प्रॉस्टिट्यूशन को वैध बनाने पर डिबेट

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इस ब्लॉग पोस्ट में, एन.ए.एल.एस.ए.आर यूनिवर्सिटी ऑफ़ लॉ के छात्र Abhiraj Thakur, भारत में प्रॉस्टिट्यूशन को वैध बनने के पक्ष और विपक्ष में विभिन्न आर्ग्यूमेंट्स प्रस्तुत करते हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

प्रॉस्टिट्यूशन को वैध बनाने के समर्थन में (इन सपोर्ट ऑफ़ लीगलाइजिंग प्रॉस्टिट्यूशन)

“सेक्स वर्कर भी इंसान हैं और इसलिए वे गरिमा (डिग्निटी) के जीवन के हकदार हैं।” किसी से गरिमा का जीवन जीने की उम्मीद कैसे की जा सकती है, जब समाज द्वारा उसे उन्हे ही आलोचना (क्रिटिसिज्म) का सामना करना पढ़ता है, और इसके अलावा, अपराधियों, गैर-कानूनी, या सार्वजनिक उपद्रव (न्यूसेंस) के आरोपी के रूप में उन्हें कानून के गलत पक्ष में रखा जाता है? भारत में सेक्स वर्कर्स की दैनिक आधार पर जो आलोचना होती है, वह उनके अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) को पहचानने और स्वीकार करने की तत्काल आवश्यकता पैदा करती है, और उन्हें वह सम्मानजनक जीवन प्रदान करती है, जिसका उन्हें भारत के संविधान द्वारा वादा किया गया है। उन्हें अमानवीय (इनह्यूमन) और अवास्तविक (अनरियलिस्टिक) नैतिक (मोरल) आधार पर गिराने के बजाय, एक कानूनी प्रणाली (सिस्टम) को अपनाने की आवश्यकता है, जो उनकी सेवाओं और जिस इकॉनोमिक प्रणाली में वे शामिल हैं, उन्हें रेगूलेट कर सके। प्रॉस्टिट्यूशन को वैध बनाने के संबंध में मीडिया कवरेज को ध्यान में रखते हुए, तीन मुख्य आर्ग्यूमेंट्स आमतौर पर सामने आते हैं:

ह्यूमन राइट्स आर्ग्युमेंट

यह कोई अज्ञात (अननोन) तथ्य नहीं है कि दुनिया भर में प्रॉस्टिट्यूट्स लगातार उत्पीड़न (हैरेसमेंट) और दुर्व्यवहार के खतरे का सामना करती हैं। यह जानना भी आश्चर्यजनक (सरप्राइजिंग) नहीं है कि जहां भी वे काम करना चुनती हैं, उन्हें कानून के मार्जिन पर रहने के लिए मजबूर किया जाता है और दैनिक बलात्कार, मार-पीट, भेदभाव (डिस्क्रिमिनेशन) और अन्य सभी प्रकार के दुर्व्यवहार के लिए खुद का बलिदान देना होता है, जिसकी वह हकदार नहीं हैं। उन्हें स्वास्थ्य देखभाल, आवास (हाउसिंग) और कभी-कभी समाज तक पहुंच प्राप्त करने में कठिनाई होती है। इसे कुछ हद तक सुधारने के लिए एक प्रभावशाली और सिद्ध तरीका यह है कि, वह जो काम करती हैं उसे वैध बनाना चाहिए, लेकिन इस काम को जबरदस्ती करना और एक्सप्लॉयटेशन करना यह अब भी अवैध ही रहेंगे। यह (एक हद तक) सुनिश्चित (इंश्योर) करता है कि दलालों और ब्रॉथल पालकों को सेक्स वर्कर्स के साथ दुर्व्यवहार के लिए उत्तरदायी (लाएबल) ठहराया जा सकता है, और प्रोस्टिट्यूट्स को सुरक्षा के लिए कानून और पुलिस की मदद लेने की अनुमति मिलती है।

रेगुलेशन आर्ग्युमेंट

प्रॉस्टिट्यूशन  वैध बनाने से देश भर में नाबालिगों की सुरक्षा बढ़ेगी, और कुछ हद तक एक्सप्लॉयटेशन को रोका जा सकेगा। इस पेशे को अधिकृत (ऑथोराइज़) और नियंत्रित (कंट्रोल) करने से यह गारंटी होगी कि केवल सहमति देने वाले और इच्छा व्यक्त करने वाले वयस्कों (एडल्ट्स) को ही यह काम करने की अनुमति होगी, न कि अवैध व्यापार करने वाले युवाओं को। यदि यह कदम उठाया जाता है, तो समाज और पुलिस, दोनों द्वारा प्रोस्टिट्यूट्स का उत्पीड़न बहुत कम हो जाएगा। प्रॉस्टिट्यूशन केवल सरकार द्वारा कुछ रेगूलेटेड क्षेत्रों में मौजूद होगी, और सेक्स वर्कर्स के पास काम करने के लिए उपयुक्त (अप्रोपप्रीएट) लाइसेंस होगा। इस प्रकार इन वर्कर्स के नाम प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन) के रिकॉर्ड में आ जाएंगे और यह उन्हें विशेष स्वास्थ्य देखभाल या कल्याण (वेल्फेयर) कार्यक्रमों (प्रोग्राम्स) तक पहुंचने में सक्षम बनाएगा। इस तरह के रेगुलेशन से एड्स जैसी सेक्शुअली ट्रांसमिटेड डिसीसेज (एस.टी.डी.) को फैलने से कम करने में भी मदद मिलेगी, जो मुख्य रूप से ऐसे मामलों में उचित निवारक उपायों (प्रिवेंटिव मेजर्स) न होने के कारण फैलते होते हैं।

इकोनॉमिक आर्ग्युमेंट

भारत में प्रॉस्टिट्यूशन को वैध बनाने का मतलब यह होगा कि प्रत्येक वर्कर को अपने काम के लिए न्यूनतम (मिनिमम) मजदूरी या उचित वेतन (सैलरी) की मांग करने का अधिकार होगा। शिकागो में द फोर्ब्स मैगजीन द्वारा किए गए एक अध्ययन (स्टडी) के अनुसार, एक दलाल या ब्रॉथल के नीचे काम करने वाली प्रॉस्टिट्यूट कम घंटे और कम दिन काम करने के बावजूद, अकेले काम करने वाले वर्कर्स की तुलना में लगभग डेढ़ गुना पैसा कमा लेती हैं। यह संभव है क्योंकि ऐसे प्रबंधक (मैनेजर्स), अपने ग्राहकों और वर्कर्स दोनों को संतुष्ट रखना चाहते हैं, जो वेतन में वृद्धि करके और इस प्रकार प्रोस्टिट्यूट्स के व्यवहार में सुधार करके सुनिश्चित हो सकते हैं, जिससे ग्राहकों को खुश किया जा सकता है। इस तरह से कार्य को वैध करने का मतलब यह भी होगा कि एक प्रोस्टिट्यूट जो अपनी इच्छा से काम कर रही  है, वह आसानी से, एक ब्रॉथल का रोजगार छोड़ सकती है या वह खुद काम कर सकती है या दूसरे में शामिल हो सकती है। इससे ब्रॉथल के रखवालों और दलालों द्वारा एक्सप्लॉयटेशन की संभावना कम हो जाती है।

भारत में प्रॉस्टिट्यूशन को वैध करने से, वर्कर्स के अलावा, देश को इकोनॉमिक रूप से भी लाभ होगा। भारत में प्रॉस्टिट्यूशन लगभग 8.4 अरब डॉलर की इंडस्ट्री है। इसे वैध बनाना और किसी भी अन्य व्यवसाय की तरह इसकी आय (इनकम) पर कर (टैक्स) लगाना, सरकार को एक प्रोत्साहन (इंसेंटिव) प्रदान करेगा, और इसे नियमित (रेगुलर) चिकित्सा चेक-अप प्रदान करने और पेशे में लगे लोगों के अधिकारों की रक्षा करने में सुविधा प्रदान करेगा।

वैध बनाने के पक्ष में अन्य आर्ग्यूमेंट्स

ज्यादातर पत्रिकाओं द्वारा उठाया गया एक और आर्ग्युमेंट यह है कि कानूनों के अपराधीकरण (क्रिमिनलाइजिंग) के बावजूद प्रॉस्टिट्यूशन पहले से ही बड़ी मात्रा में मौजूद है, इसलिए इसे कानूनी बनाना और पेशे को रेगूलेट करना अधिक कुशल (एफिशिएंट) होगा। ज्यादातर,  प्रॉस्टिट्यूशन वैध बनाने के समर्थक (सपोर्टर) लेखकों में यह भी प्रचलित धारणा (प्रीवेलिंग नोशन) है कि यदि प्रॉस्टिट्यूशन को कानूनी बना दिया जाता है, तो यह बलात्कार, सेक्शुअल हैरेसमेंट और महिलाओं और बच्चों के एक्सप्लॉयटेशन की दर को कम करने में मदद करेगा। इस आर्ग्युमेंट का समर्थन करने के लिए, अन्य देशों के केवल आंकड़े हैं जिन्होंने सेक्शुअल कार्य को वैध बनाया है, जो कि अनिर्णायक (इनकनक्लूसिव) है क्योंकि इसे वैध बनाने के बाद संबंधित अपराधों में वृद्धि और कमी दोनों के उदाहरण हैं।

प्रॉस्टिट्यूशन को वैध बनाने के खिलाफ आर्ग्यूमेंट्स

सेक्स वर्कर्स के विशेषाधिकार (प्रिविलेजेस) सुनिश्चित करने का उद्देश्य अत्यंत आवश्यक है। लेकिन, इस को वैध बनाने के कुछ वास्तविक परिणाम होंगे। जबकि प्रशासन, भारत में प्रॉस्टिट्यूशन को मंजूरी देने का प्रस्ताव कर रहा है, लेकिन कुछ वास्तविक परिणाम हैं जिनका स्वागत, यह ध्यान रखते हुए किया जाना चाहिए की अंतिम लक्ष्य, लाभ प्राप्त करने से ज्यादा नुकसान को रोकना है। कुछ कंटेंशन प्रस्तावित इनैक्टमेंट के पक्ष में नहीं हैं, सबसे महत्वपूर्ण यह है कि यह विकल्प न केवल देश में ह्यूमन ट्रैफिकिंग को बढ़ाएगा, बल्कि अधिक बाधित (हिंडर्ड) महिलाओं को प्रॉस्टिट्यूशन में धकेल देगा। हम सेक्स की खरीद और ऑफर को अपराध घोषित करने के बजाय, उन व्यक्तियों को अधिक शक्ति दे रहे हैं जो सेक्स वर्कर्स के साथ दुर्व्यवहार करते हैं और महिलाओं/युवाओं के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, जिसे व्यावसायिक (बिजनेस) क्षेत्र में बेचा जा सकता है। महिलाओं को कानूनी मुद्दों के बिना, एक व्यवसाय के रूप में अपनी मर्जी से सेक्स कार्य में भाग लेने की अनुमति देने से, पुलिस द्वारा बदनामी और दूसरों द्वारा दुर्व्यवहार, उदाहरण के लिए, ट्रैफिकर्स, ब्रॉथल-रखवालों, दलालों, और जबरन वसूली (एक्सटोर्शन) करने वालों द्वारा दुर्व्यवहार किया जाता है। इसे अनुमति देने के प्रमोटर्स सेक्स कार्य को “काम” के रूप में देखते हैं और इसके अपराधीकरण को अधिकारों के उल्लंघन (इंफ्रिंजमेंट) के रूप में देखते हैं। हालांकि, प्रॉस्टिट्यूशन, इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन की ‘काम’ की परिभाषा के भी खिलाफ जाता है क्योंकि यह शारीरिक नुकसान पहुंचाता है और आमतौर पर फाइनेंशियल या किसी अन्य प्रकार की परेशानी की वजह से किया जाता है। प्रॉस्टिट्यूशन को अपराध से मुक्त न करने के लिए पत्रिकाओं द्वारा प्रस्तुत कुछ मुख्य आर्ग्युमेंट निम्नलिखित हैं:

फेमिनिस्ट आर्ग्युमेंट

हालांकि यह सच है कि सभी महिलाएं या यहां तक ​​​​कि लड़कियां, प्रॉस्टिट्यूट नहीं हैं, लेकिन यह एक सामान्य धारणा है कि एक प्रॉस्टिट्यूट आमतौर पर एक महिला ही होती है और जिसे आसपास के लोगों द्वारा या परेशानी की परिस्थितियों के कारण ऐसा करने से मजबूर किया जाता है। जब प्रॉस्टिट्यूशन को महिला सेक्स से जोड़ा जाता है, तो पुरुष और महिला के बीच हमेशा एक शक्ति संबंध रहेगा, भले ही प्रॉस्टिट्यूशन वैध हो या नहीं। इसलिए, सभी लिंगों में नैतिक स्थिरता (मोरल कंसिस्टेंसी) के लिए, यदि महिला प्रॉस्टिट्यूशन को वैध किया जाता है तो पुरुष प्रॉस्टिट्यूशन को भी वैध किया जाना चाहिए; आर्ग्युमेंट को ट्रांसजेंडर तक भी बढ़ाया जा सकता है। बलात्कार और सेक्शुअल हैरेसमेंट के अन्य मामलों को रोकने और लैंगिक (जेंडर) समानता के प्रति मानसिकता को बदलने की जिम्मेदारी, लैंगिक समानता के लिए एक वातावरण बनाने में निहित (लाई) है, न कि ऐसे कानून बनाने में जो आंतरिक (इंट्रिंसिक) रूप से उनके खिलाफ पक्षपाती (बायस) हो। 

एक्सप्लॉयटेशन आर्ग्युमेंट

इसी तरह, जहां सेक्स वर्कर्स के दुरुपयोग का संबंध है, यह इम्मोरल ट्रैफिक प्रिवेंशन एक्ट, 1986 के तहत एक प्रोक्योरमेंट है क्योंकि महिलाएं जो इसे स्वय छोड़ना चाहती है, उन्हें रिहैबिलिटेशन सुविधाएं प्रदान की जाती है। सरकार को उन वर्कर्स को उचित निर्देशन (डायरेक्शन), ट्रेनिंग, फाइनेंशियल और नॉन-फाइनेंशियल सहायता प्रदान करनी चाहिए, ताकि वह अपनी क्षमताओं (कैपेबिलिटी) का एहसास कर सकें, स्वतंत्र हो और एक सम्मानजनक जीवन जी सकें। उन्हें विभिन्न क्षणिक व्यावसायिक पाठ्यक्रमों (ट्रांसिएंट प्रोफेशनल कोर्सेज) में इस लक्ष्य के साथ रखा जा सकता है कि वे ऐसे क्षेत्रों के बाहर जीवन जीने के बारे में सोचे। भारत में, बच्चों और महिलाओं का बड़ा हिस्सा इसे चुनता है या उन्हें मजबूर किया जाता है, ऐसा उन्हें बेकसी (डेस्टिट्यूशन) की निराशा या एक अन्य विकल्प की कमी और शिक्षा की अनुपस्थिति के कारण उत्पन्न होने वाली हताशा के कारण करना पड़ता है। उनके बच्चों को विशेष सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए, क्योंकि वे स्कूलों और समाज में भेदभाव का सामना करते हैं। इन सुझावों के साथ, सरकार को प्रॉस्टिट्यूशन को वैध बनाने के बजाय महिलाओं के एक्सप्लॉयटेशन को खत्म करने में अधिक प्रभावी (इफेक्टिव) होना चाहिए। 

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

आम तौर पर, यह देखा जा सकता है कि प्रॉस्टिट्यूशन, वह ढांचा (फ्रेमवर्क) है जो पुरुषों के उपयोग और लाभ के लिए छोटे बच्चों और महिलाओं के शरीर को बेचता है और आज एक गंभीर और ग्लोबल मेंस्ट्रीमिंग के प्रयास का उद्देश्य है, जो राजनीतिक और सामाजिक (सोशल) मान्यता (रिकॉग्निशन) के लिए, सेक्स के अत्यधिक (गिगैंटिक) लाभकारी (गेनफुल) व्यवसायों का काम कर रहा है। भारत में प्रॉस्टिट्यूशन एक वास्तविक सामाजिक मुद्दा है, और इसका समाधान, बेकसी के मुद्दे से समस्याग्रस्त (प्रोब्लमेटिक) हो गया है। भारत में कमाई के साधन के रूप में प्रॉस्टिट्यूशन बड़े पैमाने पर है, और इसके प्रमुख बाजार शहरी इलाकों में हैं। देश में एंप्लॉयड सेक्स वर्कर्स की संख्या के बारे में जानकारी इस तथ्य से सटीक नहीं है कि इसमें इतनी बड़ी मात्रा में गुप्तता (क्लांडेस्टाइनेस) शामिल है, लेकिन इस तरह की अघोषित (अनडिटेक्टेड) प्रॉस्टिट्यूशन की अवहेलना (डिसरिगार्ड) करने पर भी स्थिति चौंकाने वाली है। भारत में प्रॉस्टिट्यूशन की एक अत्यंत सटीक, व्यापक (एक्सटेंसिव) तस्वीर उपलब्ध नहीं है क्योंकि महिलाओं और बच्चों का सेक्शुअल दुरुपयोग, ज्यादातर असूचित (अनरिपोर्टेड) उल्लंघन (वायलेशंस) है।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

  • Buddhadeb Bhattacharya versus State of West Bengal: 2011 SCC 538
  • HimanshiDhawan&Malini Nair, Legalizing Prostitution? Let’s Put a Pin in it, The Times of India, 2nd November, 2014. (Last accessed on 03/02/2016)
  • Leaders, A Personal Choice, the Economist, 9th August, 2014.
  • Supra Note 2
  • Supra Note 4

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