आईपीसी की धारा 302 के तहत सजा

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Indian Penal Code

यह लेख जोगेश चंद्र चौधरी लॉ कॉलेज की छात्रा Upasana Sarkar ने लिखा है। इस लेख का उद्देश्य भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 की समझ प्रदान करना है। यह आईपीसी की धारा 302 के तहत दी गई सजा का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारतीय दंड संहिता, 1860 में कहा गया है कि हत्या करने वाले व्यक्ति को कड़ी सजा दी जानी चाहिए। हत्या एक दुष्ट कार्य है। किसी को भी दूसरे व्यक्ति की जान लेने का अधिकार नहीं है। इस जघन्य (हिनियस) अपराध के लिए हत्यारे को उम्रकैद या मौत की सजा दी जानी चाहिए। किसी को मारना एक भयानक काम है जो एक व्यक्ति करता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 302 हत्या के लिए सजा से संबंधित है। यह उन दंडों को निर्धारित करता है जो अपराधियों को उनके द्वारा किए गए विशिष्ट अपराधों के लिए दिए जाते हैं। न्यायालय के लिए विचार का मुख्य बिंदु हत्या के मामलों में अभियुक्तों की मंशा और इरादा है।

आईपीसी की धारा 302 क्या कहती है 

भारतीय दंड संहिता की धारा 302 हत्या करने के दोषी अपराधी को सजा देने का प्रावधान करती है। अभियुक्त पर इसी धारा के तहत मुकदमा चलेगा। कार्यवाही के अंतिम चरण में, यदि अभियुक्त अपराध का दोषी साबित होता है, तो उसे धारा 302 में निर्धारित सजा दी जाती है। इस धारा में कहा गया है कि जिसने भी हत्या की है उसे आजीवन कारावास या मृत्युदंड के साथ दंडित किया जाएगा और जुर्माना, अपराध की गंभीरता पर निर्भर करता है। अभियुक्तों का इरादा और मकसद हत्या के मामलों में महत्वपूर्ण कारक हैं।

हत्या के आवश्यक तत्व

हत्या के आवश्यक तत्व इस प्रकार हैं:

इरादा

मौत का कारण बनने का इरादा होना चाहिए।

दृष्टांत (इलस्ट्रेशन): ‘A’ ने मौत का कारण बनने के इरादे से ‘B’ के पेट पर चाकू से गंभीर प्रहार किया। इसलिए, ‘B’ की मृत्यु हो गई और ‘A’ द्वारा हत्या की गई।

मौत का कारण

कार्य को इस ज्ञान के साथ किया जाना चाहिए कि कार्य किसी अन्य की मृत्यु का कारण हो सकता है या होने की संभावना रखता है।

चित्रण: ‘X’ ने ‘Y’ को एक ऊंची इमारत की छत से धक्का दिया, जहां ‘X’ को यह ज्ञान था कि इस कार्य से ‘Y’ की मृत्यु होने की संभावना थी। इसलिए, ‘Y’ की मृत्यु हो गई और ‘X’ द्वारा हत्या की गई।

शारीरिक चोट

इरादा ऐसी शारीरिक चोट का कारण होना चाहिए जिससे मृत्यु होने की संभावना हो।

दृष्टांत: ‘P’ जानता था कि ‘Q’ पहले से ही घायल हो गया था क्योंकि वह अपनी बाइक से गिर गया था। ‘P’ ने ‘Q’ के सिर पर एक रॉड से शारीरिक चोट पहुंचाने के इरादे से मारा जिससे उसकी मौत होने की संभावना थी। नतीजतन, ‘Q’ की मृत्यु हो गई, और ‘P’ द्वारा हत्या की गई।

धारा 302 का दायरा

भारतीय दंड संहिता की धारा 302 हत्या के लिए सजा का प्रावधान करती है। धारा 302 में कहा गया है कि जो कोई भी हत्या करता है उसे दंडित किया जाता है:

  • मृत्यु, या
  • आजीवन कारावास, और
  • अपराधी जुर्माना भरने का भागी होगा।

अपराध गैर-जमानती, संज्ञेय (कॉग्निजेबल) और सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय (ट्राईएबल) है।

आईपीसी की धारा 302 के लिए सजा

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 के लिए सजा नीचे दी गई है:

मृत्यु दंड

मौत की सजा या मृत्युदंड तब दिया जाता है जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की हत्या करने का दोषी होता है। यह एक कानूनी प्रक्रिया है जिसके तहत किसी व्यक्ति को हत्या जैसे भयानक अपराध के लिए सजा के रूप में राज्य द्वारा मौत की सजा दी जाती है। इतनी गंभीर सजा देने के पीछे मुख्य मकसद यह सुनिश्चित करना है कि वह व्यक्ति फिर से अपराध न दोहराए। भारत में, “दुर्लभतम से दुर्लभतम (रेयरेस्ट ऑफ़ द रेयर)” मामलों में मृत्युदंड दिया जाता है। फिर भी, कुछ ऐसे घिनौने अपराध हैं जिनके लिए मृत्युदंड के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। मौत की सजा, सजा के सबसे पुराने रूपों में से एक है, जहां अपराधी को कानून की उचित प्रक्रिया के तहत फांसी दी जाती है।

मिठू बनाम पंजाब राज्य (1983) में, सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 303 को रद्द कर दिया, जिसमें आजीवन कारावास की सजा काट रहे अपराधियों के लिए अनिवार्य मौत की सजा का प्रावधान था। याचिकाकर्ता ने आईपीसी की धारा 303 को चुनौती दी थी। न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि धारा 303 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत गारंटीकृत समानता के साथ-साथ अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन करती है। इस मामले में कानून आयोग की रिपोर्ट और अनिवार्य मृत्युदंड पर विधियों के बारे में भी बात की गई थी। भारत ने दिसंबर 2007 में मौत की सजा को खत्म करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा (जनरल असेंबली) के प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया। भारत ने नवंबर, 2012 में मृत्युदंड को वैश्विक स्तर पर समाप्त करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा के मसौदे (ड्राफ्ट) के प्रस्ताव के खिलाफ मतदान करके फिर से अपने फैसले को बरकरार रखा। भारत ने केवल राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेडऩे वाले अपराधों या आतंकवाद से संबंधित अपराधों के लिए मौत की सजा का समर्थन किया। भारत के विधि आयोग ने 31 अगस्त, 2015 को वह रिपोर्ट सरकार को सौंप दी।

राजू जगदीश पासवान बनाम महाराष्ट्र राज्य (2019) में, डॉक्टर ने गवाही दी कि योनि (वेजाईनल) के साथ-साथ गुदा मैथुन (ऐनल इंटरकोर्स) के भी सबूत थे। मृत्यु का कारण डूबना बताया गया और सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आजीवन कारावास एक नियम है और मृत्युदंड एक अपवाद है।

आजीवन कारावास

कारावास एक प्रकार की सजा है जो अपराध करने वाले को दी जाती है। अपराधी को जेल भेज दिया जाता है, जहाँ उसे कारावास की सजा काटनी होती है। भारतीय दंड संहिता की धारा 53 में साधारण कारावास, कठोर कारावास और एकान्त कारावास सहित तीन प्रकार के कारावास का उल्लेख है। आजीवन कारावास का अर्थ है कि अपराधी को अपना शेष जीवन जेल में बिताना होगा। आजीवन कारावास उस व्यक्ति को दिया जाता है जिसने हत्या जैसे गंभीर अपराध को अंजाम दिया हो। आजीवन कारावास का भी अपराधियों के दिमाग पर गहरा प्रभाव पड़ता है, हालांकि यह मृत्युदंड जितना गंभीर नहीं है।

भागीरथ बनाम दिल्ली प्रशासन (1985) में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि मुआवजे के उद्देश्यों के लिए, दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों से सजा के रूपांतरण (कन्वर्जन) और सहनशीलता का अर्थ लगाया जाएगा। हालांकि अभियुक्त को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, लेकिन वह कुल 14 साल जेल में बंद रहा था।

जुर्माना

भारतीय दंड संहिता की धारा 302 में कहा गया है कि हत्या करने वाला व्यक्ति मौत की सजा या आजीवन कारावास के साथ जुर्माना देने के लिए उत्तरदायी है। जुर्माने की राशि जो अपराधी को अदा करने की आवश्यकता है वह अदालत के विवेक पर निर्भर करती है। भुगतान की जाने वाली राशि पूरी तरह से अपराध की गंभीरता पर निर्भर करती है। जुर्माने का उपयोग धोखाधड़ी, जुआ, गबन (एंबेजलमेंट) जैसे छोटे अपराधों के लिए भी सजा के रूप में किया जाता है। इसलिए, अदालत द्वारा किए गए अपराध की भयावहता के आधार पर जुर्माने की राशि तय की जाती है।

हत्या के मामले में नाबालिग को सजा

“नाबालिग” का अर्थ है एक व्यक्ति जो 18 वर्ष से कम आयु का है। अपराध की गंभीरता का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन किए बिना नाबालिगों को मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा नहीं दी जाती है। चूँकि बच्चे हर पीढ़ी का भविष्य होते हैं, इसलिए अदालत को कोई भी सजा देने से पहले स्थिति का ठीक से निरीक्षण करना चाहिए। अदालत को यह पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए कि नाबालिग ने हत्या किन परिस्थितियों में की थी। साक्ष्य के कानून के सिद्धांत के आधार पर नाबालिग को सजा दी जाती है। उन्हें किशोर न्याय (जूविनाइल जस्टिस) (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 के आधार पर सजा दी जाती है, क्योंकि वे 18 वर्ष से कम आयु के होते हैं।

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 ने 2000 के अधिनियम का स्थान लिया। संशोधन के अनुसार, 16 से 18 वर्ष की आयु के व्यक्तियों को बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराधों के लिए दंडित किया जा सकता है। निर्भया बलात्कार मामले को ध्यान में रखते हुए इसमें संशोधन किया गया था। दिल्ली बलात्कार मामले के एक अभियुक्त को केवल तीन साल की कैद की सजा दी गई क्योंकि जब उसने अपराध किया था तब वह 17 साल का था। उसके बाद, बहुत सारे विवाद उत्पन्न हुए, जिसके कारण अधिनियम में संशोधन किया गया था।

श्री पुनीत बनाम कर्नाटक राज्य (2019) में, अभियुक्त पर आईपीसी की धारा 366A और 376 के तहत और यौन अपराधों से बच्चों की रोकथाम अधिनियम, 2012 की धारा 6 (मौत की सजा की परिकल्पना (हाइपोथेसिस)) के तहत आरोप लगाया गया था। अभियुक्त ने एक लड़की का अपहरण किया था और उस दौरान उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए थे। यह माना गया कि किशोर न्याय अधिनियम, 2015 के सभी प्रावधान मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर लागू होते हैं।

हत्या के मामले में सह-अभियुक्त को सजा

एक ही अपराध के अभियुक्त व्यक्ति या व्यक्तियों को सह-अभियुक्त कहा जाता है और उन्हें समान सजा दी जाएगी। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 30 के अनुसार अभियुक्त के बयान को सह अभियुक्त के विरुद्ध प्रयोग नहीं किया जा सकता है। अभियुक्त की स्वीकारोक्ति (कन्फेशन) को उचित साक्ष्य द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए क्योंकि यह उन दोनों को प्रभावित करेगा। असमानता और अन्याय से बचने के लिए अभियुक्तों और सह-अभियुक्तों को समान दंड दिया जाना चाहिए।

कमल किशोर बनाम राज्य (दिल्ली प्रशासन), 1972 के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि अभियुक्त का बयान जो खोज की ओर ले जाता है, या सह-अभियुक्त की स्वीकारोक्ति के लिए अभियुक्त के सूचनात्मक बयान का उपयोग नहीं किया जा सकता है।

आईपीसी की धारा 302 और धारा 304 के तहत दंड के बीच अंतर

धारा 302 हत्या के लिए सजा से संबंधित है, जबकि धारा 304 गैर इरादतन हत्या (कल्पेबल होमीसाइड) के लिए सजा से संबंधित है। आईपीसी की धारा 302 में कहा गया है कि जो कोई भी हत्या करेगा उसे मौत की सजा या आजीवन कारावास के साथ-साथ जुर्माना भी दिया जाएगा। दूसरी ओर, आईपीसी की धारा 304 में कहा गया है कि जो कोई भी गैर-इरादतन हत्या करता है, वह हत्या की श्रेणी में नहीं आता है, तो उसे आजीवन कारावास या दस साल की कैद के साथ-साथ जुर्माना भी दिया जाएगा। यदि कार्य इस ज्ञान के साथ किया जाता है कि इससे मृत्यु या शारीरिक चोट लगने की संभावना है क्योंकि मृत्यु का कारण बनने की संभावना के बिना मृत्यु होने की संभावना है, तो उसे कारावास से दंडित किया जाएगा जो दस वर्ष तक का हो सकता है, या जुर्माने के साथ, या दोनों के साथ।

आईपीसी की धारा 302 और धारा 304 के बीच अंतर का सारणीबद्ध प्रतिनिधित्व (टेबुलर रिप्रेजेंटेशन)

धारा 302 धारा 304
भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत हत्या के लिए सजा को परिभाषित किया गया है। भारतीय दंड संहिता की धारा 304 के तहत गैर इरादतन हत्या के लिए सजा को परिभाषित किया गया है।
धारा 302 के तहत हत्या की सजा में मौत की सजा या जुर्माने के साथ आजीवन कारावास शामिल है। धारा 304 के तहत, सजा में अपराध की गंभीरता के आधार पर आजीवन कारावास या दस साल की कैद और जुर्माना या कठोर कारावास शामिल है।
सभी हत्याएं गैर इरादतन हत्या की श्रेणी में आती हैं। गैर इरादतन हत्या एक व्यापक अवधारणा है। सभी गैर इरादतन हत्याओं को हत्या नहीं माना जाता है।
हत्या प्रथम श्रेणी के गैर इरादतन हत्या के अंतर्गत आती है। गैर इरादतन हत्या में पहली, दूसरी और तीसरी डिग्री के अपराध शामिल हैं, जहां दूसरी और तीसरी डिग्री गैर-इरादतन हत्याएं हैं।
धारा 302 के तहत किए गए अपराधों में इरादा और ज्ञान दोनों शामिल हैं। धारा 304 के तहत अपराध में इरादा और ज्ञान दोनों शामिल हो सकते हैं या बिना किसी इरादे के केवल ज्ञान भी शामिल हो सकता हैं।

धारा 302 के तहत दोषसिद्धि का परिवर्तन

हरदयाल और प्रेम बनाम राजस्थान राज्य (1991) में, अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) के दौरान तथ्यों और परिस्थितियों से एक उचित संदेह से परे अपराध का निष्कर्ष स्थापित नहीं किया जा सका। इसलिए धारा 34 के साथ पठित धारा 302 और धारा 392 के तहत दोषसिद्धि को रद्द करना पड़ा।

अनिल फुकन बनाम असम राज्य (1993) में, यह माना गया था कि दोषसिद्धि एक प्रत्यक्षदर्शी (आईविटनेस) की गवाही पर आधारित हो सकती है, बशर्ते उसकी गवाही विश्वसनीय और साक्ष्य द्वारा समर्थित हो। अपीलकर्ता संदेह के लाभ का हकदार था और उसे वह लाभ प्रदान किया गया। आईपीसी की धारा 302 के तहत अपराध के लिए सजा को रद्द कर दिया गया और उसे बरी कर दिया गया।

धारा 304 के तहत दोषसिद्धि का परिवर्तन

आसु बनाम राजस्थान राज्य (2000) में, अभियुक्त ने मृतक के सिर पर घातक चोट पहुंचाई, जिससे उसकी मृत्यु हो गई, लेकिन उसका उसे मारने का इरादा नहीं था। उन पर धारा 304 के तहत मुकदमा चलाया गया और उन्हें तीन साल, चार महीने और सत्ताईस दिनों की सजा सुनाई गई। जबकि अन्य अभियुक्त, जिसने तलवार से चोट पहुँचाई थी, को आईपीसी की धारा 324 के तहत दोषी ठहराया गया था, लेकिन इसे एक वर्ष से घटाकर पहले से ही जेल में बिताई गई अवधि जो नौ महीने थी, में कम कर दिया गया था।

देव सिंह बनाम पंजाब राज्य (2000) में, घटना के समय अभियुक्त लगभग अस्सी वर्ष का था और पूरी तरह से बिस्तर पर पड़ा हुआ था। ऐसे में न्यायालय ने उसकी सजा को कम करना उचित समझा। इसलिए न्याय कायम रखने के लिए सजा कम कर दी गई थी।

आईपीसी की धारा 300 के अपवाद जहां गैर इरादतन हत्या को हत्या नहीं माना जाता है

आईपीसी की धारा 300 उन आवश्यक तत्वों से संबंधित है जिनमें गैर इरादतन हत्या, हत्या की श्रेणी में आती है। यह धारा कुछ ऐसी परिस्थितियों को भी बताती है जहां अगर हत्या की जाती है, तो इसे हत्या की श्रेणी में नहीं आने वाली गैर इरादतन हत्या में बदल दिया जाता है, जो आईपीसी की धारा 302 के बजाय धारा 304 के तहत दंडनीय है।

इसके निम्नलिखित अपवाद हैं:

  1. गंभीर और अचानक उत्तेजना (प्रोवोकेशन),
  2. निजी बचाव (प्राइवेट डिफेंस) का अधिकार,
  3. सार्वजनिक न्याय के लिए कानूनी शक्ति का प्रयोग,
  4. अचानक लड़ाई में पूर्वचिंतन (प्रीमेडिटेशन) के बिना, और
  5. खुद की सहमति

गंभीर और अचानक उत्तेजना

यदि अपराधी गंभीर और अचानक उत्तेजना के अधीन है, जिसके परिणामस्वरूप उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, जिसने उसे उकसाया है या यदि उसका कार्य गलती या दुर्घटना से किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है, तो गैर-इरादतन हत्या को हत्या नहीं माना जाता है।

यह अपवाद निम्नलिखित परंतुक (प्रोविसो) के अधीन है:

  • किसी व्यक्ति को मारने या नुकसान पहुंचाने के बहाने के रूप में इस्तेमाल करने के लिए अपराधी द्वारा उकसावे की मांग या स्वेच्छा से उकसाया नहीं गया है।
  • कि उत्तेजना किसी वैध उद्देश्य के लिए नहीं दी गई है या किसी लोक सेवक द्वारा उसे दी गई शक्ति के वैध प्रयोग में नहीं दी गई है।
  • निजी बचाव के अधिकार का कानूनी रूप से प्रयोग करते हुए किए गए किसी भी काम से उत्तेजना नहीं दी गई थी।

दृष्टांत: ‘P’ ने जानबूझकर ‘Q’ को उकसाया ताकि वह ऐसी बातें कहकर उसे मारने के बहाने के रूप में इस्तेमाल कर सके। यह हत्या है क्योंकि ‘P’ ने जानबूझकर उसे उकसाया था।

निजी बचाव का अधिकार

गैर इरादतन हत्या को हत्या नहीं माना जाता है जब व्यक्ति संपत्ति या व्यक्तियों के निजी बचाव के अपने अधिकार का प्रयोग करते समय सद्भावना रखता है और कानून द्वारा दी गई शक्ति से अधिक होता है, जिसके परिणामस्वरूप उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है जिसके खिलाफ वह बिना किसी इरादे के अपने अधिकार का प्रयोग कर रहा है वह भी अपनी निजी रक्षा के उद्देश्य के लिए आवश्यकता से अधिक नुकसान किए बिना। 

दृष्टांत: ‘X’ ‘Y’ को इस तरीके से चाबुक मारने का प्रयास करता है जिससे उसे गंभीर चोट नहीं पहुंचेगी। ‘Y’ ने चाकू निकाल लिया जबकि ‘X’ हमला जारी रखे हुए था। ‘Y’ सद्भावना में विश्वास करता है कि वह उसे किसी अन्य तरीके से घोड़े की चाबुक से नहीं बचा सकता, ‘X’ को छुरा मारता है, जिसके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो जाती है। यह एक हत्या नहीं थी बल्कि केवल एक गैर इरादतन हत्या थी जो हत्या की श्रेणी में नहीं आती थी।

लछमी कोईरी बनाम बिहार राज्य (1959) में अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 380 और 457 के तहत मामला दर्ज किया गया था। इस मामले में जांच अधिकारी ने अपीलकर्ता पर शक किया और वारंट जारी करने की प्रार्थना की। जब मृतक ने अपीलकर्ता को देखा, तो उसने अपना छुरा निकाला और पीड़िता की बांह पर वार किया, जो सड़क के किनारे एक नाले में गिर गई थी। लेकिन इसके बाद अभियुक्त ने लगातार कई वार किए और फिर फरार हो गया। पीड़िता की कुछ देर बाद ही मौत हो गई। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अभियुक्त ने शुरू में अपने निजी बचाव के अधिकार का इस्तेमाल किया था, लेकिन बाद में अपने बचाव के लिए आवश्यक से अधिक नुकसान पहुंचाने का इरादा किया। इसलिए अभियुक्त इस अपवाद के अंतर्गत नहीं आया और उसे आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या का दोषी ठहराया गया था।

सार्वजनिक न्याय के लिए कानूनी शक्ति का प्रयोग करना

गैर इरादतन हत्या को हत्या नहीं माना जाता है, यदि अपराधी लोक सेवक के रूप में अपनी वैध शक्ति का प्रयोग करते हुए, सार्वजनिक न्याय की बेहतरी के लिए कार्रवाई करता है और कानून द्वारा दी गई अपनी शक्ति से अधिक होता है, जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। जैसा कि वह एक लोक सेवक के रूप में अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे थे और सद्भावना से उस व्यक्ति को जानबूझकर या स्वेच्छा से मारने के बिना इसे वैध मानते थे।

दृष्टांत: ‘M’, एक पुलिस निरीक्षक (इंस्पेक्टर), ने ‘N’, एक खतरनाक लुटेरे को पकड़ा। उसे न्यायालय ले जाते समय ‘N’ ने भागने का प्रयास किया। जब उसे अन्यथा पकड़ना असंभव था, तो पुलिस निरीक्षक उसे पैर में गोली मारने की पूरी कोशिश करता है लेकिन दुर्भाग्य से उसकी आंत में चोट लगती है और परिणामस्वरूप ‘N’ की मृत्यु हो जाती है। ‘M’ उसकी हत्या के लिए उत्तरदायी नहीं है।

दखी सिंह बनाम राज्य (1955) में, अधिकारी ने चोर को गिरफ्तार करते हुए अपनी कानूनी शक्ति को पार कर लिया। उन्होंने संदिग्ध चोर को गोली मार दी, जिसकी मौके पर ही मौत हो गई। यद्यपि अधिकारी ने अपनी शक्ति को पार कर लिया, उसने सार्वजनिक न्याय की उन्नति के लिए और बिना किसी दुर्भावना के ऐसा किया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना कि उसके द्वारा किया गया अपराध गैर इरादतन हत्या के तहत आता है, जो हत्या की श्रेणी में नहीं आता है, जो आईपीसी की धारा 304 के तहत दंडनीय है न कि धारा 302 के तहत।

अचानक लड़ाई में पूर्वचिंतन के बिना

अचानक लड़ाई के परिणामस्वरूप मौत होने पर गैर-इरादतन हत्या को हत्या नहीं माना जाता है। यह उस लड़ाई में शामिल पक्षों द्वारा अनायास (अनइंटेंडेड) ही होना चाहिए था। ऐसे में इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि झगड़ा या लड़ाई किसने शुरू की थी। यह महत्वहीन है कि किस पक्ष ने उकसावे की पेशकश की। इस अपवाद के लिए, परिणाम मृत्यु होना चाहिए:

  • अचानक लड़ाई,
  • बिना किसी पूर्व योजना के जुनून की गर्मी,
  • अपराधी कोई अनुचित लाभ नहीं उठाते हैं,
  • अपराधी असामान्य या क्रूर तरीके से कार्य नहीं कर रहे हैं, और
  • अभियुक्त और मारे गए व्यक्ति के बीच मारपीट।

दृष्टांत: ‘C’ लंबे समय से ‘D’ के साथ बहस कर रहा था। ‘D’ ने कुछ ऐसा कहा जो ‘C’ को और अधिक उत्तेजित कर गया, और क्षण की गर्मी में, ‘C’ ने अचानक उसके सिर पर एक छड़ी से वार किया। इसके परिणामस्वरूप ‘D’ की मृत्यु हो गई। यह हत्या नहीं बल्कि गैर इरादतन हत्या है।

अमीरथलिंगम नादर बनाम तमिलनाडु राज्य (1976) में, अपीलकर्ता और मृतक के बीच अचानक झगड़े से उत्पन्न हुई अचानक लड़ाई में अपीलकर्ता ने पीड़ित को घातक झटका दिया। अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता ने न तो अनुचित लाभ उठाया और न ही असामान्य तरीके से काम किया। इसलिए दोषसिद्धि को आईपीसी की धारा 302 से बदलकर धारा 304 में कर दिया गया।

खुद की सहमति

जब व्यक्ति अपनी मृत्यु का कारण बनने के लिए सहमति देता है तो गैर इरादतन हत्या को हत्या नहीं माना जाता है। तब इसका परिणाम हत्या नहीं, बल्कि गैर इरादतन हत्या होता, जो हत्या की श्रेणी में नहीं आती है। लेकिन व्यक्ति की उम्र अठारह वर्ष से ऊपर होनी चाहिए और मृतक की सहमति स्वतंत्र और स्वैच्छिक होनी चाहिए।

उदाहरण: ‘K’ कैंसर से पीड़ित था। उनका दर्द असहनीय था। इसलिए उसने ‘L’ से कहा कि नींद में शांति से मरने के लिए उसे नींद की गोलियों की उच्च खुराक दी जाए। यह हत्या नहीं थी क्योंकि ‘K’ ने स्वेच्छा से बिना किसी उकसावे के ‘L’ से कहा था। यह गैर इरादतन हत्या है जो हत्या की श्रेणी में नहीं आती है।

भारत में हत्या के मुकदमे की प्रक्रिया

परीक्षण के विभिन्न चरण होते हैं, जो इस प्रकार हैं:

पुलिस या मजिस्ट्रेट को शिकायत दर्ज करना

सीआरपीसी की धारा 154 के अनुसार, दी गई जानकारी को पुलिस द्वारा लिखित रूप में किया जाना चाहिए। फिर इसे शिकायतकर्ता को पढ़ कर सुनाया जाना चाहिए। शिकायत मजिस्ट्रेट के समक्ष भी दायर की जा सकती है और वह सीआरपीसी की धारा 200 के अनुसार शिकायतकर्ता और गवाह के बयान दर्ज करने के लिए आगे बढ़ सकता है। मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 203 के तहत शिकायत को खारिज कर सकता है अगर उसे कोई पर्याप्त आधार नहीं मिलता है और अगर आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार है तो वह सीआरपीसी की धारा 204 के तहत वारंट जारी कर सकता है।

जांच 

पुलिस अधिकारी गवाहों के बयान दर्ज करता है, अभियुक्त से पूछताछ करता है और जांच के चरण में सबूत इकट्ठा करता है।

अभियुक्तों को गिरफ्तार करना

पुलिस अभियुक्त को बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है क्योंकि हत्या एक संज्ञेय अपराध है और गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए।

आरोप पत्र (चार्ज शीट)

पुलिस पूरी जांच के बाद अभियुक्त के खिलाफ आरोप पत्र तैयार करती है। इसमें पुलिस अधिकारियों की पूरी जांच, अभियुक्तों के खिलाफ आरोप और सीआरपीसी की धारा 161 के अनुसार तथ्यों और गवाहों के बयानों की सूची, प्राथमिकी (एफआईआर) की एक प्रति (कॉपी), जब्त समान की सूची और अन्य प्रमाण दस्तावेज शामिल हैं। जरूरत पड़ने पर पुलिस द्वारा बाद में भी पूरक (सप्लीमेंट्री) आरोप पत्र दायर किया जा सकता है।

मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान (कॉग्निजेंस)

सीआरपीसी की धारा 190 के अनुसार, मजिस्ट्रेट किसी अपराध का संज्ञान तब ले सकता है जब:

  • वह उन तथ्यों की शिकायत प्राप्त करता है जो इस तरह के अपराध का गठन करते हैं;
  • उसे ऐसे तथ्यों की पुलिस रिपोर्ट प्राप्त होती है;
  • वह पुलिस के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से या अपने स्वयं के ज्ञान पर ऐसी सूचना प्राप्त करता है कि ऐसा अपराध किया गया है।

एक परीक्षण (ट्रायल) की शुरुआत

हत्या के मामले में, जहां अपराधी दोषी नहीं होने का अनुरोध करता है, अदालत अभियोजन पक्ष को गवाहों की जांच के लिए एक तारीख तय करने के लिए कहती है। अदालत की अनुमति से उन गवाहों से जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन) भी की जाती है। अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत सभी सबूतों की जांच के बाद, अदालत अभियुक्त को अपने बचाव के लिए बुलाती है। अदालत का यह कर्तव्य है कि वह अभियुक्त की जांच करे और पूछताछ करे ताकि अभियुक्त अपने खिलाफ अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य में दिखाई देने वाले किसी भी परिस्थितिजन्य (सर्कमस्टेंशियल) साक्ष्य को स्पष्ट कर सके। दोनों पक्षों की सुनवाई के बाद, यदि न्यायाधीश संतुष्ट है कि ऐसा कोई सबूत नहीं है जो दर्शाता है कि अभियुक्त ने अपराध किया है, तो न्यायाधीश सीआरपीसी की धारा 232 में बरी होने का आदेश पारित कर सकता है। दूसरी ओर, यदि साक्ष्य सुनने के बाद भी अभियुक्त बरी नहीं होता है, तो उसे अपना बचाव या कोई अन्य साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाती है जो उसके पक्ष में हो। निष्कर्ष सुनने के बाद, यह अंतिम तर्क चरण में जाता है।

अंतिम तर्क

अभियोजन पक्ष और अभियुक्तों द्वारा अपने अंतिम तर्क प्रस्तुत करने के बाद न्यायाधीश मामले का फैसला करता है। तर्क के आधार पर, न्यायाधीश अभियुक्त को बरी करने या दोषी ठहराने पर अपना फैसला सुनाता है। प्रत्येक पक्ष को सीआरपीसी की धारा 314 के तहत अपने अंतिम मौखिक तर्कों को समाप्त करने से पहले मामले के समर्थन में तर्कों के साथ अदालत में एक ज्ञापन (मेमोरेंडम) और विरोधी पक्ष को इसकी एक प्रति प्रस्तुत करनी होती है।

डिक्री या निर्णय

कार्यवाही के अंतिम चरण में, न्यायाधीश अपना फैसला सुनाता है। वह दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद अभियुक्त को या तो बरी कर देता है या दोषी ठहरा देता है। इसे न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय कहा जाता है।

हत्या की सजा की अपील करने की प्रक्रिया

अदालत के फैसले को सुनने के बाद अगर अभियुक्त फैसले से संतुष्ट नहीं है तो वह अपील कर सकता है। अपील की सूचना देने के लिए आवंटित (एलॉटेड) समय अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होता है। फिर अपीलकर्ता को रिकॉर्ड दाखिल करने के लिए समय देना होगा। अपीलकर्ताओं के पास रिकॉर्ड जमा करने के लिए एक विशिष्ट समय अवधि होती है, जिसे एक निश्चित अवधि के लिए नहीं बढ़ाया जा सकता है। एक महत्वपूर्ण कारक यह है कि अपीलकर्ता द्वारा अपील करने और अन्य कागजी कार्रवाई को पूरा करने में कितना समय लगता है। इस घटना में कि अपील अदालत मामले को वापस विचारणीय न्यायालय में भेजती है, इसमें बहुत अधिक समय लगता है। इस प्रक्रिया को पूरा होने में औसतन बीस महीने लगते हैं। दुर्लभ मामलों में, अपील कुछ हफ्तों के भीतर ही पूरी हो जाती है।

अदालत द्वारा अभियुक्त को दोषी ठहराए जाने और सजा सुनाए जाने के बाद, यदि प्रतिवादी फैसले से संतुष्ट नहीं है तो वह अपील दायर कर सकता है। फैसले के संबंध में, कोई भी पक्ष एक आपराधिक मामले में दोषी फैसले के बाद अपील दायर कर सकता है।

यह दिखाने के लिए अपीलकर्ता पर निर्भर करता है कि विचारणीय न्यायालय ने एक कानूनी त्रुटि की जिसने मामले के फैसले को प्रभावित किया। अपीलकर्ता को कानूनी तर्क को प्रदर्शित करने के लिए एक लिखित दस्तावेज या संक्षिप्त तैयार करना चाहिए, जिसमें वह उन कारणों को बताता है कि क्यों फैसले को उलट दिया जाना चाहिए। वह अपने दावे के समर्थन में पिछले अदालती मामलों के निर्णयों का भी हवाला दे सकता है। उसे अपने दावे के समर्थन में एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करके यह सिद्ध करना चाहिए कि उसका कथन महत्वपूर्ण है।

अपील की अदालत आगे सबूत या गवाही नहीं सुनती है। वे निचली अदालत में मामले के लिखित रिकॉर्ड, पक्षों द्वारा प्रस्तुत संक्षिप्त विवरण और अंतिम मौखिक तर्क के आधार पर बिना कोई अतिरिक्त साक्ष्य प्राप्त किए अपना निर्णय देते हैं।

अरुण कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1989) में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि अपराध के आवश्यक तत्वों के सबूत के अभाव में मकसद के सबूत का उपयोग अभियुक्तों को दोषी ठहराने के लिए नहीं किया जाएगा। अपीलकर्ताओं को सत्र न्यायाधीश द्वारा भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 201, धारा 302, धारा 366, और धारा 376 के तहत दंडनीय अपराधों से बरी कर दिया गया था।

धारा 302 के तहत आरोप लगाते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए

जब किसी व्यक्ति पर सीआरपीसी की धारा 302 के तहत आरोप लगाया जाता है, तो इसका मतलब है कि उसने गंभीर अपराध किया है। आपराधिक आरोपों का सामना करने वाले लोगों को गंभीर दंड और परिणामों का सामना करना पड़ता है, जैसे कारावास, आपराधिक रिकॉर्ड होना, पारिवारिक बंधन खोना, भविष्य के रोजगार के अवसर खोना, और कई अन्य चीजें।

आपराधिक मामले ऐसे होते हैं जहां अधिकारों की रक्षा और मामले के सर्वोत्तम संभव परिणामों को सुरक्षित करने के लिए कानूनी पेशेवरों की सलाह की आवश्यकता होती है। इसलिए जिस भी व्यक्ति पर हत्या का आरोप लगाया गया है उसे कुछ आवश्यक बातों का ध्यान रखना चाहिए, जो इस प्रकार हैं:

  • उनके खिलाफ दायर आरोपों की प्रकृति;
  • बचाव जो उपलब्ध हैं;
  • तर्क जो तैयार किए जा सकते हैं।

एक आपराधिक बचाव वकील परीक्षण के दौरान उपयोग किए जाने वाले तर्कों को तैयार करते समय सभी बिंदुओं को ध्यान में रखता है।

जब एक अपराधी को गिरफ्तार किया जाता है, तो उसे भारत के नागरिक के रूप में कुछ अधिकार प्राप्त होते हैं, जो भारत के संविधान में वर्णित हैं। इनमे से निम्नलिखित को याद रखना चाहिए:

  1. सीआरपीसी की धारा 50 के तहत किसी व्यक्ति को अपने परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों या दोस्तों को सूचित करने का अधिकार है।
  2. भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(2) के अनुसार, सीआरपीसी की धारा 57 और धारा 167(1) के साथ पढ़ने पर, अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए बिना 24 घंटे से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।
  3. सीआरपीसी की धारा 54 के अनुसार, हिरासत में लिए गए व्यक्ति को चिकित्सकीय जांच का अधिकार है।
  4. भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अनुसार व्यक्ति को अपनी इच्छा के विरुद्ध पुलिस के सामने कुछ भी कबूल करने की आवश्यकता नहीं है। उसे चुप रहने का अधिकार है।
  5. भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 के अनुसार, उसे पूछताछ किए जाने पर एक वकील उपस्थित होने का अधिकार है। यदि वह वकील का खर्च नहीं उठा सकता था, तो सरकार द्वारा एक वकील नियुक्त किया जाएगा।
  6. उसे उन सभी आरोपों को जानने का अधिकार है जो उसके खिलाफ सीआरपीसी की धारा 50 और भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 (2) के तहत लगाए गए हैं।

आईपीसी की धारा 302 से संबंधित कानूनी मामले 

जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1972

मामले के तथ्य:

इस मामले में, वर्तमान अपराध से लगभग छह या सात साल पहले, अपीलकर्ता और उसके चचेरे भाई के बीच दुर्भावना थी। मृतक पर हत्या का आरोप लगाया गया था लेकिन अंततः इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उसे बरी कर दिया था।

न्यायालय का निर्णय:

इस मामले का फैसला 1973 में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के लागू होने से पहले लिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के पांच-न्यायाधीशों के पैनल ने मौत की सजा की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, और अपीलकर्ता को भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 302 के तहत मौत की सजा सुनाई गई थी। न्यायाधीशों ने कहा कि मृत्युदंड 1950 के भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14,19 और 21 का उल्लंघन नहीं था, जब प्रतिवादी ने तर्क दिया कि मृत्युदंड असंवैधानिक था। प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि न्यायाधीशों को बिना किसी सीमा के बहुत अधिक अधिकार दिए गए थे। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि यह अभियुक्त के समानता के अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और जीवन के अधिकार का उल्लंघन करता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन नहीं है जब तक कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार मृत्युदंड दिया जाता है। चूँकि मृत्युदंड अनुचित नहीं था, इसने अनुच्छेद 19 का उल्लंघन नहीं किया, और न्यायालय को भी मृत्युदंड देने का अधिकार है जहाँ अपराध एक भयानक प्रकृति के हैं, इसलिए यह अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन नहीं था। यह देखा गया कि न्यायाधीशों ने, तथ्यों, अपराध की प्रकृति और परिस्थितियों के आधार पर, मुकदमे के दौरान जो प्रकाश में आया उसके आधार पर मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा देने के लिए विवेक का प्रयोग किया।

बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1980

मामले के तथ्य:

इस मामले में, बच्चन सिंह पर मुकदमा चलाया गया और उसे उन हत्याओं के लिए दोषी ठहराया गया जो उसने की थी। सत्र न्यायाधीश ने उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत मौत की सजा सुनाई थी। इस मामले में धारा 302 के तहत हत्या के लिए मौत की सजा की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया गया था।

मामले में शामिल मुद्दे:

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीश ने आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या के लिए वैकल्पिक सजा के रूप में मौत की सजा की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, जो अनुचित नहीं है और इसलिए, संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन नहीं है। इस मामले में दुर्लभतम से दुर्लभतम मामलों का सिद्धांत स्थापित किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न केवल मामले की परिस्थितियों बल्कि अपराधी की परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। विचारण के समय विभिन्न मामलों में समान स्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। उन सभी समान मामलों का हवाला देकर ही फैसला दिया जाना है।

न्यायालय का निर्णय:

बच्चन सिंह मामले का अनुपात निर्णय (रेशियो डेसीडेंडी) यह है कि आजीवन कारावास को नियम और मृत्युदंड को अपवाद माना जाना था। मौत की सजा अपराधी की कार्रवाई पर आधारित होनी चाहिए न कि किए गए अपराध पर। इसका मतलब यह है कि मौत की सजा केवल “दुर्लभतम से दुर्लभतम” मामलों में ही दी जा सकती है। न्यायमूर्ति भगवती ने अपने असहमतिपूर्ण बयान में कहा कि मृत्युदंड न केवल असंवैधानिक है, बल्कि अनुच्छेद 14 और 21 का भी उल्लंघन है। आईपीसी की धारा 302 के तहत, न्यायालय को आजीवन कारावास और मृत्युदंड के बीच चयन करने का निरंकुश विवेक नहीं है।

निष्कर्ष

भारतीय दंड संहिता की धारा 302 हत्या के लिए सजा का विस्तृत प्रावधान करती है। जिस व्यक्ति पर हत्या का आरोप लगाया गया है, उसे मामले की सभी परिस्थितियों और तथ्यों को ध्यान में रखते हुए दंडित किया जाएगा। इसलिए अदालत के सामने मुख्य कठिनाई यह है कि आजीवन कारावास देना है या मृत्युदंड देना है या नहीं। हत्या एक गैर-जमानती, गैर-शमनीय (नॉन-कंपाउंडेबल) और संज्ञेय अपराध है, इसलिए अधिकांश स्थितियों में जमानत आवेदन स्वीकार नहीं किए जाते हैं। इसलिए, मामले के तथ्यों और परिस्थितियों की व्यापक रूप से जांच करना अदालतों का कानूनी दायित्व है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

धारा 302 के तहत आरोपित होने पर जमानत की समय सीमा क्या है?

धारा 302 के तहत आरोप लगने पर अभियुक्त जमानत की अर्जी दाखिल कर सकता है। लेकिन अगर तथ्य और परिस्थितियां उसके खिलाफ जा रही हैं, तो जमानत नहीं दी जा सकती है। चूंकि धारा 302 के तहत किया गया अपराध गंभीर प्रकृति का है, इसलिए अभियुक्त को जमानत मिलना बिल्कुल भी आसान नहीं है। यदि जमानत अर्जी खारिज कर दी जाती है, तो वह आवेदन की समीक्षा के लिए न्यायाधीश के समक्ष समीक्षा याचिका दायर कर सकता है। सीआरपीसी की धारा 437 गैर-जमानती अपराधों के मामले में जमानत से संबंधित है। सीआरपीसी की धारा 439 जमानत के संबंध में सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय को विशेष अधिकार देती है। हत्या के अभियुक्त को इनमें से किसी भी प्रावधान के तहत जमानत के लिए आवेदन करना होगा।

यदि अपराध मौत की सजा का है तो जांच और आरोप पत्र दाखिल करने की अवधि 90 दिनों के भीतर होनी चाहिए। यदि 90 दिनों के भीतर आरोप पत्र दाखिल नहीं किया जाता है, तो हत्या के अभियुक्त को सीआरपीसी की धारा 167(2) के तहत जमानत पर रिहा होने का अधिकार है।

यदि अदालत द्वारा आईपीसी की धारा 302 के तहत जमानत अर्जी खारिज कर दी जाती है तो व्यक्ति को क्या करना चाहिए?

हत्या, ज्यादातर मामलों में, एक गैर-जमानती अपराध है। इसलिए ऐसे अवसर हो सकते हैं जहां जमानत अर्जी खारिज हो जाती है। उस स्थिति में, जमानत अर्जी खारिज करने के आदेश की समीक्षा करने के लिए न्यायाधीश के समक्ष समीक्षा याचिका दायर करने का विकल्प होता है। बाद में, व्यक्ति उच्च न्यायालय के समक्ष आदेश को चुनौती दे सकता है या दूसरी जमानत याचिका दायर कर सकता है।

हत्या के बाद आत्मसमर्पण करने पर धारा 302 के तहत क्या सजा है?

भारतीय दंड संहिता की धारा 302 में कहा गया है कि हत्या करने वाले व्यक्ति को मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी और उसे जुर्माना भी देना होगा। यह एक गैर-जमानती और गैर-शमनीय अपराध है, यानी मामले को अदालत के बाहर नहीं सुलझाया जा सकता है। यदि अपराधी हत्या करने के उचित कारणों के साथ अदालत या अन्य संबंधित प्राधिकारी (अथॉरिटी) के समक्ष आत्मसमर्पण करता है, तो सजा देते समय अदालत थोड़ा नरम हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती हैं।

संदर्भ

 

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