समानता का अधिकार: भारतीय संविधान के तहत अनुच्छेद 16, 17 और 18

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Constitution of India
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यह लेख सिंबॉयसिस लॉ स्कूल, हैदराबाद की बीएएलएलबी की द्वितीय वर्ष की छात्रा Shristi Suman द्वारा लिखा गया है। इस लेख में संविधान के अनुच्छेद 16, 17 और 18 के तहत समानता के अधिकार के दायरे, प्रावधानों और विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

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परिचय

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14 से 18 तक समानता के अधिकार के प्रावधान हैं। भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत के नागरिकों को समान स्थिति और अवसर का अधिकार भी प्रदान करती है। समानता का अधिकार भारतीय संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है जिसे संशोधित (अमेंड) नहीं किया जा सकता है। यह 6 मौलिक अधिकारों में से एक है जो संविधान द्वारा भारत के नागरिकों को प्रदान किया गया है। अधिकार कानून के समक्ष समानता सुनिश्चित करता है और नागरिकों की जाति, धर्म, जन्म स्थान या लिंग के बावजूद कानून की समान सुरक्षा सुनिश्चित करता है। अनुच्छेद 14 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16, 17, 18 की नींव रखता है ।

सार्वजनिक रोजगार में अवसर की समानता का अधिकार: अनुच्छेद 16

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 16 सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार से संबंधित मामलों में सभी नागरिकों को समान अवसर की गारंटी देता है। अनुच्छेद 16(1) में कहा गया है कि नागरिकों को राज्य के अधीन किसी पद पर रोजगार या नियुक्ति के मामले में समान अवसर मिलेगा। समानता का प्रावधान केवल उन रोजगार या कार्यालयों पर लागू होता है जो राज्य के पास होते हैं। राज्य अभी भी सरकारी सेवाओं के लिए कर्मचारियों की भर्ती के लिए अपेक्षित (रिक्विजाइट) योग्यता निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र है। जब तक आवेदकों को सरकारी सेवा के लिए आवेदन करने का समान अवसर दिया गया है, तब तक सरकार रोजगार के उद्देश्य के लिए आवेदकों को चुन सकती है।

अनुच्छेद 16(2) उन आधारों को निर्धारित करता है जिनके आधार पर राज्य के अधीन किसी कार्यालय में नियोजन या नियुक्ति के उद्देश्य से नागरिकों के साथ भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। अनुच्छेद 16(2) के तहत भेदभाव के निषिद्ध (प्रोहिबिटेड) आधार धर्म, नस्ल (रेस), जाति, लिंग, वंश, जन्मस्थान, निवास या इनमें से कोई भी हैं। अनुच्छेद 16 के खंड (क्लॉज़) 2 में उल्लिखित शब्द ‘राज्य के तहत कोई रोजगार या कार्यालय’ का तात्पर्य है कि उक्त प्रावधान केवल सार्वजनिक रोजगार और निजी क्षेत्र में रोजगार को संदर्भित करता है। 

अनुच्छेद 16(1) और (2) में सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार के समान अवसर का प्रावधान है। हालांकि, यह अनुच्छेद 16 के खंड 3 में कहा गया है कि इस अनुच्छेद में कुछ भी संसद को कोई कानून बनाने से नहीं रोकेगा जो उस राज्य या संघ के भीतर निवास के संबंध में किसी भी आवश्यकता के संबंध में राज्य के तहत किसी भी कार्यालय में नियुक्त नागरिकों को निर्धारित करता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 16(4) नागरिकों के पिछड़े वर्ग के पक्ष में राज्य के तहत सेवाओं के आरक्षण का प्रावधान करता है। राज्य यह तय करेगा कि नागरिकों का एक विशेष वर्ग पिछड़ा है या नहीं। इसलिए, राज्य यह सुनिश्चित करने के लिए स्वीकार्य मानदंड (क्राइटेरिया) निर्धारित करेगा कि नागरिकों का एक विशेष वर्ग पिछड़ा वर्ग है या नहीं।

समान कार्य के लिए समान वेतन

इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन बनाम चीफ़ लेबर कमिशनर  के मामले में पहली बार समान काम के लिए समान वेतन का सवाल उठाया गया था। केमिकल मजदूर पंचायत बनाम इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन गुजरात के मामले को उच्च न्यायालय ने उस पर एक ताजा निर्णय प्राप्त करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पास आदेश भेज दिया। गुजरात उच्च न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन के ठेका (कॉन्ट्रैक्चुअल) मजदूर कंपनी के स्थायी कर्मचारियों की तरह समान वेतन के हकदार हैं। 1992 में, श्रम आयुक्त द्वारा यह पाया गया कि जो काम ठेका मजदूरों द्वारा किया जाता है वह स्थायी कर्मचारियों के समान होता है और फलस्वरूप श्रम आयुक्त द्वारा सीएलआरए नियम के नियम 25(2)(v) लागू कराने का आदेश पारित किया गया था। 2013 में, गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा कि श्रम आयुक्त ने केवल ठेका मजदूरों और स्थायी कर्मचारियों के काम की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए गलत किया था। अन्य पहलुओं जैसे काम की गुणवत्ता, व्यक्ति की क्षमता, योग्यता, कार्य अनुभव आदि को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए था।

न्यायालय ने कहा था कि कर्मचारियों के दो सेट यानी ठेके पर काम करने वाले और स्थायी कर्मचारियों की बराबरी करने के लिए न केवल पदनाम और काम की समानता को ध्यान में रखना होगा बल्कि भर्ती के तरीके, काम की प्रकृति, मूल्य निर्णय, जिम्मेदारी को भी व्यक्ति पर भी विचार कर ध्यान में रखने की आवश्यकता है। न्यायालय द्वारा यह देखा गया कि स्थायी कर्मचारियों को नौकरी के अनुसार योग्यता प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, उन्हें एक लिखित परीक्षा से गुजरने की आवश्यकता होती है, जिसके लिए ठेका मजदूरों की आवश्यकता नहीं होती है और समान वेतन और समान कार्य के लिए नियोक्ता पर कोई दायित्व (ऑब्लिगेशन) नहीं होना चाहिए। इसके बाद मजदूर संघ ने गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले के खिलाफ माननीय सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 

जैसा कि ऊपर देखा गया मामला अब ठेका मजदूरों की स्थिति के सवाल पर रिमांड पर लिया गया था। न्यायालय के समक्ष मुद्दा मुख्य रूप से सीएलआरए नियमों के नियम 25(2)(v) की संवैधानिकता पर निर्भर था। 

यह नियम कहता है कि:

“यदि कर्मचारी को ठेकेदार द्वारा उसी तरह या समान प्रकार के काम को करने के लिए नियोजित किया जाता है, जो सीधे प्रतिष्ठानों (एस्टैब्लिशमेंट) के प्रमुख नियोक्ता द्वारा नियोजित किया गया है, तो मजदूरी दरें, छुट्टियां, काम के घंटे और ठेकेदार द्वारा नियोजित कर्मचारी की सेवा की अन्य शर्तें वही होंगी जो उस कर्मचारी के समान प्रकार के काम के लिए काम करने वाले प्रतिष्ठान के प्रमुख नियोक्ता द्वारा सीधे नियोजित की गई हैं।”

न्यायालय ने कहा कि यह स्पष्ट है कि सीएलआरए नियमों के तहत ठेका मजदूरों और स्थायी कर्मचारियों के बीच समानता उनके द्वारा किए जाने वाले काम की समानता पर निर्भर करती है न कि भर्ती के तरीके या योग्यता पर। सर्वोच्च न्यायालय ने मामले का फैसला करने के लिए रणधीर सिंह बनाम भारत संघ, 1982 के फैसले को संदर्भित किया। यह मामला समान काम के लिए समान वेतन की संवैधानिक वैधता पर एक ऐतिहासिक निर्णय था। समान काम के लिए समान वेतन भी भारतीय संविधान में एक निर्देशक सिद्धांत है। उक्त मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समान काम के लिए समान वेतन को आधार बनाया और कहा कि ऐसे मामलों में जहां सभी “प्रासंगिक विचार (रिलेवेंट कंसिडरेशन) समान हैं”, सरकार केवल नौकरशाही चालबाजी (ब्यूरोक्रेटिक मन्यूवर) करके समान काम के लिए समान वेतन से इनकार नहीं कर सकती है यानी कर्मचारियों को अलग-अलग पदों पर या अलग-अलग विभागों में बांटकर। मामले को तय करने के लिए ड्राइवरों का उदाहरण लिया गया। न्यायालय के अनुसार “इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि दिल्ली पुलिस बल के ड्राइवर दिल्ली प्रशासन और केंद्र सरकार की सेवा के अन्य ड्राइवर जैसे काम करते है” और इसलिए समान कार्य और कर्तव्यों को लाया गया है। 

न्यायालय द्वारा प्रयुक्त वाक्यांश “समान कार्य और कर्तव्य” सीएलआरए की भाषा से मिलता-जुलता है, अर्थात “समान या सिमिलर कार्य”। हालांकि, रणधीर सिंह के मामले में फैसले के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने कई फैसले पारित करके सिद्धांतों को विस्तृत किया। न्यायालय ने निर्णयों के माध्यम से समान कार्य के लिए समान वेतन पर भर्ती के तरीके, योग्यता आदि सहित कई सिद्धांत पारित किए। कार्य की समानता अब केवल श्रमिकों द्वारा किए गए कार्य के प्रकार या चरित्र से संबंधित नहीं थी, बल्कि पदों से भी संबंधित थी। दूसरे शब्दों में, सर्वोच्च न्यायालय ने समान कार्य के लिए समान वेतन की आवश्यकता को प्रभावी ढंग से परिवर्तित कर दिया।

संविधान के अनुच्छेद 16(2) के अनुसार नागरिकों के बीच धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, वंश, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर राज्य के अंदर रोजगार या पद के संबंध में कोई भेदभाव नहीं होगा। ‘राज्य के अधीन कोई रोजगार या कार्यालय’ शब्दों से यह स्पष्ट होता है कि उक्त अनुच्छेद केवल सार्वजनिक रोजगार पर लागू होता है। इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि केंद्र सरकार की नौकरियों में अन्य पिछड़े वर्गों के नागरिकों के लिए अलग से आरक्षण होगा। न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के क्रीमी लेयर के नागरिकों और अगड़ी (फोरवार्डिंग) जातियों के आर्थिक रूप से गरीब नागरिकों को केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण के उद्देश्य से बाहर करने का आदेश दिया। न्यायालय ने यह भी कहा कि आरक्षण की ऊपरी सीमा 50% से अधिक नहीं होगी।

संविधान 77वां संशोधन अधिनियम, 1995

1955 से अनुसूचित जाति (शेड्यूल्ड कास्ट) एवं अनुसूचित जनजाति (ट्राइब्स) को राज्य कार्यालय के अंदर रोजगार एवं पदोन्नति (प्रोमोशन) के मामले में आरक्षण की सुविधा प्रदान की जाती रही है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इंद्रा साहनी और अन्य बनाम भारत संघ में यह माना गया कि अनुच्छेद 16 (4) के तहत सरकारी नौकरियों का आरक्षण उक्त वर्गों से संबंधित नागरिकों की नियुक्ति तक सीमित है और यह आरक्षण में पदोन्नति की बात में विस्तार नहीं कर सकता है। हालांकि, पदोन्नति के मामले में न्यायालय के निर्णय ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के नागरिकों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला क्योंकि उनका सरकारी सेवाओं में अच्छा प्रतिनिधित्व नहीं था। चूंकि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के हितों की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है, सरकार ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण की मौजूदा नीति को जारी रखने का निर्णय लिया। इंदिरा साहनी और अन्य बनाम भारत संघ के ऐतिहासिक फैसले से पहले मौजूद अभ्यास को पूरा करने के लिए, उक्त अनुच्छेद में एक नया खंड (4 A) सम्मिलित (इंसर्ट) करके भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 में संशोधन करना आवश्यक था।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की पदोन्नति के मामलों में आरक्षण के उद्देश्य से, 77वें संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 16 में खंड (4) डाला गया था। खंड (4) में कहा गया था कि संविधान के अनुच्छेद 16 में कुछ भी राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में सरकारी सेवाओं में किसी भी पद पर पदोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए कोई प्रावधान करने से नहीं रोकेगा।

पिछडे वर्ग में “क्रीमी लेयर” का गैर बहिष्करन (नॉन एक्सक्लूजन)

‘क्रीमी लेयर’ को सर्वोच्च न्यायालय ने समाज के एक ऐसे वर्ग के रूप में परिभाषित किया है जो अन्य पिछड़े वर्गों के अन्य सदस्यों की तुलना में अपेक्षाकृत (रेलेटिवली) आगे और शिक्षित है। जो लोग ‘क्रीमी लेयर’ से संबंधित हैं, वे सरकार द्वारा प्रायोजित (स्पॉन्सर्ड) शैक्षिक और व्यावसायिक लाभ कार्यक्रमों के लिए पात्र नहीं हैं। इंद्र साहनी बनाम भारत संघ (II) में, बेंच ने “जाति” और “वर्ग” शब्दों के उपयोग का विश्लेषण किया। यह कहा गया था कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) को अनुच्छेद 15 (1) सहित शेष संविधान के साथ पढ़ा जाना चाहिए जो राज्य को जाति के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव करने से रोकता है। उपरोक्त को ध्यान में रखते हुए, नागरिकों के पिछड़ेपन का पता लगाने में जाति को एक निर्धारक कारक (डिटरमिनेटिव फैक्टर) के रूप में नियोजित (एसेर्टेन) करना एक जातिविहीन समाज की संवैधानिक दृष्टि के विपरीत है।

न्यायालय के समक्ष जो मुद्दा था वह यह था कि:

  1. क्या जाति के आधार पर वर्गीकरण की अनुमति है;
  2. क्या नागरिकों के पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिए इस तरह के जाति-आधारित वर्गीकरण के लिए एक तर्कसंगत संबंध (रेशनल नेक्सस) है।

न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 15(1) के आलोक में जाति के आधार पर वर्गीकरण की अनुमति नहीं है। न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले ने पिछड़े वर्ग में क्रीमी लेयर के गैर-बहिष्करण को बरकरार रखते हुए “जाति” और “वर्ग” के बीच के अंतर को दूर कर दिया। 

संविधान (81वां संशोधन) अधिनियम, 2000

सरकार ने 81वें संशोधन अधिनियम, 2000 के माध्यम से अनुच्छेद 16(4B) पेश किया। संशोधन ने पदोन्नति में आरक्षण को 50% ऊपरी सीमा तक की अनुमति दी जो नियमित आरक्षण पर निर्धारित है। संशोधन ने सरकार को पिछले वर्षों से खाली हुई रिक्तियों को आगे बढ़ाने की अनुमति दी। इस संशोधन को आगे ले जाने का नियम (कैरी फॉरवर्ड रुक) कहा गया।

1997 से पहले, रिक्तियां जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित थीं और जिन्हें अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों की अनुपलब्धता के कारण सीधी भर्ती द्वारा नहीं भरा गया था, उन्हें “बैकलॉग रिक्तियां” माना जाता था। इन रिक्तियों को एक साथ एक अलग समूह के रूप में माना गया और उन्हें आरक्षण की ऊपरी सीमा यानी 50% से बाहर रखा गया। इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ के ऐतिहासिक फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एक वर्ष में आरक्षण के आधार पर भरे जाने वाले रिक्तियों की कुल संख्या आगे ले जाने का नियम द्वारा आरक्षण सहित 50% की ऊपरी सीमा से अधिक नहीं होगी। चूंकि अन्य पिछडे वर्ग के साथ-साथ अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए एक वर्ष में कुल आरक्षण पहले ही 49.5% प्रतिशत तक पहुंच गया था और एक वर्ष में भरी जाने वाली रिक्तियों की कुल संख्या 50% से अधिक नहीं होने दी गई थी और इसलिए “बैकलॉग रिक्तियों” को भरना मुश्किल हो गया। इसलिए, उक्त निर्णय को लागू करने और आरक्षण की ऊपरी सीमा को बनाए रखने के लिए, 29 अगस्त, 1997 को एक आधिकारिक ज्ञापन (ऑफिशियल मेमोरेंडम) जारी किया गया था, जिसमें कहा गया था कि 50% ऊपरी सीमा वर्तमान के साथ-साथ “बैकलॉग रिक्तियों” पर भी लागू होगी।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर उक्त ज्ञापन के प्रतिकूल प्रभाव के कारण, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के हितों की रक्षा के लिए संसद सदस्यों सहित विभिन्न संगठनों ने केंद्र सरकार से संपर्क किया। संगठनों और संसद सदस्यों के विभिन्न अभ्यावेदनों (रिप्रेजेंटेशन) को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने स्थिति की समीक्षा (रिव्यू) की और संविधान में एक संशोधन करने का निर्णय लिया ताकि रिक्तियों को खाली छोड़ दिया जा सके, उन्हें रिक्तियों का एक अलग वर्ग माना जा सके। रिक्तियों के ऐसे वर्ग पर वर्ष की अन्य रिक्तियों के साथ विचार नहीं किया जाएगा। यह कहा गया था कि बैकलॉग रिक्तियों के लिए आगे बढ़ने का नियम लागू होगा लेकिन इसे 50% ऊपरी सीमा नियम का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। एक साथ सभी आरक्षण 50% ऊपरी सीमा से अधिक नहीं होने चाहिए। इस प्रकार बैकलॉग रिक्तियों की अनुमति दी गई लेकिन आरक्षण की ऊपरी सीमा 50% बनी रही। संविधान में इस संशोधन ने राज्य को 29 अगस्त, 1997 के ज्ञापन के पारित होने से पहले की स्थिति को बहाल (रिस्टोर) करने में सक्षम बनाया।

संविधान (85वां संशोधन) अधिनियम, 2005

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सरकारी सेवकों को सरकारी सेवाओं में पदोन्नति के आरक्षण के कारण वरिष्ठता (सेनियोरिटी) का लाभ प्राप्त हुआ। भारत संघ बनाम वीरपाल सिंह चौहान और अजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य जैसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के कारण 30 जनवरी 1997 को ओएम (आधिकारिक ज्ञापन) जारी किया गया। ज्ञापन ने सरकार के अधीन कार्य करने वाले पदोन्नति के मामले में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। इसके बाद, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सरकारी कर्मचारियों के हितों की रक्षा के लिए संसद सदस्यों सहित विभिन्न वर्गों द्वारा कई अभ्यावेदन किए गए।

सरकार ने प्राप्त विचारों के आलोक में स्थिति की समीक्षा की है। 85 वें संशोधन आदेश परिणामी वरिष्ठता के साथ पदोन्नति के मामलों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति से संबंधित नागरिकों के पक्ष में आरक्षण के लाभ का विस्तार करने में पेश किया गया था। संशोधन ने संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में “किसी भी वर्ग को पदोन्नति के मामलों में” शब्दों को “परिणामी वरिष्ठता के साथ पदोन्नति के मामलों में, किसी भी वर्ग में” शब्दों को प्रतिस्थापित किया।

एम. नागराज बनाम भारत संघ, एआईआर 2007 एससी 71

एम. नागराज बनाम भारत संघ का मामला अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण से संबंधित था और संविधान के अनुच्छेद 16 (4A) और (4B) से संबंधित था। इस मामले में यह निर्णय दिया गया था कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण देने के लिए, राज्य को उनके पिछड़ेपन को प्रदर्शित करने के लिए ‘मात्रात्मक (क्वांटीफाएबल) डेटा’ एकत्र करना चाहिए। यह माना गया कि क्रीमी लेयर की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर भी लागू होगी और इसलिए, वे इस तरह के किसी भी आरक्षण के हकदार नहीं होंगे। इसके अलावा, निर्णय को बदल दिया गया क्योंकि भारत के महान्यायवादी (अटॉर्नी जनरल) द्वारा यह तर्क दिया गया था कि दोनों होल्डिंग्स गलत थीं क्योंकि वे इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (के मामलों में क्रीमी लेयर का गैर-बहिष्करण आरक्षण) में दिए गए निर्णय के विपरीत थे। 

न्यायमूर्ति राम नंदन समिति की रिपोर्ट

क्रीमी लेयर को अन्य पिछड़े वर्गों के नागरिकों से अलग करने के लिए राम नंदन समिति की नियुक्ति की गई थी। समिति द्वारा 1993 में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी जिसे स्वीकार कर लिया गया था। संसद के एक अधिनियम द्वारा, राष्ट्रीय पिछडे वर्ग आयोग की स्थापना 1993 में की गई थी। आयोग ने नौकरी में आरक्षण के उद्देश्य से पिछड़े होने के लिए अधिसूचित जातियों की सूची से नागरिकों को शामिल करने और बाहर करने पर विचार किया। आयोग ने अन्य पिछड़े वर्गों से क्रीमी लेयर को अलग करने के लिए लागू होने वाले मानदंडों (क्राइटेरिया) को निर्धारित करने के लिए एक सूत्र भी विकसित किया।

राम नंदन समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि संवैधानिक पदाधिकारियों (फंक्शनरीज़) के ओबीसी बच्चों यानी राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, एक निश्चित स्तर से ऊपर केंद्रीय और राज्य नौकरशाही के कर्मचारियों, सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों और अन्य पिछडे वर्ग के बच्चों को सशस्त्र बलों के सदस्य और कर्नल के पद से ऊपर के अर्धसैनिक बल के जवान के लिए आरक्षण प्रदान नहीं किया जाना चाहिए। आरक्षण उन बच्चों पर लागू नहीं होगा जिनके माता-पिता व्यापार, उद्योग या चिकित्सा, कानून, चार्टर्ड अकाउंटेंसी, आयकर परामर्श, वित्तीय या प्रबंधन (मैनेजमेंट) परामर्श, इंजीनियरिंग जैसे व्यवसायों में लगे हैं, या एक फिल्म कलाकार हैं या किसी फिल्म पेशा, या एक लेखक, नाटककार, खिलाड़ी, खेल पेशेवर, मीडिया पेशेवर या समान स्थिति का कोई अन्य व्यवसाय में शामिल हैं, जिसकी वार्षिक आय ₹ 100,000 है।

विकलांग उम्मीदवार

भारतीय संविधान विकलांग नागरिकों को समान अधिकार और अवसर प्रदान करता है। विकलांगता 40% या अधिक होनी चाहिए और एक चिकित्सक द्वारा प्रमाणित होनी चाहिए। विकलांगता में अंधापन, दृष्टिबाधित (विजुअल इंपैरमेंट), श्रवण दोष (हीयरिंग इंपैरमेट), चलन अक्षमता (लोकोमोटर डीसीज) आदि भी शामिल हैं। संविधान का उद्देश्य विकलांग नागरिकों को अन्य नागरिकों के समान स्थिति में रखना है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संविधान ने अनुच्छेद 15 (1) और (2) के तहत विकलांग नागरिकों को सरकार द्वारा संचालित सरकारी सेवाओं और संस्थानों में आरक्षण देने का प्रावधान किया है। 

संविधान का अनुच्छेद 29 (2) विकलांग लोगों को शिक्षा के मामले में समान अधिकार प्रदान करता है। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि किसी भी नागरिक को केवल विकलांगता के आधार पर राज्य द्वारा संचालित या राज्य निधि (फंड) से सहायता प्राप्त करने वाले किसी भी शैक्षणिक संस्थान में प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा।

राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग

इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ के मामले में, न्यायालय ने सरकार को नौकरी में आरक्षण के उद्देश्य से पिछड़े होने के लिए अधिसूचित जातियों की सूची से नागरिकों को शामिल करने और बाहर करने के लिए एक निकाय बनाने का निर्देश दिया। इसके बाद, संसद ने 1993 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अधिनियम पारित किया और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया।

102 संविधान संशोधन, 2018 पिछड़ा वर्ग (एनसीबीसी) के लिए राष्ट्रीय आयोग के लिए एक संवैधानिक दर्जा प्रदान करता है। आयोग के पास सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के नागरिकों की शिकायतों और कल्याणकारी उपायों की जांच करने का अधिकार है।

आयोग उन नागरिकों के लिए काम करता है जो पिछड़े वर्ग के हैं और नागरिकों के पिछड़े वर्गों की सुरक्षा से जुड़े सभी मामलों की निगरानी करते हैं।

एनसीबीसी ऐसे अन्य कार्य भी करता है जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की सुरक्षा, कल्याण और विकास और उन्नति के लिए महत्वपूर्ण हैं।

अस्पृश्यता का उन्मूलन (अबोलिशन ऑफ़ अंटचेबिलिटी): अनुच्छेद 17

भारतीय संविधान द्वारा अनुच्छेद 17 के माध्यम से अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है। अनुच्छेद में कहा गया है कि अस्पृश्यता की प्रथा सभी रूपों में निषिद्ध (प्रोहिबिटेड) है। संविधान का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता की प्रथा को समाप्त करता है। अस्पृश्यता की प्रथा 1955 के अस्पृश्यता अपराध अधिनियम (1976 में नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम का नाम बदलकर) के तहत एक अपराध है और ऐसा करने वाला कोई भी व्यक्ति कानून द्वारा दंडनीय है। यह अधिनियम कहता है कि जो कुछ भी आम जनता के लिए खुला है वह भारत के सभी नागरिकों के लिए खुला होना चाहिए।

देवरज्जाह बनाम पद्मन्ना, एआईआर 1958 एमवाईएस 84

देवराजह बनाम पद्मना के मामले में, अस्पृश्यता शब्द को परिभाषित किया गया था। यह कहा गया था कि अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 ‘अस्पृश्यता’ शब्द को परिभाषित करने में विफल है। न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत ‘अस्पृश्यता’ को शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए, बल्कि इसे एक ऐसी प्रथा के रूप में समझा जाना चाहिए जो भारत में प्रचलित (प्रिवेल्ड) और विकसित हुई है। संविधान निर्माताओं ने स्पष्ट रूप से अस्पृश्यता को इस देश में ऐतिहासिक रूप से विकसित एक प्रथा के रूप में इंगित किया था। इस देश में अस्पृश्यता का अस्तित्व और प्रथा और पिछले दशकों के दौरान इसके उन्मूलन (एलिमिनेशन) के लिए जो प्रयास किए गए हैं, वे सामान्य ज्ञान के मामले हैं और इस पर न्यायिक ध्यान दिया जा सकता है।

संविधान का अनुच्छेद 17 जिसका उद्देश्य अस्पृश्यता की प्रथा को समाप्त करना था, ‘अस्पृश्यता’ शब्द को परिभाषित करने में विफल है और न ही इसे संविधान में परिभाषित किया गया है। इस मामले के माध्यम से न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत ‘अस्पृश्यता’ शब्द की व्यापक व्याख्या की है।

एशियाड परियोजना श्रमिक मामला

एशियाड परियोजना श्रमिक प्रकरण में, पीयूडीआर ने दिल्ली प्रशासन के खिलाफ एक मामला दायर किया। पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक (पीयूडीआर) एक ऐसा संगठन है जिसका गठन नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के उद्देश्य से किया गया था। इसने एशियाड परियोजनाओं में काम करने वालों की परिस्थितियों के बारे में पूछताछ करने के लिए तीन सामाजिक वैज्ञानिकों को नियुक्त किया। पूछताछ के आधार पर, पीयूडीआर ने एशियाड परियोजनाओं में हो रहे श्रम कानूनों के विभिन्न उल्लंघनों के बारे में एक पत्र लिखकर न्यायमूर्ति भगवती को संबोधित किया। सर्वोच्च न्यायालय ने पत्र को एक रिट याचिका के रूप में माना और भारत संघ, दिल्ली प्रशासन और दिल्ली विकास प्राधिकरण (अथॉरिटी) को नोटिस जारी किया। उल्लंघन इस प्रकार थे:

  1. समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 के प्रावधानों का उल्लंघन किया गया। महिला श्रमिकों को पुरुष श्रमिकों से कम वेतन दिया जा रहा था और जमादारों द्वारा मजदूरी की राशि का दुरुपयोग किया जा रहा था। निचली जातियों के श्रमिकों को अछूत माना जाता था और उन्हें बिना मजदूरी के काम करने के लिए मजबूर किया जाता था। इसके परिणामस्वरूप संविधान के अनुच्छेद 17 और 23 का उल्लंघन हुआ ।
  2. श्रम कानून के साथ-साथ संविधान के अनुच्छेद 24 का भी उल्लंघन था क्योंकि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को परियोजना (प्रोजेक्ट) में नियोजित (एम्प्लॉय) किया गया था।
  3. श्रमिकों के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का उल्लंघन था क्योंकि उन्हें उचित रहने की स्थिति और चिकित्सा सुविधाओं से वंचित किया गया था।

सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया वह याचिकाकर्ताओं के पक्ष में था। न्यायालय ने कहा कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है। न्यूनतम मजदूरी के लिए दिशा-निर्देशों का एक सेट दिया गया था और श्रमिकों के लिए उचित काम करने की स्थिति सुनिश्चित करने के लिए कई अन्य प्रावधान पेश किए गए थे।

उपाधियों का उन्मूलन (अबोलिशन ऑफ़ टाइटल्स): अनुच्छेद 18

संविधान का अनुच्छेद 18 राज्य को भारत के नागरिकों को कोई उपाधि प्रदान करने से मना करता है और साथ ही उन्हें किसी विदेशी राज्य द्वारा दी गई किसी भी उपाधि को स्वीकार करने से प्रतिबंधित किया गया है। हालांकि, सैन्य और शैक्षणिक भेदों को प्रदान किया जा सकता है। भारत रत्न और पद्म विभूषण जैसे पुरस्कारों के साथ आने वाली उपाधि संवैधानिक निषेध के अंदर नहीं आती है और इस प्रकार, वे संविधान के अनुच्छेद 18 के तहत उपाधि की परिभाषा के अंदर नहीं आते हैं।

बालाजी राघवन बनाम भारत संघ, (1996) 1 एससीसी 361

बालाजी राघवन बनाम भारत संघ के मामले में, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि पद्म विभूषण, पदम भूषण, पद्मश्री और भारत रत्न जैसे राष्ट्रीय पुरस्कार व्यक्तियों को नहीं दिए जाने चाहिए क्योंकि यह अनुच्छेद 18 का उल्लंघन है। अदालत में यह तर्क दिया गया था कि राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अक्सर उस उपाधि का दुरुपयोग करते हैं जो उन्हें सरकार द्वारा दी जाती है। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राष्ट्रीय पुरस्कार अनुच्छेद 18 के अनुसार उपाधियों के अधीन नहीं हैं और राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करना संविधान के तहत समानता का उल्लंघन नहीं है। संविधान का अनुच्छेद 51 (A) (F) किसी व्यक्ति के कर्तव्य के प्रदर्शन में उत्कृष्टता की आवश्यक मान्यता और प्रशंसा के बारे में बोलता है। न्यायालय ने राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए सही उम्मीदवारों का चयन करने में सरकार की विफलता की आलोचना (क्रिटिसाइज) की और यह भी कहा कि चयन के पूरे मानदंड अस्पष्ट थे और काम की मान्यता और प्रशंसा का मुख्य उद्देश्य पूरी तरह से गायब था।

वरिष्ठ अधिवक्ता का पदनाम

इंदिरा जयसिंह बनाम भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता की नियुक्ति पर सवाल उठाया गया क्योंकि वरिष्ठ अधिवक्ताओं की नियुक्ति विभिन्न उच्च न्यायालयों में विभिन्न मानदंडों और दिशानिर्देशों पर आधारित थी। इसके बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने वरिष्ठ अधिवक्ताओं की नियुक्ति के लिए दिशानिर्देशों का एक नया सेट तैयार किया। याचिकाकर्ता इंदिरा जयसिंह ने इस आधार पर याचिका दायर की कि वरिष्ठ अधिवक्ताओं की नियुक्ति के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जो दिशा-निर्देश निर्धारित किए गए हैं, वे त्रुटिपूर्ण हैं और उन्हें सुधारने की आवश्यकता है। वर्ष 2015 से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ता की उपाधि के साथ कोई वकील नहीं रहा है। आखिरी बार न्यायालय ने वरिष्ठ अधिवक्ता की नियुक्ति अप्रैल 2015 में की थी। यह मामला न्यायालय के सामने तब आया जब वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने एक याचिका दायर कर पक्षपातपूर्ण नजरिए पर सवाल खड़ा किया जब ‘उन्हें गाउन देने’ की बात आई। यह याचिका 2015 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 5 नए वरिष्ठ अधिवक्ताओं की नियुक्ति के बाद आई थी। उसने तर्क दिया कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। उसने यह भी तर्क दिया कि इससे कानून की अदालत में वरिष्ठ अधिवक्ता का एकाधिकार (मोनोपॉली) हो गया और वरिष्ठ पदनाम की नियुक्ति के तरीके से न्यायाधीशों के साथ अस्वस्थ पैरवी भी होती है। उक्त याचिका के बाद न्यायालयों ने वरिष्ठ अधिवक्ताओं की नियुक्ति पर रोक लगा दी है।

निष्कर्ष 

समानता का अधिकार एक साधारण अवधारणा नहीं है जैसा कि माना जाता है। भारतीय संविधान का उद्देश्य एक ऐसे समाज को प्राप्त करना है जिसमें सभी व्यक्तियों को समान अवसर प्रदान किया जाए। संविधान के तहत समानता के अधिकार के आलोक में जो विकास हुए हैं, उन्होंने भारतीय समाज का उत्थान किया है। संविधान निर्माताओं ने एक ऐसे समाज को प्राप्त करने का लक्ष्य रखा जहां सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार किया जाए। न्यायालयों ने निर्णयों के माध्यम से विभिन्न व्याख्याएं दी हैं ताकि समानता के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सके जो भारतीय संविधान के निर्माताओं का इरादा था। 

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