एल चंद्र कुमार बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया: एक रिएक्ज़ामिनेशन

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Constitution of India
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यह केस कमेंट Darshit Bhimrajka  द्वारा लिखा गया है जो वर्तमान में एन.एल.यु, पटियाला से बीऐ.एलएलबी (ऑनर्स) कर रहे हैं। यह केस कमेंट 42वें संशोधन (अमेंडमेंट) द्वारा जोड़े गए भारतीय कांस्टीट्यूशन के कुछ आर्टिकल्स की कांस्टीट्यूशनल वैधता (वैलिडिटी) पर एक बहुत ही चर्चित मामले पर है। इस केस कमेंट का अनुवाद Aseer Jamal द्वारा किया गया है। 

परिचय (इंट्रोडक्शन) 

भारतीय न्यायपालिका में एक समस्या यह है कि न्यायिक (ज्यूडिशियल) तंत्र (मैकेनिज्म) बहुत धीमा है जिसके कारण अदालतों में मामलों का ढेर लग जाता है। बड़ी संख्या में मामलों को हल करना न्यायालयों पर एक बड़ा बोझ बन जाता है, इसलिए लंबे समय से सभी अदालतों को विशेष रूप से सर्विस लिटिगेशन के बोझ से मुक्त करने के लिए एक तंत्र की खोज की जा रही थी क्योंकि यह लंबित (पेंडिंग) मुकदमेबाजी (लिटिगेशन) का एक बड़ा हिस्सा था। इसलिए 1958 में लॉ कमीशन ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें सेवा मामलों (सर्विस मैटर्स) को तय करने के लिए प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) और न्यायिक सदस्यों से युक्त ट्रिब्यूनल स्थापित करने की सिफारिश की गयी। इसी तरह 1969 में, सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जे.सी. शाह की चेयरमैनशिप में प्रशासनिक सुधार आयोग (एडमिनिस्ट्रेटिव रिफार्म कमीशन) ने भी स्टेट और सेंट्रल सिविल सर्वेन्ट्स दोनों के लिए सिविल सर्विस ट्रिब्यूनल स्थापित करने की सिफारिश की। फिर से, 1975 में स्वर्ण सिंह समिति द्वारा सर्विस ट्रिब्यूनल की स्थापना की सिफारिश की गई। न्यायालयों को रिट याचिकाओं और अपीलों के अंबार (अवालांचे) से बचाने के लिए सर्विस ट्रिब्यूनल की स्थापना का विचार भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा के के दत्ता बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (1980) में दिए गए निर्णय में भी पाया गया । 

बैकग्राउंड फैक्ट्स 

1976 में संसद ने कांस्टीट्यूशन (42वां अमेंडमेंट) एक्ट, 1976 पारित किया जिसके द्वारा इसने कांस्टीट्यूशन में एक नया भाग जोड़ा अर्थात भाग-XIV-A जिसे “ट्रिब्यूनल” कहा गया। इस भाग में केवल दो आर्टिकल्स हैं-

आर्टिकल 323-A संसद को केंद्र (सेंट्रल), राज्यों (स्टेट्स), सार्वजनिक सहयोग (पब्लिक कोऑपरेशन), स्थानीय निकायों (लोकल बॉडीज) और अन्य पब्लिक अथॉरिटीज के सार्वजनिक सेवा मामलों के लिए ट्रिब्यूनल की स्थापना प्रदान करने की शक्ति प्रदान करता है। इस आर्टिकल के तहत, ट्रिब्यूनल केवल संसद द्वारा स्थापित किए जा सकते हैं। आसान शब्दों में, संसद ने सभी प्रकार के न्यायालयों से लोक सेवा मामलों से संबंधित विवादों का निपटारा करने और इसे प्रशासनिक ट्रिब्यूनल्स के समक्ष रखने की शक्तियाँ प्रदान की हैं। अमेंडमेंट के बाद, संसद ने आर्टिकल 323-A के मुताबिक़ एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल एक्ट, 1985 पारित किया। इसने केंद्र को एक सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल, स्टेट एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल और जॉइंट एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल (दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक जॉइंट ट्रिब्यूनल) स्थापित करने की अनुमति दी ताकि पीड़ित (अग्ग्रेविड) पब्लिक अथॉरिटीज को त्वरित (रैपिड), प्रभावी (इफेक्टिव) न्याय मिल सके। इस आर्टिकल के तहत, ट्रिब्यूनल्स के हायरार्की का कोई सवाल ही नहीं है।  

आर्टिकल 323-B ने संसद और राज्य विधानमंडल (लेजिस्लेचर) दोनों को निम्नलिखित से संबंधित विवादों के लिए ट्रिब्यूनल्स की स्थापना की अनुमति दी: औद्योगिक (इंडस्ट्रियल) और श्रम (लेबर) विवाद, कराधान (टैक्सेशन), भूमि सुधार, विदेशी मुद्रा (फोरेन एक्सचेंज), संसद और राज्य विधानमंडल के चुनाव, आयात (इम्पोर्ट) और निर्यात (एक्सपोर्ट), किराया और काश्तकारी अधिकार (टेनेंसी राइट्स), शहरी संपत्ति की अधिकतम सीमा (सीलिंग ऑन अर्बन प्रॉपर्टी) और खाद्य सामग्री। इस आर्टिकल के तहत, राज्य विधानमंडल और संसद द्वारा ट्रिब्यूनल्स का एक हायरार्की बनाया जा सकता है।

इस मामले में कई रिट याचिकाएं, स्पेशल लीव पिटीशंस, और दीवानी (सिविल) अपील, हाई कोर्ट द्वारा अलग-अलग निर्णय और विभिन्न एक्ट्स के कई प्रावधान, सभी क़ानून जो आर्टिकल 323-A(2)(d), आर्टिकल 323-B(3)(d) की कांस्टीट्यूशनल वैधता से संबंधित हैं, एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल एक्ट, 1985, और भारतीय कांस्टीट्यूशन के भाग XIV-A के तहत गठित ट्रिब्यूनल्स जो ज्यूडिशियल रिव्यु की शक्ति का निर्वहन (डिस्चार्ज) करने वाले अदालतों के लिए प्रभावी और कुशल (एफीशेंट) बदलाव हो सकते थे सभी पर चर्चा की गयी थी। 

मुख्य मुद्दे (मेन इशूज़) 

  1. क्या एक्ट के तहत गठित और कार्य करने वाले ट्रिब्यूनल्स को ज्यूडिशियल रिव्यु की शक्ति का निर्वहन करने में हाई कोर्ट्स के लिए प्रभावी विकल्प कहा जा सकता है? यदि नहीं, तो ट्रिब्यूनल्स को उनके संस्थापक (फॉउन्डिंग) उद्देश्यों (ऑब्जेक्टिव) के मुताबिक़ बनाने के लिए किन अमेंडमेंटस की आवश्यकता है?
  2. क्या आर्टिकल 323-B के 3(d) या आर्टिकल 323-A के 2(d) द्वारा राज्य विधानसभाओं या संसद को प्रदत्त शक्ति आर्टिकल 323-A के क्लॉज़ 1 में निर्दिष्ट (रेफर्ड) शिकायतों और विवादों  के संबंध में सभी अदालतों (आर्टिकल 136 के तहत सुप्रीम कोर्ट को छोड़कर) के ज्यूरिस्डिक्शन को बाहर करती है, और आर्टिकल 226 / 227 और आर्टिकल 32 के तहत हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट को क्रमशः दी गयी ज्यूडिशियल रिव्यु की शक्ति के खिलाफ कार्य करती है?
  3. क्या ट्रिब्यूनल के पास भारतीय कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 323-A या आर्टिकल 323-B के तहत गठित एक वैधानिक (स्टेट्यूटरी) नियम की कांस्टीट्यूशनल वैधता का परीक्षण करने की क्षमता है?      

तर्क (आर्ग्यूमेंट्स) 

याचिकाकर्ता की ओर से तर्क इस प्रकार हैं-

  1. वे भारत के कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल  323-A(2)(d) और आर्टिकल 324-B(3)(d) और एक्ट के तहत बनाये गए   ट्रिब्यूनल्स की कांस्टीट्यूशनेलिटी  के बारे में बहस करते हैं। हाई कोर्ट्स के लिए आर्टिकल 226 और 227 में निहित ज्यूरिस्डिक्शन का प्रयोग करने के लिए ट्रिब्यूनलों को प्रदान की गई विशेष शक्ति और कांस्टीट्यूशन के प्रावधानों की व्याख्या (इंटरप्रिटेशन) करने की शक्ति, जिस पर केवल कांस्टीट्यूशनल न्यायालयों का एकमात्र अधिकार है बहुत ही बुरा  है क्योंकि ये अधिकार क्वासि ज्यूडिशियल अथॉरिटीज को प्रदान नहीं किए जा सकते हैं जिन पर कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव) का प्रभाव होता है।        
  2. भारतीय कांस्टीट्यूशन के भाग XIV-A  के तहत आर्टिकल 323A और 324B के अनुसार ससंद  कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 32 में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के पवित्र ज्यूरिस्डिक्शन को प्रभावित कर सकती है और इसलिए इसको रद्द किया जाना चाहिए।           
  3. यह तर्क दिया गया था कि विवादित प्रावधान अनकांस्टीट्यूशनल हैं क्योंकि वे हाई कोर्ट्स (कांस्टीट्यूशन  के आर्टिकल 226 के तहत) और  सुप्रीम कोर्ट के ज्यूरिस्डिक्शन (आर्टिकल 32 के तहत) से बाहर हैं। यह इस कारण से है कि:      
  • संसद, अपनी कांस्टीट्यूशनल शक्ति का प्रयोग करते हुए, स्वयं और राज्य विधानमंडलों को हाई कोर्ट्स (कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 226) और सुप्रीम कोर्ट (आर्टिकल 32) को प्रदत्त (कनफर्ड) कांस्टीट्यूशनल ज्यूरिस्डिक्शन को बाहर करने की शक्ति प्रदान नहीं कर सकती है।     
  • एक्ट के तहत प्रावधान कांस्टीट्यूशन के मूल ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) का भी उल्लंघन करते हैं क्योंकि वे सुप्रीम कोर्ट (भारतीय कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 32) और हाई कोर्ट्स (आर्टिकल 226 और 227) में निहित (वेस्टेड) ज्यूडिशियल रिव्यु की शक्ति को छीन लेते हैं। जबकि भारतीय कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 323A और 323B  के तहत गठित ट्रिब्यूनल को प्रशासनिक कार्रवाई पर ज्यूडिशियल रिव्यु की शक्ति प्रदान की जा सकती है, लेकिन विधायी (लेजिस्लेटिव ) कार्रवाई नहीं की जा सकती है। केशवानंदा भारती बनाम स्टेट ऑफ़ करेला मामले (1973) में दिए गए फैसले में यह प्रस्ताव था कि विधायी कार्रवाई की ज्यूडिशियल रिव्यु की शक्ति केवल कांस्टीट्यूशनल न्यायालयों यानी हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट को निहित है ।      
  1. संपत कुमार बनाम यूनियन ऑफ़  इंडिया (2016) में निर्णय इस आशा के साथ दिया गया था कि ट्रिब्यूनल्स की स्थापना प्रभावी और कुशल विकल्प होगा, लेकिन यह न तो कानूनी तौर पर और न ही तथ्यात्मक (फैक्चुअली) रूप से सही था। इस मामले में यह माना गया कि एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल एक्ट, 1985 की धारा 28 जो हाई कोर्ट्स के ज्यूरिस्डिक्शन को बाहर करती है (आर्टिकल 226 और 227 के तहत) अकांस्टीट्यूशनल नहीं है। यह भी माना गया कि यह धारा ज्यूडिशियल रिव्यु के प्रावधान को पूरी तरह से प्रतिबंधित (बार)  नहीं करती है। एक्ट के तहत स्थापित ट्रिब्यूनल कांस्टीट्यूशनल न्यायालय – हाई कोर्ट्स के विकल्प हैं और वे सभी सेवा मामलों का निपटारा करेंगे, तब भी जब मामलों में आर्टिकल 14, 15 और 16 भी शामिल हैं। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि हाई कोर्ट्स और इन ट्रिब्यूनल्स के बीच बहुत बड़ा अंतर है।      
  2. उन्होंने तर्क दिया कि हाई कोर्ट्स 19 वीं सदी से अस्तित्व में हैं और लोगों को इन पर भरोसा है। ट्रिब्यूनल कार्यपालिका की एक नई रचना है जो रातों-रात लोगों में समान विश्वास और सकारात्मक (पॉजिटिव) माहौल पैदा नहीं कर पाएगी।      
  3. वे तर्क देते हैं की एक्ट की धारा 5(6) एक क़ानूनी प्रावधान की अनकांस्टीट्यूशनलिटी  की जाँच के लिए ट्रिब्यूनल के केवल एक सदस्यीय बेंच को अनुमति देता है जो कि अनकांस्टीट्यूशनल है।   

प्रतिवादी की ओर से तर्क इस प्रकार हैं-

  1. सुप्रीम कोर्ट (कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 32) का ज्यूरिस्डिक्शन पवित्र है और निर्विवाद (इंडिस्प्यूटेबल) रूप से भारतीय कांस्टीट्यूशन के बुनियादी ढांचे का एक हिस्सा है। 42 वें अमेंडमेंट और एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल्स एक्ट की कल्पना से पहले यह स्थिति संसद द्वारा स्पष्ट की गई थी। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का ज्यूरिस्डिक्शन किसी भी तरह से प्रभावित नहीं होता है। हालांकि, आर्टिकल 226 और 227 के तहत हाई कोर्ट के ज्यूरिस्डिक्शन को वैकल्पिक (अल्टरनेटिव) संस्था (इंस्टीटूशन) बनाकर हटाने की मांग की गई थी।      
  2. भारतीय कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 323A और 323B अपने क्षेत्रीय (टेरीटोरियल) ज्यूरिस्डिक्शन में स्थापित सभी ट्रिब्यूनल्स पर हाई कोर्ट्स के सुपरवाइजरी ज्यूरिस्डिक्शन को बाहर नहीं करते हैं। इसलिए हाई कोर्ट  के पास अभी भी सुपरवाइजरी ज्यूरिस्डिक्शन और करेक्टिव मैकेनिज्म बॉडी की शक्ति है।      
  3. यह तर्क दिया गया था कि ट्रिब्यूनल को भारतीय कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 226 और 227 के तहत ज्यूरिस्डिक्शन देना चाहिए।      
  4. यह कहा गया था कि संपत कुमार बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (2016) में दिए गए सिद्धांत पर किसी भी पुनर्विचार (रेकन्सीडरेशन) की आवश्यकता नहीं है।         

निर्णय 

सात जजों की कांस्टीट्यूशन बेंच ने फैसला सुनाया। बेंच ने कहा कि ज्यूडिशियल रिव्यु भारतीय कंस्टीटूशन का सबसे आवश्यक और बुनियादी ढांचा है, इसी तरह सुप्रीम कोर्ट पर आर्टिकल 32 के तहत और हाई कोर्ट पर आर्टिकल  226 और 227 के तहत प्रदत्त ज्यूरिस्डिक्शन भी बुनियादी ढांचे का एक हिस्सा है जो कि केशवानंदा भारती मामले में बेंच द्वारा दिए गए निर्णय के तहत अमेंड और परिवर्तित (अलटर्ड) नहीं किया जा सकता है। यह भी कहा जाता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए कोर्ट्स को ज्यूडिशियल रिव्यु की शक्ति दी गई है। हालांकि भारतीय संसद के पास कंस्टीटूशन में अमेंडमेंट करने की शक्ति और अधिकार है, लेकिन यह कंस्टीटूशन के मूल ढांचे में अमेंडमेंट नहीं कर सकती है। यह माना गया कि एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल्स एक्ट, 1985 की धारा 28 सभी हाई कोर्ट्स की ज्यूडिशियल रिव्यु की शक्ति को बाहर करती है और आर्टिकल 323A और 323B के तहत पारित सभी क़ानून जो “एक्सक्लूज़न ऑफ़ जूरिस्डिक्शन” की बात करते हैं अनकांस्टीट्यूशनल होंगे। सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ हाई कोर्ट्स को प्रदत्त ज्यूरिस्डिक्शन कांस्टीट्यूशन के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है, इस प्रकार, भारतीय कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 323A और 323B  के क्लॉज़  2(d) और क्लॉज़ 3(d) जहाँ तक वे हाई कोर्ट्स के ज्यूरिस्डिक्शन को बाहर करते हैं, वहां तक अनकांस्टीट्यूशनल हैं। यह भी कहा गया कि ट्रिब्यूनल के खिलाफ पूरक (सप्लीमेंटल) भूमिका (रोल) निभाने में कोई कांस्टीट्यूशनल निषेध (प्रोहिबिशन) नहीं होगा, उन्हें हाई कोर्ट्स या सुप्रीम कोर्ट के विकल्प के रूप में नहीं माना जाएगा।

ट्रिब्यूनल द्वारा दिए गए निर्णय हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच द्वारा जांच के अधीन होंगे, जिसके ज्यूरिस्डिक्शन में संबंधित ट्रिब्यूनल आता है। अंत में, न्यायालय ने इस बात को बरकरार रखा कि एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल एक्ट, 1985 की धारा 5(6) और धारा 5(2) को एक साथ काम करना चाहिए और सामंजस्यपूर्ण (हॉर्मोनियसली) ढंग से समझा जाना चाहिए और यह माना गया कि धारा 5(6) कांस्टीट्यूशनल है। सामंजस्यपूर्ण रूप का अर्थ यह है कि धारा 5(6) के तहत परंतुक (प्रोविजो) लागू होगा और संबंधित सदस्य या चेयरमैन मामले को कम से कम दो सदस्यों (जिनमें से एक न्यायिक सदस्य होना चाहिए) की एक बेंच को संदर्भित (रेफेर) करेगा जब कांस्टीट्यूशन के संबंध में एक वैधानिक प्रावधान या नियम की व्याख्या (इंटरप्रिटेशन) से संबंधित प्रश्न एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल की एकल सदस्य बेंच से उत्पन्न होता है।

निष्कर्ष (कन्क्लूज़न) 

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले में निर्णय दिए जाने के बाद यह एक प्रसिद्ध तथ्य है कि भारतीय कांस्टीट्यूशन की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है और इसका उल्लंघन करने वाले सभी कानूनों, एक्ट्स और विनियमों (रेगुलेशंस) को रद्द कर दिया जाएगा। यह पूरी तरह से स्थापित है कि हाई कोर्ट्स कांस्टीट्यूशनल न्यायालय हैं और उनके ज्यूरिस्डिक्शन को हटाना और ज्यूडिशियल रिव्यु की उनकी शक्ति को समाप्त करना बुनियादी ढांचे के सिद्धांत के खिलाफ है। यदि हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट पर बोझ को कम करने के लिए कुछ मामलों के त्वरित न्याय के लिए कार्यपालिका द्वारा एक नया क्वासि ज्यूडिशियल बॉडी स्थापित किया जाता है तो यह निर्णय ज्यूडिशियल रिव्यु के अधीन होना चाहिए क्योंकि ज्यूडिशियल बॉडी का निर्णय भी ज्यूडिशियल रिव्यु के अधीन होता है। हालाँकि, यह समय-प्रभावी और लागत प्रभावी न्याय प्रदान करने के लिए स्थापित है, लेकिन इसके द्वारा दिए गए न्याय की गुणवत्ता के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट  का निर्णय, इस मामले में, कांस्टीट्यूशनल प्रावधान की  पवित्रता को देखते हुए अत्यधिक उल्लेखनीय है ।

“कांस्टीट्यूशन  सरकार की शक्ति को नियंत्रित करने और हम में से प्रत्येक की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बहुत सटीक (प्रीसाईज़ली) रूप से लिखा गया था।” – डॉ रॉन पॉल

संदर्भ (रेफरेन्सेस) 

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