आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 313 

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Criminal Procedure Code
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यह लेख लॉसिखो के इंटर्न Indrasish Majumdar द्वारा लिखा गया है। इस लेख को Ruchika Mohapatra (एसोसिएट, लॉसिखो) और Arundhati Das (लॉसिखो में इंटर्न) द्वारा एडिट किया गया है। इस लेख में आपराधिक प्रिक्रिया संहिता 1973 की धारा 313 पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है। 

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सी.आर.पी.सी. की धारा 313: अर्थ और व्याख्या

आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 313 अदालत को आरोपी के खिलाफ पेश किए गए साक्ष्यों के संबंध में जांच करने की शक्ति प्रदान करती है। यह नैसर्गिक (नेचुरल) न्याय के सिद्धांतों, अर्थात ‘ऑडी अल्टरम पार्टेम’ के अनुरूप है। यह धारा आरोपी के लिए निष्पक्ष सुनवाई के मूल सिद्धांत को भी शामिल करती है। हालांकि, आरोपी द्वारा दिए गए बयान का इस्तेमाल पूरी तरह से आरोपी की दोषसिद्धि के लिए या उसे कोई फायदा देने के लिए नहीं किया जा सकता है। आरोपी द्वारा दिया गया बयान, बिना किसी शपथ के रिकॉर्ड किया जाता है और इसलिए, उसे साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, आरोपी से जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन) भी नहीं की जा सकती है। 

धारा में प्रयुक्त ‘साक्ष्य’ शब्द को संहिता में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। इसे भारतीय साक्ष्य अधिनियम में परिभाषित किया गया है। धारा 313 (a) में ‘कर सकता है’ के प्रयोग से पता चलता है कि कैसे आरोपी कोई चिंता का विषय नहीं उठा सकता, भले ही न्यायालय ने उससे सवाल न करने का फैसला किया हो। हालांकि, धारा 313 (b) में शब्द ‘करेगा’ की उपस्थिति से पता चलता है कि गवाहों की जांच के बाद आरोपी से पूछताछ करना अनिवार्य है। और ऐसा न करने के परिणामस्वरूप आरोपी के अधिकारों का उल्लंघन होता है। इसलिए, मुख्य जोर इस चीज पर दिया जाना चाहिए की आरोपी का ध्यान हर उस सबूत पर आकर्षित होना चाहिए, जिसे उसके खिलाफ इस्तेमाल किए जाने की संभावना है और उसे इसके लिए स्पष्टीकरण देने का उचित मौका दिया जाना चाहिए। आरोपी से पूछे गए प्रश्न निष्पक्ष, उचित और आसानी से समझने योग्य होने चाहिए।

इसके अलावा, पूछे गए प्रश्न पूरे मामले से संबंधित होने चाहिए न कि किसी विशिष्ट भाग से। आरोपी द्वारा दिए गए उत्तर उसकी सजा का एकमात्र आधार नहीं हो सकते हैं, उनका उपयोग केवल अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) साक्ष्य के गुड़ जानने के लिए किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, धारा 313(5) भी आरोपी को धारा के पर्याप्त अनुपालन (कंप्लायंस) के रूप में एक लिखित बयान दर्ज करने का अवसर प्रदान करती है।

कभी-कभी, ऐसा होता है कि अपीलीय न्यायालय को बाद में पता चलता है कि एक महत्वपूर्ण प्रश्न जो मामले के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण था, वह पहली जगह में छूट गया था। उसी की चूक अपने आप में अदालत के आदेश को रद्द नहीं करेगी। अदालत को इसके बजाय एक उपाय के साथ आने की कोशिश करनी चाहिए, जो आदेश को सही करे। इसके अलावा, यह न्यायालय की जिम्मेदारी है कि वह आरोपी के सामने ऐसे सभी तथ्य और परिस्थितियों को लाए, जिनका इस्तेमाल उसके खिलाफ किया जा सकता है। ऐसे तथ्यों और परिस्थितियों को आरोपी को सूचित करना केवल एक औपचारिकता (फॉर्मेलिटी) नहीं है बल्कि यह नैसर्गिक न्याय के एक महत्वपूर्ण सिद्धांत का प्रतीक भी है।  

सी.आर.पी.सी. की धारा 313 का दायरा और उद्देश्य

इस धारा का मूल उद्देश्य आरोपी को सुनवाई का उचित अवसर प्रदान करना है। अक्सर, आरोपी या तो एक निरक्षर (इलिट्रेट) व्यक्ति होता है या कोई ऐसा व्यक्ति जिसे निष्पक्ष सुनवाई के अपने अधिकार के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती है। इसलिए, जैसा कि शब्द से परिलक्षित (रिफ्लेक्ट) होता है, “इसका उद्देश्य, आरोपी को व्यक्तिगत रूप से उसके खिलाफ पेश किए गए साक्ष्य में आने वाली किसी भी परिस्थिति को समझाने के लिए सक्षम बनाना है”। इस धारा को लाने के पीछे सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य, आरोपी और अदालत के बीच एक कड़ी स्थापित करना है।

इसके अलावा, यदि निचली अदालत आरोपी को स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने का उपयुक्त अवसर प्रदान करने में विफल रहती है, तो उच्च न्यायालय ऐसी परिस्थितियों में प्रश्न की वैधता से इनकार कर सकता है। इसके अलावा, धारा 313 (1) (b) में शब्द ‘आम तौर पर’ की उपस्थिति इस धारा के दायरे को प्रश्नों की एक विशेष संख्या या प्रश्नों की एक निश्चित प्रकृति तक सीमित नहीं करती है। यदि आवश्यक हो तो प्रश्न पूरे मामले या किसी विशिष्ट भाग से संबंधित होने चाहिए। यदि आवश्यक हो तो ऐसे प्रश्नों में स्पष्टीकरण भी होना चाहिए, ताकि आरोपी उन्हें बेहतर ढंग से समझ सकें। एक से अधिक गवाहों के मामलों में, अदालत को प्रत्येक गवाह से अलग प्रश्न पूछने की आवश्यकता नहीं होती है। अदालत इन गवाहों में से प्रत्येक के बयानों को मिला सकती है और एक प्रश्न बना सकती है। सबसे महत्वपूर्ण बात, यह आरोपी को सूचित किया जाना चाहिए कि उसके बयानों का इस्तेमाल उसके खिलाफ निचली अदालत में किया जा सकता है। ऐसे में उसे इसके बारे में जागरूक किया जाना चाहिए। 

ऐसे मामले होते हैं, जिनमें आरोपी, अपनी अति आवश्यक परिस्थितियों के कारण, प्रश्नों का उत्तर देने के लिए निचली अदालत के समक्ष शारीरिक रूप से उपस्थित रहने में विफल रहता है। ऐसे मामलों में, उसे निम्नलिखित बिंदुओं की पुष्टि करते हुए एक हलफनामे (एफिडेविट) के साथ न्यायालय के समक्ष एक आवेदन दायर करना होता है: – 

  1. ऐसे तथ्य जो अदालत के समक्ष शारीरिक रूप से उपस्थित न होने का कारण बताते हैं। 
  2. आरोपी की ओर से आश्वासन, कि दी गई परिस्थितियों में उसे कोई नुकसान नहीं होगा। 
  3. एक उपक्रम (अंडरटेकिंग), जो उसे अदालत के अंतिम निर्णय के लिए बाध्य करता है और वह उस पर सवाल नहीं उठाएगा। 

इसलिए, साल भर की घटनाओं की श्रृंखला को देखते हुए, धारा 313 ने विकास देखा है। धारा का प्राथमिक हित आरोपी को उसके खिलाफ इस्तेमाल किए जा सकने वाले हर साक्ष्य के बारे में जागरुक करना है। इसलिए, यह आरोपी के लाभ के लिए बनाया गया है जिससे उसे अदालत के समक्ष खुद को सही ठहराने की अनुमति मिल सके।

इस संहिता के लिए निचली अदालत को पूरे मामले का आकलन (एसेस) और जांच करने की आवश्यकता है। आरोपी के खिलाफ मुकदमे में केवल ऐसी जानकारी और परिस्थितियों का इस्तेमाल किया जा सकता है, जिसके बारे में उसे अवगत कराया गया है, और किसी अन्य जानकारी का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। इस प्रकार, स्पष्ट रूप से, यह धारा आरोपी को निष्पक्ष सुनवाई का उचित अवसर प्रदान करने के लिए है।

धारा के तहत प्रदान की गई प्रक्रिया: प्रासंगिकता (रिलेवेंस) का तत्व

संहिता की धारा 313(1) को सामान्य तौर पर पढ़ने से, यह व्याख्या की जा सकती है कि अदालत के पास जांच के किसी भी स्तर पर, आरोपी को कोई चेतावनी दिए बिना उससे पूछताछ करने की शक्ति या विवेक है। विवेक/शक्ति को उप-खंड (a) में “कर सकता है” के उपयोग से देखा जा सकता है, जबकि उप-खंड (b) आरोपी से प्रश्न करने को अनिवार्य बनाता है क्योंकि इसमें “सकेगा” शब्द का उपयोग किया गया है। 

धारा 313(3) यह सुझाव देती है कि यदि आरोपी, उक्त प्रावधानों के तहत न्यायालय द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर नहीं देता है या यदि उनका गलत उत्तर देता है तो यह आरोपी को उत्तरदायी नहीं ठहराएगा। उपधारा (1) के तहत आरोपी की परीक्षा के दौरान दिए गए उत्तरों को साक्ष्य में रखा जा सकता है और इस बात को ध्यान में रखा जा सकता है कि इन साक्ष्यों का उपयोग जांच में या विचारण (ट्रायल) के दौरान, आरोपी के लिए या उसके खिलाफ किया जा सकता है, वो भी उस अपराध के लिए जो आरोपी के द्वारा दिए गए जवाब से जाहिर होते है।

आरोपी से पूछताछ करते समय अस्पष्टता की कोई गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए अर्थात प्रश्न स्पष्ट, तार्किक (लॉजिकल) और समझने योग्य होना चाहिए। आरोपी की जांच करते समय, सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक (अकैडमिक) योग्यता और आरोपी के प्रश्न को समझने की क्षमता पर अदालत को विचार करना चाहिए। निरक्षर और अशिक्षित प्रतिवादियों की जांच करते समय निचली अदालत को उच्च स्तर की सावधानी बरतनी चाहिए। 

“दोषी ठहराने वाली सामग्री को आरोपी के पास रखा जाना चाहिए ताकि आरोपी को अपना बचाव करने का उचित मौका मिले। यह ऑडी अल्टरम पार्टेम के सिद्धांतों की मान्यता में है।” इस धारा का उद्देश्य आरोपी व्यक्ति को उसके खिलाफ की गई किसी भी आपत्तिजनक परिस्थिति को समझाने और अपनी बेगुनाही साबित करने का मौका देना है। इसलिए, इस प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए ताकि धारा के उद्देश्य को पूरा किया जा सके। सी.आर.पी.सी. की धारा 313 में कहीं भी वह तरीका नहीं बताया गया है जिससे आरोपी से पूछताछ की जाएगी। फिर भी, सर्वोच्च न्यायालय का हमेशा यह विचार रहा है कि निचली अदालतों को प्रत्येक प्रासंगिक भौतिक (मैटेरियल) स्थिति की देखभाल करनी चाहिए जो आरोपी के खिलाफ साक्ष्य के रूप में प्रकट होती है, ताकि आरोपी को साक्ष्य में प्रकट किसी भी स्थिति का बचाव करने में सक्षम बनाया जा सके और आरोपी को यह बताने का मौका दिया जा सके कि आरोपी अभियोजन के मामले के संबंध में क्या कहना चाहता है। प्रत्येक भौतिक परिस्थिति जिसका उपयोग उसके खिलाफ किया जाता है, उसके बारे में आरोपी से व्यक्तिगत रूप से पूछताछ की जानी चाहिए। प्रश्नों को इस तरह से बनाया जाना चाहिए कि उन्हें निरक्षर या अज्ञानी लोगों द्वारा भी आसानी से समझा जा सके।

इस प्रकार, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि धारा 313 आरोपी और अदालत के बीच सीधी बातचीत स्थापित करने के लिए एक कड़ी है, ताकि आरोपी को उसके सामने रखी गई सभी परिस्थितियों को समझाने में सक्षम बनाया जा सके और यह, कुछ समय के लिए वकील, गवाह, अभियोजक और मामले से संबंधित अन्य सभी व्यक्तियों को अलग रख दे। 

धारा 313 के तहत आरोपी की जांच करते समय निम्नलिखित बातों पर विचार करने की आवश्यकता है: 

  1. इस धारा के तहत दिए गए बयानों का साक्ष्य मूल्य नहीं है, और इसमें आरोपी को सजा नहीं दी जाती है, भले ही उसने सवालों का गलत जवाब दिया हो। 
  2. आरोपी को चुप रहने का अधिकार है और उसे बोलने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। आरोपी पूछे गए प्रश्न का उत्तर देने या उत्तर देने से इंकार करने के लिए स्वतंत्र है।
  3. सी.आर.पी.सी. की धारा 313 की भाषा आसानी से समझ में आने वाली है ताकि यह धारा के उद्देश्य के लिए गलतफहमी के लिए कोई जगह न छोड़े। 
  4. पूछे जाने वाले प्रश्न का दायरा और उद्देश्य सीमित है यानी धारा का उद्देश्य आरोपी को उन परिस्थितियों को समझाने में सक्षम बनाना है, जो उसके खिलाफ साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल की जा रही हैं। आरोपी से प्रश्न करना न्यायालयों का वैधानिक दायित्व है, जबकि आरोपी पर कोई दायित्व नहीं है की वह उनका उत्तर दे।
  5. आरोपी से पूछताछ करते समय कोई भी तथ्य जो उसे दोषी ठहराने वाला या महत्वपूर्ण है, जिसके परिणामस्वरूप अन्याय या पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस) हो सकता है, उसे नहीं छोड़ा जाएगा। इस तरह के किसी भी तथ्य का उपयोग आरोपी के खिलाफ नहीं किया जा सकता है अगर उसे पूछताछ के दौरान छोड़ दिया जाता है। 
  6. बहरे और गूंगे आरोपी की जांच करते समय उचित सावधानी बरतनी चाहिए। अदालत एक दुभाषिया (इंटरप्रेटर) या किसी ऐसे व्यक्ति की मदद लेने के लिए बाध्य है जो आरोपी द्वारा किए गए कार्य की आपराधिक प्रकृति को जानने के लिए आरोपी के संकेतों को समझ सकता है, चाहे आरोपी बहरा हो या गूंगा हो।

धारा 313 का गहन विश्लेषण

हालांकि यह सच है कि पिछले कुछ वर्षों में, त्वरित (स्पीडी) और निष्पक्ष सुनवाई के लिए आरोपी के अधिकारों को काफी लोकप्रियता मिली है, लेकिन आरोपी के लिए बेहतर स्थिति बनाने के बारे में समग्र जागरूकता, जो उसे एक उचित माहौल में जांच करने की अनुमति देती है, वह अभी भी प्रश्न में है। दुर्भाग्य से, आरोपी के अधिकारो को बनाने की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए न्यायपालिका और संसद का केवल ‘थोड़ा ध्यान’ ही आकर्षित हुआ है। घोर अन्याय को ध्यान में रखते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया है कि अभियोजन के विशेषाधिकार और आरोपी के अधिकारों के बीच एक संतुलन बनाया जाना चाहिए।

मौन रहने का अधिकार: आपराधिक न्यायशास्त्र में अपरिभाषित क्षेत्र

सी.आर.पी.सी. की धारा 313 में वर्णित “मौन रहने का अधिकार” अदालतों को जांच के दौरान उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों पर, आरोपित या गवाहों से पूछताछ करने के लिए अधिकृत करता है, चाहे वह उसके पक्ष में हो या खिलाफ। धारा 313(2) पुष्टि करती है कि आरोपी इस धारा के तहत बयान देते समय शपथ लेने के लिए बाध्य नहीं है। इसलिए, उसे धारा 313 के तहत दिए गए किसी भी बयान के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। यह धारा आरोपी की सहायता करते हुए, उसे दोषी ठहराने वाले किसी भी साक्ष्य को स्वीकार या अस्वीकार करके, उस पर उचित स्पष्टीकरण देने का अवसर प्रदान करती है, इससे पहले कि ऐसे साक्ष्य को उसके खिलाफ न्यायालय में आयोजित किया जाए, इस धारा में यह भी कहा गया है कि दिए गए उत्तरों को अदालत द्वारा साक्ष्य के रूप में माना जा सकता है, यदि अभियोजन पक्ष स्वयं एक ठोस मामला बनाने में सक्षम होता है, और अनुच्छेद 20 (3) के तहत आरोपी के अधिकार का उल्लंघन नहीं किया गया है। इसलिए, आरोपी को फिर भी सावधान रहना चाहिए कि वह क्या कह रहा है और अगर उसे लगता है कि साक्ष्य उसे दोषी ठहरा सकता है तो उसे चुप रहना चाहिए।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत निहित, अधिकार अक्सर निर्णय (प्रह्लाद बनाम राजस्थान राज्य) में दिए गए अनुपात से कमजोर हो जाता है, जो खुद को दोषी ठहराने के खिलाफ आरोपी के अधिकार को सुरक्षित रखता है। मौन रहने का अधिकार अधिकांश देशों में न्यायपालिका द्वारा मान्यता प्राप्त एक महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकार है। धारा 313 की न्यायिक व्याख्याओं को रेखांकित करने के अलावा इस अनुच्छेद का निम्नलिखित खंड इसके निर्माताओं के विधायी इरादे के आलोक में इस तरह की प्रथा की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) और वैधता का फैसला लेता है।

प्रह्लाद बनाम राजस्थान राज्य 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले में, प्रह्लाद बनाम राजस्थान राज्य, दिनांक 14/12/2018, एक हत्या की सजा को बरकरार रखा गया था क्योंकि प्रतिवादी, उनके खिलाफ दोष लगाने वाले साक्ष्य के लिए उचित स्पष्टीकरण प्रदान करने में असमर्थ थे। इस मामले में आठ साल की बच्ची के साथ बलात्कार कर, उसकी हत्या कर दी गई थी। इस मामले में आरोपी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप मे पहचाना गया था, जिसने उस बच्ची के लिए मिठाई की दुकान से मिठाई खरीदी थी और जिसके बाद पीड़िता नजर नहीं आई। मिठाई की दुकान पर आखिरी बार देखे जाने के एक दिन बाद लड़की के कटे शव का पता चला। सत्र न्यायालय ने आई.पी.सी. (भारतीय दंड संहिता) की धारा 302 और पोक्सो अधिनियम की धारा 4 के तहत आरोपी के खिलाफ आरोप तय किए। जबकि निचली अदालत और उच्च न्यायालय द्वारा दोषसिद्धि को बरकरार रखा गया था, शीर्ष अदालत ने अपर्याप्त साक्ष्यों के कारण उन्हें पॉक्सो के तहत आरोपों से मुक्त कर दिया था, लेकिन उन्हें धारा 302 के तहत हत्या का दोषी ठहराया था। इस मामले में, दोषसिद्धि, मुख्य रूप से आरोपियों को दोषी ठहराने वाली परिस्थितियों को सही से ना समझाने के कारण, निकाले गए अनुमानों पर आधारित थी। हालाँकि, किसी को उसकी मौन रहने के आधार पर दोषी ठहराना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के तहत आरोपी के अधिकार को निरस्त कर देता है, जिसमें लिखा है कि “किसी भी आरोपी व्यक्ति को अपने खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है”। यह निर्णय, सी.आर.पी.सी. की धारा 313 के तहत, आरोपी के मौन रहने के कारण उत्पन्न होने वाले विपरीत अनुमानों पर उसकी दोषसिद्धि की एक मिसाल (प्रिसिडेंट) का मार्ग प्रशस्त करता है।

विपरीत अनुमान निकालना (न्यायशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य (ज्यूरिस्प्रूडेंशियल पर्सपेक्टिव))

धारा 313 के तहत पूछताछ करते हुए आरोपी के मौन रहने के खिलाफ विपरीत अनुमान निकाले जाने पर, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई मामलों में इस पर विचार-विमर्श किया गया है। उचित न्याय पाने में आरोपी के अधिकार को खतरे में डालने के अलावा “मौन रहने के अधिकार” के संबंध में विवाद, कानून लागू करने वालो और निर्णय सुनाने वालो के कार्य में बाधा डालता है। अदालत आरोपी के मौन रहने से विपरीत अनुमान निकालने या न निकालने के संबंध में अपने रुख में उतार-चढ़ाव करती रही है। रामनरेश और अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य में यह निर्देश दिया गया था कि जब तक कि कानून में साक्ष्य स्वीकार्य होंगे तब तक अदालत को आरोपी के मौन रहने पर विपरीत या अन्यथा अनुमान निकालने की अनुमति दी जा सकती है। अदालत को इस तरह के बयानों के आधार पर आरोपी के पक्ष में या उसके खिलाफ अनुमान निकालने की अनुमति दी गई थी। अनुच्छेद 20(3) के तहत उल्लिखित “मौन रहने के अधिकार” का उल्लंघन उस प्रक्रिया में नहीं होता है, जिस प्रक्रिया में अदालत अपना फैसला सुनाती है। मुनीश मुबारक बनाम हरियाणा राज्य के मामले में, आरोपी के लिए खुद से जुड़ी परिस्थितियों का जवाब देना अनिवार्य कर दिया गया था, भले ही यह उसके संबंध में विपरीत अनुमानों का मार्ग प्रशस्त कर सके। 

बरेंद्र सिंह बनाम एम.पी. राज्य में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अभियोजन पक्ष द्वारा आगे के विचारण में आरोपी के मौन रहने से, प्रकृति में विपरीत अनुमानों का इस्तेमाल उसके खिलाफ किया जा सकता है, भले ही उसी मामले में उसके खिलाफ इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, लेकिन इसका उपयोग किसी अन्य विचारण में किया जा सकता है। राज कुमार सिंह और राजू बनाम राजस्थान राज्य मे, अदालत ने निर्धारित किया कि “आरोपी के खिलाफ विपरीत अनुमान तभी लिया जा सकता है जब उसको दोषी ठहराने वाली सामग्री पूरी तरह से स्थापित हो और आरोपी उसके लिए कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने में सक्षम न हो।” हालाँकि, प्रह्लाद के फैसले ने राजकुमार सिंह की उक्ति (डिक्टम) को खारिज करते हुए कहा कि केवल आरोपी को दोषी ठहराने की हद तक ही विपरीत बयानों पर  भरोसा किया जा सकता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) में प्रदान किया गया है की “किसी भी व्यक्ति को अपने खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है”  अर्थात “खुद को दोषी ठहराने के खिलाफ अधिकार”। इस अधिकार के संबंध में तीन शर्तें लागू होती हैं: 

  1. आरोपी की बेगुनाही का अनुमान, 
  2. दोष सिद्ध करने का दायित्व अभियोजन पर है, 
  3. आरोपी को उसकी इच्छा के विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा रहा है। 

हालाँकि, प्रह्लाद के फैसले में कहा गया था की, जबकि आरोपी को मौन रहने की अनुमति है, अगर इसका विस्तार किसी भी ऐसी परिस्थितियों तक होता है जो उसे दोषी ठहराती है, तो विपरीत अनुमान निकाले जा सकते हैं। धारा 313 और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) के बीच विवाद स्पष्ट है, जिसमें अभियोजन पक्ष को तथ्यों द्वारा आरोपी के अपराध को स्थापित करना है। अभियोजन पक्ष के बयानों के आधार पर दोषी ठहराना उचित प्रक्रिया के खिलाफ है, और अनुच्छेद 20 (3) के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने के अलावा, यह कानून लागू करने वालों के लिए न्याय के प्रशासन में बाधा डालता है।

धारा 313 के पीछे विधायी मंशा

विपरीत अनुमान निकालने के पीछे की विधायी मंशा, सी.आर.पी.सी. की धारा 313 और 1898 की संहिता की धारा 342 के बीच अंतर निकालकर, स्थापित की जा सकती है। जैसा कि 1898 कोड की धारा 342 (2) में कहा गया है, “आरोपी सवालों के जवाब देने से इनकार करके या उनके गलत जवाब देकर, खुद को सजा के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराएगा, लेकिन अदालत और जूरी (यदि कोई हो) इस तरह के इनकार या जवाब से ऐसा अनुमान लगा सकते हैं जैसा की उन्हें ठीक लगे।” 1972 में अधिनियमित “धारा 313”, 1898 की संहिता की धारा 342 के बाद के भाग को छोड़ देती है, “आरोपी ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने से इनकार करके, या उनके गलत उत्तर देकर खुद को दंड के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराएगा”। जैसा कि निहित है, 1972 की संहिता के निर्माताओं ने किसी भी दोषी ठहराने वाले साक्ष्य के संबंध में आरोपी के मौन रहने के खिलाफ अनुमान निकालने की परिकल्पना (एनवीसेज) नहीं की थी। “अनुच्छेद 20 के भाग 3” के अनुसमर्थन के बाद इरादे को और स्पष्ट किया गया था।

डीडी बसु ने एडमसन बनाम कैलिफोर्निया के मामले में असहमति की राय पर चर्चा करते हुए उल्लेख किया “यदि आप किसी आरोपी को उसके खिलाफ बयान देने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं, तो आप उसके खिलाफ कोई अनुमान नहीं निकाल सकते क्योंकि वह मौन रहता है, और क्योंकि यह स्पष्ट रूप से उसे मौन रहने के बजाय बोलने के लिए बाध्य करेगा। उन्होंने अतिरिक्त रूप से कहा कि किसी व्यक्ति की गवाही देने की अनिच्छा पर विपरीत अनुमान निकालना, उस व्यक्ति को अनुच्छेद 20 (3) के तहत अपने अधिकारों का प्रयोग करने की इच्छा के लिए दंडित करने के बराबर है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि परंतुक (प्रोविजो) का विधायी आशय कानून लागू करने वालों या आरोपी को प्रभावित करने के लिए निर्देशित नहीं था क्योंकि यह अनुच्छेद 20(3) के तहत निहित आरोपी के मौलिक अधिकार के लिए असंक्रामक (इंट्रेंसिजेंट) होगा।

मौन रहने के अधिकार की वैधता

भारतीय न्यायपालिका उचित प्रक्रिया का प्रतीक है और उचित प्रक्रिया का सिद्धांत उदारवाद (लिबरलिज्म) की मान्यताओं पर आधारित है। इसलिए, न्यायिक तंत्र, उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए, उदारवाद के सिद्धांतों का पालन करने की अनुमति देता है। प्रह्लाद मामला उन उदाहरणों को प्रदर्शित करता है जहां अदालत अपने रुख से भटक गई थी। यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि धारा 313 और अनुच्छेद 20 (3) को आरोपी को उन परिस्थितियों, जो उसको दोषी ठहराती है, का जवाब देने का अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया था जिनका इस्तेमाल उसके खिलाफ किया जा सकता है। 

इसलिए, अदालत को केवल ऐसी परिस्थितियों के संबंध में दिए गए उत्तरों से निष्कर्ष निकालने की अनुमति है, न कि उसके मौन से। आरोपी के मौन रहने से विपरीत अनुमान निकालना, धारा 313 के तहत बयान देते समय आरोपी को शपथ न दिलाने के पीछे के तर्क को खारिज करता है। यह सुनिश्चित करना कि आरोपी मामले का लेखा-जोखा देते समय झूठी गवाही के डर से शासित न हो। विपरीत अनुमान निकालने का तंत्र परंतुक के तहत दिए गए बयानों की विश्वसनीयता और वैधता को कलंकित करता है, जिससे इसे भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के तहत साक्ष्य के रूप में मानना अप्रभावी हो जाता है। 

अनुच्छेद 20(3) में प्रदान की गई संवैधानिक गारंटी आरोपी के “मौन रहने के अधिकार” को रेखांकित करती है। विपरीत अनुमान निकालना अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन होगा और गवाही की बाध्यता का गठन करेगा। न्यायपालिका को “निष्पक्ष विचारण के अधिकार (अनुच्छेद 21)” के हिस्से के रूप में एक अप्रतिबंधित अधिकार के लिए “मौन रहने के अधिकार” को स्वीकार करना चाहिए और प्रक्रिया में आपराधिक कानून के क्षेत्र में इसकी दुर्लभता स्थापित करनी चाहिए।

ऐतिहासिक निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में 26 अगस्त 2019 को दिए एक फैसले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत आरोपी के अधिकारों पर विचार किया था। समसुल आलम बनाम असम राज्य में, अपीलकर्ता की हत्या की दोषसिद्धि को गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा था। हालाँकि, धारा 313 के तहत आरोपी से पूछताछ करते समय, उससे केवल दो प्रश्न ही पूछे गए थे, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने नोट किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसी बात पर ध्यान दिया। यह “ऑडी अल्टरम पार्टेम” के सिद्धांत के तहत, सुनवाई का अधिकार है। धारा के तहत बयान दर्ज करने में जल्दबाजी के तरीके को ध्यान में रखते हुए आरोपी को बरी कर दिया गया था।

शिवाजी सबराव बोबडे बनाम महाराष्ट्र राज्य में, सर्वोच्च न्यायालय की तीन-न्यायाधीशों की खंडपीठ ने उसके सामने आरोपी के खिलाफ, उसको दोषी ठहराने वाले साक्ष्यों को छोड़ने के परिणामों पर विचार किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए चेतावनी दी की: “उचित संदेह से परे साक्ष्य के सुनहरे धागे के पोषित सिद्धांत, जो हमारे कानून के वेब के माध्यम से चलते हैं, उन्हें हर कूबड़, झिझक और संदेह की डिग्री को शामिल करने के लिए रुग्ण (मोरबिड) रूप से नहीं बढ़ाया जाना चाहिए। अत्यधिक चिंता इस दृष्टिकोण में दिखती है कि चाहे हजार दोषी लोग बाहर चले जाए, लेकिन एक निर्दोष शहीद को पीड़ित नहीं होना चाहिए, यह एक झूठी दुविधा है। केवल उचित संदेह के लिए आरोपी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। अन्यथा, न्याय की कोई भी व्यावहारिक प्रणाली टूट जाएगी और समुदाय के साथ विश्वसनीयता खो देगी।” 

अदालत ने टिप्पणी की कि अगर अभियोजन पक्ष, गवाहों की जांच करने में असफल या उचित कारणों से विफल रहता है, तो अदालत को अभियोजन पक्ष के खिलाफ विपरीत अनुमान निकालने में उचित ठहराया जा सकता है। पीठ ने कहा कि ऐसा करना मौलिक है और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार के लिए जरूरी है, क्योंकि कैदी का ध्यान उसके खिलाफ हर उस आरोप लगाने वाली सामग्री की ओर खींचा जाना चाहिए, ताकि आरोपी को इसे समझाने का अवसर प्रदान किया जा सके। 

अशरफ अली बनाम असम राज्य में, अदालत ने धारा 313 के उद्देश्य पर विचार-विमर्श किया। इसमें कहा गया था कि धारा 313 का उद्देश्य अदालत और आरोपी के बीच बातचीत शुरू करना था। यदि आरोपी के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण सूचना है तो आरोपी से साक्ष्य के बारे में प्रश्न करना उचित और तार्किक है, और उसकी दोषसिद्धि उसी पर आधारित होनी चाहिए।  

धारा 313 का उद्देश्य, संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत प्रदान किए गए आरोपी के अधिकारों को सुरक्षित करना है, जैसा की अदालत द्वारा 1898 की सी.आर.पी.सी. का जिक्र करते हुए निर्देशित  किया गया है, जहां धारा 342 के तहत इसी तरह के प्रावधान को शामिल किया गया था। अदालत ने, “संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में छठे संशोधन” के तहत प्रदान किए गए अधिकारों को धारा 313 के तहत रखा जो आरोपी के अधिकारों को निर्धारित करते है, और साथ ही आरोप की प्रकृति और कारण के बारे में सूचित करने का अधिकार देते है। अदालत ने आरोपियों से उचित रूप और तरीके से परीक्षा कराने के महत्व पर जोर दिया। साक्ष्य में जोड़े गए तथ्य से संबंधित एक प्रश्न के लिए, अदालत द्वारा दिया गया एक अस्पष्ट उत्तर, अदालत को साक्ष्य की बेहतर सराहना करने में सहायता कर सकता है। 

यह उपर्युक्त मामलों के अनुपात से निर्धारित किया जा सकता है की धारा 313 एक वैधानिक प्रावधान है जो आपराधिक न्याय तंत्र में गहराई से निहित है। यह धारा आरोपी को “दंड से मुक्ति” के साथ ईमानदारी से बोलने में सक्षम बनाती है, क्योंकि धारा के परंतुक (2) शपथ दिलाए बिना बयान दर्ज करने की अनुमति देता है, इसलिए आरोपी को झूठे उत्तर देकर उसे उत्तरदायी बनाने से बचाया जाता है। इसलिए, जब तक अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे यह प्रदर्शित नहीं करता है कि आरोपी के बयान मनगढ़ंत हैं, तब तक आरोपी के बयान को अदालत द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए। यह धारा निचली अदालत को एक सख्त कर्तव्य प्रदान करती है कि वह आरोपी के सामने साक्ष्य के तौर पर उसके खिलाफ उपलब्ध हर ऐसी सामग्री को पेश करे जो उसे दोषी ठहराती है, ऐसा न करने पर सुनवाई की प्रक्रिया भंग हो जाएगी। यह धारा अदालत को सच्चाई का पता लगाने के अपने उद्देश्य को पूरा करने में मदद करती है, जो मूल रूप से भारत के आपराधिक न्याय तंत्र का मार्गदर्शक सिद्धांत है। इससे संबंधित कुछ और निर्णयों को विस्तार से प्रस्तुत किया गया है:- 

1. समसुल हक बनाम असम राज्य

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 313 के तहत निहित, आरोपियों के अधिकारों पर विचार किया और कहा कि आरोपित सामग्री को आरोपी के सामने रखा जाना चाहिए ताकि आरोपी को अपना बचाव करने का उचित मौका मिल सके। यह ऑडी अल्टरम पार्टेम के सिद्धांतों की मान्यता में है।

तथ्य

कई लोगों (आरोपी 1-9) पर एक व्यक्ति की हत्या का आरोप लगाया गया था। सत्र न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला कि आरोपी 1, आरोपी 5 और आरोपी 6 संदेह से परे दोषी साबित हुए और बाकी को बरी कर दिया गया था। इसके अलावा, विचारण के दौरान, उक्त बयान में केवल दो प्रश्न रखे गए थे। दोषियों ने गुवाहाटी उच्च न्यायालय में अपील दायर की। दोषी की अपील को उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया, इस प्रकार, यह मामला अपने अंतिम चरण में आया।

निर्धारित सिद्धांत  

सी.आर.पी.सी. की धारा 313 के शीर्षक से पता चलता है कि इसका मसौदा (ड्राफ्ट) अदालत को आरोपी से पूछताछ करने का अधिकार देने के लिए तैयार किया गया था। हालांकि, धारा केवल इस शक्ति तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह अदालत पर एक कर्त्तव्य भी डालती है की वह एक जांच में शामिल हों ताकि आरोपी को उसके खिलाफ मिले साक्ष्य में आने वाली परिस्थितियों को विस्तृत और स्पष्ट करने में सक्षम बनाया जा सके। प्रत्येक वस्तु और सामग्री जो आरोपी के विरुद्ध साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत की जाती है, उसे विशेष रूप से, स्पष्ट रूप से और अलग-अलग रखा जाएगा और ऐसा करने में विफलता एक गंभीर अनियमितता के समान है जो मुकदमे को भंग करती है यदि इसका परिणाम आरोपी के प्रति पूर्वाग्रह में होता है।

माननीय न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने अपने फैसले में कहा कि “सी.आर.पी.सी. की धारा 313 का उद्देश्य अदालत और आरोपी के बीच सीधा संवाद स्थापित करना है। यदि आरोपी के विरुद्ध साक्ष्य में कोई तथ्य महत्वपूर्ण है, और दोषसिद्धि उसी पर आधारित होने का इरादा है, तो यह सही और उचित है कि आरोपी से मामले के बारे में पूछताछ की जानी चाहिए और उसे स्पष्ट करने का अवसर दिया जाना चाहिए।”

अदालत द्वारा रखे गए प्रश्न निर्णायक संरक्षण (कंक्लूजिव कंजर्वेशन) को आगे बढ़ाएंगे जो यह सुनिश्चित करता है कि सभी तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखा गया है। इसलिए, जब कोई अदालत अभियोजन साक्ष्य में एक अनिवार्य सामग्री पर कोई विशिष्ट प्रश्न रखने में विफल रहती है, तो वह साक्ष्य की भौतिकता का खंडन करने के किसी भी अवसर को खारिज कर देती है। इसके अलावा, यह घोर अन्याय का कारण बनता है। इसके अलावा, धारा 313 के तहत आरोपी का बयान दर्ज करना एक उद्देश्यहीन अभ्यास नहीं है।

2. शरद बर्दीचंद सरदा बनाम महाराष्ट्र राज्य

इस मामले में यह कहा गया था की “यदि आरोपी को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत उसके बयान में परिस्थितियों को नहीं रखा जाता है, तो उन्हें पूरी तरह से विचार से बाहर रखा जाना चाहिए क्योंकि आरोपी के पास उन्हें समझाने का कोई मौका नहीं था।”

तथ्य

एक महिला अपने घर में मृत पाई गई थी। उसकी मृत्यु के संबंध में दो तथ्य उठाए गए थे। पहला यह था कि उसने अपने ससुराल वालों की प्रताड़ना से हार कर आत्महत्या कर ली। दूसरा, कि उसके पति का विवाहेतर (एक्स्ट्रा मैरिटल) संबंध था और उसी के लिए रास्ता बनाने के लिए, उसने अपनी पत्नी की हत्या कर दी।

उच्च न्यायालय और निचली अदालत दोनों ने आत्महत्या के सिद्धांत को खारिज कर दिया और पाया कि मंजू की हत्या उसके पति ने की थी। उच्च न्यायालय ने 17 परिस्थितियों पर ध्यान दिया, जिसके परिणामस्वरूप यह निष्कर्ष निकला गया कि अभियोजन द्वारा पेश किए गए साक्ष्य पूर्ण और निर्णायक थे। हालाँकि, जब सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील की गई थी, तब साक्ष्यों का मूल्य और प्रासंगिकता ही सवालों के घेरे में थी।

निर्धारित सिद्धांत

दोनों न्यायालयों द्वारा उक्त निर्णय का आधार परिस्थितिजन्य (सर्कमस्टैनशियल) साक्ष्य था। उक्त साक्ष्य के मूल्य के लिए खतरा होता है, क्योंकि इसे सी.आर.पी.सी. की धारा 313 के साथ असंगत माना गया था। यह माना गया था कि सामने रखी गई कई परिस्थितियाँ अप्रासंगिक थीं और एक-दूसरे के साथ अतिच्छादित (ओवरलेप्ड) थीं। इसके अलावा, जो परिस्थितियां निष्कर्ष निकालने के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक और महत्वपूर्ण थी, वे भी सी.आर.पी.सी. की धारा 313 के अनुरूप नहीं थी। ऐसे में उन पर ध्यान नहीं दिया जा सकता है। यदि साक्ष्य को आरोपी के सामने नहीं लाया जाता है, तो ऐसे में यह आरोपी द्वारा नए सिरे से परिस्थितियों या तर्कों के साथ इसे निरस्त करने या इसका प्रतिवाद (काउंटर) करने की संभावना को खारिज कर देता है।

मृतक के साथ दुर्व्यवहार को साबित करने के लिए विभिन्न साक्ष्यों का इस्तेमाल किया गया था, हालांकि, उनमें से किसी को भी प्रश्न में नहीं लाया गया था, जिसने धारा 313 के माध्यम से सी.आर.पी.सी. के द्वारा निर्धारित बातचीत की संभावना को समाप्त कर दिया था। इस संबंध में अपीलकर्ता से कोई प्रश्न नहीं किया गया था। सी.आर.पी.सी. की धारा 353 के तहत उसकी परीक्षा के दौरान, भले ही अपीलकर्ता या उसके माता-पिता द्वारा मृतक के साथ किसी भी दुर्व्यवहार के बारे में कोई साक्ष्य हो, इसे पूरी तरह से विचार से बाहर रखा गया था।

3. अशरफ अली बनाम असम राज्य

इस मामले में यह कहा गया था की “जिन परिस्थितियों के बारे में आरोपी को स्पष्टीकरण प्रदान करने के लिए नहीं कहा जाता है, तो उन्हें आरोपी के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है ।”

तथ्य

एक व्यक्ति पर भारतीय दंड संहिता की धारा 304 का आरोप लगाया गया और आरोपी ने अन्यत्र उपस्थिति की दलील (प्ली ऑफ़ अलीबी) दी। उसको इस दलील को खारिज कर दिया गया और बाद में 10 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी। उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने सजा को घटाकर 5 साल कर दिया। हालांकि, उच्च न्यायालय ने अपनी जांच में पाया कि अभियोजन मामले का आधार बनाने वाले साक्ष्य और परिस्थितियों को विशेष रूप से आरोपियों के सामने नहीं रखा गया था। यह भी नोट किया गया कि निचली अदालत परीक्षा के अपने कर्तव्य को सही से नही कर पाई। 

हालांकि, उच्च न्यायालय ने महसूस किया कि आरोपी को कोई भौतिक पूर्वाग्रह नहीं हुआ क्योंकि वह लंबे समय से फरार पाया गया था। इसलिए अंतिम रूप से मामला सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया था।

निर्धारित सिद्धांत

सी.आर.पी.सी. की धारा 313 के अनुसार यह मौलिक है कि एक आरोपी को प्रत्येक जानकारी से अवगत कराया जाना चाहिए जो उसे सलाखों के पीछे डालता है। यह एक औपचारिकता तक विस्तारित नहीं है जिसे एक प्रश्नावली द्वारा पर्याप्त किया जा सकता है, लेकिन अदालतों को इस बात का ध्यान रखने की आवश्यकता है कि आरोपी हर उस आरोप के बारे में, जो उसके खिलाफ लगाए गए है, जानता है और उन्हें समझता है। इस तरह की जानकारी के बारे में ज्ञान या जानकारी का अभाव परीक्षण की वैधता को गंभीर रूप से खतरे में डाल सकता है।

सिद्धांतों का निर्धारण 

1. रीना हजारिका बनाम असम राज्य

इस मामले में यह कहा गया था की अदालतों पर गंभीर कर्तव्य है कि वह आरोपी की ओर से  बचाव पर पर्याप्त रूप से विचार करने के बाद न्याय प्रदान करे और सी.आर.पी.सी. की धारा 313 के तहत उसके खिलाफ साक्ष्यों और परिस्थितियों का खंडन करने का प्रयास करे और कारणों को लिखित रूप में निर्दिष्ट करके उसे स्वीकार या अस्वीकार करे। 

2. शामू बालू चौगुले बनाम महाराष्ट्र राज्य

इस मामले में, तथ्य यह कि एक आरोपी को फरार बताया गया था, और उसे आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 342 के तहत नहीं रखा गया है, तो ऐसे में इस तथ्य को उसके खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। 

3. एस. हरनाम सिंह बनाम राज्य

इस मामले में, यह कहा गया था की अदालत द्वारा आरोपी को उसके प्रासंगिक पहलुओं में असंगत जानकारी का संकेत न देना, अभियोजन मामले की भेद्यता (वलनरेबिलिटी) को जोड़ देगा। यह अदालतों द्वारा भी नोट किया जाना चाहिए क्योंकि धारा 313 के तहत आरोपी के बयान की रिकॉर्डिंग एक उद्देश्यहीन अभ्यास नहीं है।

4. सुजीत विश्वास बनाम असम राज्य

इस मामले में, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत आरोपी की जांच का उद्देश्य नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों, अर्थात ऑडी अल्टरम पार्टेम की आवश्यकता को पूरा करना है।

निष्कर्ष 

संस्थागत उद्देश्यों के बदलते ढांचे और सत्ता की गतिशीलता के लगातार बदलने के साथ, अदालत की शक्तियों को उजागर करना और उन्हें आरोपियों के अधिकारों से अलग करना आवश्यक हो जाता है। सी.आर.पी.सी. की धारा 313 एक ऐसी धारा है जो दोनों करती है और आपराधिक प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है। इस धारा की जांच करते हुए, भाषाविज्ञान का सुझाव देते है कि यह अदालत की अंतर्निहित शक्ति तक सीमित है, हालांकि एक स्तरित (लेयर्ड) समझ के माध्यम से जो शीर्ष न्यायालय के कुछ निर्णयों पर आधारित है, कोई भी न्यायलय में उचित अवसर और सुनवाई के अधिकार के सिद्धांतों की अंतर्निहित अंतरात्मा को समझ सकता है।  

यह धारा अदालत की शक्ति के बीच संतुलन है कि वह खुद साक्ष्यों की जांच कर सकती है और आरोपी के खिलाफ उन्हें ला सकती है और साथ ही आरोपी को खुद को समझाने और बचाव करने का अवसर भी दिया जा सकता है। कानून के दायरे और समय के साथ इसके विषयों में बदलाव के साथ एक सही संतुलन बनाने का प्रयास मुश्किल है। इसलिए, कानूनों के विकास के साथ, कुछ अपरिभाषित क्षेत्रों की पहचान की गई है। आरोपी के मौन रहने के अधिकार के साथ बेवजह संघर्ष ने भी धीरे-धीरे सबका ध्यान खींचा है। इसके अतिरिक्त, विश्लेषण के विस्तार की प्रक्रिया में, यह देखा गया है कि ऐसे उदाहरण हैं जहां धारा 313 के दायरे में दिए गए बयानों और निष्कर्षों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

न्यायिक विचार का स्तंभ जो स्पष्टता लाता है, साथ ही कानून के पाठ के परिप्रेक्ष्य में, वह धारा 313 के संबंध में संगत था, जहां यह विभिन्न निर्णयों में कहा गया था कि साक्ष्य का मूल्य समाप्त हो जाता है यदि इसकी जांच मजिस्ट्रेट द्वारा नहीं की जाती है और आरोपी के सामने नहीं लाया जाता है। दिए गए साक्ष्य को अस्वीकार करने और बातचीत करने का अधिकार जिसमें आरोपी की परिस्थितियों और साक्षरता के बावजूद सार्थक निष्कर्ष निकालने की क्षमता हो, उसको नकारा नहीं जा सकता है। इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सी.आर.पी.सी. की धारा 313 एक ऐसा प्रावधान है जो आरोपी को किसी भी साक्ष्य के साथ मूल्य, शर्तों और परिस्थितियों का पता लगाने का अवसर देकर, निष्पक्ष सुनवाई के सिद्धांतों की सहायता करता है। यह धारा बहुत महत्वपूर्ण है और न्यायिक जांच में समानता की इच्छा का समर्थन करने वाले स्तंभों में से एक है।

संदर्भ

लेख

  • Sabhori Kumari, ‘Examination of Accused under Section 313’ <https://districts.ecourts.gov.in/sites/default/files/workshopscjrajam.pdf> accessed 14 March 2020 
  • Govt. of India, ‘Analyzing Section 313 of CrPC’ (2013) <http://mja.gov.in/Site/Upload/GR/Title%20NO.202(As%20Per%20Workshop%20List%20title%20no202%20pdf).pdf> accessed 15 March 2020
  •  Singh, Aishwarya Pratap, Inquisitorial Powers of the Court in Adversarial System: A Bird’s Eye View (February 6, 2018). http://dx.doi.org/10.2139/ssrn.3118880 accessed on 12 March 2020.
  • Indian Legal Services, ‘Defense of the accused Under Sec.313’ <http://www.legalservicesindia.com/law/article/1099/5/-Defence-of-The-Accused-U-s-313-CrPC;-Non-Consideration-Can-Vitiate-Conviction> accessed 20 March 2020
  • Chetan Lokur, ‘Section 313 CrPC, Audi Alteram Partem, and the Rights of the Accused’ (Bar and Bench, 7 October, 2019) < https://www.barandbench.com/columns/section-313-crpc-audi-alteram-partem-and-the-rights-of-the-accused> accessed on 24 Mar 2020

पुस्तकें

  • DD Basu, ‘Commentary on the Constitution of India’ (9th Edition, 2002) vol 2 (derived from the 180thLaw Commission Report).
  • R.V Kelkar’s, Criminal Procedure (first published 1977, EBC)

 

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