मौलिक अधिकारों के आधार के रूप में अनुच्छेद 12 और 13

0
11878
Constitution of India
Image Source- https://rb.gy/n2jtde

यह लेख मोहनलाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लॉ, उदयपुर, राजस्थान की छात्रा, सातवें सेमेस्टर की Mariya Paliwala ने लिखा है। यह लेख भारत के संविधान पर प्रकाश डालता है, जिसमें भाग III विशेष (स्पेसिफिक) रूप से अनुच्छेद (आर्टिकल) 12 और 13 पर विशेष जोर दिया गया है। इस लेख का अनुवाद Archana Chaudhary द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

कई अन्य अवधारणाओं (कॉन्सेप्ट) और विचारों की तरह, मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) की अवधारणा पश्चिम (वेस्ट) से उधार ली गई है। मानवाधिकारों (ह्यूमन राइट्स) के इस युग में मौलिक अधिकारों के इस विचार से संबंधित उनके सिद्धांत (थ्योरी) के दो आधार हमारे भारत उदार संविधानवाद (लिबरल कांस्टीट्यूशनलिस्म) में परिलक्षित (रिफ्लेक्ट) होते हैं:

  1. यह राज्य पर, व्यक्ति की स्वतंत्रता (लिबर्टी) में दख़ल/हस्तक्षेप (इंटरफीयर) नहीं करने के लिए, उस पर एक नकारात्मक दायित्व (नेगेटिव ऑब्लिगेशन) लगाता है।
  2. यह राज्य को एक कल्याणकारी राज्य बनाने के लिए सभी संभव कदम उठाने के लिए राज्य पर सकारात्मक (पॉजिटिव) दायित्व डालता है। 

जब हम इन दोनों आधारों को संवैधानिकता की उदार परंपरा से देखते हैं तो पहले को आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है, जबकि बाद वाले को कुछ प्रतिरोध (रेसिस्टेंस) के साथ स्वीकार किया जाता है। मौलिक अधिकारों की अवधारणा की कल्पना संविधान के भाग III में की गई है। 

‘राज्य’ मौलिक अधिकारों से किस प्रकार संबंधित है?

राज्य द्वारा बनाए गए अन्य कानूनी अधिकारों के विपरीत, जो व्यक्तियों को एक दूसरे के खिलाफ अधिकार प्रदान (कॉन्फर) करते हैं, हालांकि मौलिक अधिकारों का दावा केवल राज्य के खिलाफ किया जा सकता है। इसलिए संविधान चाहे मौन हो या मौखिक, आमतौर पर यह माना जाता है कि मौलिक अधिकार केवल राज्य के खिलाफ उपलब्ध हैं, जिसमें राज्य के अधिकारियों के खिलाफ और राज्य की कार्यवाई शामिल है। इसी कारण से, यू.एस.ए. का संविधान, जो मौलिक अधिकार प्रदान करने वाले आधुनिक (मॉडर्न) लिखित संविधान में पहला है, केवल राज्य के खिलाफ कार्यवाई योग्य है, इस तथ्य के बावजूद कि संविधान ऐसा नहीं कहता है। इसी तरह, भारतीय संविधान के तहत भी मौलिक अधिकारों पर एक ही अवधारणा लागू होती है, हालांकि कुछ स्पष्ट रूप से गैर राज्य कार्रवाई (नॉन स्टेट एक्शन) पर लागू होते हैं और कुछ अन्य जो स्पष्ट रूप से राज्य की कार्रवाई तक ही सीमित नहीं होते हैं। 

अनुच्छेद 12: ‘राज्य’ का अर्थ

शब्द ‘राज्य’ उन प्राधिकरणों (अथॉरिटीज) और सभी उपकरणों (इंस्ट्रूमेंटालिटीज) को निर्दिष्ट करता है जो भारत के क्षेत्र के अंदर या बाहर काम कर रहे हैं और उन संस्थानों (इंस्टीट्यूशन) को संविधान के भाग III के तहत ‘राज्य’ माना जाएगा। यह परिभाषा संपूर्ण नहीं बल्कि समावेशी (इंक्लूसिव) है। अनुच्छेद 12 में शामिल प्राधिकरण और उपकरण हैं:

  1. भारत की सरकार और संसद (लोकसभा और राज्य सभा)।
  2. राज्य सरकार और प्रत्येक राज्य की विधायिका (लेजिस्लेचर) (विधानसभा और विधान परिषद)।
  3. सभी स्थानीय प्राधिकरण (नगर पालिकाओं (म्युनिसिपालिटी), जिला बोर्ड, पंचायत, सुधार  (इंप्रूवमेंट) ट्रस्ट, पोर्ट ट्रस्ट, खनन निपटान (माइनिंग सेटलमेंट) बोर्ड आदि)
  4. भारत के क्षेत्र के अंदर या भारत सरकार के नियंत्रण (कंट्रोल) में अन्य प्राधिकरण। 

पहली 3 श्रेणियों (केटेगरी) को आसानी से समझा जा सकता है क्योंकि वे काफी विशिष्ट और आत्म-व्याख्यात्मक (सेल्फ एक्सप्लेनेटरी) हैं। अंतिम श्रेणी विशिष्ट नहीं है और उसमें कुछ स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। 

अन्य प्राधिकरण (अदर अथॉरिटीज)

केंद्रीय, राज्य और स्थानीय प्राधिकरणों के अलावा, सरकारी या संप्रभु शक्तियों (सोवरेन पॉवर) या कार्यों का प्रयोग करने वाले प्राधिकरण या संस्थानों को ‘अन्य प्राधिकरणों’ के तहत गिना जा सकता है। 

  • इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड, राजस्थान एसईबी बनाम मोहन लाली 

इस मामले को राजस्थान इलेक्ट्रिसिटी केस के नाम से भी जाना जाता है। इस मामले में यह माना गया था कि सभी प्राधिकरण, जो संविधान द्वारा बनाए गए हैं या कोई अन्य स्टेट्यूट जिस पर इस तथ्य के बावजूद कि स्टैच्यूटरी प्राधिकरण, सरकारी या संप्रभु कार्यों को करने में संलग्न (एंगेज) नहीं है, कानून द्वारा शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं। इसके अलावा, यह भी कहा गया था कि ‘अन्य प्राधिकरण’ लोगों के कमजोर वर्गों (वीकर सेक्शन) के शैक्षिक और आर्थिक हितों (इकोनॉमिक इंटरेस्ट) को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाए गए निकायों (बॉडीज) को भी कवर करेंगे। हालाँकि, मद्रास विश्वविद्यालय बनाम शांता बाई के मामले में, पहले के फैसले को खारिज कर दिया गया था कि विश्वविद्यालयों को अनुच्छेद 12 के अर्थ से बाहर रखा गया है। इसलिए विश्वविद्यालय को बाद में अनुच्छेद 12 के तहत ‘राज्य’ माना गया था।

अनुच्छेद 12 के बाहर राज्य

‘राज्य’ की परिभाषा में, न्यायपालिका (ज्यूडिशियरी) ने बार-बार पुष्टि की है कि ‘राज्य’ क्या है। मौलिक अधिकारों के व्यापक (वाइडर) उपयोग के उद्देश्य से राज्य को हुबहू (लिटरली) परिभाषित किया जाना चाहिए, लेकिन अन्य उद्देश्यों के लिए नहीं। इसलिए, सार्वजनिक निगम (पब्लिक कॉरपोरेशन) का एक कर्मचारी निगम द्वारा अपने मौलिक उल्लंघन को चुनौती दे सकता है लेकिन इस कारण से वह राज्य का कर्मचारी नहीं बनता है और सुरक्षा की मांग नहीं कर सकता, उदाहरण के लिए अनुच्छेद 311

आर्थिक उदारीकरण (इकॉनोमिक लिब्रलाइजेशन) और मौलिक अधिकार

विश्व अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) और भारत में आर्थिक उदारीकरण के साथ, कुछ लोगों को मौलिक अधिकारों के आवेदन (एप्लीकेशन) और प्रभावकारिता (एफिकेसी) के बारे में संदेह है। इस संदेह के 2 कारण हैं, जो इस प्रकार हैं:

  1. निजी उद्यमों (प्राइवेट एंटरप्राइज) की बढ़ती भूमिका और राज्य की घटती भूमिका के साथ, मौलिक अधिकारों का उल्लंघन राज्य की तुलना में निजी उद्यमों द्वारा अधिक किया जाएगा। 
  2. निजी उद्यम स्वयं एक नगर निगम सहित एक निगम जैसे कानूनी व्यक्ति के रूप में मौलिक अधिकारों का दावा करेगा 

हालांकि, यह आशा की जा सकती है कि बदलते परिदृश्य (सिनेरियो) में मानवाधिकारों के सार्वभौमिक विस्तार (यूनिवर्सल एक्सपेंशन) को विकसित करने से मौलिक अधिकारों की उपयुक्त प्रभावकारिता और प्रवर्तन सुनिश्चित होगा। सामान्य अर्थों में संविधान और विशेष रूप से मौलिक अधिकार समाज में चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हैं। 

अनुच्छेद 13: मौलिक अधिकारों का अनादर करने वाले कानून शून्य होंगे (लॉस इन डिरोगेशन विद फंडामेंटल राइट्स विल बी वाइड)

अनुच्छेद 13 स्पष्ट रूप से दोनों के बीच असंगति (इनकंसिस्टेंस) के मामले में किसी भी अन्य कानून पर मौलिक अधिकारों की सर्वोच्चता के सिद्धांत (प्रिंसीपल ऑफ सुप्रीमेसी) को निर्धारित करता है। इससे संविधान निर्माताओं के मौलिक अधिकारों के प्रयोग को इस अनुच्छेद में कही गई बातों तक सीमित रखने की मंशा की आसानी से व्याख्या (इंटरप्रेट) की जा सकती है। उदाहरण के लिए, पूर्व-संवैधानिक कानून (प्री कांस्टीट्यूशनल लॉ) केवल उस सीमा तक अमान्य होंगे, जब तक वे “लागू कानून (लॉ इन फोर्स)” की श्रेणी में आते हैं। चूंकि असंहिताबद्ध (अनकोडिफाइड) व्यक्तिगत कानून इस श्रेणी में नहीं आते हैं, इसलिए यह आग्रह किया जा सकता है कि मौलिक अधिकारों के साथ किसी भी असंगति के आधार पर उनका उद्देश्य अमान्य नहीं होना चाहिए। 

अनुच्छेद 13 का खंड (क्लॉज) 1 व्याख्या के विभिन्न सिद्धांतों (डॉक्ट्राइन) को जन्म देता है जो इस प्रकार हैं:

कोई पूर्वव्यापी प्रभाव नहीं (नो रेट्रोस्पेक्टिव इफेक्ट)

मौलिक अधिकारों से संबंधित संविधान के प्रावधानों (प्रोविजन) का कोई पूर्वव्यापी प्रभाव नहीं है। पूर्वव्यापी शब्द का अर्थ है कि पिछली तारीख से प्रभावी होने का इरादा है। सभी मौजूदा कानून जो असंगत हैं, वे संविधान के लागू होने के बाद शून्य हो जाएंगे।

उदाहरण: ‘A’ ने 1946 में एक अपराध किया जो उस समय दंडनीय था, लेकिन बाद में 1949 में संविधान के लागू होने के बाद उस अपराध को समाप्त (अबोलिश) कर दिया गया क्योंकि यह मौलिक अधिकारों के साथ असंगत था। इस आधार पर ‘A’ ने तर्क दिया कि उसे आरोपों से मुक्त किया जाना चाहिए लेकिन कोर्ट ने इस आधार (ग्राउंड) पर इसकी अनुमति नहीं दी कि 1946 में उसके द्वारा किया गया कार्य एक अपराध था। 

पृथक्करण का नियम (रूल ऑफ सेवरेबिलिटी)

अनुच्छेद 13 पूरे एक्ट या स्टेट्यूट को शून्य या निष्क्रिय (इनोपरेटिव) नहीं बनाता है बल्कि यह ऐसे प्रावधानों को निष्क्रिय करता है जो मौलिक अधिकारों से असंगत हैं। 

उदाहरण: ‘XYZ’ एक्ट की 8 धाराओं को इस आधार पर अधिकार से बाहर (अल्ट्रा वायर्स) कर दिया गया कि उन्होंने नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है। हालाँकि, एक्ट में से उन 8 प्रावधानों को घटाकर कोर्ट ने मंजूर करने की अनुमति दी थी। 

ग्रहण का सिद्धांत (डॉक्ट्राइन ऑफ एक्लिप्स)

मौजूदा कानून जो मौलिक अधिकार से असंगत है, हालांकि संविधान के लागू होने के समय निष्क्रिय हो जाता है, लेकिन पूरी तरह से बेजान नहीं है। सरल शब्दों में कानून मौलिक अधिकारों से ढके (ओवरशेडो) हुए हैं और निष्क्रिय रहते हैं, लेकिन पुरी तरह से अमान्य नहीं हैं। ग्रहण का सिद्धांत जो एक समय में केवल पूर्व संवैधानिक कानूनों पर लागू होता था लेकिन अब संवैधानिक कानूनों के बाद (पोस्ट कांस्टीट्यूशनल लॉ) भी लागू होता है। 

भविष्य के कानून

संविधान के अनुच्छेद 13 का खंड (2) भविष्य के कानूनों यानी संविधान के लागू होने के बाद बनाए गए कानूनों के बारे में विस्तार से बताता है। राज्य को कानून बनाने से प्रतिबंधित (प्रोहिबित) किया गया है, जो संविधान के भाग III द्वारा प्रदत्त (कांफर) किसी भी अधिकार को छीनता है या कम (अब्रिज्ड) करता है। खंड (2) के उल्लंघन में बनाया गया कानून उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगा। शून्य की इस अवधारणा को अंत में ‘अपेक्षाकृत शून्य (रिलेटिवेली वॉइड)’ या आंशिक (पार्शियली) रूप से अमान्य माना जाने लगा है। 

कभी-कभी कोर्ट्स अपने फैसलों को संभावित (प्रॉस्पेक्टिवली) रूप से लागू भी करते हैं। इसका मतलब यह है कि हालांकि कानून मौलिक अधिकारों के खिलाफ पाया गया था, वे केवल भविष्य के लिए अमान्य हैं। इसलिए कानून को शुरू से ही शून्य (वॉइड एब इनिशियो) या अमान्य घोषित नहीं किया गया है। 

मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का परीक्षण (टेस्ट ऑफ इनफ्रिंजमेंट)

बैंक राष्ट्रीयकरण मामले में कोर्ट का विचार था कि सिद्धांत कि वस्तु और राज्य कार्रवाई (स्टेट एक्शन) का रूप उस सुरक्षा की सीमा को निर्धारित करता है जिसका पीड़ित पक्ष दावा कर सकता है, जो संवैधानिक योजना के अनुरूप नहीं था जिसका उद्देश्य व्यक्ति को उसके मूल अधिकारों की पूर्ण सुरक्षा प्रदान करना है। इसलिए राज्य की कार्रवाई को उसके सभी पहलू (डाइमेंशन) में व्यक्ति और व्यक्तियों के समूह के अधिकारों पर उसके संचालन (ऑपरेशन) के आलोक में  आंका जाना चाहिए। 

संविधान के तहत, मौलिक अधिकारों की गारंटी की हानि के खिलाफ सुरक्षा, अधिकारों की प्रकृति, पीड़ित पक्ष के हित और राज्य की कार्रवाई से होने वाले नुकसान की डिग्री द्वारा निर्धारित की जाती है।

हालाँकि, मिसालें (प्रेसिडेंट्स) स्पष्ट रूप से यह नहीं बताती हैं कि राज्य की कार्रवाई का प्रभाव कब प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) और कब अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) होता है। केवल, प्रभाव की प्रत्यक्षता को सुरक्षित अधिकार या गतिविधि (एक्टिविटी) के संदर्भ में आंका जाना चाहिए। यदि राज्य की कार्रवाई किसी ऐसी गतिविधि को प्रतिबंधित करती या रोकती है जो मौलिक अधिकार नहीं है, तो मौलिक अधिकार पर इसका प्रभाव अप्रत्यक्ष है। 

मौलिक अधिकारों का त्याग (वेवर)

इस सवाल का समाधान करने के लिए, कि क्या मौलिक अधिकारों को उस व्यक्ति द्वारा त्याग किया जा सकता है जिसके पास यह है। बशेशर नाथ बनाम सीआईटी मामले में तथ्य यह था कि याचिकाकर्ता (पिटिशनर) ने अपनी आय (इनकम) की बड़ी राशि छुपाई थी। अपने दायित्व (लायबिलिटी) से बचने के लिए याचिकाकर्ता ने, धारा 8-A के तहत कर (टैक्स) और जुर्माने की बकाया राशि के रूप में मासिक किश्तों में 3 लाख रूपये का भुगतान करने के लिए समझौते पर सहमति व्यक्त की थी। आयकर (इनकम टैक्स) नियमों का संविधान के अल्ट्रा वायर्स होने के आधार पर अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करने पर उसे कर का भुगतान नहीं करना चाहिए। यह माना गया कि अनुच्छेद 14 के तहत अधिकार को त्यागा नहीं जा सकता है। तब से कानून बना दिया गया था कि मौलिक अधिकारों को त्यागा नहीं जा सकता है। 

कानून की परिभाषा

अनुच्छेद 13 के खंड (3) में ‘कानून’ और ‘लागू कानून’ शब्द शामिल हैं। कानून निम्नलिखित प्रकार का हो सकता है:

  1. स्टेट्यूटरी कानून: ये ऐसे कानून हैं जिन्हें सीधे विधायिका (लेजिस्लेचर) या अन्य अधीनस्थ अधिकारियों (सबोर्डिनेट अथॉरिटीज) द्वारा प्रत्यायोजित (डेलीगेट) कानून निर्माता शक्तियों के तहत अधिनियमित (इनैक्ट) किया जा सकता है। प्रत्यायोजित विधान (लेजिस्लेशन) विभिन्न नामों – नियमों, विनियमों (रेगुलेशन), अधिसूचनाओं (नोटिफिकेशन) और उपनियमों (बाईलॉ) के अंतर्गत दिखते हैं। 
  2. प्रथा (कस्टम्स): ‘कानून’ शब्द में ‘प्रथा’ और ‘उपयोग (यूसेज)’ शामिल हैं। पहले समय में, प्रथा कानून का मुख्य स्रोत (सोर्स) था लेकिन अब काफी हद तक इसे स्टेट्यूटरी कानून द्वारा निलंबित (सस्पेंड) कर दिया गया है। हालांकि, प्रथा ने प्रभाव पैदा करने वाले अपने कानून को पूरी तरह से नहीं खोया है। एक उचित और निश्चित प्राचीन प्रथा विधायिका के एक्ट की तरह कोर्ट्स पर बाध्यकारी है। 

संवैधानिक संशोधन (कांस्टीट्यूशनल अमेंडमेंट)

शंकरी प्रसाद सिंह देव बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में संवैधानिक (1वां अमेंडमेंट) एक्ट, 1951, जिसने संविधान के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों में संशोधन किया, जिसे इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि चूंकि संशोधन में मौलिक अधिकारों को कम करने का प्रभाव है, यह अनुच्छेद 13 के खंड (2) के अर्थ के अंदर वैध कानून नहीं था। इस तर्क को शीर्ष कोर्ट ने खारिज कर दिया और कहा कि खंड (2) में ‘कानून’ शब्द में संविधान में संशोधन करने वाले अनुच्छेद 368 के तहत संसद द्वारा बनाया गया कानून शामिल नहीं है। यह कहा गया था कि ‘कानून’ शब्द का अर्थ है “विधायिकाओं द्वारा अधिनियमित नियम और कानून” न कि “संवैधानिक शक्तियों के प्रयोग में किए गए संवैधानिक संशोधन।” इसलिए, सज्जन सिंह बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान जैसे ज्यादातर निर्णयों के बाद इस निर्णय का पालन किया गया। हालांकि, गोलक नाथ बनाम स्टेट ऑफ पंजाब के मामले में, शीर्ष कोर्ट ने 6:5 बहुमत से यह माना गया कि अनुच्छेद 13(2) में ‘कानून’ शब्द में संविधान का संशोधन शामिल है और इसके परिणामस्वरूप, यदि कोई संशोधन संक्षिप्त (अब्रिज्ड) किया जाता है या भारत के संविधान के भाग III के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों को कम या छीन लेता है, तो संशोधन एक्ट स्वयं शून्य और अधिकारहीन (अल्ट्रावायर्स) हो जाएगा। इसके बाद, केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ केरल के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने गोलक नाथ मामले को खारिज कर दिया और सर्वसम्मति से यह माना गया कि संविधान (24वां अमेंडमेंट) एक्ट, 1971, जिसमें अनुच्छेद 13 में खंड (4) और अनुच्छेद 368 में खंड (3) सम्मिलित किया गया था, वह वैध था। इसलिए, सभी न्यायाधीशों ने सहमति व्यक्त की कि संशोधित अनुच्छेद 368, मौलिक अधिकारों (भाग III) को शामिल करने वाले सभी प्रावधानों में संशोधन किया जा सकता है। 

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here