सीपीसी का आदेश 8 नियम 10 

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Civil Procedure Code

यह लेख तिरुवनंतपुरम के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के छात्र  Adhila Muhammed Arif ने लिखा है। यह लेख सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (सीपीसी) के आदेश 8, नियम 10 के प्रावधानों को स्पष्ट करता है, जो एक लिखित बयान (स्टेटमेंट) दाखिल नहीं करने के परिणामों से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908, प्रक्रियात्मक कानून है जो यह नियंत्रित करता है कि हमारे देश की सिविल अदालतों को कैसे कार्य करना चाहिए। यह सिविल कार्यवाही के लिए नियम निर्धारित करता है। संहिता में मूल (सब्सटेंटिव) कानून भी शामिल है, जैसा कि इसके 158 धाराओं में निर्धारित किया गया है, और इसमें 51 आदेश भी शामिल हैं, जो इसके वास्तविक प्रक्रियात्मक पहलुओं का गठन करते हैं। सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश VIII लिखित बयानों, सेट ऑफ और प्रतिदावे (काउंटरक्लेम) से संबंधित है। एक लिखित बयान सिविल वाद का एक अभिन्न अंग है। जब किसी वाद द्वारा वाद शुरू किया जाता है, तो प्रतिवादी को उत्तर के रूप में एक लिखित बयान दाखिल करना होता है। आदेश VIII में कई नियम हैं जो यह नियंत्रित करते हैं कि लिखित बयान कैसे और कब दाखिल किया जाना चाहिए, और दाखिल न करने के परिणाम भी बताता है। यह लेख उस प्रक्रिया पर चर्चा करता है जब कोई पक्ष अदालत द्वारा बुलाए गए लिखित बयान को प्रस्तुत करने में विफल रहता है, और उसी पर सीपीसी के आदेश 8 नियम 10 के तहत चर्चा की जाती है।

सबसे पहले, आइए यह समझने के साथ शुरू करें कि ‘लिखित बयान’ वास्तव में क्या है।

लिखित बयान क्या है

सिविल प्रक्रिया संहिता ‘लिखित बयान’ की परिभाषा नहीं देती है। सामान्य शब्दों में, इसे प्रतिवादी द्वारा दायर, लिखित में बचाव के बयान के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, और यह वादी द्वारा आरोपित हर भौतिक (फिजिकल) तथ्य से संबंधित होता है। इसमें वादी के आरोपों के साथ-साथ नए तथ्य, यदि कोई हों, पर आपत्तियां भी शामिल होती हैं। यह अनिवार्य रूप से प्रतिवादी की अभिवचन को संदर्भित करता है, क्योंकि एक बयान, वादी की अभिवचन है। लिखित बयान से संबंधित प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश VIII में निहित हैं।

लिखित बयान में मामले को संक्षेप में कहा जाना चाहिए। इसमें केवल वे तथ्य शामिल होने चाहिए जिन पर प्रतिवादी अपने बचाव के लिए निर्भर रहता है न कि ऐसे तथ्यों को साबित करने के लिए सबूत होने चाहिए।

नए तथ्यों का अभिवचन (प्लीडिंग)

  • आदेश VIII नियम 2 के अनुसार, प्रतिवादी नए तथ्य भी उठा सकता है जो वादी द्वारा अभिवचन नहीं किया गया था। वह ऐसे किसी भी तथ्य या मामले को उठा सकता है जो यह दर्शाता है कि वाद चलने योग्य नहीं है।
  • हालाँकि, इसे विशेष रूप से निवेदन किया जाना चाहिए और सामान्य या अस्पष्ट शब्दों में व्यक्त नहीं किया जाना चाहिए।
  • इस तरह के तथ्यों को पहली बार में ही पेश किया जाना चाहिए। यदि यह संभव होने पर भी पहली बार में नहीं उठाया जाता है, तो इसे बाद के अपील में भी नहीं उठाया जा सकता है।

तथ्यों का खंडन (डिनायल)

  • उसे या तो वादपत्र (प्लेंट) में लगे आरोपों को नकारना चाहिए या स्वीकार करना चाहिए। यदि किसी आरोप का खंडन नहीं किया जाता है, तो इसे स्वीकार कर लिया गया माना जाता है।
  • सीपीसी के आदेश VIII नियम 3 के अनुसार, प्रतिवादी के लिए स्पष्ट और विशिष्ट इनकार करना महत्वपूर्ण है। प्रतिवादी केवल वादी के आरोपों का सामान्य खंडन नहीं कर सकता।
  • नियम 4 के अनुसार, अस्पष्ट इनकार या ऐसा इनकार जो इसका उत्तर नहीं देता है, वह इनकार के रूप में योग्य नहीं है। उदाहरण के लिए, यदि प्रतिवादी वादी के इस आरोप से इनकार करना चाहता है कि उसे एक निश्चित राशि प्राप्त हुई थी, तो उसे स्पष्ट रूप से राशि की प्राप्ति से इनकार करना होगा और विशेष रूप से कथित राशि का भी उल्लेख करना होगा। जब तक वादपत्र अस्पष्ट और सामान्य शब्दों में न कहे, तब तक सप्ष्ट इनकार को भी माना गया मान लिया जाता है।

लिखित बयान कौन दाखिल कर सकता है

  • एक लिखित बयान, जैसा कि पहले कहा गया है, प्रतिवादी द्वारा दायर किया जाता है।
  • हालाँकि, प्रतिवादी अपने द्वारा अधिकृत (ऑथराइज्ड) एजेंट के माध्यम से भी इसे दायर कर सकता है। यह किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा दायर नहीं किया जा सकता है जो विवाद का पक्ष नहीं है।
  • कई प्रतिवादियों के मामले में, सभी द्वारा हस्ताक्षरित एक सामान्य लिखित बयान हो सकता है, या कम से कम एक प्रतिवादी द्वारा सत्यापित (वेरिफाई) किया जा सकता है जो तथ्यों से परिचित है।

एक लिखित बयान कब दायर किया जाना चाहिए

  • आदेश VIII नियम 1 उस अवधि को निर्धारित करता है जिसके भीतर प्रतिवादी को एक लिखित बयान दर्ज करना होगा।
  • प्रतिवादी द्वारा लिखित बयान उस दिन से तीस दिनों के भीतर दायर किया जाना चाहिए जब उसे सम्मन दिया गया था।
  • हालाँकि, इस अवधि को लिखित रूप में दर्ज किए जाने वाले कारणों के लिए अदालत द्वारा सम्मन के दिए जाने की तारीख से नब्बे दिनों तक बढ़ाया जा सकता है।
  • वाणिज्यिक विवादों (कमर्शियल डिस्प्यूट) के मामले में, लिखित बयान सम्मन देने की तारीख से तीस दिनों के भीतर दाखिल किया जाना चाहिए। हालाँकि, इसे अदालत द्वारा लिखित रूप में दर्ज किए जाने वाले कारणों के लिए सम्मन दिए जाने की तारीख से 120 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है, जिसके लिए प्रतिवादी को उन लागतों का भुगतान करना होगा जो अदालत को उचित लगती है। इस अवधि की समाप्ति के परिणामस्वरूप लिखित बयान दाखिल करने के अधिकार को जब्त कर लिया जाता है।
  • यदि प्रतिवादी निर्धारित समय अवधि के भीतर लिखित बयान दर्ज नहीं करता है, तो उसे इसे जल्द से जल्द दाखिल करना होगा, साथ ही एक विलंब आवेदन (डिलेय एप्लीकेशन) के साथ, लिखित बयान दाखिल करने में देरी के लिए क्षमा के लिए प्रार्थना करना चाहिए। हालाँकि, ऐसा करने के लिए पर्याप्त कारण होना चाहिए जो पक्ष के नियंत्रण से बाहर हो। यदि कारण अदालत को संतुष्ट करता है, तो अदालत आवेदन को स्वीकार करेगी और आगे बढ़ेगी, और यदि नहीं, तो अदालत इसे अस्वीकार कर देगी।
  • मोहम्मद यूसुफ बनाम फैज मोहम्मद और अन्य (2009) के मामले में, प्रतिवादी ने तीन साल बाद एक लिखित बयान दायर किया था, जिसमें देरी के लिए प्रार्थना की गई थी। आवेदन को खारिज कर दिया गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी द्वारा दायर एक रिट याचिका की अनुमति दी, जिसमें अस्वीकृति को चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था क्योंकि रिकॉर्ड में न्याय की विफलता या त्रुटि नहीं थी। न्यायालय ने माना कि तीस दिन की अवधि के बाद का समय स्वचालित (ऑटोमैटिक) नहीं है। विस्तार (एक्सटेंशन) प्रदान करते समय, अदालत को सतर्क रहना चाहिए और जांच करनी चाहिए कि क्या ऐसे पर्याप्त कारण हैं जो विस्तार की मांग करते हैं। विस्तार अंधाधुंध (इनडिस्क्रेमिनेटली) रूप से नहीं दिया जाएगा क्योंकि यह न्याय को विफल करेगा।
  • क्रिश्चियन ब्रॉडकास्टिंग नेटवर्क इनकॉरपोरेट बनाम सीबीएन न्यूज (प्राइवेट) लिमिटेड (2018) के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि यदि प्रतिवादी लिखित बयान दर्ज करने में विफल रहता है तो न्यायालय सीपीसी के आदेश VIII नियम 10 को लागू कर सकता है। इस मामले में, वादी प्रसारण (ब्रॉडकास्ट) सेवाओं में शामिल था और उसे प्रतिवादी का यूट्यूब चैनल ‘सीबीएन न्यूज़’ मिला, जो वादी के ट्रेडमार्क के समान था। प्रतिवादी को एक संघर्ष विराम (सीज एंड डेसिस्ट) नोटिस दिया गया था लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। अतः वादी ने वाद दायर किया। प्रतिवादी लिखित बयान दाखिल करने में विफल रहा। वादी ने अस्थायी निषेधाज्ञा (टेंपरेरी इंजंक्शन) के लिए प्रार्थना की और अदालत ने इसे पारित कर दिया।
  • एक अन्य मामला नागरत्नम पिल्लई बनाम कमलाथम्मल ए (1945) का है, यहां एक प्रश्न था कि क्या आदेश 8 का नियम 10, आदेश 8 के नियम 9 पर लागू होता है। नियम 9 में कहा गया है कि पक्ष लिखित बयान दर्ज करने के बाद सेट ऑफ और प्रतिदावा के बचाव के अलावा आगे की याचिका दायर नहीं कर सकते हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि न्यायालय किसी भी समय किसी भी पक्ष से लिखित बयान या अतिरिक्त लिखित बयान की मांग कर सकता है और एक समय तय कर सकता है जो इसे पेश करने के लिए तीस दिनों से अधिक नहीं होगा। न्यायालय ने फैसला किया कि यह नियम 9 से संबंधित है।

आइए अब विषय पर आते हैं। सीपीसी का आदेश 8 नियम 10 क्या कहता है?

लिखित बयान दाखिल नहीं करने के परिणाम

आदेश 8 नियम 10 के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति जिसे लिखित बयान दर्ज करने की आवश्यकता है, अदालत द्वारा निर्धारित या अनुमत समय अवधि के भीतर ऐसा नहीं करता है, तो अदालत उसके खिलाफ फैसला सुनाएगी या आदेश जारी करेगी, और एक डिक्री को ऐसे फैसले की घोषणा पर तैयार किया जा सकता है। नियम 1 में लिखित बयान दाखिल करने के लिए निर्धारित समय अवधि अदालत द्वारा नहीं बढ़ाई जाएगी।

जब लिखित बयान दाखिल नहीं किया गया है तो अदालत के पास दो विकल्प होते हैं:

  1. स्थगन (एडजोर्नमेंट) की मंजूरी: अदालत प्रतिवादी को स्थगन दे सकती है। यह प्रतिवादी को लिखित बयान दर्ज करने के लिए अधिक समय देता है। तथापि, संहिता के आदेश VII नियम 1 के अनुसार वाद के किसी भी पक्ष को तीन से अधिक स्थगन नहीं दिया जा सकता है। यदि पक्ष अभी भी लिखित बयान दर्ज करने में विफल रहता है, तो अदालत अगले विकल्प पर आगे बढ़ सकती है, जो कि एक पक्षीय (एक्सपार्टे) डिक्री है।
  2. एक पक्षीय डिक्री पारित करना: अदालत प्रतिवादी के खिलाफ एक पक्षीय डिक्री पारित कर सकती है। यह अनिवार्य नहीं है लेकिन अदालत के पास ऐसा करने का विवेक है। यह आमतौर पर पहली बार में अदालत द्वारा टाला जाता है। हालाँकि, यदि पक्ष कई स्थगनों के बावजूद एक लिखित बयान दर्ज करने में विफल रहते है, तो अदालत प्रतिवादी के खिलाफ एक पक्षीय डिक्री पारित करने का सहारा ले सकती है।

अब जब हम निर्धारित समय अवधि के दौरान लिखित बयान दाखिल नहीं करने के परिणामों को जानते हैं, तो आइए हम अपील और पुनरीक्षण (रिवीजन) के प्रावधानों को देखें।

अपील और पुनरीक्षण

आदेश VIII नियम 10 में प्रावधान है कि इस तरह के निर्णय पर एक डिक्री तैयार की जाएगी। उसके बाद, धारा 96 के तहत एक अपील होगी। धारा 115 के अनुसार, उच्च न्यायालय इस तरह की एक डिक्री पर पुनरीक्षण के माध्यम से निर्णय ले सकता है। जब कोई डिक्री अपील योग्य होती है, तो पीड़ित पक्ष पुनरीक्षण के लिए आवेदन नहीं कर सकता है।

अब, हम उसी के संबंध में न्यायालय की अंतर्निहित (इन्हेरेंट) शक्तियों को देखेंगे।

न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियां

सीपीसी की धारा 151 न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों को निर्धारित करती है। इस धारा के अनुसार, संहिता में कोई प्रावधान न्याय के हित में या अदालत की शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के उद्देश्य से आदेश जारी करने की अदालत की शक्ति पर प्रतिबंध के रूप में कार्य नहीं करता है।

यह धारा संहिता के आदेश VIII नियम 10 की सीमा के रूप में कार्य करती है। यह प्रावधान अदालतों को लिखित बयान दाखिल करने के लिए सीमा की अवधि बढ़ाने की अनुमति देता है। हालाँकि, इसकी अनुमति केवल असाधारण स्थितियों में ही दी जाती है जो प्रतिवादी के नियंत्रण से बाहर के कारणों से उत्पन्न होती हैं। इस शक्ति का उपयोग सामान्य मामलों में नहीं किया जा सकता है।

अब जब हम संहिता के प्रावधानों से परिचित हो गए हैं, तो आइए इसी मामले के संबंध में न्यायपालिका द्वारा लिए गए कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों पर एक नजर डालते हैं।

मामले

एटकॉम टेक्नोलॉजीज लिमिटेड बनाम वाई.ए. चुनावाला एंड कंपनी (2018)

तथ्य

दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा एक पुनरीक्षण याचिका में दिए गए एक आदेश के खिलाफ प्रतिवादी द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में एक अपील दायर की गई थी, जिसने एक लिखित बयान दर्ज करने के उसके अधिकार को समाप्त कर दिया था क्योंकि उसने बार-बार इसे सिविल अदालत में दाखिल करने में देरी की थी। यहां, पैतृक (एंसेस्ट्रेल) संपत्ति को बेचने के समझौते पर दो भाइयों के बीच विवाद था। पैतृक संपत्ति में एक इमारत शामिल थी, जहां भूतल (ग्राउंड फ्लोर) का स्वामित्व वादी के पास था, और पहली मंजिल का स्वामित्व प्रतिवादी के पास था। भाइयों ने बिक्री के एक समझौते में प्रवेश किया जहां प्रतिवादी, वादी को पहली मंजिल बेचने के लिए सहमत हुए। वादी ने बाद में समझौते के विशिष्ट प्रदर्शन (स्पेसिफिक परफॉर्मेंस) के लिए एक वाद दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि प्रतिवादी समझौते की विषय वस्तु को तीसरे पक्ष को बेचने का प्रयास कर रहा था। प्रतिवादी द्वारा लिखित बयान दाखिल करने में विफलता के कारण, सिविल अदालत ने कई विस्तार दिए, जहां यह 90 दिनों से अधिक हो गया था। सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने से पहले, अपीलकर्ता ने पहले पुनरीक्षण के माध्यम से दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। न्यायालय ने ओकू टेक प्राइवेट लिमिटेड बनाम संगीत अग्रवाल और अन्य (2016), में फैसले पर भरोसा करते हुए याचिका खारिज कर दी, जो वह मामला था जिसने यह निर्धारित किया कि अदालतों के पास 120 दिनों से अधिक का विस्तार देने का विवेक नहीं है।

अपीलकर्ता का तर्क

  1. उच्च न्यायालय का निर्णय गलत था क्योंकि ओकू टेक का निर्णय केवल वाणिज्यिक विवादों के मामले में ही लागू होता है। यहां मामला गैर-वाणिज्यिक प्रकृति का है।
  2. आदेश VIII नियम 1 के तहत निर्धारित समय अवधि केवल प्रक्रियात्मक और निर्देशिका (डायरेक्टरी) है। अपीलकर्ता ने यह भी दावा किया कि सर्वोच्च न्यायालय ने सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन, टी.एन. बनाम भारत संघ (2005) में भी यही फैसला सुनाया था। अदालत द्वारा असाधारण मामलों में अपनी विवेकाधीन शक्तियों का उपयोग करके 90 दिनों की समय अवधि बढ़ाई जा सकती है।
  3. उनके वकील की ओर से चूक के कारण लिखित बयान दायर नहीं किया जा सका और वह सुनवाई की सभी तारीखों पर सिविल अदालत में पेश हुए थे।

प्रतिवादी का तर्क

प्रतिवादी को लिखित बयान दर्ज करने के लिए कई मौके दिए गए थे। 90 दिनों की वैधानिक अवधि को बढ़ाया नहीं जा सकता है।

मुद्दे

  1. क्या यह वाणिज्यिक प्रकृति का वाद है?
  2. क्या 90 दिनों की वैधानिक अवधि बढ़ाई जा सकती है?
  3. क्या निर्धारित समय अवधि निर्देशिका प्रकृति की है?
  4. क्या अपीलकर्ता को लिखित बयान दाखिल करने की अनुमति दी जा सकती है?

फैसला

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि गैर-वाणिज्यिक प्रकृति के कुछ बहुत ही असाधारण मामलों में, अदालत लिखित बयान दाखिल करने की अवधि को 90 दिनों से आगे बढ़ा सकती है। इसलिए, निर्धारित अवधि एक “निर्देशिका” है और अनिवार्य नहीं है। प्रतिवादी को यह साबित करना होगा कि एक मजबूत मामला है जो इस तरह के विस्तार का समर्थन करता है। अदालत ने कहा कि यह वाद गैर-वाणिज्यिक प्रकृति का है। अदालत ने अपील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि अपीलकर्ता को कई अवसर दिए गए थे लेकिन फिर भी वह लिखित बयान दाखिल करने में विफल थे।

राजेंद्रभाई मगनभाई कोली बनाम शांताबेन मगनभाई कोली (2022)

तथ्य

आवेदक ने अतिरिक्त सिविल न्यायाधीश द्वारा पारित एक आदेश के खिलाफ प्रमाणिकता (सर्शियोररी) की रिट के लिए आवेदन किया, जिसमें एक लिखित बयान दर्ज करने की अनुमति दी गई थी। आवेदक को कई अवसर दिए गए थे, लेकिन वह उपस्थित होने में विफल रहा और अदालत ने मामले को आगे बढ़ाया। आदेश पारित किया गया था क्योंकि विस्तार 120 दिनों से अधिक नहीं दिया जाएगा।

आवेदक की दलीलें

  1. सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन, तमिलनाडु बनाम भारत संघ (2005) के मामले में दिए गए निर्णय पर आवेदक द्वारा, यह तर्क देने के लिए भरोसा किया गया था कि, 120 दिन की अवधि केवल एक निर्देशिका है और अनिवार्य नहीं है।
  2. आवेदक का लिखित बयान दर्ज करने का अधिकार मामले में वादी के अधिकार को प्रभावित नहीं करता है। इसलिए, प्रतिवादी को लिखित बयान दर्ज करने की अनुमति देना वादी की स्थिति को खतरे में नहीं डालता है, लेकिन प्रतिवादी को लिखित बयान दाखिल करने से रोकना निश्चित रूप से प्रतिवादी की स्थिति को खतरे में डाल देगा।
  3. आवेदक ने यह भी कहा कि यदि कोई हो तो वह आवश्यक लागत का भुगतान करने को तैयार है।

मुद्दे

  1. क्या लिखित बयान दाखिल करने के लिए निर्धारित समय अवधि अनिवार्य है या निर्देशिका है?
  2. क्या आवेदक को लिखित बयान दाखिल करने की अनुमति दी जा सकती है?

फैसला

  1. इस मामले में, गुजरात उच्च न्यायालय का विचार था कि गैर-वाणिज्यिक विवादों में लिखित बयान दाखिल करने की 90 दिन की सीमा प्रकृति में निर्देशिका है और अनिवार्य नहीं है। न्यायालय ने कहा कि इसे संयम से इस्तेमाल किया जाना चाहिए न कि सामान्य मामलों में।
  2. न्यायालय ने मामले के गुण-दोष और परिस्थितियों की जांच करने के बाद कहा कि रिट याचिका की अनुमति है और आवेदक को लिखित बयान दाखिल करने की अनुमति है।
  3. न्यायालय ने महामारी की स्थिति को ध्यान में रखते हुए ऐसा आदेश दिया है।
  4. न्यायालय ने, हालांकि, आवेदक को 10,000 रुपये की अनुकरणीय लागत (एक्सेमप्लरी कॉस्ट) का भुगतान करने का आदेश दिया।
  5. न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि उसके द्वारा पारित आदेश एक मिसाल के रूप में काम नहीं करेगा क्योंकि यह मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के संबंध में बनाया गया था।

मेसर्स एस.सी.जी कॉन्ट्रैक्ट्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम के.एस चमनकर इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड (2019)

तथ्य

  1. इस मामले में मेसर्स एस.सी.जी कॉन्ट्रैक्ट्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड जो यहां अपीलकर्ता है, द्वारा के.एस. चमनकर इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड, पर एक 6,94,63,114/- रुपये की राशि का दावा करते हुए वाद दायर किया गया था। 
  2. प्रतिवादी ने 120 दिनों के बाद भी एक लिखित बयान दाखिल नहीं किया था। जिस तारीख को अवधि समाप्त हुई वह 11 नवंबर 2017 थी।
  3. प्रतिवादी ने वादी की याचिका को खारिज करने के लिए आवेदन दायर किया था और अदालत ने इस आवेदन को खारिज कर दिया था।
  4. प्रतिवादी ने लिखित बयान दाखिल करने के लिए समय अवधि बढ़ाने के लिए आवेदन किया था। न्यायालय ने प्रतिवादी को लिखित बयान दाखिल करने के लिए 15 दिसंबर 2017 तक का समय दिया। यह आदेश 5 दिसंबर 2017 को दिया गया था।
  5. वादी 6 अगस्त 2018 को एक आवेदन करता है, जिसमें दावा किया गया है कि 120 दिनों से अधिक समय अवधि का विस्तार सिविल प्रक्रिया संहिता द्वारा समर्थित नहीं है। न्यायालय ने 24 सितंबर 2018 को एक आदेश जारी करते हुए कहा कि 5 दिसंबर 2017 को दिया गया आदेश अंतिम था।
  6. इस मामले में अपीलकर्ता ने दोनों आदेशों को चुनौती दी, जिनमें से एक 5 दिसंबर 2017 को दिया गया था और दूसरा 24 सितंबर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिकाओं द्वारा दिया गया था।

मुद्दा

  • क्या प्रतिवादी 120 दिनों के बाद लिखित बयान दाखिल कर सकता है?

फैसला

  1. इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि वाणिज्यिक प्रकृति के विवादों में, लिखित बयान एक सौ बीस दिनों के भीतर दायर किया जाना चाहिए, न कि उसके बाद।
  2. सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि प्रतिवादी इस अवधि के भीतर लिखित बयान दर्ज करने में विफल रहता है, तो उस पर लिखित बयान दर्ज करने के अधिकार को जब्त करने का प्रभाव पड़ता है। असाधारण मामलों में भी, इस अवधि को बढ़ाया नहीं जा सकता है। आदेश VIII नियम 10 में प्रावधान स्पष्ट रूप से कहता है कि आदेश VIII नियम 1 में वाणिज्यिक प्रकृति के वादों के लिए निर्धारित समय अवधि को बढ़ाया नहीं जा सकता है। इसलिए, वाणिज्यिक वाद में, संहिता द्वारा निर्धारित समय अवधि अनिवार्य है न कि केवल निर्देशिका है।
  3. न्यायालय ने इस मामले का फैसला करने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णयों, ओकू टेक प्राइवेट लिमिटेड बनाम संगीत अग्रवाल और अन्य (2016) और माजा कॉस्मेटिक्स बनाम ओएसिस कमर्शियल प्राइवेट लिमिटेड (2017) के मामलों पर भरोसा किया। इन निर्णयों ने माना कि आदेश VIII नियम 1 और नियम 10 में प्रावधान अनिवार्य है न कि केवल एक निर्देशिका प्रावधान है।
  4. इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने मनोहर लाल चोपड़ा बनाम राय बहादुर राव राजा सेठ हीरालाल (1961) के मामले में दिए गए फैसले का हवाला देते हुए दोहराया कि धारा 151 इस प्रावधान से पहले नहीं है। सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151 द्वारा प्रदान की गई अदालत की अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग वाणिज्यिक वादों में एक सौ बीस दिनों की अवधि बढ़ाने के लिए नहीं किया जा सकता है।

मेसर्स डिलिजेंट मीडिया कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम सैंडी लिमिटेड (2021)

तथ्य

डिलिजेंट मीडिया लिमिटेड के खिलाफ वादी, सैंडी लिमिटेड द्वारा एक वाणिज्यिक सारांश (सम्मरी) वाद दायर किया गया था। प्रतिवादी को एक सम्मन जारी किया गया था। जबकि सम्मन लंबित (पेंडिंग) था, प्रतिवादी ने 15 मार्च, 2018 को वादपत्र को अस्वीकार करने के लिए एक आवेदन किया, जिसमें दावा किया गया था कि यह वाद चलने योग्य नहीं था क्योंकि इसे परिसीमा (लिमिटेशन) से रोक दिया गया था। आवेदन के लंबित रहने के दौरान, 20 अगस्त, 2018 को, प्रतिवादी को लिखित बयान दर्ज करने के लिए चार सप्ताह की समय अवधि की अनुमति दी गई थी। प्रतिवादी उक्त अवधि के दौरान एक लिखित बयान दाखिल करने में विफल रहा था। उन्होंने बंबई उच्च न्यायालय में देरी की माफी के लिए एक आवेदन दायर किया।

मुद्दे

  • क्या अदालत, एक वाणिज्यिक सारांश वाद में, 120 दिनों की निर्धारित अवधि से अधिक लिखित बयान दर्ज करने के लिए समय का विस्तार दे सकती है? क्या एक वाणिज्यिक सारांश वाद की प्रक्रिया सामान्य वाणिज्यिक वाद से अलग है?

फैसला

  1. बंबई उच्च न्यायालय ने कहा कि सारांश वादों के लिए प्रक्रिया के नियम सामान्य वादों से भिन्न हैं। सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 37 के अंतर्गत सारांश वादों की विशेष प्रक्रिया के नियम दिए गए हैं।
  2. न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वाणिज्यिक सारांश वाद के लिए आदेश VIII नियम 1 और नियम 10 के तहत निर्धारित समय अवधि लागू नहीं होती है। सीपीसी के आदेश V नियम 1 में प्रावधान के अनुसार समय अवधि अदालत द्वारा निर्धारित की जाती है या, नब्बे दिनों की समय अवधि लागू होती है और यह रिहा करने की तारीख से शुरू होती है, न कि सम्मन की तामील की तारीख से।
  3. न्यायालय ने कहा कि हालांकि समय अवधि निर्देशिका है और वाणिज्यिक सारांश वाद के लिए अनिवार्य नहीं है, अदालत को अपने विवेक का प्रयोग सावधानी से करना चाहिए।
  4. न्यायालय ने प्रतिवादी के इस तर्क को मंजूरी दे दी कि प्रतिवादी द्वारा वादपत्र को खारिज करने के लिए किए गए आवेदन के कारण, वह लिखित बयान दर्ज नहीं कर सका। न्यायालय की राय थी कि प्रतिवादी का आवेदन दुर्भावनापूर्ण नहीं था और उसने प्रतिवादी में देरी करने का प्रयास नहीं किया था। अदालत ने प्रतिवादी को न्याय के हित के आधार पर लिखित बयान दाखिल करने की अनुमति दी।
  5. हालांकि, अदालत ने मुकदमे की सुनवाई में देरी के लिए प्रतिवादी पर 1,00,000 रुपये का जुर्माना लगाया।

निष्कर्ष

संहिता का आदेश VIII नियम 10 अनिवार्य रूप से यह निर्धारित करता है कि यदि प्रतिवादी आदेश में प्रावधानों द्वारा निर्धारित समय और तरीके से लिखित बयान दर्ज नहीं करता है, तो अदालत उसके खिलाफ निर्णय पारित करेगी। प्रावधान यह भी स्पष्ट करता है कि न्यायालय नियम 1 के तहत निर्धारित एक सौ बीस दिनों की अवधि को किसी भी परिस्थिति में वाणिज्यिक विवादों के लिए नहीं बढ़ा सकता है। न्यायालय के विभिन्न निर्णयों में नियम 10 की प्रकृति के प्रश्न का उत्तर दिया गया था। गैर-वाणिज्यिक विषय से जुड़े वादों के लिए, नियम 10 केवल एक निर्देशिका प्रावधान है और अनिवार्य नहीं है। अर्थात् असाधारण परिस्थितियों में नियम 1 में निर्धारित समय अवधि बढ़ाई जा सकती है। इस तरह का विस्तार न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों को लागू करके किया जाता है जैसा कि संहिता की धारा 151 में दिया गया है। न्याय के हित में विस्तार दिया जाना चाहिए। हालाँकि, वाणिज्यिक विवादों के लिए नियम अनिवार्य है, इस तरह का विस्तार किसी भी परिस्थिति में नहीं दिया जा सकता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफ.ए.क्यू.)

क्या सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश VIII नियम 10 के तहत निर्धारित समय सीमा अनिवार्य है या निर्देशिका है?

निर्धारित समय सीमा कैलाश बनाम नन्हकु और अन्य (2005) और राजेंद्रभाई मगनभाई कोली बनाम शांताबेन मगनभाई कोली (2022) जैसे मामलों में दिए गए निर्णयों के अनुसार गैर-वाणिज्यिक वादों के लिए एक निर्देशिका प्रावधान है। हालांकि, मेसर्स एससीजी कॉन्ट्रैक्ट्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम केएस चमनकर इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड (2019) और देश राज बनाम बालकिशन (डी) (2020) के निर्णयों के अनुसार वाणिज्यिक विवादों में यह अनिवार्य है।  

क्या न्यायालय आदेश VIII नियम 1 में निर्धारित अवधि से आगे विस्तार दे सकता है?

हां, गैर-वाणिज्यिक वादों में बहुत ही असाधारण परिस्थितियों में लिखित बयान दाखिल करने के लिए अदालत निर्धारित अवधि से आगे विस्तार दे सकती है। यह विस्तार सामान्य मामलों में नहीं दिया जाता है क्योंकि यह अदालत द्वारा शक्ति का दुरुपयोग होगा। हालांकि, आदेश VIII नियम 1 में निर्धारित 120 दिनों से अधिक का विस्तार वाणिज्यिक विवाद वाले मामलों में बिल्कुल भी नहीं दिया जाता है।

क्या होगा यदि प्रतिवादी एक लिखित बयान दाखिल नहीं करता है?

यदि प्रतिवादी लिखित बयान दाखिल नहीं करता है, तो अदालत प्रतिवादी के खिलाफ एक पक्षीय डिक्री पारित करेगी। अदालत, अपने विवेक से, एक पक्षीय डिक्री पारित करने से पहले विशेष कारणों से स्थगन भी दे सकती है, लेकिन इसे तीन बार से अधिक नहीं दिया जा सकता है।

संदर्भ

  1. https://advocatetanmoy.com/2019/10/05/order-8-rule-10-cpc-non-filing-of-written-statement/#:~:text=Order%208%20Rule%2010%20of,a%20decree%20shall%20be%20drawn
  2. https://blog.ipleaders.in/whether-the-time-limit-to-file-written-statement-under-order-viii-rule-1-code-of-civil-procedure-1908-is-mandatory-or-directory/ 
  3. https://www.livelaw.in/news-updates/gujarat-high-court-cpc-written-statement-order-vii-rule-10-directory-sparingly-190394 
  4. https://lawblog4u.in/what-is-the-effect-of-non-filing-written-statements-in-a-suit/ 
  5. https://www.lexology.com/library/detail.aspx?g=47619ebd-1a6b-4838-b171-d8e3eeb7f71f 
  6. https://elplaw.in/wp-content/uploads/2019/02/190222-Litigation-Alert.pdf 

 

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