ज्यूडिशियरी की रचना

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Constitution of India
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इस ब्लॉग पोस्ट में, Priyamvada Singh, जो, गलगोटियास यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ लॉ से एलएलबी (एच) कर रही हैं, भारतीय कोर्ट्स, उनके पदानुक्रम (हाईरार्की) और भारत के ज्यूडिशियल प्रणाली (सिस्टम) के बारे में बात करती हैं। इस लेख में भारतीय ज्यूडिशियरी की स्थिति का व्यापक (कॉम्प्रिहेंसिव) विश्लेषण (एनालिसिस) किया गया है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक (कोलोनियल) शासन से आजादी मिलने के लगभग 3 साल बाद, 26 जनवरी, 1950 के ऐतिहासिक दिन पर, भारत के संविधान को देश में लागू किया गया था। दुनिया के सबसे बड़े संविधान को, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) पर महत्वाकांक्षी (एंबीशियस) रूप से लागू होते हुए पूरी दुनिया ने देखा था। इस राजनीतिक एक्सपेरिमेंट की सफलता पर दुनिया चकित (अमेज) रह गई थी। यह बल्कि संदिग्ध (क्वेश्चनेबल) था, क्योंकि 550 से अधिक रियासतें (प्रिंसली स्टेट्स) एक अभूतपूर्व (अनप्रेसेडेंट) सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक (इकोनॉमिक) क्रांति (रिवॉल्यूशन) के लिए एक साथ आईं थीं। जाति, लिंग और धार्मिक पूर्वाग्रहों (बायसिस) के आधार पर तोड़े जाने के इतिहास वाले देश में यह अभूतपूर्व था।

हालांकि, अपने सांसदों, नेताओं और एडमिनिस्ट्रेटर की अनूठी (यूनीक) क्षमता की इच्छा पर, एक्सपेरिमेंट अपने सभी कार्यों के साथ प्रयोग में आया। सुप्रीम कोर्ट और अन्य प्रकार के फोरम, जैसे- हाई कोर्ट्स और उसके सबोर्डिनेट कोर्ट्स, जैसे बड़ी आबादी वाले मुद्दों को संबोधित (एड्रेस) करने के लिए एक बुनियादी ढांचा (इन्फ्रास्ट्रक्चर) स्थापित (एस्टेब्लिश) किया गया था। इस बुनियादी ढांचे की स्थापना का उद्देश्य बड़े पैमाने पर कानून और व्यवस्था हासिल करना और बनाए रखना था। यह सम्मान की आज्ञा (कमांडिंग रिस्पेक्ट) देकर और सबकी हैसियत (स्टेटस) को समान रूप से देखकर, किया जाना था। इसने कई सामाजिक क्रांतियों को जन्म दिया, जिन्हें कभी असंभव समझा जाता था।

भारतीय एडमिनिस्ट्रेशन अपने तीन अभिन्न (इंटीग्रल) अंगों पर टिका हुआ है, जैसे:

  1. लेजिस्लेचर,
  2. एग्जीक्यूटिव, और
  3. ज्यूडिशियरी।

ये सभी, शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत (डॉक्ट्रिन ऑफ़ सेपरेशन ऑफ पॉवर) पर कार्य करते हैं। इसका मतलब है कि इनमें से प्रत्येक अंग, दूसरे से स्वतंत्र है, और अलग-अलग कार्य कर सकते है, और सरकार के इन अंगों में से किसी को भी एक- दूसरे के साथ हस्तक्षेप (इंटरफेयर) नहीं करना चाहिए।

भारत, हाल के दशकों में बहुत सारे लंबित (पेंडिंग) मामलों का अनुभव कर रहा है, जो एक बड़े पैमाने पर शेष मामलों की बड़ी समस्या है। आज, देश भर के विभिन्न कोर्ट्स में 3.5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट ऑन एक्सेस टू जस्टिस (2016) के अनुसार, इसने अंग के इष्टतम (ऑप्टिमल) कामकाज को प्रभावी ढंग से बाधित (हैंपर) किया है और समय पर न्याय देने पर प्रतिकूल (एडवर्स) प्रभाव डाला है। सरकार और कोर्ट्स के बीच समस्या के समाधान की अतुल्यकालिक धारणाओं (एसिंक्रोनस परसेप्शन) के कारण यह समस्या और बढ़ी है।

भारत की ज्यूडिशियल प्रणाली आज दुनिया की सबसे पुरानी कानूनी प्रणालियों में से एक है। यह भारत में अंग्रेजों के 200 साल पुराने औपनिवेशिक शासन के द्वारा आई थी। उनके जाने के बाद, भारतीय संविधान द्वारा एक विस्तार (एक्सपेंडेबल) योग्य ढांचा दिया गया और ज्यूडिशियल प्रणाली को वह शक्तियां प्रदान की गईं जो आज उसके पास हैं। भारत में ज्यूडिशियरी का एक पदानुक्रमित मॉडल है- विभिन्न प्रकार के कोर्ट्स, जिनमें से प्रत्येक के पास अलग-अलग शक्तियां होती हैं जो उन्हें दिए गए स्तर और ज्यूरिसडिक्शन के आधार पर होती हैं। भारत में कोर्ट्स का पदानुक्रम एक पिरामिड मॉडल को फॉलो करता है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट शीर्ष (एपेक्स) पर स्थित है, इसके बाद संबंधित राज्यों के हाई कोर्ट्स के साथ डिस्ट्रिक्ट कोर्ट्स में बैठे डिस्ट्रिक्ट जज है और सबसे नीचे अन्य कोर्ट्स हैं।

सुप्रीम कोर्ट

भारत के संविधान के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट अपील का अंतिम कोर्ट है। इसकी पहली बैठक जनवरी 1950 के 28वें दिन हुई थी। भारत के संविधान के अध्याय (चैप्टर) IV के भाग V में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना और कामकाज का प्रावधान (प्रोविजन) है। यह अलग-अलग राज्यों के लिए अलग हाई कोर्ट्स का प्रावधान करता है लेकिन, 7वें संविधान अमेंडमेंट एक्ट के अनुसार एक ही हाई कोर्ट एक से अधिक राज्यों के लिए भी कोर्ट हो सकता है। वर्तमान में, हमारे पास देश में 25 हाई कोर्ट्स हैं, जिनमें 3 सामान्य हाई कोर्ट्स शामिल हैं। यह एक अपीलेट कोर्ट और संविधान के सुरक्षित रक्षक के रूप में होना चाहिए। उसी का ज्यूरिसडिक्शन, आर्टिकल 124 से आर्टिकल 147 तक में प्रदान किया गया है। अपील के मामलों को स्वीकार करने के साथ, यह स्पेशल लीव पिटीशन और रिट पिटीशन भी लेता है। एस.एल.पी. तब ली जाती है जब कोर्ट को लगता है कि न्याय प्रदान करने में विफलता हुई है। मानवाधिकारों (ह्यूमन राइट्स) के उल्लंघन के मामलों में रिट पिटीशंस स्वीकार की जाती हैं।

गठन (कांस्टीट्यूशन)

संविधान के आर्टिकल 124 में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना और गठन का प्रावधान है।

  • यह दावा करता है कि ऊपर बताए गए, स्थापित कोर्ट में एक चीफ जस्टिस और 7 अन्य जज होंगे, जब तक कि बाद में अधिक संख्या निर्धारित (प्रेस्क्राइब) न हो।
  • इनमें से प्रत्येक जज को भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त (अपॉइंट) किया जाएगा, और जब तक वह 65 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक वह अपना पद बरकरार रखेंगे।
  • योग्यता (क्वालिफिकेशन) के लिए न्यूनतम (मिनिमम) आयु राष्ट्र के वर्तमान कानूनों के अनुसार तय की जाती है। इसका मतलब यह है कि जब भी जजेस की न्यूनतम आवश्यक आयु का प्रश्न तय किया जाएगा, तब देश की वर्तमान स्थिति और समय को ध्यान में रखना होगा।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि सुप्रीम कोर्ट अन्य अंगों से अप्रभावित रहे ताकि तीनों अंगों के बीच निरंतर (कॉन्स्टेंट) संघर्ष (टसल) के परिणामस्वरूप एक संतुलित (बैलेंस) लोकतंत्र बना रहे, सुप्रीम कोर्ट को एक स्वायत्त निकाय (ऑटोनॉमस) बनाया गया है। इसका मतलब यह है कि अपने कर्मचारियों की नियुक्ति के तरीके से लेकर उनके कार्यकाल (टेन्योर) तक, फोरम की अवमानना ​​​​(कंटेंप्ट) और उसके नतीजों तक, जजेस को उनकी सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट) के बाद किसी भी कोर्ट में पैरवी (प्लीड) करने से मना करने तक, सब कुछ तय किया जाता है, और यह स्वयं इस फोरम द्वारा किया जाता है। 

सुप्रीम कोर्ट की स्वायत्तता की आवश्यकता हाल ही में, एन.जे.ए.सी. बनाम कॉलेजियम के एक बड़े विवाद में समाप्त हुई थी। इस विवाद में, 99वें अमेंडमेंट एक्ट ने एन.जे.ए.सी. बिल पास किया, जिसने एग्जीक्यूटिव को सुप्रीम कोर्ट में जजेस की नियुक्ति में अपनी बात रखने की अनुमति दी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक (अनकंस्टीट्यूशनल) करार दिया था।

पॉवर्स

सुप्रीम कोर्ट को संविधान द्वारा कई विशिष्ट शक्तियां प्रदान की गई हैं। इनमें से कुछ नीचे बताई गई हैं, जैसे:

1. कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड:

यदि सुप्रीम कोर्ट में किसी मामले से संबंधित साक्ष्य (एविडेंस) प्रस्तुत किया गया है, और वह उसे स्वीकार करता है- तो इसके साक्ष्य मूल्य (एविडेंशियरी वैल्यू) के बारे में कोई और प्रश्न नहीं होगा। साक्ष्य मूल्य उन रिकॉर्ड्स का मूल्य है जो किसी संगठन (ऑर्गनाइजेशन) के कार्यों, नीतियों (पॉलिसीज) और/या संरचना के प्रामाणिक (ऑथेंटिक) और पर्याप्त साक्ष्य प्रदान करने के लिए आवश्यक हैं। साक्ष्य मूल्य दस्तावेज़ के निर्माण से संबंधित है और जरूरी नहीं कि यह इसकी सामग्री या इसके निर्माता की गतिविधियों, कार्यों और उत्पत्ति (ओरिजिन) के बारे में जानकारी के लिए है।

2. दंड देने की शक्ति (पॉवर टू पनिश):

यदि कोई व्यक्ति, समूह या संस्था कोर्ट की अवमानना ​​(सी.ओ.सी.) में लिप्त पाया जाता है, तो उसे सी.ओ.सी. एक्ट, 1971 के अनुसार, 6 महीने तक की कैद या 2,000 रुपए प्रति माह या दोनों से दंडित किया जा सकता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अवमानना ​​दो प्रकार की होती है, जैसे की:

  • सिविल अवमानना: जो कोर्ट द्वारा पास किसी भी निर्णय की जानबूझकर अवज्ञा (डिसोबिडिएंस) को संदर्भित करता है।
  • आपराधिक अवमानना: जो कोर्ट के अधिकार को कम करने, उसकी मर्यादा (डेकोरम) को नुकसान पहुंचाने, या उसकी कार्यवाही में हस्तक्षेप करने के कार्य को संदर्भित करता है।

3. कानून के संरक्षक (गार्डियन ऑफ़ लॉ):

सुप्रीम कोर्ट को यह जांचने और घोषित करने की शक्ति है कि लेजिस्लेटिव अंग द्वारा पास किए गए कानून या एग्जीक्यूटिव के कार्य संविधान के अनुसार हैं या नहीं। स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश बनाम राज नारायण,1975 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक भी घोषित कर दिया ​​कि भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को चुनावी कदाचार (इलेक्टोरल मालप्रैक्टिसेस) में लिप्त (एंगेज) होने के लिए दोषी थी और उन्हें आधे दशक (डिकेड) से अधिक समय तक के लिए पद पर बने रहने से मना किया था। इस फैसले के लिए जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हा की व्यापक (वाइड) रूप से सराहना (अप्लॉड) की गई थी और समान रूप से आलोचना (क्रिटिसाइज) भी की गई थी।

4. नियम निर्माता (रूल मेकर):

हालांकि यह न्यायविदों (ज्यूरिस्ट) के बीच बड़ी बहस का विषय है। ओबिटर डिक्टा और प्रिसिडेंट के सिद्धांत के आधार पर, एस.सी. को नियम बनाने के लिए एक अप्रत्यक्ष (इंडायरेक्ट), बल्कि नरम, शक्ति प्राप्त है। इसे ऐतिहासिक निर्णय पास करने की अनुमति है जो पहले से बने कानूनों के भी ऊपर हो सकते हैं। हालाँकि, यह असाधारण रूप से प्रयोग की जाने वाली शक्ति है ताकि यथास्थिति (स्टेटस क्वू) को असंतुलित न किया जा सके।

5. आर्टिकल 139A

हाई कोर्ट्स के समक्ष लंबित मामलों को वापस लेना और उनका स्वयं निपटान करना।

6. आर्टिकल 127

सुप्रीम कोर्ट में जजेस की कमी होने की स्थिति में आर्टिकल 127 तस्वीर में आता है। यह आर्टिकल बताता है कि मौजूदा चीफ जस्टिस तदर्थ आधार (एड हॉक बेसिस) पर एक जज की नियुक्ति कर सकते हैं, हालांकि, उन्हें वर्तमान राष्ट्रपति की सहमति के साथ हाई कोर्ट्स के चीफ जस्टिस की सहमति की, इस प्रश्न पर आवश्यकत होगी कि वह जज कहां से लाए गए हैं। एक और अनिवार्यता (एसेंशियल) यह है कि नियुक्त होने वाले तदर्थ जज को सुप्रीम कोर्ट का जज बनने के योग्य होना चाहिए।

6. आर्टिकल 126

उपर्युक्त प्रावधान के समान, आर्टिकल 126 के अनुसार- यदि भारत के चीफ जस्टिस (सी.जे.आई.) का ऑफिस खाली है, या वह अपने कर्तव्यों (ड्यूटी) का निर्वहन (डिस्चार्ज) करने में असमर्थ (अनेबल) है, तो राष्ट्रपति की सहमति से सुप्रीम कोर्ट के एक जज को पद धारण करने के लिए नियुक्त किया जा सकता है।

7. आर्टिकल 128

आर्टिकल 128 के अनुसार सी.जे.आई. किसी भी समय राष्ट्रपति और नियुक्त होने वाले व्यक्ति की पूर्व सहमति से किसी भी व्यक्ति को नियुक्त कर सकते है, जो पहले सुप्रीम कोर्ट के जज का पद धारण कर चुके हो।

8. आर्टिकल 137 

आर्टिकल 137, सुप्रीम कोर्ट को निर्णय पास करने में जज द्वारा की गई विसंगतियों (डिस्क्रेपेंसी) या त्रुटियों (एरर) को दूर करने के लिए, उसके द्वारा पास किसी भी आदेश की जांच करने की शक्ति प्रदान करता है। यह कोर्ट की अखंडता (इंटीग्रिटी) को बनाए रखने के लिए और ज्यूडिशियरी की ओर से निरंकुशता (एब्सोल्यूटिज्म) को दूर करने के लिए किया जाता है, जिससे जांच और संतुलन संभव हो सके।

9. अन्य शक्तियां

सुप्रीम कोर्ट, यूनियन पब्लिक सर्विस कमिशन के कामकाज को भी देख सकता है, और यदि आवश्यक हो, तो देश के राष्ट्रपति को अपने सदस्यों को हटाने की सिफारिश कर सकता है क्योंकि ऐसा करने की शक्ति केवल राष्ट्रपति के पास ही है।

सुप्रीम कोर्ट का ज्यूरिसडिक्शन

ज्यूरिसडिक्शन को कोर्ट में लाए गए तात्कालिक (इंस्टेंट) मामलों में निर्णय या आदेश पास करने की शक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक कोर्ट को अपने फोरम में मामलों को लेने और बनाए रखने की कुछ आधिकारिक क्षमता का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट को दी गई ज्यूरिसडिक्शन तीन अलग-अलग प्रकार के हैं, अर्थात्:

  1. ओरिजनल ज्यूरिसडिक्शन
  2. अपीलेट ज्यूरिसडिक्शन
  3. एडवाइजरी ज्यूरिसडिक्शन

उन्हें निम्नानुसार परिभाषित किया गया है:

1. ओरिजनल ज्यूरिसडिक्शन:

आर्टिकल 131 सुप्रीम कोर्ट को ओरिजनल ज्यूरिसडिक्शन प्रदान करता है। इसका अर्थ यह है कि भारत सरकार और उसके राज्यों के बीच या दो या दो से अधिक राज्यों के बीच लड़े जा रहे मामलों को सुप्रीम कोर्ट के अलावा कोई अन्य कोर्ट संबोधित (एड्रेस) नहीं कर सकता है। 

2. अपीलेट ज्यूरिसडिक्शन

आर्टिकल 132 सुप्रीम कोर्ट को अपीलेट ज्यूरिसडिक्शन प्रदान करता है। इसका मतलब यह है कि सुप्रीम कोर्ट मामले की योग्यता के आधार पर किसी भी हाई कोर्ट द्वारा सिविल या आपराधिक कार्यवाही में पास किए गए किसी भी आदेश या निर्णय को बदल सकता है, या बनाए रख सकता है। दूसरे शब्दों में, भारत के क्षेत्र के भीतर किसी हाई कोर्ट द्वारा पास किसी भी निर्णय के संबंध में सुप्रीम कोर्ट में अपील की जा सकती है। हालाँकि, यह एक विवेकाधीन (डिस्क्रेशनरी) शक्ति है।

आर्टिकल 136, स्पेशल लीव पिटीशन (एस.एल.पी.) के प्रावधान प्रदान करता है, जिसमें यदि सुप्रीम कोर्ट, सशस्त्र (आर्म्ड) बलों से संबंधित कानूनों सहित भारत के किसी भी कोर्ट या ट्रिब्यूनल के द्वारा न्याय प्रदान करने में विफलता की संभावना को देखता है, तो उसे आदेश या निर्णय को बदलने या बनाए रखने की शक्ति है। यह भी एक विवेकाधीन शक्ति है और अपीलकर्ता का अधिकार नहीं है।

आर्टिकल 137 में यह प्रावधान है कि, सुप्रीम कोर्ट के पास लेजिस्लेचर द्वारा बनाए गए किसी भी कानून और नियमों की समीक्षा (रिव्यू) करने की शक्ति है, जो सुप्रीम कोर्ट के कामकाज के बारे में होते है, आर्टिकल 145 के तहत गठित (फॉर्म्ड) एपेक्स कोर्ट के अपील, जमानत और प्रक्रियात्मक (प्रोसीजरल) कानून आदि सहित।

आर्टिकल 141 में सुप्रीम कोर्ट को अपील का अंतिम फोरम बनाने का प्रावधान है, जिसके निर्णय राष्ट्र के क्षेत्र में अन्य सभी कोर्ट्स पर बाध्यकारी होंगे।

जजेस की नियुक्ति (अपॉइंटमेंट ऑफ़ जजेस)

किसी व्यक्ति को सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में नियुक्त करने के लिए, उसे अनिवार्य रूप से:

  1. भारत का एक नागरिक होना चाहिए, और,
  2. हाई कोर्ट में एक जज, या लगातार 2 हाई कोर्ट्स में, न्यूनतम 5 साल के कार्यकाल के लिए, या
  3. एक हाई कोर्ट में एक वकील, या लगातार 2 कोर्ट्स में, कम से कम 10 साल की अवधि के लिए, या
  4. राष्ट्रपति को उन्हें एक प्रख्यात न्यायविद (एमिनेंट ज्यूरिस्ट) मानना ​​चाहिए।

जजेस की शपथ का प्रावधान संविधान के आर्टिकल 124(6) में दिया गया है, अर्थात: इसके लिए निर्धारित (सेट आउट) फॉर्म का उल्लेख संविधान के तीसरे शेड्यूल में किया गया है। इसके अतिरिक्त, भारत के चीफ जस्टिस द्वारा जजेस को शपथ दिलाई जाती है, और सी.जे.आई. को, राष्ट्रपति शपथ दिलाते हैं।

आर्टिकल 124(7) इन जजेस पर प्रतिबंध (रिस्ट्रिक्शन) लगाता है। इसमें कहा गया है कि एक बार जब कोई व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में पद धारण कर लेता है, तो उसे फोरम के अधिकार की परवाह किए बिना भारत में किसी भी कोर्ट में प्लीड करने से मना किया जाता है। यह कोर्ट की मर्यादा और स्थिति को बनाए रखने के साथ-साथ शक्ति के संचय (एक्युमुलेशन) को रोकने के लिए किया जाता है।

किसी भी जज की नियुक्ति से पहले भारत के राष्ट्रपति द्वारा चीफ जस्टिस से परामर्श (कंसल्टेशन) किया जाना चाहिए, लेकिन उसके अपने सी.जे आई. के पद सिवा। 

इसके अलावा, यदि इनमें से कोई भी जज इस्तीफा देता है, तो वे आर्टिकल 124(4) के अनुसार देश के तत्कालीन राष्ट्रपति को संबोधित करेंगे। इंपीचमेंट का प्रावधान, जिसका अर्थ है अक्षमता (इनकैपेसिट) या दुर्व्यवहार (मिसबिहेवियर) के कारण जज को हटाना, आर्टिकल 124(4)(5) में प्रदान किया गया है। इसमें कहा गया है कि इस तरह का कदम केवल तभी अमल (मैटेरियलाइज) में आ सकता है जब इसे संसद के कम से कम दो-तिहाई (2/3) बहुमत से समर्थन (सपोर्ट) मिलता है। संसद, विसंगतियों और आरोपों को भी देखेगी। भारत में अब तक सुप्रीम कोर्ट के जज को इंपीच करने का एक भी मामला नहीं हुआ हैं, हालांकि, ऐसे असंख्य मामले हुए हैं जिनमें जजेस को इस तरह के आरोपों का सामना करना पड़ा है। जस्टिस वी. रामास्वामी स्वतंत्र भारत में इंपीचमेंट के आरोपों का सामना करने वाले पहले जज थे, हालांकि यह कभी अमल में नहीं आया।

कुछ मामलों का स्थानांतरण (ट्रांसफर ऑफ सर्टेन केसेस)

कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर, 1860 की धारा 406 में कहा गया है कि यदि सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि न्याय करने के लिए मामले को स्थानांतरित (ट्रांसफर) करना आवश्यक है, तो अटॉर्नी-जनरल, या इसमें शामिल पक्ष के आवेदन (एप्लीकेशन) पर मामला एक राज्य से दूसरे राज्य के हाई कोर्ट में स्थानांतरित किया जा सकता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह तभी किया जाएगा जब कोर्ट को लगता है कि न्याय प्रदान करने में विफल होने की संभावना है। यह शक्ति न्याय, समानता और अच्छे विवेक (कंसायंस) की भावना से सक्षम है।

बशर्ते (प्रोवाइडेड दैट) कि सुप्रीम कोर्ट, कानून के उपर दिए गए प्रश्नों का निर्धारण करने के बाद, इस तरह से लिए गए मामले को, ऐसे प्रश्नों पर अपने निर्णय की एक कॉपी के साथ हाई कोर्ट को वापस कर सकता है, जहां से मामला लिया गया था, और हाई कोर्ट उसे प्राप्त होने पर, ऐसे निर्णय के अनुरूप (कन्फर्मिटी) मामले को निपटाने के लिए आगे बढ़ता है।

सुप्रीम कोर्ट से परामर्श करने की राष्ट्रपति की शक्तियाँ (पॉवर ऑफ प्रेसिडेंट टू कंसल्ट द सुप्रीम कोर्ट)

  • एडवाइजरी ज्यूरिसडिक्शन

आर्टिकल 143 सुप्रीम कोर्ट को एडवाइजरी ज्यूरिसडिक्शन प्रदान करता है। यह दावा करता है कि यदि राष्ट्रपति के हाथों कानूनों की व्याख्या (इंटरप्रिटेशन) की आवश्यकता उत्पन्न होती है, खासकर यदि व्याख्या की आवश्यकता सार्वजनिक मूल्य (पब्लिक वैल्यू) की साबित होती है, तो राष्ट्रपति अपनी राय के लिए सुप्रीम कोर्ट से परामर्श करेंगे।

हाई कोर्ट

भारत के संविधान के आर्टिकल 214 के तहत, प्रत्येक राज्य में अनिवार्य रूप से एक हाई कोर्ट होना चाहिए। यह किसी भी मामले के संबंध में राज्य में अपील का अंतिम कोर्ट है, और इसके बाद केवल एक ही अपील शेष होती है जो सुप्रीम कोर्ट के हाथों में होती है। भारत में कुल 25 हाई कोर्ट हैं, और उनकी सीटों को उनके संबंधित राज्यों की राजधानी (कैपिटल) में रखा गया है। हालाँकि, संविधान आर्टिकल 231 में 2 या 2 से अधिक राज्यों के बीच सामान्य हाई कोर्ट का भी प्रावधान करता है। इनमें से कुछ हाई कोर्ट्स बॉम्बे एच.सी., कलकत्ता एच.सी., गौहाटी एच.सी. और जम्मू-कश्मीर एच.सी हैं। इन कोर्ट्स का राज्यों या यूनियन टेरिटरीज के समूह पर ज्यूरिसडिक्शन होता है।

भारत में पहला हाई कोर्ट 1862 में कलकत्ता में स्थापित किया गया था। नवीनतम (न्यूवेस्ट) हाई कोर्ट 2019 में आंध्र प्रदेश में स्थापित किया गया था।

हाई कोर्ट्स का ज्यूरिसडिक्शन

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, ज्यूरिसडिक्शन को उस शक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जो कोर्ट को तत्काल मामलों में निर्णय या आदेश पास करने के लिए दी गई है। भारत के प्रत्येक हाई कोर्ट को कई ज्यूरिसडिक्शन प्रदान की गई है, जिनमें से कुछ का उल्लेख नीचे किया गया है।

  • ओरिजनल ज्यूरिसडिक्शन

  1. सिविल ज्यूरिसडिक्शन: हाई कोर्ट्स के पास ऐसे मामलों की सुनवाई का ज्यूरिसडिक्शन है जो सिविल प्रकृति के हैं और जिनकी किमत रु. 2,00,000 होती है.
  2. आपराधिक ज्यूरिसडिक्शन: हाई कोर्ट्स, राज्य के सभी आपराधिक अपराधों की सुनवाई कर सकते हैं, जिनमें मौत की सजा भी शामिल है।
  3. रिट ज्यूरिसडिक्शन: हाई कोर्ट्स के पास रिट जारी करने की शक्ति है, अगर उसे लगता है कि न्याय प्रदान करने में विफलता हुई है।
  4. चुनाव ज्यूरिसडिक्शन: हाई कोर्ट्स संबंधित राज्य/राज्यों में हुए चुनाव/चुनावों से संबंधित मामलों को स्वीकार कर सकते हैं।
  • अपीलेट ज्यूरिसडिक्शन 

  1. सिविल मामले: हाई कोर्ट्स, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपीलेट ज्यूरिसडिक्शन रखता है।
  2. आपराधिक मामले: हाई कोर्ट्स, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट्स, सेशन कोर्ट्स (यदि निर्णय, अपीलकर्ता को 7 वर्ष या उससे अधिक की कैद अवधि प्रदान करता है), और यहां तक ​​कि एडिशनल सेशंस कोर्ट (यदि मृत्युदंड दिया गया है) द्वारा पास किए निर्णय, आदेश और डिक्री पर अपीलेट ज्यूरिसडिक्शन रखता है।
  3. संवैधानिक ज्यूरिसडिक्शन: संविधान की व्याख्या (इंटरप्रिटेशन) से उत्पन्न होने वाले किसी भी प्रश्न के मामले में, हाई कोर्ट्स का अंतिम अधिकार होगा, जिसकी अपील सुप्रीम कोर्ट के पास की जाएगी।

गठन (फॉर्मेशन)

भारत में हाई कोर्ट्स में जजेस की कोई निश्चित संख्या नहीं है। यह उस राज्य पर निर्भर करता है जिसमें हाई कोर्ट्स स्थापित है। हालांकि, चीफ जस्टिस की उपस्थिति अनिवार्य रूप से होनी चाहिए, जिसे राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।

पॉवर्स

उपरोक्त के अलावा, हाई कोर्ट्स के पास अन्य शक्तियां हैं जिनका वर्णन नीचे किया गया है।

1. कोर्ट ऑफ़ रिकॉर्ड के रूप में

सुप्रीम कोर्ट की तरह, हाई कोर्ट भी कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड है। इसका मतलब यह है कि सबोर्डिनेट कोर्ट्स, हाई कोर्ट्स के जज द्वारा किसी मामले में समान रूप से साक्ष्य (एविडेंस) की वैधता पर सवाल नहीं उठा सकते हैं।

2. सबोर्डिनेट कोर्ट्स के संरक्षक के रूप में

हाई कोर्ट अपने सबोर्डिनेट कोर्ट्स के रिकॉर्ड्स, निर्णयों, आदेशों, डिक्रीज आदि के संबंध में सबोर्डिनेट कोर्ट्स के कई पहलुओं को नियंत्रित करता है।

3. लेजिस्लेचर के संरक्षक के रूप में

यदि किसी कानून को संविधान के विरुद्ध पाया जाता है, तो हाई कोर्ट्स कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकते है।

जजेस की नियुक्ति (अपॉइंटमेंट ऑफ़ जजेस)

संविधान के आर्टिकल 217 में भारत के राष्ट्रपति के द्वारा हाई कोर्ट्स के जज की नियुक्ति की प्रक्रिया का प्रावधान है। वह हाई कोर्ट में किसी भी जज की नियुक्ति के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार है। इसके लिए उन्हें भारत के चीफ जस्टिस के साथ-साथ संबंधित राज्य के गवर्नर और चीफ जस्टिस से परामर्श करने की आवश्यकता हो भी सकती है और नहीं भी। 

सुप्रीम कोर्ट की तुलना में जहां जजेस 65 वर्ष तक की आयु तक पद धारण कर सकते हैं, हाई कोर्ट्स के जज 62 वर्ष की आयु पूरी होने तक पद धारण करते हैं। उनके वेतन और भत्ते (एलाउंस) समय-समय पर संसद द्वारा बनाए गए कानून द्वारा तय किए जाते हैं। जहां इन जजेस का वेतन राज्य के फंड्स से लिया जाता है, वहीं उन्हें पेंशन, केंद्र के फंड्स से प्रदान की जाती है।

वेतन: हाई कोर्ट्स के चीफ जस्टिस और अन्य जजेस का वेतन 2 लाख 50 हजार रुपए है। हालांकि, इस राशि को बढ़ाने उद्देश्य के लिए एक बिल राज्यसभा में लंबित (पेंडिंग) है।

निष्कासन (रिमूवल): हाई कोर्ट्स के किसी जज का दुर्व्यवहार या अक्षमता साबित होने पर उन्हें पद से हटाया जा सकता है। इस दौरान पालन ​​की जाने वाली प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के जज के इंपीचमेंट के समान है।

स्थानांतरण: हाई कोर्ट्स के जज का स्थानांतरण होने की स्थिति में, यह भारत के राष्ट्रपति के द्वारा किया जाना चाहिए, भारत के सी.जे.आई. और जिस राज्य के हाई कोर्ट से और हाई कोर्ट में वह उन जज का स्थानांतरण कर रहे है, उनके सी.जे. से परामर्श से स्थानांतरण को अमल किया जाना चाहिए। 

जजेस की ट्रेनिंग

राष्ट्रीय ज्यूडिशियल अकादमी

जजेस को विभिन्न विषयों में ट्रेनिंग देने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय ज्यूडिशियल अकादमी को सौंपी गई है। यह स्वतंत्र रजिस्टर्ड सोसायटी, भोपाल, मध्य प्रदेश में स्थापित की गई है। उपरोक्त हाई कोर्ट्स के जजेस और उन ज्यूडिशियल ऑफिसर्स (जे.ओ.) के लिए स्थापित एक ट्रेनिंग का संस्थान (इंस्टीट्यूट) है, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट और एच.सी. में प्रतिनियुक्त (डिप्यूटेड) किया गया है। हालाँकि, यह इसका एकमात्र कार्य नहीं है। अकादमी, जिलों में तैनात किए गए जे.ओ. को ट्रेनिंग भी प्रदान करती है। 1993 में प्रसिद्ध वकील और सिविल सेवक, एन.आर. मेनन के अनुसार, यह संस्थान ज्यूडिशियरी की दक्षता (एफिशिएंसी) और कार्य को बढ़ाने की दिशा में काम करता है। वर्तमान में, अकादमी के डायरेक्टर माननीय जस्टिस के.एन. सैकिया हैं। राष्ट्रीय ज्यूडिशियल अकादमी के चैयरमैन भारत के चीफ जस्टिस होते हैं।

कुछ मामलों का स्थानांतरण (ट्रांसफर ऑफ सर्टेन केसेस)

संविधान का आर्टिकल 228, हाई कोर्ट्स को, सबोर्डिनेट कोर्ट्स से मामलों को अपने पास स्थानांतरित करने का अधिकार देता है। ज्यूडिशियरी के एक पदानुक्रम के पिरामिड के रूप का प्रयोग करते हुए, हाई कोर्ट्स को सबोर्डिनेट कोर्ट्स (अर्थात, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट आदि) से किसी भी मामले को अपने पास लाने की शक्ति प्राप्त है, जिन मामलो में उसे लगता है कि संविधान की व्याख्या के मुद्दे को शामिल करता है।

यह शक्ति, एच.सी. के संविधान के व्याख्याकार (इंटरप्रेटर) होने के कार्य से उत्पन्न होती है जहां कानून के रूप में एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है। इस आर्टिकल के अनुसार, यदि आवश्यकता हो तो कोर्ट स्थानांतरण के बाद मामले का निपटारा कर सकता है, या, वैकल्पिक (ऑल्टरनेटिव) रूप से, इसमें शामिल मुद्दे का उत्तर तय कर सकता है, इसे अपने फैसले के रूप में लिख सकता है और मामले को संबंधित कोर्ट के पास वापस कर सकता है। उसके बाद, सबोर्डिनेट कोर्ट निर्णय को एकमात्र उद्देश्य के रूप में लेगा, और मामले का निपटान स्वयं करेगा।

निष्कर्ष (कंक्लूजन)

अपने पहले चरण में बाईगैमी पर प्रतिबंध लगाने से लेकर हाल ही में इंडियन लॉयर्स यंग एसोसिएशन और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ केरल और अन्य (सबरीमाला केस) (2018), के मामले में मासिक धर्म (मेंस्ट्रूएशन) संबंधी भेदभाव की प्रथा को समाप्त करने तक, जिसमें केरल के सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, 2018 में हाल ही में नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में होमोसेक्सुअलिटी को अपराध से मुक्त किया, जिसे इंडियन पीनल कोड की धारा 377 के तहत प्रदान किया गया है। 

इनके अलावा, भारतीय ज्यूडिशियरी ने भी ऐसे सुधार किए हैं जो भारतीय ज्यूडिशियल प्रणाली में पारदर्शिता (ट्रांसपेरेंसी) लाने की मांग करते हैं। इसमें, कोर्ट्स की लाइव स्ट्रीमिंग और सी.जे.आई. को सूचना के अधिकार (राइट टू इंफॉर्मेशन) के तहत लाने जैसे प्रयास शामिल हैं। देश के प्रधानमंत्री की प्रशंसा करते हुए सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ (सीनियर मोस्ट) जजेस में से एक, जस्टिस अरुण मिश्रा के हाल ही के बयान के साथ, दुनिया ने ज्यूडिशियरी की स्वतंत्रता को एक संदिग्ध प्रकाश में लाए जाने के रूप में देखा। यह सत्ता के पृथक्करण के सिद्धांत के मूल तत्व के खिलाफ है, जो यह बताता है कि सरकार के सभी तीन अंग स्वतंत्र रूप से काम करते हैं।

निश्चित रूप से, भारतीय ज्यूडिशियरी के लिए अधिक प्रयास करने और पारदर्शिता और जवाबदेही (अकाउंटेबिलिटी) के बीच संतुलन बनाने का समय आ गया है। ज्यूडिशियरी की स्वतंत्रता को बनाए रखना अनिवार्य है। इसे संबोधित करने की समय सीमा बहुत पहले ही बीत चुकी है, प्रणाली बिलकुल ही खराब होने से पहले इन गहरी खामियों को दूर करने की जरूरत है। भारत जितना बड़ा देश निश्चित रूप से इसे वहन (अफॉर्ड) नहीं कर सकता।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

  • THE CONSTITUTION (SEVENTH AMENDMENT) ACT, 1956 …legislative.gov.in›  constitution-seventh-amendment-act  

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