व्यपहरण और अपहरण: आई.पी.सी., 1860 के तहत धारा 359 से 374

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19620
India Penal Code
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यह लेख, राजीव गांधी राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, पटियाला की प्रथम वर्ष की छात्रा Srishti Kaushal द्वारा लिखा गया है। इस लेख में, वह भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 359 से 374 में निहित व्यपहरण (किडनैपिंग) और अपहरण (एबडक्शन) से संबंधित प्रावधानों पर चर्चा करती है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

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परिचय

हालांकि, भारतीय कानून अपहरण और व्यपहरण पर रोक लगाते हैं, 2005 से, भारत में व्यपहरण और अपहरण के 100,000 से अधिक मामले सामने आए हैं। अव्यस्को की कम उम्र का फायदा उठाकर लोग उनका व्यपहरण कर उनका शोषण करते हैं और उन्हें जघन्य (हीनियस) कार्य करने के लिए मजबूर करते हैं। इस तरह के अपराध नागरिकों की स्वतंत्रता पर हमला है और इन्हें रोका जाना चाहिए।

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 359 से 374 इन अपराधों के लिए दंड का प्रावधान करती है। इस लेख में, हम इन प्रावधानों पर विस्तार से चर्चा करेंगे, व्यपहरण और अपहरण की अनिवार्यताओं को समझेंगे, व्यपहरण और अपहरण के बीच अंतर पर चर्चा करेंगे और जबरन दासता (फोर्सेड स्लेवरी), श्रम और अवैध उद्देश्यों के लिए अवयस्कों की बिक्री और खरीद के प्रावधानों पर भी चर्चा करेंगे।

व्यपहरण (किडनैपिंग)

व्यपहरण का अर्थ है किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक, धमकी या छल से दूर ले जाना। आमतौर पर, व्यपहरण का उद्देश्य फिरौती, या कुछ राजनीतिक या अन्य उद्देश्यों आदि के लिए होता है। व्यपहरण को भारतीय दंड संहिता की धारा 359 में दो श्रेणियों में वर्गीकृत (क्लासिफाई) किया गया है और भारतीय दंड संहिता की धारा 360 और 361 में परिभाषित किया गया है। आइए इन वर्गों को बेहतर ढंग से समझते हैं।

भारतीय दंड संहिता की धारा 359 के अनुसार, व्यपहरण दो प्रकार का होता है:

  1. भारत से व्यपहरण,
  2. वैध अभिभावक (लॉफुल गार्जियनशिप) से व्यपहरण।

इन दो प्रकारों की व्याख्या धारा 360 और 361 में की गई है। आइए इन्हें विस्तार से देखें।

भारत से व्यपहरण

धारा 360, भारत से व्यपहरण की व्याख्या करती है। धारा 360 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति को भारत की सीमा से परे उस व्यक्ति की सहमति के विरुद्ध या किसी ऐसे व्यक्ति की सहमति के विरुद्ध ले जाता है जो उस व्यक्ति की ओर से सहमति देने के लिए कानूनी रूप से हकदार है, तो ऐसे व्यक्ति द्वारा भारत से व्यपहरण का अपराध किया जाता है।

उदाहरण: ‘A’ नई दिल्ली में रहने वाली एक महिला है। ‘B’ ‘A’ को उसकी सहमति के बिना बांग्लादेश ले जाता है। ‘B’ ने भारत से ‘A’ के व्यपहरण का अपराध किया है।

वैध अभिभावक से व्यपहरण

धारा 361 वैध अभिभावक से व्यपहरण की व्याख्या करती है। इस धारा के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति किसी अवयस्क (माइनर) (अर्थात् 16 वर्ष से कम आयु का लड़का और 18 वर्ष से कम आयु की लड़की) या विकृत मन (अनसाउंड माइंड) वाले व्यक्ति को उसके वैध अभिभावक की सहमति के बिना उनसे दूर ले जाता है या उसे बहलाता है, तो वह व्यक्ति वैध अभिभावक से व्यपहरण का अपराध करता है।

इस प्रकार, वैध अभिभावक से व्यपहरण की अनिवार्यताएं हैं:

  1. अवयस्क/विकृत मन का व्यक्ति।
  2. वैध अभिभावक से दूर ले जाना।
  3. अभिभावक की सहमति के बिना।

उदाहरण: ‘A’ 13 साल का एक लड़का है, जो अपनी मां ‘Z’ के वैध सरंक्षण में रहता है। ‘B’ ‘उसे उसकी माँ की सहमति के विरुद्ध उसके साथ उसके घर जाने के लिए मना लेता है। धारा 361 के अनुसार, ‘B’ ने वैध अभिभावक से व्यपहरण का अपराध किया है।

यहां अवयस्क ‘A’ है; वैध अभिभावक उसकी मां ‘Z’ है और वह व्यक्ति जो अपराध कर रहा है वह ‘B’ है क्योंकि वह Z की सहमति के खिलाफ A को ‘Z’ से दूर ले जा रहा है।

इस धारा में एक अपवाद (एक्सेप्शन) का भी उल्लेख किया गया है। यह कहता है कि यदि व्यक्ति सद्भाव में, यानी ईमानदारी से तर्क के साथ निम्नलिखित में से कुछ भी करता है तो यह वैध अभिभावक से व्यपहरण के अपराध में शामिल नहीं होगा: 

  1. वह बच्चे की वैध अभिरक्षा (कस्टडी) का हकदार है; या
  2. वह एक नाजायज बच्चे का पिता है।

इसलिए, यदि उपरोक्त उदाहरण में, ‘B’ का मानना ​​​​है कि ‘A’ उसका नाजायज पुत्र है, तो उसे उसकी माँ की सहमति के बिना उसके घर आने के लिए मनाने का उसका कार्य वैध अभिभावक से व्यपहरण का परिणाम नहीं होगा।

स्टेट ऑफ़ हरियाणा बनाम राजा राम, ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 819

इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए आइए स्टेट ऑफ़ हरियाणा बनाम राजा राम के मामले को देखें।

तथ्य

‘J’ ने 14 साल की लड़की अभियोक्ता (प्रॉसिक्यूटरिक्स) को उसके साथ आने और रहने के लिए बहकाने की कोशिश की थी। लड़की के पिता ने ‘J’ को उनके घर आने से मना किया और जवाब में, ‘J’ ने प्रतिवादी (रिस्पॉन्डेट) के माध्यम से उसे संदेश भेजना शुरू कर दिया।

एक दिन, प्रतिवादी, लड़की के पास गया और उसे अपने घर आने के लिए कहा और बाद में अपनी बेटी को उसे लाने के लिए भेजा। प्रतिवादी ने उसे आधी रात को अपने घर आने के लिए कहा ताकि उसे ‘J’ के पास ले जाया जा सके।

उस रात जब वह उसके घर गई तो प्रतिवादी उसे ‘J’ के पास ले गया।

मुद्दा

क्या प्रतिवादी आई.पी.सी. की धारा 361 के तहत अपराधी माना जाएगा?

निर्णय

निचली अदालत ने उसे दोषी ठहराया, लेकिन उच्च न्यायालय ने उसे बरी कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने पर यह माना गया कि:

  • धारा 361, अवयस्क बच्चों को अनुचित उद्देश्यों के लिए बहकावे में आने से बचाने और उनकी अभिरक्षा रखने वाले अभिभावकों के अधिकारों और विशेषाधिकारों (प्रिविलेज) की रक्षा करने के लिए है।
  • एक बच्चे की सहमति पूरी तरह से महत्वहीन है और केवल अभिभावक की सहमति यह तय करने के लिए प्रासंगिक है कि अपराध किया गया था या नहीं।
  • धारा में उल्लिखित ‘ले जाना’ न केवल धोखाधड़ी या बल के माध्यम से है, बल्कि आरोपी द्वारा अनुनय (पर्सुएसन) के माध्यम से भी है जो अवयस्क की ओर से उसके वैध अभिभावक से दूर होने की इच्छा पैदा करता है।
  • इस मामले में, प्रतिवादी को धारा 361 के तहत दोषी ठहराया गया था क्योंकि यह प्रतिवादी द्वारा किया गया कार्य था, जिसने अभियोक्ता को उसके पिता की इच्छा के विरुद्ध उसके पिता के पालन-पोषण से बाहर जाने के लिए राजी किया था।

अवयस्क की उम्र

भारतीय दंड संहिता की धारा 361 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अवयस्क:

  • 16 वर्ष से कम आयु का पुरुष होना चाहिए,
  • 18 वर्ष से कम आयु की महिला होनी चाहिए।

हालांकि, यहाँ इस बात पर प्रकाश डाला जाना चाहिए कि मणिपुर में, धारा 361 में महिलाओं की 18 वर्ष की आयु को 15 वर्ष से बदल दिया गया है। इसलिए यदि मणिपुर में 16 वर्ष की महिला को उसके वैध अभिभावकों से लिया जाता है, तो इसका परिणाम वैध अभिभावक से व्यपहरण नहीं होगा।

इसके अलावा, श्रीमती सुमन और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक अजीबोगरीब फैसला सुनाया, जहां यह माना गया था कि यदि एक अवयस्क लड़की, जो 17 वर्ष की है और अपने कार्यों के पीछे के परिणामों और तर्क को समझने के लिए पर्याप्त परिपक्व (मैच्योर) है, और अपने माता-पिता के संरक्षण को ऐसे लड़के के साथ रहने के लिए छोड़ देती है जिसने उसे किसी भी तरह के दबाव, प्रलोभन आदि के अधीन नहीं किया है तो यह आई.पी.सी. की धारा 361 के तहत अपराध नहीं हो सकता है और यह दंडनीय नहीं है।

लेना और लुभाना

धारा 361 में उल्लेख है कि जो कोई भी अभिभावक की इच्छा के विरुद्ध अवयस्क को अपने अभिभावक से दूर ले जाता है या लुभाता है, वह वैध अभिभावक से व्यपहरण के अपराध के लिए दंडनीय है।

आइए कुछ केस कानूनों को देखकर लेने और लुभाने के अर्थ को समझते हैं।

बिस्वंत मलिक बनाम स्टेट ऑफ़ उड़ीसा (1995) सीआर एलजे 1416

पहला मामला जिस पर हम गौर करेंगे, वह है बिस्वंत मलिक बनाम स्टेट ऑफ़ उड़ीसा

तथ्य

  • कल्याणी को आरोपी/याचिकाकर्ता बिस्वंत मलिक ने अगवा कर लिया था, जब वह आधी रात के करीब बाहर गई थी। वह उसे पहले कटक, फिर भुवनेश्वर और अंत में जेपोर ले गया।
  • उसके पिता ने थाने में शिकायत दर्ज कराई। जांच के दौरान वह आरोपी के एक रिश्तेदार के घर में मिली और वहां से उसे छुड़ाया गया।
  • याचिकाकर्ता को दोषी ठहराया गया और दो साल के कठोर कारावास और 100 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई। 
  • याचिका पर, आरोपी के वकील ने तर्क दिया कि लड़की ने विवेक (डिस्क्रेशन) की उम्र (खुद के लिए निर्णय लेने और अपने कार्य के परिणामों को समझने की उम्र) प्राप्त कर ली थी क्योंकि वह 17 साल, 8 महीने और 7 दिन की थी और इस तरह व्यपहरण का अपराध नही हुआ है।

मुद्दा

धारा 361 की स्पष्टता और धारा के अनुसार ले जाने और लुभाने की व्याख्या।

निर्णय

अदालत ने भारतीय दंड संहिता की धारा 361 के  अनुसार ले जाने और लुभाने के बीच के अंतर को स्पष्ट किया था।

  • अदालत ने कहा कि ‘ले जाने’ शब्द का अर्थ है जाना या एस्कॉर्ट करना या कब्जे में लेना। इसका अर्थ यह हुआ कि ले जाने में ले जाने वाले व्यक्ति की इच्छा का अभाव होता है।

(इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए आइए एक उदाहरण देखें। यदि ‘A’ को उसकी सहमति के विरुद्ध लिया जाता है, तो इसे हम ले जाना बोलेंगे।)

  • दूसरी ओर, लुभाना आरोपी का वह कार्य है जो व्यपहृत (किडनैप्ड) व्यक्ति को उसकी इच्छा से व्यपहरणकर्ता के पास जाने के लिए प्रेरित करता है। यह एक रोमांचक आशा या इच्छा है कि किसी व्यक्ति को दूर ले जाया जाए। प्रलोभन होने पर प्रलोभन पूरी तरह से व्यक्ति की मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है। यह केवल एक प्रकार के प्रलोभन तक ही सीमित नहीं है और कोई भी कार्य जो एक अवयस्क लड़की को लुभाने के लिए पर्याप्त है, तो वह लुभाने का गठन करने के लिए पर्याप्त है।
  • अदालत ने आगे स्पष्ट किया कि मानसिक रवैया सारहीन (इम्मेटेरियल) है (अवयस्क की इच्छा या अनिच्छा) ले जाने के लिए प्रासंगिक नहीं है। हालांकि, व्यपहरणकर्ता अवयस्क को प्रलोभन देकर कुछ ऐसा करने के लिए मना लेता है जो वह अन्यथा नहीं करता है।
  • यह भी माना गया कि किसी को लुभाने या ले जाने के लिए बल या धोखाधड़ी आवश्यक नहीं है।

एस वरदराजन बनाम स्टेट ऑफ़ मद्रास, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 942

ले जाने के अर्थ को अदालत ने एस वरदर्जन बनाम स्टेट ऑफ़ मद्रास के मामले में आगे स्पष्ट किया था।

तथ्य

अपीलकर्ता वरदराजन, सावित्री (एक अवयस्क लड़की) के घर के बगल में रह रहा था। वे हर दिन बात करते थे और अच्छे दोस्त बन गाए थे। एक दिन, सावित्री की बहन, रमा ने उन्हें बात करते हुए पकड़ लिया और उससे इसके बारे में पूछा। सावित्री ने उससे कहा कि वह उससे शादी करना चाहती है। रमा ने अपने पिता को इस बारे में सब कुछ बताया जिन्होंने सावित्री से पूछ ताछ की। वह रोने लगी लेकिन उसने पिता के सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। नतीजतन यह की उसके पिता ने उसे वरदराजन से दूर, उसके एक रिश्तेदार के घर भेजने का फैसला किया।

अगली सुबह, सावित्री ने अपीलकर्ता को बुलाया और उसे एक सड़क पर मिलने के लिए कहा। अगले दिन वे मिले और वह उसकी कार में बैठ गई। फिर दोनों पी.टी. सामी के घर गए इस उद्देश्य से की वह उनकी शादी में गवाह के रूप में कार्य करेगा। वे रजिस्ट्रार के ऑफिस गए जहां दोनों ने अपनी शादी का रजिस्ट्रेशन कराया। इसके बाद, सत्तूर, सिरकुलम, कोयंबटूर और तंजौर गए।

जिस दिन वह चली गई, उस दिन उसके पिता, नटराज ने महसूस किया कि वह गायब है और उसे उस क्षेत्र के आसपास खोजने की कोशिश की जहां वे रहते थे। हालांकि, उसकी सारी कोशिशें नाकाम रहीं और फिर उसने थाने में शिकायत दर्ज कराई। पुलिस ने जांच शुरू की और अंत में तंजौर में अपीलकर्ता को गिरफ्तार कर लिया गया।

मुद्दा

सावित्री को ‘ले जाने’ की अनिवार्यता पूरी हुई या नहीं?

निर्णय

  • अदालत ने कहा कि जहां एक अवयस्क लड़की अपने पिता के सरंक्षण को छोड़कर आरोपी व्यक्ती के पास जाती है, और अपने कार्यों के परिणामों को अच्छे से जानती है और पुरी तरह समझती है, तो इस मामले में यह नहीं कहा जा सकता है कि आरोपी ने उसे, उसके कानूनी अभिभावक से दूर कर दिया है।
  • ऐसे मामले में, आरोपी को दोषी ठहराए जाने के लिए, यह स्थापित किया जाना चाहिए कि आरोपी ने उस अवयस्क को एसा करने से प्रेरित किया था या उसके दिमाग में इस तरह के इरादे को विकसित करने में सक्रिय (एक्टिव) रूप से भाग लिया था, या तो उसके तुरंत पहले या उसके पिता की सुरक्षा छोड़ने के किसी पूर्व चरण में।
  • आरोपी को केवल इसलिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि वह अपने अभिभावक के घर को स्वेच्छा से छोड़कर आरोपी के साथ रहने लगी है और आरोपी ने उसे अलग-अलग जगहों पर ले जाकर अपने अभिभावक के घर न लौटने के लिए प्रोत्साहित किया है।

व्यपहरण की सजा

भारतीय दंड संहिता की धारा 363 दोनों प्रकार के व्यपहरण (भारत से व्यपहरण और वैध अभिभावक से व्यपहरण) के लिए दंड का प्रावधान करती है।

इस धारा में निर्धारित सजा इस प्रकार है:

  • दोनों में से किसी भी प्रकार का कारावास जिसे 7 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और
  • जुर्माना।

किसी भी अवधि के कारावास से दंडित किया जा सकता है, अर्थात भारतीय दंड संहिता में निर्धारित दो कारावासों में से कोई एक, जो इस प्रकार है:

  • साधारण कारावास: इसका अर्थ है कि कारावास के दौरान, कैदी निष्क्रिय (आइडल) है और उसे कोई कठिन श्रम करने की आवश्यकता नहीं है।
  • कठोर कारावास: इसका अर्थ है कि कारावास के दौरान, कैदी को कठिन श्रम करना पड़ता है।

इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, यहां पर चद्रकला मेनन और अन्य बनाम विपिन मेनन के मामले में निर्धारित किए गए एक अपवाद का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है। इस मामले में अपीलकर्ता चंद्रकला की शादी, विपिन मेनन से हुई थी। वे दोनों संयुक्त राज्य अमेरिका में बस गए थे और वहां अच्छी तरह से कार्यरत थे। उनका एक बच्चा था जिसे उसके नाना-नानी के साथ रहने के लिए भारत भेज दिया गया था। दुर्भाग्य से, उनके बीच मतभेद पैदा हो गए और फिर उन्होंने अलग होने का फैसला किया। जहां विपिन मेनन ने अपनी बेटी की अभिरक्षा के लिए अर्जी दी, वहीं बच्ची अपने नाना-नानी के साथ रहती रही। एक दिन, जब अभिरक्षा के आवेदन पर फैसला होना बाकी था, तब विपिन मेनन अपनी बेटी को अपने साथ एक अलग राज्य में ले गए थे। नाना नानी ने उसके खिलाफ व्यपहरण की शिकायत दर्ज कराई थी। हालांकि, अदालत ने माना कि विपिन मेनन बच्चे के नैसर्गिक अभिभावक (नेचरल गार्जियन) थे।

अपहरण

भारतीय दंड संहिता की धारा 362 अपहरण को परिभाषित करती है। इसमें कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को एक स्थान से जाने के लिए विवश करता है, या किसी व्यक्ति को एक स्थान से जाने के लिए प्रेरित करता है, तो तब अपहरण का अपराध किया जाता है।

इस प्रकार, अपहरण एक अपराध है जिसमें एक व्यक्ति को एक स्थान से, उसकी इच्छा के विरुद्ध, जबरदस्ती मजबूरी या धोखेबाज साधनों के उपयोग से ले जाया जाता है। इस प्रकार, अपहरण की अनिवार्यताएं निम्नलिखित हैं:

  1. बल का प्रयोग करना या धोखेबाज साधनों का प्रयोग करना
  2. किसी व्यक्ति को किसी विशेष स्थान से ले जाना।

‘उदाहरण: ‘B’ ‘A’ को थप्पड़ मारता है और उस को चोट पहुंचाता है और उससे कहता है कि अगर वह उसके साथ नहीं जाएगी, तो वह उसे मार डालेगा। इस मामले में, ‘B’ अपहरण का अपराध करता है क्योंकि वह ‘A’ को उसके घर से दूर ले जाने के लिए जबरदस्ती करता है।

यहां, ‘A’ का अपहरण किया गया है और ‘B’ अपराधी व्यक्ति है; जो ‘A’ को, उसे मारने की धमकी देता और थप्पड़ मारने और उसे चोट पहुँचाने का कार्य बल के प्रयोग के बराबर है, और उसे उसके घर से दूर ले जाना एक व्यक्ति को एक विशेष स्थान से दूर ले जाने की अनिवार्यता को स्थापित करता है।

आइए इन सभी आवश्यक बातों को गहराई से समझते हैं।

मुख्य शर्ते 

  • बल द्वारा 

धारा 362 कहती है कि अपहरण दो तरह से हो सकता है। इन्हीं में से एक है बल के द्वारा। अपहरण में व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए विवश किया जाता है। बल का प्रयोग, जैसा कि इस धारा में उल्लेख किया गया है, वह वास्तविक होना चाहिए, न कि अपहरण का गठन करने के लिए बल का खतरा होना चाहिए।

इस संदर्भ में, हम स्टेट ऑफ़ पश्चिम बंगाल बनाम मीर मोहम्मद उमर के मामले को देख सकते हैं।

तथ्य

  • पीड़ित, महेश कुमार अग्रवाल कलकत्ता में छोटा व्यवसाय कर रहे थे। आरोपी, मीर मोहम्मद उमर और सज्जाद अली चाहते थे कि वह उन्हें बिना किसी बाधा या रुकावट के अपना व्यवसाय करने की अनुमति देने के लिए उन्हें 50,000 रुपये का भुगतान करे। लेकिन महेश उनकी मांगों पर सहमत नहीं हुआ, जिसके कारण उनके बीच लड़ाई हुई थी।
  • कुछ रातों बाद, जब महेश अपने घर लौटा, तो उसकी बहन ने उसे बताया कि कुछ हमलावर उसकी तलाश में आए थे और उसे चोट पहुंचाने की धमकी दे रहे थे। इससे डरकर, महेश रात के लिए अपने दोस्त के घर शरण लेने चला गया।
  • अपने दोस्त के घर में रहने के ठीक एक घंटे बाद, एक आदमी महेश को बताने आया कि उमर बाहर उसका इंतज़ार कर रहा है। महेश बाहर गया और उमर ने उसे अपने साथ चलने के लिए कहा, लेकिन महेश असहमत था। इसके बाद, उमर महेश को जबरन रिक्शा के पास ले गया, लेकिन महेश भाग गया और पड़ोसी के घर चला गया जहां उसने शरण ली।
  • करीब ढाई बजे आरोपी महेश के कमरे में घुसा और उसे खींचकर बाहर ले गया। महेश ने विरोध किया लेकिन उसे लाठी से पीटा गया और फिर वह उसे ले गया। उसी रात उसके पड़ोसी ने जाकर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई।

निर्णय

अदालत ने माना कि महेश का अपहरण करने के लिए पर्याप्त सबूत मोजूद हैं। यहां यह भी कहा गया था कि अपहरण तब होता है जब किसी व्यक्ति को किसी जगह से जबरदस्ती जाने के लिए मजबूर किया जाता है। इस मामले में महेश को दो जगह से ले जाया गया, पहला उसके दोस्तों के घर से, जिससे वह भाग गया और दूसरा पड़ोसी के घर से। दोनों ही मामलों में बल प्रयोग किया गया था। अत: आरोपी व्यक्ति को उत्तरदायी ठहराया गया था।

  • कपटपूर्ण तारीके से (डिसीटफुल मींस)

धारा 362 के अनुसार, दूसरा तरीका जिससे अपहरण का अपराध किया जा सकता है, वह यह है की किसी व्यक्ति को कुछ ऐसा करने के लिए भ्रमित करना और कहीं से जाने के लिए प्रेरित करना जो वह सामान्य रूप से नहीं करता है। यहाँ भ्रमित करने का दायरा बहुत विस्तृत है।

उदाहरण: ‘A’ एक ऐसा व्यक्ति है जो एक पुलिस अधिकारी की वर्दी पहनता है ताकि एक लड़की, ‘B’ को अपने साथ अपने घर आने के लिए मना सके, और उसकी गलत बयानी के कारण वह उसके साथ जाती है। इस मामले में, ‘A’ अपहरण का अपराध करने के लिए कपटपूर्ण तरीकों का उपयोग करता है।

आइए कुछ मामलो को देखते हैं ताकि यह समझने मे आसानी हो कि कपटपूर्ण तरीकों से अपहरण कैसे होता है।

किसी भी जगह से जाने के लिए

अपहरण को पूर्ण करने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए विवश किया जाना चाहिए, और यह या तो बलपूर्वक या कपटपूर्ण साधनों का प्रयोग करके हो सकता है। यदि व्यक्ति को कहीं नहीं ले जाया जाता है तो इसे अपहरण नहीं कहा जा सकता है।

आइए, अब विश्वनाथ बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश ए.आई.आर. 1960 एस.सी. 67 के मामले में दिए गए एक महत्वपूर्ण फैसले पर चर्चा करते हैं। इस मामले में यह माना गया था कि केवल अपहरण कोई अपराध नहीं है। अपराध के लिए दंडनीय होने के लिए अपराधी के पास, दोषपूर्ण और गलत इरादा मौजूद होना चाहिए।

इसी कारण से, आई.पी.सी. अलग-अलग इरादों से अपहरण करने के लिए अलग-अलग दंड का प्रावधान करती है। जैसे व्यपहरण के इरादे से अपहरण करने के लिए धारा 363A में दस साल तक की कैद की सजा दी गई है, हत्या के इरादे से अपहरण करने के लिए अपराधी आजीवन कारावास के साथ दंडनीय है। अब आइए इन विशिष्ट प्रावधानों पर विस्तार से चर्चा करते हैं।

व्यपहरण या अपहरण के गंभीर रूप

भीख मांगने के लिए व्यपहरण करना या अपंग करन

भारतीय दंड संहिता की धारा 363A, अवयस्क को भीख मांगने के लिए व्यपहरण करने या उसे अपंग करने के अपराध के बारे में बात करती है। यह इस बारे में बात करती है की:

  • यदि कोई व्यक्ति अवयस्क का व्यपहरण करता है या अवयस्क की अभिरक्षा प्राप्त करता है, भले ही वह उसका वैध अभिभावक न हो, ताकि अवयस्क को भीख मांगने के लिए नियुक्त किया जा सके, वह इस अपराध के लिए उत्तरदायी होगा। इसके लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 363A में निर्धारित सजा 10 साल तक की कैद और जुर्माना है।
  • अपंग का अर्थ है शरीर के किसी अंग को चोट पहुंचाना जिससे वह स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त (डैमेज) हो जाए। इस धारा के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति अवयस्क को अपंग करता है ताकि अवयस्क को भीख मांगने के काम में लगाया जा सके, तो वह आजीवन कारावास और जुर्माने के लिए उत्तरदायी होगा।
  • धारा में यह भी कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति अवयस्क का वैध अभिभावक न होते हुए भी अवयस्क को भीख मांगने के काम में लगाता है, तो अदालत यह मान लेगी कि ऐसे व्यक्ति ने अवयस्क का व्यपहरण किया है। उस व्यक्ति पर यह साबित करने का भार होगा कि वह निर्दोष है।

धारा 363 A, स्वयं परिभाषित करती है कि इस प्रावधान के अनुसार भीख माँगना क्या है। इसका यह मतलब है की:

  • गायन, नृत्य, भाग्य-बताने, चालबाजी करने, सामान बेचने आदि के लिए सार्वजनिक स्थान पर भिक्षा माँगना या प्राप्त करना (धन गरीब लोगों को दिया जाता था)।
  • भिक्षा मांगने या प्राप्त करने के लिए किसी के निजी स्थान में प्रवेश करना।
  • भिक्षा प्राप्त करने या जबरन वसूली करने के लिए स्वयं, किसी अन्य व्यक्ति या किसी जानवर के किसी घाव, चोट, विकृति या बीमारी को उजागर करना।
  • भिक्षा प्राप्त करने या मांगने के लिए एक प्रदर्शन के रूप में एक अवयस्क का उपयोग करना।

उदाहरण: ‘A’ ने 12 साल के लड़के ‘B’ को उसके पिता से उसकी सहमति के बिना छीन लिया, ताकि उसे दिल्ली की सड़कों पर भीख मांगने के लिए मजबूर किया जा सके। इस मामले में, ‘A’ ने उसके पिता से ‘B’ को छीनते ही वैध अभिभावक से व्यपहरण पूरा कर लिया, और क्योंकि यह उसे दिल्ली की सड़कों पर भीख मांगने के उद्देश्य से किया गया था, तो ऐसे में ‘A’ आई.पी.सी. की धारा 363 A के तहत अपराध का दोषी कहलाया जाएगा।

हत्या के लिए अपहरण या व्यपहरण

भारतीय दंड संहिता की धारा 364 के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति का व्यपहरण या अपहरण किसी व्यक्ति द्वारा इस आशय या ज्ञान के साथ किया जाता है कि उस व्यक्ति की हत्या की जाएगी या उसकी हत्या होने का खतरा है, तो ऐसा व्यक्ति को कारावास से दंडित किया जाएगा जो आजीवन कारावास या 10 साल तक की कठोर कारावास हो सकती है और साथ ही वह जुर्माना देने के लिए भी उत्तरदयी होगा।

उदाहरण: ‘A’ ‘B’ को उसकी सहमति के खिलाफ, उसके घर से जंगल में ले जाता है, इस ज्ञान के साथ कि ‘B’ का बलिदान एक देवता को किया जाएगा। तो ऐसे में ‘A’ हत्या के लिए अपहरण का दोषी है।

इस धारा को बेहतर ढंग से समझने के लिए, आइए श्री मोनी नियोग और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ असम के मामले को देखते हैं।

तथ्य

  • संजय घोष एक गैर सरकारी संगठन के महासचिव (जनरल सेक्रेटरी) थे, जो मैजुली में लोगों के कल्याण के लिए काम करते थे। जैसे ही उनका काम फैलना शुरू हुआ, एक प्रतिबंधित उग्रवादी समूह (बैंड मिलिटेंट ग्रुप), यूनाइटेड लिबरेटेड फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) के सदस्य, संजय घोष के एन.जी.ओ. के लिए अपने बढ़ते समर्पण के कारण, लोगों पर से विश्वास खोने से नाखुश और डरने लगे। उन्हें संजय घोष पर रॉ एजेंट होने का संदेह था और उनके प्रति शत्रुता विकसित हो गई।
  • एक दिन दोपहर में, उसे दो आरोपियों ने रोका और उसके विरोध के बावजूद उसे एक घर में ले जाया गया। उसे उस घर में ले जाया गया जहां कुछ और उग्रवादी उसके साथ हो गए। फिर उसे एक नाव पर दूसरे घर ले जाया गया, जहां साथ में और अधिक उग्रवादी भी थे, जिनमें से सभी सशस्त्र थे। रात में उस घर के पास कुछ लोगों ने गोलियों की आवाज सुनी।
  • कुछ दिनों तक जब वह घर नहीं लौटा तो उसकी पत्नी ने थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई। जांच पड़ताल करने पर पता चला कि उसकी मौत हो चुकी है। आरोप था कि इन्हीं आतंकियों ने उसकी हत्या की थी।

निर्णय

  • अदालत ने माना कि संजय घोष के अपहरणकर्ताओं ने उसकी हत्या करने के इरादे से उसका अपहरण किया था, या कम से कम इस बात का ज्ञान था कि उसकी हत्या की जा सकती है या उसे हत्या के खतरे में डाला जा सकता है,
  • अदालत ने आगे कहा कि उसकी हत्या की गई या नहीं यह महत्वहीन है। महत्वपूर्ण बात यह है कि अपहरणकर्ताओं ने किसी भी स्तर पर यह संकेत नहीं दिया कि वे उसकी जान बख्श देंगे।
  • नतीजतन, अदालत ने आरोपियों को दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास और 2000 रुपये प्रत्येक का जुर्माना लगाया। 

फिरौती के लिए व्यपहरण करना

आई.पी.सी. की धारा 364A उस व्यक्ति को सजा देने का प्रावधान करती है, जो उस व्यक्ति को चोट पहुँचाने या मौत का कारण बनने की धमकी देता है, जिसे उसने व्यपहरण या अपहरण के बाद हिरासत में लिया है, ताकि सरकार या किसी विदेशी राज्य या किसी अन्य व्यक्ति को कोई कार्य करने या न करने या एक निश्चित राशि का भुगतान करने के लिए मजबूर किया जा सके, इस अपराध के लिए सजा मौत या आजीवन कारावास, और जुर्माना है, जैसा कि आई.पी.सी. की धारा 364 A  में वर्णित किया है। धारा 364A के तहत अपराध की अनिवार्यताएं हैं:

नेत्र पाल बनाम स्टेट (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली), 2001

पहला मामला जिस पर हम चर्चा करेंगे वह नेत्र पाल बनाम स्टेट (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) का है, जिसमें अदालत इस अपराध के एक आवश्यक अनिवार्यता पर चर्चा करती है।

तथ्य

  • अपीलकर्ता, नेत्र पाल 6 साल के लड़के मास्टर तनु जोहिया को जानता था। एक दिन वह लड़के को अन्य लड़कों के साथ एक रिक्शा में सवारी पर ले गया था। जबकि उसने अन्य लड़कों को छोड़ दिया, उसने तनु को नहीं छोड़ा। उनकी मां ने सोचा था कि नेत्र पाल थोड़ी देर में उसके बेटे के साथ वापस आ जाएगा। जब वह वापस नहीं आया तो उसने उसके पिता को बताया। उन्होंने उसे उस क्षेत्र के आसपास खोजने की कोशिश की जहां वे रहते हैं, लेकिन उन्हें ढूंढने में असफल रहा और फिर पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराई।
  • पुलिस अपीलकर्ता के गांव गई और वहां उसे बच्चे के साथ पाया गया। उसे पकड़ लिया गया और एक पत्र बरामद हुआ जिसमे 50,000 रुपये मांगे गए थे। 

मुद्दा

  • “फिरौती देने के लिए” शब्द का क्या अर्थ है – क्या यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि व्यपहरण या अपहरण फिरौती लेने के इरादे से किया गया था या क्या यह आवश्यक है कि ऐसी मांग को सूचित किया जाना चाहिए?
  • क्या अपीलकर्ता से बरामद पत्र, फिरौती की मांग के रूप में माना जाएगा?

निर्णय

अदालत ने माना कि केवल उस पत्र की वसूली, जो अपीलकर्ता द्वारा 50,000 रुपये की मांग के लिए लिखा गया था, ताकि वह बच्चे की सुरक्षित वापसी दे दे, वह पत्र “फिरौती का भुगतान करने को” कवर करने के लिए पर्याप्त नहीं है। अपहरणकर्ता द्वारा मांग, अपराध का एक अनिवार्य घटक है, क्योंकि भुगतान की गई फिरौती के उद्देश्य से मांग को संप्रेषित (कम्युनिकेट) किया जाना चाहिए।

मल्लेशी बनाम स्टेट ऑफ़ कर्नाटक राज्य (2004)

अगला मामला जिस पर हमें इस संदर्भ में चर्चा करनी चाहिए, वह है मल्लेशी बनाम स्टेट ऑफ़ कर्नाटक

तथ्य

  • विजयभास्कर कॉलेज में पढ़ रहा था और अपने चाचा के यहां रह रहा था। वह एक अन्य दोस्त के साथ बस से चित्रदुर्ग जाता था, जहां उसका कॉलेज था। एक दिन जब वह अपने घर वापस जाने के लिए बस में चढ़ने का इंतजार कर रहा था, तो उसे एक व्यक्ति ने बुलाया जिसने उसे बताया कि वह उसके पिता को जानता है। उन्होंने आगे कॉलेज की फीस के बारे में पूछताछ करते हुए कहा कि वह अपने बेटे का यहां दाखिला कराना चाहते हैं। फिर वह विजयभास्कर को एक जीप तक ले गया और उसे बताया कि उसका बेटा वहाँ है और उसे जीप में बिठाया।
  • तब दो अन्य व्यक्ति उसके साथ हो गए और चित्रदुर्ग को पार करने तक उसके साथ अच्छा व्यवहार किया। उन्होंने उसके पिता के फोन नंबर के बारे में पूछताछ की और उससे कहा कि वे 4,00,000 रुपये की फिरौती चाहते हैं। रास्ते में वे सिगरेट खरीदने के लिए रुके। जीप चालक ने उसे भागने को कहा। उसने उसकी सलाह सुनी और पाया कि वह ब्यारापुर गांव में है। उसने अपहरणकर्ताओं को पकड़ने वाले ग्रामीणों को सूचना दी और उन लोगों को पुलिस के हवाले कर दिया।

मुद्दा

फिरौती की कथित मांग की पुष्टि हुई या नहीं?

निर्णय

अदालत ने माना कि विजयभास्कर का अपहरण कपटपूर्ण तरीके के माध्यम से किया गया है। अदालत ने आगे नेत्र पाल बनाम राज्य के मामले का उल्लेख किया और कहा कि इस तथ्य के अंतर का उल्लेख किया जाना चाहिए कि अपहृत व्यक्ति, उस मामले में, एक बच्चा था और वर्तमान मामले में एक वयस्क है जो खुद की देखभाल कर सकता है। यह माना गया कि इस मामले में, पीड़ित को फिरौती की मांग से अवगत कराया गया था और अपराध पूरा किया गया था। अदालत ने आगे कहा कि यह सीधा नियम नहीं हो सकता है कि अपहरण की मांग हमेशा उस व्यक्ति से की जानी चाहिए जिसे अंततः भुगतान करना आवश्यक है।

विक्रम सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, (2015)

अगला मामला, हम विक्रम सिंह बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया देखेंगे, जिसमें आई.पी.सी. की धारा 364A में निर्धारित सजा का मूल्यांकन किया गया था।

तथ्य और मुद्दा: 

अपीलकर्ता ने एक 16 वर्षीय लड़के का व्यपहरण कर लिया था और 50 लाख रुपये की फिरौती मांगी थी। उन्होंने इस लड़के को मार डाला था। इस मामले में, अपीलकर्ताओं ने भारतीय दंड संहिता में डाली गई धारा 364A को संविधान के अल्ट्रा वायर्स (कानूनी शक्ति से परे) के रूप में घोषित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की, जो कि दोषी पाए जाने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए मौत की सजा को निर्धारित करता है। उन्होंने यह भी कहा कि धारा 364 A को केवल आतंकवादी-संबंधित फिरौती से निपटने के लिए जोड़ा गया था क्योंकि व्यपहरण/अपहरण के बारे में पिछली धारा में पहले ही निपटा जा चुका है। उन्होंने आगे इस धारा के तहत उन्हें दी गई मौत की सजा को रद्द करने के लिए प्रार्थना की।

निर्णय

  • अदालत ने कहा कि धारा 364A बहुत व्यापक है। ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह बताता हो कि यह धारा किसी विदेशी राज्य या अंतरराष्ट्रीय सरकारी संगठन के खिलाफ अपराधों तक सीमित है, और यह “किसी अन्य व्यक्ति” को भी कवर करती है।
  • अदालत ने सजा की आनुपातिकता (प्रोपोर्शनेलिटी) के महत्व को उजागर करने के लिए विभिन्न भारतीय और विदेशी निर्णयों पर भी जोर दिया। यह माना गया कि सजा देने का काम विधायिका का है, और अदालत केवल तभी हस्तक्षेप कर सकती है जब उसे लगता है कि सजा अपमानजनक रूप से असंगत है। धारा 364A में, जब मृत्यु का संबंध है, तो अदालतें मौत की सजा देने का अधिकार सुरक्षित रखती हैं या यदि आवश्यक नहीं है, तो आजीवन कारावास की सजा दी जाती है। इसलिए, यह संविधान के साथ अल्ट्रा वायर्स नहीं है।

गुप्त और गलत तरीके से बंदी बनाने के इरादे से व्यपहरण या अपहरण

आई.पी.सी. की धारा 365 में उस व्यक्ति को दंडित करने का प्रावधान है जो किसी का व्यपहरण या अपहरण करने के इरादे से गलत तरीके से और गुप्त रूप से उसे बंदी बना कर रखता है तो ऐसे में अपराधी को 7 साल तक की कैद और जुर्माना के साथ दंडित किया जाता है।

उदाहरण: ‘A’ ‘B’ को उसे अपने घर में छिपाने के इरादे से, उसके वैध अभिभावक से उसकी सहमति के खिलाफ दूर ले जाता है। यहां ‘A’ ने गुप्त तरीके से बंदी बनाने के इरादे से ‘B’ का अपहरण किया है, और इस प्रकार, वह आई.पी.सी. की धारा 365 के तहत दंडनीय है।

किसी महिला को शादी आदि के लिए मजबूर करने के लिए उसका व्यपहरण या अपहरण करना

भारतीय दंड संहिता की धारा 366 उस व्यक्ति को दंडित करती है जो किसी महिला को शादी के लिए मजबूर करने के इरादे से या इस ज्ञान के साथ कि उसे शादी के लिए मजबूर किया जाएगा उसका व्यपहरण या अपहरण करता है। यह उस व्यक्ति के लिए भी सजा का प्रावधान करती है जो किसी व्यक्ति को अवैध संभोग (इंटरकोर्स) के लिए मजबूर करने के लिए व्यपहरण या अपहरण करता है या यह जानता है कि इस तरह के व्यपहरण या अपहरण के कारण, उसे अवैध संभोग के लिए मजबूर किया जाएगा।

इस धारा में निर्धारित सजा 10 साल तक की कैद और जुर्माना है।

उदाहरण: ‘A’ और ‘B’ भाई हैं। ‘A’ ‘C’ से शादी करना चाहता था, लेकिन C नहीं करना चाहती थी। ‘A’ ने ‘B’ को ‘C’ का अपहरण करने के लिए कहा ताकि वह उससे शादी कर सके। ‘B’ ने, जैसा उससे कहा गया था वैसा ही किया और ‘C’ को उसके घर से ‘A’ के पास ले गया। यहां ‘B’ धारा 366 के तहत अपराध का दोषी है क्योंकि उसने एक महिला ‘C’ का अपहरण इस ज्ञान के साथ किया था कि शादी के लिए मजबूर किया जाएगा।

अपहरणकर्ता से शादी करने के लिए अवयस्क की सहमति: क्या यह वैध है?

यह देखने के लिए कि क्या अवयस्क की अपहरणकर्ता से शादी करने या उसके साथ यौन संबंध बनाने के लिए सहमति पर्याप्त है या नहीं, आइए ठाकोरलाल डी. वडगामा बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात के मामले को देखें।

ठाकोरलाल डी. वडगामा बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात, 1973

तथ्य

  • मोहिनी के माता-पिता को पता चला कि वह अपीलकर्ता के साथ यौन संबंध बना रही थी और उन्होंने उसकी बहुत डांट लगाई। उन्होंने अपीलकर्ता को एक पत्र भी भेजा जिसमें उसे मोहिनी से दूर रहने के लिए कहा गया था। हालांकि, वह फिर से तब मिली जब वह स्कूल की यात्रा पर अहमदाबाद गई थी और उसके बाद दो महीने तक, वे एक-दूसरे को पत्र भेजते रहे जिसमें मोहिनी ने अपने माता-पिता के द्वारा दुर्व्यवहार करने की शिकायत की और अपना घर छोड़ने की इच्छा व्यक्त की थी। 
  • अगले महीने, अपीलकर्ता ने उसे अपने घर पर मिलने के लिए कहा और वह उससे वहीं मिली। उसने उसके पिता, अपीलकर्ता और पुलिस अधीक्षक को तीन पत्र लिखे। इन पत्रों में उसके माता-पिता द्वारा दुर्व्यवहार की शिकायतें थीं और यह भी कहा गया था कि उसने अपीलकर्ता से 250 रुपये ले लिए थे और वह बंबई जा रही थी।
  • फिर उसने उसे एक कार की डिक्की में बिठाया और उसे कहीं ले गया। फिर उसने उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए। इस दौरान उसके पिता ने मामला दर्ज कराया। अगली सुबह पुलिस जांच करते हुए मोहिनी की तलाश में अपीलकर्ता के घर आई। अपीलकर्ता ने मोहिनी को अपने गैरेज में छुपाया और बाद में उसे गली में भागने के लिए कहा, जहां पुलिस ने उसे ढूंढ लिया। चिकित्सकीय जांच में जबरन शारीरिक संबंध बनाने का कोई सबूत नहीं मिला।

मुद्दा

मोहिनी की सहमति अपीलकर्ता को उसके अपराध से मुक्त करती है या नहीं?

निर्णय

  • अदालत ने कहा कि वर्तमान मामले में, अपीलकर्ता अवयस्क लड़की के साथ वादे करने और उसे नए कपड़े आदि उपहार देने के तरीके से करीब आ गया था। उसने इस निकटता का फायदा उठाकर उसे उसके माता-पिता के संरक्षण से लुभाया और इस तरह उसका व्यपहरण कर लिया।
  • अदालत ने आगे, आई.पी.सी. की धारा 366 के तहत एक अपराध के संबंध में कानूनी स्थिति को स्पष्ट किया और कहा कि कानून अवयस्क बच्चों को अवैध गतिविधियों में बहकाने से और उनके बच्चों के प्रति अभिभावकों के अधिकारों की रक्षा करना चाहता है। इसने स्पष्ट किया कि व्यपहरण अवयस्कों को उनके अभिभावकों से दूर करने के लिए बहला-फुसलाकर किया जा सकता है। इसलिए, यह माना गया कि उसके साथ जाने और उसके साथ संभोग करने के लिए मोहिनी की स्वीकृति उसे अपराध से मुक्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

अवयस्क लड़की की खरीद

भारतीय दंड संहिता की धारा 366A किसी भी ऐसे व्यक्ति के लिए सजा का प्रावधान करती है जो 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की को किसी जगह से जाने या कुछ कार्य करने के लिए प्रेरित करता है, जैसे कि उसे किसी व्यक्ति के साथ अवैध संभोग में शामिल होने के लिए मजबूर या बहकाया जाएगा। इस तरह का प्रलोभन जानबूझकर या इस ज्ञान के साथ किया जाना चाहिए कि उसे ऐसे कार्यों में शामिल होने के लिए मजबूर किया जाएगा।

इसके लिए निर्धारित सजा दस साल तक की कैद और जुर्माना है।

किसी व्यक्ति को गंभीर चोट पहुंचाने के लिए उसका व्यपहरण या अपहरण करना

भारतीय दंड संहिता की धारा 367 में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति का व्यपहरण या अपहरण करता है ताकि वह व्यक्ति किसी व्यक्ति की गंभीर चोट, दासता (स्लेवरी) या अप्राकृतिक वासना के अधीन हो या खतरे में हो, तो उसे 10 साल तक की कठोर या साधारण कारावास और जुर्माने से दंडित किया जाना चाहिए। 

आई.पी.सी. की धारा 320 में गंभीर चोट को परिभाषित किया गया है। उसमे निम्नलिखित मोजूद है:

  • वीर्य निकालना (पुरुष प्रजनन अंगों को हटाना),
  • किसी भी आंख को स्थायी रूप से हानि पहुंचाना,
  • किसी भी कान में स्थायी रूप से हानि पहुंचाना,
  • जोड़ में स्थायी रुप से नुकसान पहुंचाना,
  • चेहरे या सिर की स्थायी विकृत
  • दांत या हड्डी का फ्रैक्चर और अव्यवस्था
  • कोई भी चोट जो किसी व्यक्ति के जीवन को खतरे में डालती है और पीड़ित को चोट लगने के बीस दिनों के भीतर शरीर में गंभीर दर्द होता है।

व्यपहृत या अपहृत व्यक्ति को गलत तरीके से छुपाना या कैद में रखना

भारतीय दंड संहिता की धारा 368 में यह प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति जानता है कि किसी व्यक्ति का व्यपहरण या अपहरण किया गया है, और ऐसे अपहृत व्यक्ति को गलत तरीके से विश्वास दिलाता है, तो उसे दंडित किया जाएगा जैसे कि उसने उस व्यक्ति का व्यपहरण या अपहरण करने के इरादे से उसका व्यपहरण या अपहरण किया हो। 

निम्नलिखित मामले को देखकर इस धारा को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है:

श्रीमती सरोज कुमारी बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश, ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 201

तथ्य

  • इस मामले में, आरोपी ने श्रीमती गोमती देवी के अवयस्क पुत्र का व्यपहरण कर लिया था, जिसका जन्म अभी कुछ ही घंटे पहले हुआ था। वह यह कहकर उसे ले गई कि स्टाफ नर्स बच्चे की कॉर्ड ड्रेसिंग करना चाहती है।
  • एक घंटे बाद भी बच्चे को वार्ड में नहीं लौटाया गया। गोमती देवी ने अपनी भाभी को बताया। उसने आरोपी और बच्चे की तलाशी की। जब वह उन्हें खोजने में विफल रही तो अस्पताल के डॉक्टर और अधीक्षक को सूचित किया गया और उन्होंने पुलिस को आगे बताया।
  • जांच करने पर पुलिस को बच्चा राम दास के घर पर मिला, जो अपीलकर्ता का किराएदार था। बच्चे की जब्ती के समय, अपीलकर्ता बच्चे के बगल में पड़ा था और आरोपी अपहरणकर्ता उसी कमरे में बैठा था। अपीलकर्ता पर आई.पी.सी. की धारा 368 के तहत 5 साल के कठोर कारावास की सजा का आरोप लगाया गया था और आरोपी को धारा 363 (हत्या के लिए व्यपहरण) के तहत आरोपित किया गया था। 

मुद्दा

क्या अपीलकर्ता आई.पी.सी. की धारा 368 के तहत दोषी है?

निर्णय

अदालत ने अपील याचिका खारिज कर दी। इसने समझाया कि आई.पी.सी. की धारा 368 के तहत अपराध का गठन करने के लिए, तीन आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिए। ये हैं: 

  1. विचाराधीन व्यक्ति का व्यपहरण किया जाना चाहिए; 
  2. आरोपी को पता होना चाहिए कि उस व्यक्ति का व्यपहरण कर लिया गया है 
  3. ऐसा ज्ञान रखने वाला आरोपी व्यक्ति को गलत तरीके से छुपाता है या बांधता है।

वर्तमान मामले में पहली अनिवार्यता तब पूरी हुई जब आरोपी 15 घंटे के बच्चे को उसकी मां, वैध अभिभावक से दूर ले गया था। दूसरी अनिवार्यता मामले के तथ्य से निकाला गया निष्कर्ष था और तीसरी अनिवार्यता का सबूत था क्योंकि अपीलकर्ता ने यह प्रकट किया कि बच्चा उसका था।

दस साल से कम उम्र के बच्चे का व्यपहरण या अपहरण उसके व्यक्ति से चोरी करने के इरादे से

भारतीय दंड संहिता की धारा 369 के अनुसार कोई व्यक्ति जो 10 वर्ष से कम उम्र के बच्चे का व्यपहरण कर उससे कोई चल संपत्ति चुराता है, तो उसे 7 साल तक की कैद और जुर्माना भी हो सकता है।

उदाहरण: ‘A’ ‘B’ का व्यपहरण करता है, जो एक 8 साल की लड़की है और अपनी मां के मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रही होती है, वह व्यपहरण इसलिए करता है, ताकि वह उस फोन को चुरा सके। यहां, A, आई.पी.सी. की धारा 369 के तहत दोषी है।

व्यपहरण और अपहरण के बीच अंतर

अब जब हम समझ गए हैं कि व्यपहरण और अपहरण क्या हैं, तो आइए इनके बीच के अंतर को समझते हैं।

आधार व्यपहरण अपहरण
कानून में प्रदान की गाई धाराएं आई.पी.सी. की धारा 359 व्यहरण के दो प्रकार बताती है। धारा 360 भारत से व्यपहरण को परिभाषित करती है, धारा 361 वैध अभिभावक से व्यपहरण को परिभाषित करती है। अपहरण की परिभाषा आईपीसी की धारा 362 में दी गई है।
पीड़िता की उम्र धारा 360 और 361 के अनुसार, व्यपहरण की गई महिला की आयु 18 वर्ष से कम और व्यपहरण किए गए पुरुष की आयु 16 वर्ष से कम होनी चाहिए। ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो अपहृत व्यक्ति की आयु पर रोक लगाता हो, क्योंकि इस अपराध को गठित करने के लिए अवयस्क होना आवश्यक नहीं है।
अपराध करने का तरीका व्यपहरण में व्यक्ति को ले जाया जाता है या बहलाया जाता है। ऐसा करने का साधन अपराध का गठन करने के लिए अप्रासंगिक (इर्रेलिवेंट) है। अपहरण में, किसी व्यक्ति को किसी स्थान से ले जाने के लिए बल, छल या विवशता का प्रयोग किया जाता है।
वैध अभिभावक से दूर ले जाना यहां वैध अभिभावक एक ऐसे व्यक्ति को संदर्भित करता है जो अवयस्क या विकृत दिमाग के व्यक्ति की देखभाल करने के लिए कानूनी रूप से अधिकृत (ऑथराइज) है। व्यपहरण के लिए यह आवश्यक है कि पीड़ित को उसके वैध अभिभावक से दूर ले जाया जाए। अपहरण में, किसी व्यक्ति को उसके वैध अभिभावक से दूर ले जाने की कोई अवधारणा नहीं है।
पीड़िता की सहमति व्यपहृत व्यक्ति की सहमति महत्वहीन है, हालांकि, अभिभावक की सहमति महत्वपूर्ण हो सकती है। यदि अपहृत व्यक्ति अपनी सहमति देता है, तो यह माना जाता है कि कोई अपराध नहीं है।
आरोपी की मंशा व्यपहरण में अवयस्क का व्यपहरण करने वाले या विकृत दिमाग वाले व्यक्ति का इरादा सारहीन है। अपहरण में, आरोपी के अपराध को निर्धारित करने के लिए इरादा आवश्यक है।
प्रकृति और सजा चूंकि व्यपहरण एक वास्तविक अपराध है, इसलिए इसकी सामान्य सजा आई.पी.सी. की धारा 363 में 7 साल तक की कैद और जुर्माने के रूप में निर्धारित है। चूंकि अपहरण एक सहायक अपराध है, इसलिए आईपीसी में निर्धारित सामान्य सजा नहीं है। बल्कि आईपीसी की अलग-अलग धाराओं में खास तरह के अपहरण की सजा दी जाती है। (जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है)
अपराध की निरंतरता अपहरण कोई निरंतर अपराध नहीं है। अपहरण एक निरंतर अपराध है क्योंकि यह तब समाप्त नहीं होता जब किसी व्यक्ति को किसी विशेष स्थान से ले जाया जाता है।
अपराध का समापन जैसे ही किसी व्यक्ति को देश से या उसके वैध अभिभावक से दूर ले जाया जाता है, अपराध पूरा हो जाता है। यह एक निरंतर अपराध है और इसमें किसी व्यक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जबरन या धोखे से ले जाना शामिल है

 

तस्करी और गुलामी

2013 में दिल्ली बलात्कार मामले के बाद भारतीय दंड संहिता की धारा 370 में हाल ही में संशोधन किया गया था। अब, यह तस्करी की परिभाषा और दंड बताता है।

इस धारा के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति शोषण के उद्देश्य से किसी व्यक्ति को भर्ती करता है, कही भेजता है, स्थानान्तरण (ट्रांसपोर्ट) या प्राप्त करता है, तो वह तस्करी का अपराध करता है। यह निम्नलिखित के द्वारा किया जाता है:

  • धोखाधड़ी, धोखे या शक्ति के दुरुपयोग का उपयोग करना, या
  • धमकियों का उपयोग करना, या
  • बल या जबरदस्ती का प्रयोग, या
  • अपहरण, या
  • उस व्यक्ति के प्रलोभन से या उस पर अधिकार रखने वाले किसी व्यक्ति को उकसाने से।

शोषण, जैसा कि इस धारा में उल्लेख किया गया है, का दायरा बहुत व्यापक है, और यौन शोषण, गुलामी या इसके समान व्यवहार, दासता या अंगों को जबरन हटाने के लिए संदर्भित करता है।

यह भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि तस्करी के अपराध के लिए पीड़ित की सहमति पूरी तरह से महत्वहीन है।

इस धारा में इस अपराध की सजा का विस्तृत विवरण दिया गया है। ये इस प्रकार हैं:

अपराध दंड
तस्करी
  • कम से कम 7 वर्ष और दस वर्ष से अधिक नहीं, की अवधि के लिए कठोर कारावास ;
  • जुर्माना
एक से अधिक व्यक्तियों की तस्करी
  • कम से कम 10 साल के लिए कठोर कारावास जिसे आजीवन तक बढ़ाया जा सकता है;
  • जुर्माना
अवयस्कों की तस्करी
  • कम से कम 10 साल के लिए कठोर कारावास जिसे आजीवन तक बढ़ाया जा सकता है;
  • जुर्माना
एक से अधिक अवयस्क की तस्करी
  • कम से कम 14 साल के लिए कठोर कारावास जो आजीवन तक हो सकता है;
  • जुर्माना
एक से अधिक अवसरों पर अवयस्क की तस्करी
  • अपराधी के शेष प्राकृतिक जीवन के लिए कारावास;
  • जुर्माना
तस्करी जहां एक पुलिस अधिकारी या एक लोक सेवक तस्करी में शामिल है
  • पुलिस अधिकारी या लोक सेवकों के शेष प्राकृतिक जीवन के लिए कारावास;
  • जुर्माना

अनैतिक उद्देश्यों के लिए अवयस्कों की बिक्री या खरीद

भारतीय दंड संहिता की धारा 372 में प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति 18 वर्ष से कम आयु के किसी व्यक्ति को इस आशय या ज्ञान के साथ बेचता है या काम पर रखने की अनुमति देता है कि ऐसे व्यक्ति का इस्तेमाल वेश्यावृत्ति या अवैध संभोग के लिए किया जाएगा, तो उसे 10 साल तक की अवधि के लिए साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडित किया जाएगा।

अवैध उद्देश्यों, जैसा कि धारा में उल्लेख किया गया है, का अर्थ है उन लोगों के बीच संभोग जो विवाहित नहीं हैं या किसी व्यक्तिगत कानून या प्रथा में मान्यता प्राप्त किसी भी संघ द्वारा एकजुट नहीं हैं।

उदाहरण: ‘A’ एक वेश्यालय का मालिक है। ‘B’ ‘C’ को, A को 1,00,000 रुपये में बेचता है। ताकि उसे (C) वेश्या के रूप में इस्तेमाल किया जा सके। इधर, ‘B’ ने आई.पी.सी. की धारा 372 के तहत अपराध किया है।

इसी तरह, भारतीय दंड संहिता की धारा 373 अनैतिक उद्देश्यों के लिए अवयस्क को खरीदने वाले व्यक्ति के लिए सजा का प्रावधान करती है। इसमें कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को खरीदता है या काम पर रखता है या किसी अन्य तरीके से प्राप्त करता है, तो इसका उपयोग करने या ज्ञान के इरादे से कि ऐसे व्यक्ति का इस्तेमाल वेश्यावृत्ति या अवैध संभोग जैसे उद्देश्यों के लिए किया जाएगा, तो वह 10 साल तक की अवधि के लिए साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडित किया जाएगा।

उपरोक्त उदाहरण को जारी रखते हुए: उस मामले में, ‘A’, वेश्यालय मालिक, आई.पी.सी. की धारा 363 के तहत अपराध के लिए उत्तरदायी होगा क्योंकि उसने ‘C’ को 1,00,000 रुपये में खरीदा था, ताकि वह उसे वेश्यावृत्ति में शामिल कर सके।

जबरन मज़दूरी कराना

भारतीय दंड संहिता की धारा 374 गैरकानूनी अनिवार्य श्रम के अपराध के बारे में बताती है। इस धारा के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध श्रम प्रदान करने के लिए गैरकानूनी रूप से मजबूर करता है, तो उसे एक वर्ष तक की अवधि के लिए साधारण या कठोर कारावास, या जुर्माना, या कारावास और जुर्माना दोनों से दंडित किया जाता है।

निष्कर्ष

व्यपहरण और अपहरण खतरनाक कार्य हैं जो किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को नुकसान पहुंचाते हैं। धारा 359 से 369 लोगों की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वे बच्चों को व्यपहरण और अपहरण से सुरक्षा प्रदान करते हैं। इसके अलावा, वे उन बच्चों पर नियंत्रण रखने के अभिभावकों के अधिकारों को सुदृढ़ (रेंफोर्स) करते हैं जो वयस्कों की साजिश रचने के शब्दों से आसानी से हिल जाते हैं और आश्वस्त हो जाते हैं। व्यपहरण और अपहरण के मामलों की संख्या बहुत अधिक है और यह बढ़ती जा रही है। इन जघन्य अपराधों को रोकने और व्यपहरण और अपहरण की संस्कृति को फैलने से रोकने की सख्त आवश्यकता है, खासकर जब यह विवाह, जबरन संभोग और जबरन भिखारी आदि के लिए किया जाता है। इन बच्चों को सुरक्षित रिहाई, चिकित्सा, मनोवैज्ञानिक और कानूनी सहायता की आवश्यकता होती है। इस तरह की हरकतें उनसे बचपन के अच्छे दिन छीन लेती हैं क्योंकि उन्हें मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है।

इन अपराधों पर काबू पाने के लिए न केवल राज्यों को एक साथ काम करने की जरूरत है, बल्कि राष्ट्रों के बीच एक सह-कार्य को भी विकसित करने की जरूरत है। इसके अलावा, यह समझने की जरूरत है कि एक अपराधी कानूनों के इर्द-गिर्द घूमेगा और इन कार्यों में लिप्त होगा। इन अपराधों को रोकने के लिए गैर-सरकारी संगठनों और सरकारी निकायों द्वारा काम करने और अधिक संवेदीकरण की आवश्यकता है।

संदर्भ

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