मंजूरी के अभाव में लोक सेवकों पर बाद में अभियोजन- दोहरा खतरा

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Criminal Procedure Code
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यह लेख Gaurav Thote ने लिखा है, जो की एक वकील हैं। इस लेख में, उन्होने दोहरे खतरे (डबल जियोपार्डी) के सिद्धांत (डॉक्ट्रिन) और लोक सेवकों के खिलाफ मुकदमा चलाने पर चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

18 जून, 2020 को (2020 की आपराधिक अपील संख्या 458 (2018 का एसएलपी नंबर 1882)) में सर्वोच्च न्यायालय ने एक पुलिस अधिकारी के खिलाफ मंजूरी की कमी के लिए दर्ज की गयी एक शिकायत को खारिज कर दिया था, यह देखते हुए कहा गया कि अपराध उनके कर्तव्य के तहत एक कार्य से संबंधित था। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को खारिज करते हुए कहा कि-

“हमारी राय में, उच्च न्यायालय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता (कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर), 1973 की धारा 482 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) का प्रयोग करने से इनकार करने में स्पष्ट रूप से गलती की है, और मजिस्ट्रेट के आदेश को रद्द करने के लिए शिकायत का संज्ञान (कॉग्निजेंस) लेना होगा, तथा यह मानना होगा कि यह मान्यता प्राप्त कानून का सिद्धांत है कि मंजूरी एक कानूनी आवश्यकता थी जो न्यायालय को संज्ञान लेने का अधिकार देती है। अदालत को अपनी शक्ति का प्रयोग, शिकायत को खारिज करने की बजाय आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 245 के तहत अपीलकर्ता को आरोप से मुक्त करने के लिए करना चाहिए था।”

यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि क्या लोक सेवक पर मुकदमा चलाने के लिए मंजूरी प्राप्त करने के बाद स्थापित किया गया, एक बाद का मुकदमा, दोहरे खतरे के सिद्धांत का उल्लंघन करेगा।

दोहरे खतरे का सिद्धांत एक कहावत पर आधारित है ‘निमो डेबेट बिस वेक्सारी’ जिसका अर्थ ‘किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार दंड नहीं मिलना चाहिए’ है। राज्य बनाम नलिनी में सर्वोच्च न्यायालय ने स्थापित करने के लिए, प्रसिद्ध कहावत “निमो डिबेट बिस वेक्सारी प्रो ईडेम कॉसा” (किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार दंड नहीं होना चाहिए) को अच्छी तरह से स्थापित सामान्य कानून नियम का प्रतीक बताया और कहा कि किसी के भी साथ ऐसा नहीं होना चाहिए कि उसे एक ही अपराध के लिए दो बार ​​सजा दी जाए।

भारत के संविधान का अनुच्छेद 20 (2) अपने दायरे में “ऑट्रोफॉइस अपराधी” की याचिका को शामिल करता है जो दोहरे खतरे के सिद्धांत पर आधारित है, जिसमें कहा गया है कि-

“भारतीय संविधान का अनुच्छेद 20- अपराधों के लिए दोषसिद्धि (कन्विक्शन) के संबंध में संरक्षण (प्रोटेक्शन)

(2) किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित (प्रोसीक्यूशन) और दंडित नहीं किया जाएगा।”

दंड प्रक्रिया संहिता के तहत दोहरा खतरा-

सी.आर.पी.सी की धारा 300 भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(2) पर आधारित है और इसके अंदर “ऑट्रेफॉइस एक्विट” का आवेदन (एप्लीकेशन) शामिल है जो अनिवार्य रूप से पिछले दोषमुक्ति (एक्विटल) को दर्शाता है। सी.आर.पी.सी की धारा 300 में कहा गया है कि-

“धारा 300- एक बार दोषसिद्ध या दोषमुक्त किए गए व्यक्ति का विचारण (ट्राइ), उसी अपराध के लिए  न किया जाना चाहिए—

  1. जिस व्यक्ति का किसी अपराध के लिए सक्षम अधिकारिता (कम्पीटेंट ज्यूरिस्डिक्शन) वाले न्यायालय द्वारा एक बार विचारण किया जा चुका है और जो ऐसे अपराध के लिए दोषसिद्ध या दोषमुक्त किया जा चुका है, तो जब तक ऐसी दोषसिद्धि या दोषमुक्ति प्रवृत्त (इन फ़ोर्स) रहती है, तब तक वह न तो उसी अपराध के लिए विचारण का भागी होगा और न ही उन्हीं तथ्यों पर किसी ऐसे अन्य अपराध के लिए विचारण का भागी होगा जिसके लिए उसके विरुद्ध लगाए गए आरोप से भिन्न आरोप, धारा 221 की उपधारा (1) के अधीन लगाए जा सकते थे या जिसके लिए वह उसकी उपधारा (2) के अधीन दोषसिद्ध किया जा सकता था।
  2. किसी अपराध के लिए दोषमुक्त या दोषसिद्ध किए गए किसी व्यक्ति का विचारण, तत्पश्चात् (उसके बाद) राज्य सरकार की सम्मति से किसी ऐसे भिन्न अपराध के लिए किया जा सकता है जिसके लिए पूर्वगामी विचारण (फॉर्मर ट्रायल) में उसके विरुद्ध धारा 220 की उपधारा (1) के अधीन पृथक् (सेपरेट) आरोप लगाया जा सकता था।
  3. जो व्यक्ति किसी ऐसे कार्य से बनने वाली किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध किया गया है, जो ऐसे परिणाम पैदा करता है जो उस कार्य से मिलकर उस अपराध से, जिसके लिए वह दोषसिद्ध हुआ है, उससे भिन्न कोई अपराध बनाते हैं, उसका ऐसे अन्तिम वर्णित अपराध के लिए तत्पश्चात् विचारण किया जा सकता है, यदि उस समय जब वह दोषसिद्ध किया गया था वे परिणाम हुए नहीं थे या उनका होना न्यायालय को ज्ञात नहीं था।
  4. जो व्यक्ति किन्हीं कार्यों से बनने वाले किसी अपराध के लिए दोषमुक्त या दोषसिद्ध किया गया है, उस पर ऐसी दोषमुक्ति या दोषसिद्धि के होने पर भी, उन्हीं कार्यों से बनने वाले और उसके द्वारा किए गए किसी अन्य अपराध के लिए तत्पश्चात् आरोप लगाया जा सकता है और उसका विचारण किया जा सकता है। यदि वह न्यायालय, जिसके द्वारा पहले उसका विचारण किया गया था, उस अपराध के विचारण के लिए सक्षम नहीं था जिसके लिए बाद में उस पर आरोप लगाया जाता है।
  5. धारा 258 के अधीन उन्मोचित (डिस्चार्ज) किए गए व्यक्ति का उसी अपराध के लिए पुनः विचारण उस न्यायालय की, जिसके द्वारा वह उन्मोचित किया गया था, अन्य किसी ऐसे न्यायालय की जिसके प्रथम वर्णित न्यायालय अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) है, सम्मति के बिना नहीं किया जाएगा।
  6. इस धारा की कोई बात साधारण खंड अधिनियम (जेनरल क्लॉसेस एक्ट), 1897 (1897 का 10) की धारा 26 के या इस संहिता की धारा 188 के उपबंधों (प्रोविशंस) पर प्रभाव नहीं डालेगी।”

सी.आर.पी.सी की धारा 300 के अलावा, सी.आर.पी.सी की धारा 386 को सम्बन्ध में लाना अनिवार्य होगा, जो कुछ मामलों में पुन:परीक्षण (री-ट्रायल) का आदेश देने के लिए अपीलीय न्यायालय की शक्तियों पर विचार करता है। फिर भी, यह स्पष्ट है कि सी.आर.पी.सी की धारा 300 और धारा 386 (A), (B), और (C) (अपील के मामले में) के तहत विचार के अलावा, किसी भी अपराध के लिए मुकदमा चलाने वाले व्यक्ति पर फिर से मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है, ना ही उसे दोषी ठहराया जा सकता है, और/या ना ही एक ही अपराध के लिए एक से ज़्यादा बार दंडित किया जा सकता है ।

लोक सेवकों का अभियोजन (प्रोसीक्यूशन ऑफ़ पब्लिक सर्वेन्ट्स)

कानून सभी पर समान रूप से लागू होता है। किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह, अपराध करने वाले लोक सेवक को भी अभियोजन का सामना करना पड़ता है। “लोक सेवकों” के दायरे को आई.पी.सी की धारा 21 के तहत अनिवार्य रूप से सरकार द्वारा प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) या अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) रूप से काम कर रहे किसी भी व्यक्ति को शामिल करने के लिए एक लोक सेवक को शामिल करने के लिए कहा गया है। राज्य के मामलों में उनकी भूमिका और आने वाले कर्तव्यों/जिम्मेदारियों के कारण, लोक सेवक एक अलग पायदान (लेवल) पर खड़े होते हैं और अपने आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में उन पर किसी भी हमले के खिलाफ सुरक्षा की आवश्यकता होती है। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (प्रिवेंशन ऑफ़ करप्शन एक्ट), 1988 में लोक सेवकों को धारा 19 के तहत अभियोजन के विरुद्ध संरक्षण प्रदान किया गया है। सामान्य क़ानूनों में, सी.आर.पी.सी की धारा 197 के आधार पर लोक सेवकों को अभियोजन से सुरक्षा प्रदान की जाती है, जो कि इस प्रकार है –

“धारा 197- न्यायाधीशों और लोक सेवकों का अभियोजन–

  1. जब किसी व्यक्ति पर, जो एक न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट या लोक सेवक है या था, जिसे सरकार द्वारा या उसकी मंजूरी से ही उसके पद से हटाया जा सकता है, अन्यथा नहीं, किसी ऐसे अपराध का अभियोग (प्रोसीक्यूशन) है जिसके बारे में यह अभिकथित (आरोपित) है कि वह उसके द्वारा तब किया गया था जब वह अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में कार्य कर रहा था जब उसका ऐसे कार्य करना तात्पर्यित (परपोर्टिंग) था, तब कोई भी न्यायालय ऐसे अपराध का संज्ञान (कॉग्नीज़न्स), जैसा [लोकपाल और लोकायुक्त] नही ले सकता है –
    1. ऐसे व्यक्ति की दशा में जो, यथास्थिति (पहले कि स्थिति), नियोजित है या अभिकथित अपराध के किए जाने के समय नियोजित था या केंद्रीय सरकार के संघ (यूनियन) के कार्यकलाप (एक्टिविटी) के संबंध में था;
    2. ऐसे व्यक्ति की दशा में, जो किसी राज्य के कार्यकलाप के संबंध में, यथास्थिति, नियोजित है या अभिकथित अपराध के किए जाने के समय नियोजित था, उस राज्य सरकार की, पूर्व मंजूरी से ही करेगा, अन्यथा नहीं:

[परंतु जहाँ अभिकथित अपराध खंड (b) में निर्दिष्ट किसी व्यक्ति द्वारा उस अवधि के दौरान किया गया था जब राज्य में संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा (प्रोक्लामेशन) प्रवृत्त थी, वहां खंड (b) इस प्रकार लागू होगा मानो उसमें आने वाले “राज्य सरकार” पद के स्थान पर केंद्रीय सरकार” पद रख दिया गया है।]

स्पष्टीकरण (एक्सप्लेनेशन)- शंकाओं को दूर करने के लिए यह घोषित किया जाता है कि ऐसे किसी लोक सेवक की दशा में, जिसके बारे में यह अभिकथन किया गया है कि उसने भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 166 a, धारा 166 b, धारा 354, धारा 354 a, धारा 354 b, धारा 354 c, धारा 354 d, धारा 370, धारा 375, धारा 376, धारा 376 a, धारा 376 c, धारा 376 या धारा 509 के अधीन कोई अपराध किया है, तो कोई पूर्व मंजूरी अपेक्षित (एक्सपेक्टेड) नहीं होगी।]

(2) …

(3) …

(a) …

(b) …

(4) यथास्थिति, केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार उस व्यक्ति का जिसके द्वारा और उस रीति का जिससे वह अपराध या वे अपराध, जिसके या जिनके लिए ऐसे न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट या लोक सेवक का अभियोजन किया जाना है, अवधारण (आईडिया) कर सकती है और वह न्यायालय विनिर्दिष्ट (स्पेसिफाइड) कर सकती है, जिसके समक्ष विचारण किया जाना है।”

प्रश्न/मंजूरी का मुद्दा (क्वेश्चन/ इशू ऑफ़ सैंक्शन)

देविंदर सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब में सर्वोच्च न्यायालय ने फर्जी मुठभेड़ के मामले में पूर्व मंजूरी को अनिवार्य मानते हुए कहा कि-

“VI. सामान्यत: मंजूरी के प्रश्न को संज्ञान लेने के स्तर पर ही निपटाया जाना चाहिए, लेकिन यदि गलती से संज्ञान लिया जाता है और बाद के चरण (स्टेज) में यह न्यायालय के संज्ञान में आता है, तो उस प्रभाव का पता लगाना ज़रूरी है और इस तरह की याचिका पर विचार किया जा सकता है। पहली बार अपीलीय न्यायालय के समक्ष यह, मामले कि शुरुआत में ही उत्पन्न हो सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि इसके लिए आरोपी को आरोप तय होने तक इंतजार करना पड़े।

VII. आरोप तय करते समय मंजूरी का सवाल उठाया जा सकता है और आरोप के आधार पर प्राइमा फेसी इसका फैसला किया जा सकता है। परीक्षण के समाप्त होने के बाद या अन्य ऊपर के चरण में जोड़े गए साक्ष्य में इसे फिर से नए सिरे से तय करने के लिए खोला जा सकता है।

VIII. कार्यवाही के किसी भी स्तर पर मंजूरी  का प्रश्न उठ सकता है। पुलिस या न्यायिक जांच पर या मुकदमे के दौरान सबूत के तौर पर। मंजूरी  आवश्यक है या नहीं, यह प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर चरण-दर-चरण निर्धारित किया जा सकता है और सामग्री को रिकॉर्ड में लाया जा सकता है। कार्यवाही के किसी भी चरण में मंजूरी  के प्रश्न पर विचार किया जा सकता है। मंजूरी की आवश्यकता मामले की प्रगति के दौरान खुद को प्रकट कर सकती है और अभियुक्त के लिए यह खुला होगा कि वह मुकदमे के दौरान यह दिखाने के लिए सामग्री रखे कि उसका कर्तव्य क्या था। अभियुक्त को गुण-दोष (मेरिट्स) के आधार पर अपने मामले के समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत करने का अधिकार है।”

इस प्रकार, मंजूरी का प्रश्न संज्ञान/अपील स्तर के बाद उत्पन्न हो सकता है जिसमें नीचे दिए गए चरण शामिल हो सकते हैं:

(i) आरोपों का निर्धारण (फ्रेमिंग ऑफ़ चार्जेस), (ii) साक्ष्य, (iii) अंतिम तर्क और/या (iv) परीक्षण/अपील का निष्कर्ष।

इस स्थिति में, निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं:

  1. क्या मंजूरी का मुद्दा कोई इलाज योग्य दोष होगा?
  2. यदि संज्ञान के बाद के स्तर पर मंजूरी का मुद्दा उठता है, तो क्या मंजूरी के अभाव में मुकदमा खराब हो जाएगा?
  3. यदि संज्ञान के बाद/अपील के स्तर पर मंजूरी  के अभाव में कार्यवाही समाप्त कर दी जाती है, तो क्या दोहरे खतरे के सिद्धांत का उल्लंघन किए बिना पिछली मंजूरी प्राप्त करने के बाद नए सिरे से संज्ञान लिया जा सकता है?

विश्लेषण (एनालिसिस)

राज्य बनाम बी.एल. वर्मा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने मंजूरी के अभाव के कारण कार्यवाही को रद्द करने के उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा था क्योंकि अभियुक्तों पर मुकदमा चलाने के लिए पिछली मंजूरी को आवश्यक माना गया था। हालांकि, आदेश से अलग होने से पहले, कोर्ट ने कहा कि यह पूरी तरह से वैध होगा और याचिकाकर्ता के लिए अभियोजन को सक्रिय करने के लिए खुला होगा, यदि ऐसी मंजूरी प्राप्त की गई थी तो। न्यायालय ने अवलोकन किया कि-

“उच्च न्यायालय ने यह सही पाया है कि अपराध का संज्ञान लेने के लिए धारा 197 आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत मंजूरी की आवश्यकता को समाप्त नहीं किया जा सकता है। धारा 197 आपराधिक प्रक्रिया संहिता में होने वाली अभिव्यक्ति (फ्रेज) “कोई भी अदालत इस तरह के अपराध का संज्ञान नहीं लेगी, पिछली मंजूरी के अलावा” यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि संज्ञान लेने के लिए अदालत द्वारा शक्तियों का प्रयोग अनिवार्य है और पिछली मंजूरी से सक्षम है। लोक सेवक पर मुकदमा चलाने का अधिकार, जिस पर या तो अपने कर्तव्यों के निष्पादन (एग्जिक्यूशन ऑफ़ ड्यूटीस) में या अपने कर्तव्यों के कथित निष्पादन में अपराध करने का आरोप है, संज्ञान लेने के लिए आवश्यक है। इस प्रकार आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत मंजूरी के अभाव में मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत प्रतिवादी के खिलाफ अपराध का संज्ञान नहीं ले सकती थी और उच्च न्यायालय ने इस तरह की मंजूरी का अभाव के कारण उसके खिलाफ कार्यवाही को छोड़ने का निर्देश देने में कोई गलती नहीं की है।

हालांकि, इस आदेश से अलग होने से पहले, हम यह स्पष्ट करना चाहेंगे ताकि कोई अस्पष्टता न हो, कि प्रतिवादी के खिलाफ कार्यवाही को छोड़ने का उच्च न्यायालय का निर्देश आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत मंजूरी की कमी के कारण था, और सक्षम प्राधिकारी इसके बाद धारा 197 दंड प्रक्रिया संहिता के तहत मंजूरी प्रदान करता है, यह पूरी तरह से वैध होगा और प्रतिवादी के खिलाफ अभियोजन को सक्रिय करने के लिए यहां याचिकाकर्ता के लिए खुला होगा और उच्च न्यायालय के आदेश दिनांक 4/12/1996 या सीबीआई द्वारा मंजूरी प्राप्त करने के लिए आवेदन करने पर मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद, अदालत के संज्ञान लेने के लिए और न ही धारा 197 आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत मंजूरी देने के लिए सक्षम प्राधिकारी के आदेश के रास्ते में नहीं आएगा। हालांकि, इसमें ऊपर कही गई किसी भी बात को मामले के गुण-दोष पर राय की अभिव्यक्ति के रूप में नहीं माना जाएगा, और अदालत का सक्षम प्राधिकारी, जैसा भी मामला हो, मामले को अपने गुण-दोष के आधार पर तय करेगा।”

स्टेट ऑफ़ मिजोरम बनाम सी. संगघिना के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने “दोहरे खतरे” के सिद्धांतों का पालन करते हुए एक वैध मंजूरी के साथ स्थापित बाद की कार्यवाही के लिए अनुपयुक्त उच्च न्यायालय के निर्णय को रद्द कर दिया जिसमें उच्च न्यायालय ने मुकदमे के आदेश की पुष्टि की थी। अदालत ने बाद के आरोप-पत्र पर संज्ञान लेने से इनकार करते हुए इसे “दोहरे खतरे” के सिद्धांतों के तहत प्रतिबंधित कर दिया था । कोर्ट ने माना कि

“मामले में, प्रतिवादी/आरोपी पर मुकदमा नहीं चलाया गया था और न ही पूर्ण परीक्षण किया गया था। दूसरी ओर, विशेष न्यायालय द्वारा पास किया गया, बरी करने का आदेश दिनांक 12.09.2013 केवल अभियोजन से जुड़ी अमान्यता के कारण था। जब प्रतिवादी/अभियुक्त को उचित मंजूरी  की कमी के कारण बरी दे दी गई, तो “दोहरे खतरे” के सिद्धांत लागू नहीं होंगे। अभियोजन के लिए वैध मंजूरी  प्राप्त करने के बाद नया आरोप पत्र दाखिल करने पर कोई रोक नहीं थी। विशेष अदालत ने एक बार जब यह पाया कि कोई वैध मंजूरी नहीं थी, तो उसे अभियोजन को आवश्यक कार्रवाई करने का निर्देश देना चाहिए था।

मोहम्मद सफी बनाम स्टेट ऑफ़ वेस्ट बंगाल में सर्वोच्च न्यायालय की एक पूर्ण पीठ (फुल बेंच) ने माना कि हालांकि अभियोजन और बचाव पक्ष के गवाहों की जांच की गई थी, साथ ही पिछले मुकदमे में आगे के आरोपियों से पूछताछ की जा रही थी, ट्रायल कोर्ट की क्षमता कि वजह से कार्यवाही को अभाव के लिए मुकदमे में नहीं रखा जा सकता था।

बरी करने के पिछले आदेश को अमान्य मानते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि बाद का परीक्षण और दोषसिद्धि वैध थी और “दोहरे खतरे” के सिद्धांतों के तहत वर्जित नहीं थी।

प्रासंगिक (रिलेवेंट) पैरा निम्नानुसार है-

“हमने ऊपर जो कहा है, उससे यह स्पष्ट होगा कि श्री गांगुली के समक्ष अभियोजन के साथ-साथ बचाव पक्ष के सभी गवाहों का परीक्षण किया गया था और आगे तथ्य यह है कि अपीलकर्ता की भी इस के तहत जांच की गई थी। 342 को कानून में बिल्कुल भी ट्रायल नहीं माना जा सकता है। यह कहना केवल दोहराव होगा कि कार्यवाही के लिए एक मुकदमे के लिए उन्हें एक अदालत के समक्ष रखा जाना चाहिए जो वास्तव में उन्हें पकड़ने के लिए सक्षम है और यह राय नहीं है कि उन्हें आयोजित करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है। एक तात्कालीन (उसी समय) यह भी होगा कि इसके द्वारा दिया गया अंतिम आदेश, चाहे वह किसी भी नाम से हो, कानून में एक बरी के रूप में काम नहीं कर सकता है।”

हालांकि मोहम्मद सफी (सुप्रा) के मामले में मंजूरी का पहलू शामिल नहीं है, इसे संदर्भित करने का एकमात्र उद्देश्य यह समझना है कि किसी मामले का संज्ञान लेने में अक्षम न्यायालय के समक्ष कार्यवाही ऐसी कार्यवाही को शून्य कर देगी

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

उपर्युक्त निष्कर्षों का संचयी प्रभाव (क्युमुलेटिव इफ़ेक्ट) यह निष्कर्ष निकालने में मदद करता है कि जब एक न्यायालय बिना मंजूरी के संज्ञान लेता है, जहां ऐसी मंजूरी आवश्यक है, न्यायालय मामले को आगे बढ़ाने के लिए सक्षम नहीं होगा और इसलिए “खतरे” का सवाल नहीं उठेगा।

(A), (B) और (C) का जवाब देने के लिए, मंजूरी का मुद्दा एक इलाज योग्य दोष होगा और हालांकि परीक्षण/कार्यवाही मंजूरी के अभाव में खराब हो जाएगी, वैध मंजूरी प्राप्त करने के बाद नए सिरे से संज्ञान लेने की अनुमति है और बाद में होने वाली कार्यवाही इस तरह के संज्ञान से दोहरे खतरे के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं होगा।

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