आईपीसी की धारा 341 

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Indian Penal Code

यह लेख महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, फैकल्टी ऑफ लॉ, वडोदरा की बी.ए.एल.एल.बी. की छात्रा Meera Patel द्वारा लिखा गया है। यह एक विस्तृत लेख है जिसमें आईपीसी की धारा 341 के बारे में सभी आवश्यक पहलू शामिल हैं। इस लेख का अनुवाद Shubhya Paliwal द्वारा किया गया है। 

परिचय

अन्य सभी अधिकार जिनका हम आनंद लेते हैं उनमें, से एक हमें इस देश में स्वतंत्र रूप से विचरण (मूव) करने का अधिकार भी है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(d) के अनुसार “सभी नागरिकों को भारत के पूरे क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से विचरण करने का अधिकार है”। केवल स्वतंत्र विचरण ही नहीं बल्कि अनुच्छेद 21 के तहत हमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी प्राप्त है। सरल शब्दों में भारत के नागरिकों को गलत कारावास द्वारा हुए शारीरिक अवरोध (रिस्ट्रेंट) से स्वंतत्रता मिलती है। यदि किसी व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है तो संविधान विभिन्न प्रावधान प्रदान करता है।

यह एक गहन (इन डेप्थ) लेख है जो सदोष अवरोध (रॉन्गफुल रिस्ट्रेन्ट) के अर्थ की व्याख्या करता है और जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति या समूह के विचरण या व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है तो ऐसे मामलों में दंडात्मक प्रतिबंधों (सैंक्शंस) के बारे में विस्तार से बताता है। इससे पहले कि हम धारा 341 और इसके प्रावधानों को समझें, हमें यह जानने की आवश्यकता है कि सदोष अवरोध और सदोष कारावास (कंफाइनमेंट) क्या हैं।

सदोष अवरोध – आईपीसी की धारा 399

कानून के अनुसार ‘सदोष’ शब्द का अर्थ अनुचित या हानिकारक होता है। दूसरे शब्दों में, ‘सदोष’ गैर-कानूनी गतिविधियों को इंगित करता है जो एक सिविल अपराध के बराबर है। ‘अवरोध’ शब्द का अर्थ है कि जब कोई ऐसी स्थिति निर्मित की जाती है जिससे किसी व्यक्ति को गलत तरीके से नियंत्रण में रखा जाता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 399 के अनुसार, सदोष अवरोध को परिभाषित किया गया है, “जो कोई भी किसी व्यक्ति को किसी भी दिशा में आगे बढ़ने से रोकने के लिए स्वेच्छा से बाधा डालता है, जिसमें उस व्यक्ति को आगे बढ़ने का अधिकार है, उस व्यक्ति को गलत तरीके से रोकना कहा जाता है।” इस धारा का गठन किसी व्यक्ति या समूह को उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी से वंचित होने से बचाने के लिए किया गया था।

सदोष अवरोध का अपराध गठित करने के लिए, जिस व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से वंचित किया गया था, उसे बाधा का सामना करना चाहिए। इसके अलावा, जिस व्यक्ति को बाधा का सामना करना पड़ा, उसे यह महसूस होना चाहिए कि जिस दिशा में वह आगे बढ़ना चाहता था, उस दिशा में आगे बढ़ने के लिए उसे वंचित रखा गया है या उस दिशा में जाने नहीं दिया गया है। अपराध कहलाने के लिए आवश्यक अंतिम और मुख्य घटक (कंपोनेंट) यह है कि पीड़ित को पहले वांछित दिशा में आगे बढ़ने का अधिकार होना चाहिए।

इस धारा के निर्माण के पीछे मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी कीमत पर किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की जाए। हम देश में किसी भी दिशा में घूमने के योग्य हैं और इसीलिए कानून को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमें वह मिले जिसके हम हकदार हैं। इसीलिए यदि इस संदर्भ में किसी को थोड़ी सी भी असुविधा का अनुभव होता है, तो भी इसे सदोष अवरोध माना जाएगा। ‘थोड़ी सी भी असुविधा’ शब्द से, लेखक का यह कहना है कि किसी को जिस बाधा का सामना करना पड़ रहा है वह आवश्यक रूप से शारीरिक नहीं होना चाहिए और भारतीय दंड संहिता की धारा 399 के तहत आरोपी पक्ष की उपस्थिति को गलत तरीके से रोकने के उदाहरण के रूप में माना जाना अनिवार्य नहीं है।  इस नियम के पीछे कारण यह है कि हमले का कार्य किसी व्यक्ति के रास्ते में बाधा डालने का एकमात्र तरीका नहीं है क्योंकि केवल शब्द बाधा उत्पन्न कर सकते हैं और यही कारण है कि यह इस धारा के तहत अपराध का गठन कर सकता है।

एक व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 399 को लागू करने के लिए उस भूमि पर चलने का अपना अधिकार साबित करना होगा जिसकी ओर जाते समय उनके रास्ते में बाधा डाली गई थी। 

उदाहरण

  • अश्विनी शहर के बगीचे की ओर चल रहा है और जयकिशन जानबूझकर यह सुनिश्चित करने के लिए रास्ता रोकता है कि अश्विनी बगीचे तक न पहुँचे। इस मामले में, अश्विनी को वहा से गुजरने और शहर के सार्वजनिक बगीचे में जाने का अधिकार है लेकिन जैसे ही जयकिशन ने उसका रास्ता रोका, यह निर्धारित किया गया कि जयकिशन ने उसे गलत तरीके से जाने से रोक दिया है।
  • पीयूष अपने पड़ोसी कोमल की छत ठीक करने में मदद कर रहा है लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका। कोमल ने सीढ़ी हटा दी और उसे धमकी दी कि जब तक वह उसकी क्षतिग्रस्त छत की मरम्मत नहीं कर देता, वह उसे सीढ़ी वापस नहीं देगी। यह सदोष अवरोध का एक उत्कृष्ट (क्लासिक) उदाहरण है क्योंकि कोमल ने पीयूष को उसके घर की छत पर रोक दिया था इसलिए कोमल को पीयूष के रास्ते में बाधा डालने के लिए उत्तरदायी ठहराया जाएगा।

अपवाद

भले ही सदोष अवरोध का अर्थ स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया हो, कुछ अपवाद भारतीय दंड संहिता की धारा 399 को और भी विशिष्ट (स्पेसिफिक) बना देते हैं। इस धारा में अपवाद बताता है कि यदि कोई व्यक्ति सद्भावना से महसूस करता है कि उसे जमीन और/या पानी के जरिए किसी के रास्ते में बाधा डालने की जरूरत है, तो यह सदोष अवरोध की श्रेणी में नहीं आएगा।

उदाहरण

  • रिद्धि अपने घर के पास एटीएम में प्रवेश करने वाली थी लेकिन श्रेय ने उसे रोक लिया। एटीएम में सांप फंसा होने के कारण उन्होंने उसे अंदर जाने से रोकने की कोशिश की। इस उदाहरण में, श्रेय ने सद्भावना से उसे रोकने की कोशिश की इसलिए यह सदोष अवरोध की श्रेणी में नहीं आएगा।

सदोष अवरोध के लिए सजा – आईपीसी की धारा 341

जैसा कि ऊपर संक्षेप में उल्लेख किया गया है, भारतीय दंड संहिता की धारा 341 उन दंडों से संबंधित है जो किसी व्यक्ति को किसी दिशा, स्थान आदि की ओर जाने से सदोष अवरोध के लिए उपचार (रेमेडीज) के रूप में उपयोग किए जाएंगे, बशर्ते कि व्यक्ति को वहां जाने का अधिकार हो। इस धारा में कहा गया है, कि “जो कोई भी किसी व्यक्ति को सदोष अवरोध करता है, उसे साधारण कारावास जिसे एक महीने से ज्यादा नहीं बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माना जिसे पांच सौ रुपए तक बढ़ाया जा सकता है, या दोनों से दंडित किया जाएगा।”

अवरोध शब्द का अर्थ है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता से, उसकी इच्छा के विरुद्ध समझौता किया गया है और यही इसे अलग बनाता है। कई अन्य कारणों के अलावा, इस प्रावधान को लागू करने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि भारत का संविधान इस देश के प्रत्येक व्यक्ति के विचरण की स्वतंत्रता के अधिकार को महत्वपूर्ण मानता है और यही कारण है कि हमारे संविधान ने अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 प्रदान करके इस तरह की आवश्यकताओं को पूरा किया है। ये दोनों अनुच्छेद इस बात की गारंटी देते हैं कि देश का प्रत्येक नागरिक व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का आनंद उठाएगा।

अस्पष्टता एक अवधारणा है जो हमारे लिए स्थिति के आधार पर कानूनों का एक उचित सेट स्थापित करना आसान बनाती है और इसीलिए हम कह सकते हैं कि स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है। जनहित (पब्लिक इंटरेस्ट) के आधार पर और केवल कानूनी प्रक्रिया का पालन करके इसे बदला जा सकता है। इस मामले में, जब हम किसी व्यक्ति के विचरण के अधिकार के समझौते के बारे में बात करते हैं, तो आरोपी के खिलाफ मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत दर्ज करना कानूनी प्रक्रिया के अनुसार पहला कदम है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि कार्य की प्रकृति एक प्रमुख कारक (फैक्टर) है जिस पर शिकायत दर्ज करने से पहले विचार किया जाना चाहिए। भारतीय दंड संहिता की धारा 341 का निरीक्षण (इंस्पेक्ट) करने के लिए जो महत्वपूर्ण तत्व आवश्यक है, वह मुख्य शब्द ‘बाधा’ है। इसे अपराध मानने के लिए बाधा आवश्यक है और इसे सीधे आरोपी व्यक्ति को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। जिस व्यक्ति पर इस अपराध को करने का आरोप लगाया गया है, उसे पता होना चाहिए या उसके पास बाधा उत्पन्न करने या व्यक्ति को आगे बढ़ने से रोकने का कारण होना चाहिए।

किसी को गलत तरीके से रोकने के अपराध के रूप में कार्य करने से पहले जिन मुख्य कारणों पर विचार किया जाता है, वह यह होना चाहिए कि किसी को रोकने का कार्य स्वैच्छिक (वॉलंटरी) होना चाहिए और यह कि किसी को रोकने का कार्य ऊपर वर्णित सद्भावना में होना चाहिए। इसलिए, यदि सद्भावपूर्वक बाधा डाली जाती है, तो यह कहा जाता है कि आरोपी ने कोई अपराध नहीं किया है।

आईपीसी की धारा 341 से संबंधित मामले 

  • लल्लू पीडी बनाम केदारनाथ शुक्ला (1962), के मामले में याचिकाकर्ता लल्लू प्रसाद ने डॉ. शुक्ला पर उनकी दुकान में घुसने और समय पर किराया न देने का आरोप लगाते हुए दुकान खाली करने के लिए कहने का आरोप लगाया और ऐसा करने से मना करने पर डॉ. शुक्ला ने दरवाज़ा बंद करने के लिए याचिकाकर्ता (पिटीशनर) से चाबी ले ली। उसने दरवाजा बंद कर लिया और श्री लल्लू के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने के लिए चला गया। बाद में पता चला कि श्री लल्लू ने ताला तोड़कर दरवाजे पर अपना ताला लगा दिया, इसलिए जब वह अगले दिन अपनी दुकान पर आया तो डॉ. शुक्ला तीन आदमियों के साथ दरवाजे के सामने खड़ा था और श्रीमान लल्लू ने दुकान खोलने की कोशिश की तो उसे धमकी दे रहा था। मामले के तथ्यों के अनुसार, बचाव पक्ष ने यह कहते हुए अपना तर्क रखा कि वह सिर्फ देय भुगतान मांगने के लिए दुकान पर गया था और शिकायतकर्ता की वित्तीय स्थिति के कारण, वह किराए का भुगतान करने में सक्षम नहीं था, इसलिए उसने स्वेच्छा से चाबियां शुक्ला को सौंप दी।

फैसले के अनुसार, शुक्ला को अतिचार (ट्रेसपास) के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया गया क्योंकि किरायेदार को देय राशि का भुगतान न करने पर जगह खाली करने के लिए कहना कानूनी है, लेकिन साथ ही, अदालत ने यह भी देखा कि शुक्ला ने मकान के दरवाजे पर ताला लगा दिया था। इसलिए उसने दरवाजे पर ताला लगाकर याचिकाकर्ता को दुकान में प्रवेश करने से रोक दिया था और उसे आईपीसी की धारा 341 के तहत दोषी पाया। उन पर बीस रुपये का जुर्माना लगाया गया था।

  • विजया कुमारी बनाम एस.एम. राव (1996), के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने शिकायतकर्ता को, जो एक छात्रावास की लाइसेंसधारी शिक्षक थी, लाइसेंस की अवधि समाप्त होने के बाद भी वहाँ रहने का कोई अधिकार नहीं है और इसलिए वह कमरे का उपयोग करने का दावा नहीं कर सकती है और यदि वह बाहर जाने से इंकार करती है और बाधा उत्पन्न करती है तो यह सदोष अवरोध की श्रेणी में आएगा जो एक संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराध है। इस कथन का समर्थन एक तर्क के साथ किया गया था जिसमें कहा गया था कि कोई भी व्यक्ति जो गलत तरीके से किसी दूसरे व्यक्ति को किसी विशेष दिशा की ओर बढ़ने से रोकता है, उसे धारा 341 के तहत दोषी ठहराया जाएगा।
  • राज्य बनाम बाबूलाल और अन्य (2020), के तथ्यों के अनुसार यह माना गया कि बचाव पक्ष को आपीसी की धारा 341 के तहत कई अन्य धाराओं के तहत दोषी ठहराया गया था, जब वे छत पर थीं, तब उनकी भाभी पर आपत्तिजनक (ऑफेंसिव) और अपमानजनक (एब्यूजिव) शब्द बोले गए थे। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, मौखिक दुर्व्यवहार (वर्बल अब्यूज) आईपीसी की धारा 341 को भी लागू कर सकता है क्योंकि इसे किसी व्यक्ति को रोकने के रूप में ही माना जाता है।
  • राज्य बनाम किशन कुमार और अन्य (2013), के मामले में श्री. किशन कुमार व श्री. पंकज कुमार पर आरोप लगाया गया था और बाद में अभियोजक (प्रॉसिक्यूटरिक्स) के साथ बलात्कार करके स्वेच्छा से चोट पहुँचाने के लिए उसे बरी कर दिया गया था, उसने अभियोजक को धमकी दी कि अगर उसने इन सब बातों का खुलासा किया तो वह उसे जान से मार देगा। उसे आईपीसी की धारा 341 के तहत गलत तरीके से रोकने के लिए भी दोषी ठहराया गया था।
  • राज्य बनाम नितिन अरोड़ा और अन्य (2014), के मामले के तथ्यों के अनुसार आरोपी श्री नितिन अरोड़ा पर अपनी दुकान के अंदर अभियोजक के साथ बलात्कार करने का आरोप लगाया गया था। उसने उसे दुकान में खींच लिया और उसके साथ बलात्कार करने से पहले उसे बंद कर दिया। उसने यह भी धमकी दी कि अगर उसने घटना के बारे में किसी को बताया तो वह वीडियो इंटरनेट पर वायरल कर देगा। उसे विभिन्न अपराधों के लिए आरोपी बनाया गया और बरी कर दिया गया और उनमें से एक में आईपीसी की धारा 341 के तहत गलत तरीके से अपनी दुकान में रोकना शामिल था।

सदोष कारावास से सदोष अवरोध किस प्रकार भिन्न है

भारतीय दंड संहिता की धारा 340 के अनुसार, यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो कोई भी किसी व्यक्ति को इस तरह से रोकता है कि वह उस व्यक्ति को निश्चित सीमा से आगे बढ़ने नहीं देता, तो इसे ‘उस व्यक्ति को सदोष तरीके से सीमित करना’ कहा जाता है। भारतीय दंड संहिता, 1860 सदोष कारावास को परिभाषित करता है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, सदोष अवरोध के अपराध की तुलना में, सदोष कारावास एक गंभीर अपराध है। सदोष कारावास बताता है कि एक व्यक्ति को एक सीमित क्षेत्र से आगे बढ़ने से गलत तरीके से रोका गया है। किसी को गलत तरीके से कैद करने का अपराध गठित करने के लिए, जो व्यक्ति पीड़ितों को उनकी निजी स्वतंत्रता से वंचित करता है, उसे स्वेच्छा से उस व्यक्ति को कैद करने की जरूरत है। ऐसे में जबरदस्ती काम नहीं आती है। दूसरा, जिस व्यक्ति ने अपराध किया है उसे पीड़िता को उस सीमा से आगे बढ़ने से रोकना चाहिए जो उसने अपने पीड़ितों को दी है।

निष्कर्ष

संक्षेप में, सदोष अवरोध और सदोष कारावास के बीच एक छोटा सा अंतर है। दोनों को एक दूसरे से अलग करने वाली महीन रेखा यह है कि सदोष कारावास का अर्थ है किसी को प्रत्येक दिशाओं में कहीं भी जाने से रोकना जबकि सदोष अवरोध का अर्थ है किसी के आने-जाने को केवल एक दिशा से रोकना। किसी के साथ सदोष अवरोध का अपराध करना जमानती, संज्ञेय है और अपराधी पर किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा मुकदमा (ट्रायल) चलाया जा सकता है। धारा 341 के तहत सदोष अवरोध के लिए सजा का उल्लेख किया गया है और धारा में कहा गया है कि अपराधी को जुर्माना देना होगा जिसे 500 रुपये तक बढ़ाया जा सकता है या जेल की अवधि का सामना करना पड़ सकता है जिसे एक महीने तक बढ़ सकता है या दोनों हो सकता है।

संदर्भ 

 

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