सिविल वाद में पक्षों को जोड़ना

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Civil Procedure Code

यह लेख Yash Gupta द्वारा लिखा गया है, जो लॉसिखो से एडवांस्ड सिविल लिटिगेशन: प्रैक्टिस, प्रोसीजर एंड ड्राफ्टिंग में सर्टिफिकेट कोर्स कर रहे हैं। इस लेख मे सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत सिविल मुकदमे में पक्षों को जोड़ने के संबंध में बात की गई है। इस लेख का अनुवाद Krati Gautam के द्वारा किया गया है। 

परिचय

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (“सीपीसी, 1908”) का आदेश I नियम 10, सिविल मुकदमे में पक्षों को जोड़ने के संबंध में बात करता है। कभी-कभी जिस पक्ष के निर्देश पर सिविल वाद दायर किया जाता है या यहां तक की वाद दायर करने वाले वकील को भी, सभी प्रभावित हुए पक्षों की जानकारी नहीं होती है। ऐसे परिदृश्य (सिनेरिओ) में सभी प्रभावित पक्षों को मामले की शुरुआत में पक्षकार नहीं बनाया जाता है। आदेश I नियम 10 इस गलती को दूर करता है और वाद में पक्षकारों को जोड़ने की अनुमति देता है। इसलिए नियम 10 कार्यवाही के पक्षों और उनको जोड़ने या हटाने का संचालन करता है। कार्यवाही के लिए आवश्यक और उचित पक्षों की रुकावट के संबंध में न्यायालय में व्यापक विवेक का अधिकार निहित है। बेशक, इस तरह के विवेक का प्रयोग कानून के प्रावधानों और विभिन्न न्यायिक घोषणाओ के द्वारा स्थापित सिद्धांतों के अनुसार किया जाना चाहिए।

आदेश I नियम 10

नियम 10 में यह माना गया है कि वाद का संस्थापन (इंस्टीट्यूशन), यानि कि वाद का प्रदर्शन (प्रेजेंटेशन) उचित होना चाहिए। इस प्रकार, जहां A और B के नाम पर एक मुकदमा स्थापित किया गया था, और B की मृत्यु वादपत्र की प्रस्तुति की तारीख से तीन दिन पहले हुई थी, वाद को B द्वारा स्थापित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वह उस समय तक मर चुका था। A अकेले ही वाद दायर कर सकता था, और अगर उसने ऐसा किया होता तो इसे सही से संस्थित किया जाता और उसकी प्रार्थना पर B के कानूनी प्रतिनिधियों को इस नियम के तहत जोड़ा जा सकता था।

आदेश 10 का उप-नियम (1) उन मामलों पर विचार करता है जिनमें एक वादी द्वारा वाद लाया जाता है और बाद में उसे पता चलता है कि उसे किसी अन्य व्यक्ति को सह-वादी के रूप में शामिल किए बिना पूरी तरह से राहत नहीं मिल सकती है, या फिर जहां यह पाया जाता है कि कोई अन्य व्यक्ति, न कि मूल वादी, दावे में मांगी गई राहत का असल हकदार है। पहले मामले में, आवेदन, मूल वादी द्वारा दिया जाना चाहिए, जो कि जोड़ने के लिए होगा, और बाद वाले मामले में, उस अन्य व्यक्ति को वादी के रूप में वादी के स्थान पर बदले जाने के लिए होगा।

हालाँकि, आवेदन को स्वीकार करने से पहले अदालत को संतुष्ट होना चाहिए कि मूल वादी की ओर से एक वास्तविक भूल के कारण संशोधन आवश्यक हो गया है। ऐसी गलती या तो तथ्य की या कानून की हो सकती है। जहां बात संदिग्ध (डाउटफुल) है, यह अपने आप में एक वास्तविक भूल का प्रमाण है। फिर, जहां प्रथम बार के न्यायालय किसी कानून के बारे में एक दृष्टिकोण लेता है और अपील की अदालत दूसरा दृष्टिकोण लेती है, वह भी अपने आप में एक स्वाभाविक गलती का सबूत है। यह देखा गया है कि इस नियम का उद्देश्य तकनीकी दलीलों पर मामलों को हतोत्साहित करना है, और ईमानदार और वास्तविक दावेदारों को अनुपयुक्त (नॉन सूटेड) होने से बचाना है। कोई भूल जो कि मूर्खतापूर्ण या लापरवाही से हुई हो, उसके अलावा, सिर्फ ईमानदारी से की गई भूल इस नियम के अंदर आयेगी।

भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (कंपटीशन कमीशन ऑफ इंडिया) बनाम स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड, [(2010) 10 एससीसी. 744] में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि नियम 10(1) किसी अदालत को वादी के रूप में एक पक्ष को बदलने या जोड़ने के लिए सक्षम बनाता है यदि वह संतुष्ट है कि स्वाभाविक गलती से गलत वादी के नाम पर कार्रवाई शुरू की गई थी। जब तक न्यायालय इस बात से संतुष्ट नहीं हो जाता है कि मूल वादी की ओर से स्वाभाविक गलती के कारण संशोधन आवश्यक हो गया है, तब तक उसके पास एक नए पक्ष को जोड़ने की कोई शक्ति नहीं है।

नियम 10(1) लागू करने के आवश्यक नियम:

  • स्वाभाविक गलती के कारण वादी के रूप में एक गलत व्यक्ति के नाम पर वाद दायर किया गया है।
  • वाद में विवाद के असल मुद्दे के निपटारे के लिए वादी का जोड़ना या बदलना जरूरी है।  

नियम 10(2)- न्यायालय पक्षों को अलग कर सकता है और जोड़ भी सकता है

उप-नियम (2) के तहत, कार्यवाही के किसी भी चरण में, और यहां तक कि किसी पक्ष के द्वारा किए गए आवेदन के बिना भी, पक्षों को जोड़ने के साथ-साथ अलग करने की शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है। इस नियम को या तो वाद के पक्ष, या न्यायालय स्वतः या तीसरे पक्ष द्वारा लागू किया जा सकता है, जो कि एक पक्ष के रूप में वाद में शामिल होना चाहता है। केवल वादी कि ओर से किसी पक्ष को जोड़ने की निष्क्रियता (इनेक्टिवनेस) इस उप-नियम के तहत अदालत की शक्ति को प्रभावित नहीं करती है। किसी व्यक्ति को अपनी ओर से (सुओ-मोटो) वाद में शामिल करने की शक्ति का प्रयोग करते हुए, न्यायालय को यह देखना होगा कि वास्तविक मालिक या इच्छुक मालिक को पक्ष के रूप में भाग लिए बिना उसके विरुद्ध कोई चालाकी से डिक्री प्राप्त नहीं की गई है और यह निष्क्रियता अंत में ऐसे व्यक्ति के अधिकारों को  प्रभावित तो नहीं करता है। इस उप-नियम के तहत न्यायालय की शक्ति न्यायिक रूप से प्रयोग की जाने वाली विवेकाधिकार की है, यह ध्यान में रखते हुए कि इसका एक उद्देश्य मुकदमों की बहुलता और निर्णयों के टकराव को रोकना है।

इस नियम का एक वैधानिक न्यायाधिकरण (ट्राइब्यूनल) के लिए कोई उपयोग नहीं है जो एक अदालत नहीं है और जहां संबंधित अधिनियम जो न्यायाधिकरण की स्थापना करता है, वह सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के प्रावधानों की प्रयोज्यता (ऐप्लकबिलटी) प्रदान नहीं करता है। सिविल प्रक्रिया संहिता के नियम 10(2) आदेश 1 कार्यवाही के किसी भी चरण में पक्षकारों को हटाने या जोड़ने के लिए अदालत के न्यायिक विवेक के बारे में बात करता है। अदालत अनुचित तरीके से शामिल होने वाले किसी भी पक्ष को बर्खास्त कर सकती है। यह वादी या प्रतिवादी के रूप में किसी को भी जोड़ सकता है यदि उसे लगता है कि वह आवश्यक पक्ष या उचित पक्ष है। संहिता के आदेश 1 के नियम 10(2) के तहत न्यायालय तर्क और निष्पक्षता के अनुसार कार्य करेगा न कि अपने मन के मुताबिक। वादी केवल उन्हीं व्यक्तियों को प्रतिवादी के रूप में शामिल करने का विकल्प चुन सकता है जिनके विरुद्ध वह आगे बढ़ना चाहता है। हालांकि, अदालत के लिए यह खुला है कि वह वाद के किसी भी चरण में, एक आवश्यक पक्ष को जोड़ सकती है, ताकि अदालत वाद में शामिल प्रश्नों पर प्रभावी ढंग से और पूरी तरह से निर्णय ले सके।

‘डोमिनस लिटिस’ के रूप में वादी

वादी को किसी ऐसे व्यक्ति पर मुकदमा करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है, जिसके खिलाफ वह किसी राहत का दावा नहीं करता है। ‘डोमिनस लिटिस’ का सिद्धांत उस व्यक्ति पर लागू होता है, जो मूल रूप से तो एक पक्ष नहीं है, लेकिन बाद में वह एक पक्ष बन चुका है, और उसने एक पक्ष के लिए संपूर्ण नियंत्रण और जिम्मेदारी ग्रहण कर ली है और अदालत द्वारा एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाता है जो कि लागत के लिए उत्तरदायी है। हालांकि, पक्षों को एक पक्ष बनाने के मामले में डोमिनस लाइट के सिद्धांत को अधिक खींचा नहीं जाना चाहिए क्योंकि यह सुनिश्चित करना न्यायालय का कर्तव्य है कि यदि विवाद में वास्तविक मामले को तय करने के लिए एक व्यक्ति एक आवश्यक पक्ष है, तो अदालत आदेश दे सकती है की ऐसे व्यक्ति को वाद में शामिल किया जाए। 

यह एक स्थापित कानून है कि अदालत वाद में किसी भी व्यक्ति को आवश्यक पक्ष के रूप में जोड़ सकती है ताकि वह वाद में उपस्थित प्रश्न का निपटारा सही ढंग से कर सके। हालाँकि, इस नियम के तहत अपनी ताकत के प्रयोग के लिए, अदालत को यह निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि पक्ष एक आवश्यक या उचित पक्ष है। इसलिए, पक्षों को जोड़ना न्यायिक विवेक पर निर्भर करेगा, जिसका प्रयोग मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर करना पड़ता है।

तालिब हुसैन बनाम पीर अजहर हुसैन, [ए आई आर 1998 राज. 150] के मामले में, अदालत ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश I नियम 10 अदालत को पक्षों को निकालने या जोड़ने का अधिकार देता है, जिन पक्षकारों की उपस्थिति अदालत के सामने जरूरी हो सकती है ताकि अदालत को सही ढंग से और पूरी तरह से मुकदमे में शामिल सभी प्रश्नों पर निर्णय लेने और निपटाने में सक्षम बनाया जा सके। लेकिन, ऐसा करते समय न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिए कि वाद का दायरा न बढ़े और वाद का स्वरूप भी न बदले। साथ ही इससे किसी भी पक्ष के साथ कोई पक्षपात नहीं होना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि जिस पक्ष को इन प्रावधानों के तहत जोड़ा जाना है, उसका वाद की विषय-वस्तु में सीधी रुचि होनी चाहिए। हर मामले में, अदालत के पास विवेकाधिकार होता है, लेकिन इसका प्रयोग देश के कानून के अंतर्गत स्थापित सिद्धांतों के अनुसार किया जाना चाहिए।

मुंबई इंटरनेशनल एयरपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड बनाम रीजेंसी कन्वेंशन सेंटर और होटल प्राइवेट लिमिटेड, [2010 ए आई आर एस.सी. 3109], में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 1 नियम 10 में प्रावधान है कि एक अदालत कार्यवाही के किसी भी चरण में, या तो किसी आवेदन पर या बिना आवेदन के भी, एसी शर्तों पर जो उसे ठीक लगती हैं, किसी भी व्यक्ति को पक्ष के रूप में जोड़ने के लिए निर्देश दे सकती है:- (1) कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसे वादी या प्रतिवादी के रूप में शामिल होना चाहिए था, लेकिन जिसे जोड़ा नहीं गया; या (2) कोई भी व्यक्ति जिसकी अदालत के सामने उपस्थिति आवश्यक हो सकती है ताकि अदालत को प्रभावी ढंग से और पूरी तरह से निर्णय लेने और मुकदमे में शामिल प्रश्न का निपटारा करने में सक्षम बनाया जा सके। संक्षेप में, न्यायालय के पास उस व्यक्ति को वाद में जोड़ने का विवेकाधिकार है, जिसे एक आवश्यक पक्ष या उचित पक्ष के रूप में पाया जाता है । 

पक्षों को शामिल करने के सामान्य नियम के अपवाद 

मुकदमे में वादी डोमिनस लिटिस होने के कारण, उन लोगों को चुन सकता है जिनके खिलाफ उसकी मुकदमा चलाने कि इच्छा है और उसे किसी और के खिलाफ मुकदमा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, जिसके खिलाफ उसे कोई राहत नहीं चाहिए। फलस्वरूप, एक व्यक्ति को, जो कि मुकदमे में पक्ष नहीं है, उसे वादी की इच्छा के विरुद्ध मुकदमे में शामिल होने का अधिकार नहीं है। हालांकि, सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत आदेश 1 का नियम 10(2), उचित और आवश्यक पक्षों को मुकदमे में जोड़ने का प्रावधान करता है। अगर आवश्यक पक्ष और उचित पक्ष को नहीं जोड़ा गया है, तो वाद खुद ही खारिज करने के योग्य होगा। अगर कोई व्यक्ति आवश्यक या उचित पक्षकार नहीं पाया जाता है, तो न्यायालय को वादी की इच्छा के विरुद्ध उसे मुकदमे में शामिल करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।  

एक मामले में, यह भी कहा गया था कि अदालत द्वारा मुकदमे के किसी भी चरण में या यहां तक ​​कि अपील स्तर पर और ऐसे नियमों और शर्तों पर जो वह उचित समझे, पक्षों  को जोड़ने या बदलने की अनुमति दी जा सकती है (रजिया बेगम बनाम साहबजादी अनवर बेगम [एआईआर 1958 ए .प.1958])। किसी भी व्यक्ति को उसकी सहमति के बिना वादी के रूप में नहीं जोड़ा जा सकता है। [नियम 10(3)]

और जहां किसी व्यक्ति को वाद में प्रतिवादी के रूप में जोड़ा जाता है, उसके संबंध में, वाद को उस तिथि से संस्थित माना जाएगा, जब वह एक पक्ष के रूप में शामिल हुआ है। [नियम 10 (5)]

आवश्यक पक्ष 

अव्यशयक पक्ष वो होता है जिसके बिना कोई भी आदेश प्रभावी रूप से पारित नहीं किया जा सकता है। उचित पक्ष वो है जिसका होना मुकदमे में प्रश्नों के पूर्ण और अंतिम निपटारे के लिए आवश्यक है। पक्षों को जोड़ना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है, जिसे किसी विशेष मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए प्रयोग किया जाता है। जिस व्यक्ति को मुकदमे में जोड़ा जाना है, वह ऐसा होना चाहिए जिसकी उपस्थिति न्यायालय में आवश्यक हो। जो चीज किसी व्यक्ति को एक आवश्यक पक्ष बनाती है, वह केवल यह नहीं है कि उसके पास कुछ सवालों पर देने के लिए उचित सबूत हैं, बल्कि उसे एक आवश्यक गवाह होना चाहिए। केवल इस आधार पर कि प्रस्तावित तीसरे पक्ष को शामिल करने से वाद की संरचना में कोई बदलाव नहीं आएगा, किसी भी पक्ष को अदालत से तीसरे पक्ष को प्रतिवादी के रूप में पक्ष बनाने के लिए कहने का अधिकार नहीं दे सकता है।

पक्षों का स्थानांतरण (ट्रांसपोज़िशन) 

स्थानांतरण में, एक व्यक्ति जो पहले से ही एक वादी या प्रतिवादी के रूप में रिकॉर्ड में है, एक क्षमता से दूसरी क्षमता यानी वादी से प्रतिवादी या इसके विपरीत में अपना स्थानांतरण चाहता है। चूंकि सीपीसी, 1908 के नियम 10 का प्राथमिक उद्देश्य कार्यवाही की बहुलता से बचना है, इसलिए यहाँ पर ऐसा कोई कारण नहीं है कि पक्षों को एक से दूसरी तरफ स्थानांतरित करने के लिए या जोड़ने या अलग करने का सिद्धांत यहाँ लागू ना हो (सैला बाला दासी बनाम निर्मला सुंदरी दासी, एआईआर [1958 एस.सी. 394])। इसलिए, एक अदालत एक उपयुक्त मामले में पक्षों के स्थानांतरण का आदेश दे सकती है।

निष्कर्ष

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वादी डोमिनस लिटिस है और अपने वाद का स्वामी है। वह उस व्यक्ति के खिलाफ अपना मुकदमा दायर करता है जिसके खिलाफ उसका किसी प्रकार का दावा है और यदि वह ऐसा नहीं करना चाहता है, तो उसके द्वारा प्रतिवादी के रूप में किसी व्यक्ति को जोड़ने का आग्रह नहीं किया जा सकता है। मुकदमे में प्रतिवादी के रूप में तीसरे व्यक्ति को जोड़ने से पहले अदालत वादी की इच्छाओं को लगातार ध्यान में रखेगी। हालांकि, अगर अदालत को लगता है कि नए प्रतिवादी को शामिल करना बिल्कुल जरूरी है और इसे प्रभावी ढंग से और पूरी तरह से पक्षों के बीच विवाद में मामले को न्यायसंगत बनाने में सक्षम बनाने के लिए टाला नहीं जा सकता है, तो क्या वह वादी की सहमति के बिना भी प्रतिवादी के रूप में किसी व्यक्ति को जोड़ देगा।

संदर्भ

  • Mulla: The Code of Civil Procedure, 18th Edition
  • Civil Procedure Code – C.K Takwani (8th Edition0
  • MP Jain: The Code of Civil Procedure including Limitation Act, 1963, 5th ed
  • Ipleaders.com
  • Universal law Series- Code of Civil Procedure

 

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