आईपीसी की धारा 323 द्वारा प्रदान की गई सजा 

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Indian Penal Code

यह लेख Bhavika Mittal द्वारा लिखा गया है, जो पुणे के श्री नवलमल फिरोदिया लॉ कॉलेज से बीए एलएलबी कर रही हैं। यह लेख भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 323 द्वारा प्रदान की गई सजा का विस्तृत विवरण देने का प्रयास करता है। इस लेख का अनुवाद Shubhya Paliwal द्वारा किया गया है। 

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परिचय

भारतीय दंड संहिता, 1860 का अध्याय 16, जिसका शीर्षक “मानव शरीर को प्रभावित करने वाले अपराध” है, को मूल आपराधिक कानून का दिल कहा जाता है। शीर्षक से, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अध्याय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदान किए गए जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को संरक्षित और सुनिश्चित करता है। यह संहिता का सबसे बड़ा अध्याय है, जिसमें 88 धाराएं शामिल हैं। ये धाराएं, समग्रता (टोटेलिटी) में, मानव जीवन को प्रभावित करने वाले सभी पहलुओं को शामिल करती हैं।

ऐसा ही एक गैर घातक (नॉन फेटल) अपराध चोट होता है। इसकी गैर-गंभीर प्रकृति और मानव जीवन को प्रभावित करने की नगण्य (नेगलिजिबल) संभावना के कारण यह घातक अपराध नहीं है। धारा 319 इन्ही सब योग्यताओं को प्रदान करके चोट के अपराध को परिभाषित करती है। स्वेच्छा से चोट पहुँचाने की सजा आईपीसी की धारा 323 के तहत प्रदान की जाती है। एक अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए, धारा 321 के तहत उल्लिखित आवश्यकताओं को पूरा करके चोट स्वेच्छा से पहुंचाई जानी चाहिए।

चोट की परिभाषा

संहिता के निर्माताओं ने शारीरिक हमले की चार श्रेणियां निर्धारित कीं, उनमें से एक चोट है। आम आदमी की भाषा में, “चोट” का अपराध तब होता है जब एक व्यक्ति दूसरे को दर्द या हानि पहुँचाता है। ऐसे कार्य जो मनुष्यों को प्रभावित करते हैं, भारतीय दंड संहिता द्वारा परिभाषित और परिणामस्वरूप दंडित किए जाते हैं। संहिता की धारा 319 चोट के अपराध को परिभाषित करती है।

शारीरिक पीड़ा

इसके मानदंड (क्राइटेरिया) केवल शारीरिक पीड़ा तक ही सीमित हैं; मानसिक और भावनात्मक दर्द इस धारा के दायरे से बाहर हैं। इस अपराध के लिए शारीरिक दर्द पैदा करना एक आवश्यकता है बावजूद इसके कि साधन प्रत्यक्ष रुप से नियोजित (इंप्लॉयड) किया गया हो या अप्रत्यक्ष रूप से। इसके अतिरिक्त, दर्द की अवधि से कोई फर्क नहीं पड़ता।

उदाहरण: A, B को खतरनाक खबर देता है। इससे, B को दर्द हो सकता है, लेकिन A चोट पहुँचाने के लिए उत्तरदायी नहीं है।

उदाहरण: A, एक व्यक्ति B को डंडे से पीटता है। यहाँ, A, B को चोट पहुँचाने के लिए उत्तरदायी है।

शैलेंद्र नाथ हाटी बनाम अश्विनी मुखर्जी, 1987, के मामले में याचिकाकर्ता को कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा आईपीसी की धारा 323 के तहत चोट का दोषी पाया गया था। याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी को थप्पड़ मारा, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिवादी सड़क पर गिर गई और इसके बाद याचिकाकर्ता ने उसकी कमर पर लात मारी।

बीमारी

एक विशेष बीमारी को दूसरे को संप्रेषित (कम्युनिकेटिंग) करने वाला व्यक्ति चोट पहुंचाने का दोषी होगा। संहिता “बीमारी” को परिभाषित नहीं करती है, लेकिन एक सामान्य अर्थ में, बीमारी का अर्थ सामान्य स्थिति की खराबी (इंपेयरमेंट) है, जो महत्वपूर्ण कार्यों के प्रदर्शन को प्रभावित करती है। सिफलिस आदि यौन रोगों के संचरण (ट्रांसमिशन) के संबंध में न्यायपालिका के विचार परस्पर विरोधी हैं।

उदाहरण: A, एक संक्रामक (कोंटेजियस) बीमारी से पीड़ित व्यक्ति जानबूझकर B के संपर्क में आता है। यहां, A चोट पहुंचाने का दोषी है।

दुर्बलता

यह किसी अंग की सामान्य रूप से कार्य करने में अक्षमता है, चाहे वह स्थायी रूप से हो या अस्थायी रूप से। इसमें अस्थायी मानसिक हानि, मिरगी (हिस्टीरिया) या आतंक भी शामिल है।

अनीस बेग बनाम एंपरर, 1923 में, मिठाई खाने के बाद एक लड़की और उसके परिवार के सदस्यों में धतूरा विषाक्तता (पॉइजनिंग) के लक्षण पाए गए थे। लड़की प्रलाप (डिलीरियम) में प्रवेश कर चुकी थी और उसके कोमा में जाने का खतरा था। अपीलकर्ता के कहने पर लड़के ने मिठाई बांटी थी। अपीलकर्ता को चोट पहुँचाने का दोषी पाया गया था। अंत में, मिठाई खाने वाले व्यक्तियों में से किसी की मृत्यु नहीं हुई।

लेकिन ऐसे उदाहरण हैं जहां अभियुक्त को क्षति का दोषी ठहराया जाता है, भले ही मृत्यु कारित की गई हो, लेकिन केवल तब जब मृत्यु का न तो इरादा था और न ही मृत्यु कारित करने की संभावना थी।

उदाहरण के लिए, मार्सेलिनो फर्नांडीस और अन्य बनाम राज्य, 1970 में, अपीलकर्ताओं और चार अन्य लोगों ने नकली अंगूठी बेचने के लिए एक व्यक्ति की पिटाई की। नतीजतन, तीन घंटे के बाद पीड़ित की मौत हो गई। अदालत ने कहा कि अभियुक्त आईपीसी की धारा 304 के तहत नहीं बल्कि आईपीसी की धारा 323 के तहत दंडनीय हैं। अदालत ने यह फैसला इसलिए लिया क्योंकि हत्या करने या ऐसी शारीरिक चोट जिससे मौत होने की संभावना होती है, का कारण बनने के इरादे का कोई पर्याप्त सबूत नहीं था।

स्वेच्छा से चोट पहुँचाना

आईपीसी की धारा 321 स्वेच्छा से चोट पहुँचाने को परिभाषित करती है जो कोई भी कार्य करता है:

  1. चोट पहुँचाने के इरादे से, या
  2. चोट लगने की संभावना के ज्ञान के साथ, और
  3. दूसरे को कष्ट पहुँचाता है।

सीधे शब्दों में कहें, स्वेच्छा से चोट पहुँचाने का मतलब इरादे या ज्ञान से चोट पहुँचाना है। इस प्रकार, धारा के तहत अपराध का गठन करने के लिए इरादे या ज्ञान के घटक अनिवार्य रूप से मौजूद होने चाहिए।

दलपति मांझी बनाम राज्य, 1981 में पीड़ित आक्रामक (एग्रेसिव) लहजे का इस्तेमाल कर रहा था, जिससे अशांति फैल गई। ऐसी आवाजें सुनकर अभियुक्त मौके पर पहुंचे और पीड़ित का हाथ पकड़कर दूर ले जाने का प्रयास किया। पीड़ित को वहां से निकालने में पीड़ित गिर गया और उठ नहीं सका। नतीजतन, यह ज्ञात था कि पीड़ित नशे की हालत में था, और अभियुक्त शांति बहाल करने के इरादे से उसे दूर ले गया था। इसलिए, उड़ीसा उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि यह अनुमान लगाया जा सकता है कि याचिकाकर्ता की ओर से कोई इरादा या ज्ञान नहीं था। इस प्रकार, याचिकाकर्ता को आईपीसी की धारा 321 के तहत आरोपों से बरी कर दिया गया।

अपराध का वर्गीकरण

स्वेच्छा से चोट पहुँचाना एक असंज्ञेय (नॉन कॉग्निजेबल) और जमानती अपराध है, जो न्यायालय के विवेक पर समाशोधन (कंपाउंडेबल) योग्य है। इसके अतिरिक्त, यह किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय (ट्राएबल) है।

वे कार्य जहाँ एक व्यक्ति को चोट पहुँचाने का इरादा होता है लेकिन दूसरे को पहुँच जाती है

आईपीसी की धारा 321 में उन सभी कार्यों को शामिल किया गया है जहां इच्छित व्यक्ति को चोट पहुंचाने के दौरान दूसरे पक्ष को चोट लगती है। राधे बनाम राज्य, 1969 में, पीड़िता ने कथित रूप से अपीलकर्ता की माँ को अपने घर में छुपाया था, इस प्रकार, हमलावर के इरादे को स्थापित किया। अभियुक्त और दो अन्य व्यक्तियों ने पीड़ित पर लाठियों से हमला किया, जिससे पीड़ित व्यक्ति की मौत हो गई। अभियुक्तों को गैर इरादतन हत्या (कल्पेबल होमीसाइड) का दोषी ठहराया गया था, जो हत्या की कोटि में नहीं थी। इसके अलावा, तीन अन्य व्यक्ति जिन्होंने लड़ाई में हस्तक्षेप किया और लाठी मारी थी, उन्हें चोट पहुँचाने के लिए आईपीसी की धारा 323 के तहत तीन महीने की कैद की सजा सुनाई गई। यहाँ, भले ही हस्तक्षेप करने वालों को चोट पहुँचाने का कोई इरादा या ज्ञान नहीं था, लेकिन उन्हे दोषी ठहराया गया था।

आईपीसी की धारा 321 के तहत आने वाले कार्य आईपीसी की धारा 323 के तहत दंडनीय हैं।

आईपीसी की धारा 323 की अनिवार्यताएं

यह स्वेच्छा से साधारण चोट पहुँचाने की सजा के लिए एक सामान्य धारा है। आईपीसी की धारा 323 के तहत किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए यह परीक्षण करना आवश्यक है कि क्या चोट लगी है,

  • सबसे पहले, प्रकृति में स्वैच्छिक, और
  • दूसरी, इस तरह की चोट गंभीर और अचानक उकसावे का परिणाम नहीं होनी चाहिए। धारा में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आईपीसी की धारा 334, जो उकसावे के कारण स्वेच्छा से चोट पहुंचाने की बात करती है, इसका अपवाद (एक्सेप्शन) है।

आईपीसी की धारा 334 

यह धारा गंभीर और अचानक उकसावे पर स्वेच्छा से चोट पहुंचाने के लिए सजा का प्रावधान करती है। इस धारा को आईपीसी की धारा 323 के नियंत्रक (कंट्रोलर) के रूप में देखा जाता है, जैसा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एंपरर बनाम यूसुफ हुसैन, 1918 में सुनाया था, जहां दो लोगों में लड़ाई हो गई थी, और झगड़े के अंत में पीड़ित का बहुत खून बह गया था। अभियुक्त  को धारा 334 के तहत दोषी करार देते हुए 100 रुपये भरने की सजा सुनाई गई थी। 

गंभीर और अचानक उकसावे का अर्थ

आईपीसी की धारा 323 के तहत गंभीर और अचानक उकसावे की व्याख्या आईपीसी की धारा 300 के अपवाद 1 के अर्थ के समान है। इसका संक्षेप में अर्थ है, कि अभियुक्त जब गंभीर और अचानक उकसावे से आत्म-संयम से वंचित हो जाता है और उस क्षण के लिए, वह अपने आचरण का स्वामी नहीं होता। इस तरह का उकसावा स्वेच्छा से नहीं होता है। लोक सेवकों द्वारा निजी रक्षा का वैध प्रयोग और कानूनी शक्तियों का उपयोग अपवाद 1 के प्रावधानों के लिए असाधारण है।

सजा किसे दी जाती है

धारा को पढ़कर आसानी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जो व्यक्ति अचानक और गंभीर उकसावे के कारण चोट पहुँचाता है, उसे इस धारा के तहत दंडित किया जाएगा भले ही ऐसे अपराध में किसी भी तरह से किसी को चोट पहुँचाने का इरादा या ज्ञान नहीं होता है। स्वेच्छा से चोट पहुँचाने का प्रमाण एक गंभीर और अचानक उकसावे पर आधारित है, जो मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। धारा 334 द्वारा इस तरह के सबूत की आवश्यकता यह सुनिश्चित करने के लिए है कि चोट केवल उकसाने वाले को दी गई है और यह कि किसी अन्य को चोट पहुँचाने का कोई इरादा या ज्ञान नहीं था।

इसलिए, आईपीसी की धारा 323 के तहत एक अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए, अचानक या गंभीर उकसावे के बिना स्वैच्छिक रूप से चोट पहुंचाई जानी चाहिए।

आईपीसी की धारा 323 के तहत किए गए अपराध के लिए सजा 

जहां धारा 321, “स्वेच्छा से चोट पहुंचाने” के सभी आवश्यक तत्व पूरे होते हैं, दोषी को निम्नलिखित से दंडित किया जाएगा:

  1. सरल या कठोर प्रकृति का कारावास जिसे 1 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या
  2. एक हजार रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है, या
  3. दोनों हो सकती है।

जब कोई व्यक्ति कानूनी रूप से बल प्रयोग करने का हकदार होता है, और इस तरह की कार्रवाई के दौरान थोड़ी सी भी चोट लग जाती है, तो आईपीसी की धारा 323 के तहत शिकायत पर विचार नहीं किया जाएगा। इसके बजाय मामला संहिता की धारा 95 के तहत आएगा।

श्यामजी बनाम राजस्थान राज्य, 1992 में अभियुक्त  ने नशे की हालत में अपनी पत्नी को पीटा और उसके सिर पर पत्थर फेंका, जिससे उसकी मौत हो गई। निचली अदालत ने अभियुक्त को आईपीसी की धारा 302 और आईपीसी की धारा 323 के तहत दोषी करार दिया। पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट के आधार पर राजस्थान उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें मौत का सही कारण नहीं बताया गया था। साथ ही, जांच और गवाहों की सुनवाई पर, यह स्थापित किया गया था कि अभियुक्त और मृतक के बीच सौहार्दपूर्ण (कॉर्डियल) संबंध थे। इस प्रकार, अभियुक्त को आईपीसी की धारा 323 के तहत दोषी ठहराया गया और एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई।

पिर्थी बनाम हरियाणा राज्य, 1993 में एक झगड़े में अभियुक्त ने मृतक के अंडकोष (टेस्टिकल्स) पर लात मारी। मृतक को दो दिन तक इलाज नहीं मिला, जिससे टैक्सेमिया के कारण घायल की मौत हो गई। चूँकि मृत्यु का कारण अभियुक्त द्वारा की गई चोट नहीं थी, सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 304 भाग 2 के तहत सजा को रद्द कर दिया और आईपीसी की धारा 323 के तहत सात महीने के कठोर कारावास और वारिसों को भुगतान किए गए हजार रुपये के जुर्माने के साथ दोषी ठहराया गया। 

उपरोक्त मामलों से, यह देखा जा सकता है कि जब अभियुक्त पर शुरू में हत्या या गैर-इरादतन हत्या जैसे गंभीर अपराधों का आरोप लगाया जाता है, तो आईपीसी की धारा 323 व्यापक रूप से कार्रवाई में लाई जाती है। जांच और मुकदमे के बाद, नामित न्यायिक पीठ मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर आईपीसी की धारा 323 की सजा की गंभीरता को कम कर देती है।

इस प्रकार, यह धारा ऐसे अभियुक्तों के लिए जीवन रक्षक (लाइफ जैकेट) के रूप में कार्य करती है, जो गंभीर अपराध करने के दोषी नहीं हैं और गंभीर दंड से सजा पाने से उन्हें सुरक्षित करती हैं।

महत्वपूर्ण मामले

मुहम्मद इब्राहिम बनाम शैक दाऊद, 1920

मुहम्मद इब्राहिम बनाम शैक दाऊद, 1920 के मामले में अदालत ने कहा कि पीड़ित की मृत्यु के कारण आईपीसी की धारा 323 के तहत अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) की समाप्ति नहीं होगी।

तथ्य

मृत पीड़िता को पीटने के आरोप में दो लोगों पर आईपीसी की धारा 323 के तहत मामला दर्ज किया गया था। बचाव पक्ष के वकील ने मजिस्ट्रेट के ध्यान में लाया कि घायल व्यक्ति की मृत्यु धारा के तहत अभियोजन को समाप्त कर देती है। मजिस्ट्रेट ने विवाद पर विचार किया लेकिन दोषसिद्धि या दोषमुक्ति के बिना मामले को समाप्त कर दिया।

इसके बाद मद्रास उच्च न्यायालय में अपील दायर की गई। दूसरे अभियुक्त को समन की तामील करना असंभव पाया गया। जहां तक ​​पहले आरोपी का सवाल है, जो इस मामले में प्रतिवादी है, उच्च न्यायालय ने मजिस्ट्रेट को मामले को बहाल (रिस्टोर) करने और प्रतिवादी को दोषी ठहराने का आदेश दिया।

मुद्दा 

क्या आईपीसी की धारा 323 के तहत अभियोजन की समाप्ति के लिए घायल व्यक्ति की मौत एक आधार है?

निर्णय 

मद्रास उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया और कहा कि इस धारा के तहत मुकदमा घायल व्यक्ति की मृत्यु के कारण समाप्त नहीं होता है। इसलिए आईपीसी की धारा 323 के तहत घायल व्यक्ति की मौत होने पर भी सजा दी जाएगी।

कोसाना रंगनायकम्मा बनाम पसुपुलती सुब्बम्मा और अन्य, 1966

कोसाना रंगनायकम्मा बनाम पसुपुलती सुब्बम्मा और अन्य, 1966 में, चार आरोपियों ने पीड़िता को पीटा, जिनमें से तीन को बरी कर दिया गया। इसके अलावा, एक पुनरीक्षण (रिवीजन) याचिका सत्र न्यायाधीश के पास दायर की गई थी लेकिन खारिज कर दी गई थी। शिकायतकर्ता ने एक विशेष अनुमति याचिका दायर की लेकिन आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने उसे अस्वीकार कर दिया। उच्च न्यायालय ने धारा 319, 321 सहपठित धारा 323 के तहत एक महिला को बाल पकड़कर खींचने के मामले में अभियुक्त  को दोषी ठहराने के निचली अदालत के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। इस मामले में, महिलाओं को बालों से खींचना एक अपराध के रूप में माना गया क्योंकि यह आक्रामकता के कार्यों को इंगित करता है जो चोट पहुँचाता है। अभियुक्त को एक माह के कठोर कारावास और तीस रुपए जुर्माने की सजा सुनाई गई।

निष्कर्ष

चोट पहुँचाने और स्वेच्छा से चोट पहुँचाने के बीच अस्पष्ट अंतर को स्वेच्छा से चोट पहुँचाने की आईपीसी की धारा 321 के अनिवार्य तत्वों के रूप में इरादे और ज्ञान की मदद से पहचाना जा सकता है। लेकिन इन दो अलग-अलग अपराधों को आईपीसी की एक सामान्य धारा 323 के तहत दंडित किया जाता है। यह धारा अपने अर्थ में पूर्ण नहीं है क्योंकि यह अचानक और गंभीर उकसावे के परिणामस्वरूप हुई चोट के उन अपराधों को दोषी ठहराने से छूट देती है। इसके अलावा धारा 323 अभियुक्त के पक्ष में सुरक्षा की धारा है। यह एक आवश्यकता की तरह लगती है क्योंकि दोषी साबित होने तक एक व्यक्ति को निर्दोष कहा जाता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

क्या कोविड-19 फैलाना चोट का अपराध है?

नहीं, क्योंकि कोरोना वायरस एक जानलेवा बीमारी है। इतना खतरनाक संक्रमण फैलाना आईपीसी की धारा 269 के तहत दंडनीय है। पवन गिरी और अन्य बनाम हरियाणा राज्य, 2022 में, अदालत ने कहा कि आईपीसी की धारा 269 को आकर्षित करने के लिए, एक अभियुक्त का कार्य ऐसा होना चाहिए जिससे जीवन के लिए खतरनाक किसी भी बीमारी का संक्रमण फैलने की संभावना हो।

आईपीसी की धारा 323 के तहत किस अदालत में अपराध का मुकदमा चलाया जाता है?

आईपीसी की धारा 323 के तहत किए गए अपराध के लिए किसी भी मजिस्ट्रेट के पास सुनवाई का अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिकशन) होता है।

संदर्भ 

  • Ratanlal and Dhirajlal, The Indian Penal Code, 30th edition 
  • B.M. Gandhi, Indian Penal Code, third edition 
  • https://www.writinglaw.com

 

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