हिंदू कानून के तहत एक संरक्षक के दायित्व

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Hindu law
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यह लेख विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज (गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय से एफिलिएटेड) में पढ़ रहे कानून के छात्र Mridul Tripathi द्वारा लिखा गया है। इस लेख में वह हिंदू कानून के तहत संरक्षक (गार्जियन) के कर्तव्यों पर चर्चा करते हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय

वैदिक समाज में स्थायी पारिवारिक संरचना (स्ट्रक्चर) और कर्ता की अनम्य (अनयेल्डिंग) उपस्थिति और शक्तियों के कारण, भारत के प्राचीन ग्रंथों में संरक्षकता की अवधारणा पर शायद ही चर्चा की गई है। इसलिए, भारत में संरक्षकता पर शायद ही कोई कानून था। संरक्षकता की अवधारणा की वृद्धि, एक कानूनी अवधारणा के रूप में ब्रिटिश शासन के आने से शुरू हुई और धीरे-धीरे समय के साथ इन कानूनों को हिंदू कानूनों में शामिल किया गया था। 

इससे पहले कि हम इस विषय में गहराई से उतरें और हिंदू कानून के तहत एक संरक्षक के दायित्वों पर चर्चा करें, हमें इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए कुछ बुनियादी बातों को स्पष्ट रूप से समझना होगा। भारत में, एक हिंदू परिवार में संरक्षकता हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षक अधिनियम (हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट), 1956 और संरक्षक और प्रतिपाल्य (वॉर्ड) अधिनियम, 1890 द्वारा नियंत्रित होती है, जो एक संरक्षक की नियुक्ति के बारे में जरूरी सिद्धांतों और कानूनों से संबंधित है। यह लेख अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 में उल्लिखित दायित्वों पर चर्चा करने के साथ-साथ अधिनियम के तहत अन्य विभिन्न प्रमुखों पर भी बात करता है। 

हिंदू कानून के तहत ‘नाबालिग’ और ‘संरक्षक’ शब्दों की परिभाषा

हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षक अधिनियम, 1956 की धारा 4 प्रासंगिक (रिलेवेंट) परिभाषाओं से संबंधित है, लेकिन परिभाषाओं को पढ़ते समय हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि परिभाषाओं को हमेशा योग्यता के अधीन पढ़ा जाना चाहिए कि उनका उपयोग विषय से असंगत नहीं होना चाहिए। इसे लागू करने में, यदि संदर्भ और शब्दों और क़ानून की अभिव्यक्ति के बीच कोई असंगति दिखाई देती है, तो इसे सामंजस्यपूर्ण (हार्मोनियस) रूप से हल किया जाना चाहिए और साथ ही साथ उसे विधायिका के इरादे को भी प्रभावित करने के लिए पढ़ा जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, संरक्षक शब्द का व्यापक अर्थ है लेकिन इस अधिनियम में इसका उपयोग एक नाबालिग और उसकी संपत्ति के लिए किया गया है। यह परिभाषा किसी अन्य अधिनियम के मामले में लागू नहीं हो सकती है। धारा 4 में कुछ शब्दों की परिभाषा शामिल है – नाबालिग, संरक्षक और एक प्राकृतिक संरक्षक।

नाबालिग

धारा 4 (a) अधिनियम के तहत परिभाषित नाबालिग का अर्थ उस व्यक्ति से है जिसने 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की है।

संरक्षक

हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षक अधिनियम, 1956 की धारा 4 (b) के तहत परिभाषित संरक्षक का अर्थ एक व्यक्ति से है जो नाबालिग की शारीरिक या उसकी संपत्ति या उसकी शारिरिक और उसकी संपत्ति दोनों की देखभाल करता है और इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:

  • एक प्राकृतिक संरक्षक: पिता, माता और पति (निहित (इंप्लाइड) रूप से निरसित (रीपील))।
  • वसीयतनामा (टेस्टामेंटरी) संरक्षक: नाबालिग के पिता या माता की इच्छा से नियुक्त व्यक्ति।
  • प्रमाणित संरक्षक: न्यायालय द्वारा नियुक्त या घोषित।
  • प्रतिपाल्य के किसी भी न्यायालय से संबंधित किसी भी अधिनियम द्वारा सशक्त एक व्यक्ति।

संरक्षकों के प्रकार

बच्चे के कल्याण को सुनिश्चित करने के लिए संरक्षकों की नियुक्ति की जाती है। अधिनियम की धारा 4 में परिभाषित और शामिल किए गए तीन प्रमुख प्रकारों अर्थात् प्राकृतिक, वसीयतनामा और अदालत द्वारा नियुक्त किए गए संरक्षक के अलावा, वास्तविक संरक्षक (स्व-नियुक्त संरक्षक) और आत्मीयता (एफिनिटी) के संरक्षक (एक नाबालिग विधवा के संरक्षक) भी मौजूद हैं। हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 11 में वास्तविक संरक्षकों का उल्लेख किया गया है और इस लेख में सीमाओं के बारे में भी चर्चा की गई है।

एक हिंदू नाबालिग के प्राकृतिक संरक्षक

हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6 में तीन व्यक्तियों को प्राकृतिक संरक्षक के रूप में मान्यता दी गई है अर्थात पिता, माता और पति।

खंड (a) – एक लड़के या एक अविवाहित लड़की के मामले में- पिता और उसके बाद, मां: बशर्ते कि 5 साल से कम उम्र के नाबालिग बच्चे के मामले में, हिरासत मां के पास रहेगी।

1956 से पहले, एक पिता अपनी मृत्यु से पहले एक वसीयतनामा संरक्षक नियुक्त करके माता के संरक्षकता अधिकारों को कम करने में सफल होता था, लेकिन 1956 के अधिनियम के बाद, यदि बच्चे की माँ अभी भी जीवित है, तो एक वसीयतनामा संरक्षक की नियुक्ति अप्रभावी हो जाती है।

हालांकि, कानून कहता है कि पिता जीवित होने पर बच्चे का प्राकृतिक संरक्षक होता है और उसकी मृत्यु के बाद ही मां प्राकृतिक संरक्षक बनती है, इसके कुछ अपवाद हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि इस धारा में उल्लिखित शब्द ‘के बाद’ न केवल ‘मृत्यु के बाद’ को संदर्भित करता है बल्कि साथ ही यह’अनुपस्थिति में’ भी शामिल है। जहां पिता ने अपनी उदासीनता के कारण मां की किसी भी कार्रवाई पर कोई आपत्ति नहीं की या जहां नाबालिग को मां की विशेष देखभाल में रखा गया है और पिता ने उसकी किसी मानसिक या शारीरिक अक्षमता के कारण नाबालिग की संपत्ति की देखभाल नहीं की है तो, इस धारा के उद्देश्य के लिए अनुपस्थित समझा जाएगा। केवल यह तथ्य कि मां ने पुनर्विवाह कर लिया है, उसके अधिकारों को नहीं छीनेगा और उसके अनुरोध को अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा। जब हिरासत की बात आती है, तो एक सामान्य नियम के रूप में, अदालत नाबालिग की हिरासत से पिता को वंचित नहीं करेगी, लेकिन ऐसे सभी मामलों में अदालत हमेशा बच्चे के कल्याण को सर्वोपरि रखती है और फैसला देते समय उसे एक जरूरी कारक मानती है और नाबालिग बच्चे की हिरासत उसके पिता को नहीं देती, जहां बच्चे के हितों से समझौता किया जाता है।

खंड (b)– अपने नाजायज बच्चों की कानूनी संरक्षक माता होती है:

मां को नाजायज बच्चे की प्राकृतिक संरक्षक माना जाता है, भले ही ऐसे नाबालिग के पिता जीवित हों या नहीं। पिता को कोई अधिमान्य (प्रीफ्रेंशियल) अधिकार नहीं दिया जाता है।

खंड (c)– पति नाबालिग पत्नी का वैध संरक्षक होता है:

बाल विवाह निषेध अधिनियम (प्रोहिबीशन ऑफ चाइल्ड मैरिज), 2006 की धारा 3 के प्रावधानों के कारण यह खंड निहित रूप से निरस्त हो गया है।

अधिनियम की धारा 6 के प्रावधान में कहा गया है कि एक व्यक्ति नाबालिग के प्राकृतिक संरक्षक के रूप में कार्य करने का हकदार नहीं होगा, यदि वह या तो हिंदू नहीं रहा है या उसने पूरी तरह से संन्यासी (वानप्रस्थ) या तपस्वी (यति या संन्यासी) बनकर दुनिया को त्याग दिया है। 

वसीयतनामा संरक्षक

वसीयतनामा संरक्षक वे होते हैं जिन्हें नाबालिग के माता-पिता की इच्छा से नियुक्त किया जाता है। हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम की धारा 9 वसीयतनामा संरक्षकों से संबंधित प्रावधानों से बारे मे है। उप-धारा 1 और उप-धारा 2 पिता के अधिकारों से संबंधित है और बताती है कि हिंदू पिता को संरक्षक नियुक्त करने का अधिकार है और यदि वह मां की मृत्यु से पहले मर जाता है, तो ऐसी नियुक्ति विफल हो जाएगी। यह तभी पुनर्जीवित होगा जब माता की मृत्यु, वसीयत द्वारा किसी व्यक्ति को संरक्षक के रूप में नियुक्त किए बिना हो जाएगी।

मां के अधिकारों में उसके नाजायज बच्चे के लिए संरक्षक की नियुक्ति भी शामिल है। इस मामले में भले ही उसकी मृत्यु पिता की मृत्यु से पहले हो गई हो, लेकिन यहां पिता को संरक्षक नियुक्त करने का अधिकार नहीं होगा, हालांकि उसे बच्चे के प्राकृतिक संरक्षक के रूप में माना जाएगा। वसीयतनामा के अधिकार भी विधवाओं और माता में निहित हैं जो पिता की अयोग्यता के कारण प्राकृतिक संरक्षक के रूप में कार्य करने के हकदार हैं। नाबालिग लड़की के मामले में, जैसे ही उसकी शादी हो जाती है, संरक्षक के वसीयतनामा के अधिकार समाप्त हो जाते हैं।

वसीयतनामा संरक्षकों के पास प्राकृतिक संरक्षक के समान अधिकार और सीमाएँ हैं। 

न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक (प्रमाणित संरक्षक)

न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षकों को प्रमाणित संरक्षक कहा जाता है और न्यायालय विभिन्न मनोवैज्ञानिक, शारीरिक और वित्तीय कारकों को ध्यान में रखते हुए एक संरक्षक की नियुक्ति करता है। ऐसे संरक्षकों की शक्तियां संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1980 द्वारा विनियमित होती हैं। मिताक्षरा हिंदू परिवार के नाबालिग के लिए, जिसका अविभाजित हित है, एक संरक्षक को नियुक्त करने की शक्ति केवल उच्च न्यायालय के पास ही है (हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 12)।

संरक्षक की शक्तियां

हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 8(1) प्राकृतिक संरक्षक को नाबालिग के लाभ के लिए आवश्यक और उचित सभी कार्रवाई करने या नाबालिग की संपदा (एस्टेट) के लाभ या सुरक्षा के लिए कार्रवाई करने की शक्ति प्रदान करती है। नाबालिग की संपदा का मतलब नाबालिग की निश्चित संपदा है, न कि संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति में उसका अस्थिर (फ्लक्चुएटिंग) अनिश्चित हित। धारा 8 संरक्षकता और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 29 के अनुरूप है। 

संरक्षकों के दायित्व

  1. उपरोक्त शक्तियों का पालन करने में संरक्षक किसी भी मामले में नाबालिग को निजी अनुबंध (कोवनेंट) से बाध्य नहीं कर सकता है। इसका मतलब यह है कि संरक्षक नाबालिग की संपत्ति पर वित्तीय दायित्व लगा सकता है, फिर भी उसे इस तरह के अनुबंध के कारण बाद में होने वाले नुकसान या दायित्वों के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं बना सकता है।
  2. हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 5 के साथ पठित धारा 8 की उप धारा 2 एक नाबालिग की अचल संपत्ति के निपटान के लिए एक प्राकृतिक संरक्षक में निहित शक्ति का स्थान लेती है। यह स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया है कि एक प्राकृतिक संरक्षक अदालत की पूर्व अनुमति के बिना-
  • नाबालिग की अचल संपत्ति के किसी भी हिस्से को गिरवी नहीं कर सकता या बिक्री, उपहार, विनिमय (एक्सचेंज) या अन्यथा के द्वारा हस्तांतरित (ट्रांसफर) नहीं कर सकता है, या
  • ऐसी संपत्ति के किसी भी हिस्से को पांच साल से अधिक की अवधि के लिए या नाबालिग के वयस्कता प्राप्त करने की तारीख के बाद एक वर्ष से अधिक की अवधि के लिए पट्टे (लीज) पर नहीं दे सकते। 

धारा में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि कोई भी अदालत उपरोक्त शर्तों में अनुमति नहीं देगी जब तक कि यह साबित नहीं हो जाता है कि नाबालिग की आवश्यकता या स्पष्ट लाभ का मामला है। संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 31, न्यायालय की अनुमति प्राप्त करने के लिए आवेदन पर और उसके संबंध में लागू होगी। केवल एक दीवानी अदालत या जिला अदालत या संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 4A के तहत अधिकार प्राप्त अदालत, जिसके अधिकार क्षेत्र (ज्यूरीस्डिक्शन) में संपत्ति स्थित है या संपत्ति का एक हिस्सा स्थित है, को आवेदन पर निर्णय लेने की शक्ति होगी। जहां नाबालिग के लाभ के लिए संरक्षक द्वारा संपत्ति का अधिग्रहण किया जा रहा है, वहां अदालत की अनुमति आवश्यक नहीं है।

3. हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 8(3) के अनुसार, शर्तों का उल्लंघन करने वाले किसी प्राकृतिक संरक्षक द्वारा अचल संपत्ति का कोई भी निपटान नाबालिग या उसके अधीन दावा करने वाले किसी अन्य व्यक्ति के कहने पर अमान्य है। जहां संरक्षक द्वारा संपत्ति नाबालिग के लाभ के लिए बेची जाती है, तब भी नाबालिग वयस्क होने के बाद ही लेन-देन को चुनौती दे सकता है यदि यह अदालत की पूर्व अनुमति के बिना किया गया था।

4. सीमाएं न केवल प्राकृतिक संरक्षकों पर बल्कि हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 11 के अनुसार वास्तविक संरक्षकों पर भी लागू होती हैं। कड़ाई से कहें तो, एक वास्तविक संरक्षक को कानून में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है, फिर भी यह एक व्यक्ति है जो अदालत द्वारा या एक वसीयतनामा के माध्यम से या स्वाभाविक रूप से नियुक्त नहीं किया गया है, लेकिन एक ऐसा व्यक्ति है जो संरक्षक की देखभाल प्यार और स्नेह से करता है।

5. हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षक अधिनियम, 1956 की धारा 12 ने नाबालिग के लिए एक संरक्षक की नियुक्ति पर रोक लगा दी है, जिसका हिंदू संपत्ति में अविभाजित हित है, जिसकी देखभाल परिवार के एक वयस्क सदस्य द्वारा की जा रही है। केवल उच्च न्यायालय यदि वह मामले के तथ्यों के आधार पर उचित समझे तो उसके लिए एक संरक्षक नियुक्त कर सकता है।

6. अधिनियम की धारा 13 अधिनियम में उल्लिखित हर दूसरे प्रावधान के एक सामान्य सिद्धांत के रूप में कार्य करती है और कहती है कि सभी निर्णय और सभी नियुक्तियां बच्चे के कल्याण को सुरक्षित करने के एकमात्र इरादे से की जानी चाहिए।  

निष्कर्ष

तैयार किए गए कानूनों और न्यायपालिका द्वारा निर्धारित विभिन्न मिसालों को पढ़ने के बाद, यह स्पष्ट रूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नाबालिगों के कल्याण को सुनिश्चित करना और नाबालिगों के विकास के लिए एक सुरक्षित और अच्छे वातावरण को सुलभ बनाना स्पष्ट रूप से सबसे बड़े दायित्व या संरक्षकों की जिम्मेदारी और न्यायपालिका के लिए सर्वोपरि मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में प्राप्त किया जा सकता है। 

संदर्भ

  • Gita Hariharan vs Reserve Bank of India, AIR 1999 SC 1149
  • Bakshi Ram vs Shila Devi, AIR 1960 Punj 304
  • Narayan Laxman Gilankar vs Uday Kumar Kashinath Kaushik, AIR 1994 Bom 152.
  • Than Singh vs Barelal, AIR 1974 MP24
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  • Bare Act, Universal’s Marriage and Divorce Laws.
  • Mulla, Hindu Law, 22nd Edition.
  • Modern Hindu Law, Paras Diwan and Peeyushi Diwan, 23rd Edition.

 

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