड  और  कंटेम्प्ट , और  एक्साइटस  और  अटेंप्ट्स  टू  एक्साइट  डिसाफेक्शन )

राजद्रोह का सार आरोपी व्यक्ति के इरादे में है। ऐसे व्यक्ति के मन में सरकार के प्रति घृणा, अवमानना (कंटेंट) पैदा करने की सक्रिय मंशा होनी चाहिए। राज्य के प्रति निष्ठा और शत्रुता की सभी भावनाओं के रूप में धारा 124A के तहत स्पष्टीकरण (एक्सप्लेनेशन) 1 द्वारा विशेष रूप से असंतोष को परिभाषित किया गया है। किसी व्यक्ति की घृणा फैलाने की मंशा का अंदाजा उसके काम/ भाषण से ही लगाया जा सकता है। धारा के तहत, केवल घृणा को उत्तेजित करने का प्रयास भी दंडनीय है और इसलिए यह जांचना आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति ने इस उद्देश्य को प्राप्त किया या नहीं।

यदि यह एक भाषण है, तो इसका स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से जांच किया जाना चाहिए। इसी आधार पर स्पीकर की मंशा भी देखी जानी चाहिए। शब्दों को मतलब से बाहर नहीं लिया जाना चाहिए। यदि भाषण में हिंसा या हिंसा की धमकी के माध्यम से, बेईमान या अवैध तरीकों से सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए विद्रोह या कार्रवाई की वकालत की गई हो, तो उस भाषण को देशद्रोह में शामिल किया जाना चाहिए।

निहारेंदु दत्त मजूमदार बनाम किंग (1942) का निम्नलिखित मामला सबसे पहले था जहां अदालत ने इस तत्व को राजद्रोह के अपराध के लिए आवश्यक के रूप में स्थापित किया था।

निहारेंदु दत्त मजूमदार बनाम किंग (1942)

तथ्य (फैक्ट्स)

इस मामले में, अपीलकर्ता ने 13 अप्रैल 1941 को कलकत्ता में एक भाषण दिया, जिसके कारण उन पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया और उन्हें 6 महीने के “कठोर” कारावास की सजा के साथ-साथ 500 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई। इस फैसले को चुनौती दी गई थी कि अपीलकर्ता का भाषण राजद्रोह नहीं था।

फैसला (जजमेंट)

अदालत ने माना कि राजद्रोह का मतलब अनिवार्य रूप से किसी व्यक्ति की सार्वजनिक अव्यवस्था को बढ़ावा देने का इरादा है। इसलिए, “हिंसा के लिए उकसाना या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति या इरादा” राजद्रोह का एक महत्वपूर्ण तत्व है। मामले के तथ्यों के संबंध में, यह माना गया कि अपीलकर्ता का भाषण सरकार की आलोचना की कानूनी सीमा से अधिक नहीं था और इसलिए, डिफेन्स ऑफ़ इंडिया एक्ट,1939 के तहत देशद्रोह नहीं माना जा सकता (इस अधिनियम को 1947 में  निरस्त किया गया था)।

कानून द्वारा बनाई गई सरकार (गवर्नमेंट एस्टाब्लिशड बाय लॉ)

राजद्रोह के पीछे मुख्य सिद्धांत यह है कि किसी राज्य में सरकार स्थिर रहे और उसके प्रति ऐसी कोई अवमानना ​​न हो जिससे विद्रोह के माध्यम से राज्य की अखंडता को खतरा हो। अतः धारा 124A के अनुसार देशद्रोह के अपराध का एक अनिवार्य तत्व है- व्यक्ति का कार्यों या शब्दों से सरकार के प्रति घृणा व्यक्त करना और भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ असंतोष और हिंसा को भड़काना।

केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) (जिस पर बाद में विस्तार से चर्चा की जाएगी) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार नोट किया, कि यहां “कानून द्वारा स्थापित सरकार” शब्द का अर्थ “व्यक्ति विशेष” नहीं है। 

अस्वीकृति व्यक्त करना-स्पष्टीकरण 2 और 3 (एक्सप्रेस्सिंग डिसप्प्रोबेशन-एक्सप्लनेशन्स 2 एंड 3)

धारा 124A में तीन स्पष्टीकरण दिए गए हैं। उनमें से दो स्पष्टीकरण 2 और 3- यह बताते हैं की राजद्रोह में क्या शामिल नहीं किया जा सकता है। ऐसी टिप्पणियां जो किसी व्यक्ति की अस्वीकृति को व्यक्त करती हैं, मतलब भारत सरकार के कार्यों की अस्वीकृति या नापसंदगी को देशद्रोह नहीं माना जाता है, यदि उनका एकमात्र उद्देश्य सरकार की नीतियों में एक वैध परिवर्तन लाना है।

ये स्पष्टीकरण अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और धारा 124A इनके बिना अधूरी होगी- क्योंकि वे एक नागरिक के ‘बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार’ को मान्यता देते हैं, जो दर्शाता है कि लोगों द्वारा राज्य और उसकी नीतियों की आलोचना लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) का एक मूलभूत हिस्सा है और इसलिए इसे छीना नहीं जा सकता।

धारा 124A की संवैधानिक वैधता (कांस्टीट्यूशनल वैलिडिटी ऑफ़ सेक्शन 124A)

स्वतंत्रता के बाद के भारत में, धारा 124A कई बार इस आधार पर आलोचनाओं के घेरे में आ गई है कि यह हमारी ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर अंकुश लगाती है। लोकतंत्र के सिद्धांतों पर आधारित स्वतंत्र भारत में इसके अस्तित्व पर सवाल उठाते हुए कई लोगों ने इसे औपनिवेशिक (कोलोनियल) काल का अत्याचार बताया है। इस प्रकार, आलोचकों ने दावा किया है कि इंडियन पीनल कोड का यह प्रावधान भारत के संविधान का उल्लंघन है। हालांकि, इस बारे में कानून का क्या कहना है?

आइए, तारा सिंह गोपी चंद बनाम राज्य के 1951 के मामले पर एक नज़र डालते हैं, जहां पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने धारा 124A की संवैधानिक वैधता के मुद्दे को संबोधित किया था।

तारा सिंह गोपी चंद बनाम राज्य (1951)

तथ्य (फैक्ट्स)

इस मामले में तारा सिंह के खिलाफ उनके द्वारा दिए गए दो भाषणों के संबंध में दो याचिकाएं लंबित (पेंडिंग) थीं, एक करनाल में और एक लुधियाना में।

जिन धाराओं के तहत उन पर आरोप लगाया गया उनमें से एक धारा 124A थी। उन्होंने यह कहते हुए इसे चुनौती दी कि विदेशी शासन समाप्त होने के बाद भारत में राजद्रोह का अपराध अनुचित है, और प्रस्तुत किया कि धारा 124A को ख़तम किया जाना चाहिए क्योंकि यह ‘भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार’ का उल्लंघन है।

फैसला (जजमेंट)

उच्च न्यायालय धारा 124A की संवैधानिक अमान्यता के दावे से सहमत था की यह ‘भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार’ का उल्लंघन था। इसने इस प्रावधान को रद्द कर दिया और साथ ही, तारा सिंह के खिलाफ कार्यवाही को रद्द कर दिया और उन्हें मुक्त करने का आदेश दिया।

इलाहाबाद कोर्ट ने राम नंदन बनाम राज्य (1959) के मामले में भी इसी तरह का फैसला सुनाया था, जहां धारा 124A को संविधान के दायरे से बाहर घोषित किया गया था।

देशद्रोह विरोधी कानून के खिलाफ इस तरह की भावनाओं के सामने, भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) के मामले में इस युग के कानून की वैधता के मुद्दे को संबोधित किया। आइए इस मामले की जांच करें, जो देशद्रोह से संबंधित ऐतिहासिक मामलों में से एक साबित हुआ है।

केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962)

तथ्य (फैक्ट्स)

इस मामले में अपील पर उनके द्वारा दिए गए कुछ भाषणों के लिए राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। अपने भाषणों में, उन्होंने सीआईडी ​​के अधिकारियों को “कुत्ते” और सरकार के सदस्यों को “कांग्रेस के गुंडे” कहा, जिनके चुनाव में लोगों की गलती थी। उन्होंने दर्शकों को सरकार के खिलाफ हड़ताल करने और उन्हें अंग्रेजों की तरह बाहर निकालने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके लिए उन्हें बिहार राज्य में एक मजिस्ट्रेट की अदालत ने धारा 124A के तहत दोषी ठहराया था। उन्होंने पटना उच्च न्यायालय में अपील की लेकिन उनकी सजा बरकरार रही। इसके बाद उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने के लिए विशेष अनुमति प्राप्त की, जहां उनका मुख्य तर्क यह था कि किसी व्यक्ति की ‘भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर धारा 124A द्वारा लगाए गए प्रतिबंध आर्टिकल 19 द्वारा दिए गए विधायी शक्ति के दायरे से बाहर थे। 

फैसला (जजमेंट)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान के आर्टिकल 19(2), जो ‘भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर कुछ प्रतिबंध लगाता है, को 1951 में सार्वजनिक व्यवस्था को शामिल करने के लिए संशोधित किया गया था। किसी व्यक्ति द्वारा कोई भी टिप्पणी जो सार्वजनिक व्यवस्था या राज्य की सुरक्षा को भंग करने की धमकी देती है, समाज के खिलाफ अपराध है और इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है। सरकार के प्रति अवमानना ​​या घृणा को भड़काने से रोकने के लिए राजद्रोह को अपराध माना गया है, जो समाज की स्थिरता को हिला सकता है। हालांकि, यह स्पष्ट किया गया कि एक नागरिक को सरकार की आलोचना करने की अनुमति तब तक दी जाती है जब तक कि वह सार्वजनिक अव्यवस्था या हिंसा का कारण नहीं बनता है। इसलिए, अनिवार्य रूप से, यह निहारेंदु दत्त मजूमदार बनाम किंग (1942) के पहले उल्लेखित मामले में दिए गए फैसले के पक्ष में था। इस प्रकार, स्पष्टीकरण 2 और 3 को धारा 124A में जोड़ा गया।

क्या देशद्रोह विरोधी एक अच्छा कानून है? (इज एंटी-सेडिशन  गुड लॉ ?)

सर्वोच्च न्यायालय ने इस निष्कर्ष के आधार पर अपना निर्णय दिया कि सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए ‘भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर किसी प्रकार का प्रतिबंध आवश्यक है और राष्ट्र की अखंडता और स्थिरता के लिए किसी भी खतरे को रोकने के लिए आवश्यक है। यह सच है- हमारे मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट्स) पूर्ण नहीं हो सकते हैं; उन्हें यह सुनिश्चित करने के लिए उचित सीमाओं में सीमित करने की आवश्यकता है, कि वे हमारे आसपास दूसरों को नुकसान न पहुंचाएं। हालाँकि, राज्य की आलोचना लोकतंत्र के सार का एक हिस्सा है, जिस पर अदालतों ने भी जोर दिया है। समस्या तब उत्पन्न होती है जब देशद्रोह विरोधी कानून का नागरिकों के खिलाफ दुरुपयोग किया जाता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाता है ताकि जनता को सरकार जो कुछ भी कहती है उसका चुपचाप पालन किया जा सके।

देशद्रोह विरोधी कानून के पक्ष और विपक्ष में लोगों द्वारा दिए गए कुछ तर्क:

धारा 124A के पक्ष में तर्क (आर्ग्यूमेंट्स इन फेवर ऑफ़ सेक्शन 124A)

  • राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा करता है: सरकार की स्थिरता की रक्षा और संरक्षण के लिए और भाषण और अभिव्यक्ति को रोकने के लिए देशद्रोह विरोधी कानून आवश्यक है। इसका उद्देश्य सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करना है। यह सब सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि राष्ट्रीय अखंडता और सुरक्षा बरकरार रहे।
  • शत्रुतापूर्ण गतिविधियों के लिए सजा: देश में ऐसे क्षेत्र हैं जो माओवादियों जैसे विद्रोही समूहों द्वारा बनाई गई शत्रुतापूर्ण (होस्टाइल) गतिविधियों और विद्रोह का सामना करते हैं। वे हिंसा का कारण बनते हैं और क्षेत्रों में समानांतर प्रशासन स्थापित करने का प्रयास करते हैं। वे खुले तौर पर अपने निजी हितों के लिए सरकार को उखाड़ फेंकने की वकालत करते हैं। इन समूहों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए।
  • अवमानना: भारत सरकार संविधान में प्रदान की गई और कानून द्वारा स्थापित एक आधिकारिक प्राधिकरण (अथॉरिटी) है। इसलिए अनावश्यक अवमानना ​​व्यक्त करने या कुछ सीमाओं से परे सरकार का अपमान करने पर प्रतिबंध होना चाहिए। अगर अदालत की अवमानना ​​दंडात्मक कार्रवाई को आमंत्रित करती है, तो सरकार की अवमानना ​​भी होनी चाहिए।

धारा 124A के खिलाफ तर्क (आर्ग्यूमेंट्स अगेंस्ट सेक्शन 124A)

  • दमन के लिए उपकरण: देशद्रोह विरोधी कानून को पहली बार 1870 में अंग्रेजों द्वारा भारतीय दंड संहिता में जोड़ा गया था।

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस प्रावधान का उद्देश्य विदेशी शासन के प्रति भारतीय जनता के प्रतिरोध को दबाना था। इस कानून के तहत कई स्वतंत्रता सेनानियों पर आरोप लगाए गए, जिनमें बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी शामिल हैं। महात्मा ने, वास्तव में, इस कानून को “नागरिक की स्वतंत्रता को दबाने के लिए डिज़ाइन किए गए इंडियन पीनल कोड के राजनीतिक वर्गों के बीच में वर्णित किया था।

  • अस्पष्ट कानून: कानून अस्पष्ट है, क्योंकि इसमें “असंतोष” जैसे शब्द शामिल हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि विभिन्न स्थितियों में असंतोष के रूप में क्या वर्गीकृत किया जा सकता है या नहीं। इसका मतलब यह है कि शामिल अधिकारियों की इच्छा और हितों के अनुसार कानून की अलग-अलग व्याख्या की जा सकती है। हाल के वर्षों में, कानून का इस्तेमाल कभी-कभी राजनीतिक असंतोष को सताने के लिए किया जाता है। उदाहरणों में से कुछ में सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट, 2019 पर एक सोशल मीडिया पोस्ट के लिए मणिपुर के एक छात्र कार्यकर्ता की गिरफ्तारी, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के 14 छात्रों को “राष्ट्र-विरोधी” नारे लगाने के आरोप में गिरफ्तार करना और देशद्रोह का आरोप शामिल है। 
  • अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं (कमिटमेंट्स) के साथ असंगत: भारत ने 1979 में इंटरनेशनल  कोवेनेंट  ऑन  सिविल  एंड  पॉलिटिकल  राइट्स  (आई सी सी पी आर) सहित विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय ट्रीटीज़ और कोवेनेंट पर हस्ताक्षर किए हैं। यह दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय मानकों (स्टैंडर्ड) को निर्धारित करता है। हालांकि, भारत में राजद्रोह और मनमाने आरोपों का दुरुपयोग इस प्रकार की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के साथ असंगत है।
  • अनावश्यक प्रावधान (प्रोविजन): भारतीय दंड संहिता और अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रीवेंशन) एक्ट,1967 में अन्य प्रावधान हैं जो “सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने” या “हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को उखाड़ फेंकने” का अपराधीकरण करते हैं। एक उदाहरण धारा121A है, जो सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने की साजिश को दंडित करता है। इसलिए, चूंकि ऐसे अन्य प्रावधान हैं जो सरकार को वास्तविक खतरों का अपराधीकरण करते हैं, धारा 124A की आवश्यकता नहीं है।

जैसा कि हम ऊपर देखते हैं, इस कानून के नुकसान, फायदे से अधिक हैं। हालांकि, इस कानून पर सुप्रीम कोर्ट के दृष्टिकोण और सरकार के विचारों को देखते हुए, ऐसा लगता है कि इस धारा को जल्द ही खत्म किए जाने की संभावना नहीं है। लेकिन, विचार-विमर्श के बाद कानून में कुछ सुधार करना संभव है। इसके बारे में अगले भाग में चर्चा की गयी हैं।

धारा 124A में सुधार के प्रस्ताव (प्रोपोज़ल्स फॉर रिफार्म ऑफ़ सेक्शन 124A)

हालांकि देशद्रोह विरोधी कानून को खत्म नहीं किया जा सकता है, लेकिन इसके आवेदन को केवल उन मामलों तक सीमित रखने के लिए इसमें सुधार किया जा सकता है जहां व्यक्तियों द्वारा भाषण या कार्य बेहद घृणित हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता के लिए गंभीर खतरा पैदा करते हैं।

प्रतिबंधात्मक आवेदन (रेस्ट्रिक्टिव एप्लीकेशन) 

2015 में श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के मामले में, अदालत के सामने मुद्दा यह था कि ‘किस स्थिति में सरकार किसी व्यक्ति के भाषण और अभिव्यक्ति को रोक सकती है, जब वह आपत्तिजनक टिप्पणी करता है?’। उस वक़्त इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी अधिनियम 2000 की धारा 66A के तहत दिए गए प्रतिबंध मौजूद थे-  इसका बहुत बड़ा प्रभाव धारा 124A पर भी था। अदालत ने घोषणा की कि भाषण द्वारा वकालत और उकसाने के बीच एक रेखा खींची जानी चाहिए। संविधान ने, ‘भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की गारंटी अपने नागरिको को दी है। जब कोई व्यक्ति बल प्रयोग या कानून के उल्लंघन की वकालत करता है तब राज्य को इस अधिकार पर रोक लगाने की अनुमति नहीं दी – राज्य यह रोक तभी लगा सकता है जब उसने उसे उकसाया या उकसाने का प्रयास किया हो।

सजा की मात्रा में कमी (रिडक्शन इन क्वांटम ऑफ़ पनिशमेंट)

बदलते समय के अनुसार देशद्रोह के दोषी व्यक्ति के लिए सजा को और अधिक उचित बनाया जाना चाहिए। आज, भाषण और अभिव्यक्ति की अधिक स्वतंत्रता के साथ ज्यादातर मामलों में राजद्रोह के अपराध में आजीवन कारावास या अन्य ऐसी कठोर सजा का प्रावधान नहीं है। देशद्रोह के मामलों में यह हमेशा संभव होता है कि व्यक्ति के शब्दों को संदर्भ से बाहर कर दिया गया हो। जब तक देशद्रोही कार्रवाइयों ने वास्तव में दूसरे को ठोस नुकसान नहीं पहुंचाया है, उन्हें अधिक तर्क से निपटा जाना चाहिए।

2018 में, भारत के लॉ कमीशन ने एक परामर्श पत्र प्रकाशित किया जिसमें सिफारिश की गई थी कि धारा 124A को निरस्त करने का समय आ गया है। इसने कहा कि स्थिति पर निराशा व्यक्त करना देशद्रोह नहीं माना जा सकता। रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर अदालत की अवमानना ​​सजा को आमंत्रित करती है, तो सरकार की अवमानना ​​भी होनी चाहिए।

लेखकों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, छात्रों आदि के खिलाफ देशद्रोह के आरोपों में वृद्धि हुई है। देशद्रोह के मामलों में अरुंधति रॉय, हार्दिक पटेल, कन्हैया कुमार और अन्य जैसे व्यक्तित्व शामिल हैं। इनमें से कुछ मामलों को अनुचित तरीके से निपटाया गया और धारा 124A के लागू होने की आवश्यकता नहीं थी। लोगों की आवाज को दबाने के लिए इस कानून का इस्तेमाल करने के लिए पूरे वर्षों में सरकार की कई बार आलोचना की गई है।

भारत में इस कानून और इसके उपयोग के लिए भविष्य क्या है- यह तो समय ही बताएगा।

निष्कर्ष (कन्क्लूज़न )

देशद्रोह एक विवादास्पद अवधारणा है; यह हमारे ‘भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार’ के साथ एक नाजुक संतुलन में होना चाहिए। जबकि किसी भी नागरिक को जनता के बीच अनावश्यक घृणा फैलाने और सरकार के खिलाफ हिंसा भड़काने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए (विशेषकर अहिंसा के सिद्धांतों पर स्थापित देश में) प्रत्येक नागरिक को सरकार पर अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता भी होनी चाहिए। भारतीय अदालतों द्वारा निर्धारित व्याख्या और इस कानून के वास्तविक काम में कभी-कभी अंतर होता है, जिसके कारण लोगों ने लागू कानून को “कठोर” करार दिया है। एक ऐसे युग में जहां नागरिक अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के बारे में तेजी से जागरूक हो रहे हैं और इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में कर्तव्य और जिम्मेदारी की भावना बढ़ रही है, शायद यह इस कानून में सुधार पर विचार करने का सही समय है।

संदर्भ (रेफरेन्सेस)

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