मध्यस्थता प्राधिकरण का अधिकार क्षेत्र

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Arbitration and Conciliation Act

यह लेख Iffat Khan के द्वारा लिखा गया है जो कि लखनऊ विश्वविद्यालय में एल एल. बी की छात्रा हैं और लॉसीखो से एडवांस्ड कान्ट्रैक्ट ड्रैफ्टिंग , निगोशीऐशन एण्ड डिस्प्यूट रेसोल्यूशन में डिप्लोमा कर रही है। यह लेख प्रासंगिक मामलो के साथ मध्यस्थता (आर्बिट्रैशन) और सुलह  (कन्सिलीऐशन) अधिनियम, 1996 की धारा 16 के विभिन्न पहलुओं से संबंधित है। इस लेख का हिन्दी अनुवाद Krati Gautam द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय

शब्द “मध्यस्थ” (आर्बिट्रेटर) और “मध्यस्थता न्यायाधिकरण” (आर्बिट्रेशन ट्राइब्यूनल) विनिमेय (इन्टर्चेन्जेबल) हैं और एक ही अधिकारी / व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह की ओर संकेत करते हैं। मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 पक्षों को विवाद को सुलझाने के लिए एकमात्र मध्यस्थ या मध्यस्थों के पैनल को नियुक्त करने की स्वतंत्रता देता है। मध्यस्थों की संख्या, उनकी योग्यता, मध्यस्थता का स्थान, मध्यस्थता न्यायाधिकरण के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) और अधिकार का दायरा, साथ ही मध्यस्थता की कार्यवाही के संचालन की प्रक्रिया, पक्षों द्वारा पारस्परिक रूप से तय की जाती है और करार (एग्रीमेंट) का निर्माण होता है।

मध्यस्थ न्यायाधिकरण  का कोई अंतर्निहित (इन्हेरन्ट) अधिकार क्षेत्र नहीं है। बल्कि, मध्यस्थता के माध्यम से किसी विशेष विवाद को तय करने के लिए पक्षों के बीच हुए करार से इसका अधिकार क्षेत्र प्राप्त होता है। इस प्रकार, एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण  का अधिकार क्षेत्र किसी भी कानून से नहीं लिया गया है। यह पक्षों कि स्वायत्तता (औटोनोमी) का एक उच्च स्तर है। नतीजतन, मध्यस्थता न्यायाधिकरण  को अपने अधिकार क्षेत्र पर शासन करने की शक्ति प्राप्त है, और मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 16 में इसकी परिकल्पना की गई है। इसका संक्षेप में उल्लेख करने के बाद कि किस प्रकार के विवाद मध्यस्थता योग्य हैं, प्रासंगिक मामलो के साथ मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 16 की विभिन्न बारीकियों पर नीचे चर्चा की गई है।

विवादों की प्रकृति जिन्हें मध्यस्थता के लिए भेजा जा सकता है

कुछ मामलों को विशेष रूप से मध्यस्थता के लिए भेजे जाने से रोक दिया गया है। इस तरह के मामलों में एक कंपनी को बंद करना, दिवालिएपन (बैंकरप्ट्सी) की घोषणा, वैवाहिक विवाद, वसीयतनामा संबंधी विवाद, आपराधिक मामले या ऐसे मामले शामिल हैं जिन्हें स्पष्ट रूप से मध्यस्थता के दायरे से बाहर रखा गया है।

एक सावधानीपूर्वक तैयार किया गया मध्यस्थता करार मध्यस्थता न्यायाधिकरण  को न केवल अनुबंध में व्यक्त किए गए मामलों को तय करने की पूरी शक्ति देता है बल्कि अपकृत्य (टॉर्ट) और निष्पक्षता (इक्विटी) के दृष्टिकोण पर भी विचार करता है। सामान्यत: व्यक्तिगत अधिकार (राइट इन पर्सोनम) से जुड़े मामलों को मध्यस्थता के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है, और सार्वजनिक अधिकार (राइट इन रेम) से संबंधित मामलों को मध्यस्थता के लिए नहीं भेजा जा सकता है।

किसी मुद्दे को तय करने के लिए, मध्यस्थता न्यायाधिकरण  विवाद समाधान के लिए पक्षों द्वारा सहमत कानून का उपयोग करता है, या ऐसे किसी करार की अनुपस्थिति में, यह संबंधित परिस्थितियों के लिए उपयुक्त कानून को लागू करता है।

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 16

इस अधिनियम की धारा 16 के तहत दिए गए प्रावधानों को संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विधि आयोग मध्यस्थता नियमों के अनुच्छेद 23 के अनुसार तैयार किया गया है।

धारा 16 (1): अधिकार क्षेत्र तय करने की शक्ति

इसमे कहा गया है कि एक मध्यस्थता न्यायाधिकरण  अपने अधिकार क्षेत्र पर शासन करने के लिए सक्षम है। कॉम्पेटेन्ज़-कॉम्पेटेन्ज़ या कॉम्पिटेन्ज़ डे ला कॉम्पिटेन्ज़ का सिद्धांत मध्यस्थता न्यायाधिकरण  पर लागू होता है, यह मानते हुए कि कानून अपने अधिकार क्षेत्र पर शासन करने के लिए सक्षम है। यह मध्यस्थता की कार्यवाही में  न्यायिक हस्तक्षेप को कम करने का एक तरीका है। इस प्रकार, जहां एक पक्ष मध्यस्थ न्यायाधिकरण  के अधिकार क्षेत्र के रूप में एक प्रश्न उठाता है, वह स्वयं न्यायाधिकरण  के समक्ष आवेदन करेगा, और न्यायाधिकरण  ऐसी याचिका को स्वीकार या अस्वीकार करेगा।

अधिनियम की धारा 16 की उप-धारा (1) भी मध्यस्थ न्यायाधिकरण  को मध्यस्थता करार के अस्तित्व या वैधता के संबंध में आपत्तियों पर निर्णय लेने का अधिकार देती है। धारा 16 (1) के तहत शक्तियाँ विवेकाधीन श्रेणी में हैं, क्योंकि इसमें “शासन कर सकता है” अभिव्यक्ति है, जिसका अर्थ है कि मध्यस्थ न्यायाधिकरण  इस शक्ति का प्रयोग अपने प्रस्ताव पर या किसी पक्ष के अनुरोध पर कर सकता है।

इसके अलावा, मध्यस्थता करार की वैधता निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित दो बातें निर्दिष्ट की गई हैं: –

  1. जहां एक मध्यस्थता खंड एक अनुबंध का हिस्सा बनता है, तो उक्त मध्यस्थता खंड को एक स्वतंत्र करार माना जाएगा। एक मध्यस्थता खंड, एक अनुबंध का हिस्सा होने के दौरान, अनुबंध की अन्य शर्तों से स्वतंत्र हो जाता है।
  2. जहां मध्यस्थता न्यायाधिकरण  किसी अनुबंध को अक्षम (नल) और शून्य घोषित करता है, तो उस अनुबंध में निहित मध्यस्थता खंड अपने आप में अमान्य नहीं होता है।

इस प्रकार, अनुबंध की अमान्यता स्वचालित रूप से मध्यस्थता करार को अमान्य नहीं करेगी।

धारा 16 (2): अधिकार क्षेत्र पर आपत्ति

यह उप धारा दो प्रावधान प्रदान करती है:

  1. यदि कोई पक्ष मध्यस्थता न्यायाधिकरण   के अधिकार क्षेत्र के संबंध में कोई आपत्ति उठाना चाहता है, तो ऐसी आपत्ति पहली बार में उठाई जाएगी, अर्थात, बचाव के बयान को प्रस्तुत करने से पहले या साथ में, लेकिन बाद में नहीं।
  2. एक मध्यस्थ की नियुक्ति या नियुक्ति में भाग लेने वाला पक्ष इस तरह की आपत्ति उठाने के अधिकार से वंचित नहीं है।

यूपी राजकीजा निर्माण निगम लिमिटेड बनाम इंदुर ( प्राइवेट ) लिमिटेड (1996) के मामले में, यह देखा गया था कि एक पक्ष केवल इसलिए याचिका/आपत्ति करने के अधिकार क्षेत्र से प्रतिबंधित नहीं होगा क्योंकि वह मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए एक पक्ष था। 

धारा 16 (3): अधिकार के दायरे से बाहर होने पर याचिका

इस उप-धारा में कहा गया है कि जैसे ही किसी कथित मामले को यह माना जाता है कि वह मध्यस्थता न्यायाधिकरण के अधिकार के दायरे से बाहर है और उसे मध्यस्थता की कार्यवाही के दौरान उठाया जाता है, यह दलील कि कथित मामला मध्यस्थता न्यायाधिकरण  के दायरे से बाहर है उसे वहीं उसी व्यक्त उठाया जाना चाहिए। 

धारा 16 (4): विलंब के लिए माफी देना

धारा 16 की उप-धारा (4) न्यायाधिकरण  को धारा 16 (2) के अधिकार छेत्र के खिलाफ याचिका को उठाने में देरी को माफ करने के साथ-साथ धारा 16 (3) के तहत मध्यस्थता न्यायाधिकरण  द्वारा प्राधिकरण के दायरे को बढ़ाने  की याचिका के लिए सक्षम करने के लिए है। दूसरे शब्दों में, यह मध्यस्थता न्यायाधिकरण  को विलंबित याचिका को स्वीकार करने का अधिकार देता है यदि मध्यस्थता न्यायाधिकरण  मानता है कि देरी का कारण उचित था।

एस.एन मल्होत्रा ​​एंड संस बनाम एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया और अन्य (2008), में यह देखा गया कि यदि देरी उचित नहीं है, तो न्यायाधिकरण  ऐसी याचिका को खारिज कर सकता है।

धारा 16(5): धारा 16(2) या 16(3) के तहत याचिका पर फैसला और आगे की कार्यवाही

यह उप-धारा मध्यस्थता न्यायाधिकरण   को धारा 16 (2) या 16 (3) के तहत उठाई गई याचिका पर निर्णय लेने के लिए बाध्य करती है। इसमें आगे कहा गया है कि अगर दोनों में से किसी भी दलील को खारिज कर दिया जाता है, तो मध्यस्थता न्यायाधिकरण  को मध्यस्थता की कार्यवाही जारी रखनी चाहिए और अंतिम निर्णय की घोषणा करनी चाहिए।

ओडिशा राज्य सड़क परिवहन (ट्रांसपोर्ट) बनाम आरएसएस बस टर्मिनल प्राइवेट लिमिटेड (2021), में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने देखा कि धारा 16(5) यह निर्धारित करती है कि एक बार मध्यस्थता न्यायाधिकरण  अपने अधिकार क्षेत्र में चुनौती को खारिज कर देता है, तो वह मध्यस्थता की कार्यवाही जारी रख सकता है और एक अधिनिर्णय (अवॉर्ड) दे सकता है और पीड़ित पक्ष को उस अधिनिर्णय को चुनोती देने के लिए अंत तक इंतजार करना पड़ता है।

श्रीमती आरती धर बनाम श्री एस.के. दत्ता (2002) के मामले में, न्यायालय ने कहा कि अधिकार छेत्र का प्रश्न मामले के अंत तक जाता है और अंतिम निर्णय प्रस्तुत करने से पहले इसे तय किया जाना चाहिए। इस मामले में न्यायालय ने कोंकण रेलवे कॉर्पोरेशन बनाम रानी कंस्ट्रक्शन (प्राइवेट लिमिटेड)(2002) के मामले का भी हवाला दिया था।

धारा 16 (6): एक मध्यस्थ अधिनिर्णय के खिलाफ उपाय

धारा 16 की अंतिम उप-धारा उस पक्ष को उपाय प्रदान करती है जो कि उप-धारा (5) के अनुसार एक अधिनिर्णय से पीड़ित है। यह पीड़ित पक्ष को उक्त मध्यस्थता निर्णय को रद्द करने के लिए धारा 34 के अनुसार एक आवेदन दायर करने का विकल्प देता है और निर्णय दिए जाने के बाद ही यह प्रावधान उपलब्ध है, और धारा 16 (2) या 16 (3) के तहत पक्ष अपनी याचिका की अस्वीकृति के आधार पर सीधे अपील दायर नहीं कर सकते है।

इस प्रकार, जहां धारा 16(2) या 16(3) के तहत याचिका खारिज कर दी जाती है और एक मध्यस्थ अधिनिर्णय पारित किया जाता है, तो दोनों पक्ष अंतिम अधिनिर्णय को चुनौती दे सकते हैं, लेकिन वे अधिनियम की धारा 16(2) और 16(3) के तहत याचिका की अस्वीकृति की अपील नहीं कर सकते है इसका कारण यह है कि इस तरह के अस्वीकृति के आदेश को अंतरिम (इंटेरिम) आदेश माना जाता है न कि अंतरिम अधिनिर्णय। हालांकि, अगर धारा 16(2) या 16(3) के तहत याचिका को मध्यस्थ न्यायाधिकरण  द्वारा अनुमति दी जाती है और कार्यवाही समाप्त कर दी जाती है, तो पक्ष अधिनियम की धारा 37 के तहत अपील कर सकते हैं। धारा 37 कुछ विशिष्ट आदेशों का प्रावधान करती है जिनमे अपील की जा सकती है। 

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 16 से संबंधित प्रासंगिक मामले 

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 16 से संबंधित कुछ प्रासंगिक कानूनी मामलों की चर्चा इस प्रकार है:

भारत संघ बनाम ईस्ट कोस्ट बोट बिल्डर्स एंड इंजीनियर्स लिमिटेड (1998)

इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि मध्यस्थता न्यायाधिकरण आदिखर छेत्र को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर देता है, तो न्यायालय उस स्तर पर हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। अंतिम मध्यस्थ अधिनिर्णय की घोषणा के बाद पक्षों के लिए उपलब्ध एकमात्र उपाय होता है।

मेसर्स उत्तम सिंह दुगल बनाम मेसर्स हिंदुस्तान स्टील लिमिटेड (1981)

इस मामले में, यह निर्णय दिया गया था कि अधिकार छेत्र के प्रश्न पर निष्कर्ष अंतरिम अधिनिर्णय नहीं है क्योंकि विवाद के किसी भी भाग का निर्णय नहीं किया गया है। इस प्रकार, इस तरह का निष्कर्ष अपील के योग्य नहीं है।

एस.बी.पी. एंड कंपनी बनाम पटेल इंजीनियरिंग लिमिटेड और अन्य (2005)

इस मामले में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि पीड़ित पक्ष के पास उपलब्ध उपाय अधिनियम की धारा 34 या धारा 37 के अनुसार अधिनिर्णय को चुनौती देना है। धारा 34 तब काम में आती है जब अधिकार क्षेत्र के खिलाफ आवेदन खारिज कर दिया जाता है और मध्यस्थता की कार्यवाही परिस्थिति के अनुसार पूरी हो जाती है, और धारा 37 अपील के लिए प्रदान करती है जब अधिकार क्षेत्र को चुनौती देने वाले आवेदन की अनुमति दी जाती है।

एस.एन. मल्होत्रा ​​एंड संस बनाम भारतीय एयरपोर्ट प्राधिकरण और अन्य (2008)

यह मामला आपत्ति के अधिकार की छूट से संबंधित है और इस पर चर्चा की गई है:

मामले का मुद्दा

क्या अधिकार क्षेत्र के बारे में आपत्ति को धारा 34 के तहत पहली बार उठाने की अनुमति दी जा सकती है यदि इसे मध्यस्थ के समक्ष नहीं उठाया गया था?

विचार 

विधायिका का इरादा था कि धारा 16 (2) या 16 (3) के तहत याचिका जल्द से जल्द उठाई जानी चाहिए और बाद में इस पर विचार नहीं किया जा सकता है। धारा 16 (4) के तहत विलंब को माफ करने का विवेक केवल तभी उपलब्ध होता है जब इस तरह के विलंब का कारण उचित हो। यदि देरी को मध्यस्थता न्यायाधिकरण  द्वारा उचित नहीं माना जाता है, तो यह अधिकार क्षेत्र या प्राधिकरण के दायरे के संबंध में आपत्ति को स्वीकार नहीं कर सकता है।

इस प्रकार, यदि किसी पक्ष को किसी अनियमितता (इरेगुलेरिटी) का ज्ञान है और वह समय सीमा के भीतर आपत्ति उठाए बिना मध्यस्थता के लिए आगे बढ़ता है, तो यह माना जाएगा कि उसने उस शिकायत को उठाने का अधिकार छोड़ दिया है।

निष्कर्ष

हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि मध्यस्थ न्यायाधिकरण अपने अधिकार क्षेत्र और अधिकार के दायरे पर निर्णय लेने की शक्ति से निहित है। वह अपने अधिकार क्षेत्र और प्राधिकरण के दायरे पर निर्णय लेने की शक्ति रखता है। इस संबंध में न्यायाधिकरण  के निर्णय को अंतरिम आदेश माना जाता है न कि अंतिम अधिनिर्णय; इस प्रकार, जहां उक्त आवेदन की अनुमति है, पक्ष अधिनियम की धारा 37 के तहत अपील कर सकते हैं; जब याचिका खारिज कर दी जाती है, तो न्यायाधिकरण   कार्यवाही फिर से शुरू करने का हकदार होता है, और पीड़ित पक्ष को अंतिम निर्णय की घोषणा तक इंतजार करना पड़ता है। कार्यवाही के शीघ्र निपटान का विधायी इरादा धारा 5 की व्याख्या करके प्राप्त किया जा सकता है जो न्यायिक अधिकारियों को मध्यस्थता की कार्यवाही के दौरान हस्तक्षेप करने से रोकता है, सिवाय इसके कि अधिनियम के तहत अन्यथा प्रदान किया गया हो।

संदर्भ

  • Avtar Singh, Law of Arbitration and Conciliation (11th Edition), EBC.

 

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