महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हंस जॉर्ज (1965) : मामले का विश्लेषण

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यह लेख Kruti Brahmbhatt द्वारा लिखा गया है। यह लेख महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हंस जॉर्ज के मामले से संबंधित है। इसमें न्यायालय द्वारा विचार किये गए प्रत्येक पहलू और दोनों पक्षों द्वारा दिए गए तर्को का व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। इसके अतिरिक्त, मामले का विवरण, मामले के तथ्य, उठाए गए मुद्दे और अपीलार्थी और प्रतिवादी द्वारा दिए गए तर्क, साथ ही निर्णय देते समय न्यायालयों द्वारा विचार किए गए मामलों की विस्तृत समझ प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

यह लेख उन सभी कानूनी छात्रों जो विभिन्न कानूनी प्रभावों और वैधानिक व्याख्याओं को जानना चाहते हैं के लिए अवश्य पढ़ने वाला लेख है। महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हंस जॉर्ज (1965) का मामला विभिन्न कानूनी मुद्दों जैसे कि मेन्स रीया, कानून की अज्ञानता, सख्त दायित्व और प्रत्यायोजित (डेलिगेटेड) विधान के निहितार्थों पर शोध करते समय महत्वपूर्ण महत्व रखता है। यह मामला एक विदेशी नागरिक से संबंधित है, जो पाठकों को एक विदेशी नागरिक द्वारा आपराधिक अपराध करने के संबंध में अनेक कानूनी निहितार्थों को जानने और समझने का अवसर देता है। 

यह मामला इसलिए सुर्खियों में आया क्योंकि इसमें एक विदेशी नागरिक द्वारा भारत में भारी मात्रा में सोने की तस्करी का संदेह था। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 (जो अब विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 के अधिनियमन के साथ निरस्त हो गया है) के महत्वपूर्ण प्रावधानों की व्याख्या की है। इस मामले में अदालत ने आपराधिक कानून के एक महत्वपूर्ण पहलू, यानी मेन्स रीया, पर निर्णय दिया है। यह मामला इस बात को समझने का एक आदर्श उदाहरण है कि जब अभियुक्त विदेशी नागरिक हो तो क्या जटिलताएं उत्पन्न होती हैं। इस मामले में निर्णय के कारण, विदेशी नागरिकों पर भारतीय कानूनों की प्रयोज्यता के संबंध में महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया गया था। 

महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हंस जॉर्ज (1965) का विवरण

मामले का नाम: महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हंस जॉर्ज

समतुल्य उद्धरण: एआईआर 1965 एससी 722, 1968 (67) बीओएम एलएस 583, [1965] 35 कॉम्पकास 557 (एससी), (1971) 1 कॉम्पएलजे (कम्पनी लॉ जर्नल) 634 (एससी), (1971) 1 कॉम्पएलजे 634 (एससी) 

संबंधित अधिनियम: विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947, भारत रक्षा अधिनियम, 1962

न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय 

पीठ: न्यायमूर्ति के सुब्बाराव, न्यायमूर्ति राजगोपाल अयंगर और न्यायमूर्ति जे.आर. मुधोलकर 

अपीलकर्ता: महाराष्ट्र राज्य

प्रतिवादी: मेयर हस जॉर्ज 

निर्णय की दिनांक: 24/08/1964 

महत्वपूर्ण प्रावधान:

  • विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8(1) (अब निरस्त): इस धारा में किसी भी सोने या चांदी, बैंक नोट या किसी भी मुद्रा नोट, चाहे वह भारतीय हो या विदेशी, में लेनदेन पर प्रतिबंध के नियम निर्धारित किए गए थे। इस धारा ने भारतीय रिजर्व बैंक से सामान्य या विशेष अनुमति न लेने वाले व्यक्तियों के लिए भारत में विदेशी मुद्रा के लेन-देन पर स्पष्ट प्रतिबंध लगा दिया। हालाँकि, यह धारा किसी व्यक्ति और मुद्रा-परिवर्तक के बीच हुए विदेशी मुद्रा के किसी भी लेनदेन पर लागू नहीं होती है। 
  • विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम,1947 की धारा 23(1-A) (अब निरस्त): यह धारा विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 4, धारा 5, धारा 9, धारा 10, धारा 12(2), धारा 17, धारा 18-A, या धारा 18-B के अनुसार अपराधियों को दंड प्रदान करती है।
  1. अपराधी को अपराध में शामिल विदेशी मुद्रा की राशि का तीन गुना जुर्माना या पांच हजार रुपये, जो भी दोनों में से अधिक हो, से दंडित किया जाएगा। यह जुर्माना प्रवर्तन निदेशक (डॉयरेक्टर ऑफ एनफोर्समेंट) द्वारा निर्धारित किया जाएगा। 
  2. यदि न्यायालय ने अपराधी को दोषी ठहराया है, तो अपराधी को दो वर्ष तक का कारावास, जुर्माना अथवा दोनों सजाएं दी जा सकती हैं। 
  • विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 24(1) (अब निरस्त): ऐसे मामलों में जहां किसी अपराधी पर विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 के किसी प्रावधान का उल्लंघन करने का आरोप है या उसने किसी नियम और विनियमन का उल्लंघन किया है जो उसे बिना अनुमति के कोई कार्य करने से रोकता है, तो ऐसे मामलों में अधिनियम की धारा 24(1) के तहत यह साबित करने का भार अभियुक्त पर डाला गया है कि उसके पास अपेक्षित अनुमति थी। 

उदाहरण के लिए, यदि अधिनियम भारतीय रिजर्व बैंक की अनुमति के बिना भारत के क्षेत्र में सोना लाने की अनुमति नहीं देता है और व्यक्ति पर इस प्रावधान का उल्लंघन करने का आरोप है तो उस व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि भारतीय क्षेत्र में सोना लाने के लिए उसके पास भारतीय रिजर्व बैंक की अनुमति थी। 

महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हंस जॉर्ज (1965) की पृष्ठभूमि

यह मामला भारतीय रिजर्व बैंक की अनुमति के बिना भारत के बाहर सोना लाने और भेजने के महत्वपूर्ण पहलुओं से संबंधित है। मामले के तथ्यों पर गौर करने से पहले, मामले को बेहतर ढंग से समझने के लिए भारत सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा पारित कुछ महत्वपूर्ण अधिसूचनाओं पर गौर करना जरूरी है। 

25 अगस्त 1948 को भारत सरकार ने विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8 के तहत दी गई अपनी शक्ति का प्रयोग किया और एक अधिसूचना जारी की, जिसके अनुसार सोना और सोने की वस्तुएं भारतीय रिजर्व बैंक की सामान्य या विशेष अनुमति के बिना भारत में नहीं लाई जाएंगी या भारत नहीं भेजी जाएंगी। उसी दिन, भारतीय रिजर्व बैंक ने ऐसे सोने को भारतीय क्षेत्र के बाहर किसी स्थान पर लाने और भेजने की सामान्य अनुमति दे दी। 

24 नवम्बर, 1962 को भारतीय रिज़र्व बैंक ने एक अधिसूचना प्रकाशित की, जिसने 8 नवम्बर, 1962 की उसकी पिछली अधिसूचना को निरस्त कर दिया। इस अधिसूचना ने भारत से बाहर के स्थानों पर सोने के परिवहन पर प्रतिबंध लगा दिया। अधिसूचना में ऐसे सोने को उसी बॉटम कार्गो या ट्रांसशिपमेंट कार्गो में पारगमन के लिए “घोषणापत्र” में घोषित करना अनिवार्य कर दिया गया। 

इसलिए, यह अनिवार्य कर दिया गया कि सोना या सोने की वस्तुओं को भारत के क्षेत्रों में लाया जाए या भारत से बाहर भेजा जाए।

  • भारतीय रिज़र्व बैंक से विशेष अनुमति प्राप्त हो, या
  • पारगमन के लिए घोषणापत्र में घोषणा करें। 

महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हंस जॉर्ज (1965) के तथ्य

प्रतिवादी एक जर्मन नागरिक था और पेशे से नाविक था। उन्होंने हैम्बर्ग में एक व्यक्ति से मुलाकात की और जिनेवा से सुदूर पूर्वी स्थानों तक सोने के परिवहन में शामिल हो गए। सोने के परिवहन के इन कार्यों में, प्रतिवादी एक विशेष रूप से डिजाइन की गई जैकेट पहनता था, जिससे वह सोने की 34 छड़ें ले जाने में सक्षम होता था। प्रतिवादी ने पहले भी ऐसी परियोजना पूरी की थी और सोना टोक्यो पहुंचाया था। 

27 नवम्बर 1962 को प्रतिवादी, जो ज्यूरिख का यात्री था, मनीला जाने के लिए सांताक्रूज हवाई अड्डे पर पहुंचा। सीमा शुल्क अधिकारियों को प्रतिवादी के बारे में सूचना प्राप्त हुई थी। अधिकारियों ने प्रतिवादी की तलाश की और उसे विमान में बैठा पाया। अधिकारियों ने उस व्यक्ति से पूछा कि क्या उसके पास कोई सोना है। प्रतिवादी ने उत्तर दिया और प्रतिक्रीया व्यक्त की, “कौन सा सोना?” अधिकारियों ने उसे विमान से उतरने को कहा और सीमा शुल्क अधिकारियों ने उसके सामान की तलाशी ली। बाद में अधिकारियों को पता चला कि वह अपनी जैकेट में लगभग 34 किलो सोना ले जा रहा था, जिसमें लगभग 28 जेबें थीं। इनमें से 19 में वह अपने साथ सोना ले जा रहा था। प्रतिवादी ने सोने पर स्वामित्व का दावा करने से इनकार किया तथा कहा कि सोने में उसकी कोई रुचि नहीं है। 

भारतीय रिजर्व बैंक की अधिसूचना के अनुसार, प्रतिवादी को पारगमन के लिए घोषणापत्र में ऐसे सोने की घोषणा करनी थी। हालांकि, प्रतिवादी ने कहा कि उसे इस तथ्य की जानकारी नहीं थी और वह विमान के सांताक्रूज हवाई अड्डे पर पहुंचने के बाद उसमें बैठा था। 

प्रतिवादी पर विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8(1) सहपठित धारा 23(1-A) और समुद्री सीमा शुल्क अधिनियम, 1878 की धारा 167(8)(1/3) के तहत आरोप लगाया गया था। प्रतिवादी को प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट द्वारा दोषी ठहराया गया तथा 24 अप्रैल, 1963 को एक वर्ष के सश्रम (रिगरस) कारावास की सजा सुनाई गई। 

हालाँकि, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के आदेश को इस आधार पर खारिज कर दिया कि प्रतिवादी सोने को अपने शरीर पर लेकर आया था, न कि अपने सामान में लेकर आया था। इसलिए, केंद्र सरकार की अधिसूचना उन पर लागू नहीं होती। इसके अतिरिक्त, यदि अधिसूचना प्रतिवादी पर लागू थी, तो भी उसमें ‘मेन्स रीया’ (दुर्भावनापूर्ण मंशा) का अभाव था, तथा अपराध के लिए ‘मेन्स रीया’ एक आवश्यक घटक है। 

यह अपील विशेष अनुमति आवेदन द्वारा उच्च न्यायालय के उक्त निर्णय के विरुद्ध है। प्रतिवादी उच्च न्यायालय के 10 दिसम्बर 1963 के निर्णय तक जेल में रहा। फैसले के बाद प्रतिवादी को अगले दिन रिहा कर दिया गया। इसके अलावा, 20 दिसंबर, 1963 को अपीलार्थी-राज्य द्वारा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई विशेष अनुमति याचिका पर, प्रतिवादी को पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। 8 मई 1964 को सर्वोच्च न्यायालय के फैसले तक कारावास जारी रहा। प्रतिवादी ने मजिस्ट्रेट द्वारा दी गई कारावास की सजा का आंशिक भाग पहले ही पूरा कर लिया था।

मुद्दों को उठाया

वर्तमान मामले में निम्नलिखित मुद्दे उठाए गए हैं: 

  1. विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 23(1-A) के तहत अपराध के लिए मेन्स रीया आवश्यक है या नहीं?
  2. क्या प्रतिवादी को विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8(1) और 23(1-A) के तहत भारत में सोना लाने के अपराध का दोषी ठहराया जाएगा?
  3. क्या विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8 के अंतर्गत केन्द्र सरकार और केन्द्रीय राजस्व बोर्ड द्वारा लगाया गया प्रतिबन्ध, किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा भारत के क्षेत्र से होकर सोने के परिवहन को शामिल करता है, जिसके पास अपेक्षित अनुमति नहीं है और क्या प्रतिवादी इस अपराध के लिए उत्तरदायी हैं। 

पक्षों के तर्क

अपीलार्थी

इस मामले में महाराष्ट्र राज्य का प्रतिनिधित्व भारत के तत्कालीन विद्वान महा न्यायभिकर्ता (सॉलिसिटर जनरल) ने किया था। अपीलार्थी ने तर्क दिया कि विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम का उद्देश्य सोने की तस्करी गतिविधियों को रोकना और देश की आर्थिक स्थिरता की रक्षा करना था। अपीलार्थी ने तर्क दिया कि विमान या जहाज में ले जाए जा रहे सामान की परवाह किए बिना, इन सभी सामानों को “कार्गो” कहा जाना चाहिए। अपीलार्थी की आगे की दलीलें इस प्रकार थीं: 

  • मुद्दा 1: विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम का उद्देश्य देश में सोने की तस्करी को रोकना था। अपराध का अनिवार्य घटक होने के कारण सामान्य विधि सिद्धांत ‘मेन्स रीया’ के अनुप्रयोग की कोई गुंजाइश नहीं है। 

अधिनियम के प्रावधान और कानून की भाषा यह स्पष्ट करती है कि अपराध के लिए  ‘मेंस रीया’ आवश्यक नहीं है। किसी व्यक्ति को अपराध के लिए दोषी ठहराने के लिए केवल उसका कार्य ही पर्याप्त है। 

  • मुद्दा 2: अपीलार्थी ने तर्क दिया कि राजस्व बोर्ड द्वारा 8 नवंबर 1962 की अधिसूचना में कुछ शर्तें निर्धारित की गई हैं, जो यह स्पष्ट करती हैं कि व्यक्ति को दूसरे प्रावधान के अनुसार घोषणापत्र में सोने का खुलासा करना होगा। 

चूंकि घोषणापत्र में सोने का खुलासा नहीं किया गया था, इसलिए प्रतिवादी ने विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम की धारा 8 और धारा 23(1-A) के तहत अधिसूचना में निर्धारित शर्तों का उल्लंघन किया था और उसे उल्लिखित प्रावधानों के तहत दोषी ठहराया जाना चाहिए। 

  • मुद्दा 3: अपीलार्थी ने इस तथ्य को स्वीकार किया कि यदि भारतीय रिजर्व बैंक की 25 अगस्त 1948 की अधिसूचना लागू होती है, तो प्रतिवादी ने कोई अपराध नहीं किया, क्योंकि प्रतिवादी तो विमान से उतरा ही नहीं था और वह तो केवल जिनेवा से मनीला तक का यात्री था। हालाँकि, 8 नवंबर 1962 की अधिसूचना के अनुसार, घोषणापत्र में घोषणा किए बिना ऐसे माल का परिवहन करना निषिद्ध कार्य है। इसलिए, प्रतिवादी को किए गए कार्य के लिए उत्तरदायी होना चाहिए। 

विश्वसनीय मामला: इंडो-चाइना स्टीम नेविगेशन कंपनी लिमिटेड बनाम जसजीत सिंह (1964), इस मामले में, समुद्री सीमा शुल्क अधिनियम 1878 की धारा 52 A के तहत, कुछ जहाजों के प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबंध था। ऐसे सख्त और स्पष्ट प्रावधानों ने कानून के उद्देश्य को बहुत स्पष्ट कर दिया। प्रतिबंध लगाने का उद्देश्य उन जहाजों में रखे माल को छुपाना था। इसमें अदालत ने कहा कि चूंकि कानून का उद्देश्य स्पष्ट है, इसलिए कानून का उल्लंघन करना ही अपराध साबित करने के लिए पर्याप्त है। इसलिए, धारा 52A का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध  ‘मेन्स रीया’ साबित करना आवश्यक नहीं था। 

प्रतिवादी

प्रतिवादी के वकील ने उच्च न्यायालय में प्रतिवादी को बरी करने के लिए दिए गए तर्कों को बरकरार रखा। तर्क इस प्रकार थे: 

  • मुद्दा 1: प्रतिवादी ने हेल्सबरी के इंग्लैंड के कानून और पुस्तक “क्रिमिनल प्लीडिंग, एविडेंस एंड प्रैक्टिस” का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि यह अनुमान कि मेन्स रीया वैधानिक अपराध का एक आवश्यक घटक है। हेल्सबरी के इंग्लैंड के कानूनों के पाठ में, अदालत द्वारा उद्धृत मार्ग में मेन्स रीया की अवधारणा को समझाया गया है और कहा गया है कि, जहां कानून स्पष्ट रूप से आवश्यक मन की स्थिति का उल्लेख करते हैं, वहां विशिष्ट इरादे, द्वेष, ज्ञान, स्वेच्छाचारिता या लापरवाही जैसे शब्दों का उपयोग किया जाएगा। हालाँकि, कुछ मामलों में, कानून में आवश्यक मनःस्थिति के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है, ऐसे मामलों में कानून के उद्देश्यों और शर्तों पर गौर करना महत्वपूर्ण है। प्रतिवादी ने इस अनुच्छेद का हवाला देते हुए बताया कि जहां कानून में स्पष्ट रूप से आवश्यक मनःस्थिति का उल्लेख नहीं किया गया है, वहां निर्णय कानून के उद्देश्य और शर्तों के आधार पर किया जाना चाहिए। 

इसके अलावा, अदालत ने आर्चबोल्ड की पुस्तक “क्रिमिनल प्लीडिंग, एविडेंस एंड प्रैक्टिस” के एक अंश का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया है कि किसी भी आपराधिक अपराध के लिए सामान्य कानून के तहत मेन्स रीया एक आवश्यक तत्व है और आगे कहा कि यह सामान्य धारणा कि मेन्स रीया एक आवश्यक घटक है, हमेशा वैधानिक अपराधों के मामलों में सच नहीं हो सकती है क्योंकि यह क़ानून, उसके प्रावधानों और विषय-वस्तु के प्रभाव पर निर्भर करता है। 

इस प्रकार, प्रतिवादी ने अदालत से अनुरोध किया कि वर्तमान मामले पर निर्णय लेने के लिए कानूनों और विधानों की व्याख्या करते समय मेंस रीया पर विचार किया जाए। 

प्रतिवादी ने श्रीनिवास मॉल बैरोलिया बनाम किंग-एम्परर (1947) के मामले का हवाला देते हुए तर्क दिया है। इस मामले में, अपीलार्थी एक थोक व्यापारी था और उसके पास एक कर्मचारी (या एजेंट) था, जिसे खुदरा विक्रेताओं को नमक वितरित करने और भारत रक्षा नियम, 1939 द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार उसका रिकॉर्ड रखने का काम सौंपा गया था। इसमें एजेंट को भारत रक्षा नियम, 1939 द्वारा दिए गए नियमों का पालन करना था। एजेंट नियमों का पालन करने में विफल रहा और उसने भारत रक्षा नियम, 1939 का उल्लंघन करते हुए नमक बेच दिया। एजेंट के उक्त कार्य के लिए, विक्रेता पर मुकदमा चलाया गया और प्रतिवर्ती दायित्व (वाइकेरियस लायबिलिटी) के सिद्धांत का पालन करते हुए भारत रक्षा नियम, 1939 के नियमों का उल्लंघन करने के अपराध का दोषी ठहराया गया। 

उच्च न्यायालय ने कहा कि, भले ही विक्रेता को कार्रवाई के बारे में कोई जानकारी न हो, फिर भी वह उत्तरदायी है, क्योंकि पूर्ण दायित्व किसी चीज पर रोक लगाता है। मेन्स रीया आवश्यक नहीं है और मालिक अपने एजेंट द्वारा किए गए कार्यों के लिए उत्तरदायी है। इस मामले को प्रिवी काउंसिल में आगे बढ़ाते हुए लॉर्ड डू पार्क ने उच्च न्यायालय के आदेश से असहमति जताई और कहा कि उन्हें ऐसा कोई आधार नहीं मिला जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि अपराध बिना दोषी मन के किया जा सकता है। इसके अलावा, न्यायालय ने राइट जे. शेरस बनाम डी रुटजेन (1895) के मामले में कहा कि न्यायालय ने माना कि एक नैतिक रूप से निर्दोष व्यक्ति को एक एजेंट के अपराध के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना आश्चर्यजनक था। 

प्रतिवादी ने तर्क दिया कि उसे अधिसूचना की जानकारी नहीं थी और उसका देश में सोने की तस्करी करने का कोई इरादा नहीं था। प्रतिवादी ने तर्क दिया कि उसे ऐसा अपराध करने का कोई ज्ञान या इरादा नहीं था। 

  • मुद्दा 2: प्रतिवादी ने कहा कि विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8 के प्रावधान, व्यक्तियों को सोना लाने से रोकते हैं यदि इसे पारगमन घोषणापत्र में “समान तल कार्गो” या “ट्रांसशिपमेंट कार्गो” के रूप में घोषित नहीं किया गया है, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि यह राजस्व बोर्ड का उद्देश्य नहीं हो सकता है। प्रतिवादी ने तर्क दिया कि यह कानून उन वस्तुओं या सोने की वस्तुओं पर लागू नहीं होता जो व्यक्तिगत वस्तुएं हैं तथा परिवहन के लिए सूचीबद्ध नहीं हैं। 

प्रतिवादी ने कार्गो शब्द की व्याख्या करते हुए तर्क दिया कि जो वस्तुएं घोषणापत्र में सूचीबद्ध नहीं हैं, उन्हें कार्गो नहीं कहा जा सकता। प्रतिवादी ने दलीलें पेश करते हुए कहा कि धारा 8 का दूसरा प्रावधान केवल कार्गो शिपमेंट पर लागू होता है। अत: इस समझ के अनुसार, इस मामले में सामान्य अनुमति लागू होगी क्योंकि यह धारा 8 के दूसरे परंतुक के अंतर्गत नहीं आती है। 

  • मुद्दा 3: उपरोक्त प्रस्तुतियों के संबंध में प्रतिवादी ने तर्क दिया कि विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8 के अंतर्गत केवल ऐसे व्यक्तियों को दोषी माना जाना चाहिए जो अपराध के इरादे और ज्ञान के साथ भारत में सोना लाते हैं। प्रतिवादी ने तर्क दिया कि चूंकि अधिसूचना एक प्रत्यायोजित विधान था, इसलिए लैटिन कहावत “इग्नोरेंटिया ज्यूरिस नॉन एक्सक्यूसैट”, जिसका अर्थ है कानून की अज्ञानता कोई बचाव नहीं है, इस मामले में लागू नहीं होती। भारतीय रिजर्व बैंक को अनुमति देने या नियम बनाने का अधिकार दिया गया है, लेकिन अधिसूचना के प्रकाशन का तरीका निर्धारित नहीं किया गया है। 

अतः, सटीक रूप में, प्रतिवादी ने तीन आधारों पर तर्क दिया जो इस प्रकार हैं: 

  • मेन्स रीया का अभाव
  • व्यक्तिगत वस्तुओं को कार्गो नहीं कहा जाएगा।
  • अधिसूचना प्रत्यायोजित विधान द्वारा जारी की गई थी, तथा अधिसूचना के प्रकाशन हेतु कोई प्रावधान नहीं बताया गया था। 

विश्वसनीय मामला: श्रीनिवास मॉल बैरोलिया बनाम किंग-एम्परर (1947): प्रतिवादी ने बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि: 

  • कार्य करते समय व्यक्ति के पास “मेन्स रीया” होना चाहिए।
  • कानूनी सिद्धांत “कानून की अनभिज्ञता कोई बहाना नहीं है” इस मामले में लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि आदेश को प्रकाशित करने या किसी व्यक्ति को कानून के बारे में जानने के लिए इसे सुलभ बनाने के लिए निर्धारित प्रावधान थे। 
  • लॉर्ड एवरशेड ने अपने एक फैसले में इस निर्णय को स्वीकार किया।

चूंकि अधिसूचना का प्रकाशन प्रश्नगत था, इसलिए प्रतिवादी ने तर्क दिया कि उसे उक्त कानूनी सिद्धांत के तहत कुछ राहत अवश्य मिलनी चाहिए। 

एम्परर बनाम इसाक सोलोमन मैकमुल (1948): प्रतिवादी ने बॉम्बे उच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा दिए गए फैसले पर भरोसा किया। इस मामले में, मालिक को नौकर द्वारा किए गए अपराध के लिए ‘मेन्स रीया’ के अभाव के कारण उत्तरदायी नहीं ठहराया गया। 

महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हंस जॉर्ज (1965) में न्यायालय का निर्णय

इस मामले में, जहां प्रतिवादी पर विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8(1) और 23(1-A) के तहत आरोप लगाया गया था, उसे बॉम्बे के मजिस्ट्रेट ने एक वर्ष की जेल की सजा सुनाई थी। हालाँकि, इसके विरुद्ध आगे अपील की गई, तथा उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी को अपराध का दोषी नहीं पाया। तीन न्यायाधीशों की एक सर्वोच्च न्यायालय पीठ गठित की गई। न्यायमूर्ति राजगोपाल अयंगर और न्यायमूर्ति मुधोलकर ने बहुमत से निर्णय दिया तथा न्यायमूर्ति सुब्बाराव ने असहमति जताई। न्यायालय आमतौर पर निचली अदालतों द्वारा दी गई सजा में हस्तक्षेप नहीं करता है। हालाँकि, न्यायालय केवल तभी मामलों में हस्तक्षेप करते हैं जब या तो निचली अदालत द्वारा दी गई सजा में कोई अवैधता हो या कानून या सिद्धांत का कोई सवाल हो। वर्तमान मामले में, प्रतिवादी पहले ही मजिस्ट्रेट द्वारा पारित सजा काट चुका है। 

अंततः, बहुमत से, प्रतिवादी को भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दोषी ठहराया गया और उसे कारावास का आदेश दिया गया, जिसमें जेल में पहले से बिताये गये समय को घटा दिया गया। 

निर्णय के पीछे तर्क

निर्णय सुनाते समय मामले के कई पहलू थे जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता थी। प्रत्येक पक्ष की दलीलों पर विचार करने के बाद निर्णय सुनाया गया। अदालत ने कानूनों की व्याख्या की और ऐसे अपराध के लिए मेन्स रीया के दायरे का निर्धारण किया। अदालत ने निम्नलिखित मुद्दों पर विचार किया और उनकी व्याख्या की तथा निर्णय सुनाया। 

क्या विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 23(1-A) के तहत अपराध के लिए मेन्स रीया एक आवश्यक घटक है?

प्रतिवादी ने दो प्रमुख प्रश्न उठाए थे, जिनमें से एक यह था कि क्या मेन्स रीया फेरा अधिनियम, 1947 की धारा 23(1-A) के तहत अपराध का एक आवश्यक घटक है। प्रतिवादी के अनुसार, अभियोजन पक्ष यह सिद्ध नहीं कर सका कि प्रतिवादी का अपराध करने का इरादा था। इस तर्क के पीछे सिद्धांत लैटिन कहावत, एक्टस नॉन फैसिट रीअम निसी मेंस सिट रीया, है जिसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति को तब तक दोषी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि वह कार्य उस तरह के कार्य को करने के इरादे से न किया गया हो। 

प्रिवी काउंसिल द्वारा निपटाए गए श्रीनिवास मॉल बैरोलिया बनाम किंग-एम्परर (1947) मामले में, लॉर्ड डू पार्क ने कहा था कि उन्हें यह दावा करने का कोई आधार नहीं दिखता कि इस मामले में अपराध दोषी मन के बिना किया जा सकता है। उन्होंने शेरस बनाम डी रुटजेन (1895) के मामले में जे राइट द्वारा दिए गए निर्णय का हवाला दिया, जिसमें न्यायालय ने कहा था कि उस वर्ग के अंतर्गत आने वाले अपराध आमतौर पर नाबालिग चरित्र से संबंधित अपराध होते हैं, और यह आश्चर्यजनक हो सकता है कि कोई व्यक्ति जो नैतिक रूप से निर्दोष है, वह ऐसे अपराध के लिए दंडनीय है, जिसके लिए प्रत्यायोजित विधान के तहत कारावास की अवधि तीन वर्ष तक बढ़ाई जा सकती है। लॉर्ड डू पार्क के इस अनुच्छेद को रावुला हरिप्रसाद राव बनाम राज्य के मामले में अनुमोदित किया गया था, जहां यह कहा गया था कि पूर्ण दायित्व को केवल हल्के में नहीं लिया गया था, बल्कि स्पष्ट रूप से स्थापित किया गया था। 

इसके अलावा, ब्रेंड बनाम वुड (1946) के मामले का उल्लेख करते हुए, जिसमें कहा गया था कि मेन्स रीया किसी अपराध का एक अनिवार्य तत्व है और किसी प्रतिवादी को दोषी मन के बिना दोषी नहीं पाया जाना चाहिए जब तक कि कानून में स्पष्ट रूप से उल्लेख न किया गया हो। इनके अलावा, प्रतिवादी के वकील ने लिम चिन ऐक बनाम द क्वीन के फैसले का हवाला देते हुए जोरदार दलील दी जिसमें लॉर्ड एवरशेड ने सिद्धांतों को स्पष्ट किया था। इसमें कहा गया कि मेन्स रीया या दोषी मन को अपराध का एक अनिवार्य घटक माना जाना चाहिए। 

प्रतिवादी ने दृढ़तापूर्वक तर्क दिया कि प्रतिवादी को भारतीय रिजर्व बैंक की अधिसूचना के बारे में जानकारी नहीं थी, और उसे अपराध का दोषी नहीं ठहराया जा सकता। 

इस मामले में, अदालत ने माना कि विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 23(1-A) के तहत अपराध के लिए मेन्स रीया एक आवश्यक घटक नहीं है। इस संदर्भ में न्यायालय ने “भाग्यहीन पीड़ित” शब्द का प्रयोग किया। यहां, अदालत का मतलब था कि कानून के अनुसार, आवश्यक अनुमति के बिना भारत में सोना लाने का कार्य विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 23 (1-A) के तहत अपराध का गठन करने के लिए पर्याप्त है। इस प्रावधान के तहत अभियुक्त पर यह साबित करने का दायित्व है कि उसके पास ऐसा कार्य करने के लिए आवश्यक अनुमति थी। 

न्यायालय ने मेन्स रीया के मुद्दे पर विचार करते हुए कहा कि मेन्स रीया आवश्यक है या नहीं, यह कानून के शब्दों पर निर्भर करता है, तथा अधिनियम के उद्देश्यों और प्रयोजन पर भी विचार किया जाता है। इसके अतिरिक्त, किसी अपराध के लिए मेन्स रीया को आवश्यक मानने से कानून का प्रवर्तन निरर्थक नहीं हो जाना चाहिए। 

अदालत ने कहा कि प्रावधान के मूल पाठ में कभी भी “मन की स्थिति” का उल्लेख नहीं किया गया है या जानबूझकर, स्वेच्छा से आदि जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है, तथा यह पाठ पूर्ण दायित्व को जन्म नहीं देता है। न्यायालय ने शक्त दायित्व के सिद्धांत का हवाला दिया है, जिसके अनुसार प्रतिवादी को बिना किसी मेंस रीया के भी उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8(1) में उल्लिखित शब्द “लाना” और “भेजना” में अनैच्छिक लाना या अनैच्छिक भेजना शामिल नहीं है। इसलिए, उदाहरण के लिए, यदि व्यक्ति की जानकारी के बिना सोने का एक पैकेट जेब में डाल दिया गया, तो यह विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8(1) को आकर्षित नहीं करेगा। दूसरा, यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसे विमान से यात्रा कर रहा है जिसे भारत में उतरना नहीं था, लेकिन किसी विशेष परिस्थिति में उसे भारत में उतरना पड़ता है, तो ऐसी स्थिति में विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8(1) के प्रावधान लागू नहीं होंगे। 

मनःस्थिति का निर्धारण करने के बाद, मामले का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू कानून का विषय था। न्यायमूर्ति विल्स ने आर. बनाम टॉल्सन (1889) के मामले में इस बात को अच्छी तरह से इंगित किया था, जिसमें कहा गया था कि अपराध के लिए दोषी मन (मेन्स रीया) होना एक सामान्य नियम है। हालाँकि, यह एक लचीला नियम है। एक क़ानून विषय वस्तु से संबंधित हो सकता है और किसी कार्य को आपराधिक बना सकता है जहाँ कानून तोड़ने या गलत करने का इरादा रहा हो या नहीं।

विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 का उद्देश्य देश में अनधिकृत, अनियमित लेनदेन को रोकना और तस्करी को समाप्त करना है। इस नोट के साथ, आगे दो महत्वपूर्ण मामलों का उल्लेख किया गया है: 

  • जैकब ब्रुहन बनाम द किंग (सिंगापुर) (1909) के मामले में अफीम के आयात के मामले में बचाव के रूप में इस्तेमाल की गई मेन्स रीया की दलील का उल्लेख है। इसमें लॉर्ड एटकिन्सन ने कहा कि अपराध करने के लिए अभियुक्त व्यक्ति की मेन्स रीया का सबूत होना चाहिए, लेकिन यह अपराध बनाने वाले कानून या अध्यादेश पर भी निर्भर करता है। कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें कुछ व्यक्तियों द्वारा या कुछ शर्तों के तहत ही किया जाना चाहिए। इसमें व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि उसे उक्त कार्य करने की अनुमति है, या उसने अपेक्षित शर्तें पूरी कर ली हैं। यदि व्यक्ति ऐसा करने में विफल रहता है, तो उसे दोषी माना जाना चाहिए।
  • दूसरा मामला रेजिना बनाम सेंट मार्गरेट्स ट्रस्ट लिमिटेड 1958 1 डब्ल्यूएलआर 522 का है, जिसे आपराधिक अपील न्यायालय द्वारा निपटाया गया, जिसमें न्यायालय ने कहा कि अपराध के लिए मेन्स रीया को एक आवश्यक तत्व माना जाना चाहिए, जब तक कि कानून की भाषा स्पष्ट रूप से इस तरह की धारणा को नकार न दे। 

संदर्भित एक अन्य महत्वपूर्ण मामला इंडो-चाइना स्टीम नेविगेशन कंपनी लिमिटेड बनाम जसजीत सिंह, अतिरिक्त कलेक्टर, सीमा शुल्क एवं अन्य (1964) था। इस मामले में, समुद्री सीमा शुल्क अधिनियम की धारा 52-A की व्याख्या पर विचार किया गया। इस मामले पर सुनवाई करते हुए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश गजेन्द्रगडकर ने कहा था कि धारा 52-A लागू करने के पीछे विधायिका की मंशा निश्चित रूप से देश में अवैध तस्करी गतिविधियों पर रोक लगाना है। ये तस्करी गतिविधियाँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाले प्रचालक (ऑपरेटर) द्वारा संचालित की जाती हैं। ये प्रचालक और कुछ नहीं बल्कि एजेंट हैं और इनके पीछे सुसंगठित संगठन हैं जिनका उद्देश्य केवल लाभ कमाना है। 

अदालत ने कहा कि उपर्युक्त टिप्पणी वर्तमान मामले में बहुत उपयुक्त है और विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8 और धारा 23 (1-A) के पीछे की मंशा को स्पष्ट करती है। 

प्रतिवादी विमान से बाहर नहीं आया और विमान में ही रहा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8(1) बिना अपेक्षित अनुमति के सोना “लाने” के कार्य को अपराध बनाती है। 

इसलिए, अदालत ने माना कि वर्तमान मामले में ‘मेन्स रीया’ एक आवश्यक घटक नहीं है, क्योंकि अधिनियम के प्रावधान गलत कार्य को ही दंडित करते हैं, न कि व्यक्ति के गलत इरादे को। 

“कार्गो” शब्द की व्याख्या 

8 नवंबर 1962 को जारी अधिसूचना में ऐसे यात्रियों के लिए पारगमन के लिए घोषणापत्र में सोने को “समान बॉटम कार्गो” या “ट्रांसशिपमेंट कार्गो” के रूप में घोषित करना अनिवार्य कर दिया गया। 

प्रतिवादी ने तर्क दिया कि उसके साथ ले जाया गया सोना उसका निजी सामान था, जो “कार्गो”, “बॉटम कार्गो” या “ट्रांसशिपमेंट कार्गो” की श्रेणी में शामिल नहीं है और इसलिए, विमान के घोषणापत्र में इसे दर्ज करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। प्रतिवादी ने कहा कि दूसरा परंतुक इस मामले में लागू नहीं हो सकता, क्योंकि यह उन वस्तुओं से संबंधित है जिन्हें परिवहन के लिए जहाज या विमान को सौंपा जाता है। इसमें यात्री द्वारा ले जाए जाने वाले तथा उनके स्वयं के कब्जे में बनाए गए सभी सामान या वस्तुएं शामिल नहीं हैं। प्रतिवादी ने तर्क दिया कि दूसरा परंतुक केवल उन मामलों पर लागू होता है जहां माल या वस्तुएं वाहक की हिरासत में सौंप दी जाती हैं और माल या वस्तुएं यात्री द्वारा अपनी हिरासत में ले जाई जाती हैं, तो छूट के रूप में यह अपने उद्देश्य को पूरा नहीं करता। जो माल वाहक के पास है, उसे घोषणापत्र में दर्ज किया जाएगा और यदि ऐसा नहीं है, तो यह वाहक की ओर से गलती होगी। यदि यात्री की अभिरक्षा में रखे माल को छूट दी गई है, तो दूसरे परंतुक के लागू होने की कोई गुंजाइश नहीं है। 

इसलिए, भारतीय रिजर्व बैंक की अधिसूचना में उल्लिखित शब्द “कार्गो” व्यक्तिगत सामान से अलग है। निष्कर्ष देते हुए प्रतिवादी ने कहा कि “कार्गो” शब्द से तात्पर्य उन वस्तुओं से है जो वाहक को सौंपी जाती हैं तथा वे उन वस्तुओं या सामान से भिन्न होती हैं जिन्हें यात्री ले जाता है। 

अदालत ने कहा कि प्रतिवादी के साथ लाया गया सोना निश्चित रूप से निजी सामान नहीं है। इसका कारण यह है कि प्रतिवादी ने यात्रा के दौरान या उसके बाद सोने का उपयोग नहीं किया होगा। इसलिए, यह तर्क कि सोना “व्यक्तिगत सामान” की श्रेणी में आता है, न कि “कार्गो” की श्रेणी में, अदालत द्वारा स्वीकार नहीं किया गया। 

इसके अलावा, न्यायालय ने अंतर्राष्ट्रीय वायु यातायात संघ की परिवहन की सामान्य शर्तों का हवाला दिया, जो प्रतिवादी और एयरलाइन के बीच अनुबंध को नियंत्रित नहीं करती है, लेकिन हवाई परिवहन की सामान्य प्रथाओं को प्रदान करती है। ये अनुच्छेद निम्नलिखित निर्धारित करते हैं: 

  • यात्रियों और सामान का परिवहन (अनुच्छेद 8, पैरा 1(c)): एयरलाइन्स आपको कोई भी माल, जैसे व्यक्तिगत सामान या बैगेज, ले जाने की अनुमति नहीं देगी।
  • माल का परिवहन (भाग B का अनुच्छेद 3): इसमें प्रावधान है कि सोने को उचित तरीके से पैक किया जाना चाहिए, और इसका मूल्य “माल की मात्रा और प्रकृति” शीर्षक के अंतर्गत खेप नोट में उल्लेखित किया जाना चाहिए। 

इस तथ्य पर चर्चा करते हुए कि, यदि वर्तमान मामले में दूसरा प्रावधान लागू होता, तो यह टाई-पेन या फाउंटेन-पेन पर भी लागू होता, जिसमें सोने की निब होती है। इससे भारतीय कानून अनावश्यक रूप से कठोर या अनुचित हो जाएंगे। हालाँकि, यह गलत है। व्यक्तिगत सामान क्या है और क्या नहीं है, इसके बीच अंतर होना चाहिए। इसलिए, यदि कोई व्यक्ति ऐसी कोई वस्तु ले जा रहा है, जिसे विमान के घोषणापत्र में घोषित और सूचीबद्ध किया जाना आवश्यक है, तो उसे ऐसा करना ही होगा। भारतीय कानूनों के अनुचित होने की शिकायत नहीं होनी चाहिए। 

क्या अधीनस्थ या प्रत्यायोजित विधान केवल भारत में प्रकाशित होने पर उसके जारी होने और प्रकाशन की तिथि से लागू होंगे?

अदालत ने प्रतिवादी की इस दलील का उल्लेख किया कि अधिसूचना महज अधीनस्थ या प्रत्यायोजित विधान है। इस मुद्दे पर कि क्या ऐसी अधिसूचना इसके जारी होने और प्रकाशन की तारीख से लागू है, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि चूंकि इसे 24 नवंबर, 1962 को भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया गया था, और प्रतिवादी ने 27 नवंबर, 1962 को ज्यूरिख छोड़ दिया था। इस बात की संभावना थी कि प्रतिवादी को नये प्रावधानों के बारे में जानकारी नहीं होगी। 

अदालत ने कहा कि अधिसूचना को लागू किया जाना चाहिए और इसका उद्देश्य भारत में इसकी जानकारी होना है। अधिसूचना प्रतिवादी के ज्यूरिख छोड़ने से पहले प्रकाशित की गई थी, इसलिए यह आवश्यक नहीं है कि कानून देश के बाहर प्रकाशित हो या ज्ञात हो। इसका संचालन भारत में ही होना था, इसलिए इसका अंकन और प्रकाशन वैध माना गया।

 क्या यहां “इग्नोरेंटिया ज्यूरिस नॉन एक्सक्यूसैट” का सिद्धांत लागू होता है?

अदालत ने माना कि रिजर्व बैंक द्वारा अधिसूचना 25 नवंबर, 1962 को संबंधित जनता के लिए प्रकाशित की गई थी, और यह प्रकाशन भारत के आधिकारिक राजपत्र के माध्यम से कानून और नियम बनाने की सामान्य पद्धति के अनुसार किया गया था। अतः ऐसी स्थिति में प्रतिवादी की यह दलील कि वह कानून से परिचित नहीं है, उसे कोई राहत नहीं दे सकती है। 

क्या प्रतिवादी विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8(1) सहपठित धारा 23(1-A) के अंतर्गत उत्तरदायी होगा?

न्यायालय ने वर्तमान मामले की चर्चा में प्रावधान निर्धारित किये। अदालत ने माना कि प्रतिवादी विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8(1) सह धारा 23(1-A) के तहत उत्तरदायी है। विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8(1) में प्रावधान है कि भारतीय क्षेत्र में सोना लाने का मात्र भौतिक कार्य ही अपराध करने के लिए पर्याप्त है। अदालत ने कहा कि धारा 23(1-A) के तहत दायित्व लगाने के लिए मानसिक स्थिति या इरादा आवश्यक नहीं है। 

इसलिए, न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली और सजा को प्रतिवादी द्वारा पहले ही भुगती गई अवधि तक घटा दिया गया। 

न्यायमूर्ति सुब्बा राव का असहमतिपूर्ण दृष्टिकोण 

न्यायमूर्ति सुब्बा राव ने शेरस बनाम डी रुत्ज़ेन के मामले का उल्लेख किया, जिसमें एक लाइसेंसधारी शराब विक्रेता ने ड्यूटी पर तैनात एक कांस्टेबल को शराब दी थी, जबकि उसे विश्वास था कि कांस्टेबल ड्यूटी पर नहीं है। जिसमें न्यायाधीश राइट ने कहा कि आपराधिक अपराध के लिए मेन्स रीया एक आवश्यक तत्व है, लेकिन इसे क़ानून के शब्दों या अपराध की विषय-वस्तु के अधीन होना चाहिए। मामले पर निर्णय करते समय इन दोनों पहलुओं पर विचार करना महत्वपूर्ण है। 

इसके अलावा, जैकब ब्रुहन बनाम किंग (1909) में प्रिवी काउंसिल के मामले में, मामला स्ट्रेट्स सेटलमेंट्स ओपियम अध्यादेश, 1906 से संबंधित है। अध्यादेश की धारा 73 के अनुसार, अफीम किसान के अलावा अन्य किसी भी व्यक्ति पर अफीम का आयात या निर्यात करने पर प्रतिबंध है। यदि कोई व्यक्ति निषिद्ध कार्य करता है तो उस पर अध्यादेश के अंतर्गत अपराध करने का आरोप लगाया जाएगा। न्यायिक समिति ने कहा कि तथ्यों को साबित करने का भार अभियुक्त पर है, इसलिए अपराध की जानकारी एक आवश्यक तत्व है। 

रेक्स बनाम जैकब्स [1944] के.बी. 417 के मामले में, नियंत्रित मूल्य पर माल बेचने का एक समझौता था। लेकिन उन्होंने यह कहते हुए ज्यादा कीमतों पर बेच दिया कि उन्हें सही कीमत के बारे में पता नहीं था। यहां जूरी ने मामले पर निर्णय करते हुए कहा कि इस मामले में उन्हें यह साबित करने की आवश्यकता नहीं है कि अनुमत मूल्य अभियुक्त को ज्ञात था, लेकिन उन्हें यह साबित करना होगा कि उन्होंने माल अधिक कीमत पर बेचा था। इससे यह संकेत मिलता है कि अपराध के लिए ‘मन्स रीया’ आवश्यक तत्व नहीं है। इसी तरह की अवधारणाएँ और निष्कर्ष पीअर्क डेयरीज़ लिमिटेड बनाम टोटेनहम फ़ूड कंट्रोल कमेटी [1919] 88 एल.जे. के.बी. 623 के मामले में बताए गए थे। 

कूर्ग राज्य बनाम पी.के.अस्सू एवं अन्य (1955) के मामले में, ड्राइवर और क्लीनर ने आवश्यक आपूर्ति (अस्थायी शक्तियां) अधिनियम, 1946 के अनुसार आवश्यक अनुमति के बिना एक लॉरी को अपने साथ ले गए। हालाँकि, उन्हें दोषी नहीं ठहराया गया क्योंकि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि लॉरी में खाद्यान्न है। राज्य बनाम शिव प्रसाद जायसवाल (1956) के मामले में भी यह बात कही गई थी, जहां मालिक को नौकर के कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया गया था, उसका मन दोषी नहीं था। 

कलकत्ता उच्च न्यायालय ने सी.टी.प्राइम एवं अन्य बनाम राज्य (1959) मामले में कहा था कि जब तक कानून में अपराध के मूल कारण से मेन्स रीया को स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं किया जाता है, तब तक किसी भी व्यक्ति को दोषी मन के बिना दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। 

न्यायमूर्ति सुब्बा राव ने कहा कि प्रतिवादी 27 नवंबर, 1962 तक विमान में सवार हो गया था, जिसके कारण प्रतिवादी को पारगमन के लिए घोषणापत्र में ट्रांसशिपमेंट कार्गो के रूप में घोषित करने की अधिसूचना का ज्ञान नहीं था। 

न्यायमूर्ति सुब्बा राव ने अपनी असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि प्रतिवादी को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए, क्योंकि भारत में सोना लाने के पीछे कोई ज्ञान या इरादा नहीं था। न्यायमूर्ति सुब्बा राव के अनुसार, किसी भी वैधानिक अपराध में ‘मेन्स रीया’ एक आवश्यक तत्व है। सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देने के लिए बनाए गए कानून के बावजूद, यह किसी अपराध के लिए आवश्यक घटक के रूप में मेन्स रीया को समाप्त नहीं करता है। 

निर्णय और मिसालों में विचारित मामले कानून

इम्परेटर बनाम लेस्ली ग्विल्ट (1944)

यह मामला भारतीय रक्षा नियम, 1937 के नियम 119 से संबंधित है, जिसमें न्यायालय ने माना कि नियम के तहत आदेश की अधिसूचना उचित रूप से प्रकाशित नहीं की गई थी। इसलिए, अभियुक्त को आदेश का उल्लंघन करने का दोषी नहीं माना गया। 

महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हंस जॉर्ज के मामले में अदालत ने कहा कि, यदि नियमों या कानूनों में कोई विशिष्ट अनुपालन का उल्लेख है, तो उनका अनुपालन न करना अप्रभावी आदेश के बराबर हो सकता है। ऐसी किसी वैधानिक आवश्यकता के अभाव में, देश में प्रकाशन के सामान्य स्वरूप का ही पालन किया जाना चाहिए। 

भारतीय रिजर्व बैंक ने भारत के आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना प्रकाशित की थी, इसलिए, इम्परेटर बनाम लेस्ली ग्विल्ट के फैसले पर विचार करने के बाद भी, प्रतिवादी को दोषी ठहराया गया। 

इंडो-चाइना स्टीम नेविगेशन कंपनी लिमिटेड बनाम जसजीत सिंह (1964)

इस मामले में, मेन्स रीया को आवश्यक घटक नहीं माना गया, जबकि समुद्री सीमा शुल्क प्रतिषेध अधिनियम, 1878 की धारा 52A के तहत कुछ जहाजों के प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबंध था, जिससे कानून का उद्देश्य स्पष्ट हो गया। 

इसी प्रकार, इस मामले में, सोने की तस्करी एक सुसंगठित अपराध है, जिसमें ऐसे व्यक्ति विभिन्न तरीकों से लाभ के लिए ऐसी गतिविधियों को अंजाम देते हैं। इस धारा का उद्देश्य ऐसी अवैध गतिविधियों को रोकना था, और इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि यह मामला निर्णय लेने के लिए बहुत उपयुक्त था। 

श्रीनिवास मॉल बैरोलिया बनाम किंग एम्परर (1947)

इस मामले पर न्यायालय द्वारा विचार किया गया, जिसमें भारत रक्षा अधिनियम, 1939 के तहत दोषसिद्धि पर प्रश्न उठाए गए थे। अपीलार्थीओं ने एक नौकर को खुदरा विक्रेताओं को नमक वितरण का कार्य सौंपा था। नौकर को मूल्य नियंत्रण से संबंधित नियमों का पालन करना होता था। हालाँकि, नौकर उन नियमों का पालन करने में विफल रहा। मालिक को प्रतिवर्ती दायित्व के सिद्धांत के तहत उत्तरदायी ठहराया गया, भले ही नियोक्ता को इस कार्य का ज्ञान न हो। 

इसलिए, इस मामले का हवाला देते हुए, अदालत ने निर्धारित किया था कि इस सजा का मेन्स रीया या कानून की अज्ञानता से कोई संबंध नहीं था। यह प्रतिवर्ती दायित्व का मामला था। 

सी.टी.प्राइम और अन्य बनाम राज्य (1959)

कलकत्ता उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने भी इसी प्रकार निर्णय सुनाया। इस मामले में, यह कहा गया कि मेन्स रीया किसी अपराध के लिए एक आवश्यक घटक है, जब तक कि कानून इसे विशेष रूप से बाहर न कर दे। आपराधिक कानून में, किसी भी व्यक्ति को अपराध करने के इरादे के बिना दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। पीठ ने कहा कि सामान्य कानून के तहत यह स्थापित सिद्धांत है कि ‘मेन्स रीया’ एक आवश्यक घटक है। 

अदालत ने कहा कि अधिनियम का उद्देश्य लोक कल्याण या किसी सार्वजनिक बुराई को मिटाना है, लेकिन यह किसी अपराध के आवश्यक घटक के रूप में मेन्स रीया को समाप्त नहीं करता है, जब तक कि कानून में इसका उल्लेख न किया गया हो। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि क्या कोई विधि या कानून किसी व्यक्ति को कानून को कुशलतापूर्वक लागू करने के लिए सख्त दायित्व के तहत रख रहा है। इसलिए, मेन्स रीया को केवल उन मामलों में आवश्यक नहीं माना जा सकता है, जहां मेन्स रीया को आवश्यक मानने पर क़ानून का उद्देश्य विफल हो जाता है। 

रेजिना बनाम सेंट मार्गरेट्स ट्रस्ट लिमिटेड (1958)

इस मामले में, कंपनी, सेंट मार्गरेट्स ट्रस्ट लिमिटेड पर किराया खरीद और उधार बिक्री समझौता (नियंत्रण) आदेश, 1956 का उल्लंघन करने का आरोप लगाया गया था। इन कानूनों का उद्देश्य ऋण पर नियंत्रण रखना और देश की अर्थव्यवस्था को बनाए रखना था। कानून में कहा गया है कि प्रत्येक किराया-खरीद समझौते में वस्तु का मूल्य निर्धारित होना चाहिए तथा वित्तपोषण कंपनी द्वारा किराएदार को दी जाने वाली अधिकतम राशि तय होनी चाहिए। 

सेंट मार्गरेट्स ट्रस्ट लिमिटेड ने किरायेदार को कानून द्वारा स्वीकार्य प्रतिशत से अधिक राशि प्रदान की थी। कंपनी ने यह कार्य इसलिए किया क्योंकि उन्हें बेची गई कार की कीमत के बारे में गुमराह किया गया था। इसलिए, कंपनी का मुख्य बचाव यह था कि उन्हें कार की वास्तविक कीमत के बारे में जानकारी नहीं थी और उन्हें इस अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। कंपनी के इस बचाव से मामले में मेंस रीया’ का प्रश्न सामने आया था। 

अदालत ने कहा कि कानून का उद्देश्य मुद्रास्फीति (इनफ्लेशन) के जोखिम को कम करने के लिए ऐसे कार्यों पर सख्ती से रोक लगाना है। अदालत ने कहा कि निषेधाज्ञा (इंजंक्शन) पूर्ण है तथा यह जरूरी नहीं है कि उल्लंघन केवल जानबूझकर किया गया हो। मामले की गंभीरता को देखते हुए अदालत ने कहा कि नाममात्र की सजा देना या कोई सजा न देना अदालत का विवेकाधिकार है। 

इसलिए, अदालत ने माना कि कंपनी की मंशा या ज्ञान की परवाह किए बिना, उन्हें अभी भी कानून का उल्लंघन करने का दोषी ठहराया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने महसूस किया कि यह दृष्टिकोण उन मामलों में अधिक उपयुक्त था जहां संसद कुछ कार्यों पर सख्ती से प्रतिबंध लगाने का इरादा रखती है। 

महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हंस जॉर्ज (1965) में चर्चित कानूनी सिद्धांत

इस मामले में प्रतिवादी ने दो प्रमुख सिद्धांतों के आधार पर अपना बचाव मजबूती से किया है: ‘मेंस रीया’ और ‘कानून की अज्ञानता कोई बहाना नहीं है।’ इन सिद्धांतों ने इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिससे बहुत सारी चर्चाओं और व्याख्याओं के लिए दरवाजे खुल गए हैं। सिद्धांतों की व्याख्या और अर्थ इस प्रकार हैं: 

मेन्स रीया

मेन्स रीया की अवधारणा लैटिन कहावत, एक्टस नॉन फैसिट रीम, निसी मेन्स सिट रीया पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि बिना दोषी मन के कोई भी अपराध नहीं किया जा सकता। इसे आपराधिक अपराध का एक अनिवार्य तत्व माना जाता है। किसी व्यक्ति को किसी अपराध का दोषी नहीं ठहराया जा सकता यदि कानून की दृष्टि में उस व्यक्ति या संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का उसका इरादा या ज्ञान न हो। यदि व्यक्ति का उस विशेष कार्य या अपराध को करने का कोई इरादा, उद्देश्य या ज्ञान न हो, तो मेन्स रीया का बचाव लिया जा सकता है। 

इस मामले में, भारत के क्षेत्र के भीतर सोना लाने या भेजने के कार्य को ही अपराध माना गया; इसमें ‘मेंस रीया’ के बचाव की कोई गुंजाइश नहीं थी। 

इग्नोरेंटिया ज्यूरिस नॉन एक्सक्यूसैट

जहां मेन्स रीया में, अवधारणा यह है कि कोई व्यक्ति किसी कार्य को करने का इरादा रखे बिना या कार्य करने के ज्ञान के बिना करता है, इस इग्नोरेंटिया ज्यूरिस नॉन एक्सक्यूसैट के सिद्धांत के तहत, यह एक कार्य करना है, लेकिन इस बात से अनजान होना कि किया गया कार्य अवैध प्रकृति का है। 

इस लैटिन कहावत का अर्थ है कि कानून की अनभिज्ञता कोई बहाना नहीं है। इस सिद्धांत का प्रयोग आपराधिक और सिविल मामलों में किया जाता है, जहां अभियुक्त व्यक्ति यह दावा करता है कि दायित्व से बचने के लिए उसे देश के कानून की जानकारी नहीं थी। यह सिद्धांत अभियुक्त को अपराध से राहत नहीं देता, बल्कि अपराध के दायित्व और दंड को कम करता है। 

इस मामले में, न्यायालय ने प्रतिवादी की इस दलील पर विचार नहीं किया कि उसे कानून की जानकारी नहीं थी, क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक की अधिसूचना को भारत में अपनाई जाने वाली प्रक्रीया के अनुसार प्रकाशित माना गया था और उसे जनता के संज्ञान में लाया गया था। इसलिए, इस मामले में प्रतिवादी को दायित्व से कोई राहत नहीं मिली थी। 

निष्कर्ष

इस मामले का निर्णय विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डालता है तथा भारतीय न्यायालयों के लिए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक निर्णय के रूप में कार्य करता है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जहाँ कानून का उद्देश्य स्पष्ट और प्रत्यक्ष है, जहाँ अपराधी के लिए कठोर दायित्व उत्पन्न होता है, ऐसे मामलों में अपराध के आवश्यक तत्वों से मेन्स रीया को समाप्त किया जा सकता है। ऐसे निर्णय के पीछे उद्देश्य पारित कानूनों की प्रभावशीलता और दक्षता को बनाए रखना है। अदालत के ऐसे फैसले अपराधियों के हौसले पस्त करते हैं और आने वाले कई मामलों के लिए मिसाल कायम करते हैं। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हंस जॉर्ज के ऐतिहासिक निर्णय का सारांश क्या है?

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि: 

  1. चूंकि विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम की धारा 8(1) और धारा 24(1) के तहत यह साबित करने का भार अभियुक्त पर है कि उसके पास भारत में सोना लाने की अनुमति थी, इसलिए मेंस रीया का प्रश्न ही नहीं उठता। कानून के प्रावधानों के अनुसार बिना अनुमति के सोना लाना या भेजना स्पष्ट रूप से अपराध है। इसलिए, ऐसे मामले में, मेन्स रीया के दायरे की एक सीमा होती है। 
  2. भारतीय रिजर्व बैंक की अधिसूचना को वैध प्रकाशन माना गया तथा प्रतिवादी के लिए कानून की अज्ञानता का कोई बचाव नहीं किया गया। 
  3. अदालत ने कहा कि प्रतिवादी द्वारा अपने साथ लाए गए सोने की मात्रा को ‘व्यक्तिगत सामान’ नहीं माना जा सकता और उसे ‘कार्गो’ के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा। 

अदालत ने प्रतिवादी को दोषी माना तथा उसे पहले से दी गई कारावास की सजा माफ कर दी। 

सख्त दायित्व क्या है?

सख्त दायित्व की अवधारणा वह है जहां कार्रवाई का कारण लापरवाही है, और इरादा मायने नहीं रखता है। सिर्फ़ कार्य ही व्यक्ति को ज़िम्मेदार ठहराने के लिए काफ़ी है। सरल शब्दों में कहें तो, चाहे काम लापरवाही से किया गया हो या जानबूझकर किया गया हो, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। किसी व्यक्ति को किसी कार्य से जुड़े जोखिम और क्षति के कारण उत्तरदायी ठहराना सख्त दायित्व कहलाता है। 

सख्त दायित्व के मामलों में, अपनी बेगुनाही साबित करने का दायित्व प्रतिवादी पर होता है। महाराष्ट्र राज्य बनाम एम एच जॉर्ज के मामले में, बिना अनुमति के देश में सोना लाने के प्रतिवादी के कार्य के कारण विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 की धारा 8 एवं धारा 23(1A) के तहत उस पर सख्त दायित्व आ गया। 

भाग्यहीन पीड़ित क्या होता है?

सख्त दायित्व की अवधारणा एक भाग्यहीन पीड़ित के विचार को सामने लाती है। भाग्यहीन पीड़ित शब्द का अर्थ है, जहां व्यक्ति को सख्त दायित्व के सिद्धांत के कारण उत्तरदायी ठहराया जाता है। इसमें, व्यक्ति का कार्य जानबूझकर नहीं किया गया हो सकता है, लेकिन देश के कानून के अनुसार, व्यक्ति को सख्त दायित्व के तहत उत्तरदायी ठहराया जाता है। ऐसे व्यक्ति को भाग्यहीन पीड़ित कहा जाता है। 

महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हंस जॉर्ज के मामले में न्यायालय ने ‘भाग्यहीन पीड़ित’ शब्द का प्रयोग किया था, जिसमें प्रतिवादी को बिना उचित अनुमति के भारत में सोना लाने के कार्य के लिए कड़ाई से उत्तरदायी ठहराया गया था। अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में जहां विधायिका स्पष्ट रूप से केवल कार्य पर दायित्व लगाती है, वहां इरादे का कोई महत्व नहीं होता। हालाँकि, अदालत ने यह भी कहा कि सख्त दायित्व का अधिरोपण निष्पक्ष और उचित होना चाहिए। 

मेन्स रीया का उपयोग बचाव के रूप में कब किया जा सकता है?

मेन्स रीया का बचाव उन मामलों में किया जाता है जहां अभियुक्त को या तो यह पता नहीं होता कि यह कार्य अपराध था या जहां व्यक्ति का अपराध करने का इरादा नहीं था। यह अपराध करते समय अभियुक्त की मेन्स रीया को दर्शाता है। मेन्स रीया के मामलों में अभियुक्त का इरादा ही मुख्य होता है। 

इसलिए, उन मामलों में मेन्स रीया का बचाव किया जाना चाहिए जहां अभियुक्त के इरादे और मनःस्थिति के बारे में उचित संदेह हो। 

कानून की अज्ञानता के बारे में लोकप्रिय कहावत क्या है?

लैटिन कहावत इग्नोरेंटिया ज्यूरिस नॉन एक्सक्यूसैट का अर्थ है कि कानून की अज्ञानता कोई बहाना नहीं है। इसका अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति को इस आधार पर अपराध करने के दायित्व से नहीं बचाया जा सकता कि अभियुक्त को कानून की जानकारी नहीं थी। कानून आपराधिक मामलों में ऐसे कारणों के लिए किसी भी प्रकार की प्रतिरक्षा प्रदान नहीं करता है। 

क्या तथ्य की अनभिज्ञता हमेशा कानून के तहत बचाव का आधार है?

लैटिन कहावत ‘इग्नोरेंटिया फैक्टी एक्सक्यूसैट’ का अर्थ है कि यदि किसी व्यक्ति को किसी तथ्य की जानकारी नहीं है और वह ज्ञान के अभाव में सद्भावनापूर्वक कार्य करता है, तो उस व्यक्ति को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। तथ्यों की अज्ञानता को एक अच्छे बचाव के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन यह हर बार काम नहीं करेगा। 

अधीनस्थ या प्रत्यायोजित विधान क्या है?

प्रत्यायोजित (या अधीनस्थ या सहायक) विधान से तात्पर्य उन कानूनों से है जो उन व्यक्तियों या निकायों द्वारा बनाए जाते हैं जिन्हें संसद ने कानून बनाने का अधिकार सौंपा है। जब कोई कानून या अधिनियम किसी व्यक्ति को नियम बनाने की शक्ति प्रदान करता है, तो उसे अधीनस्थ या प्रत्यायोजित विधान कहा जाता है। ये कानून या तो वर्तमान राज्य या केंद्र सरकारों को नियम और विनियमन तैयार करने का अधिकार देते हैं या फिर संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा लाए गए कानूनों के कार्यान्वयन के लिए बोर्ड और प्राधिकरण बनाते हैं। 

सटीक रूप में, अधीनस्थ या प्रत्यायोजित विधान का अर्थ नियमों और विनियमों के कुशल कार्यान्वयन के लिए कुछ कार्यकारी शक्तियां देना है। सामान्यतः ऐसी शक्तियां त्वरित एवं प्रभावी कार्यवाही के लिए नियम या दिशानिर्देश बनाने के लिए दी जाती हैं। उदाहरण के लिए, वर्तमान मामले में, सरकार को भारत में सोने के आयात, निर्यात और पारगमन के संबंध में नियम बनाने की शक्तियां प्रदान की गई थीं। ये शक्तियां विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 के तहत प्रदान की गई थीं। 

संदर्भ

 

 

 

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