मिनर्वा मिल्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामला

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Constitution of India
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यह लेख एसवीकेएम, नरसी मोंजी इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज के Darshit Vora द्वारा लिखा गया है, यह लेख मिनर्वा मिल्स जजमेंट का आलोचनात्मक विश्लेषण (क्रिटिकल एनालिसिस) करता है और बेसिक स्ट्रकचर की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) और ज्यूडिशियल रिव्यू की अवधारणा को भी समझाता है। इस लेख में 42वें अमेंडमेंट एक्ट, 1976 की विभिन्न सामग्री को शामिल किया गया है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

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परिचय (इंट्रोडक्शन)

फंडामेंटल राइट कांस्टीट्यूशन का सार हैं और इसे डायरेक्टिव प्रिंसिपल से अधिक माना जाना चाहिए क्योंकि इन्हे कोर्ट द्वारा लागू किया जा सकता है। कांस्टीट्यूशन के तीन अंगों में लेजिस्लेचर, एक्जिक्यूटिव और ज्यूडिशियरी शामिल हैं। यह महत्वपूर्ण है कि उनके बीच एक सही संतुलन (बैलेंस) होना चाहिए। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां एग्जिक्यूटिव और लेजिस्लेटिव ने अन्य अंगों पर शक्ति का विस्तार (एक्सपैंड) करने के लिए काम किया है। ज्यूडिशियरी ने व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा के लिए समय-समय पर कदम उठाए हैं। मिनर्वा मिल्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में पार्लियामेंट की शक्ति का शोषण (एक्सप्लॉयट) करने का एक समान प्रयास किया गया था।

पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड)

24, 1973 को सुप्रीम कोर्ट ने इंडियन कांस्टीट्यूशन के इतिहास में अपने सबसे ऐतिहासिक जजमेंट में से एक घोषित किया।

लैंड एक्विजिशन एक्ट, 1969 के माध्यम से सरकार ने इंडियन कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 32 के तहत केशवानंद भारती की भूमि का अधिग्रहण (एक्वायर) करने का प्रयास किया। चुनौती से पहले,कई अमेंडमेंट्स पास की गई थी:

जजमेंट

  • कोर्ट ने कहा कि पार्लियामेंट बेसिक स्ट्रकचर के सिद्धांत को बाधित (हैम्पर) किए बिना कांस्टीट्यूशन में अमेंडमेंट कर सकती है।
  • पार्लियामेंट,फंडामेंटल राइट्स में तब तक अमेंडमेंट कर सकती है जब तक वे बेसिक स्ट्रकचर सिद्धांत के अनुरूप हों।
  • कोर्ट ने ज्यूडिशियल रिव्यू को प्रतिबंधित (रेस्ट्रिक्ट) करने वाले हिस्से को रद्द कर दिया।

यह जजमेंट, कानून के साथ अच्छी तरह से नहीं चला, फिर 42वां अमेंडमेंट एक्ट, 1976 पास किया गया, जिसमें उल्लेख किया गया था, कि सभी डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी की आर्टिकल 14 और 19 के तहत दिए गए फंडामेंटल राइट्स पर प्रधानता होगी। आगे क्लॉज (4) और (5) को जोड़ा और कहा कि आर्टिकल 368 के तहत कांस्टीट्यूशनल अमेंडमेंट, ज्यूडिशियल रिव्यू के दायरे से बाहर है। यह अमेंडमेंट केशवानंद भारती मामले में पास जजमेंट के प्रभाव को समाप्त करने के लिए पास की गई थी, ताकि ज्यूडिशियल स्क्रूटिनी के डर के बिना किसी भी कानून को लागू किया जा सके।

मामले के तथ्य (फैक्ट्स ऑफ द केस)

मिनर्वा मिल बेंगलुरु शहर के पास स्थित एक कपड़ा मिल है। वर्ष 1970 में, केंद्र सरकार ने मिनर्वा मिल्स के उत्पादन (प्रोडक्शन) में भारी गिरावट को देखते हुए इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट एक्ट, 1951 की धारा 15 के तहत एक कमिटी नियुक्त (अपॉइंट) की,। कमिटी ने अक्टूबर 1971 में केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट भेजी। केंद्र सरकार ने नेशनल टेक्सटाइल कॉर्पोरेशन लिमिटेड को अधिकृत (ऑथराइज) किया जो कि मिनर्वा मिल्स के प्रबंधन को संभालने के लिए इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट एक्ट, 1951 के तहत गठित (फॉर्म्ड) एक बॉडी थी। 39वें अमेंडमेंट में नेशनलाइजेशन को 9 शेड्यूल में शामिल किया गया, जो ज्यूडिशियल रिव्यू के दायरे से बाहर था। इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण में सुप्रीम शक्ति प्राप्त करने के लिए, पार्लियामेंट में 42वां अमेंडमेंट पास किया गया था, जिसमें कांस्टीट्यूशन अमेंडमेंट एक्ट, 1976 की धारा 4 के माध्यम से आर्टिकल 31C में अमेंडमेंट किया गया था। आगे, 42वें कंस्टीट्यूशनल अमेंडमेंट एक्ट, 1976 की धारा 55 ने आर्टिकल 368 में अमेंडमेंट की थी।

संशोधित आर्टिकल 31C इस प्रकार है:

स्टेट की पॉलिसी को लागू करने वाला कोई भी कानून ((भाग (IV) में निर्धारित) सभी या किसी भी सिद्धांत को, इस आधार पर अमान्य नहीं माना जाएगा कि यह आर्टिकल 14 या आर्टिकल 19 के तहत प्रदत्त (कॉन्फर) किसी भी अधिकार को कम करता है; कोई भी कानून जिसमें यह घोषणा (डिक्लेरेशन) हो कि वह ऐसी पॉलिसी को प्रभावीत कर रहा है, किसी भी अदालत में इस आधार पर प्रश्न में नही बुलाया जाएगा कि यह ऐसी पॉलिसी को प्रभावीत नहीं करता है।

प्रोवाइसो: जहां ऐसे कानून किसी स्टेट लेजिस्लेचर द्वारा बनाए जाते हैं, तो इन आर्टिकल्स के प्रोविजन उस पर तब तक लागू नहीं होंगे जब तक कि ऐसे कानून को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित (रिजर्व्ड) होने के कारण उसकी सहमति प्राप्त नहीं हो जाती है।

इस अमेंडमेंट का मतलब था कि कोई भी कानून जो डायरेक्टिव प्रिंसिपल को प्रभावीत करता है, उसे अदालत द्वारा इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि यह भाषण की स्वतंत्रता या समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है।

इंडियन कांस्टीट्यूशन के अमेंडेड आर्टिकल 368 में क्लॉज (4) और (5) को सम्मिलित किया गया था, जो इस प्रकार है:

  • क्लॉज (4): इस आर्टिकल के तहत भाग III के प्रोविजन सहित, इस कांस्टीट्यूशन का कोई भी अमेंडमेंट, किसी भी आधार पर, किसी भी अदालत में प्रश्न में नहीं लाया जायेगा चाहे वो अमेंडमेंट, धारा 55 के आने के पहले हुई हो या बाद में।
  • क्लॉज (5): शंकाओं को दूर करने के लिए, यह घोषित किया जाता है कि इस आर्टिकल के तहत कांस्टीट्यूशन के प्रोविजन को जोड़ने या निरस्त (रिपील) करने के लिए पार्लियामेंट की कांस्टीट्यूशन शक्ति पर कोई सीमा नहीं होगी।

आर्टिकल 368 में किया गया अमेंडमेंट केशवानंद भारती निर्णय के प्रभाव को समाप्त कर देगा।

याचिकाकर्ताओं की चुनौती (द पेटीशनर्स  चैलेंज्ड)

  • उन्होंने धारा 5(b), 19(3), 21, 25, और 27 (नेशनलाइजेशन एक्ट, 1974 के 2 शेड्यूल के साथ पढा जायेगा) की वैधता को चुनौती दी।
  • 42वें अमेंडमेंट एक्ट, 1976 की धारा 4 और 55
  • मिनर्वा मिलों को नेशनलाइज करने का केंद्र सरकार का आदेश।
  • फंडामेंटल राइट्स पर डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी की प्रधानता।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुद्दा (द इशू बिफोर द सुप्रीम कोर्ट)

  • क्या आर्टिकल 31C और आर्टिकल 368 के तहत 42वें अमेंडमेंट एक्ट, 1976 की धारा 4 और 55 के तहत किए गए सम्मिलन (इनसर्शन) से बेसिक स्ट्रकचर सिद्धांत में बाधा आती है?
  • क्या इंडियन कांस्टीट्यूशन के फंडामेंटल राइट पर डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी की प्रधानता है?

याचिकाकर्ता की दलीलें (आर्गुमेंट ऑफ द पेटिशनर)

याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व (रिप्रजेंटेशन) नानी पालकीवाला द्वारा किया गया था, वह जनाता सरकार के एम्बेसडर थे, जल्द ही उन्हें मानवाधिकारों की रक्षा के लिए भारत लौटने की आवश्यकता महसूस हुई, इसलिए उन्होंने मिनर्वा मिल्स के पूर्व मालिकों की ओर से मामले का तर्क दिया।

  • पार्लियामेंट की अमेंडमेंट शक्तियाँ आर्टिकल 368 के तहत सीमित हैं। यह अमेंडमेंट पार्लियामेंट को कांस्टीट्यूशन का निर्माता (क्रिएचर) बनने की अनुमति देगा।
  • केशवानंद भारती मामले में कोर्ट के फैसले ने उल्लेख किया कि पार्लियामेंट को कांस्टीट्यूशन के बेसिक फीचर को भंग करने का कोई अधिकार नहीं है।
  • स्टेट के डायरेक्टिव प्रिंसिपल पर कानून पास करना, स्टेट का दायित्व था, लेकिन इसे अनुमेय (पर्मिसिबल) तरीकों से किया जाना चाहिए, यह फंडामेंटल राइट्स को खत्म नहीं कर सकता है।
  • 42वें कांस्टीट्यूशन अमेंडमेंट एक्ट, 1976 की धारा 55 के कारण किसी भी कोर्ट को पार्लियामेंट द्वारा पास कांस्टीट्यूशनल अमेंडमेंट को रिव्यू करने की शक्ति नहीं होगी, इससे ज्यूडिशियरी और पार्लियामेंट के बीच संतुलन बिगड़ जाएगा।
  • फंडामेंटल राइट्स औरडायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी के बीच एक असंतुलन पैदा होगा, इसलिए एक हार्मोनीयस कंस्ट्रक्शन करने की आवश्यकता है।
  • सरकार द्वारा बनाए गए लगभग हर कानून किसी न किसी तरह से डायरेक्टिव प्रिंसिपल से जुड़े है।
  • डायरेक्टिव प्रिंसिपल को इम्यूनिटी देने से इंडियन कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 19 और आर्टिकल 14 का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा।

उत्तरदाताओं के तर्क (आर्गुमेंट ऑफ द रिस्पॉन्डेंट)

स्टेट का प्रतिनिधित्व अटॉर्नी जनरल एल.एन. सिन्हा और एडिशनल सॉलिसिटर जनरल के.के. वेणुगोपाल के द्वारा किया गया था, ये दोनों एक अनिश्चित स्थिति में थे कि अमेंडमेंट का बचाव करने के लिए आपातकालीन युग (इमरजेंसी एरा) पास किया गया:

  • इंडियन कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 31C ने बेसिक स्ट्रकचर के सिद्धांत को मजबूत किया, डायरेक्टिव प्रिंसिपल ने फंडामेंटल राइट्स के अभाव में लक्ष्य प्रदान किया।
  • फंडामेंटल राइटट्स को होने वाली कोई भी क्षति, बेसिक स्ट्रकचर सिद्धांत का उल्लंघन नहीं होगी।
  • डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ़ स्टेट पॉलिसी के तहत निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पार्लियामेंट की शक्तियां सुप्रीम होनी चाहिए, इसकी अमेंडमेंट शक्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए।
  • एकेडमिक इंटरेस्ट से जुड़े मुद्दे पर कोर्ट को फैसला नहीं लेना चाहिए।
  • सरकार नेशनलाइजेशन प्रॉसेस के माध्यम से कंपनी को लोन जुटाने में सहायता कर रही थी।

जजमेंट

केंद्र सरकार द्वारा जांच कराने का आदेश पास होने के लगभग 7 साल बाद, यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 4:1 की मेजॉरिटी के साथ सुनाया।

मेजोरिटी ओपिनियन

न्यायमूर्ति ए.सी. गुप्ता, एन.एल. उन्तवालिया और पी.एस. कैलासम की ओर से न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने मेजोरिटी ओपिनियन दिया।  

इंडियन कांस्टीट्यूशन का आर्टिकल 368

  • पार्लियामेंट के पास कांस्टीट्यूशन में अमेंडमेंट करने की शक्ति है लेकिन उसे इसके बेसिक फ्रेमवर्क के भीतर होना चाहिए।
  • कांस्टीट्यूशन में अमेंडमेंट करने की असीमित शक्ति का सिद्धांत, लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) को अलग कर देगा और एक टोटेलिटेरियन स्टेट का निर्माण करेगा।
  • क्लॉज (5) अनकांस्टीट्यूशनल है, क्योंकि यह कांस्टीट्यूशन के बेसिक स्ट्रकचर को बाधित करता है।
  • क्लॉज (5) को इसलिए रद्द कर दिया गया क्योंकि इसने कोर्ट की ज्यूडिशियल रिव्यू और अमेंडमेंट की शक्ति को प्रतिबंधित कर दिया था।

इंडियन कांस्टीट्यूशन का आर्टिकल 31C

  • यदि भाग IV इंडियन कांस्टीट्यूशन के भाग III को नष्ट कर देता है तो यह बेसिक स्ट्रकचर को नष्ट कर देगा।
  • कांस्टीट्यूशन के भाग III को नष्ट किए बिना भाग IV को प्राप्त करने की आवश्यकता है।
  • इंडियन कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 19 और 14 के तहत प्रदान की गई सबसे प्राथमिक (एलिमेंटरी) स्वतंत्रता है, इसलिए इन्हें संरक्षित किया जाना चाहिए।
  • इंडियन कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 31C ने स्वर्ण त्रिभुज (गोल्डन ट्राएंगल) (आर्टिकल 19, 14, और 21) के दो पक्षों को हटा दिया है, जिससे इस देश के लोगों को गंभीर नुकसान होगा।

माइनोरिटी ओपिनियन

असहमति का ओपिनियन न्यायमूर्ति भगवती ने दिया था।

इंडियन कांस्टीट्यूशन का आर्टिकल 368

न्यायमूर्ति भगवती 42वें कांस्टीट्यूशन अमेंडमेंट एक्ट, 1976 की धारा 55 को समाप्त करने के मेजोरिटी के निर्णय के पक्ष में थे:

  • उन्होंने कहा कि बेसिक फीचर, कांस्टीट्यूशन का एक अभिन्न (इंटीग्रल) अंग हैं।
  • क्लॉज (4) अनकांस्टीट्यूशनल है, क्योंकि इसने कांस्टीट्यूशन के दो बेसिक फीचर का उल्लंघन किया है, पहला पार्लियामेंट की सीमित अमेंडमेंट शक्ति और  दूसरा ज्यूडिशियल रिव्यू पर प्रतिबंध।
  • क्लॉज (5) अनकांस्टीट्यूशनल है और अमान्य है, इसका कांस्टीट्यूशन को एक अनियंत्रित में बदलने का प्रभाव था।

इंडियन कांस्टीट्यूशन का आर्टिकल 31C

  • कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 31C ने बेसिक स्ट्रकचर को नुकसान नहीं पहुंचाया बल्कि मजबूत किया।
  • डायरेक्टिव प्रिंसिपल का पालन न करना अनकांस्टीट्यूशनल होगा और लोगों के विश्वास का उल्लंघन होगा।
  • डायरेक्टिव प्रिंसिपल को सीधे तौर पर लागू करने वाला कोई भी कानून के सिद्धांत से असंगत नहीं हो सकता।
  • यदि कानून डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी से काफी हद तक जुड़ा हुआ है तो वैध होगा यदि कोई जोड़ नहीं है तो इसे समाप्त कर दिया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

31 जुलाई 1980 को, कोर्ट ने अपना निर्णय सुनाया:

  • 42वें अमेंडमेंट एक्ट, 1976 की धारा 4 और 55 अनकांस्टीट्यूशनल है।
  • धारा 5(b), 19(3), 21, 25, और 27 (नेशनलाइजेशन एक्ट, 1974 के 2 शेड्यूल के साथ पढा जायेगा) की वैधता को चुनौती देने वाली रिट याचिका को कोर्ट ने खारिज कर दिया था।

कॉन्सेप्ट ऑफ बेसिक स्ट्रकचर

इंडियन कांस्टीट्यूशन में, बेसिक स्ट्रकचर के टर्म का कोई उल्लेख नहीं है; यह जजमेंट्स की एक सीरीज के माध्यम से अपने अस्तित्व में आया है। इस सिद्धांत में उल्लेख किया गया है कि बेसिक स्ट्रकचर में बाधा डाले बिना कांस्टीट्यूशन में अमेंडमेंट किए जा सकता हैं।

बेसिक स्ट्रकचर सिद्धांत के तहत सब्जेक्ट मैटर में शामिल हैं:

  1. कानून का नियम।
  2. केंद्र और स्टेट के बीच शक्तियों का विभाजन (सेपरेशन ऑफ पावर)।
  3. फंडामेंटल राइट्स और डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी के बीच संतुलन।
  4. स्वतंत्र और निष्पक्ष (फेयर) चुनाव कराने का अधिकार।
  5. सरकार का पार्लियामेंट्री सिस्टम।
  6. इंडियन कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 32, 147, 142 और 136 के तहत सुप्रीम कोर्ट की शक्तियां।
  7. इंडियन कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 226 और 227 के तहत हाई कोर्ट की शक्तियां।
  8. आर्टिकल 14 समानता का अधिकार।
  9. कांस्टीट्यूशन में अमेंडमेंट करने की पार्लियामेंट की सीमित शक्ति।
  10. राष्ट्र की यूनिटी और इंटीग्रिटी।
  11. सेक्युलरिज़्म और सोशलिज़्म।
  12. प्रिएंबल 

बेसिक स्ट्रकचर सिद्धांत का विकास (इवोल्यूशन ऑफ़ द बेसिक स्ट्रकचर डॉक्ट्रिन)

इस सिद्धांत का विकास विभिन्न ऐतिहासिक जजमेंट्स के माध्यम से हुआ। उनमें से कुछ निम्न हैं:

गोलकनाथ मामला

  • इस मामले में, कोर्ट ने माना कि फंडामेंटल राइट्स का अमेंडमेंट नहीं किया जा सकता है; फंडामेंटल राइट्स में अमेंडमेंट के लिए पार्लियामेंट पर प्रतिबंध लगाया गया है; और एक नई कांस्टीट्यूशनल असेंबली की आवश्यकता है।
  • इन्होंने कांस्टीट्यूशन में अमेंडमेंट करने के लिए पार्लियामेंट की शक्ति पर निहित सीमा (इम्प्लॉइड लिमिटेशन) की अवधारणा का इस्तेमाल किया।

केशवानंद भारती मामला

  • इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार बेसिक स्ट्रकचर की अवधारणा का इस्तेमाल किया।
  • कांस्टीट्यूशनल अमेंडमेंट के माध्यम से भी बेसिक स्ट्रकचर सिद्धांत को निरस्त नहीं किया जा सकता है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने कुछ बेसिक स्ट्रकचर जैसे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, शक्तियों का विभाजन, सरकार का पार्लियामेंट्री स्वरूप, आदि का सुझाव दिया।

इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण

  • 39वें अमेंडमेंट के माध्यम से एक क्लॉज जोड़ा गया कि प्राइम मिनिस्टर, वाइस प्रेसीडेंट, स्पीकर, ज्यूडिशियल रिव्यू के दायरे से बाहर हैं।
  • इस मामले में कोर्ट ने बेसिक स्ट्रकचर के सिद्धांत पर जजमेंट देते हुए कहा कि यह पार्लियामेंट की अमेंडमेंट करने की शक्ति से परे है और इसलिए इसे रद्द कर दिया गया।

मिनर्वा मिल्स मामला

  • सुप्रीम कोर्ट ने बेसिक स्ट्रकचर सिद्धांत, ज्यूडिशियल रिव्यू और फंडामेंटल राइट औरडायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी के बीच हार्मनी के लिए एक नया क्लॉज जोड़ा।
  • इस मामले में, कोर्ट ने यह भी माना कि पार्लियामेंट की सीमित अमेंडमेंट शक्ति, बेसिक स्ट्रकचर सिद्धांत का एक हिस्सा है।

इंदिरा साहनी मामला

  • इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने 50% प्रतिबंध, आदि जैसे आरक्षण के कार्यान्वयन के लिए विभिन्न आधार डाले।
  • बेसिक स्ट्रकचर के सिद्धांत में कानून का शासन डाला गया था।
  • इस मामले के जरिए कोर्ट ने देश की यूनिटी और इंटीग्रिटी, फेडरल स्ट्रकचर, सेक्युलरिज़्म और सोशियलिज़्म को शामिल किया।

एस.आर. बोम्मई मामला

  • इस मामले के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने बेसिक स्ट्रकचर सिद्धांत में प्रिएंबल को शामिल किया क्योंकि प्रिएंबल, लेजिस्लेचर के लिए कांस्टीट्यूशन की व्याख्या करने के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है।

इसलिए बेसिक स्ट्रकचर सिद्धांत का इंडियन कांस्टीट्यूशन में एक महत्वपूर्ण स्थान है, यह पार्लियामेंट की उन कानूनों को बनाने की शक्ति को सीमित करता है जो लोगों के अधिकारों के साथ असंगत (इन्कन्सीस्टेंट)हैं।

ज्यूडिशियल रिव्यू का सिद्धांत

यह सिद्धांत, इंडियन कांस्टीट्यूशन में अमेरिकी कांस्टीट्यूशन से डाला गया था, जो ज्यूडिशियरी को एग्जिक्यूटिव और लेजिस्लेचर के एक्ट्स को रिव्यू करने की शक्ति प्रदान करता है।

कोर्ट, ज्यूडिशियल रिव्यू की शक्ति का उपयोग निम्न पर कर सकता है:

  • कांस्टीट्यूशनल अमेंडमेंट।
  • पार्लियामेंट, स्टेट लेजिस्लेचर और सब लेजिस्लेचर द्वारा पास लेजिस्लेशन।
  • यूनियन और स्टेट्स के एडमिनिस्ट्रेटिव कार्य।

ज्यूडिशियल रिव्यू के सिद्धांत का विकास (इवोल्यूशन ऑफ़ डॉक्ट्रिन ऑफ ज्यूडिशियल रिव्यू)

  • ज्यूडिशियल रिव्यू के सिद्धांत को पहली बार मारबरी बनाम मैडिसन नाम के मामले में पेश किया गया था, जिसमें कहा गया था कि कांस्टीट्यूशन एक सुप्रीम कानून है, और जो भी लेजिसलेटिव कार्य प्रतिकूल (रिपुगनंट) है, उन्हे अमान्य माना जाएगा।
  • स्वतंत्र देश होने की दृष्टि से कांस्टीट्यूशनल थिंकर्स ने इंडियन कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 13 को सम्मिलित किया जो कोर्ट को ज्यूडिशियल रिव्यू का उपयोग करने की शक्ति प्रदान करता है।
  • शास्त्री बनाम वी.जी. रो चीफ जस्टिस पतंजलि ने कहा कि ज्यूडिशियल रिव्यू की शक्ति कानून का एक हिस्सा है, इस देश में अदालत को एक महत्वपूर्ण कार्य का सामना करना पड़ता है, उन्हें कांस्टीट्यूशन में वर्णित कर्तव्य (ड्यूटी) का निर्वहन करना है।
  • ए.के. गोपालन मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्टेट्यूट को कांस्टीट्यूशनल आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए; यह तय करना ज्यूडिशियरी की जिम्मेदारी है कि एक्ट कांस्टीट्यूशनल है या नहीं।
  • केशवानंद भारती बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में कोर्ट ने माना कि जब तक फंडामेंटल राइट मौजूद हैं, तो कोर्ट द्वारा ज्यूडिशियल रिव्यू की शक्ति का प्रयोग किया जाना चाहिए ताकि उन अधिकारों को संक्षिप्त (एब्रिज) नहीं किया जा सके।
  • इंदिरा गांधी बनाम राज नारियन, 39वें अमेंडमेंट के माध्यम से, एक क्लॉज जोड़ा गया था, कि प्राइम मिनिस्टर, वाइस प्रेसीडेंट, स्पीकर ज्यूडिशियल रिव्यू के दायरे से बाहर हैं। कोर्ट ने इसे अनकांस्टीट्यूशनल घोषित किया और उल्लेख किया कि ज्यूडिशियल रिव्यू लोकतंत्र का एक बेसिक हिस्सा है।
  • मिनर्वा मिल्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में कोर्ट ने कहा कि न्यायाधीशों को पास हुऐ कानूनों की वैधता तय करनी होगी यदि कोर्ट को अपनी शक्ति से वंचित किया जाता है, तो नियंत्रित कांस्टीट्यूशन एक अनियंत्रित कांस्टीट्यूशन हो जाएगा।
  • एल चंद्र कुमार बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में कोर्ट ने माना कि सुप्रीम कोर्ट के पास कांस्टीट्यूशन को बनाए रखने की शक्ति है। कोर्ट को शक्ति संतुलन बनाए रखने और एग्जिक्यूटिव और लेजिस्लेचर के कार्यों की जाँच करने की आवश्यकता है ताकि कोई कांस्टीट्यूशनल सीमा न हो। ज्यूडिशियल रिव्यू बेसिक स्ट्रकचर सिद्धांत की एक अनिवार्य विशेषता है।
  • आई.आर. कोएल्हो बनाम तमिलनाडु स्टेट में कोर्ट ने माना कि 9वें शेड्युल में केशवानंद भारती मामले के बाद किए गए कोई भी सम्मिलन ज्यूडिशियल रिव्यू के लिए खुले हैं।

ज्यूडिशियल रिव्यू कांस्टीट्यूशन की सुप्रीमेसी को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह हमें कांस्टीट्यूशन के तीनों अंगों के बीच संतुलन बनाए रखने में भी मदद करता है ताकि कोई भी कानून बिना किसी रोक-टोक के पास न हो सके।

42वें अमेंडमेंट एक्ट, 1976 के तत्व 

अमेंडमेंटों में दो नए भाग IV-A और XIV-A और 11 आर्टिकल शामिल किए गए और इंडियन कांस्टीट्यूशन के 36 आर्टिकल को प्रतिस्थापित (सब्सटिट्यूटेड) किया गया:

  • प्रिएंबल:  अमेंडमेंट ने प्रिएंबल में सोशलिस्ट, सेक्युलर और इंटीग्रिटी तीन नए शब्द जोड़े।
  • डायरेक्टिव प्रिंसिपल: अमेंडमेंट आर्टिकल 31A में किया गया था, जिसने इसके दायरे को विस्तृत (वाइड) किया और यह माना कि स्टेट के सभी डायरेक्टिव प्रिंसिपल पॉलिसी की फंडामेंटल राइट पर सुप्रीमेसी होगी। (इसे मिनर्वा मिल्स के जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था)। तीन नए डायरेक्टिव प्रिंसिपल जोड़े गए:
  1. पहला समान न्याय और मुफ्त कानूनी सहायता।
  2. दूसरा इंडस्ट्री के प्रबंधन (मेनेजमेंट) में श्रमिकों (वर्कर्स) की भागीदारी।
  3. तीसरा पर्यावरण में सुधार और वन और वन्यजीव (वाइल्डलाइफ) की सुरक्षा।
  • फंडामेंटल ड्यूटीज: इंडियन कांस्टीट्यूशन का भाग IV A जिसने इंडियन कांस्टीट्यूशन के 10 फंडामेंटल ड्यूटीज का नेतृत्व किया।
  • पार्लियामेंट, एग्जिक्यूटिव और स्टेट लेजिस्लेचर: आर्टिकल 55 के अनुसार पार्लियामेंट और स्टेट लेजिस्लेचर में सीटों का बटवारा 1971 की जनगणना (सेंसस) पर निर्धारित किया गया था। आर्टिकल 74 के अनुसार, यह स्पष्ट किया गया है कि प्रेसिडेंट के पास काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स को सलाह देने की शक्ति है। आर्टिकल 105(3) और आर्टिकल 194 ने पार्लियामेंट के प्रत्येक हाउस को विशेषाधिकार प्रदान किए है।
  • ज्यूडिशियरी: ज्यूडिशियरी में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए, 5 नए आर्टिकल 32, 131A, 139, 144A, और 226A को सम्मिलित किया गया। इसने विभिन्न मौजूदा आर्टिकल 145, 225, 227 और 228 में भी अमेंडमेंट किया।
  • सुप्रीम कोर्ट के आर्टिकल 139A ने सुप्रीम कोर्ट को मामलों को हाई कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरित (ट्रान्सफर) करने की शक्ति प्रदान की। यह शक्ति कोर्ट को महत्वपूर्ण मुद्दों से निपटने और शीघ्रता से निपटाने के लिए प्रदान की गई थी।
  • आर्टिकल 226 में अमेंडमेंट किए गए, इसने हाई कोर्ट के क्षेत्राधिकार (ज्यूरिसडिक्शन) को फिर से परिभाषित किया। इसने हाई कोर्ट के क्षेत्राधिकार को उन मामलों की सुनवाई के लिए प्रतिबंधित कर दिया जिनमें शामिल थे:
  1. फंडामेंटल राइट के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) के लिए।
  2. नागरिकों को भारी क्षति से संबंधित मामले।
  3. न्याय की पर्याप्त (सब्सटेंशियल) विफलता।
  • यूनियन और स्टेट के बीच संबंध: अमेंडमेंट एक्ट ने आर्टिकल 257A को जोड़ा, जिसने केंद्र सरकार को किसी भी स्टेट में किसी भी सशस्त्र बल (आर्म्ड फोर्सेज) को गंभीर स्थिति में भेजने की शक्ति प्रदान की। अमेंडमेंट के कारण क्षेत्रों को स्टेट सूची से कंक्योरेंट सूची में स्थानांतरित किया गया:
  1. एडमिनिस्ट्रशन ऑफ जस्टिस।
  2. शिक्षा।
  3. जंगल।
  4. जंगली जानवरों और पक्षियों की सुरक्षा।
  5. वजन और माप।
  • सेवाएं: आर्टिकल 311 में अमेंडमेंट किया गया, जिसने सरकारी कर्मचारी को जांच के दूसरे चरण में अपना प्रतिनिधित्व करने का अधिकार छीन लिया। आर्टिकल 312 में अमेंडमेंट करके ऑल इंडियन ज्यूडिशियल सर्विसेज की स्थापना की गई।
  • ट्रिब्यूनल: अमेंडमेंट्स ने आर्टिकल 323 में दो क्लॉज शामिल किए। आर्टिकल 323A ने पार्लियामेंटरी कानून द्वारा एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल स्थापित करने की शक्ति प्रदान की। आर्टिकल 323B पार्लियामेंट को विभिन्न ट्रिब्यूनल और विवादों को स्थापित करने की शक्तियाँ, जो सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं।
  • इमरजेंसी: आर्टिकल 352 में एक सम्मलन किया, जिसने प्रेसिडेंट को एक प्रोक्लेमेशन के माध्यम से किसी भी हिस्से या पूरे भारत में इमरजेंसी की घोषणा करने की अनुमति दी। आर्टिकल 356 में 6 महीने से एक वर्ष तक प्रतिस्थापित किया गया।
  • अमेंडमेंट: आर्टिकल 368 के तहत दो नए क्लॉज (4) और (5) जोड़े गए जिन्होंने पार्लियामेंट को कानून बनाने की अंतिम शक्ति दी और उनका ज्यूडिशियल रिव्यू नहीं होगा। इन क्लॉजेस को मिनर्वा मिल्स मामले में रद्द कर दिया गया था। आर्टिकल 103 में अमेंडमेंट किया गया जिसने ज्यूडिशियल स्क्रूटिनी से अयोग्यता (डिस्क्वालिफिकेशन) के प्रश्न को हटा दिया। इसी तरह का परिवर्तन स्टेट लेजिस्लेचर आर्टिकल 192 में किया गया था।
  • कठिनाइयों को दूर करने की प्रेसिडेंट की शक्तियाँ: इस क्लॉज की स्थापना कांस्टीट्यूशन के प्रोविजन में विद्यमान (एक्सिस्टिंग) कठिनाइयों को दूर करने के लिए की गई थी। इस प्रोविजन ने प्रेसिडेंट को अपार (इमेंस) शक्ति प्रदान की।

इसी तरह के मामले (सिमिलर केसेस)

इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण

तथ्य:  इस मामले में कांस्टीट्यूशन में 39वां अमेंडमेंट एक्ट, 1961 पास किया गया था, जिसमें इंडियन कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 329A को शामिल किया गया था। आर्टिकल में कहा गया है कि प्रेसिडेंट, प्राइम मिनिस्टर, वाइस प्रेसिडेंट और लोक सभा के स्पीकर का चुनाव ज्यूडिशियल स्क्रूटिनी के दायरे में नहीं आ सकता है।

जजमेंट: कोर्ट ने माना कि ज्यूडिशियल स्क्रूटिनी को कम करने के लिए अमेंडमेंट को अनकांस्टीट्यूशनल ठहराया गया था। यह आर्टिकल 14 का स्पष्ट उल्लंघन है। इसे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का उल्लंघन माना गया।

यह भी एक महत्वपूर्ण जजमेंट था, जहां लेजिस्लेचर द्वारा चुनावों के मामलों में ज्यूडिशियरी की भूमिका को प्रतिबंधित करने का प्रयास किया गया था।

संजीव कोक मैन्युफैक्चर बनाम भारत कोकिंग

मामले के तथ्य: कोल माइन्स (नेटिनलाइजेशन) एक्ट, 1972 पास किया गया था। जिसने कोकिंग कोल माइन्स को नेशनलाइजेशन प्रदान किया। याचिकाकर्ता ने इसे इस आधार पर चुनौती दी थी कि यह समानता के अधिकार का उल्लंघन है। याचिकाकर्ता ने कहा कि नेशनलाइजेशन की कोई जरूरत नहीं है।

जजमेंट: इस मामले में कोर्ट ने कहा कि अमेंडमेंट आर्टिकल 31C के तहत किया गया था, भले ही यह इंडियन कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 14 का उल्लंघन है।

यह जजमेंट मिनर्वा मिल्स के नेशनलाइजेशन के फैसले के विरोधाभासी (कॉन्ट्रेडिक्टरी) था, और ज्यूडिशियल रिव्यू के प्रिव्यू से परे है।

आई.सी.आई. गोलकनाथ बनाम पंजाब स्टेट

तथ्य: इस मामले में, हेनरी और विलियम गोलकनाथ की सरकार 30-30 एकड़ जमीन रख सकते और बाकी 460 एकड़ केंद्र सरकार द्वारा ली जाएगी। सरकार की इस कार्रवाई को इंडियन कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 32 के तहत चुनौती दी गई थी।

जजमेंट: सुप्रीम कोर्ट ने माना कि पार्लियामेंट के पास फंडामेंटल राइट में अमेंडमेंट करने की शक्ति नहीं है। ये मनुष्य की वृद्धि (ग्रोथ) और विकास के महत्वपूर्ण अधिकार हैं।

इस मामले में कोर्ट ने माना कि, कोई भी कानून पास किया गया जो फंडामेंटल राइट के साथ असंगत है, तो इसे मिनर्वा मिल्स मामले के समान ही खारिज कर दिया जायेगा।

क्रिटिकल एनालिसिस

इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण में ऐतिहासिक जजमेंट के बाद, यह केंद्र सरकार के लिए एक बड़ा झटका था, जिसके कारण पार्लियामेंट द्वारा पास किसी भी अमेंडमेंट पर ज्यूडिशियरी की शक्ति पर अंकुश लगाने के लिए 42वां अमेंडमेंट पास किया गया। अमेंडमेंट के माध्यम से, पार्लियामेंट ने फंडामेंटल राइट और डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी के बीच हार्मनी को असंतुलित करने का प्रयास किया। मेजोरिटी ओपिनियन ने इस बात का समर्थन किया कि अमेंडमेंट से असंतुलन पैदा हुआ है इसलिए इसे रद्द करने की आवश्यकता है। उन्होंने तर्क दिया कि फंडामेंटल राइट का सभ्य (सिविलाइज्ड) समाजों में एक विशिष्ट (यूनिक) स्थान है, वे इंडियन कांस्टीट्यूशन के हृदय और आत्मा हैं।

इस अमेंडमेंट के कारण डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी पॉलिसी को पूर्ण शक्ति प्रदान की गई, भले ही कांस्टीट्यूशन के भाग- III (फंडामेंटल राइट) के साथ असंगत हो, इसे समाप्त नहीं किया जा सकता है। उनका तर्क था कि दोनों के बीच एक सही संतुलन होना चाहिए, किसी के पास दूसरे पर बिना शर्त शक्ति नहीं होनी चाहिए। माइनोरिटी ओपिनियन न्यायमूर्ति भगवती द्वारा दिया गया था, जिसमें तर्क दिया गया था कि डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी, लोकतंत्र को बल देता है और फंडामेंटल राइट के स्थिर (स्टेटिक) प्रावधान को उपयोगी करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

42वें अमेंडमेंट एक्ट, 1976 की धारा 4 के लिए न्यायाधीशों का मेजोरिटी ओपिनियन सटीक था, क्योंकि यदि डायरेक्टिव प्रिंसिपल कल्याण के नाम पर फंडामेंटल राइट से पहले होते हैं, तो विभिन्न अमेंडमेंट पास किए जाएंगे जो भेदभावपूर्ण होंगे और अनकांस्टीट्यूशनल होने के कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता के खिलाफ होंगे।

अमेंडमेंट के दूसरे भाग में 42वें अमेंडमेंट एक्ट की धारा 55 है, जिसने कांस्टीट्यूशन में अमेंडमेंट करने के लिए असीमित शक्ति प्रदान की, न्यायाधीशों की पूर्ण बेंच इस धारा को फिर से रद्द करने के पक्ष में थी, बेंच उनके निर्णय में सटीक थी, उन्होंने एक असंतुलन पैदा करने की कोशिश की, लोकतंत्र के विभिन्न अंगों के साथ इस अमेंडमेंट ने पार्लियामेंट को अस्थिर शक्ति प्रदान की होगी, अमेंडमेंट ज्यूडिशियल रिव्यू के दायरे से बाहर होगी। अदालत ने इसे खारिज करते हुए कहा कि कांस्टीट्यूशन की सीमित अमेंडमेंट शक्ति बेसिक स्ट्रकचर का एक हिस्सा है। कोर्ट ने पार्लियामेंट को कांस्टीट्यूशन में परिवर्तन करने की अनुमति दी लेकिन बेसिक स्ट्रकचर के साथ असंगत नहीं होनी चाहिए।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाए गए जजमेंट के बाद न्यायमूर्ति भगवती को आलोचना का एक अच्छा हिस्सा मिला, न्यायाधीशों ने स्वीकार किया कि उनके पास एक दूसरे के फैसले को रिव्यू करने का मौका नहीं है। सरकार ने पार्लियामेंट की अमेंडमेंट शक्ति का विस्तार करने के लिए महत्वपूर्ण निर्णय को पलटने के लिए एक रिव्यू याचिका दायर की। इसे कोर्ट ने खारिज कर दिया। जजमेंट टेक्स्ट के पास होने के चार दशक बाद भी, जिसे अनकांस्टीट्यूशनल घोषित किया गया था, अभी भी टेक्स्ट का एक हिस्सा है। यह उन कई अवसरों में से एक था, जहां पार्लियामेंट कांस्टीट्यूशन में हेरफेर करके अपनी सत्ता के अहंकार का प्रदर्शन कर रही थी।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

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