आईपीसी की धारा 80 

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Indian Penal Code

यह लेख मरकज लॉ कॉलेज के Fahad AP ने लिखा है। यह लेख आईपीसी के सामान्य अपवादों (एक्सेप्शन) के तहत दुर्घटना की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Shubhya Paliwal द्वारा किया गया है। 

परिचय 

भारतीय दंड संहिता, 1860 कुछ सामान्य बचाव प्रदान करता है जो एक आरोपी व्यक्ति को आपराधिक जिम्मेदारी से मुक्त कर सकते है जो इस सिद्धांत पर आधारित है कि हालांकि व्यक्ति ने अपराध किया है लेकिन उसे उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अपराध किए जाने के समय, उसके कार्यों को उचित ठहराया गया था या कोई दोषपूर्ण आशय (मेंस रिया) का कारण नहीं था। हालाँकि, उसे आईपीसी के अध्याय 4 के तहत प्रदान किए गए बचाव के अनुसार उत्तरदायी नहीं ठहराया जाएगा।

भारतीय दंड संहिता, 1860 का अध्याय 4 सामान्य बचाव से संबंधित है। अपराध तभी उत्पन्न होता है जब दोषपूर्ण आशय को आपराधिक कार्य (एक्टस रियस) के साथ जोड़ा जाता है। यह एक प्रसिद्ध कहावत “एक्टस रियस नॉन-फेसिट रियम निसी मेन्सिट रिया” पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि जब तक मन दोषी नहीं है तब तक यह कार्य दोषी नहीं है। इन सामान्य बचावों के माध्यम से, किसी अपराध को गैर-अपराध के रूप में माना जा सकता है क्योंकि प्रत्येक अपराध निरपेक्ष (एब्सोल्यूट) नहीं होता है और उनके कुछ अपवाद होते हैं।

सामान्य बचाव को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:

  1. क्षम्य (एक्सक्यूजेबल) कार्य
  2. न्यायोचित (जस्टिफिएबल) कार्य

क्षम्य कार्य

क्षम्य कार्य वे हैं जो दोषपूर्ण आशय जिसे कार्रवाई के समय आरोपी व्यक्ति द्वारा अपराध के गठन में एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है, की कमी के कारण आपराधिक दायित्व से मुक्त हैं।

क्षम्य कार्यों में शामिल हैं:

  1. तथ्य की गलती (धारा 76 और 79) [चिरंगी बनाम राज्य 1952]
  2. दुर्घटना (धारा 80) [राज्य बनाम रंगास्वामी]
  3. शैशवावस्था (इनफैंसी) (धारा 82 और 83) [उमेश चंद्र बनाम राजस्थान राज्य]
  4. पागलपन (धारा 84) [अशीरुद्दीन अहमद बनाम किंग]
  5. नशा (धारा 85 और 86) [सूरज जगन्नाथ जादव बनाम महाराष्ट्र राज्य]

चित्रण (इलस्ट्रेशन)

सात साल की उम्र के एक बच्चे ने सिर्फ बंदूक का ट्रिगर दबाया और पिता की मृत्यु का कारण बना, कार्रवाई के समय दोषी इरादे की कमी के कारण बच्चा इस कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। यह एक कहावत डोली इनकैपैक्स पर आधारित है जिसका अर्थ है अपराध की प्रकृति को समझने में असमर्थता। 7 वर्ष से कम उम्र के बच्चे का कार्य पूर्ण प्रतिरक्षा (एब्सोल्यूट इम्यूनिटी) है। वह अपने किसी भी कार्य के लिए कभी भी उत्तरदायी नहीं होगा।

न्यायोचित कार्य

जब आरोपी के कार्यों को कानूनी रूप से उचित ठहराया जाता है, उन विशेष परिस्थितियों में आईपीसी के भाग 4 के तहत उल्लिखित बचाव, दिए जाते हैं। प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी), इन कार्यों को सामान्य परिस्थितियों में अपराध माना जाता है क्योंकि कार्रवाई के समय यह दोषपूर्ण आशय की वजह से होता है।

न्यायोचित कार्यों में शामिल हैं:

  1. न्यायिक कार्य (धारा 77 और 78) [कपूर चंद बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य]
  2. आवश्यकता (धारा 81) [आर. बनाम डूडले और स्टीफंस]
  3. सहमति (धारा 87-92) [आर.पी डंडा बनाम भूरेलाल]
  4. संचार (कम्युनिकेशन) (धारा 93) [डॉ. दीपा सहाय बनाम बिहार राज्य]
  5. अवरोध (ड्यूरेस) (धारा 94) [कर्नाटक राज्य बनाम एम बाबू]
  6. तुच्छ (ट्रिफ्ल) कार्यों (धारा 95) [अभियोजक (प्रॉसिक्यूशन) बनाम सत्यनारायण]
  7. निजी रक्षा (धारा 96 से 106] [मोहिंदर पाल जॉली बनाम राज्य]

चित्रण

एक सर्जन, सद्भावना में, रोगी की पत्नी को बताता है कि उसके पति का जीवन खतरे में है। सदमे से पत्नी की मौत हो गई। सर्जन ने कोई अपराध नहीं किया है, हालांकि वह जानता था कि संचार से रोगी की मृत्यु हो सकती है।

सबूत का भार 

‘सबूत का भार’ का मतलब उस व्यक्ति के कर्तव्य से है जो एक ऐसे तथ्य को साबित करने का दावा करता है जो उसके पक्ष में है और उसके विरोधी के खिलाफ जाता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 101 के तहत, सबूत का भार दावा करने वाले व्यक्ति के पास होता है। यह धारा कहती है कि जो कोई भी किसी भी अदालत से किसी भी कानूनी अधिकार या दायित्व के बारे में निर्णय चाहता है, जो तथ्यों के अस्तित्व पर निर्भर करता है, उसे यह साबित करना होगा कि वे तथ्य मौजूद हैं। जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य के अस्तित्व को साबित करने के लिए बाध्य होता है, तो कहा जाता है कि सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है। उदाहरण के लिए, आपराधिक मामलों में, आरोपी के खिलाफ सबूत का भार लाने के लिए अभियोजन पक्ष का कर्तव्य है, वैसे ही सिविल मामलों में, सबूत का भार वादी पर होता है।

दूसरी ओर, भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1873 की धारा 105 के तहत, जहां आरोपी आईपीसी के अध्याय 4 के किसी भी सामान्य अपवाद का लाभ पाने के लिए दावा करता है, सबूत का भार उस पर होता है। उस पर यह साबित करना कर्तव्य है कि उनका मामला इन सामान्य अपवादों के तहत प्रदान किए गए अपवाद के अंतर्गत आता है।

के.एम नानावटी बनाम महाराष्ट्र राज्य (1961) के मामले में, अदालत ने यह माना कि आईपीसी के अध्याय 4 के तहत उल्लिखित बचाव का लाभ उठाने की दृष्टि से, सबूत का भार आरोपी पर होता  है।

आईपीसी की धारा 80 के तहत दुर्घटना

दुर्घटना शब्द का अर्थ है बिना किसी स्पष्ट कारण के संयोग से अचानक अनपेक्षित (अनइंटेंडेड) और दुर्भाग्यपूर्ण (मिसफॉर्च्यून) कार्य। यह आपराधिक कानून के तहत सामान्य बचाव में से एक माना जाता है, क्योंकि कार्रवाई के समय, अपराध करने में एक महत्वपूर्ण भाग के रूप में दोषपूर्ण आशय की कमी होती है। दोषी मन के बिना कार्य करना अपराध नहीं है।

यह धारा कहती है कि “कोई भी कार्य तब अपराध नहीं है जब वह दुर्घटना या दुर्भाग्य से हो जाता है, और बिना किसी आपराधिक इरादे या ज्ञान के वैध तरीके से और उचित देखभाल और सावधानी के साथ वैध तरीके से किया जाता है।”

चित्रण

A हैचेट के साथ काम कर रहा था और तभी हैचेट का सिर उड़ जाता है और पास खड़े एक आदमी को मार डालता है। यहाँ, A की ओर से उचित सावधानी की कोई आवश्यकता नहीं थी, तो उसका कार्य क्षम्य है और अपराध नहीं है।

आईपीसी के अध्याय 4 के अंदर दुर्घटना कैसे आती है

आईपीसी की धारा 80 दुर्घटनाओं को सामान्य बचाव के रूप में मानती है जो एक व्यक्ति को आपराधिक दायित्व के साथ-साथ दंड से मुक्त करती है। कानून के अनुसार, यह किसी को उन चीजों के लिए दंडित करने का इरादा नहीं रखता है जिन पर उसका नियंत्रण नहीं हो सकता है। एक मात्र कार्रवाई एक अपराध नहीं है जब तक कि कार्रवाई के समय इसे एक दोषी दिमाग के साथ नहीं जोड़ा जाता है।

एक दुर्घटना, क्षम्य बचाव के अंतर्गत आती है जिसे आईपीसी के सामान्य बचाव के रूप में माना जाता है, क्योंकि दुर्घटना होने पर कोई आपराधिक इरादा नहीं होता है। जैसा कि यह व्यापक रूप से सिद्ध हो चुका है कि इरादा एक अपराध का गठन करने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

आईपीसी में ‘इरादा’ शब्द कहीं भी परिभाषित नहीं है। लेकिन स्वेच्छा से, जानबूझकर, और स्वयं की इच्छा आदि शब्दों का प्रयोग शब्द इरादे का अनुमानित अर्थ निकालने के लिए किया जाता है।

अपराध के चार तत्व हैं: व्यक्ति, दोषपूर्ण आशय, आपराधिक कार्य और हानि। दोषपूर्ण आशय के अनुसार, यह साबित करना सबसे महत्वपूर्ण तत्व है कि अपराध किया गया है। इसका मतलब यह है कि आरोपी का इरादा जानबूझकर / स्वेच्छा से और उचित पूर्व योजना के साथ किसी व्यक्ति या संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का था।

यह एक प्रसिद्ध कहावत एक्टस रियस नॉन-फेसिट रियम निसी मेंसिट रिया से लिया गया है, जिसका अर्थ है कि एक कार्य किसी व्यक्ति को तब तक अपराध का दोषी नहीं ठहराता जब तक कि उसका दिमाग दोषी न हो।

आईपीसी की धारा 80 के आवश्यक तत्व

  1. कार्य दुर्घटनावश होना चाहिए।
  2. कार्य बिना किसी आपराधिक इरादे या जानकारी के होना चाहिए।
  3. वैध तरीके से वैध कार्य करते समय।
  4. उचित देखभाल और सावधानी के साथ किया जाना चाहिए।

वैध कार्य करने में दुर्घटना

दरअसल, यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि कोई भी कार्य तब तक अपराध नहीं है जब तक कि उसे करने वाले ने आपराधिक इरादे से ऐसा नहीं किया हो।

धारा 80 इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि कोई भी कार्य अपराध नहीं है जो दुर्घटना या दुर्भाग्य से और बिना किसी आपराधिक इरादे या ज्ञान के, वैध तरीके से और उचित सावधानी के साथ किया जाता है।

चित्रण

A हैचेट के साथ काम कर रहा था और तभी हैचेट का सिर उड़ जाता है और पास खड़े एक आदमी को मार डालता है। यहाँ, A की ओर से उचित सावधानी की कोई आवश्यकता नहीं थी, तो उसका कार्य क्षम्य है और अपराध नहीं है।

दुर्घटना से संबंधित महत्वपूर्ण मामले 

राज्य सरकार बनाम रंगास्वामी [1952]

यह मामला इस सिद्धांत पर आधारित है कि दुर्घटना से किया गया कार्य भारतीय दंड संहिता की धारा 80 के अंतर्गत आएगा।

इस मामले में आरोपी हाइना को मारने के इरादे से गया और एक दिशा से आवाज सुनी और उसी दिशा में गोली चला दी। लेकिन बाद में यकीन हो गया कि यह कोई व्यक्ति है, हाइना नहीं। फिर उसने निवेदन किया कि बारिश हो रही थी और एक वास्तविक धारणा थी कि यह हाइना थी और अपने आसपास के लोगों को इसके द्वारा हमला करने से बचाने के लिए गोली चलाई थी।

अदालत ने कहा कि आरोपी भारतीय दंड संहिता की धारा 80 के तहत उल्लिखित लाभों के हकदार होंगे क्योंकि अन्य तथ्यों के अलावा, उस क्षेत्र में किसी अन्य व्यक्ति के मौजूद होने की कोई उम्मीद नहीं थी जिसमें मृत्यु हुई थी। तो यह साबित हो जाता है कि कार्य एक दुर्घटना का परिणाम था।

टुंडा बनाम राज्य [1950]

यह मामला इस सिद्धांत पर आधारित है कि जब कोई कार्य आपराधिक इरादे या जानकारी के बिना किया जाता है तो वह धारा 80 के अंतर्गत आता है।

इस मामले में आरोपी टुंडा और मृतक दोस्त थे जो कुश्ती में बहुत रुचि रखते थे और कुश्ती से जुड़े हुए थे। कुश्ती के दौरान मृतक के सिर पर चोट लग गई जिससे उसकी मौत हो गई। इस मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पाया कि मृत्यु के कारण लगी चोट एक दुर्घटना का परिणाम थी और आरोपी की ओर से कोई बेईमानी नहीं थी। इसके अलावा, अदालत ने माना कि कुश्ती के मद्देनजर कोई भी जोखिम लेने के लिए मृतक की निहित सहमति थी। इसलिए आरोपी धारा 80 और 87 दोनों के तहत लाभ पाने का हकदार था।

जागेश्वर बनाम एंप्रेरर [1924]

यह मामला इस सिद्धांत पर आधारित है कि जब कोई कार्य वैध नहीं है, तो वह भारतीय दंड संहिता की धारा 80 के तहत नहीं आएगा। इस मामले में आरोपी पीड़िता को पीट रहा था और गलती से आरोपी की गर्भवती पत्नी को टक्कर मार दी जैसे ही टक्कर बच्चे के सिर में लगी, उसकी मौत हो गई। न्यायालय ने कहा कि आरोपी आईपीसी की धारा 80 का लाभ पाने का हकदार नहीं होगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि भले ही बच्चे की मृत्यु दुर्घटना से हुई हो, लेकिन यह कार्य वैध नहीं था।

बुपेंद्र सिन्हा चौडासमा बनाम गुजरात राज्य

यह मामला इस सिद्धांत पर आधारित है कि जब कोई कार्य जानबूझकर और उचित देखभाल और सावधानी के बिना किया गया हो तो वह आईपीसी की धारा 80 के तहत नहीं आएगा।

इस मामले में, अपीलकर्ता भूपेंद्र सिन्हा, विशेष आरक्षित पुलिस के एक सशस्त्र कांस्टेबल ने अपने वरिष्ठ (सुपीरियर) हेड कांस्टेबल पर गोली चलाई और इसके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। दरअसल, दोनों खुम्पला डैम में एक ही प्लाटून में तैनात थे। तब आरोपी ने गुहार लगाई कि वह अपनी पेट्रोलिंग ड्यूटी कर रहा था।

लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि आरोपी द्वारा किया गया कार्य उचित देखभाल और सावधानी की कमी को दर्शाता है और इसलिए वह आईपीसी की धारा 80 के तहत किसी भी लाभ का दावा नहीं कर सकता है।

निष्कर्ष

आपराधिक कानून भारतीय दंड संहिता, 1860 में वर्णित विभिन्न अपराधों के लिए विभिन्न दंडों से संबंधित है। हालांकि व्यक्ति एक अपराध करता है, उसे उसके द्वारा किए गए अपराध के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हर अपराध पूर्ण नहीं है, उनके पास कुछ अपवाद है। ये अपवाद आईपीसी के अध्याय 4 के तहत प्रदान किए गए हैं। इस अध्याय के माध्यम से, कानून कुछ बचाव प्रदान करता है जो आरोपी को आपराधिक दायित्व और उसकी सजा से बचाते हैं। ये बचाव इस सिद्धांत पर आधारित हैं कि हालांकि कोई व्यक्ति अपराध करता है, उसे उत्तरदायी नहीं ठहराया जाएगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि कार्य के होने में दोषी इरादा नहीं होता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 80 के तहत उल्लिखित दुर्घटना के अनुसार, यह एक क्षम्य कार्य माना जाता है जो अपराध की जिम्मेदारी से बच जाता है, जो कि दोषपूर्ण आशय से रहित होने के कारण कार्रवाई के अंत में आपराधिक दायित्व से मुक्त होता है।

संदर्भ 

  • Indian Penal Code By C.K.Takwani
  • Indian Penal Code By NV Paranjape
  • Lectures on Criminal Law By Dr. Rega Surya Rao
  • AIR 1950 All 95
  • AIR 1929 All 932

 

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