औद्योगिक संबंध और श्रम कानून

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यह लेख Nimisha Dublish द्वारा लिखा गया है। यह लेख औद्योगिक (इंडस्ट्रियल) संबंधों और श्रम कानूनों के बीच विश्लेषण और संबंध पर चर्चा करता है। लेख का उद्देश्य औद्योगिक संबंधों और श्रम कानूनों की समझ और कुशल कार्यान्वयन (एक्सिक्यूशन) प्रदान करना है। लेख औद्योगीकरण और श्रम नीतियों के बदलते रुझानों का भी अवलोकन देता है। यह औद्योगिक क्षेत्र के इतिहास और वर्तमान विकास को भी उजागर करता है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

एक संगठन अपने दो मुख्य तत्वों, यानी, प्रौद्योगिकी और मानव संसाधन के संयुक्त प्रयासों से काम करता है। व्यापक वेतन रोज़गार का एक मूलभूत गुण है जो सभी औद्योगिक सभ्यताओं द्वारा साझा किया जाता है। भारत जैसे देश में, ऐसे कई लोग हैं जो मजदूरी रोजगार और बेहतर औद्योगिक मानकों की तलाश में हैं। 

लोगों को प्रबंधित करना और उन्हें अपने संगठन के लिए काम कराना बहुत कठिन है। वर्तमान में, कार्यस्थल पर जनशक्ति और लोगों का प्रबंधन एक बड़ी चुनौती और किसी संगठन को स्वस्थ रूप से चलाने का एक महत्वपूर्ण पहलू बन गया है। कर्मचारी-नियोक्ता संबंधों का कुप्रबंधन अक्सर किसी संगठन में गलतफहमी और विषाक्त कार्य संस्कृति को जन्म देता है। जिसके परिणामस्वरूप श्रम कारोबार बढ़ता है, अनुशासनहीनता बढ़ती है, उत्पादन में गिरावट देखी जाती है और उत्पादन लागत में वृद्धि बाजार में कई अन्य समस्याओं से जुड़ी होती है। औद्योगिक संबंध, व्यापक अर्थ में, विभिन्न संघों, राज्यों, नियोक्ताओं और सरकार के बीच का संबंध है। औद्योगिक कानून और श्रम कानून मिलकर रोजगार कानून बनाते हैं। रोजगार कानून कानून का वह निकाय है जो कामकाजी लोगों और उनके संगठनों से संबंधित प्रशासनिक फैसलों और उदाहरणों को नियंत्रित करता है। श्रम कानून में औद्योगिक संबंध और संबंधित चीजें शामिल हैं। 

औद्योगिक न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस)

20वीं शताब्दी के विकास के दौरान न्यायशास्त्र की एक नई शाखा उभरने लगी जिसे ‘औद्योगिक न्यायशास्त्र’ कहा जाता है। औद्योगिक संबंधों में विकास औद्योगिक क्रांति के दौरान शुरू हुआ और स्वतंत्रता के बाद की अवधि में तेजी से बढ़ा हैं। बढ़ा हुआ श्रम और औद्योगिक कानून औद्योगिक न्यायशास्त्र की वृद्धि और विकास का प्रमाण है। न्यायपालिका ने औद्योगिक संबंधों के मामलों पर निर्णय लेने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। न्यायशास्त्र ने मालिक-नौकर के विश्वास को औद्योगिक संबंधों में आकार और स्थानांतरित कर दिया है। किसी कर्मचारी को हटाने के लिए नियोक्ता की एकमात्र इच्छा पर प्रतिबंध लगाए गए हैं। कर्मचारियों की नियुक्ति और बर्खास्तगी प्रक्रिया अब कर्मचारियों के हितों की रक्षा के लिए कई शर्तों के अधीन है। इस अवधारणा में क्रांति देखी गई है कि जो पैसा लगाता है वह मालिक नहीं रहता और जो श्रम लगाता है वह नौकर नहीं रहता है। नियोक्ता कर्मचारी को काम पर रख सकता है लेकिन केवल अपनी इच्छा पर नौकरी से नहीं निकाल सकता है। कानूनों का उद्देश्य श्रमिकों और श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करना है। उद्योग अनुबंध से स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं और स्थिति का अर्थ है राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्यायिक स्थिति। 

स्वतंत्रता के बाद ही औद्योगिक न्यायशास्त्र ने अपना आकार लिया और श्रमिक वर्ग के प्रति सरकार का रवैया बदल दिया है। औद्योगिक न्यायशास्त्र विकसित और विकासशील देश के उद्योगों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसमें मानवीय संबंधों और कारखानों के बड़े पैमाने पर विकास से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का विस्तृत अध्ययन शामिल है। 1954 में आजादी के बाद से ही श्रम नीति लाने की जरूरत काफी महसूस की जा रही थी। यह नीति श्रमिकों की आत्मनिर्भरता पर केंद्रित होगी। दूसरी ओर, औद्योगिक क्रांति भी हो रही थी जिसके परिणामस्वरूप कारखाना प्रणाली का विकास हुआ और श्रम प्रणाली की परिस्थितियाँ अलग-अलग हुईं।  

औद्योगिक संबंध की परिभाषा 

औद्योगिक संबंध शब्द दो अलग-अलग शब्दों अर्थात उद्योग और संबंध से मिलकर बना है। औद्योगिक संबंध किसी संगठन के कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच होते हैं। उद्योग का अर्थ है कोई भी उत्पादक गतिविधि जिसमें व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह काम में लगा हुआ हो। आर्थिक अर्थ में, उद्योग उत्पादन को प्रभावित करने वाले बाजार का द्वितीयक क्षेत्र है, अर्थात भूमि, श्रम, पूंजी, उद्यम, आदमी, सामग्री, धन और मशीनें। संबंधों का अर्थ है उद्योग के भीतर नियोक्ता और श्रमिकों के बीच संबंध और बंधन। इसलिए, किसी संगठन के कर्मचारियों और प्रबंधन के बीच के संबंध को औद्योगिक संबंध के रूप में जाना जाता है। ये संबंध किसी संगठन में प्रबंधन-व्यापार संघ संबंधों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिणाम हैं। 

आम तौर पर, यह देखा जाता है कि किसी संगठन में, कुछ संबंध उत्पन्न होते हैं, इनमें श्रमिकों और उनके नियोक्ताओं, स्वयं कर्मचारियों और स्वयं नियोक्ताओं के बीच संबंध शामिल होते हैं। यह संबंध सभी स्तरों पर संगठन के स्वस्थ विकास और विस्तार को बढ़ाने और बढ़ावा देने के लिए बनाए गए हैं। कुछ ऐसे पक्ष हैं जो औद्योगिक संबंधों के तंत्र से जुड़े हुए हैं। वे पक्ष कर्मचारी, नियोक्ता, सरकार, नियोक्ता संघ, व्यापार संघ और अदालत और अधिकरण हैं। औद्योगिक संबंध इन सभी पक्षों के लिए स्थापित नियमों और शर्तों पर पेशेवर व्यवस्था के तहत एक-दूसरे के साथ बातचीत करने के माध्यम के रूप में कार्य करता है। 

कई लेखकों ने इस शब्द को उद्योग के प्रति अपने दृष्टिकोण और विचारों के अनुसार अलग-अलग तरीके से परिभाषित किया है। लेकिन एक बात जो सामान्य है वह यह है कि औद्योगिक संबंधों में कार्यस्थल पर सभी प्रकार के नियोक्ता-कर्मचारी संबंध शामिल होते हैं जो सरकार और अन्य आर्थिक और सामाजिक संस्थानों से प्रभावित होते हैं। 

वी. अग्निहोत्री के अनुसार, “औद्योगिक संबंध कर्मचारियों और प्रबंधन के बीच संबंधों की व्याख्या करते हैं, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संघ-नियोक्ता संबंध से उत्पन्न होते हैं।” बेथेल के अनुसार, औद्योगिक संबंध किसी संगठन के कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच संबंधों का प्रबंधन है, जो उनके बीच संभावित बातचीत और गतिशीलता को ध्यान में रखता है। 

भारत में औद्योगिक संबंधों का विकास

औद्योगिक संबंध कैसे काम करते हैं और इसका महत्व क्या है, इसके वर्तमान परिदृश्य में जाने से पहले आइए ब्रिटिश शासन से पहले और स्वतंत्रता के बाद के परिदृश्य के साथ-साथ उभरते व्यापारिक परिदृश्य और भारत में औद्योगिक संबंधों की बदलती गतिशीलता को देखते और समझते हैं।

आज़ादी से पहले का युग

भारत स्वाभाविक रूप से एक कृषि भूमि था और अपने मध्यकालीन और प्राचीन काल के दौरान, इसकी अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी। नियोक्ता-कर्मचारी के बीच का संबंध स्वामी और दास या नौकर का था। भारत में गुलामी प्रथा का बोलबाला था। उस समय के शिल्पकारों और श्रमिकों ने संघ बनाये। उनका मानना था कि यदि मनुष्य एकजुट हो जाए तो उसे कोई रोक नहीं सकता हैं।  विदेशी आक्रमण के समय भारतीय हस्तशिल्प (हैंडीक्राफ्ट) को भारी क्षति पहुँची थी। इसके कारण, कई कारीगर भाग गए और दूर-दराज के गांवों में शरण ली थी। उनकी हालत सबसे खराब हो गई और वे अपना कौशल खोने लगे और एक कारीगर और एक दास के बीच कोई अंतर नहीं रह गया। यह मुगल काल के दौरान था जब स्थिति में सुधार हुआ था। अकबर के शासन के तहत, आगरा, लाहौर, फ़तेहपुर और अहमदाबाद में उद्योग स्थापित किए गए जहाँ श्रमिक अपने कारीगर कौशल को पुनः प्राप्त कर सकते थे। 

औपनिवेशिक काल के दौरान औद्योगिक संबंध अधिकतर स्वामी-सेवक संबंध थे। सरकार ने अहस्तक्षेप की नीतियां लागू कीं और बाद में उनके द्वारा अनुबंध के उल्लंघन के लिए जुर्माना लगाया था। प्रथम विश्व युद्ध का भारत पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था। यह पहली बार था कि श्रमिकों ने अपनी क्षमता देखी और महसूस किया कि यदि वे युद्ध के लिए सामान का उत्पादन करने में सक्षम नहीं हैं, तो इसे सफलतापूर्वक नहीं लड़ा जा सकता है। अन्य घटनाएँ जैसे 1917 में रूसी क्रांति, 1919 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की स्थापना, ब्रिटिश उदार विचारों का प्रभाव, 1926 के भारतीय व्यापार संघ अधिनियम का गठन, 1929 के व्यापार विवाद अधिनियम आदि ने मदद की, औपनिवेशिक काल के दौरान औद्योगिक संबंधों की गति में तेजी थी। 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दोहरी कार्रवाई लागू की गई थी। सबसे पहले, वैधानिक नियम: यह सुनिश्चित करने के लिए कि युद्ध परिदृश्य के दौरान वस्तुओं और सेवाओं का निर्बाध प्रवाह और संचालन का मुक्त प्रवाह बना रहे, सरकार ने कुछ नियम लागू किए। इनमें से कुछ नियमों में औद्योगिक विवादों का अनिवार्य निर्णय शामिल था, और त्रिपक्षीय विचार-विमर्श प्रणाली ने औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 को लागू करने में मदद की थी। 

दूसरे, युद्ध के दौरान एक त्रिपक्षीय परामर्श प्रणाली स्थापित की गई। इस परामर्शी प्रणाली में दो संगठन शामिल थे, भारतीय श्रम सम्मेलन (आईएलसी) और स्थायी श्रम समिति (एसएलसी)। ये सलाहकार निकाय हैं और उन मामलों की चर्चा के लिए जिम्मेदार हैं जो श्रम संबंधों में अखिल भारतीय महत्व के हैं। इस त्रिपक्षीय प्रणाली द्वारा तीन प्रमुख कानून पारित किए गए अर्थात् न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम 1948, और कर्मचारी भविष्य निधि अधिनियम 1952। 

आज़ादी के बाद का युग

औद्योगिक संबंध मानदंड और तंत्र औपनिवेशिक शासकों से विरासत में मिले थे। आजादी के दौर में नेताओं ने ऐसे मानक बनाने का वादा किया और संकल्प लिया, जिससे श्रमिक का गौरव और सम्मान बहाल हो सके। औद्योगिक नीति संकल्प 1956 में बनाया गया था और यह राज्य और केंद्र दोनों स्तरों पर सार्वजनिक उपक्रमों के विकास पर केंद्रित था। श्रमिकों को प्रबंधन और श्रमिक संबंधों के बारे में शिक्षित करने के लिए स्वैच्छिक योजनाओं का पालन किया गया था। सरकार द्वारा किए गए पूरे प्रयास के परिणामस्वरूप, 1969 में श्रम पर पहला राष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया था। 

1975 में इंदिरा गांधी के समय लगे आपातकाल का औद्योगिक संबंधों पर भारी असर पड़ा था। फिर प्रधान मंत्री ने श्रमिकों की भागीदारी प्रदान करने के लिए संविधान में कुछ संशोधन किए और औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 में अध्याय 5B जोड़ा था। 1970 और 1980 के दशक के अंत में अभूतपूर्व न्यायिक सक्रियता देखी गई थी। औद्योगिक संबंधों पर जबरदस्त असर पड़ा था। 

औद्योगिक संबंधों की आवश्यकता एवं महत्व

पिछले कुछ दशकों में बहुत सारे बदलाव देखने को मिले हैं। इन परिवर्तनों ने हमें संगठन के भीतर औद्योगिक संबंधों पर अधिक ध्यान देने के लिए प्रेरित किया। वैश्वीकरण ने इसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और किसी संगठन या उद्यम के प्रबंधन और कार्य करने के तरीके को बदल दिया है। किसी संगठन का प्रमुख लक्ष्य उत्पादकता और गुणवत्ता रहता है। 

प्रौद्योगिकी ने कार्यस्थल संबंधों पर भी ध्यान केंद्रित किया है क्योंकि प्रौद्योगिकी का प्रबंधन लोगों और प्रशिक्षित कर्मचारियों द्वारा किया जाता है। प्रौद्योगिकी ने विभिन्न पारंपरिक कुशल श्रमिकों की नौकरियों को बदल दिया है और इसे संचालित करने के लिए नए अर्जित कौशल की आवश्यकता होती है। 

आर्थिक प्रगति

देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने में मदद करने के लिए, औद्योगिक संबंध बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कार्यस्थल पर शांति और सद्भाव बनाए रखने के लिए, इन संबंधों को व्यवस्थित करना महत्वपूर्ण है ताकि वे किसी संगठन की उत्पादकता में बाधा न डालें। एक संगठन में विविध लोग काम करते हैं और उनमें से कई लोगों को संगठन की जटिल संरचना में बसने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। एक कर्मचारी और नियोक्ता के बीच का रिश्ता किसी संगठन में सबसे महत्वपूर्ण रिश्तों में से एक है क्योंकि वे सामूहिक रूप से उद्योग के विकास में योगदान करते हैं। स्वस्थ संबंध कर्मचारियों और नियोक्ताओं के साथ-साथ उद्योग के लिए भी फायदेमंद होते हैं।

निर्बाध उत्पादन

निर्बाध उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए स्वस्थ औद्योगिक संबंध बनाए रखना आवश्यक है। इस तरीके से संसाधनों का पूरा उपयोग किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप अधिकतम संभव उत्पादन होता है। संगठन के सुचारू संचालन से आय का सहज प्रवाह होता है। 

औद्योगिक विवादों में कमी

यदि कोई उद्योग अपने औद्योगिक संबंध बनाए रखेगा तो इससे विवाद कम होंगे। विवाद उन विफलताओं की संख्या को दर्शाते हैं जो किसी संगठन ने उचित उद्योग संबंधों की कमी के कारण देखी हैं। औद्योगिक विवादों में कमी से उत्पादन बढ़ाने और संगठन के भीतर अधिक सामंजस्य बनाने में मदद मिलेगी। औद्योगिक संबंधों में प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच उत्पन्न होने वाले विवादों या मुद्दों को आपसी समझौते के माध्यम से हल करने की अंतर्निहित साधन होते है। दोनों पक्ष इन निर्णयों से बाध्य हैं। 

औद्योगिक लोकतंत्र कायम रखना 

सच्चे औद्योगिक लोकतंत्र को स्थापित करने और बनाए रखने के लिए, श्रम संबंधों का एक मुख्य उद्देश्य व्यवसाय के दौरान समाजवादी दृष्टिकोण को बनाए रखना है। समाजवादी दृष्टिकोण सामूहिक संसाधन स्वामित्व और केंद्रीकृत निर्णय लेने को बनाए रखना है। इसे शेयरधारक, प्रबंधन, श्रमिक, ग्राहक, समाज आदि होने दें। यह सुनिश्चित करता है कि हितधारकों के पास इसमें शामिल सभी पक्षों को लाभ पहुंचाने के लिए कंपनी की कार्रवाई को ढालने और आकार देने की आवाज है। 

सामूहिक सौदेबाजी (कलेक्टिव बार्गेनिंग)

किसी संगठन में सामूहिक सौदेबाजी की रणनीतियों को बेहतर बनाने के लिए कदम उठाए जाते हैं। ऐसा करने से प्रबंधन और श्रमिकों के बीच संबंध संतुलित और अहानिकर (अनहार्मेड) बने रहते हैं। सामूहिक सौदेबाजी के माध्यम से ही कार्यकर्ता को स्व-नियमन के पहलू से परिचित कराया जाता है। इससे किसी कर्मचारी के लिए अपने सुझाव और अंतर्दृष्टि प्रस्तुत करना आवश्यक हो जाता है कि वे कैसे कार्य करेंगे। आम आदमी के शब्दों में, सामूहिक सौदेबाजी नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच बातचीत की एक प्रक्रिया है। सामान्य तौर पर, श्रमिकों या कर्मचारियों के हितों का प्रतिनिधित्व उन व्यापार संघों  द्वारा किया जाता है जिनसे संबंधित श्रमिक या कर्मचारी संबंधित होते हैं। इसके तहत श्रमिक और कर्मचारी औद्योगिक उत्पादकता की सुरक्षा और बढ़ावा देने के लिए समझौते और समझौते करते हैं। सामूहिक सौदेबाजी का मुख्य उद्देश्य कार्यस्थल में कर्मचारियों की चिंताओं का समाधान करना है। मुद्दों में मुआवजा, काम करने की स्थिति, काम का माहौल, लाभ, कंपनी की नीतियां और प्रक्रियाएं शामिल हो सकती हैं। 

कर्मचारियों का अनुशासन एवं मनोबल बनाये रखना

अच्छे औद्योगिक संबंध कर्मचारियों के लिए किसी उद्योग की कार्यप्रणाली के साथ-साथ उसकी कार्यप्रणाली को समझना संभव बनाते हैं। कर्मचारी अच्छा प्रदर्शन करने की बेहतर स्थिति में होते हैं जब उन्हें पता होता है कि उनसे क्या अपेक्षा की जाती है और अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन करने से उन्हें क्या लाभ मिलेगा। एक अनुशासित कार्यबल संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हमेशा बेहतर परिणाम और आउटपुट देने में सक्षम होगा। इसलिए, अच्छे औद्योगिक संबंधों से मनोबल बढ़ेगा और कार्यबल प्रेरित होगा। 

बर्बादी को कम और अनुकूलित किया गया

औद्योगिक संबंध बनाए रखने से प्रत्येक विभाग के लिए सहयोग और मान्यता से भरा वातावरण बनता है। इससे सामग्री, आदमी और उत्पादन लागत की बर्बादी कम हो जाती है। इससे संगठन का कामकाज कुशल होता है और लक्ष्यों को अधिक प्रभावी ढंग से और कुशलता से प्राप्त करने में मदद मिलती है। 

मानसिक क्रांति

संगठन का उद्देश्य श्रमिकों और कर्मचारियों के मन में संपूर्ण मानसिक क्रांति लाना है। अंततः, औद्योगिक शांति कर्मचारियों और श्रमिकों के परिवर्तित और अद्यतन दृष्टिकोण में निहित है। नियोक्ता और श्रमिक के बीच साझेदारी में श्रमिकों की भूमिका को पहचाना जाना चाहिए। साथ ही, श्रमिकों को नियोक्ता के अधिकार को स्वीकार करना चाहिए। एक दूसरे के हितों को पहचानने से संगठन का उत्पादन असाधारण रूप से अच्छा प्रदर्शन करेगा।

औद्योगिक संबंधों का उद्देश्य

  1. श्रमिकों की आर्थिक स्थिति में सुधार एवं वृद्धि करना।
  2. संगठन के भीतर शांति और सद्भाव स्थापित करना।
  3. श्रमिकों और प्रबंधन के बीच आपसी समझ हासिल करके उनके हितों की रक्षा करना।
  4. उत्पादन को विनियमित करके और सामंजस्यपूर्ण औद्योगिक संबंधों को बढ़ावा देकर उच्च कारोबार (टर्नओवर) के परिणामस्वरूप उत्पादकता में वृद्धि करना। 
  5. श्रमिकों और कर्मचारियों दोनों की आर्थिक स्थिति में सुधार करना। 
  6. औद्योगिक लोकतंत्र की स्थापना करना। 
  7. श्रमिकों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हितों को सुरक्षित करना।
  8. पूर्ण रोजगार की स्थिति स्थापित करना और अधिकतम एवं कुशल उत्पादकता द्वारा देश की आर्थिक वृद्धि में योगदान देना।
  9. मैत्रीपूर्ण श्रम-प्रबंधन संबंध विकसित करना।
  10. श्रमिकों की ताकत में सुधार के लिए व्यापार संघों  के विकास को प्रोत्साहित करना।

औद्योगिक संबंधों की प्रकृति और दायरा

औद्योगिक संबंधों का उद्देश्य कर्मचारियों के हितों और प्रबंधन के साथ उनके संबंधों की रक्षा करना है। यह संगठन की क्षमता को कर्मचारी अपेक्षाओं, व्यापार संघों, आर्थिक समाजों और अन्य मुद्दों के बीच संतुलन बनाए रखने में सक्षम बनाता है। 

औद्योगिक संबंध शब्द एक व्यापक शब्द है जिसे विभिन्न विद्वानों द्वारा अलग-अलग तरीकों से व्यक्त किया गया है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार, औद्योगिक संबंधों में राज्य और नियोक्ताओं के बीच संबंध और व्यापार संघों और नियोक्ता संघों के बीच संबंध शामिल हैं। किसी संगठन के औद्योगिक संबंध विभाग द्वारा किए जाने वाले विभिन्न कार्य जनसंपर्क, श्रम संबंध, नीतियों और कार्यक्रमों का प्रबंधन, कर्मचारियों के रोजगार रिकॉर्ड बनाए रखना आदि हैं। 

औद्योगिक संबंधों के कार्य

औद्योगिक संबंधों के कई कार्य हैं जो संगठन को अपने लक्ष्यों को कुशलतापूर्वक और प्रभावी ढंग से प्राप्त करने में मदद करने के लिए किए जाते हैं। कुछ कार्य इस प्रकार हैं:

  1. श्रमिकों और प्रबंधन के बीच स्वस्थ और सामंजस्यपूर्ण संबंध बनाना।
  2. औद्योगिक मानकों के साथ-साथ श्रमिक जुड़ाव में सुधार के लिए नवाचार, निर्माण और सहयोग को प्रोत्साहित करना।
  3. यह सुनिश्चित करना कि ट्रेड यूनियन शांतिपूर्वक विवादों के समाधान में योगदान दें और संगठन में अस्वास्थ्यकर, अनैतिक और अनुशासनहीन कामकाजी माहौल से बचें।
  4. संगठनात्मक संबंध और कुशल उत्पादकता को बनाए रखते हुए संगठनात्मक उद्देश्यों को प्राप्त करना।
  5. ऐसी नीतियां बनाना और तैयार करना जो बढ़ी हुई उत्पादकता के साथ-साथ संगठन के भीतर समझ, रचनात्मकता और सहयोग को बढ़ावा देना।
  6. बेहतर कामकाजी मानकों और संगठनात्मक गतिविधियों में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित करना।

औद्योगिक संबंध और मानवीय संबंध

क्र.सं. सामग्री औद्योगिक संबंध मानवीय संबंध
1. अर्थ औद्योगिक संगठन औद्योगिक संबंध शब्द का प्रयोग बहुत व्यापक रूप से करते हैं।  यह किसी संगठन में नियोक्ताओं और कर्मचारियों या श्रमिकों के बीच संबंध को संदर्भित करता है। मानवीय संबंध व्यक्तियों के बीच पारस्परिक संबंधों और समूहों के व्यक्तिगत सदस्यों के रूप में उनके व्यवहार से अधिक चिंतित हैं।
2. संबंध इसमें नियोक्ताओं और कर्मचारियों या कानून द्वारा विनियमित श्रमिकों के बीच मानवीय संबंधों और संबंधों को शामिल किया गया है। इसका संबंध नैतिक एवं सामाजिक तत्वों के आधार पर व्यक्ति के व्यवहार से है।  वे स्वभाव से व्यक्तिगत हैं।
3. उद्देश्य औद्योगिक संबंधों का मुख्य उद्देश्य प्रभावी विवाद समाधान के साथ-साथ शांति और सद्भाव बनाए रखना है। मानवीय संबंधों का मुख्य उद्देश्य श्रमिकों की दक्षता में सुधार करके और उन्हें इंसानों के रूप में व्यवहार करके उनके बीच अपनेपन की भावना पैदा करना और विकसित करना है।
4. प्रयोज्यता का दायरा व्यापक संकुचित (नेरोअर)

 

औद्योगिक संबंध कितने प्रकार के होते हैं?

औद्योगिक संबंध चार प्रकार के होते हैं:

नियोक्ता-कर्मचारी संबंध

नियोक्ता-कर्मचारी प्रकार के औद्योगिक संबंधों में किसी संगठन के श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच कामकाजी संबंध शामिल होते हैं। संगठन के लिए लाभकारी परिणाम प्राप्त करने के लिए दोनों के बीच आपसी संबंध हैं। इन दोनों के लिए एक मजबूत रिश्ता विकसित करना बहुत महत्वपूर्ण है, ऐसा न करने पर लक्ष्य हासिल करने में असमर्थता आ जाएगी। नियोक्ता और कर्मचारी के बीच के इस संबंध को रोजगार संबंध के रूप में जाना जाता है। यदि संबंध सफलतापूर्वक काम करता है तो इसके परिणामस्वरूप आर्थिक विकास और उत्पादकता में वृद्धि होगी। यदि किसी कर्मचारी का नियोक्ता के साथ सकारात्मक और स्वस्थ संबंध है, तो वह अधिक प्रभावी ढंग से प्रदर्शन करता है और संगठनात्मक लक्ष्यों की सफलता सुनिश्चित करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ देता है। एक अच्छा नियोक्ता-कर्मचारी संबंध होना किसी भी संगठन का मूल आधार है। यदि कर्मचारी मूल्यवान महसूस करते हैं, तो वे अपनी प्रतिभा और विशेषज्ञता का अधिकतम लाभ उठाएंगे। 

समूह संबंध

समूह संबंध विभिन्न श्रमिकों, पर्यवेक्षकों (सुपरवाइजर), तकनीकी व्यक्तियों आदि के बीच के संबंध हैं। समूह संबंध सिद्धांत परंपरा और नवीनता के परस्पर क्रिया के साथ-साथ समूहों और सामाजिक गतिशीलता के बारे में जानने का अवसर देता है। यह संगठन और उसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक वातावरण के बीच संबंधों को नियंत्रित करता है।

श्रमिक संबंध

औद्योगिक संबंधों का एक पहलू यह भी है जो श्रम कानून, सामूहिक सौदेबाजी, समझौतों और मध्यस्थता प्रक्रियाओं द्वारा शासित होता है। यह संघ और प्रबंधन के बीच का संबंध है जिसे श्रम प्रबंधन संबंध के रूप में भी जाना जाता है। 

जनसंपर्क

किसी संगठन का समाज और बाहरी निकायों के साथ जो संपर्क होता है उसे सार्वजनिक मामला कहा जाता है। उद्योग में लंबे समय तक टिके रहने के लिए, संगठन को जनता के साथ स्वस्थ और सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखना चाहिए। तो मूल रूप से यह उद्योग और समाज के बीच का संबंध है। 

औद्योगिक संबंधों को प्रभावित करने वाले कारक

आंतरिक कारक

  • श्रमिकों और यूनियन सदस्यों के प्रति प्रबंधन का तानाशाही रवैया।
  • प्रबंधन और यूनियन सदस्यों के प्रति श्रमिकों का हीन या विद्रोही रवैया।
  • यूनियनों, श्रमिकों और नियोक्ताओं का आपस में विरोधाभासी रवैया।
  • संगठन के विभिन्न विभागों या स्तरों के बीच प्रतिद्वंद्विता (रिवालरी)।
  • प्रबंधन और श्रमिकों के बीच मतभेद और गलतफहमियाँ।
  • अधिकारियों के सामने आने वाली समस्याएं।
  • नीतियाँ और योजनाएँ-पालन और कार्यान्वयन।

बाहरी कारक

  • संघों का जुझारूपन (मिलिटेंसी), चाहे स्थानीय स्तर पर हो या राष्ट्रीय स्तर पर।
  • राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर सौदेबाजी।
  • राष्ट्रीय और स्थानीय प्रक्रिया का कार्यान्वयन और प्रभावशीलता।
  • किसी संगठन के भीतर औद्योगिक संबंधों को नियंत्रित करने वाला कानूनी ढांचा। 

औद्योगिक संबंधों के विभिन्न प्रतिरूप (मॉडल) और दृष्टिकोण

औद्योगिक संबंध एक व्यापक विस्तार को शामिल करता है और अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग तरह से माने जाते हैं। एचआर को उद्योग संबंधों के प्रत्येक पहलू को समझना आवश्यक है क्योंकि वे ही हैं जिनसे प्रत्येक एचआरएम समस्या के लिए व्यवहार्य समाधान प्रदान करने की उम्मीद की जाती है। मुख्य रूप से तीन लोकप्रिय दृष्टिकोण हैं अर्थात् एकात्मक दृष्टिकोण, बहुलवादी दृष्टिकोण और मार्क्सवादी दृष्टिकोण। हालाँकि, कोई सही या गलत दृष्टिकोण नहीं है, औद्योगिक संबंधों के अभिनेताओं और खिलाड़ियों के बीच जटिल और विविध स्थितियों को समझने के लिए इन दृष्टिकोणों का उपयोग व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से किया जा सकता है। 

एकात्मक दृष्टिकोण

यह दृष्टिकोण इस अवधारणा के इर्द-गिर्द घूमता है कि अधिकार का केवल एक ही स्रोत है। प्रबंधन के अधिकार का यह स्रोत बातचीत और सौदेबाजी से संबंधित मुद्दों में निर्णय लेने को प्रभावित करने वाले कारकों को नियंत्रित करता है। कार्यस्थल पर उत्पन्न होने वाले विवादों को खराब प्रबंधन के परिणामस्वरूप देखा जाता है, उन कर्मचारियों से जो संगठन की संस्कृति के साथ अच्छा समन्वय नहीं करते हैं। नियोक्ता को नेता और एकमात्र निर्णय निर्माता माना जाता है जबकि कर्मचारी निर्णयों के निष्क्रिय प्राप्तकर्ता के रूप में कार्य करते हैं। संघ भी प्रबंधन के साथ सहयोग करती हैं और उनके प्रबंधन के अधिकार को इस अंतर्निहित धारणा के कारण स्वीकार किया जाता है कि प्रबंधन जो भी करता है वह सभी के लाभ के लिए होता है और सद्भाव को बढ़ावा मिलता है। यह दृष्टिकोण प्रतिक्रियाशील औद्योगिक संबंध रणनीति का अनुसरण करता है और कर्मचारियों के साथ सीधी बातचीत की मांग की जाती है। कई आलोचकों ने एकात्मक दृष्टिकोण को चालाकीपूर्ण और शोषणकारी बताते हुए इसकी आलोचना की है। उनका कहना है कि यह दृष्टिकोण अवास्तविक है क्योंकि यह नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच अंतर्निहित शक्ति असंतुलन को नजरअंदाज करता है। 

बहुलवादी (प्लुरलिस्ट) दृष्टिकोण

यह दृष्टिकोण प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच अंतर्निहित विवाद की पहचान करता है। यह कार्यस्थल के भीतर विचारों और दृष्टिकोणों की विविधता को पहचानता है। यह दृष्टिकोण विवाद की उत्पत्ति के बजाय उसके समाधान पर केंद्रित है। संगठन विवादों में सामाजिक वातावरण एक महत्वपूर्ण और आवश्यक कारक है। बहुलवादी दृष्टिकोण का मुख्य उद्देश्य नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच आपसी सम्मान और समझ को बढ़ावा देना है। नियोक्ता-कर्मचारी संबंध को एक गतिशील संबंध के रूप में देखा जाता है जो राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों से प्रभावित होता है। हालाँकि, बहुलवादी दृष्टिकोण की कुछ आलोचनाएँ भी हैं। जहां बहुलवादी दृष्टिकोण का पालन किया जाता है वहां निर्णय लेना और आम सहमति तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है। संगठन का मानना है कि प्रबंधन और श्रमिकों के बीच विवाद अपरिहार्य है और यह अपने रास्ते से भटक जाता है। यह सिद्धांत 1960 के दशक के मध्य और 1970 के दशक की शुरुआत में विकसित हुआ था। 

मार्क्सवादी दृष्टिकोण

इसे उग्र सिद्धांत (रेडिकल थ्योरी) के नाम से भी जाना जाता है।  बहुलवादियों की तरह, मार्क्सवादी भी मानते हैं कि नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच विवाद अपरिहार्य है। हालाँकि, मार्क्सवादियों का मानना है कि विवाद समाजों के बीच विभाजन के कारण नहीं बल्कि समाज और इसे प्रबंधित करने वालों के बीच विभाजन के कारण उत्पन्न होते हैं। उनका मानना है कि यदि सामाजिक परिवर्तन लाना है तो उससे पहले वर्ग विवाद होना आवश्यक है। इससे श्रमिकों की मजबूत प्रतिक्रिया होती है और संगठन/उत्पादन के मालिकों और श्रमिकों के बीच की दूरी कम हो जाती है। वे व्यापार संघों को सामाजिक परिवर्तन में क्रांति लाने के साथ-साथ पूंजी द्वारा शोषण के प्रति श्रमिक प्रतिक्रिया के हथियार के रूप में देखते हैं। व्यापार संघों का मुख्य केंद्र पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर श्रमिकों की स्थिति में सुधार करना है। मार्क्सवादियों का मानना था कि सभी हड़तालें राजनीतिक कारणों का परिणाम थीं। मार्क्सवादी विभिन्न बिंदुओं पर बहुलवादी दृष्टिकोण का खंडन करते हैं। मार्क्सवादी दृष्टिकोण का लक्ष्य रोजगार संबंधों में अधिक लोकतंत्र और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना है। 

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण संगठन के भीतर व्यक्ति की धारणाओं और चिंताओं पर केंद्रित है। नियोक्ता और कर्मचारी दोनों का व्यक्तिगत व्यवहार और दृष्टिकोण इस दृष्टिकोण का मुख्य आकर्षण हैं। ऐसा माना जाता है कि किसी संगठन की सफलता कर्मचारी और प्रबंधन के बीच बातचीत पर निर्भर करती है। ये अंतःक्रियाएँ लोगों की प्रेरणा, दृष्टिकोण और व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित होती हैं। यह तीन सिद्धांत हैं प्रेरणा सिद्धांत, व्यक्तित्व सिद्धांत और संगठनात्मक व्यवहार सिद्धांत जिनका औद्योगिक संबंधों को समझने और सुधारने के लिए अत्यधिक उपयोग किया जाता है। 

समाजशास्त्रीय (सोशियोलॉजिकल) दृष्टिकोण

समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण का ध्यान औद्योगिक संबंधों के भीतर सामाजिक संरचनाओं का निर्माण करना है। यह दृष्टिकोण शक्ति संबंधों और व्यापक सामाजिक कारकों पर जोर देता है जो नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच संबंधों को प्रभावित करते हैं। व्यापक सामाजिक संदर्भ की गतिशीलता को समझने के लिए, औद्योगिक संबंधों को तत्काल कार्यस्थल से परे जाना होगा। यह यह भी माना जाता है कि यह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारक हैं जो औद्योगिक संबंधों को आकार देने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। 

ऐसे कई सिद्धांत हैं जिनका उपयोग कार्यस्थल की गतिशीलता को बेहतर ढंग से समझने के लिए किया जाता है। ये विवाद सिद्धांत, प्रणाली सिद्धांत और संस्थागत सिद्धांत है। विवाद सिद्धांत सामूहिक सौदेबाजी और कार्यकर्ता लामबंदी के माध्यम से विवाद के समाधान पर केंद्रित है। प्रणाली सिद्धांत इस तथ्य को सीखने के महत्व पर केंद्रित है कि प्रणाली के एक हिस्से में परिवर्तन पूरे प्रणाली को प्रभावित कर सकता है। यह औद्योगिक संबंधों को व्यक्तिगत अन्योन्याश्रित भागों की एक जटिल प्रणाली के रूप में मान्यता देता है। संस्थागत सिद्धांत उन परिवर्तनों को पहचानता है जो संस्थाएँ औद्योगिक संबंधों में ला सकती हैं। कुल मिलाकर, समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण का ध्यान कार्यस्थल में सामाजिक न्याय के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सामूहिक कार्रवाई और सामाजिक गतिशीलता पर है। 

मानवीय संबंध दृष्टिकोण

मानवीय संबंध दृष्टिकोण का मुख्य केंद्र सकारात्मक कामकाजी माहौल के साथ-साथ संचार और नौकरी की संतुष्टि पर है। औद्योगिक संबंध केवल नियमों और विनियमों को लागू करने के बारे में नहीं होना चाहिए, बल्कि संगठन के भीतर एक सहायक कार्य संस्कृति बनाने के बारे में भी होना चाहिए जो कर्मचारी उत्पादकता और काम करने की प्रेरणा को बढ़ावा दे। 

यह दृष्टिकोण कर्मचारियों को कुछ भावनात्मक जरूरतों और इच्छाओं वाला मानव मानता है, न कि केवल काम पूरा करने का एक माध्यम मानता है। कार्यस्थल पर कर्मचारियों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाना चाहिए और उनका सम्मान किया जाना चाहिए। वे संगठन के निर्णय लेने में शामिल होंगे। उन्हें संगठन के भीतर अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक दोनों क्षेत्रों में आगे बढ़ने और विकास करने के लिए विभिन्न अवसर दिए जाएंगे।मानवीय संबंध दृष्टिकोण का मुख्य उद्देश्य कर्मचारियों के लिए स्वस्थ और सकारात्मक कार्य वातावरण को बढ़ावा देना है। इस दृष्टिकोण के माध्यम से संगठन को कर्मचारी की भलाई, उत्पादकता और नौकरी से संतुष्टि को पहचानना चाहिए। 

गिरि दृष्टिकोण

गिरि दृष्टिकोण भारतीय विद्वान डॉक्टर गिरि द्वारा पेश किया गया था और यह अहिंसा, आपसी समझ, सामाजिक न्याय और सहयोग के महत्व के गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित था। औद्योगिक संबंधों को सहयोग, आपसी समझ और सामाजिक न्याय के दायरे से देखा जाता था। औद्योगिक संबंध कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच सहयोग और आपसी सम्मान पर आधारित होने चाहिए। एक निश्चित विवाद को हल करने के लिए, संगठन को बातचीत और पराक्रम (नेगोशियेशन) की प्रक्रिया का पालन करना चाहिए। इससे संगठन के भीतर आपसी समझ को बढ़ावा मिलता है। औद्योगिक संबंधों में सामाजिक न्याय प्राप्त करना इस दृष्टिकोण के प्रमुख कारकों में से एक है। संगठन का ध्यान श्रमिकों के कल्याण पर होगा। 

गांधीवादी दृष्टिकोण

यह दृष्टिकोण अहिंसा, सामाजिक न्याय और आपसी सम्मान के गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित है। यह दृष्टिकोण भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के नेता महात्मा गांधी द्वारा अपनाया गया था। वे अहिंसक, न्यायपूर्ण एवं निष्पक्ष समाज के समर्थक थे। इस दृष्टिकोण से औद्योगिक संबंधों में परस्पर सम्मान और सहयोग रहेगा। विश्वास और सहयोग पर आधारित रिश्तों की नींव बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। 

विवादों को बातचीत और परक्रामण (नेगोशिएशन) के माध्यम से हल किया जाएगा। कर्मचारियों की भलाई को बढ़ावा देने के लिए एक समावेशी और स्वस्थ कार्यस्थल बनाना संगठन की सामाजिक जिम्मेदारी है। औद्योगिक प्रकृति में सामुदायिक सशक्तिकरण होगा और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देकर स्थानीय उद्योगों को विकसित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। यह दृष्टिकोण सभी के लिए एक समतापूर्ण (इक्विटेबल) समाज को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। 

औद्योगिक संबंधों के लाभ और नुकसान

लाभ

  • सकारात्मक कर्मचारी-नियोक्ता संबंधों के परिणामस्वरूप उत्पादकता में वृद्धि हुई है। कर्मचारी-नियोक्ता के बीच अच्छे संबंध से उत्पादकता में वृद्धि होती है। 
  • प्रतिधारण (रिटेंशन) दर अधिक हो जाती है। लोग ऐसे संगठन में रहना और काम करना चाहेंगे जहां उन्हें महत्व दिया जाए और उनकी क्षमताओं को पहचाना जाए। 
  • जो लोग काम करते हैं वे प्रेरित होते हैं और संगठन के सामान्य लक्ष्य से प्रेरित होते हैं। यदि श्रमिकों को उनकी इच्छित तकनीक, अच्छा कार्य वातावरण, अत्यधिक प्रेरित टीम और व्यक्तिगत प्रतिक्रिया (फीडबैक) प्रदान किया जाता है, तो वे अपने लक्ष्यों को अधिक कुशलता से प्राप्त करते हैं। 
  • काम करने की प्रेरणा और इच्छा के कारण, यह कार्यस्थल से अनुपस्थिति को कम करता है।
  • अच्छे औद्योगिक संबंधों के बदले में राजस्व बढ़ाया जाता है। संगठन के भीतर कोई बड़ा विवाद नहीं है और अच्छे औद्योगिक संबंध बनाए रखने के लिए छोटे विवादों को संगठन के बातचीत तंत्र द्वारा हल किया जाता है। 

नुकसान

अगर संबंध अच्छे होंगे तो संगठन के अंदर और संगठन के बाहर भी शांति और व्यवस्था बनी रहेगी। हालाँकि, ख़राब औद्योगिक संबंध निम्नलिखित परिस्थितियों को जन्म देंगे: 

  • कुछ उद्योगों में, श्रमिकों को वेतन की हानि, शारीरिक चोटें, कड़वे संबंध, करियर पर प्रतिकूल प्रभाव आदि का सामना करना पड़ता है।
  • कुछ उद्योगों में उद्योगपतियों को कम उत्पादन, कम लाभ, खराब मानवीय संबंध, क्षतिग्रस्त मशीनें, निश्चित व्यय का बोझ आदि का सामना करना पड़ता है।
  • सरकार पर भी कुछ प्रभाव पड़ते हैं जैसे राजस्व की हानि, समाज में शांति और व्यवस्था की कमी, विभिन्न राजनीतिक दलों पर दोषारोपण (ब्लेमिंग) आदि।
  • खराब औद्योगिक संबंधों से उपभोक्ता भी प्रभावित होते हैं, जिससे ऊंची कीमतें, वस्तुओं की कमी और वस्तुओं की गुणवत्ता पर असर पड़ता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और देश के आर्थिक विकास पर भारी प्रभाव पड़ता है।
  • अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता।

भारत में औद्योगिक संबंधों का अनुप्रयोग

भारत में औद्योगिक संबंध त्रिपक्षीय प्रकृति के हैं। भारत सरकार श्रम प्रशासन में बहुत बड़ी भूमिका निभाती है। हालाँकि, आईटी उद्योग के आगमन के साथ, प्रणाली द्विदलीय प्रणाली की ओर बदल रही है। भारत में बदलती प्रणालियाँ और भारत में औद्योगिक संबंधों के अनुप्रयोग में उनकी भूमिका निम्नलिखित हैं। 

व्यापार संघ

व्यापार संघ का गठन और विकास स्वतंत्रता युग में ही शुरू हो गया था। 19वीं सदी में जब औद्योगीकरण हो रहा था, तब श्रमिकों को खराब कामकाजी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था और यहां तक कि उनके बुनियादी अधिकारों की भी रक्षा नहीं की जाती थी। इसके कारण विभिन्न कार्यस्थलों पर श्रमिकों का आंदोलन और विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया। भारत में पहली संगठित हड़ताल 1877 में नागपुर में एक्सप्रेस मिल की थी। 1947 में आज़ादी के बाद सार्वजनिक क्षेत्र में विकास देखा गया और इससे रोज़गार में वृद्धि हुई। उस समय श्रमिक आंदोलन सरकार द्वारा नियंत्रित और निर्देशित था। जल्द ही, औद्योगिक ठहराव और अंतर-संघ प्रतिद्वंद्विता का युग आ गया, जिससे व्यापार की अनुचित शर्तें, तेल की कीमतें, रोजगार में कमी, श्रम उत्पादकता में कमी आदि हुई। इससे हड़तालों और अंतर-संघ प्रतिद्वंद्विता की संख्या में वृद्धि हुई। 

बाद में 1980 के दशक में भारत को भुगतान संतुलन में असंतुलन का सामना करना पड़ा और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से भारी ऋण लेना पड़ा। इसके बाद भारत में आर्थिक सुधार देखने को मिले। इन सुधारों से औद्योगिक संबंधों में बदलाव आया और रोजगार में अधिक लचीलापन आया तथा सरकारी हस्तक्षेप कम हुआ। 2008 में वैश्विक मंदी के समय भारी संख्या में नौकरियाँ ख़त्म होती देखी गईं। 2008 में मंदी से तृतीयक क्षेत्र विशेष रूप से प्रभावित हुआ था। इससे व्यापार संघों  की शक्ति, एकता और प्रभाव में धीरे-धीरे गिरावट आने लगी थी। 

प्रबंधन

समय बीतने के साथ, व्यापार संघों ने विकास की गति खोना शुरू कर दिया था। यही वह समय था जब प्रबंधन शक्तिशाली हो गया और कार्यस्थल प्रबंधन की कमान अपने हाथ में ले ली थी। खुले बाजार प्रणाली के आगमन के साथ प्रबंधन कार्यस्थल पर नियंत्रण पाने में बेहतर सक्षम है। कई बार प्रबंधन और व्यापार संघों ने हाथ मिलाया है और किसी व्यवसाय को लाभ पहुंचाने के लिए आपसी व्यवस्था की है। हालाँकि, इस व्यवस्था की अधिक सराहना नहीं की गई क्योंकि व्यापार संघ को ही वेतन कटौती आदि जैसी रियायतों का वहन करना पड़ता था। सभी संभावित क्रमपरिवर्तन और संयोजनों के बाद, यह पाया गया कि यह प्रबंधन ही था जो शक्ति को संतुलित करने और औद्योगिक संबंधों को बनाए रखने में सक्षम था। आकार घटाने, उपठेकेदारी और आउटसोर्सिंग ने प्रबंधन को कार्यस्थल पर अधिक नियंत्रण प्रदान किया था। बदले में इस शक्ति और अधिकार ने प्रबंधन को स्वतंत्र रूप से अपने निर्णय लेने और किसी भी संघ के अनावश्यक विरोध के बिना उन्हें लागू करने में मदद की थी। 

फिर भी, ऐसे कई उद्योग हैं जो व्यापार संघों के तरीको पर काम करते हैं। कुछ स्थान ऐसे हैं जो व्यापार संघों को पसंद करते हैं और अन्य लोग प्रबंधन को प्राथमिकता देते हैं। दोनों के बीच रस्साकशी (टग ऑफ वार) आज भी जारी है। भारत में औद्योगिक व्यवस्था में प्रबंधन और व्यापार संघ के बीच संतुलन बनाए रखना बहुत जटिल है फिर भी आवश्यक है। 

सरकार

आजादी से पहले ब्रिटिश काल में श्रमिक अधिकारों की अनदेखी की गई थी। कार्यस्थल पर श्रमिकों को काफी दमन का सामना करना पड़ता था, जहां उनकी जरूरतों का भी ध्यान नहीं रखा जाता था। स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार ने विभिन्न कानून लाकर श्रमिकों और उनके हितों की रक्षा करने का प्रयास किया था। इन कानूनों ने बुनियादी अधिकारों की रक्षा करने और वेतन, कामकाजी माहौल आदि के संबंध में उनके हितों की रक्षा करने का वादा किया था। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) में भारी वृद्धि और विस्तार देखा गया था। उस समय निजी क्षेत्र को पीछे छोड़कर सरकारी क्षेत्र बाजार पर हावी होने लगा था। निजी क्षेत्र को अनुमति लेनी पड़ती थी और वह काफी हद तक सरकार पर निर्भर था। लेकिन अब, समय बीतने के साथ, सरकार की प्रमुख भूमिका को दरकिनार कर दिया गया है और द्विपक्षीयता देखी जाने लगी है। सरकार भारतीय श्रम सम्मेलनों के माध्यम से श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच स्वस्थ संबंध बनाए रखने के लिए लगातार प्रयास करती रहती है। हालाँकि कार्यस्थल पर श्रमिकों के सामने आने वाले संकट से निपटने के लिए आज तक विभिन्न कानून पेश किए गए हैं, फिर भी कुछ क्षेत्र अछूते हैं। अनौपचारिक और गैर-नियमित प्रकार के रोजगार में श्रमिकों के हितों की सुरक्षा को अभी भी पूरी तरह से शामिल नहीं किया गया है। 

पंचवर्षीय योजनाएँ और औद्योगिक संबंध

1947 से 2017 तक पंचवर्षीय योजनाएँ बनाई गईं और उनका जोर एकीकृत राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रम लाने पर था। भारतीयों का ध्यान हर पांच साल में नए लक्ष्य पेश करके इन कार्यक्रमों की योजना और कार्यान्वयन पर केंद्रित था। ये योजनाएँ भारत के योजना आयोग (1951-2014) और नीति आयोग (2015-2017) द्वारा बनाई, क्रियान्वित (इंप्लीमेंटेड) और निगरानी की गईं। भारत अपनी आजादी के तुरंत बाद भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में अपनी पहली पंचवर्षीय योजना शुरू करने में सक्षम था। 

प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-1956)

प्रथम पंचवर्षीय योजना का मुख्य जोर कृषि गतिविधियों और उनके विकास पर था। सरकार का ध्यान नए उद्योग लगाने की बजाय पहले से लगे उद्योगों को बढ़ाने पर ज्यादा था। औद्योगिक क्षेत्र का लक्ष्य मौजूदा क्षमता का बेहतर उपयोग करने के लिए उद्योग का नवीनीकरण और आधुनिकीकरण करना था। 

द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-1961)

द्वितीय पंचवर्षीय योजना में भारी उद्योगों और परिवहन का विकास और वृद्धि देखी गई थी। भारी उद्योगों को पी.सी.महालनोबिस मॉडल पर स्थापित किया जाना था। मुख्य प्रकाश लौह और स्टील उद्योग, उर्वरक (फर्टिलाइजर) उद्योग और भारी इंजीनियरिंग उद्योग पर डाला गया था। इसके साथ ही 1956 में दूसरी औद्योगिक समाधान नीति की घोषणा की गई और छत्तीसगढ़ में भिलाई स्टील प्लांट के साथ पश्चिम बंगाल में दुर्गापुर स्टील प्लांट की स्थापना की गई थी। 1959 में ओडिशा में राउरकेला स्टील प्लांट भी स्थापित किया गया था। इस योजना के दौरान ही कई प्रसिद्ध स्टील प्लांट स्थापित और विस्तारित किए गए थे। 

तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-1966)

लोहा और इस्पात, बिजली आदि जैसे बुनियादी उद्योगों का प्रमुख विस्तार हैं। तीसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान बिजली आदि देखी गई। बोकारो स्टील प्लांट की स्थापना 1964 में झारखंड में की गई थी। उस समय पूंजीगत सामान उद्योग भी सुर्खियों में थे, और उन्हें बनाने के लिए कुछ विकास किए गए थे। 

चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-1974)

पुनः चौथी पंचवर्षीय योजना में कृषि आधारित उद्योगों पर ध्यान केन्द्रित किया गया था। इनमें कपास, जूट, चीनी आदि शामिल थे। मिश्र धातु और एल्यूमीनियम क्षेत्रों में प्रगति देखी गई थी। औद्योगिक फैलाव की प्रक्रिया को बढ़ावा देने के लिए कुछ प्रयास किए गए। 1972 में भारत सरकार द्वारा कोयला क्षेत्र का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था। 

पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-1979)

लौह और स्टील संयंत्रों, निर्यात-उन्मुख उत्पादों और बड़े पैमाने पर उपभोग की वस्तुओं का तेजी से विकास पांचवीं पंचवर्षीय योजना का मुख्य ध्यान था। तेल शोधन, रसायन और भारी इंजीनियरिंग उद्योग लगातार प्रगति कर रहे थे।

छठी पंचवर्षीय योजना (1980-1985)

इस समय ग्रामीण हस्तशिल्प उत्पाद तेजी पर थे और अधिक ध्यान घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार का दोहन करने पर था। छठी पंचवर्षीय योजना का उद्देश्य संतुलित क्षेत्रीय विकास प्राप्त करना था। वाणिज्यिक वाहन, सीमेंट, कोयला आदि कई उद्योगों ने लक्ष्य हासिल किए थे। 

सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-1990)

1985-1990 के दौरान इलेक्ट्रॉनिक उद्योग मुख्य ध्यान था। इन 5-वर्षीय योजनाओं के दौरान औद्योगिक फैलाव, स्थानीय संसाधनों का दोहन, स्व-रोज़गार और उचित प्रशिक्षण को अधिक महत्व दिया गया था। निर्यात संभावनाओं के लिए घरेलू बाजारों के विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया था। भारत सरकार की औद्योगिक नीति में एक बड़ा बदलाव 1990-92 की वार्षिक योजना अवधि के दौरान देखा गया था। 1991 में नई औद्योगिक नीति अस्तित्व में आई जिससे औद्योगिक व्यापार और विदेशी निवेश नीतियों का उदारीकरण (लिबरलाइजेशन) हुआ था।

आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-1997)

उदारीकरण नीतियों के कार्यान्वयन के बाद क्षेत्रीय असंतुलन दूर हो गया था। योजना ने छोटे क्षेत्र में रोजगार वृद्धि को प्रेरित किया था। 

नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002)

सीमेंट, कोयला, उपभोक्ता सामान, तेल, बुनियादी ढांचे और गुणवत्ता वाले इस्पात उद्योगों के विकास और स्थिर वृद्धि पर जोर दिया गया था। 

दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007)

योजना का मुख्य उद्देश्य लेनदेन लागत को कम करना और निर्यात को बढ़ाना था। साथ ही, बढ़ी हुई वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता और संतुलित क्षेत्रीय विकास हासिल करना है। सरकार ने 2005 में क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) नीति अपनाई थी। 

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012)

योजना का ध्यान तेज विकास पर था और विकास का लाभ आबादी के विभिन्न क्षेत्रों तक पहुंचेगा। रोजगार पैदा करने और गरीबी कम करने के लिए तेजी से औद्योगीकरण और विकास किया गया था। 

बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012- 2017)

इस योजना का विषय तेज़ और अधिक समावेशी सतत विकास था। गांवों में ढांचागत परियोजनाओं और बिजली आपूर्ति पर जोर दिया गया था। इस योजना के तहत गैर-कृषि क्षेत्रों के लिए नये अवसर पैदा किये गये। 

बारहवीं पंचवर्षीय योजना के बाद, कोई और योजना नहीं बनाई गई क्योंकि 2014 में योजना आयोग को भंग कर दिया गया था। 

औद्योगिक संबंध और श्रम कानून: भारत में वर्तमान स्थिति का एक अवलोकन 

देश के औद्योगिक क्षेत्र में विकास और विस्तार ने भारत में रोजगार कानूनों की संभावनाएं खोल दी हैं। श्रम नियमों के अस्तित्व में आने से श्रमिकों और संगठन के साथ उनके संबंधों पर आर्थिक प्रभाव पड़ता है। इन कानूनों की समझ पैदा करना कोई सीधा-सीधा सूत्र (फॉर्मूला) नहीं है। श्रम नीतियों को समझने के लिए अनुभवजन्य (एंपायरिकल) और सांख्यिकीय आंकड़ों से गुजरना होगा। प्रत्येक उद्योग के अपने विशिष्ट नियम और विनियम होते हैं जिन्हें राष्ट्रीय और क्षेत्रीय कानूनों और नीतियों का अनुपालन करने की आवश्यकता होती है। 

प्रत्येक उद्योग के अपने विशिष्ट नियम और विनियम होते हैं जिन्हें राष्ट्रीय और क्षेत्रीय कानूनों और नीतियों का अनुपालन करने की आवश्यकता होती है। सरकार ने 1947 के औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1946 के औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम और व्यापार संघ 1926 अधिनियम को मिलाने का प्रयास किया था। इस संहिता का मुख्य उद्देश्य नियोक्ताओं और कर्मचारियों दोनों को निम्नलिखित तरीके से लाभ पहुंचाना था- 

  1. विवाद समाधान के तंत्र को सुव्यवस्थित करना। इससे नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों में बाधा डाले बिना विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल करने में मदद मिलेगी। 
  2. उन कर्मचारियों की सुरक्षा जो एक निश्चित अवधि के लिए काम करते हैं और जिन्हें एक विशिष्ट अवधि के लिए अनुबंधित किया गया है। 
  3. यह सुनिश्चित करना कि औद्योगिक प्रतिष्ठान दिए गए स्थायी आदेशों का पालन करें। 
  4. गैर-अनुपालन से निपटने के लिए संबंधित अधिकारियों पर सख्त जुर्माना लगाया गया है। 
  5. सुचारू रूप से निर्णय लेने के लिए नियोक्ताओं के बीच व्यवसाय-अनुकूल वातावरण और अधिक लचीलेपन को बढ़ावा देना। 

भारतीय श्रम कानूनों को फिर से तैयार करना समय की मांग थी और इसमें इतने लंबे समय से देरी हो रही है। यदि संबंधित लोगों को कानूनी सहायता और सुरक्षा दी जाए तो भारत उस कगार पर खड़ा है जहां वह उद्योगों का विकास और विस्तार कर सकता है। यह देश का श्रम कानून है जो विभिन्न विदेशी ग्राहकों को भारत में उद्योग स्थापित करने से रोक रहा है। अनुपालन और नियामक बाधाओं को सुधारने और बनाए रखने की सख्त जरूरत है। 

2020 में शुरू किए गए विभिन्न श्रम सुधारों का अवलोकन

भारत में श्रम का विषय समवर्ती सूची के अंतर्गत आता है। इस सूची के अंतर्गत आने वाले विषयों को कानून बनाने के लिए संसद और राज्य विधानमंडल दोनों द्वारा उठाया जा सकता है। श्रम मामलों पर 40 से अधिक केंद्रीय कानून और 100 से अधिक राज्य कानून थे। इन कानूनों को संहिताओं में संशोधित और एकीकृत करने के लिए संहिताएं पेश की गईं। श्रम पर दूसरे राष्ट्रीय आयोग (2002) ने सिफारिश की कि श्रम कानूनों को निम्नलिखित श्रेणियों के तहत एकीकृत किया जाना चाहिए- 

  1. औद्योगिक संबंध
  2. सामाजिक सुरक्षा
  3. सुरक्षा
  4. कल्याण और कामकाजी स्थितियाँ
  5. वेतन

यह सिफ़ारिश इस बात को ध्यान में रखते हुए की गई थी कि मौजूदा श्रम कानून जटिल थे और उनकी परिभाषाएँ असंगत थीं। पारदर्शिता और एकरूपता को बढ़ावा देने के लिए सरल श्रम संहिताओं की आवश्यकता थी। 

औद्योगिक संबंध संहिता, 2020

औद्योगिक संबंध संहिता 2020 व्यापार संघ अधिनियम 1926, औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम 1946 और औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के समामेलन और सरलीकरण  के बाद तैयार किया गया था। संहिता का उद्देश्य श्रमिकों के संघ बनाने के अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक व्यापक ढांचा प्रदान करना, कर्मचारी और नियोक्ता के बीच घर्षण (फ्रिक्शन) को कम करना और औद्योगिक विवादों के सौहार्दपूर्ण समाधान के लिए एक नियामक ढांचा प्रदान करना है। 

संहिता द्वारा विनियमित प्रमुख बाद के क्षेत्र इस प्रकार हैं- 

  1. व्यापार संघ पंजीकरण 
  2. व्यापार संघ रद्दीकरण
  3. व्यापार संघ नाम परिवर्तन
  4. कार्य समिति का गठन
  5. पंजीकृत व्यापार संघो का समावेश
  6. स्थायी आदेश पंजीकरण
  7. स्थायी आदेश की तैयारी
  8. औद्योगिक न्यायाधिकरण का गठन 
  9. श्रमिकों को मुआवजा
  10. छँटनी (रिट्रेंचमेंट) किये गये श्रमिकों की छँटनी और पुनः रोज़गार 
  11. मंदी (ले-ऑफ) पर रोक
  12. किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान का समापन करना और बंद करना 

संहिता का उद्देश्य सुधार और व्यापार करने में आसानी प्रदान करके नियोक्ताओं और कर्मचारियों के हितों और अधिकारों की रक्षा करना है। इसके पीछे का उद्देश्य शांति और सद्भाव को बढ़ावा देना और औद्योगिक विवादों का समाधान करना है। इससे नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच मधुर संबंध बनेंगे। 

संहिता की मुख्य बातें इस प्रकार हैं- 

  1. निश्चित अवधि के कर्मचारी के लिए ग्रेच्युटी
  2. कई परिभाषाओं को संशोधित किया गया है और अधिक समावेशी बनाया गया है।
  3. निश्चित अवधि के कर्मचारियों के लिए ईएसआई, पीएफ, बोनस और वेतन जैसे कुछ वैधानिक लाभ दिए जाते हैं।
  4. सीमा सीमा को 100 श्रमिकों से बढ़ाकर 300 श्रमिकों तक कर दिया गया है।
  5. व्यापार संघ द्वारा 14 दिन की अग्रिम हड़ताल की सूचना देना अनिवार्य है।
  6. विवाद समाधान अधिकरण और एक बेहतर तंत्र पेश किया गया है। 
  7. श्रमिकों के लिए पुनः कुशल निधि (री-स्किल्ड फंड) की स्थापना। 
  8. भर्ती और नौकरी से निकालने की प्रक्रिया के लिए बेहतर प्रावधान और शर्तें।

2020 का सामाजिक सुरक्षा संहिता

सामाजिक सुरक्षा संहिता 2020 को सामाजिक सुरक्षा से संबंधित कानूनों में संशोधन और समेकित करने के लिए लाया गया है। इस संहिता का उद्देश्य संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों के सभी कर्मचारियों और श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना और उसका विस्तार करना है। संहिता का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि वृद्धावस्था, मातृत्व, दुर्घटना आदि के मामलों में स्वास्थ्य देखभाल और आय सुरक्षा की सुरक्षा के लिए सुरक्षा उपाय किए जाएं। सामाजिक सुरक्षा संहिता बनाने के लिए 9 केंद्रीय श्रम कानूनों को मिला दिया गया है। 

संहिता की मुख्य बातें इस प्रकार हैं- 

  1. कर्मचारी की परिभाषा के दायरे का विस्तार किया गया है और अब इसमें अंतर-राज्य प्रवासी श्रमिक, प्लेटफ़ॉर्म श्रमिक और फिल्म उद्योग के श्रमिक भी शामिल हैं।
  2. कामकाजी पत्रकारों के लिए ग्रेच्युटी अवधि 5 वर्ष से घटाकर 3 वर्ष कर दी गई है।
  3. असंगठित श्रमिकों, गिग श्रमिकों और प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों के लिए संहिता के प्रावधान के तहत सामाजिक सुरक्षा कोष स्थापित किए जाते हैं। 
  4. महामारी, महामारी या राष्ट्रीय आपदा की स्थिति में पीएफ या ईएसआई के लिए नियोक्ता या कर्मचारी का योगदान केंद्र सरकार द्वारा कम या स्थगित किया जा सकता है। ऐसा 3 महीने तक किया जा सकता है।
  5. योजनाएं राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा बोर्ड की सिफारिश पर तैयार की जाएंगी जिसे संहिता के तहत स्थापित किया गया है। केंद्र सरकार असंगठित श्रमिकों, गिग श्रमिकों और प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों के विभिन्न वर्गों के लिए नीतियां और योजनाएं तैयार करते समय बोर्ड से सिफारिशें और सुझाव लेगी। 

व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा संहिता 2020

व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा संहिता, 2020 का उद्देश्य श्रमिकों की कार्य स्थितियों से संबंधित कानून को समाहित करना और उन्हें एक व्यापक संहिता में समाहित करना है। संहिता उन कानूनों को समेकित करती है जो किसी प्रतिष्ठान में कर्मचारियों की व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कामकाजी परिस्थितियों को नियंत्रित करते हैं। संहिता 13 अधिनियमों को समेकित करती है जो कारखानों, खदानों, गोदी श्रमिकों, अनुबंध श्रम आदि को शामिल करते हैं। 

संहिता की मुख्य बातें इस प्रकार हैं- 

  1. कारखाने की परिभाषा का विस्तार किया गया है और इसे एक ऐसे परिसर के रूप में वर्णित किया गया है जिसमें कम से कम 20 कर्मचारी बिजली वाली प्रक्रिया के लिए काम करते हैं और 40 कर्मचारी बिना बिजली वाली प्रक्रिया के लिए काम करते हैं।
  2. दैनिक कामकाजी घंटे की सीमा अधिकतम 8 घंटे निर्धारित की गई है।
  3. खतरनाक कामकाजी परिस्थितियों के लिए जनशक्ति सीमा हटा दी गई है।  ठेकेदारों के लिए 50 या अधिक श्रमिकों की भर्ती करना अनिवार्य कर दिया गया है, पहले यह संख्या 20 थी।
  4. रोजगार की औपचारिकता अनिवार्य कर दी गई है जिसमें नियोक्ता को नियुक्ति पत्र जारी करना आवश्यक है।
  5. संहिता में यात्रा भत्ता भी शामिल किया गया है। यह एकमुश्त राशि है जो श्रमिक को उसके मूल राज्य से रोजगार के राज्य तक यात्रा व्यय के लिए भुगतान की जानी है।
  6. अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिकों को सुवाह्यता (पोर्टेबिलिटी) लाभ दिया जाता है।

पुराने सुधार और नये सुधार

निम्नलिखित उन प्रावधानों का तुलनात्मक विश्लेषण है जिन्हें भारत में श्रम क्षेत्र की बेहतरी के लिए बदला या पेश किया गया है। पुराने सुधारों में वे सभी अधिनियम शामिल हैं जिन्हें विभिन्न संहिताओं में शामिल किया गया है। 

क्रम संख्या पुराने सुधार नये सुधार
1. कर्मचारी की परिभाषा स्पष्ट नहीं थी और इसमें निश्चित अवधि के रोजगार का दायरा शामिल नहीं था। कर्मचारी की एक नई परिभाषा, निश्चित अवधि के रोजगार को पेश किया गया है और कर्मकार शब्द का नाम बदलकर श्रमिक कर दिया गया है।
2. औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 9(c) के अनुसार, श्रमिकों को सुलह अधिकारी के पास जाने से पहले समिति के सामने अपनी शिकायतें उठाने की अनुमति नहीं थी। औद्योगिक संबंध संहिता के अनुसार, श्रमिकों के लिए शिकायत निवारण समिति का गठन करना अनिवार्य है।
3. वार्ताकार (नेगोशिएटिंग) संघ को कोई मान्यता नहीं दी गई। वार्ताकार संघ को मान्यता दी जाती है तथा प्रत्येक संगठन को मान्यता देना अनिवार्य है।
4. स्थायी आदेशों की प्रयोज्यता के लिए सीमा सीमा 100 या अधिक कर्मचारी थी। सीमा 300 श्रमिकों तक बढ़ा दी गई है।
5. कर्मियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही पूर्ण करने हेतु दी गयी समय सीमा। जांच और पूछताछ करने के लिए संहिता द्वारा निलंबन की तारीख से 90 दिनों की समय सीमा निर्धारित की गई है।
6. श्रमिक पुनः कौशल निधि की कोई अवधारणा मौजूद नहीं थी। अध्याय XI ने श्रमिक पुनः कौशल की अवधारणा पेश की और इस प्रावधान के अनुसार, नियोक्ता को प्रत्येक छंटनी किए गए श्रमिक के अंतिम आहरित वेतन के 15 दिन के बराबर राशि जमा करनी होगी।
7. दंड सख्त नहीं था और बहुत कम था। लगातार उल्लंघन के लिए जुर्माना अधिक कठोर हो गया है और 2,00,000 रुपये से लेकर 2000 रुपये प्रतिदिन तक का जुर्माना लगाया गया है।
8. पहले औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत अधिकरण का केवल एक सदस्य ही औद्योगिक विवाद को सुलझाने के लिए नियुक्त किया जाता था। अब औद्योगिक संबंध संहिता के तहत एक तंत्र बनाया गया है, जिसके अनुसार, दो सदस्य होंगे जिनमें से एक न्यायिक सदस्य होगा और दूसरा प्रशासनिक सदस्य होगा।

 

श्रम कानून सुधारों में राष्ट्रीय विधि आयोग की भूमिका

औपनिवेशिक काल श्रम कानून प्रणाली का पूर्वज है जिसका आज के युग में अधिकांश देश अनुसरण कर रहे हैं। हालाँकि, इन कानूनों में कई विसंगतियाँ मौजूद हैं। भारत में श्रमिक आंदोलनों और उनकी समान श्रम कानूनों की मांग को बढ़ाकर मांग बढ़ाने की प्रवृत्ति देखी गई है। कई दशक पहले, राष्ट्रीय विधि आयोग ने 1947 की अपनी रिपोर्ट में सुचारु रूप से काम करने वाले औद्योगिक संबंधों को प्रोत्साहित करने के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम को औद्योगिक संबंध अधिनियम में बदलने सहित अंगराग (कॉस्मेटिक) बदलावों का सुझाव दिया था। उन्होंने व्यापार संघ अधिनियम, औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम और औद्योगिक विवाद अधिनियम को संकलित और समेकित करने का भी सुझाव दिया। हालाँकि, इतने वर्षों के बाद भी, कानूनों को सरल और समेकित करने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए। यह 1978 की बात है जब जनता पार्टी सरकार ने संसद में औद्योगिक संबंध विधेयक पेश किया था। हालाँकि, बाद में इसे संसद द्वारा हटा दिया गया था। फिर 1982 में कांग्रेस सरकार द्वारा एक और औद्योगिक संबंध विधेयक लाने का प्रयास किया गया था। एक बार फिर यह संसद में पारित नहीं हो सका। 2002 की राष्ट्रीय विधि आयोग की रिपोर्ट के बाद ही इस संहिता को लागू करने के गंभीर प्रयास किए गए। 

2002 में दूसरे राष्ट्रीय कानून आयोग द्वारा सुझाव दिया गया था कि भारत के श्रम कोड रूस, जर्मनी, हंगरी पोलैंड और कनाडा के समान आधार पर होने चाहिए। आयोग द्वारा कई बदलाव सुझाए गए, जो इस प्रकार हैं- 

  1. कानून द्वारा निर्धारित किसी प्रतिष्ठान को बंद करने या छंटनी के संबंध में कोई पूर्व अनुमति नहीं दी जाएगी।
  2. छंटनी या मंदी के मामले में, प्रतिष्ठान को 2 महीने की पूर्व सूचना देना अनिवार्य है।
  3. छँटनी की स्थिति में मुआवज़े की दर में बढ़ोतरी होनी चाहिए।
  4. 300 से अधिक श्रमिकों वाले कुछ प्रतिष्ठानों को सरकार से निर्धारित कार्योत्तर अनुमोदन प्राप्त करना आवश्यक है।
  5. किसी संगठन के श्रमिकों के हितों और अधिकारों की रक्षा के लिए, प्रतिष्ठान को बंद करने के लिए अध्याय V-B का पालन किया जाना चाहिए। अध्याय V-B प्रतिष्ठान को बंद करने की अनुमति (300 या अधिक श्रमिकों के मामले में) से संबंधित है। 
  6. हड़तालों के लिए सख्त कानून होने चाहिए।  श्रमिकों के आवश्यक वोट लेने के लिए हड़ताल मतपत्र (स्ट्राइक बैलेट) आयोजित किया जाना चाहिए। हड़ताल का समर्थन करने वाले कम से कम 51% कर्मचारी होंगे।
  7. श्रम प्रबंधन संबंधों पर कानूनों में ‘कर्मचारी’ के बजाय लिंग-तटस्थ अभिव्यक्ति ‘श्रमिक’ को शामिल किया जाना चाहिए।
  8. कानून के दायरे में आने वाले सभी प्रतिष्ठानों पर कानून एकरूपता से लागू होना चाहिए।
  9. सामूहिक बातचीत और सौदेबाजी को प्रोत्साहित किया गया।
  10. विवादों को यथासंभव लंबे समय तक मध्यस्थता के माध्यम से निपटाया जाना चाहिए और जहां निर्णय की आवश्यकता हो वहां सरकार द्वारा कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।
  11. श्रमिकों की ओर से बातचीत करने वाले एजेंटों की पहचान और निर्धारण करने के प्रावधान होंगे। बातचीत करने वाले एजेंट को निर्धारित करने की प्रक्रिया के लिए उपयुक्त प्राधिकारियों की स्थापना की जानी चाहिए।
  12. संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों को कानूनों द्वारा शासित किया जाना चाहिए और बेहतर और सुचारू कामकाज के लिए उन्हें पर्याप्त कानून दिए जाने चाहिए।

भारत में श्रम और औद्योगिक संबंधों में न्यायिक रुझान

राष्ट्रीय विधि आयोग की सिफारिशों के बाद कई सुझावों को उच्च न्यायालयों में चुनौती दी गई। जिस संशोधन को चुनौती दी गई थी वह 1976 के संशोधन अधिनियम में सरकार द्वारा छंटनी की सीमा बढ़ाने को लेकर था। न्यायालयों ने भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत इन उल्लंघनकारी अधिकारों की गारंटी दी थी। इनसे श्रमिकों की छंटनी करने के नियोक्ता के अधिकार पर अनुचित प्रतिबंध लगा दिया गया और इस प्रकार इसे अमान्य करार दिया गया। ये प्रावधान नियोक्ताओं के दृष्टिकोण से भी मनमाने और असंवैधानिक थे, जैसा कि वर्कमेन बनाम मीनाक्षी मिल्स लिमिटेड (1994) के मामले में माना गया था। यह सुनिश्चित करने के लिए कि छंटनी निष्पक्ष और उचित हो, उच्च न्यायपालिका द्वारा छंटनी के मामले में कई नियम निर्धारित किए गए थे। उमेश चंद्र बनाम नगर निगम, इलाहाबाद (2005) के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि एक वर्ष से अधिक समय तक काम करने वाले और अपनी निरंतर सेवा देने वाले कर्मचारी की बर्खास्तगी को नोटिस या छंटनी के मामले में अवैध माना जाएगा उन्हें समय पर मुआवजा नहीं दिया जाता है। इसलिए, यह देखा गया कि कर्मचारी की छंटनी के समय मुआवजा दिया जाना चाहिए और यदि नहीं दिया जाता है तो इसे रद्द कर दिया जाएगा और अमान्य माना जाएगा। 

परमानेंट मैग्नेट लिमिटेड बनाम उमाशंकर पांडे (2005) के मामले में यह माना गया कि यदि कोई कर्मचारी जिसने 25 वर्षों तक सेवा की है और अपने कार्यकाल के दौरान अनावश्यक रूप से अनुपस्थित नहीं रहा है, तो उसे हटाया नहीं जाएगा यदि वह कुछ चिकित्सा कारणों से अपनी अनुपस्थिति के लिए उचित कारण बताता है। अनुचित आधार पर कर्मचारी को हटाने के नियोक्ता के वर्तमान निर्णय का निर्णय करने के लिए यहां अदालत कर्मचारी के पिछले कार्यकाल को देखती है। यदि किसी कर्मचारी ने बिना किसी अनुपस्थिति के इतने वर्षों तक सेवा की है और अपने कार्यकाल के दौरान उसका आचरण अच्छा रहा है तो नियोक्ता उसे नहीं हटा सकता है। उसे हटाने का उचित कारण होना चाहिए और यदि वह सचमुच किसी परेशानी में है तो उस पर विचार किया जाना चाहिए। 

नॉर्थ ईस्ट कर्नाटक आरटीसी बनाम अशप्पा (2006) के मामले में, अदालत ने कहा कि काम से लगातार अनुपस्थित रहना कोई छोटा-मोटा कदाचार नहीं है और वह भी बिना किसी उचित कारण के। कर्मचारी को इतनी लंबी अवधि के लिए काम से अनुपस्थिति को उचित ठहराने के लिए उचित आधार साबित करने में सक्षम होना चाहिए और वह भी नियोक्ता को सूचित किए बिना। ऐसे  और कई अन्य मामलों में कार्यस्थल से लगातार अनुपस्थिति के मामले में निर्णय लेने में कुछ न्यायिक बदलाव देखे गए। डीटीसी बनाम सरदार सिंह (2004) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि यदि कोई कर्मचारी बिना स्वीकृत छुट्टी के अपने कार्यस्थल से अनुपस्थित है, तो प्रथम दृष्टया यह देखा जा सकता है कि उसे नौकरी में कोई दिलचस्पी नहीं है। यदि कर्मचारी ने अपने कार्यकाल में पहले ऐसा किया है तो नियोक्ता अपने पिछले अभिलेख (रिकॉर्ड) के आधार पर उसके खिलाफ कुछ कार्रवाई कर सकता है। कुख्यात (इन्फेमस) डेली रेटेड कैजुअल लेबर मामले में मजदूरों ने एक याचिका दायर कर यह मुद्दा उठाया था कि वे दस साल से अनौपचारिक (कैजुअल) मजदूरों के रूप में काम कर रहे हैं और उनकी मजदूरी में कोई वृद्धि नहीं हुई है और उनकी मजदूरी भी बहुत कम है। वे डाक एवं तार विभाग के नियमित कर्मचारियों से बहुत कम थे। भारत संघ ने उनके लिए कम वेतन और उनकी आय को नियमित करने के संबंध में उनके हितों की रक्षा के लिए ऐसी कोई योजना नहीं बनाई थी। उन्होंने भारतीय संघ के नियमित कर्मचारियों के समान वेतन भत्ते की मांग की थी। अदालत ने पाया कि श्रमिकों को शत्रुतापूर्ण भेदभाव का शिकार होना पड़ा था। यह भी देखा गया कि सरकार बाजार में अपनी प्रमुख स्थिति का अनुचित लाभ नहीं उठा सकती और श्रमिकों को इतने कम वेतन पर काम करने के लिए मजबूर नहीं कर सकती। श्रमिक इतने कम वेतन पर काम करने के लिए केवल इसलिए सहमत होते हैं क्योंकि वे गरीबी से त्रस्त हैं और उनके पास आय का कोई अन्य बेहतर स्रोत नहीं है। इसके अलावा, उनका मानना है कि कुछ भी नहीं कमाने के बजाय उन्हें कम से कम अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए कुछ राशि मिल रही है।  यही कारण है कि श्रमिक इतने कम वेतन पर काम करने को राजी हो जाते हैं और संतुष्ट नहीं होते है। 

विवेका नंद सेठी बनाम जे एंड के बैंक लिमिटेड (2005) के मामले में, यह माना गया कि यदि किसी बैंक का कर्मचारी आदतन नौकरी से अनुपस्थित रहता है और लगातार नोटिस के बाद भी प्रबंधन को रिपोर्ट करने में विफल रहता है, तो प्रबंधन द्वारा यह माना जा सकता है कि उसने नौकरी छोड़ दी है। द्विपक्षीय समझौते द्वारा यह भी स्थापित किया जा सकता है कि यदि कोई कर्मचारी बिना कोई सूचना दिए 30 दिनों से अधिक समय तक अनुपस्थित रहता है तो यह माना जा सकता है कि उसे काम करने में कोई रुचि नहीं है और उसने नौकरी छोड़ दी है। 

उपर्युक्त न्यायिक प्रवृत्तियों (ट्रेंड्स) से यह देखा जा सकता है कि उदारीकरण से पहले के युग में न्यायपालिका श्रमिकों की जरूरतों और इच्छाओं के प्रति अधिक संवेदनशील थी। निर्णय भारतीय लोकतंत्र की समाजवादी प्रकृति को ध्यान में रखते हुए समता और न्याय के आधार पर दिए गए थे। श्रम कानूनों के ध्रुव सामाजिक न्याय और श्रमिकों के सामाजिक कल्याण के सिद्धांतों पर आधारित थे। यह श्रमिकों के प्रयासों, हितों और अधिकारों को स्वीकार करने के साथ-साथ यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया था कि उन्हें औद्योगिक विकास में योगदान देने के लिए पर्याप्त सुविधाएं मिलें। औद्योगिक उत्पादकता और विकास को औद्योगीकरण का मुख्य लक्ष्य माना जाता था। अदालतें श्रमिकों की भावनाओं और अच्छे मुद्दों से प्रभावित हो जाती थीं। फिर बदलती श्रम नीतियों के साथ रुझान बदलना शुरू हो गया। जो न्यायपालिका अधिक भावुक थी वह अधिक वस्तुनिष्ठ और व्यावहारिक हो गई थी। पहले ज्यादातर फैसले श्रमिकों के पक्ष में दिए जाते थे लेकिन बदलते रुझान के साथ उद्योगों के पक्ष में भी फैसले आने लगे थे। 

निष्कर्ष

भारतीय औद्योगिक संबंध अभी भी विकसित हो रहे हैं और त्रिपक्षीय, द्विदलीय आदि जैसे किसी विशिष्ट स्वरूप के अंतर्गत नहीं आते हैं। भारतीय औद्योगिक प्रणाली में लगभग सभी प्रणालियों की विशेषताएं मौजूद हैं। प्रारंभ में, भारत को विभिन्न आंतरिक और बाहरी कारकों का सामना करना पड़ा जिन्होंने औद्योगिक संबंधों को प्रभावित किया। लेकिन बाद में, भारत औद्योगिक संबंधों को विकसित करने और धीरे-धीरे सुधारने में कामयाब रहा। जब भी संगठन में कोई मुद्दा उठता है, तो प्रबंधन समस्या को हल करने के लिए दृष्टिकोणों में से एक या दृष्टिकोणों के संयोजन को अपनाता है। औद्योगिक संबंधों को बनाए रखना आसान नहीं है लेकिन यह प्रबंधन की एक कला है जो इन संबंधों को प्रभावी ढंग से बनाए रखने का प्रबंधन करता है। विभिन्न संगठनों में विवाद, गलतफहमियाँ और प्रतिद्वंद्विता उत्पन्न होती हैं, लेकिन यह कोई मुद्दा नहीं है। लेकिन प्रबंधन इनसे कैसे निपटता है, यह खेल परिवर्तक होगा। एक संगठन औद्योगिक संबंधों में वृद्धि के साथ बढ़ता है।  खराब औद्योगिक संबंध इसके पतन या ह्रास (डेप्रिसिएशन) का एक बड़ा कारण बन सकते हैं। किसी संगठन के निर्माण में श्रमिक और श्रमिक एक आवश्यक भूमिका निभाते हैं। उनके योगदान से संगठन की वृद्धि और विस्तार होता है। समाज स्थिति से अनुबंध की ओर स्थानांतरित हो गया है, जिसमें श्रमिक के अधिकार समान रूप से सुरक्षित हैं। श्रमिकों को प्राप्त करने और नियोजित करने की प्रक्रिया में विकास और पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए सुधार किए जा रहे हैं। जब तक हमारे पास कम कानून हैं, तब तक निगरानी करना और उनका अनुपालन करना बेहतर होगा और इससे नियोक्ताओं और कर्मचारियों दोनों को लाभ होगा। जनता के साथ-साथ उद्योगपतियों को भी श्रम और औद्योगिक कानूनों को समझाने के लिए छोटे, संकलित और सरलीकृत कोड और नीतियां बनाना उपयुक्त है। इससे कानूनों को समझना कम बोझिल हो जाएगा और वे अधिक रोजगार-अनुकूल बन जाएंगे। एक सरल, कम बोझिल, रोजगार-अनुकूल और प्रभावी कानून भारत को वैश्विक स्तर पर औद्योगिक क्षेत्र में अधिक निवेश आकर्षित करने में मदद करेगा। इससे भारत को वैश्विक स्तर पर बढ़ावा मिलेगा और मेक इन इंडिया योजना को भी बढ़ावा मिलेगा। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

औद्योगिक संबंधों में व्यापार संघो की क्या भूमिका है?

श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा व्यापार संघो द्वारा की जाती है। वे यह सुनिश्चित करते हैं कि कोई भी कर्मचारी प्रबंधन के व्यवहार का शिकार न बने। उदाहरण के लिए, आकस्मिक निलंबन, वेतन कटौती, अनुचित स्थानांतरण, आदि। 

औद्योगिक संबंध संघों की क्या भूमिका है?

औद्योगिक संबंध संघ श्रमिक संघों की तरह हैं जो कार्यस्थल पर श्रमिकों के हितों की रक्षा और उन्हें आगे बढ़ाने में मदद करते हैं। ये कानून, सम्मेलन और संस्थाएं हैं जो कार्यस्थल को विनियमित करने में मदद करते हैं। आर्थिक और सामाजिक मुद्दों जैसे वेतन, काम के घंटे आदि के लिए सहायता प्रदान की जाती है। 

औद्योगिक संबंधों की अवधारणा के जनक कौन हैं?

जॉन आर. कॉमन्स संस्थागत रूप से पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने सबसे पहले 1920 में विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय में औद्योगिक संबंधों के लिए एक कार्यक्रम बनाया। 

औद्योगिक संबंधों के उदाहरण क्या हैं?

औद्योगिक संबंधों के सबसे बुनियादी उदाहरण संघ संगठन, सामूहिक सौदेबाजी और हड़ताल हैं।  इनमें संगठन के श्रम और प्रबंधन दोनों की सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता है।

भारत में औद्योगिक संबंधों से संबंधित कानून क्या हैं?

कुछ महत्वपूर्ण कानून हैं 1948 का न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1961 का मातृत्व लाभ अधिनियम, 1948 का कारखाना अधिनियम, 1965 का बोनस भुगतान अधिनियम। इन कानूनों का उद्देश्य संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों के श्रमिकों और उनके हितों की रक्षा करना है। 

संदर्भ

 

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