लंबित मामलों का बैकलॉग

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Constitution of India
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इस लेख को Shreya Singh ने लिखा है। इस लेख में कोर्ट्स में लंबित मामलों (पेंडिंग केसेस) से कैसे निपटा (डिस्पोजल) जाए उसके बारे में विस्तार से चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Archana Chaudhary द्वारा किया गया है।

Table of Contents

सार (एब्स्ट्रैक्ट)

भारत लंबे दशकों से लंबित मामलों के बड़े बकाया (एरियर्स) की समस्या का सामना कर रहा है। बड़ी संख्या में लंबित मामलों ने न्यायपालिका के कुशल कामकाज (एफिशिएंट वर्किंग) को बेजान बना दिया है और समय पर न्याय देने के नागरिक के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव (एडवर्सली अफेक्टेड) डाला है। यह लेख भारतीय कोर्ट्स में मामलों के विशाल बैकलॉग के मुद्दों की आलोचनात्मक (क्रिटिकली) जांच करने और कुछ सुधारों (रिफॉर्म्स) का सुझाव देने का एक प्रयास है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

एक बहुत प्रसिद्ध कानूनी वाक्यांश (फ्रेज) है “न्याय में देरी न्याय से वंचित होने जैसा है (जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड)” जिसका न्यायपालिका प्रशासनिक प्रणाली (ज्यूडिशियरी एडमिनिस्ट्रेटिव सिस्टम) में एक आदर्श अनुप्रयोग (एप्लीकेशन) है। कानून के शासन (रूल ऑफ लॉ) को बनाए रखने और न्याय तक पहुंच प्रदान करने के लिए मामलों का समय पर निपटान आवश्यक है जो एक गारंटीकृत मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट) है। 

मामलों का बैकलॉग एक ऐसी स्थिति को संदर्भित (रेफर) करता है जहां सिस्टम में इसके निपटान में सामान्य समय से अधिक समय तक अनुचित देरी (अनवारेंटेड डिले) होती है।

मामलों का बैकलॉग एक ऐसी स्थिति को संदर्भित करता है जिसमें एक कोर्ट का केस लोड इतना अधिक होता है कि वह समय पर मामलों की सुनवाई करने में असमर्थ (अनेबल) होता है।

समय की मांग है कि मामलों को शीघ्रता (एक्सपीडियसली) से और प्रभावी ढंग से निपटाया जाए अन्यथा आने वाले भविष्य में यह न्यायिक प्रणाली की पूरी इमारत (एडिफिस) को पूरी तरह से ध्वस्त (डेमोलिश) करने वाला है।

बकाया और मामलों के बैकलॉग के पीछे का तर्क (द रैशनल बिहाइंड द एरियर्स एंड बैकलॉग ऑफ केसेस)

अपर्याप्त न्यायाधीशों की ताकत (इनेडिक्वेट जजेस स्ट्रेंथ)

रिक्त पदों (वेकेंट पोजिशन) को भरने के लिए नए न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति (अपॉइंटमेंट) की कमी के कारण स्वीकृत (सैंक्शन्ड) ताकत के खिलाफ न्यायाधीशों की पुरानी कमी केवल एक बड़ा कारक (फैक्टर) हो सकता है। न्यायाधीशों के आधे से ज्यादा पद (पोस्ट) खाली हैं।

समय सीमा

भारत में, कई कारणों से मामलों का समय पर निपटारा नहीं किया जाता था, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

  • भारत में प्रक्रिया कानून (प्रोसिजरल लॉ) में मामला प्रबंधन (मैनेजमेंट) की एक गंभीर समस्या है क्योंकि कई बार कोर्ट द्वारा प्रक्रियात्मक आचरण (कंडक्ट) का पालन नहीं किया जाता है, जैसे अनावश्यक स्थगन (अननेसेसरी एडजोर्नमेंट) देना, आदि।
  • न्यायाधीशों के बीच समय की पाबंदी (पंक्चुअलिटी) का अभाव।
  • मामलों के निपटान के लिए समय सीमा का अभाव।

इससे मामले लंबित हैं।

बुनियादी ढांचे की समस्या (इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रॉब्लम)

न्यायिक बुनियादी ढांचे के लिए कम बजट आवंटन (एलोकेशन) के कारण पर्याप्त बुनियादी ढांचे की कमी है जिसके कारण न्यायाधीश कुशल (एफिशिएंट) समय में गुणवत्तापूर्ण (क्वॉलिटी) निर्णय देने में असमर्थ हैं।

प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) समस्या

क्षमता की कमी उच्च स्तर (हाई लेवल) के लम्बन का मुख्य कारण है। अधीनस्थ न्यायपालिका (सबोर्डिनेट ज्यूडिशियरी) को पर्याप्त संख्या में न्यायालय कक्ष (कोर्टरूम्स), सहायक (सपोर्ट) स्टाफ और न्यायाधीशों के लिए आवासीय आवास (रेसीडेंशियल एकोमोडेशन) उपलब्ध नहीं कराया गया है, जिसके कारण उचित समय के अंदर मामले को निपटाने के लिए आवश्यक संसाधनों (रिसोर्सेज) की भारी कमी हो जाती है।

लंबी प्रथागत अवकाश और छुट्टियां (लॉन्ग कस्टमरी वेकेशंस एंड हॉलीडेज)

भारत में, न्यायाधीशों द्वारा नियमित रूप से लंबी रूटीन के अवकाश और छुट्टियों का आनंद लिया जाता है जो न्यायिक कार्य की गति को बुरी तरह से बाधित करते हैं।

अप्रचलित तकनीक (ऑब्सोलिट टेक्नोलॉजी)

प्रशासन में उपयोग की जाने वाली पुरानी तकनीक और धीमी गति से परिवर्तन अनुकूलन (एडेप्टेशन) पर भारी नुकसान और कोर्ट्स की दक्षता (एफिशिएंसी) में बाधा है।

खराब न्यायिक गुणवत्ता (पूअर ज्यूडिशियल क्वॉलिटी)

निचली (लोअर) कोर्ट्स में न्यायाधीशों की गुणवत्ता दयनीय (मिजरेबल) है। उनके द्वारा दिए गए निर्णय सही नहीं हैं जिससे विभिन्न उच्च न्यायालयों (हाई कोर्ट्स) में अपील करने वाले मामलों की संख्या फिर से बढ़ जाती है। इस कारण से, भारत में सभी लंबित मामलों में से लगभग 87.5% निचली कोर्ट्स से आते हैं।

कानूनी निहितार्थ (लीगल इंप्लिकेशंस)

भारत के विभिन्न न्यायालयों में 3 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। इनमें से कई मामले लंबित हैं या 10 साल से अधिक समय से विचाराधीन (अंडर ट्रायल) हैं। सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट), उच्च न्यायालयों और जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में भारत में लंबित मामलों की संख्या दर्शाने (शोइंग) वाले आंकड़े नीचे दिए गए हैं:

लंबित डैशबोर्ड (वर्तमान डेटा)

कोर्ट्स सिविल क्रिमिनल
डिस्ट्रिक्ट कोर्ट्स 10177724 27595064
हाई कोर्ट्स 4101834 1602824
सुप्रीम कोर्ट 66072

भारतीय कोर्ट्स में मामलों के निपटारे में अत्यधिक (एक्सऑर्बिटेंट) देरी हो रही है और यह दिन पर दिन विकराल (एग्जासरबेटेड) होता जा रहा है, जिससे समय पर न्याय तक पहुंच की संवैधानिक गारंटी कमजोर पड़ रही है और कानून के शासन का क्षरण (एरोजन) हो रहा है, जिसके कारण लोगों का न्यायपालिका पर से विश्वास तेजी से घट रहा है क्योंकि मामले अक्सर दशकों तक खींचा (ड्रैग) जाता हैं। मामलों को शीघ्रता (एक्सपीडियसली) से निपटाने के लिए न्यायधीशों को दोषी ठहराया जाने वाला एकमात्र प्राधिकारी (अथॉरिटी) नहीं हैं, लेकिन कई ऐसे हैं जो देरी के लिए जिम्मेदार हैं, जैसे लोक अभियोजकों (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) की कमी के कारण रुके हुए मुकदमे, मुकदमे की तारीख पर गवाह की अनुपस्थिति, पुलिस की ढिलाई (लैक्सिटी) के कारण समन की तामील (सर्विस ऑफ समन) में देरी आदि।

मामलों के निपटान में अनावश्यक देरी के कारण बंदियों (प्रिजनर), दोषियों, अभियुक्तों (एक्यूज्ड), पीड़ितों (विक्टिम) और अन्य संबंधित लोगों के मौलिक अधिकार बुरी तरह प्रभावित होते हैं:

  1. मृत्युदंड के दोषियों की फांसी में देरी के साथ-साथ लंबे समय तक एकांत कारावास (सॉलिटरी कन्फाइनमेंट) में रहने से मनोवैज्ञानिक आघात (साइकोलॉजिकल ट्रॉमा) होता है और यह न्याय के सिद्धांतों (प्रिंसिपल्स) के खिलाफ है।
  2. एक दिन के लिए भी आजादी से वंचित करना एक दिन बहुत अधिक है, इसके बावजूद कोर्ट बिना मुकदमे के वर्षों से जेल में बंद लोगों की जमानत अर्जी खारिज कर देती है और कभी-कभी किसी ऐसे काम के लिए भी जो एक आदमी ने किया ही नहीं।
  3. लंबे समय से जेलों में बंद “विचाराधीन कैदियों” के परिवारों के साथ भारी अन्याय हो रहा है।

हुसैनारा खातून बनाम स्टेट ऑफ बिहार में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि आपराधिक न्याय के लिए त्वरित सुनवाई (स्पीडी ट्रायल) का सार (एसेंस) है और मुकदमे में देरी अपने आप में न्याय से इनकार करती है।

करतार सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब में सुप्रीम कोर्ट ने देखा कि त्वरित सुनवाई संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत शामिल है जो जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक अनिवार्य (एसेंशियल) हिस्सा है।

लेकिन इन फैसलों के बाद भी मौलिक अधिकारों का लगातार उल्लंघन हो रहा है और अब तक कोई भारी (रेडिकल) कदम नहीं उठाया गया है।

सुझाए गए सुधार (सजेस्टेड रिफॉर्म्स)

यदि मौलिक रूप से सुधारों की मांग नहीं की जाती है, तो संवैधानिक शासन की विश्वसनीयता (क्रेडिबिलिटी) समय के साथ लगातार क्षीण (इरॉडेड) होती जाती है।

न्यायिक हस्तक्षेप (इंटरवेंशन)

  • 13वें वित्त आयोग (फाइनेंस कमिशन) की रिपोर्ट के अनुसार न्यायाधीशों की सहायता के लिए पेशेवरों (प्रोफेशनल्स) की नियुक्ति की जानी चाहिए।
  • न्यायालयों में कार्य दिवसों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए और न्यायाधीशों की लंबे अवकाशों और छुट्टियों को कम करने की आवश्यकता है।
  • मामलों के स्थगन के संबंध में सख्त विनियमन (रेगुलेशन) का पालन किया जाना है।

विधायी हस्तक्षेप (लेजिस्लेटिव इंटरवेंशन)

  • संविधान ने अनुच्छेद 136 के तहत असाधारण (एक्सेप्शनल) मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को शक्ति दी है। लेकिन आजकल, इस अनुच्छेद के तहत सभी प्रकार के मामलों पर विचार किया जाता है, भले ही उनमें से कुछ कभी भी मनोरंजन के योग्य न हों। इसलिए, अनुच्छेद 136 के दायरे (स्कोप) पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र (ऑल्टरनेट डिस्प्यूट रिजॉल्यूशन मेकेनिज्म), लोक अदालतों और ग्राम न्यायालयों को और अधिक मजबूत करने या त्वरित मंजूरी (क्लियरेंस) के लिए अतिरिक्त (एडिशनल) कोर्ट बनाने की आवश्यकता है।

कार्यकारी हस्तक्षेप (एक्जीक्यूटिव इंटरवेंशन)

  • गुणवत्तापूर्ण न्यायिक अवसंरचना (क्वॉलिटी ज्यूडिशियल इन्फ्रास्ट्रक्चर) की स्थापना।

सूचना प्रौद्योगिकी (इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी)  हस्तक्षेप 

  • कोर्ट्स की दक्षता में सुधार के लिए प्रौद्योगिकी की तैनाती (डेप्लॉयमेंट)।
  • ई-कोर्ट मिशन मोड प्रोजेक्ट की गति (पेस) बढ़ाना।

शैक्षिक हस्तक्षेप

  • एलसीआई की 245 रिपोर्टों के अनुसार, एक व्यावहारिक मूल्यांकन दृष्टिकोण (प्रैक्टिकल असेसमेंट एप्रोच) लागू किया जाना है जिसमें वर्तमान फाइलिंग, निपटान आदि के पैटर्न को पढ़ाना शामिल है। 

समय सीमा

  • एलसीआई की 245 रिपोर्टों के अनुसार, लागू किए जाने वाले मानक (स्टेंडर्ड) मूल्यांकन दृष्टिकोण का अर्थ है मामलों के निपटान के लिए समय मानक तय करना।

उचित प्रबंधन (प्रॉपर मैनेजमेंट)

  • मामलों को दायर करने, कोर्ट प्रबंधन, साक्ष्य (एविडेंस) प्रबंधन आदि के उचित प्रबंधन के लिए पहल (इनिशिएटिव) करना समय की मांग है।

एक वकील की पेशेवर नैतिकता (प्रोफेशनल एथिक्स) को बनाए रखा जाना चाहिए

  • वकीलों की बर्बरता (सवागेरी) एक प्रमुख मुद्दा है जिसके कारण इस पेशे का दिन-प्रतिदिन शोषण (एक्सप्लॉयटेड) हो रहा है और लोगों का न्यायपालिका पर से विश्वास उठ रहा है।

विविध (मिसलेनियस)

  1. वकीलों का समय पर परीक्षण (टेस्ट) किया जाना चाहिए ताकि यह जांच की जा सके कि क्या वे बस इधर-उधर (बमिंग) घूम रहे हैं और अपनी जेब भरने के लिए मामले दर्ज कर रहे हैं या वे आधी रात को अपना तेल जला रहे हैं। उसके लिए प्रत्येक 3 या 5 वर्ष के बाद वकीलों के लिए अपनी दक्षता साबित करने के लिए एक परीक्षा होगी और परीक्षा के आधार पर उनके लाइसेंस का नवीनीकरण (रिन्यूड) किया जाना चाहिए।
  2. अत्यधिक निष्फल (एक्सेसिव इनफ्रक्चुअस) मामले दर्ज करने के लिए वकीलों को उनके लाइसेंस को निलंबित (सस्पेंडिंग) करके गंभीर रूप से दंडित किया जाएगा।
  3. ट्रिब्यूनल को अपने निर्णय का अनुपालन न करने के मामलों में अधिक अधिकार सौंपे (डेलीगेटेड) जाएंगे या कोर्ट की अवमानना (कंटेंप्ट) ​​​​के समकक्ष घोषित किया जाएगा। 
  4. कोर्ट को दुर्भावनापूर्ण अभियोजन (मलीशियस प्रॉसिक्यूशन) से संबंधित स्वत: संज्ञान (सुओ मोटो एक्शन) लेना चाहिए।
  5. मामले दर्ज करने के लिए आवश्यक शर्तें और अधिक सख्त होंगी ताकि कोर्ट के कीमती समय को बेकार के मामलों से बचाया जा सके।
  6. छोटे-मोटे मामलों को निपटाने में पुलिसकर्मियों को अधिक शक्ति दी जाएगी।
  7. कोर्ट्स पर बोझ कम करने के लिए अधिक मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) और सुलह (कॉन्फिलिएशन) केंद्र होंगे।
  8. मामलों के आवंटन (एलोकेशन) एवं सुनवाई में कदाचार (मालप्रैक्टिस) के संबंध में न्यायिक कर्मचारियों के विरुद्ध सख्त अनुशासनात्मक कार्रवाई (डिसिप्लिनरी एक्शन) की जायेगी।
  9. मेरे विचार में सी.पी.सी 1908 के भाग II, धारा 36 से 74 और आदेश 21 को निरस्त (रीपील) कर दिया जाएगा क्योंकि निष्पादन कार्यवाही (एग्जिक्यूशन प्रोसिडिंग) का कोई प्रावधान (प्रोविजन) नहीं होगा क्योंकि जैसे ही निर्णय की घोषणा की जाती है, इसका अपने आप अनुपालन किया जाएगा क्योंकि पहले से ही मुकदमें की कार्यवाही समाप्त होने में देरी हो जाती है, और फिर निष्पादन की कार्यवाही का समय पीड़ित पक्ष के शेष सभी रक्त को चूस लेता है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

किसी भी राष्ट्र की प्रगति या विकास एक मजबूत न्यायिक प्रणाली पर निर्भर करता है। भारत में, मामलों का एक बड़ा बैकलॉग है जो न्याय से इनकार और पटरी (डिरेलमेंट) से उतरने के बराबर है। इसलिए, इस समस्या को शीघ्रता से हल करने की तत्काल आवश्यकता है क्योंकि त्वरित न्याय न केवल एक मौलिक अधिकार है, बल्कि कानून का शासन बनाए रखने और सुशासन प्रदान करने की एक पूर्वापेक्षा (प्रीरिक्विसाइट) भी है। इसलिए, यह आवश्यक है कि बकाया और देरी के दुष्चक्र (विशियस साइकिल) को एक सार्थक निष्कर्ष पर लाया जाए।

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