खत्री एवं अन्य बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (1980)

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यह लेख Soumyadutta Shyam द्वारा लिखा गया है। इस लेख में खत्री एवं अन्य बनाम बिहार राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि तथा निःशुल्क कानूनी सहायता, मामले के तथ्य, उठाए गए मुद्दे, पक्षों की दलीलें, शामिल कानून, मामले के निर्णय और विश्लेषण पर विस्तार से चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Chitrangada Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों में से एक “ऑडी अल्टरम पार्टम” है जिसका अर्थ है “दूसरे पक्ष को सुनना।” इसका तात्पर्य यह है कि मुकदमे में सभी पक्षों को अपना मामला प्रस्तुत करने का न्यायसंगत अवसर दिया जाना चाहिए। न्याय की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किसी मुकदमे में अपना पक्ष रखने का उचित अवसर देना या स्वयं का बचाव करने का अधिकार देना आवश्यक है। किसी को भी अपना पक्ष रखने का पर्याप्त अवसर दिए बिना दंडित नहीं किया जाना चाहिए। कभी-कभी गरीबी के कारण किसी व्यक्ति के लिए कानूनी सहायता प्राप्त करना कठिन हो जाता है। लेकिन, यदि किसी व्यक्ति को कानूनी सलाह या कानूनी वकील द्वारा बचाव का मौका नहीं मिल पाता है, तो निष्पक्ष सुनवाई की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। 

यही कारण है कि ‘निःशुल्क कानूनी सहायता का अधिकार’ महत्वपूर्ण है। संविधान का अनुच्छेद 39-A राज्य पर निःशुल्क कानूनी सहायता का प्रावधान करने की जिम्मेदारी डालता है। निःशुल्क कानूनी सहायता के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एक घटक माना गया है। 

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः अपराध के अभियुक्त व्यक्तियों को निःशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराने के महत्व पर बल दिया। 

मामले का विवरण

नाम

खत्री एवं अन्य बनाम बिहार राज्य एवं अन्य 

उद्धरण

1981 एससीआर (2) 408 

फैसले की तारीख

19.12.1980 

याचिकाकर्ता

खत्री एवं अन्य 

प्रतिवादी

बिहार राज्य एवं अन्य 

याचिकाकर्ताओं की ओर से उपस्थित अधिवक्ता

अधिवक्ता के. हिंगोरानी और अधिवक्ता रेखा तिवारी 

प्रतिवादियों की ओर से उपस्थित अधिवक्ता

अधिवक्ता के.जी. भगत और अधिवक्ता डी. गोवर्धन 

न्यायपीठ

न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती और न्यायमूर्ति ए.पी. सेन 

मामले की पृष्ठभूमि

भारत में, जहां आबादी का एक बड़ा हिस्सा पर्याप्त साधनों के बिना रहता है, नि:शुल्क कानूनी सहायता और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी को न्याय तक समान पहुंच मिले। निःशुल्क कानूनी सहायता के अधिकार और इसे उपलब्ध कराने के राज्य के कर्तव्य पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई अवसरों पर जोर दिया गया है। 

एम.एच. होसकोट बनाम महाराष्ट्र राज्य (1978) में याचिकाकर्ता मास्टर और डॉक्टरेट योग्यता वाला रीडर था। उन्हें फर्जी विश्वविद्यालय डिग्रियां प्रसारित करने के अपराध में दोषी पाया गया। सत्र न्यायालय में उन पर मुकदमा चलाया गया, जिसमें उन्हें दोषी करार दिया गया, हालांकि उन्हें बहुत कम सजा दी गई। उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की अपील स्वीकार कर ली और उसे तीन वर्ष की सजा सुनाई। उच्च न्यायालय ने नवंबर 1973 में फैसला सुनाया और अधिक सजा सुनाई, हालांकि, विशेष अनुमति याचिका 4 साल बाद सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गई। याचिकाकर्ता ने अपना पूरा समय कारावास में बिताया। विलंब को माफ करने के लिए याचिकाकर्ता द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण यह था कि 1973 में दिए गए फैसले की प्रति उन्हें 1978 में दी गई थी। यह बात सामने आई कि यद्यपि उच्च न्यायालय द्वारा आदेश की एक निःशुल्क प्रति तुरंत ही याचिकाकर्ता के लिए जेल अधीक्षक को भेज दी गई थी, लेकिन उन्होंने दावा किया कि उन्हें वह प्रति प्राप्त नहीं हुई। अधीक्षक ने कहा कि इसकी प्रति उन्हें भेजी गई थी, लेकिन बाद में उसे वापस ले लिया गया ताकि उसे उनकी सजा माफ कराने के लिए सरकार को भेजी जाने वाली दया याचिका में संलग्न किया जा सके। 

सर्वोच्च न्यायालय ने अपील की विशेष अनुमति को अस्वीकार कर दिया क्योंकि न्यायालय दो अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था, हालांकि उसने यह भी माना कि कानूनी रुख स्पष्ट करना उचित होगा। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि तथ्यों पर अपील का एकमात्र अधिकार, जहां सजा के परिणामस्वरूप स्वतंत्रता का दीर्घकालिक नुकसान होता है, सभ्य न्यायशास्त्र के लिए मौलिक है, “निष्पक्ष प्रक्रिया का एक घटक प्राकृतिक न्याय है।” अपील के अधिकार को प्रभावी बनाने वाला प्रत्येक उपाय आवश्यक है और इसका प्रत्येक कार्य या चूक जो इसे बाधित करती है, अन्यायपूर्ण है और इस प्रकार अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है। 

अपील के अधिकार के दो आवश्यक तत्व हैं – एक, कैदी को निर्णय की प्रति समय पर उपलब्ध कराना ताकि वह अपील प्रस्तुत कर सके, तथा दूसरा, गरीब या किसी भी तरह से कानूनी सहायता प्राप्त करने में असमर्थ कैदी को निःशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराना। यह सलाह दी गई कि जेल मैनुअल को संशोधित किया जाना चाहिए और इसमें यह निर्देश जोड़ा जाना चाहिए तथा राज्य को कैदी को फैसले की एक प्रति उपलब्ध करानी चाहिए। न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने कहा, “यह राज्य का कर्तव्य है, न कि सरकार का दान।” यदि कोई कैदी कानूनी सहायता के अभाव में अपील के अपने अधिकार के साथ-साथ अपील करने की विशेष अनुमति का प्रयोग करने में सक्षम नहीं है, तो न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 21 और 39-A के साथ अनुच्छेद 142 के अनुसार कैदी के लिए वकील चुन सकता है। 

निःशुल्क कानूनी सहायता

चूंकि एक वकील द्वारा प्रतिनिधित्व पाने का अधिकार निष्पक्ष सुनवाई के लिए महत्वपूर्ण है, इसलिए यह सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि लोगों के पास अपने बचाव के लिए वकील नियुक्त करने हेतु आवश्यक संसाधन उपलब्ध हों। यह समझना आवश्यक है कि अदालती कार्यवाही में, निर्धन लोगों को निष्पक्ष सुनवाई से वंचित होने का खतरा रहता है, यदि उन्हें कानूनी सेवाओं तक समान पहुंच नहीं मिलती, जो विरोधी पक्ष को उपलब्ध होती हैं। अनुच्छेद 39-A में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि निःशुल्क कानूनी सहायता का प्रावधान करना राज्य का दायित्व है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी को न्याय पाने का समान अवसर मिले। 

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 भी धारा 304 के तहत विशिष्ट मामलों में राज्य के खर्च पर अभियुक्त को कानूनी सहायता प्रदान करने का प्रावधान करती है। 

विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 में निर्धन लोगों को कानूनी सहायता सुनिश्चित करने के लिए तंत्र की स्थापना की भी परिकल्पना की गई है। 

महाराष्ट्र राज्य बनाम मनुभाई प्रागजी वाशी (1995) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निःशुल्क कानूनी सहायता के अधिकार के दायरे को व्यापक बनाया। न्यायालय ने कहा कि “निःशुल्क कानूनी सहायता” प्रदान करने के लिए, देश में समुचित रूप से योग्य कानूनी पेशेवरों का होना आवश्यक है। यह तभी संभव है जब देश में समुचित बुनियादी ढांचे के साथ पर्याप्त संख्या में विधि महाविद्यालय हों। इसने सरकार को विधि महाविद्यालयों को सहायता अनुदान प्रदान करने के अपने कर्तव्य की भी याद दिलाई। 

सुक दास बनाम संघ शासित प्रदेश अरुणाचल प्रदेश (1986) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि राज्य के खर्च पर किसी अभियुक्त को निःशुल्क  कानूनी सहायता प्रदान करने में चूक, सिवाय इसके कि जब अभियुक्त द्वारा मना कर दिया जाए, तो मुकदमे को अमान्य माना जाएगा। अभियुक्त को इसके लिए अनुरोध करने की आवश्यकता नहीं है। राज्य के खर्च पर निःशुल्क कानूनी सेवा अभियुक्त का मौलिक अधिकार है और यह अधिकार अनुच्छेद 21 द्वारा दी गई उचित, निष्पक्ष और न्यायपूर्ण प्रक्रिया की आवश्यकता में अंतर्निहित है। अभियुक्त को इस अधिकार से इस कारण इनकार नहीं किया जा सकता कि उसने इसके लिए आवेदन नहीं किया है। मजिस्ट्रेट का यह कर्तव्य है कि वह अभियुक्त को इस अधिकार से परिचित कराए। 

मामले के तथ्य

यह कुख्यात मामला भागलपुर केंद्रीय जेल के अंदर कुछ कैदियों को अंधा करने से जुड़ा था। यह हिरासत में यातना के सबसे बुरे मामलों में से एक था, जहां पुलिस अधिकारियों ने कई विचाराधीन कैदियों पर तेजाब डालकर उन्हें अंधा कर दिया था। इस मामले में संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत अंधे कैदियों की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण (हेबियस कॉर्पस) याचिका दायर की गई थी। राज्य सरकार तथा भागलपुर केंद्रीय जेल के सहायक जेलर द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष जवाबी हलफनामा दायर किया गया। राज्य ने अंधे कैदियों के संबंध में विभिन्न बयान भी प्रस्तुत किए, जो इस मामले को देख रहे न्यायिक मजिस्ट्रेटों के रिकॉर्ड से लिए गए थे। सत्र न्यायाधीश ने सर्वोच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार को एक पत्र भी भेजा जिसमें उल्लेख किया गया कि पत्र में उल्लिखित कारणों से, सत्र न्यायाधीश द्वारा 1980 में भागलपुर केंद्रीय जेल का कोई सर्वेक्षण नहीं कराया गया था। रजिस्ट्रार ने अंधे कैदियों के बयानों की प्रतिलिपियां और जेल के पूर्व अधीक्षक बी.एल.दास का बयान भी सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया।

जबकि कुछ कैदियों को जमानत दे दी गई, अन्य बिना किसी रिमांड आदेश के भयानक परिस्थितियों में कष्ट भोगते रहे। अंधे कैदियों को बाद में नई दिल्ली स्थित राजेंद्र प्रसाद नेत्र चिकित्सा संस्थान में स्थानांतरित कर दिया गया। हालाँकि, कैदियों की दृष्टि इतनी क्षतिग्रस्त हो गई थी कि किसी भी शल्य (सर्जरी) चिकित्सा या चिकित्सा उपचार से उसे ठीक नहीं किया जा सका। 

सर्वोच्च न्यायालय में कई रिट याचिकाएं दायर की गईं। संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर एक याचिका में याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि पुलिस अधिकारियों द्वारा कैदियों को प्रताड़ित किया गया। पुलिस राज्य के अधिकार के तहत काम कर रही थी। इस प्रकार, याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि राज्य अनुच्छेद 21 के तहत उनके मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए अंधे कैदियों को मुआवजा देने के लिए उत्तरदायी है। 

उठाए गए मुद्दे 

इस मामले में मुख्य मुद्दे थे:- 

  1. क्या बिहार राज्य अंधे कैदियों के आवास का खर्च वहन करने के लिए बाध्य था, जब उन्हें दिल्ली के नेत्रहीन सहायता संगठन (ब्लाइंड रिलीफ एसोसियेशन) द्वारा संचालित आश्रय में रखा गया था? 
  2. क्या बिहार राज्य अनुच्छेद 21 के तहत अंधे कैदियों के मौलिक अधिकार के उल्लंघन के लिए उन्हें मुआवजा देने के लिए बाध्य था या नहीं? 
  3. क्या बिहार राज्य निर्धन अभियुक्त व्यक्तियों के लिए निःशुल्क कानूनी सेवाओं का प्रावधान करने के लिए बाध्य है या नहीं? 

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ता

अंधे व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ता ने चिंता व्यक्त की कि पीड़ितों के लिए भागलपुर लौटना खतरनाक हो सकता है, विशेषकर ऐसे समय में जब अंधेपन के अपराधों की जांच चल रही हो। यह भी तर्क दिया गया कि अंधे पीड़ितों को राज्य के खर्च पर नई दिल्ली में आवास की कुछ व्यवस्था की जानी चाहिए। 

याचिकाकर्ताओं की ओर से उठाया गया एक अन्य मुद्दा यह था कि अनुच्छेद 21 के तहत अंधे कैदियों के मौलिक अधिकार के उल्लंघन के लिए राज्य का दायित्व उन्हें मुआवजा देना है। यह भी तर्क दिया गया कि अंधे कैदियों को पुलिस कर्मियों जो राज्य के लिए काम करने वाले सरकारी कर्मचारी थे द्वारा दृष्टिहीन छोड़ दिया गया था, और चूंकि यह अनुच्छेद 21 के तहत अधिकार का उल्लंघन था, इसलिए राज्य अंधे व्यक्तियों को मुआवजा देने के लिए बाध्य था। 

प्रतिवादी

राज्य की ओर से उपस्थित अधिवक्ता ने तर्क दिया कि यह अभी भी साबित नहीं हुआ है कि अंधा करने का काम पुलिस ने किया था, क्योंकि जांच अभी भी जारी है। यह भी तर्क दिया गया कि भले ही पुलिस ने कैदियों को अंधा कर दिया हो और अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो, फिर भी राज्य को पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए। 

कानून जिन पर चर्चा की गई 

अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार – निःशुल्क कानूनी सहायता का अधिकार

अनुच्छेद 21 में प्रावधान है कि “किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।” मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) के फैसले के बाद, ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ शब्द का दायरा काफी हद तक विस्तारित हो गया है। इस प्रावधान में प्रयुक्त शब्द ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ का दायरा व्यापक है तथा इसमें विविध प्रकार के अधिकार शामिल हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक मामलों में माना है कि निःशुल्क कानूनी सहायता का अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार है। 

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः अनुच्छेद 21 के तहत निःशुल्क कानूनी सेवाओं के महत्व को समझाया। न्यायालय ने राज्य को अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धता की याद दिलाई कि यदि कोई अभियुक्त गरीबी या किसी अन्य बाधा के कारण वकील का खर्च वहन नहीं कर सकता तो उसे निःशुल्क  कानूनी सहायता उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाएगी। 

अनुच्छेद 22: कुछ मामलों में गिरफ्तारी और हिरासत से संरक्षण – 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने का अधिकार

अनुच्छेद 22(2) के अनुसार गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए। न्यायिक हिरासत के तहत इसे 24 घंटे से अधिक बढ़ाया जा सकता है। मजिस्ट्रेट के आदेश के अलावा किसी को भी 24 घंटे से अधिक के लिए रिमांड पर नहीं रखा जा सकता। यदि गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने में चूक की जाती है, तो गिरफ्तारी गैरकानूनी मानी जाएगी। 

इस मामले में कुछ अभियुक्तों को 24 घंटे की निर्धारित अवधि में न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया गया। न्यायालय ने राज्य और उसकी पुलिस को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि अभियुक्त को निर्धारित समय में न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने की संवैधानिक और कानूनी आवश्यकता का ठीक से पालन किया जाए। कुछ अभियुक्तों को प्रारंभिक पेशी के बाद मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया गया और बिना किसी रिमांड आदेश के उन्हें जेल में रखा गया। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य को ऐसी अनियमितताओं की जांच करने और यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि भविष्य में कानून का ऐसा उल्लंघन न हो। 

अनुच्छेद 32: संवैधानिक उपचार का अधिकार – रिट याचिका

अनुच्छेद 32 को संविधान का सार कहा जा सकता है। मौलिक अधिकारों की घोषणा तब तक निरर्थक है जब तक उन अधिकारों के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) के लिए एक कुशल तंत्र नहीं बना दिया जाता। बिना उपचार के अधिकार निरर्थक है। इस प्रकार, इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए, संविधान निर्माताओं द्वारा अनुच्छेद 32 को संविधान में शामिल किया गया। 

अनुच्छेद 32(1) संविधान के भाग III द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के कार्यान्वयन के लिए “उचित कार्यवाही” द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध करने का अधिकार निर्धारित करता है। अनुच्छेद 32(2) सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के भाग III द्वारा प्रदत्त किसी भी अधिकार के कार्यान्वयन के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश (मैंडामस), प्रतिषेध (प्रोहिबिशन), अधिकार-पृच्छा (क्यू-वॉरंटो) और उत्प्रेषण (सर्टिओरारी) जैसे उचित निर्देश, आदेश या रिट जारी करने का अधिकार देता है। 

रिट को न्यायालय द्वारा जारी आधिकारिक आदेश के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसलिए, रिट याचिका न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया एक आवेदन है, जिसमें एक विशिष्ट रिट जारी करने की मांग की जाती है। 

अनुच्छेद 39-A: निःशुल्क कानूनी सहायता

अनुच्छेद 39-A राज्य को यह कर्तव्य सौंपता है कि वह यह सुनिश्चित करे कि कानूनी प्रणाली का कार्यकरण समान अवसर पर आधारित न्याय को बढ़ावा दे तथा उचित कानून या योजनाओं या किसी अन्य तरीके से निःशुल्क कानूनी सहायता की विशेष रूप से व्यवस्था करे।

कानूनी सहायता को संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार माना गया है, जो सभी अभियुक्तों को प्रदान किया गया है तथा न्यायालय द्वारा इसका निष्पादन किया जा सकता है। राज्य निर्धन लोगों को कानूनी सहायता प्रदान करने के अपने कर्तव्य से बंधा है, जैसा कि एम.एच. होसकोट बनाम महाराष्ट्र राज्य और हुसैनारा खातून IV मामले में निर्णय दिया गया है। 

मामले का फैसला

सर्वोच्च न्यायालय ने रिकॉर्ड से स्पष्ट अनियमितताओं को नोटिस किया। कुछ मामलों में, अभियुक्तों को गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंतराल में न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया गया, जैसा कि अनुच्छेद 22(2) में अनिवार्य है। न्यायालय ने राज्य और उसकी पुलिस को दृढ़तापूर्वक सिफारिश की कि वे यह सुनिश्चित करें कि अभियुक्त को निर्धारित समय के भीतर न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने की संवैधानिक और कानूनी आवश्यकता का सख्ती से पालन किया जाए। न्यायिक मजिस्ट्रेट के रिकॉर्ड से यह भी स्पष्ट हुआ कि कुछ मामलों में, अभियुक्तों को उनकी प्रारंभिक उपस्थिति के बाद न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश नहीं किया गया तथा न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए किसी रिमांड आदेश के अभाव में वे जेल में ही रहे। यह स्पष्टतः अवैध था। 

न्यायालय ने किसी रिमांड आदेश के अभाव में अभियुक्त को जेल में रखने की राज्य सरकार की कार्रवाई की भी आलोचना की थी। यह सलाह दी गई कि राज्य को इस बात की जांच करनी चाहिए कि इस अनियमितता की अनुमति क्यों दी गई तथा यह देखना चाहिए कि भविष्य में कानून का ऐसा उल्लंघन न हो। रिमांड के अभाव में हिरासत पर रोक लगाने का प्रावधान एक महत्वपूर्ण प्रावधान है जो मजिस्ट्रेट को जांच पर नजर रखने का अधिकार देता है और यह महत्वपूर्ण है कि मजिस्ट्रेट इस अपेक्षा को लागू करने का प्रयास करें और जब यह पूरा नहीं होता है, तो मजिस्ट्रेट को पुलिस को कड़ी फटकार लगानी चाहिए। 

सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि अस्पताल से रिहा किये गये अंधे कैदियों को दिल्ली नेत्रहीन सहायता संगठन द्वारा संचालित आश्रय गृह में रखा जाना चाहिए। न्यायालय ने बिहार राज्य को आश्रय गृह में उनके रहने का खर्च वहन करने का भी आदेश दिया। 

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि कोई अभियुक्त गरीबी या अन्य अक्षमताओं से ग्रस्त है तो मुकदमे के सभी चरणों में उसे निःशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराना राज्य का संवैधानिक दायित्व है। न्यायालय ने पुलिस के इस शर्मनाक कार्य के लिए राज्य को भी उत्तरदायी ठहराया, क्योंकि इससे अनुच्छेद 21 के तहत कैदियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, क्योंकि पुलिस सीधे राज्य द्वारा नियोजित होती है। 

इस निर्णय के पीछे तर्क

राज्य द्वारा प्रस्तुत विवरण तथा विभिन्न अंधे कैदियों के मामलों पर विचार करने वाले विभिन्न न्यायिक मजिस्ट्रेटों के रिकॉर्ड से यह स्पष्ट था कि न तो उस समय जब अंधे कैदियों को न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया गया था, और न ही उस समय जब रिमांड आदेश जारी किए गए थे, अधिकांश अंधे कैदियों के लिए कोई कानूनी वकील मौजूद नहीं था। अंधे कैदियों को सरकारी खर्च पर कानूनी परामर्श उपलब्ध न कराने का एकमात्र कारण यह बताया गया कि उनमें से किसी ने भी इसके लिए अनुरोध नहीं किया था। 

इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ अंधे पीड़ितों को छोड़कर, जिन्हें रिमांड के बाद के चरणों में उनके लिए वकील मिल गए, उनमें से अधिकांश के पास कोई वकील नहीं था। उनमें से कुछ को छोड़कर, जिन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया, बाकी सभी जेल में कष्ट भोगते रहे। न्यायालय ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि हुसैनारा खातून (IV) (1979) मामले में निर्णय सुनाए जाने के बाद भी ऐसी भयावह स्थिति कैसे बनी रह सकती है। हुसैनारा खातून (IV) मामले में दिए गए फैसले में स्पष्ट किया गया कि निःशुल्क कानूनी सेवाएं अनुच्छेद 21 के तहत उचित, निष्पक्ष और न्यायसंगत प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण घटक हैं। 

यदि आवश्यकता पड़े तो परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए राज्य का यह संवैधानिक कर्तव्य है कि वह अभियुक्त के लिए वकील की व्यवस्था करे। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्य को वित्तीय या प्रशासनिक अक्षमता दिखाकर अपने संवैधानिक कर्तव्य की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। स्थिति के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय ने रेम बनाम मैल्कम (1974) के फैसले का हवाला देते हुए कहा, “कानून किसी भी सरकार को गरीबी के आधार पर अपने नागरिकों को संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने की अनुमति नहीं देता है।” 

हालांकि, फिर भी, निःशुल्क  कानूनी सेवाओं का यह विशेषाधिकार एक गरीब अभियुक्त के लिए तब तक भ्रामक होगा जब तक कि मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायाधीश, जिसके सामने उसे पेश किया जाता है, उसे इस अधिकार के बारे में परिचित नहीं करा देता। यह सर्वविदित है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 70 प्रतिशत आबादी अशिक्षित है तथा फिर भी बड़ी संख्या में लोग कानून द्वारा उन्हें दिए गए अधिकारों से अनभिज्ञ हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कानूनी सहायता के बारे में जागरूकता फैलाने के महत्व पर भी जोर दिया। इस मामले में, न्यायिक मजिस्ट्रेट अंधे कैदियों के संबंध में इस कर्तव्य को पूरा करने में असफल रहे और सिर्फ यह उल्लेख किया गया कि अंधे कैदियों द्वारा किसी कानूनी प्रतिनिधित्व का अनुरोध नहीं किया गया था। 

इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय ने देश के मजिस्ट्रेटों और सत्र न्यायाधीशों को आदेश दिया कि वे उन सभी अभियुक्तों को अधिसूचित करें जो उनके समक्ष उपस्थित होते हैं और जिनका प्रतिनिधित्व वित्तीय संसाधनों की कमी या अक्षमता के कारण कानूनी वकील द्वारा नहीं किया जा रहा है कि उन्हें राज्य के खर्च पर निःशुल्क  कानूनी सेवाएं प्राप्त करने की अनुमति है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार और देश के अन्य राज्यों को निर्देश दिया कि वे उन आरोपियों के लिए निःशुल्क  कानूनी सेवाओं की व्यवस्था करें जो वित्तीय साधनों की कमी के कारण वकील रखने में असमर्थ हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि सामाजिक न्याय की आवश्यकता यह है कि अभियुक्त को निःशुल्क कानूनी प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। 

इस मामले में उल्लिखित ऐतिहासिक निर्णय

इस मामले में संदर्भित दो मुख्य मामले थे हुसैनारा खातून एवं अन्य बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य (1979) और रेम बनाम मैल्कम (1974)। 

हुसैनारा खातून एवं अन्य बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य (1979)

इस मामले में संदर्भित महत्वपूर्ण निर्णयों में से एक हुसैनारा खातून एवं अन्य बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य (1979) था;  इसे हुसैनारा खातून चतुर्थ निर्णय के नाम से भी जाना जाता है। इस मामले में, यह देखा गया कि ऐसे कई विचाराधीन कैदी थे, जिन पर जमानतीय अपराधों का आरोप था, लेकिन वे अभी तक जेल में थे, क्योंकि उनकी ओर से कोई जमानत आवेदन दायर नहीं किया गया था या वे इतने गरीब थे कि जमानत देने में असमर्थ थे। यह कहा गया कि यह देखना असामान्य नहीं है कि मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किए गए विचाराधीन कैदी जमानत पर रिहा होने के अपने विशेषाधिकार से अनभिज्ञ थे और अपनी गरीबी के कारण वे वकील नियुक्त करने में असमर्थ थे, जो उन्हें जमानत के लिए आवेदन करने के उनके अधिकार के बारे में बता सके और इस संबंध में मजिस्ट्रेट के समक्ष उपयुक्त आवेदन प्रस्तुत करके जमानत पर रिहा होने में उनकी सहायता कर सके। 

प्रायः मजिस्ट्रेट भी अपने समक्ष प्रस्तुत विचाराधीन कैदियों को निजी बॉन्ड पर रिहा करने से मना कर देते थे, तथा इसके बदले में जमानत के साथ मौद्रिक जमानत मांगते थे, जिसे वित्तीय संसाधनों की कमी के कारण विचाराधीन कैदी देने में असमर्थ होते थे, तथा इस प्रकार उनके लिए परीक्षण-पूर्व हिरासत से मुक्त होने की कोई भी संभावना समाप्त हो जाती थी। इस स्थिति में पर्याप्त एवं सम्पूर्ण विधिक सेवा कार्यक्रम शुरू करने की आवश्यकता थी। गरीबों को कानूनी सहायता सुलभ कराने, उन्हें अन्याय से बचाने तथा उन्हें उनके संवैधानिक एवं वैधानिक अधिकारों की गारंटी देने के लिए, लोगों को निःशुल्क  कानूनी सेवाएं प्रदान करने के लिए एक राष्ट्रीय विधिक सेवा कार्यक्रम होना चाहिए। मेनका गांधी निर्णय के बाद, यह प्रभावी रूप से स्थापित हो गया है कि जब अनुच्छेद 21 में यह प्रावधान है कि किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा प्रदत्त प्रक्रिया के अनुरूप होने के अलावा उसके जीवन या स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है कि कानून द्वारा कुछ प्रक्रिया प्रदान की गई है, लेकिन जिस प्रक्रिया के द्वारा किसी व्यक्ति को उसके जीवन या स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है वह उचित, निष्पक्ष और न्यायसंगत होनी चाहिए। ऐसी प्रक्रिया जो यह सुनिश्चित नहीं करती कि कानूनी सेवाएं ऐसे व्यक्ति को सुलभ हों जो गरीब है और अपने लिए वकील नहीं ले सकता, उसे उचित, निष्पक्ष या न्यायसंगत नहीं माना जा सकता। गरीबों और वंचितों को निःशुल्क  कानूनी सेवाएं किसी भी उचित, निष्पक्ष और न्यायसंगत प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण घटक है। 

रेम बनाम मैल्कम (1974)

सर्वोच्च न्यायालय ने एक अमेरिकी मामले, रेम बनाम मैल्कम (1974) का भी उल्लेख किया। यह मामला मैनहट्टन हाउस ऑफ डिटेंशन (एमएचडी) में बंद विचाराधीन बंदियों से संबंधित था, जिन्हें शीघ्र सुनवाई के लिए संवैधानिक अधिकार से वंचित किया जा रहा था, क्योंकि उसके पास प्रशासनिक और न्यायिक तंत्र के आधुनिकीकरण पर खर्च करने के लिए वित्तीय संसाधन नहीं थे, ताकि शीघ्र सुनवाई की गारंटी दी जा सके। यह माना गया कि यद्यपि सरकार की वित्तीय सीमाएं और व्यय प्राथमिकताएं हो सकती हैं, तथापि कानून किसी भी सरकार को संसाधनों की कमी के आधार पर अपने नागरिकों को मौलिक अधिकारों से वंचित नहीं करता है। 

मामले का विश्लेषण

इस मामले ने एक बार फिर राज्य और जेल अधिकारियों के लापरवाह रवैये को उजागर किया है, जब बात कैदियों के साथ-साथ अपराध के अभियुक्त लोगों के अधिकारों की आती है। रिकार्ड से पता चला कि कुछ अंधे कैदियों को कानून के अनुसार 24 घंटे के भीतर न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया गया। अधिकांश अंधे कैदियों के पास कोई कानूनी सलाहकार नहीं था, जिसे प्रदान करना राज्य के लिए बाध्यता थी। ये गंभीर चिंता के विषय थे। 

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राज्य को आर्थिक या प्रशासनिक कठिनाई का दावा करके गरीब अभियुक्तों को निःशुल्क कानूनी सेवाएं प्रदान करने के अपने संवैधानिक कर्तव्य से बचना नहीं चाहिए। यह एक संवैधानिक निर्देश है और राज्य को कानूनी सहायता का भुगतान करने में असमर्थ लोगों को कानूनी सहायता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे। 

निर्धन अभियुक्त को निःशुल्क कानूनी सेवाएं प्रदान करने का संवैधानिक कर्तव्य सिर्फ तब ही उत्पन्न नहीं होता जब मुकदमा शुरू होता है, बल्कि यह तब भी आवश्यक हो जाता है जब अभियुक्त को प्रारंभिक चरण में मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है। चूंकि इस चरण में उन्हें जमानत के लिए आवेदन करने का पहला मौका मिलता है और वे रिहा हो जाते हैं, साथ ही पुलिस या न्यायिक हिरासत से भी बच जाते हैं। यही वह समय है जब अभियुक्त के लिए कानूनी सहायता सबसे महत्वपूर्ण होती है। 

निःशुल्क कानूनी सेवाओं का अधिकार तब तक काल्पनिक ही रह सकता है जब तक मजिस्ट्रेट या न्यायालय, जिसके समक्ष अभियुक्त को पेश किया जाता है, अभियुक्त को इस अधिकार के बारे में सूचित नहीं करता। इस प्रकार, इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने मजिस्ट्रेटों और सत्र न्यायालयों को सलाह दी कि वे उनके समक्ष उपस्थित होने वाले प्रत्येक आरोपी को, जो गरीबी या विकलांगता के कारण कानूनी वकील द्वारा प्रतिनिधित्व नहीं कर पाता है, राज्य के खर्च पर निःशुल्क  कानूनी सेवाओं के उसके अधिकार के बारे में सूचित करें। 

सर्वोच्च न्यायालय ने देश में कानूनी सहायता के बारे में जागरूकता की कमी पर भी प्रकाश डाला। इस संबंध में यह उल्लेखनीय है कि आजकल देश में निःशुल्क कानूनी सहायता के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए विभिन्न सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों द्वारा कानूनी सहायता एवं कानूनी जागरूकता शिविरों का आयोजन किया जा रहा है। साक्षरता की कमी, विशेषकर कानूनी साक्षरता की कमी हमारे देश में एक समस्या है और इस समस्या पर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है। 

निःशुल्क कानूनी सहायता का अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार है। अनुच्छेद 39-A में “समान न्याय” और “निःशुल्क कानूनी सहायता” की बात कही गई है। कानून के शासन द्वारा प्रशासित एक सभ्य राष्ट्र में, राज्य का एक प्रमुख कर्तव्य एक कुशल कानूनी प्रणाली का होना है। “उपयुक्त कानून या योजनाओं द्वारा निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करना” शब्दों को शामिल किया गया है ताकि आर्थिक व अन्य कारणों से किसी को भी न्याय प्राप्त करने के अवसरों से वंचित न किया जाए। अनुच्छेद 39-A में प्रयुक्त ये शब्द बहुत महत्वपूर्ण हैं। 

यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी जरूरतमंद नागरिकों को कानूनी सहायता उपलब्ध हो, विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 लागू किया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य समाज के सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों को निःशुल्क एवं गुणवत्तापूर्ण कानूनी सेवाएं प्रदान करना है। निःशुल्क कानूनी सहायता के महत्व को अब न्यायपालिका और विधायिका दोनों ने ही महसूस किया है। कानूनी सहायता के बिना न्याय की आवश्यकताएं पूरी नहीं हो सकतीं। 

आज इस मामले की प्रासंगिकता 

यह मामला आज भी हिरासत में यातना के सबसे बर्बर मामलों में से एक के रूप में याद किया जाता है। इस मामले में गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने के अधिकार के महत्व पर प्रकाश डाला गया। इस मामले से यह पता चला कि अभियुक्त व्यक्तियों, विशेषकर निर्धन और वंचित अभियुक्त व्यक्तियों के अधिकारों के मुद्दे पर अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। 

यह मामला आज भी ऐतिहासिक निर्णयों में से एक है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने निःशुल्क कानूनी सहायता के साथ-साथ कानूनी जागरूकता के महत्व पर प्रकाश डाला था। सर्वोच्च न्यायालय ने मजिस्ट्रेटों और सत्र न्यायाधीशों को अभियुक्तों को निःशुल्क कानूनी सेवाओं के बारे में जानकारी देने के उनके कर्तव्य की भी याद दिलाई। यद्यपि, इस मामले में निर्णय के बाद विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 लागू किया गया, लेकिन यह मामला अभी भी अपना महत्व बनाए हुए है और राज्य को वंचित अभियुक्त व्यक्तियों के प्रति अपने दायित्वों की याद दिलाता है। 

Lawshikho

निष्कर्ष

इस मामले में, निर्धन अभियुक्तों को निःशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराने की तात्कालिकता फिर से सामने आई। न्याय की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए यह अधिकार अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह मामला भागलपुर सेंट्रल जेल में बंद अंधे कैदियों के मुद्दे से जुड़ा था। इस मामले में विवाद के मुख्य बिंदु ये थे कि क्या बिहार राज्य को निर्धन अभियुक्तों को निःशुल्क  कानूनी सहायता देनी चाहिए और क्या राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अनुच्छेद 21 के तहत उनके मौलिक अधिकार के उल्लंघन के लिए अंधे अभियुक्तों को मुआवजा दे। 

सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि रिकॉर्ड से विसंगतियां सामने आई हैं। कुछ अंधे आरोपियों को कानून की आवश्यकता के अनुसार न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया गया। न्यायालय ने बिहार राज्य तथा उसकी पुलिस को सख्त निर्देश दिया कि वे यह सुनिश्चित करें कि अभियुक्त को न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करने की संवैधानिक तथा कानूनी अनिवार्यता का पालन किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि अधिकांश अंधे कैदियों को न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने के समय तथा रिमांड आदेश पारित किए जाने के समय कोई कानूनी प्रतिनिधित्व उपलब्ध नहीं था। कानूनी सहायता उपलब्ध न कराने के पीछे यह बहाना दिया गया कि उन्होंने इसकी मांग ही नहीं की थी। निःशुल्क कानूनी सहायता के बारे में जागरूकता की कमी तथा अभियुक्तों को निःशुल्क कानूनी सहायता के अधिकार से परिचित कराने की मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायाधीश की जिम्मेदारी पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने बल दिया। बिहार राज्य के साथ-साथ अन्य राज्यों को निर्देश दिया गया कि वे आर्थिक या अन्य अक्षमताओं से विवश व्यक्तियों को निःशुल्क कानूनी सहायता सुनिश्चित करें। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

निःशुल्क कानूनी सहायता से आप क्या समझते हैं?

निःशुल्क कानूनी सहायता का तात्पर्य समाज के आर्थिक रूप से वंचित वर्गों को निःशुल्क कानूनी सेवाएं प्रदान करना है। इसका अर्थ उन लोगों को निःशुल्क  कानूनी सहायता प्रदान करना है जो गरीबी या अन्य अक्षमताओं के कारण वकील की सेवाएं लेने में असमर्थ हैं। 

क्या निःशुल्क कानूनी सहायता एक संवैधानिक अधिकार, मौलिक अधिकार या वैधानिक अधिकार है?

सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत ‘जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार’ के अर्थ में निःशुल्क कानूनी सहायता को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है। अनुच्छेद 39-A राज्य पर उन लोगों को निःशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराने का दायित्व भी डालता है जो कानूनी सहायता प्राप्त करने में असमर्थ हैं। इसके अलावा, निःशुल्क कानूनी सहायता को विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 द्वारा वैधानिक मान्यता भी दी गई है। इसलिए, नि:शुल्क कानूनी अधिकार एक संवैधानिक अधिकार, एक मौलिक अधिकार और एक वैधानिक अधिकार भी है। 

संदर्भ

  • डॉ. जे.एन. पांडे; भारत का संवैधानिक कानून; केंद्रीय विधि एजेंसी
  • आर.वी. केलकर; आपराधिक प्रक्रिया; ईस्टर्न बुक कंपनी

 

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