सिटीजनशिप की कहानी: इंट्रेस्टिंग फैक्ट्स जो आपको जरूर जानना चाहिए

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Citizenship Amendment Act
Image Source- https://rb.gy/3xhjve

यह लेख जामिया मिल्लिया इस्लामिया में लॉ पढ़ रही  सेकंड ईयर की छात्रा  Iqra Khan द्वारा लिखा गया है। इस लेख में सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट के बारे में बताया है और एनआरसी, एनपीआर, और सीएए पर भी चर्चा की गई है। इसका अनुवाद Sakshi Kumari ने किया हैं जो फेयरफील्ड इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी, नई दिल्ली से बी.ए. एलएलबी कर रही है l   

परिचय (इंट्रोडक्शन)

“अगर मैं एक तानाशाह होता, तो धर्म और राज्य अलग होते। मैं अपने धर्म की कसम खाता हूं। मैं इसके लिए मर जाऊंगा। लेकिन यह मेरा निजी मामला है। राज्य का इससे कोई लेना-देना नहीं है। राज्य आपके धर्मनिरपेक्ष कल्याण (सेक्युलर वेल्फेयर), स्वास्थ्य, संचार (कम्युनिकेशन), विदेशी संबंधों, मुद्रा (करेंसी) आदि की देखभाल करेगा, लेकिन आपके या मेरे धर्म की नहीं। यह सबकी निजी चिंताय है!”

                                                                                                           –   महात्मा गांधी

 2019 के अंत में पूरे भारत में छात्रों का बहुत विरोध हुआ। यह विरोध 12 दिसंबर 2019 को पास हुए सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट के खिलाफ थे, जिसकी धर्मनिरपेक्षता (सेक्युलरिज्म)  के आधार पर आलोचना की जा रही है। भारतीय संविधान की एक बुनियादी विशेषता (बेसिक फीचर्स) है, और यह संविधान में दिए गए राइट टु इक्वालिटी (आर्टिकल 14) का उल्लंघन (वॉयलेट) करता है और एनआरसी जिसे सरकार, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 2019 के घोषणापत्र (मैनिफेस्टो) के अनुसार लागू करने की योजना बना रही है। एनआरसी और सीएए का संयुक्त प्रभाव मुसलमानों के लिए भेदभावपूर्ण होगा। सिटीज़नशिप  की कहानी का उद्देश्य इन सब पर चर्चा करना है।

कहानी शुरू होती है…

कहानी कुछ महत्वपूर्ण पात्रों एनआरसी, एनपीआर, सीएए के इर्द-गिर्द घूमती है। एनआरसी क्या है? असम में एनआरसी का अनुभव कैसा रहा? एनपीआर क्या है? क्या ये दोनों जुड़े हुए हैं? क्या ये विवादास्पद (कॉन्ट्रोवर्शियल) सीएए से भी जुड़े हैं? छात्र विरोध क्यों कर रहे हैं? क्या यह वाकई जरूरी है? ऐसे कई सवाल हमारे मन में आते हैं जब हम देखते हैं कि आज देश में क्या हो रहा है।

कालानुक्रमिक (क्रोनोलॉजिकली) रूप से आगे बढ़ते हुए, एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स, भारत के नागरिकों की एक अंतिम सूची (फाइनल लिस्ट) है, जो भारतीयों द्वारा प्रदान किए गए दस्तावेजी साक्ष्य (डॉक्यूमेंट्री एविडेंसेज) के आधार पर तैयार की जाती है, ताकि यह पता लगाया जा सके कि उनके माता-पिता या दादा-दादी भारत के नागरिक हैं। सरकार एक कटऑफ डेट निर्धारित (डिसाइड) करेगी और लोगों को डॉक्युमेंट्स के माध्यम से यह साबित करना होता है कि उनके माता-पिता/पूर्वज भारत में रहते थे या उस डेट से पहले भारत में किसी संपत्ति (प्रॉपर्टी) के मालिक थे।

एनआरसी

असम में एनआरसी की कहानी इतनी खुशनुमा नहीं है। 19 लाख नागरिकों को अवैध अप्रवासी (इल्लीगल इमिग्रेंट्स) घोषित किए जाने के साथ, एक सेवानिवृत्त सेना अधिकारी (रिटायर्ड आर्मी ऑफिसर), मोहम्मद सनाउल्लाह, जिन्होंने सेना में वर्षों तक सेवा की, उनको विदेशी घोषित किया गया और हिरासत में ले लिया गया, असम के पहले डिप्टी स्पीकर, मौलवी मोहम्मद अमीरुद्दीन के परिवार के साथ भी यही हुआ और इसी तरह हजारों ऐसे वे लोग जो कानूनी रूप से नागरिक थे, लेकिन ऐसे डॉक्युमेंट्स के कारण बाहर कर दिए गए है, जिन्हें राज्य ने सिटिजनशिप के वैध प्रमाण (लेजिटीमेट प्रूफ) के रूप में बहुत कम घोषित किये गए है। कई लोग मारे गए हैं, कुछ ने आत्महत्या कर ली है और भावनात्मक (इमोशनल) और मानसिक रूप से पीड़ित हैं। फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल द्वारा विदेशी घोषित किए गए नागरिकों को हिरासत में लेने के लिए डिटेंशन सेंटर हैं। नवंबर 2019 तक असम में कुल छह डिटेंशन सेंटर थे, जिनमें से एक निर्माणाधीन (अंदर कंस्ट्रक्शन) है। अन्य राज्यों, दिल्ली, गोवा, पंजाब और राजस्थान में पहले से ही डिटेंशन सेंटर चालू हैं और कर्नाटक, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल राज्यों में निर्माण के लिए स्थानों की पहचान की गई है। यह हमारे प्रधान मंत्री द्वारा देश में किसी भी डिटेंशन सेंटर के अस्तित्व (एग्जिस्टेंस) को नकारने वाले बयान के विपरीत है। नागरिकों का नेशनल रजिस्टर कई ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए मुश्किलें खड़ी करता है, क्योंकि उनमें से कई को उनके परिवार द्वारा छोड़ दिया जाता है या कई लोग अपना घर छोड़ देते हैं। इसलिए हो सकता है कि उनके पास अपनी सिटिजनशिप साबित करने के लिए आवश्यक डॉक्युमेंट्स न हों। असम के एनआरसी की लिस्ट से लगभग 2000 ट्रांसजेंडरों को बाहर कर दिया गया है।

एनपीआर

नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर), एनआरसी के निर्माण की दिशा में पहला कदम है। 2021 में होने वाली नियमित (रेगुलर) जनगणना (सेंसस) के विपरीत, एनपीआर में तारीख और किसी व्यक्ति के माता-पिता के स्थान की आवश्यकता होती है। साथ ही, एनपीआर के लिए व्यक्ति को अपना आधार नंबर भी घोषित (डिक्लेयर) करना होगा। यह सिटिजनशिप एक्ट 1955 और सिटिजनशिप रूल्स, 2003 के तहत देश के सामान्य निवासियों का एक डेटाबेस है। इस डेटा के आधार पर, यदि किसी व्यक्ति की सिटिजनशिप को संदिग्ध (डाउटफुल) पाया जाता है, तो उसे यह साबित करना होगा कि वह एक अवैध अप्रवासी  नहीं है। जो लोग यह साबित नहीं कर पाते है कि वे अवैध अप्रवासी  नहीं हैं, उन्हें अंतिम एनआरसी लिस्ट में शामिल नहीं किया जाता हैl

सीएए

दूसरी ओर विवादास्पद सीएए का उद्देश्य पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से उन सभी गैर-मुसलमानों को सिटिजनशिप प्रदान करना है जो 31 दिसंबर 2014 को या उससे पहले भारत आए थे। सीएए का कहना है कि ये विशेष धर्म के लोग (हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई) को अवैध अप्रवासी  नहीं माना जाएगा। यह एक्ट आर्टिकल 14 का उल्लंघन करता है, सबसे पहले इस एक्ट में कोई स्पष्टीकरण (एक्सप्लेनेशन) नहीं दिया गया है कि इन विशेष तीन देशों को क्यों चुना गया है। सरकार ने समझाया कि चूंकि ये तीनों इस्लामिक राज्य हैं इसलिए इन देशों में मुसलमानों पर किसी भी तरह का धार्मिक उत्पीड़न (रिलिजियस पर्सिक्यूशन) नहीं होगा। तथ्य यह है कि पाकिस्तान में एक धार्मिक अल्पसंख्यक (माइनॉरिटी), अहमदिया को समान रूप से धार्मिक उत्पीड़न  का सामना करना पड़ा है, हजारा अफगानिस्तान में एक सताए हुए अल्पसंख्यक हैं, म्यांमार का कोई राज्य धर्म नहीं है और रोहिंग्या अल्पसंख्यक  हैं, वहां बड़े पैमाने पर धार्मिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ाता है और बहुत लोग शरणार्थी शिविरों (रिफ्यूजी कैंपस) में रह रहे हैं, जिनके बुनियादी मानवाधिकारों (बेसिक ह्यूमन राइट्स) को सरकार द्वारा अनदेखा किया जा रहा है। इसलिए ऐसा एक्ट मुसलमानों के साथ भेदभावपूर्ण है। इस एक्ट का सरकार द्वारा स्पष्टीकरण की सहायता से बचाव किया जा रहा है जैसे कि यह एक्ट इन विशिष्ट (स्पेसिफिक) देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों को धार्मिक उत्पीड़न से बचाने के लिए है। एक्ट में “धार्मिक उत्पीड़न” यानी रिलिजियस प्रॉसिक्यूशन जैसे कोई शब्द नहीं हैं, लेकिन अगर हम मानते हैं कि यह मामला है, तो अन्य अल्पसंख्यकों  के धार्मिक उत्पीड़न  को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

एसआर बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में, जस्टिस सावंत और कुलदीप सिंह ने कहा कि कोई भी प्रोफेशन और कार्य जो धर्मनिरपेक्षता के पंथ के खिलाफ जाता है, हमारे संविधान के प्रोविजंस की अवहेलना में आचरण (कंडक्ट इनडिफियांस) प्रथम दृष्टया प्रमाण (प्रिमा फेसी) है। धर्मनिरपेक्षता  का सीधा सा मतलब है कि राज्य का कोई राज्य धर्म नहीं है। यह हर धर्म के साथ समान व्यवहार करता हैl आर्टिकल 14 केवल सिटीजंस को नहीं बल्कि सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष इक्वालिटी की गारंटी देता है। फिर यह कानून धर्म के आधार पर सिटिजनशिप क्यों दे रहा है? संविधान  का पार्ट II सिटिजनशिप से संबंधित है और कहता है कि कोई भी व्यक्ति जो

  1. भारत के राज्यक्षेत्र (टेरिटरी) में पैदा हुआ; या
  2. जिनके माता-पिता भारत के राज्यक्षेत्र (टेरीटरी) में पैदा हुए थे; या
  3. जो इस तरह के प्रारंभ से ठीक पहले कम से कम 5 साल के लिए भारत के क्षेत्र में सामान्य रूप से निवासी रहा है, वह भारत का नागरिक यानी सिटीज़न होगा।

साथ ही, सिटिजनशिप एक्ट, 1955 कहता है कि  निम्नलिखित में से किसी भी तरह से सिटिजनशिप प्राप्त की जा सकती है, यानी जन्म, वंश (डिसेंट), रजिस्ट्रेशन और देशीयकरण (नेचरलाइजेशन) द्वारा से प्राप्त की जा सकती है। अब इस एक्ट द्वारा, उल्लिखित धर्मों और देशों के लोगों को अवैध अप्रवासी नहीं माना जाएगा और वे सिटिजनशिप के लिए या तो देशीयकरण या रजिस्ट्रेशन द्वारा आवेदन कर सकते हैं। उन्हें कोई डॉक्युमेंट्स उपलब्ध कराने के लिए नहीं कहा जाएगा और ऐसे डॉक्युमेंट्स की कमी होने पर भी उन्हें नागरिकता प्रदान की जाएगी। सवाल यह है कि क्या ये सभी (एनपीआर + एनआरसी+ सीएए) जुड़े हुए हैं? हम होम मिनिस्टर अमित शाह के शब्दों पर भरोसा करते हुए हाँ कह सकते हैं, जिन्होंने कहा था कि एनआरसी और सीएए दोनों को कालक्रम के अनुसार एक साथ काम करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। हालांकि बाद में सीएए के खिलाफ बढ़ते विरोध के चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एनआरसी पर किसी भी तरह की चर्चा से इनकार किया था।

सीएए गैर-मुसलमानों की सहायता के लिए हो सकता है, जिन्हें एनआरसी में शामिल नहीं किया गया है, यह साबित करके कि वे तीन देशों (अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश) में से  31 दिसंबर 2014 को या उससे पहले, धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए किसी एक से आए हैं, फिर से देश के नागरिक बन सकते हैं। और दूसरी ओर जो मुसलमान ऐसे डॉक्यूमेंट्स के बिना होंगे, वे सीएए द्वारा गैर-मुसलमानों को प्रदान की गई ऐसी छूट में शामिल नहीं होंगे। एनआरसी अकेले असम में बहुत सफल अभ्यास नहीं था, राष्ट्रव्यापी कार्यान्वयन (नेशनवाइड इंप्लीमेंटेशन) के बारे में बात करना हमें मानवाधिकारों के व्यापक उल्लंघन के बारे में सोचने पर मजबूर करता है। बहुत से लोग स्टेटलेस हो सकते हैं और मतदान के मूल अधिकार भी खो सकते है |

छात्रों का विरोध अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिलिया इस्लामिया के परिसरों से हुआ था, जो यूनिवर्सिटीज (जामिया मिलिया इस्लामिया) के परिसर में छात्रों पर बहुत अधिक हिंसा, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान और पुलिस द्वारा क्रूर हमलों का गवाह है। पुलिस, अधिकारियों की अनुमति के बिना जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में घुस गई और छात्रों पर हमला किया और उनके साथ आतंकवादी जैसा व्यवहार किया। जामिया मिल्लिया इस्लामिया का खूनी रविवार इस बात का सबूत है कि असहमति खतरे में है, डेमोक्रेसी खतरे में है। पूरे देश में कई यूनिवर्सिटीज और कॉलेज पुलिस की बर्बरता (सोलिडेरिटी) और एक्ट के खिलाफ एकजुट होकर सामने आए। तब से जामिया मिल्लिया इस्लामिया में रोजाना शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। नागरिकों के भारी विरोध के बाद भी सरकार एक कदम भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। सरकार ने एक्ट के बारे में नागरिकों को शिक्षित करने के लिए डोर-टू-डोर अभियान शुरू किया है और लोगों को सीएए का समर्थन करने के लिए एक टोल-फ्री नंबर प्रदान किया है।

अगर हम तार्किक (लॉजिकली) रूप से सोचें, तो भारत जैसे देश में, जहां बड़ी संख्या में निरक्षर (इलिट्रेट), सड़कों पर रहने वाले कई लोग, कुछ डॉक्युमेंट्स के माध्यम से अपने वंश को साबित नहीं कर पाते है। साथ ही, बाढ़ प्रभावित राज्यों में बहुत से लोग ऐसे डॉक्युमेंट्स खो देते हैं। अनाथों, ट्रांसजेंडरों को भी अपनी सिटिजनशिप साबित करने में बाधाओं का सामना करना पड़ता है| असम एनआरसी को 1200 करोड़ रुपये से अधिक की लागत (कॉस्ट) की आवश्यकता थी। एक राष्ट्रव्यापी एनआरसी को इस राशि से बहुत अधिक व्यय (एक्सपेंडिचर) की आवश्यकता होगी। जब भारत को 2020 में बढ़ती जीडीपी, अधिक रोजगार, बेहतर शिक्षा प्रणाली (सिस्टम), बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं और अधिक सामंजस्यपूर्ण (हारमोनाइज्ड) कर दिया गया।  के साथ महाशक्ति माना जाता था, तो सरकार यह तय करने में व्यस्त है की कौन सिटिजन है और कौन नही और  छात्रों के विरोध पूरे देश में और यहां तक ​​कि देश के बाहर भी बढ रहे है, जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पुलिस की हिंसा हो रही है और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों में, छात्रों को पुलिस द्वारा बेरहमी से पीटा गया और इंटरनेट बंद कर दिया गया । सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस मदन लोकुर ने कहा कि सिटिजनशिप (अमेंडमेंट) एक्ट में सम्मिलित “इल्लीगल माइग्रेंट यानी अवैध अप्रवासी” की परिभाषा में प्रोविजो स्पष्ट रूप से असंवैधानिक (अनकॉनस्टिट्यूशनल)  है, बशर्ते (प्रोवाईडेड) कोई व्यक्ति 1952 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित कानून से सहमत हो। अजीत प्रकाश शाह दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस और भारत के लॉ कमिशन ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष ने 28 दिसंबर, 2019 को द हिंदू के एक लेख में कहा, क्योंकि सीएए अनैतिक (इम्मोरल) है, लोगों का आंदोलन अपरिहार्य (इनेविटेबल) और आवश्यक है, फंडामेंटल प्रिंसिपल्स जिन पर भारत का संवैधानिक (कॉन्स्टिट्यूशनल) विचार टिका हुआ है, किसी ऐसी चीज के लिए नष्ट कर दिया जाएगा जो हमेशा के लिए गहरे घाव दे सकती है। यू एन हाई कमिशन ऑफ ह्यूमन राइट्स ने जिनेवा में कहा था कि यह “चिंता का विषय कि सीएए “मूल रूप से भेदभावपूर्ण” है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

जिस तरह नूर्नबर्ग ने जर्मनी को जर्मनों और यहूदियों में विभाजित किया, उसी तरह एनआरसी और सीएए भारत को हिंदुओं और मुसलमानों में विभाजित कर रहे हैं। एक पूर्ण धर्मनिरपेक्ष देश का सपना धूमिल (ब्लीक) होता दिख रहा है। क्या संविधान द्वारा गारंटी की गई अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता और असहमति के अधिकार को राज्य द्वारा धीरे-धीरे प्रतिबंधित (रेस्ट्रिक्ट) किया जा रहा है है या किसी को भी अब संविधान की परवाह नहीं है? किसी भी डेमोक्रेटिक देश के लिए असहमति अत्यंत महत्वपूर्ण है लेकिन फिर किसी को यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि क्या डेमोक्रेसी एक थियोक्रेटिक राज्य में बदल रही है। खैर, कहानी यहीं खत्म नहीं होती, देखने के लिए बहुत कुछ है। मुझे नहीं पता कि हम सुखद अंत देखेंगे या दुखद, लेकिन मुझे क्या लगता है कि इस आंदोलन ने लोगों को इस तरह से एक साथ लाया है जिसकी सराहना की जरूरत है। लोगों द्वारा दिखाई गई एकता काबिले तारीफ है। मैं किसी भी रूप में हिंसा का समर्थन नहीं करती, लेकिन मैं असहमति के अधिकार का समर्थन करती हूं, लोगों को आपत्तियां उठाने का अधिकार, इनकार करने का अधिकार है, लोगों और सरकार के बीच संवाद (डायलॉग) होना चाहिए। इंटरनेट बंद करना कोई तरीका नहीं है, लोगों को अपने अधिकारों के लिए बोलने दें और विभाजित न करें।

अभी एक्ट की संवैधानिक का फैसला करना सुप्रीम है, और हम सभी को ज्यूडिशियरी में अपना विश्वास रखना चाहिए, कि यह हमारे संविधान की रक्षा करेगा।

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