हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल (1990): मामला विश्लेषण

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यह लेख Suryanshi Bothra द्वारा लिखा गया था। यह लेख मामले की पृष्ठभूमि, उसके फैसले और उसके स्थायी प्रभावों पर प्रकाश डालता है। यह लेख उच्च न्यायालय द्वारा एक एफआईआर को रद्द करने के संबंध में मामले में उल्लिखित आवश्यक बातों पर भी कुछ प्रकाश डालेगा। इस लेख का अनुवाद Himanshi Deswal द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

हरियाणा राज्य एवं अन्य बनाम भजन लाल एवं अन्य (1990) का मामला 1990 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया एक ऐतिहासिक निर्णय है। यह मामला भारत के कानूनी इतिहास में अपने लिए जगह बनाने में कामयाब रहा है। यह मामला आरोपों के आधार पर भ्रष्टाचार से संबंधित जांच के मामलों में हस्तक्षेप करने की अदालत की शक्ति से संबंधित है। यह विशेष रूप से व्यक्तिगत लाभ के लिए कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग के मामलों से संबंधित है। इस फैसले ने संविधान के अनुच्छेद 226 के आवेदन के संबंध में सात महत्वपूर्ण दिशानिर्देश प्रदान किए। यह विशेष रूप से प्रथम सूचना रिपोर्ट और आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने से संबंधित मामलों से संबंधित है। इस लेख में, हम इस मामले, यानी हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल (1990) के विस्तृत विश्लेषण पर गौर करेंगे। यह निर्णय एक संरचित रूपरेखा प्रदान करने में कामयाब रहा, जिसे भजन लाल परीक्षण के रूप में भी जाना जाता है। इस परीक्षण को बाद के मामलों में बहुत व्यापक रूप से उद्धृत किया गया है। इस परीक्षण में दो-चरणीय पूछताछ शामिल है। इसमें व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) और वस्तुनिष्ठ (ऑब्जेक्टिव) मानदंड शामिल हैं। मामला उन टिप्पणियों और मानदंडों के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है जो आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए आवेदनों पर विचार करते समय आवश्यक हैं। हम तथ्यों, कानूनी मुद्दों और दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत तर्कों को उजागर करेंगे।

हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल का विवरण

मामले  का नाम

हरियाणा राज्य एवं अन्य बनाम चौधरी भजन लाल एवं अन्य

मामला संख्या

1990 की सिविल अपील संख्या 5412

फैसले की तारीख

21 नवंबर 1990

मामले के पक्ष

याचिकाकर्ता

हरियाणा राज्य एवं अन्य

प्रतिवादी

चौधरी भजन लाल एवं अन्य

प्रस्तुत किया गया

याचिकाकर्ता

अधिवक्ता अर्थात्, एन.एस. हेज, अतिरिक्त महाधिवक्ता (सॉलिसिटर जनरल), अरुण जेटली, अतिरिक्त महाधिवक्ता, आर.बी. दातार, हेमंत शर्मा, और बी.के. प्रसाद.

प्रतिवादी

अधिवक्ता अर्थात्, के. परासरन, पी. चिदम्बरम, आर.के. गर्ग, आयशा करीम, और इंदु मल्होत्रा।

समतुल्य उद्धरण

एआईआर 1992 एससी 604, आई (2006) सीसीआर 209 (एससी), 1992 सीआरआईलजे 527, 1990/आईएनएससी/363, जेटी 1990 (4) एससी 650, 1990 (2) स्केल 1066, 1992 सप्लिमेंट (1) एससीसी 335, [1990 ] सप्लिमेंट 3 एससीआर।

मामले का प्रकार

सिविल अपील

अदालत

भारत का सर्वोच्च न्यायालय

शामिल अधिनियम

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947

शामिल प्रावधान और क़ानून

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 और 227, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 154, 155, 156, 157, 159 और 482, और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 5

पीठ

न्यायाधीश एस.आर. पांडियन और के. जयचंद्र रेड्डी।

फैसले के लेखक

न्यायमूर्ति एस.आर. पांडियन.

हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल की पृष्ठभूमि

धर्मपाल ने तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल के समक्ष चौधरी भजनलाल के खिलाफ शिकायत की। जब कार्यवाही शुरू की गई थी तब चौधरी भजन लाल तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्री थे। वह पहले एक मंत्री के रूप में कार्य कर चुके थे और 1982 से 1987 के बीच हरियाणा के मुख्यमंत्री थे। चौधरी देवी लाल और चौधरी भजन लाल के बीच बड़े पैमाने पर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता थी। इस प्रतिद्वंद्विता के कारण, दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ कई आपराधिक मामले और प्रतिवाद दायर किए। इससे उनके बीच काफी मनमुटाव हो गया। जसमा देवी, जो चौधरी भजन लाल की पत्नी थीं, ने आदमपुर से चुनाव लड़ा था। उन्होंने श्री धर्मपाल के विरुद्ध चुनाव जीता।

12 नवंबर 1987 को धर्मपाल ने भजन लाल पर करोड़ों रुपये की भारी संपत्ति जमा करने का आरोप लगाया। इन आरोपों में एक भव्य घर के निर्माण, पेट्रोल पंप, दुकानों और जमीन की खरीद के विवरण शामिल थे। इन आरोपों के मुताबिक, उनके पास कारें, आभूषण और सिरसा और आदमपुर के सिनेमाघरों में शेयर भी थे। ये संपत्तियां उनके परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों और उनके करीबी लोगों के नाम पर थीं। संपत्तियों की कीमत उनकी आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक लग रही थी। उन्होंने 20 अलग-अलग आरोपों का हवाला दिया। आरोप यह था कि वह अपनी शक्ति, पद और प्रभाव का दुरुपयोग कर रहे थे। वह संपत्तियों के बाजार मूल्य को कम आंक रहा था और सभी लेनदेन प्रकृति में ‘बेनामी’ थे।

शिकायत का चौधरी देवी लाल और पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) ने समर्थन किया था। डीजीपी ने हिसार के पुलिस अधीक्षक को चौधरी भजन लाल के खिलाफ आरोपों की जांच करने का निर्देश दिया। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 161 और 165 और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 5 (2) के तहत मामला दर्ज किया गया था। तीसरे अपीलकर्ता, जो थानाप्रभारी थे, ने मामला दर्ज किया और निर्दिष्ट स्थान पर कांस्टेबलों के साथ एक इंस्पेक्टर को तैनात किया। थानाप्रभारी ने जांच का नेतृत्व किया और एफआईआर की एक प्रति मजिस्ट्रेट और अन्य नामित कार्यालयों को भेज दी।

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में कार्यवाही

न्यायालय की टिप्पणियाँ

हरियाणा राज्य की ओर से इंस्पेक्टर करतार सिंह द्वारा तीन अलग-अलग बयान दर्ज किए गए, दूसरा चौधरी देवी लाल द्वारा, और तीसरा एस.पी. लेखी और इंस्पेक्टर तारा चंद द्वारा दर्ज किया गया। उच्च न्यायालय ने दलीलों और बयानों की जांच की। इसके बाद इसने निम्नलिखित टिप्पणियाँ प्रस्तुत कीं:

  1. आरोप काल्पनिक लग रहे थे।
  2. धर्मपाल का एकमात्र उद्देश्य आपराधिक कार्यवाही शुरू करना था। उन्होंने अपने आरोपों की पुष्टि नहीं की और सबूत खोजने के लिए पूरी तरह से पुलिस जांच पर निर्भर थे।
  3. इसलिए, आरोप निराशाजनक जगह से आते हैं।
  4. आरोप अंधाधुंध थे और आगे भी गैर-जिम्मेदाराना तरीके से लगाए गए थे।
  5. आरोप देवीलाल को राजनीतिक रूप से फायदा पहुंचाने और याचिकाकर्ता की पत्नी से अपनी हार का बदला लेने के लिए लगाए गए थे।
  6. एस.पी. लेखी राम और तारा चंद द्वारा लगभग 8 महीने बाद व्यक्तिगत बयान दर्ज किए गए। अदालत ने माना कि दुर्भावना के लिए केवल उन्हें जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, देवीलाल को नहीं।

लेखी राम व तारा चंद द्वारा दिमाग का प्रयोग न करने के आरोप लगाए गए। अदालत ने कहा कि हलफनामा इसलिए दिया गया क्योंकि एस.पी. को दबाव महसूस हुआ और इसलिए, उन्होंने दिमाग के किसी वास्तविक प्रयोग का संकेत नहीं दिया।

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय  का फैसला

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय और पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य बनाम स्वपन कुमार गुहा और अन्य (1982) के विभिन्न निर्णयों का उल्लेख किया और निर्णय लिया कि धरम पाल द्वारा प्रस्तुत आरोप संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराध नहीं हैं। अदालत ने याचिकाकर्ता के अनुरोध को स्वीकार कर लिया, और धरम पाल पर रिट याचिका की लागत का आरोप लगाया गया। छबील दास, जो रिट याचिका में पक्ष नहीं थे, ने एक हलफनामा दायर कर दावा किया कि उनके पास भजन लाल के खिलाफ विभिन्न आरोपों के लिए सबूत देने के लिए पर्याप्त सामग्री है। चूंकि वह उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत आवेदन में पक्ष नहीं थे, इसलिए उनका आवेदन खारिज कर दिया गया।

मुद्दा

  1. सीआरपीसी की धारा 154(1) के तहत मामले का पंजीकरण स्वयं संहिता के अध्याय XII के तहत जांच की आवश्यकता है या नहीं?
  2. क्या भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1978 की धारा 3 के साथ पढ़ी गई धारा 4 के तहत अपराध प्रथम दृष्टया एफआईआर में दिखाई दे रहा था, जबकि “धन संचलन योजना” अभिव्यक्ति को परिभाषित करने वाली धारा 2 (c) की आवश्यकता पर भी विचार किया जा रहा था?
  3. आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 157 के तहत, पुलिस अधिकारियों के पास जांच के क्षेत्र में अप्रतिबंधित शक्ति है या नहीं। क्या अदालतें जांच के चरण में पुलिस को दी गई शक्ति पर न्यायिक समीक्षा करती हैं या क्या पुलिस को पूरी तरह से छूट दी गई है?
  4. क्या उच्च न्यायालय द्वारा एफआईआर और कार्यवाही को रद्द करना उचित था या नहीं? साथ ही, क्या जांच की कार्यवाही कानूनी रूप से टिकाऊ थी? यदि नहीं, तो किस हद तक?
  5. क्या एस.पी. का कोई वैध आदेश है या नहीं जो थाना प्रभारी को धारा 5(1)(e) के तहत आने वाले अपराध की जांच करने के लिए अधिकृत करता है।
  6. भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय की शक्ति का प्रयोग करते हुए किस श्रेणी के मामलों में एफआईआर या आपराधिक कार्यवाही को रद्द किया जा सकता है? और किन परिस्थितियों में उच्च न्यायालय सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग कर सकता है?

हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल मामले में पक्षों के तर्क 

अपीलकर्ता

श्री राजिंदर सच्चर और हरियाणा राज्य के महाधिवक्ता अपीलकर्ता की ओर से पेश हुए। उनकी सहायता श्री महावीर सिंह ने की। जबकि श्री आर.के. गर्ग ने धर्मपाल, श्री आर.के. का प्रतिनिधित्व किया। गर्ग ने दलील दी कि शिकायत में लगाए गए आरोप संज्ञेय अपराध हैं। उन्होंने दलील दी कि आरोपों के चलते मामला दर्ज करना जरूरी है। उन्होंने हवाला दिया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154(1) के तहत पंजीकरण पर विचार किया गया था। इसके अलावा, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि संहिता के अध्याय XII की धारा 156, 157, 159 आदि के अनुसार गहन जांच होनी चाहिए। उन्होंने दावा किया कि उच्च न्यायालय के पास एफआईआर और कार्यवाही को रद्द करने का कोई औचित्य नहीं था। उन्होंने पुलिस जांच में हस्तक्षेप करने के लिए अदालत को भी दोषी ठहराया।

श्री राजिंदर सच्चर और श्री आर.के. गर्ग ने तर्क दिया कि उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए अतिक्रमण किया। पुलिस अधिकारियों की जांच शक्तियों में हस्तक्षेप ने पंजीकरण से लेकर पूरी कार्यवाही को रद्द कर दिया, खासकर जब शिकायत में लगाए गए आरोप भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध का गठन करते हैं। इसलिए, यह हस्तक्षेप अनुचित है और न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।

विद्वान वकीलों ने कहा कि उच्च न्यायालय पीठ की टिप्पणियों का समर्थन नहीं किया जाना चाहिए। उनके अनुसार, ऐसी टिप्पणियों को स्वीकार करने से लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। यह देश के कल्याण पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। इस तरह के फैसले की अनुमति देने से भविष्य में प्रशासन पुरानी सरकारों के गलत कामों पर आंखें मूंद लेगा। इससे भ्रष्टाचार और दुर्भावनाएं सामने नहीं आएंगी। उनका मानना है कि इस निष्कर्ष पर पहुंचने का कोई आधार नहीं है कि चौधरी भजन लाल को रिपोर्ट करने से कोई राजनीतिक लाभ हुआ।

प्रतिवादी

पहले प्रतिवादी की ओर से के. परासरन और पी. चिदंबरम पेश हुए। प्रतिवादियों, भजन लाल और अन्य ने तर्क दिया कि आरोप राजनीतिक शत्रुता में गहराई से निहित थे। आरोप वास्तविक नहीं थे, और इससे पुरानी, लंबे समय से चली आ रही प्रतिद्वंद्विता का पता चलता है। उन्होंने दावा किया कि यह शिकायत सार्वजनिक हित के लिए जानकारी का खुलासा करने का प्रयास नहीं थी। प्रतिवादियों  के अनुसार, आरोपों में व्यक्तिगत प्रतिशोध पर आधारित दुर्भावनापूर्ण इरादे थे। उन्होंने तर्क दिया कि शिकायत का उद्देश्य भजन लाल की प्रतिष्ठा को बर्बाद करना और उनके राजनीतिक करियर पर असर डालना था। प्रतिवादियों ने यह भी दावा किया कि अधिकारी जांच शुरू करने के लिए सही क्षमता में नहीं थे।

श्री परासरन उच्च न्यायालय से सहमत हैं और सर्वोच्च न्यायालय में तर्क देते हैं कि उच्च न्यायालय का निर्णय तर्कसंगत है। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगाई है कि उच्च न्यायालय  के फैसले को पलटा न जाए। उनके अनुसार, राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ने भजन लाल के खिलाफ चरित्र हनन के प्रयास को बढ़ावा दिया। अपीलकर्ताओं के अनुसार, धर्मपाल को झूठे आरोप दायर करने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके बाद उन्होंने तर्क दिया कि भले ही आरोप सही हों, फिर भी वे कोई अपराध नहीं होंगे जिसके लिए मामला दर्ज करना जरूरी हो। उच्च न्यायालय ने सभी आरोपों को देखा और निष्कर्ष निकाला कि जांच को जारी रखना अन्याय होगा।

श्री चिदम्बरम ने नये आरोपों पर आपत्ति जताते हुए कहा कि उनका एकमात्र इरादा अदालत पर प्रतिकूल प्रभाव डालना था। उन्होंने अदालत से आग्रह किया कि आरोपों पर विचार न किया जाए, क्योंकि वे निराधार हैं। श्री परासरन ने जरूरत से ज्यादा कदम उठाने के लिए पुलिस अधिकारी की आलोचना की। उन्होंने उन पर एफआईआर दर्ज करने और जांच शुरू करने में जल्दबाजी में निर्णय लेने का आरोप लगाया। उन्होंने बताया कि उच्च न्यायालय ने माना कि पुलिस अधिकारी अति उत्साही और देवीलाल के प्रति वफादार था।

हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल मामले में चर्चा किए गए कानून और उदाहरण

कृष्ण बल्लभ सहाय एवं अन्य बनाम जांच आयोग एवं अन्य (1968)

इस मामले में अदालत ने पंजाब राज्य बनाम गुरदयाल सिंह और अन्य (1979) और कई अन्य संबंधित मामलों का हवाला दिया। इन सभी निर्णयों का हवाला इस बात को सही ठहराने के लिए दिया गया कि सीआरपीसी की धारा 154(1) के तहत, यदि आरोप संज्ञेय अपराध हैं तो पुलिस अधिकारी के लिए मामला दर्ज करना अनिवार्य है। इसके अलावा, धारा 155(4) में कहा गया है कि जब दो अपराध शामिल हों, जिनमें से एक संज्ञेय हो, तो पूरा मामला संज्ञेय माना जाएगा। सीआरपीसी की धारा 156, 157 और 159 इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि यदि पुलिस के पास संज्ञेय अपराध पर संदेह करने का कारण है, तो वे जांच जारी रख सकते हैं, या यदि पर्याप्त आधार नहीं है, तो वे इसे छोड़ सकते हैं। उपर्युक्त निर्णय इस बात पर जोर देते हैं कि अदालतें हस्तक्षेप नहीं कर सकती हैं और पुलिस जांच को नहीं रोक सकती हैं। पुलिस के पास संज्ञेय अपराधों के मामलों में विशेष जांच शक्तियां हैं, जब तक वे सभी आवश्यक प्रावधानों और दिशानिर्देशों का पालन करती हैं। हालाँकि, मजिस्ट्रेट जाँच या प्रारंभिक जाँच का निर्देश देने के लिए हस्तक्षेप कर सकता है।

बिहार राज्य एवं अन्य बनाम जे.ए.सी. सलदान्हा और अन्य (1979)

अदालत ने धारा 154(1) में प्रयुक्त वाक्यांश “संदेह का कारण” की व्याख्या को प्रमाणित करने के लिए इस मामले, एसएन शर्मा बनाम बिपेन कुमार तिवारी और अन्य (1970), और कई अन्य संबंधित मामलों का हवाला दिया। यह स्पष्ट करता है कि वाक्यांश “संदेह करने का कारण” किसी भी तर्कसंगत तर्क को संदर्भित करता है जो एक उचित व्यक्ति को यह विश्वास दिला सकता है कि एक संज्ञेय अपराध किया गया था। यह अनुमान हमेशा कुछ भी साबित नहीं करता है, लेकिन कुछ मामलों में, यह जांच शुरू करने के लिए पर्याप्त है। संदेह के कारण के अलावा, धारा 157(1) में कहा गया है कि पुलिस को संतुष्ट होना चाहिए कि जांच के लिए पर्याप्त आधार है।

इसके अलावा, यह मामला सीआरपीसी की धारा 156, 157 और 159 के बीच परस्पर क्रिया पर चर्चा करता है। धारा 156(1) पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को संज्ञेय अपराधों की जांच करने का अधिकार देती है। निर्णय धारा 157(1) की व्याख्या पर प्रकाश डालता है, जो किसी अधिकारी को संज्ञेय अपराध होने का संदेह होने पर मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट करने की प्रक्रिया की रूपरेखा देता है। धारा 159 में निर्दिष्ट जांच की निगरानी में मजिस्ट्रेट और उच्च न्यायालय की भूमिका पर भी चर्चा की गई है। डीए देसाई और न्यायमूर्ति भार्गव ने जांच प्रक्रिया में पुलिस की विशिष्ट भूमिका को रेखांकित किया। यह मामला संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हस्तक्षेप करने की शक्तियों पर भी प्रकाश डालता है यदि यह आश्वस्त हो कि जांच दुर्भावनापूर्ण है। यह उद्धरण उन सावधानियों पर विचार करते समय प्राधिकार के रूप में कार्य करता है जो उच्च न्यायालयों को एफआईआर रद्द करते समय बरतनी चाहिए। अदालत ने जांच पूरी होने से पहले उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप को अस्वीकार कर दिया।

पकाला नारायण स्वामी बनाम एंपरर (1939)

यह अगला महत्वपूर्ण मामला है जिसका न्यायालय ने उल्लेख किया है। इस मामले में, न्यायालय ने माना कि केवल पुलिस अधिकारी ही किसी अपराध की जाँच कर सकते हैं, और वे जिन शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं, वे सीआरपीसी के अध्याय XII के कड़ाई से अनुपालन में होनी चाहिए। धारा 157(1) अभिव्यक्ति “संदेह का कारण” का उपयोग करती है, जो सीआरपीसी की धारा 41(1)(a) और (g) के विपरीत है, जहां “उचित संदेह” शब्द का उपयोग किया जाता है। निर्णय “संदेह करने का कारण” शब्द पर स्पष्टता प्रदान करता है और लॉर्ड एटकिन द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण का हवाला देते हुए इसकी स्पष्ट और सामान्य अर्थ में व्याख्या कैसे की जानी चाहिए जिन्होंने इस बात पर जोर दिया कि जब शब्दों का अर्थ स्पष्ट और सरल हो, तो हमें शब्दों के कथित इरादे को खोजने का प्रयास करना चाहिए। जब अर्थ सरल हो तो अर्थ के संभावित लाभ-हानि पर विचार नहीं करना चाहिए। मजिस्ट्रेट हस्तक्षेप नहीं कर सकता; हालाँकि, संहिता के अध्याय XIV में पुलिस को हर समय मजिस्ट्रेट को जांच के बारे में सूचित रखने की आवश्यकता होती है। अदालत ने पुलिस की शक्ति की सीमाओं के बारे में भी बात की।

एंपरर बनाम ख्वाजा नजीर अहमद (1944)

अदालत ने इस मामले, आर.पी. कपूर बनाम पंजाब राज्य (1960) का हवाला यह स्थापित करने के लिए एक संदर्भ के रूप में दिया कि लिखित बयान में दोष के संबंध में उच्च न्यायालय के विचार गलत थे। उच्च न्यायालय ने कहा कि लिखित बयान प्रस्तुत करने में विफलता सरकार की ओर से विफलता थी। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि, इस दोष के कारण, यह माना जाना चाहिए कि प्रतिवादी ने सभी आरोपों को खारिज कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि ये अकल्पनीय हैं हालाँकि, शीर्ष अदालत आरोपों की अस्पष्टता को स्वीकार करती है। इसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि संपत्तियों के संबंध में या जिनके नाम पर संपत्तियां पंजीकृत थीं, कोई विवरण प्रदान नहीं किया गया है। एंपरर बनाम ख्वाजा नजीर अहमद मामले में प्रिवी काउंसिल ने संहिता की धारा 154 और 156 के तहत पुलिस की जिम्मेदारियों से भी निपटा। यह मामला संज्ञेय अपराधों की जांच करने के पुलिस के वैधानिक अधिकार पर जोर देता है। न्यायपालिका और पुलिस के कार्य आपस में जुड़े हुए हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानून एवं व्यवस्था बनाए रखना तभी प्राप्त किया जा सकता है जब दोनों संस्थाएं बिना किसी हस्तक्षेप के अपने-अपने कार्य करें। काउंसिल इस बात पर जोर देती है कि अदालतों की भूमिका कार्यवाही के बाद के चरणों में ही प्रमुख हो जाती है। यह स्वीकार करता है कि एक अपवाद है जहां अदालत का कार्य थोड़ा पहले शुरू होता है। सीआरपीसी की धारा 491 उन मामलों में निर्देश देती है जहां बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) की रिट लागू होती है।

न्यायालय द्वारा संदर्भित अन्य महत्वपूर्ण मामले

मामले में पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य बनाम स्वपन कुमार गुहा एवं अन्य (1982) का भी हवाला दिया गया था। फैसले में न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने न्यायाधीश एएन सेन और वरदराजन के फैसले से सहमति जताई। उन्होंने कहा कि सीआरपीसी की धारा 157 के तहत जांच शुरू करने की शर्त यह थी कि एफआईआर में किए गए संज्ञेय अपराध का खुलासा होना चाहिए। उन्होंने कहा कि निरंकुश विवेक जैसी कोई चीज नहीं होनी चाहिए। नंदिनी सत्पथी बनाम पीएल दानी और अन्य (1978) में, न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने अपना विचार व्यक्त किया कि एक पुलिस अधिकारी को अपने कर्तव्यों का पालन करते समय सटीक, संवेदनशील और संवैधानिक रूप से जागरूक होना चाहिए। जो अधिकारी उक्त दिशानिर्देश का पालन नहीं करता है, उसके बारे में कहा जाता है कि उसने “प्रशंसापत्र मौनता” के गारंटीकृत अधिकार का उल्लंघन या अवहेलना की है।

प्रभु दयाल देवराह आदि बनाम जिला मजिस्ट्रेट, कामरूप और अन्य (1973) के मामले में, न्यायमूर्ति मैथ्यू ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षण पर जोर दिया। उन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा में प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के पालन के ऐतिहासिक महत्व पर प्रकाश डाला। पी सिराजुद्दीन बनाम मद्रास सरकार एवं अन्य (1982) में, न्यायमूर्ति मित्तर ने एक लोक सेवक पर आरोप लगाने से पहले प्रारंभिक जांच करने के महत्व पर जोर दिया, खासकर यदि वह सत्ता की स्थिति में है। यह उस संभावित नुकसान से उचित है जो इन आरोपों से व्यक्ति के साथ-साथ विभाग को भी हो सकता है। उत्तर प्रदेश राज्य बनाम भगवंत किशोर जोशी (1963) के मामले में न्यायमूर्ति मुधोलकर ने कहा कि, ऐसे मामलों में जहां सीआरपीसी में निषेध है, एक पुलिस अधिकारी को अपराध दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करने की अनुमति है।

हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल मामले में अदालत का फैसला

सर्वोच्च न्यायालय ने 21 नवंबर 1990 के एक फैसले में उच्च न्यायालय  के फैसले को रद्द कर दिया। यह निर्णय लिया गया कि उच्च न्यायालय द्वारा एफआईआर को रद्द करना वैध नहीं था क्योंकि यह कानूनी और तथ्यात्मक रूप से टिकाऊ नहीं था। उच्च न्यायालय के फैसले के इस हिस्से को रद्द कर दिया गया। हालाँकि, शुरुआत के साथ-साथ पूरी जाँच भी रद्द कर दी गई। अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि तीसरे अपीलकर्ता के पास भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 5A(1) के तहत वैध अधिकार का अभाव है।

प्रावधान में कहा गया है कि धारा 5(1) के खंड (e) के तहत केवल निरीक्षक या उससे ऊपर के रैंक का अधिकारी ही किसी अपराध की जांच कर सकता है। फैसले में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि जब पुलिस अधीक्षक (एसपी) ने स्टेशन हाउस अधिकारी को जांच करने का निर्देश दिया तो वह अति उत्साही और जल्दबाजी में थे। हालाँकि, भले ही उसके पास अधिकार की कमी थी, फिर भी जाँच आवश्यक थी। अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसी जांच को अधिकृत करने वाले अधिकारी के लिए अनुमति देने के कारण बताना कितना महत्वपूर्ण है। यह भी माना गया कि निवर्तमान सरकारों को उनके कुकर्मों के लिए जवाबदेह न ठहराना एक चिंताजनक स्थिति पैदा करता है। इसलिए, ऐसे दृष्टिकोण को न्यायिक रूप से अनुमोदित नहीं किया जा सकता। उन्होंने स्वीकार किया कि जांच शुरू करने से पहले, अदालत के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि आरोप दुर्भावनापूर्ण इरादे से न जुड़े हों। धारा 5A का उद्देश्य राजनेताओं और लोक सेवकों को तुच्छ जांच से परेशान और पीड़ित होने से बचाना है। जांच अधिकारियों को प्रावधानों का सख्ती से पालन करना चाहिए। हालाँकि, यदि एक प्रावधान का पालन नहीं किया जाता है, तो यह पूरी जांच को अवैध बना देता है।

न्यायालय ने कहा कि संज्ञेय अपराध की एफआईआर दर्ज करने के लिए उसकी जानकारी होना जरूरी है। यदि जानकारी सीआरपीसी की धारा 154(1) के तहत आवश्यकताओं को पूरा करती है तो प्रभारी अधिकारी के पास एफआईआर दर्ज करके मामला दर्ज करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। जबकि एक पुलिस अधिकारी किसी गैर-संज्ञेय अपराध की जांच नहीं कर सकता है, वे धारा 155(3) में उल्लिखित शर्तों के अधीन, उचित प्राधिकार वाले मजिस्ट्रेट से आदेश प्राप्त करके ऐसा कर सकते हैं। ऐसे मामलों में जहां एक से अधिक अपराध हों, पूरा मामला संज्ञेय माना जाता है। जांच को पुलिस के लिए एक विशेष क्षेत्र माना जाता है, और अदालतें जांच में हस्तक्षेप नहीं कर सकती हैं। सीआरपीसी के अध्याय XIV में एक योजना है जिसमें मजिस्ट्रेट को सभी चरणों में जांच के बारे में सूचित रखना शामिल है, लेकिन वे हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। यदि पुलिस अधिकारी अपने कानूनी अधिकार का उल्लंघन करता है, तो अदालतें हस्तक्षेप कर सकती हैं, उल्लंघन की प्रकृति और सीमा पर विचार कर सकती हैं, और फिर उचित आदेश पारित कर सकती हैं। निर्णय मानवीय गरिमा की सुरक्षा की आवश्यकता पर जोर देता है और इस बात पर प्रकाश डालता है कि किसी भी इकाई के पास निर्विवाद अधिकार या असीमित शक्तियाँ नहीं होनी चाहिए।

उच्च न्यायालय  ने राज्य सरकार द्वारा लिखित बयान दाखिल नहीं करने को गंभीर खामी माना था। इसमें कहा गया कि दाखिल न होने से चौधरी भजनलाल के खिलाफ सभी आरोप गलत साबित हुए। दूसरी ओर, सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय से असहमत था। इसमें तर्क दिया गया कि जांच समय से पहले की स्थिति में थी। इसलिए सरकार के पास भजनलाल पर लगे आरोपों से जुड़ी जरूरी जानकारी नहीं थी। एसपी के अति-उत्साह के मामले पर न्यायालय ने कहा कि शिकायत मिलने के दिन ही उसे दाखिल करना थोड़ा अति-उत्साह है। खासकर तब जब शिकायत 9 दिनों तक डीजीपी कार्यालय में पड़ी रही। यह उत्साह अभूतपूर्व था और इसलिए इसने कई सवाल खड़े कर दिये। इनमें से एक सवाल थाना प्रभारी को जांच सौंपने का कारण भी था। अदालत ने एस.पी. के कार्यों को अस्वीकार कर दिया क्योंकि वह सामान्य प्रक्रिया से भटक गया था। एक पूर्व मुख्यमंत्री पर लगे आरोपों की गंभीरता को जानते हुए उन्हें अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए थी। हालाँकि, अदालत ने कहा कि भले ही उसका आचरण गलत था, लेकिन यह एफआईआर को रद्द करने का आधार नहीं हो सकता।

झूठे आरोपों के मामलों में क्या होता है, इस सवाल का जवाब देने के लिए, अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि जो व्यक्ति झूठे आरोप लगाते हैं जिससे प्रतिष्ठा को नुकसान होता है, उन्हें आईपीसी की धारा 182, धारा 211 और धारा 500 के तहत उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। इसके अलावा, उन पर हर्जाने का मुकदमा भी चलाया जा सकता है। इस मामले में, आरोप एक संज्ञेय अपराध है। इसलिए, यह उन मामलों की श्रेणी में नहीं आता है जो उच्च न्यायालय को आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की अपनी शक्ति का प्रयोग करने के लिए बाध्य कर सकते हैं। अदालत ने इस सवाल पर विचार करते हुए कि क्या एफआईआर को रद्द करना कानूनी रूप से टिकाऊ था, दुर्भावनापूर्ण इरादे की दलीलों को खारिज कर दिया। अदालत ने इस फैसले के आधार पर कहा कि जांच की इस समयपूर्व स्थिति में, वह परिणामों का मूल्यांकन नहीं कर सकती है और इसलिए, दुर्भावनापूर्ण इरादे का पता नहीं लगा सकती है। अदालत ने चरित्र हनन और व्यक्तिगत लाभ के विवादों को भी खारिज कर दिया। अदालत ने निर्धारित किया कि मामले के पंजीकरण का प्राथमिक उद्देश्य पर्याप्त सबूत इकट्ठा करना और फिर मामला बनाना था।

छबील दास की दलील के संबंध में, अदालत ने दलील को खारिज कर दिया, यह दावा करते हुए कि दलील में गलत उद्देश्यों का सुझाव दिया गया था। इसने यह भी घोषित किया कि इन तर्कों में कोई दम नहीं है। इंस्पेक्टर की वैधानिक शक्ति की वैधता के संबंध में, उन्होंने एच.एन. रिशुद और इंदर सिंह बनाम दिल्ली राज्य (1954) के मामले का हवाला दिया। अदालत ने उल्लेख किया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5ए के तहत यह अनिवार्य है कि जांच केवल निरीक्षक या उससे ऊपर के स्तर के अधिकारी द्वारा की जाए। हालाँकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि यह उल्लंघन अदालत या मुकदमे की क्षमता और अधिकार क्षेत्र को प्रभावित नहीं करता है। राज्य सरकार ने अधिनियम की धारा 5 के तहत आने वाले अपराधों की जांच के लिए निरीक्षक को अधिकृत किया था। अभियोजन पक्ष पर्याप्त तर्क देने में विफल रहा, जिसके कारण पुलिस अधीक्षक (एसपी) को जांच का आदेश पारित करना पड़ा। ऐसा प्रतीत होता है कि आदेश कानूनी सिद्धांतों पर विचार किए बिना लापरवाही से दिए गए हैं। हालांकि एसपी ने थानेदार को जांच का आदेश नहीं दिया था। इसे उच्च न्यायालय ने उल्लंघन माना था। आईपीसी की धारा 161 और 165 के तहत भी मामला दर्ज किया गया था। हालाँकि, सरकार ने केवल भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5(2) के तहत ही जाँच को अधिकृत किया था। इसके अनुसार, थानाप्रभारी के पास धारा 161 और 165 के तहत अपराधों की जांच करने का कोई अधिकार नहीं था। अदालत ने कहा कि अगर सरकार को नई जांच की आवश्यकता महसूस होती है, तो उसे धारा 5A(1) का पालन करना होगा।

अपीलकर्ताओं द्वारा नए आरोपों की प्रस्तुति पर, अदालत ने चिदंबरम से सहमति व्यक्त की कि, इस स्तर पर, वे आरोपों की वैधता में नहीं जा सकते। उनके आरोपों की गहन जांच के बाद ही उचित अदालत द्वारा जांच की जा सकती है।

अदालत ने उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द कर दिया और दावा किया कि एफआईआर को रद्द करना तथ्यात्मक या कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं था। उच्च न्यायालय के उस आदेश को भी रद्द कर दिया गया, जिसमें धर्मपाल को भजनलाल को लागत प्रदान करने का निर्देश दिया गया था। लागत के संबंध में बिना किसी आदेश के अपील का निपटारा कर दिया गया।

भजनलाल मामले में दिए गए दिशानिर्देश

भजन लाल मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सात दिशानिर्देश तय किए जिनका सीआरपीसी की धारा 482 में निर्दिष्ट शक्तियों का प्रयोग करते समय उच्च न्यायालय को पालन करना चाहिए। यह प्रावधान उच्च न्यायालय को आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की अनुमति देता है, जो अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। न्यायालय द्वारा प्रक्रिया का दुरुपयोग क्या है? झूठी एफआईआर दर्ज करना और झूठे आरोप लगाना अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। इस धारा के अंतर्गत शक्तियां अनियंत्रित थीं। इसलिए, भजनलाल इन सीमाओं को नियमों के भीतर खींचते हैं।

  1. यदि एफआईआर में लगाए गए आरोप प्रथम दृष्टया अपराध नहीं बनते हैं, तो उन्हें रद्द किया जा सकता है। यदि विचार करने के बाद यह पाया जाता है कि आरोप स्थापित करने या यह मानने के लिए पर्याप्त नहीं हैं कि कोई अपराध है, तो अदालत एफआईआर को रद्द कर सकती है।
  2. एफआईआर को रद्द करने का एक आधार एफआईआर में उल्लिखित आरोपों में किसी संज्ञेय अपराध का खुलासा न करना है। सीआरपीसी की धारा 156(2) इस नियम का अपवाद प्रदान करती है कि मजिस्ट्रेट द्वारा विशेष प्राधिकरण दिए जाने पर संज्ञेय अपराध का कोई संकेत न होने पर भी मामले में पुलिस की जांच की जा सकती है।
  3. एफआईआर को तब रद्द किया जा सकता है जब एफआईआर में निर्विवाद आरोप किसी आपराधिक तत्व के आवश्यक तत्वों को स्थापित करने में विफल रहते हैं। सहायक साक्ष्य अवश्य होने चाहिए क्योंकि अभियुक्त के बिना आपराधिक कार्यवाही अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगी। यह अभियुक्त के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
  4. जब आरोप केवल गैर-संज्ञेय अपराध का गठन करते हैं, तो पुलिस मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना जांच शुरू नहीं कर सकती है। यह नियम सीआरपीसी की धारा 155(2) के तहत निर्दिष्ट है। जिन अपराधों से समाज को नुकसान नहीं होता, वे इस दायरे में आते हैं। इसका उद्देश्य पुलिस की असीमित शक्तियों को सीमित करना है। यह उन मामलों में निर्दोष व्यक्तियों को अनुचित पुलिस जांच से बचाता है जहां कथित अपराध गैर-संज्ञेय है।
  5. ऐसे मामले जहां शिकायत में आरोप बहुत बेतुके और असंभव हैं, एफआईआर को रद्द करने की आवश्यकता हो सकती है। यह आमतौर पर उन मामलों में किया जाता है जहां आरोप तर्कहीन और बहुत दूरगामी होते हैं। आरोपों में अभियुक्त के खिलाफ जांच शुरू करने के लिए स्पष्ट कारण बताए जाने चाहिए।
  6. एक स्पष्ट निषेध या प्रतिबंध है जो आपराधिक कार्यवाही शुरू करने या जारी रखने से रोकता है। यह उन मामलों को उजागर करता है जहां ऐसे ढांचे हैं जो वैकल्पिक उपचार प्रदान करते हैं जो लगाए गए आरोपों को संबोधित करने में प्रभावी हैं। सीआरपीसी की धारा 195, 196, 197, 198, और 199 जांच शुरू करने के लिए आवश्यक पूर्व शर्तें प्रदान करती हैं।
  7. जब मामला बदनीयती से दूषित हो और नुकसान पहुंचाने का अंतर्निहित मकसद हो तो एफआईआर रद्द की जा सकती है। यदि अदालत यह निर्धारित करता है कि मामला दायर करने का इरादा दुर्भावनापूर्ण है अभियुक्तों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए अदालत हस्तक्षेप कर सकती है। यह सुनिश्चित करता है कि अदालत और आपराधिक न्याय प्रणाली का उपयोग व्यक्तिगत प्रतिशोध को आगे बढ़ाने के लिए नहीं किया जा रहा है।

निष्कर्ष

इस लेख में एक ऐतिहासिक मामले, हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल (1992) पर विस्तार से चर्चा की गई है। इसने भारत के कानूनी इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और भविष्य के कई मामलों को प्रभावित किया है। किसी एफआईआर या आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की कार्यवाही में एक मिसाल के रूप में इसका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। खासकर गलत इरादे से कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग के मामलों में। भजनलाल परीक्षण न्याय की सेवा के साथ सार्वजनिक हित की आवश्यकता को संतुलित करता है। इसके अलावा, जब जांच की बात आती है तो मामला वैधानिक प्रावधानों के अनुसार आदेश की श्रृंखला का पालन करने के महत्व को रेखांकित करता है। सर्वोच्च न्यायालय इस बात पर जोर देता है कि अदालत को जांच में बार-बार हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उच्च न्यायालय की शक्ति को मान्यता देते हुए, न्यायालय कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने का प्रयास करता है। इस मामले में निर्धारित सिद्धांत आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए आवेदनों का मूल्यांकन करते समय अदालतों के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करते हैं।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति क्या है?

इस मामले में उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 को संदर्भित करती है। इस प्रावधान का एक प्राथमिक उद्देश्य उच्च न्यायालय को एफआईआर और आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की शक्ति देना है जब अदालत को लगता है कि यह अमान्य या अनावश्यक है। इस शक्ति का प्रयोग तभी किया जा सकता है जब अदालत को लगे कि कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग किया जा रहा है। यह विवादों को रद्द करके निपटाने से भी संबंधित है, लेकिन इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि समझौता वास्तविक हो। यह पीड़ितों और गवाहों की भी सुरक्षा करता है।

अनुच्छेद 226 के तहत रिट अधिकार क्षेत्र और सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अंतर्निहित शक्ति के बीच क्या अंतर है?

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालय को रिट जारी करने का अधिकार देता है। इस प्रावधान की शक्तियाँ सिविल, आपराधिक के साथ-साथ प्रशासनिक मामलों तक भी विस्तारित हैं। यह कानून के किसी विशिष्ट क्षेत्र तक सीमित नहीं है। प्राथमिक उद्देश्य मौलिक अधिकारों की रक्षा करना और उन अधिकारों के उल्लंघन के लिए उपाय प्रदान करना है। सीआरपीसी की धारा 482 उच्च न्यायालय को आपराधिक कार्यवाही और एफआईआर को रद्द करके अदालती प्रक्रियाओं के दुरुपयोग को रोकने की शक्ति प्रदान करती है। इसे केवल आपराधिक मामलों में ही लागू किया जा सकता है। धारा 482 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग उच्च न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत किसी भी अधीनस्थ न्यायालय पर कर सकता है।

संदर्भ

 

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