इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन का आर्टिकल 12- स्टेट  की परिभाषा

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Indian Constitution

यह लेख हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, रायपुर से लॉ की छात्रा Shruti Singh ने लिखा है। यह लेख आर्टिकल 12 के तहत विभिन्न केस कानूनों का विश्लेषण (एनालिसिस) करता है और इस लेख की व्याख्या के रूप में निष्कर्ष निकालने का प्रयास करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

फंडामेंटल राइट  का परिचय

फंडामेंटल राइट देश के प्रत्येक नागरिक को धर्म, जाति, क्षेत्र, या लिंग के बावजूद गारंटीकृत बेसिक मानवाधिकार (ह्यूमन राईट) हैं। फंडामेंटल राइट  का उल्लेख इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के पार्ट III में किया गया है। इसे कॉन्स्टीट्यूशन का मैग्ना कार्टा भी कहा जाता है। मैग्ना कार्टा (1215), यह मानव अधिकारों पर दुनिया में मौजूद पहला दस्तावेज है। मैग्ना कार्टा लिबर्टाटम, जिसे आमतौर पर मैग्ना कार्टा कहा जाता है, इंग्लैंड के राजा जॉन द्वारा, अपने लोगों को स्टेट के अनधिकृत (अनाॅथराइज) और अनुचित काम से बचाने के लिए अधिकारों का एक चार्टर है।

ये अधिकार प्रकृति में इतने आवश्यक हैं कि दुनिया के अधिकांश देशों ने इन्हें मान्यता दी गई है और स्वीकार किया गया है। फंडामेंटल नाम उन्हें दिया गया है क्योंकि ये अधिकार इतने बेसिक हैं कि इन्हें किसी भी इंसान से छीना नहीं जा सकता है। ये अधिकार देश के नागरिकों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास में मदद करते हैं।

उदाहरण: कॉन्स्टीट्यूशन का आर्टिकल 19(1)(g) प्रत्येक नागरिक को बिना किसी अनुचित प्रतिबंध (अनरीजनेबल रिस्ट्रिक्शन) के किसी भी प्रोफेशन, बिज़नेस, ट्रेड को करने का अधिकार प्रदान करता है। ऐसी स्थिति की कल्पना करें जहां यह स्वतंत्रता मौजूद नहीं थी, वहां अराजकता (चावस) का माहौल होगा क्योंकि स्टेट अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर सकता है, और उस पर अनुचित प्रतिबंध लगा सकता है। फंडामेंटल राइट होने के पीछे उद्देश्य एक न्यायपूर्ण समाज की आवश्यकता है जो तर्क (रीजन) और कानून पर आधारित हो। एक व्यक्ति के शासन से देश के नागरिकों के मन में क्रोध पैदा हो सकता है। ऐसे मामले में, जहां एक आदमी अपने अधिकार का दुरुपयोग करने का फैसला करता है, वहां नागरिकों के पास फंडामेंटल राइट  की अनुपस्थिति में कोई शक्ति नहीं होगी। 

मोंटेस्क्यू द्वारा दिए गए सेपरेशन ऑफ़ पॉवर के सिद्धांत के पीछे यही तर्क है और इसे हमारे कॉन्स्टीट्यूशन में आर्टिकल 50 में मान्यता दी गई है। इसलिए, अधिकारों का एक सेट होना महत्वपूर्ण है जो व्यक्तियों को अपमानजनक शक्ति से बचाता है। इन अधिकारों के वैध लागू करने के लिए, कॉन्स्टीट्यूशन में आर्टिकल 32 है, जिसे कॉन्स्टीट्यूशन का हृदय और आत्मा के रूप में भी जाना जाता है। यदि फंडामेंटल राइट का उल्लंघन किया जाता है, तो प्रत्येक नागरिक को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय इसके द्वारा बाध्य है क्योंकि आर्टिकल 32 अपने आप में एक फंडामेंटल राइट है।

तथ्य यह है कि फंडामेंटल राइट एक ऐसी चीज है जिसे केवल एक स्टेट के खिलाफ लागू किया जा सकता है, न कि किसी व्यक्ति के खिलाफ, यह निर्धारित करना महत्वपूर्ण है कि इसमें कौन से बॉडी शामिल हैं। इसलिए, दायित्व (लाइबिलिटी) निर्धारित (डिटरमाइन) करने के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक हो जाता है कि आर्टिकल 12 के तहत कौन सी बॉडी स्टेट  के दायरे में आती हैं।

स्टेट का अर्थ और अवधारणा (मीनिंग एंड कॉन्सेप्ट ऑफ स्टेट)

एक आम आदमी के लिए एक स्टेट एक राष्ट्र या क्षेत्र (टेरिटरी) है जो एक सरकार के तहत राजनीतिक रूप से संगठित समुदाय (ऑर्गेनाइज कम्युनिटी) है। शब्द “स्टेट” लैटिन शब्द ‘स्टेटस’ से आया है जिसका अर्थ है “किसी देश की स्थिति”। लेकिन कॉन्स्टीट्यूशन में स्टेट का अर्थ बहुत बड़ा है, इसमें राष्ट्र और स्टेट्स की लेजिस्लेचर और एग्जीक्यूटिव, लोकल या अदर अथॉरिटी और भारत के क्षेत्र में स्टेट की सभी इंस्ट्रूमेंटलिटीज शामिल हैं। एक स्टेट यह सुनिश्चित करता है कि देश के व्यक्ति, स्टेट की मनमानी शक्ति से सुरक्षित हैं।

इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन में आर्टिकल 12 को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:

इस पार्ट में, ‘स्टेट’ में शामिल हैं:

  1. भारत की सरकार और पार्लियामेंट;
  2. प्रत्येक स्टेट की सरकार और लेजिस्लेचर;
  3. लोकल अथॉरिटी;  या
  4. अदर अथॉरिटी;

जो, भारत के क्षेत्र में या भारत सरकार के नियंत्रण में होनी चाहिए।

यूनियन की सरकार और पार्लियामेंट

  • पार्लियामेंट- पार्लियामेंट भारत सरकार का सर्वोच्च कानून बनाने वाली बॉडी है। भारत में द्विसदनीय (बाइकैमरल) लेजिस्लेचियर है। यह राष्ट्रपति, राज्य सभा (काउन्सिल ऑफ स्टेट और अपर हाउस) और लोकसभा (हाउस ऑफ कॉमन्स और लोअर हाउस) से बना है।
  • एक्जिक्यूटिव- एक्जिक्यूटिव की भूमिका लेजिस्लेचर द्वारा बनाए गए कानूनों और नीतियों (पॉलिसी) को देश में लागू करना है। यह स्टेट के शासन के लिए भी जिम्मेदारी रखता है। एक्जीक्यूटिव कानूनों को लागू करती है।
  • लेजिस्लेचर- लेजिस्लेचर राष्ट्र के लोगों के लिए कानून बनाता है। यह स्टेट की इच्छा को दर्शाता है जिसे कानूनी अधिकार दिया जाता है। बहुत विचार और चर्चा के बाद, लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए कानून बनाए जाते हैं। यह उन लोगों की एक सभा है जो डायरेक्ट या इनडायरेक्ट रूप से लोगों द्वारा चुने जाते हैं।
  • सरकार- स्टेट पर शासन करने वाले लोगों का एक संगठित समूह सरकार बनाता है। आम तौर पर, लोवर हाउस में बहुमत बनाने वाली पार्टी को अक्सर सरकार शब्द से दर्शाया जाता है। लेकिन सरकारों में इसके सभी अंग यानी लेजिस्लेचर, एग्जिक्यूटिव और जुडिशियरी शामिल हैं। आम तौर पर, सरकारों का एक कॉन्स्टीट्यूशन होता है, जिसके अनुसार वे अपनी शक्ति प्राप्त करते हैं और कार्य करते हैं।

स्टेट  की सरकार और लेजिस्लेचर

स्टेट लेजिस्लेचर में स्टेट्स और केंद्र शासित प्रदेशों की लेजिस्लेटिव असेंबली शामिल हैं। इसमें स्टेट लेजिस्लेटिव असेंबली (विधान सभा) और स्टेट काउंसिल (विधान परिषद) शामिल हैं। भारत में अधिकांश स्टेट एक सदनीय (यूनिकैमरल) लेजिस्लेचर का पालन करते हैं, क्योंकि इनमें केवल लेजिस्लेटिव असेंबली हैं। केवल 7 स्टेट्स में स्टेट काउंसिल हैं, जो एक स्थायी (परमानेंट) बॉडी है।

लोकल अथॉरिटी

शब्द “लोकल अथॉरिटी” में नगरपालिका, पंचायत, जिला बोर्ड, इंप्रूवमेंट ट्रस्ट, पोर्ट ट्रस्ट, माइनिंग सेटलमेंट बोर्ड आदि जैसी ऑथोरिटी शामिल हैं। विभिन्न न्यायिक निर्णयों में, विभिन्न ऑथोरिटी को लोकल अथॉरिटी घोषित किया गया है और सूची में शामिल किया गया है। उदाहरण के लिए राशिद अहमद बनाम नगर बोर्ड, कैराना उन शुरुआती मामलों में से एक है जिसमें आर्टिकल 12 के तहत नगरपालिका को लोकल ऑथोरिटी माना गया था। यहां तक कि पार्ट IX, IX  A और IX B में उल्लिखित सभी पंचायतों, नगर पालिकाओं और सहकारी समितियों (कॉपरेटिव सोसाइटी) भी इस श्रेणी में शामिल किया जाएगा।

मोहम्मद यामीन बनाम टाउन एरिया कमेटी (1952)

लोकल ऑथोरिटी शब्द को किसी एक्ट या कॉन्स्टीट्यूशन में परिभाषित नहीं किया गया है। मोहम्मद यामीन बनाम टाउन एरिया कमेटी में “लोकल ऑथोरिटी” शब्द को परिभाषित किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि ‘नगर पालिका’ आर्टिकल 12 के तहत एक स्टेट है।

यूनियन ऑफ़ इंडिया बनाम आरसी जैन (1981)

यूनियन ऑफ़ इंडिया बनाम आरसी जैन में, यह पता करने के लिए कुछ टेस्ट किए गए थे कि कौन सी ऑथोरिटी “लोकल ऑथोरिटी” के अधीन आ सकते हैं:

  1. जिसका एक अलग कानूनी अस्तित्व है;
  2. यह एक परिभाषित क्षेत्र में कार्य करता है;
  3. अपने दम पर धन जुटाने की शक्ति है;
  4. इसे स्व-शासन (ऑटोनोमी) प्राप्त है;  तथा
  5. इसे क़ानून द्वारा ऐसे कार्य सौंपे जाते हैं जो आमतौर पर नगरपालिकाओं को सौंपे जाते हैं।

अदर ऑथोरिटी

आर्टिकल 12 में अन्य सभी अथॉरिटी शामिल हैं जो पहली तीन श्रेणियों में नहीं आते हैं। अदर ऑथोरिटी शब्द को न तो कॉन्स्टीट्यूशन में परिभाषित किया गया है और न ही जनरल क्लॉज एक्ट, 1897 (परिभाषा क्लॉज) में। इस शब्द की अब तक विभिन्न निर्णयों के माध्यम से व्यापक (वाइड) रूप से व्याख्या की गई है और अब इसमें कई ऑथोरिटी शामिल हैं। लोकल ऑथोरिटी का अर्थ है सभी लोकल स्वशासन (सेल्फ गवर्नमैंट) जिनके पास कानून बनाने की शक्ति है और उन्हें स्टेट का एक साधन माना जाता है। इसे नीचे विभिन्न स्थितियों के माध्यम से समझाया गया है। इस श्रेणी में सभी बॉडीज को शामिल करने का निर्णय लेने के लिए कोई सख्त नियम नहीं है। फिर भी, कुछ मामलों ने अपने निर्णयों में टेस्ट या दिशानिर्देश निर्धारित किए हैं।

मद्रास विश्वविद्यालय बनाम शांता बाई (1954)

रिस्ट्रिक्टिव इंटरप्रिटेशन- मद्रास विश्वविद्यालय बनाम शांता बाई में, मद्रास कोर्ट ने “एजुस्डेम जेनरिस” का सिद्धांत तैयार किया, जिसका अर्थ था कि समान प्रकृति की सभी चीजें उस चीज़ में शामिल हैं और इसका यह भी अर्थ है कि बॉडी जो सरकारी या संप्रभु (सावरेन) कार्य करने वाली है, वे अदर ऑथोरिटी के अंदर आएगी। इस मामले में मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा एक अपील की गई थी और सवाल यह था कि क्या विश्वविद्यालय द्वारा संबद्ध (एफिलिएटेड) कॉलेजों में सिंडिकेट की अनुमति के बिना महिला छात्र को प्रवेश नही देने का, जारी निर्देश वैध था। 

मामले की स्थिति यह थी कि 1929 में उडिपी शहर में महात्मा गांधी मेमोरियल कॉलेज के नाम से एक नया कॉलेज स्थापित किया गया था। संबद्धता प्रदान करते हुए, सिंडिकेट द्वारा जूनियर इंटरमीडिएट कक्षा में केवल 10 छात्राओं के प्रवेश के लिए अनुमति दी गई थी। उस वर्ष के लिए एक टेंपरेरी उपाय और निर्देश दिया कि भविष्य में किसी भी महिला छात्रों को सिंडिकेट की विशेष मंजूरी के बिना प्रवेश नहीं दिया जाएगा। अपीलार्थी शांता बाई ने कॉलेज में प्रवेश के लिए आवेदन किया था, लेकिन कॉलेज द्वारा उनके आवेदन को इस कारण खारिज कर दिया गया था कि छात्राओं को कॉलेज में प्रवेश नहीं दिया जाएगा। इसके बाद, उसने आर्टिकल 32 के तहत मैनडेमस की एक रिट याचिका दायर की, कॉलेज के प्रिंसिपल के खिलाफ उसे इंटरमीडिएट पाठ्यक्रम में प्रवेश देने के लिए। हाईकोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला दिया और कहा कि विश्वविद्यालय द्वारा दिए गए निर्देश उनके फंडामेंटल राइट  के उल्लंघन में हैं। यह सेक्स के आधार पर भेदभावपूर्ण था। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ यूनिवर्सिटी की ओर से सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि मद्रास विश्वविद्यालय कॉन्स्टीट्यूशन के आर्टिकल 12 में दिए गए स्टेट के अर्थ के भीतर एक स्टेट नहीं है और इसके नियम आर्टिकल 15(1) का उल्लंघन नहीं कर रहे हैं क्योंकि यह लिंग के इस आधार पर भेदभावपूर्ण नहीं था।

श्रीमती उज्जम बाई बनाम उत्तर प्रदेश स्टेट (1962)

लिबरल इंटरप्रिटेशन- उज्जम बाई बनाम यूपी स्टेट में, कोर्ट ने मद्रास विश्वविद्यालय के मामले में दिए गए सिद्धांत को खारिज कर दिया जो कि एजुस्डेम जेनेरिस है। सुप्रीम कोर्ट ने “अदर ऑथोरिटी” की रिस्ट्रिक्टिव इंटरप्रिटेशन को खारिज कर दिया और एजुस्डेम जेनेरिस को अनुपयुक्त माना। अदालत ने कहा कि एजुस्डेम जेनेरिस नियम को लागू करने के लिए, पहले से निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) बॉडीज के माध्यम से चल रहे प्रमुखों के लिए एक अलग श्रेणी होनी चाहिए।  आर्टिकल 12 में, बॉडीज का कोई सामान्य वंश (जीनस) नहीं है।

राजस्थान बिजली बोर्ड बनाम मोहन लाल (1967)

राजस्थान बिजली बोर्ड बनाम मोहन लाल में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 12 के तहत “अदर ऑथोरिटी” शब्द में कॉन्स्टीट्यूशन द्वारा बनाई गई सभी ऑथोरिटी और कानून द्वारा सशक्त अन्य क़ानून शामिल होने चाहिए। स्टेच्यूटरी ऑथोरिटी को सरकारी या संप्रभु कार्यों को करने में शामिल होने की आवश्यकता नहीं है, अदालत ने यह भी देखा कि राजस्थान बिजली बोर्ड को तत्काल मामले में निर्देश देने की शक्ति थी, जिसको न मानना एक अपराध के रूप में दंडनीय था। इस मामले ने मद्रास विश्वविद्यालय बनाम शांता बाई में दिए गए फैसले को खारिज कर दिया, जो स्टेट की परिभाषा से ‘विश्वविद्यालयों’ को बाहर करता है।

सुखदेव सिंह बनाम भगतराम (1975)

इस मामले में अदालत के सामने प्राथमिक (प्राइमरी) सवाल यह था कि क्या ओएनजीसी (ऑयल एंड नेचरल गैस कॉरपोरेशन), आईएफसी (इंटरनेशनल फाइनेंशियल कॉरपोरेशन) और एलआईसी (लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन) एक एक्ट द्वारा बनाए गए, आर्टिकल 12 के तहत “स्टेट ” के दायरे में आते हैं। राजस्थान बिजली बोर्ड बनाम मोहन लाल में दिए गए निर्णय के बाद अदालत ने तीनों को स्टेट माना। इन तीन बॉडीज को स्टेट माना जाता था क्योंकि वे एक क़ानून द्वारा बनाए गए थे और उनके पास बाध्यकारी नियम और विनियम (रेगुलेशन) बनाने की वैधानिक शक्ति थी, और वे व्यापक (पर्सेसिव)सरकारी नियंत्रण के अधीन थे। स्टेचुटरी कॉरपोरेशन ट्रेड या बिज़नेस चलाने के लिए स्टेट की एजेंसियां ​​या साधन हैं, जो दूसरी ओर स्टेट  विभागों द्वारा चलाए जाते है। इसलिए, यह देखा जाना चाहिए कि कोई बॉडी स्टेट की एजेंसी या साधन के रूप में कार्य कर रहा है या नहीं।

सभाजीत तिवारी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया  (1975)

इस मामले का फैसला उसी दिन हुआ जिस दिन सुखदेव सिंह के मामले का फैसला हुआ था। यहां तक कि, फैसला भी उसी बेंच ने दिया था। इस मामले में सवाल उठाया गया था कि क्या औद्योगिक (इंडस्ट्रियल) और वैज्ञानिक अनुसंधान (रिसर्च) परिषद (काउंसिल), जो केवल सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट, 1898 में पंजीकृत (रजिस्टर्ड) थी, आर्टिकल 12 के तहत “स्टेट ” की परिभाषा के अंतर्गत आएगी। यह माना गया था कि उक्त बॉडी एक स्टेट नहीं थी, क्योंकि यह एक क़ानून के तहत पंजीकृत था और आवश्यक स्टेट कार्यों को नहीं कर रहा था और सरकार के व्यापक नियंत्रण में काम नहीं कर रहा था। सुखदेव सिंह के मामले में, अदालत ने माना कि कॉरपोरेशन एक स्टेट था क्योंकि वे एक क़ानून द्वारा बनाए गए थे और महत्वपूर्ण स्टेट कार्य कर रहे थे और सरकार का व्यापक नियंत्रण था।

यूपी स्टेट वेयरहाउसिंग कॉर्पोरेशन बनाम विजय नारायण (1980)

निम्नलिखित मामले में, प्रतिवादी एक स्टेच्यूटरी बॉडी का कर्मचारी था। उसके खिलाफ चोरी और हेराफेरी के आरोप लगाए गए थे। उन्हें बिना सुनवाई का मौका दिए सेवा से निकाल दिया गया था। उन्होंने हाई कोर्ट में आर्टिकल 226 के तहत सर्टियोरारी की रिट दायर की। इस रिट को सिंगल बेंच ने खारिज कर दिया था। हाई कोर्ट की डिवीजनल बेंच ने इस आधार पर रिट की अनुमति दी कि कॉरपोरेशन को अर्ध-न्यायिक (क्वासी ज्यूडिशियल) तरीके से कार्य करने की आवश्यकता थी, निकाले गए कर्मचारी को सुनवाई का मौका देने में विफल रहा और इसलिए निकालने का आदेश खराब था। सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि उत्तर प्रदेश स्टेट वेयरहाउस कॉरपोरेशन एक स्टेट है, क्योंकि यह एक अधिनियम के तहत अच्छी तरह से स्थापित था। इसे स्टेट का एक साधन माना जाता था क्योंकि इसका नियंत्रण और स्वामित्व (ऑनरशिप) स्टेट के पास था।

रमना दयाराम शेट्टी बनाम भारत की इंटरनेशनल एयरपोर्ट ऑथोरिटी (1979)

निम्नलिखित मामले के तथ्य थे:

  • इंटरनेशनल एयरपोर्ट ऑथोरिटी, इंटरनेशनल एयरपोर्ट ऑथोरिटी एक्ट, 1971 के 43 के तहत गठित एक कॉरपोरेट बॉडी है।
  • इसने 3 जनवरी 1977 को बॉम्बे एयरपोर्ट पर 3 साल की अवधि के लिए एक द्वितीय श्रेणी (क्लास) के रेस्टोरेंट और दो बार चलाने के लिए कम से कम 5 साल के अनुभव वाले पंजीकृत द्वितीय श्रेणी के होटल व्यवसायी को आमंत्रित करने के लिए एक नोटिस जारी किया।
  • एयरपोर्ट ऑथोरिटी द्वारा नोटिस के जवाब में छह टेंडर प्राप्त हुये।
  • प्राप्त छह टेंडर्स में से, केवल चौथे प्रतिवादी की टेंडर पर विचार किया गया क्योंकि यह पूर्ण थी और लाइसेंस शुल्क की सबसे ज्यादा राशि की पेश की थी। अन्य सभी टेंडर्स अपूर्ण होने के कारण अस्वीकृत कर दिए गए।
  • पहले प्रतिवादी ने रिस्ट्रेंट और स्नैक बार चलाने के उद्देश्य से सब कुछ तैयार किया।
  • लेकिन, चूंकि चौथे प्रतिवादी ने टेंडर नोटिस में बताए गए 5 साल के अनुभव वाले द्वितीय श्रेणी के होटल व्यवसायी के विवरण को संतुष्ट नहीं किया, इसके अलावा पहले प्रतिवादी ने चौथे प्रतिवादी द्वारा यह साबित करने के लिए कहा कि वे द्वितीय श्रेणी के होटल व्यवसायी नहीं हैं।

बाद में एक अजनबी पर, रमना दयाराम शेट्टी, जिन्होंने कोई टेंडर जमा नहीं किया, ने चौथे प्रतिवादीयों के टेंडर को स्वीकार करने के उनके निर्णय को चुनौती देते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की। लेकिन, दुर्भाग्य से उनकी याचिका भी खारिज कर दी गई और फिर उन्होंने रिट याचिका को खारिज करने के आदेश के खिलाफ हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच में अपील की लेकिन वह भी खारिज हो गई।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कुछ नियम और टेस्ट दिए गए थे, यह निर्धारित करने के लिए कि कोई बॉडी आर्टिकल 12 के तहत एक स्टेट है या नहीं:

  • स्टेट द्वारा दी जाने वाली वित्तीय सहायता और इस तरह की परिमाण (मैग्नीट्यूड);
  • किसी अन्य प्रकार की सहायता चाहे वह सामान्य प्रकार की हो या असाधारण (एक्स्ट्राॅर्डिनेरी);
  • स्टेट द्वारा कॉरपोरेशन के प्रबंधन (मैनेजमेंट) और नीतियों (पॉलिसी) का नियंत्रण (प्रकृति और नियंत्रण की सीमा (एक्सटेन्ट));
  • स्टेट द्वारा प्रदत्त (कंफर) या स्टेट द्वारा संरक्षित एकाधिकार (मोनीपोली) का दर्जा;
  • कॉरपोरेशन द्वारा किए जाने वाले कार्य, क्या सार्वजनिक कार्य सरकारी कार्यों से संबंधित हैं, यह पता लगाएंगे कि कॉरपोरेशन स्टेट का एक साधन या एजेंसी है या नहीं और;
  • यदि बॉडी के किसी एक विभाग (डिपार्टमेंट) को सरकार को हस्तांतरित (ट्रान्सफर) किया जाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि इंटरनेशनल एयरपोर्ट ऑथोरिटी निस्संदेह केंद्र सरकार की एक साधन या एजेंसी है और आर्टिकल 12 के तहत ‘स्टेट’ की परिभाषा के अंदर आता है। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि जिस तरह सरकार अपने अधिकारियों के माध्यम से कार्य कर रही है, संवैधानिक और सार्वजनिक कानून की सीमाएँ के अधीन है, इसी तरह एक एजेंसी के माध्यम से काम करने वाली सरकार समान स्तर के प्रतिबंधों के अधीन है। इसलिए, भारत की इंटरनेशनल एयरपोर्ट ऑथोरिटी कॉन्स्टीट्यूशन और अन्य सार्वजनिक कानूनों में सीमाओं या प्रतिबंधों के अधीन है।

सोम प्रकाश रेखी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (1981)

सोम प्रकाश रेखी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में, सवाल यह था कि क्या एक स्टेच्यूटरी कंपनी इंडियन पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन आर्टिकल 12 के तहत एक स्टेट है या नहीं। इस मामले में कर्मचारियों की पेंशन मनमाने ढंग से कम की गई जिसे बाद में केंद्र सरकार ने हासिल कर लिया था। यह देखा गया कि केवल इसलिए कि एक कानूनी कॉरपोरेशन का अपना कानूनी व्यक्तित्व होता है, इसका मतलब यह नहीं है कि कॉरपोरेशन स्टेट का एजेंट या साधन नहीं है यदि वह सभी महत्वपूर्ण मामलों के लिए सरकारी नियंत्रण के अधीन है। एक सार्वजनिक ऑथोरिटी एक बॉडी है जो सार्वजनिक कार्य करता है और जो कर्तव्यों का पालन करता है और स्टेट के लाभ के लिए अपने लेनदेन करता है। इसलिए उक्त निकाय को ‘स्टेट’ माना गया था।

अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब सहरावर्दी और अन्य (1981)

अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब, में एक रिट याचिका आर्टिकल 32 के तहत दायर की गई थी जिसमें शैक्षणिक (एकेडमिक) वर्ष 1979-80 के लिए क्षेत्रीय (रीजनल) इंजीनियरिंग कॉलेजों, श्रीनगर में किए गए प्रवेश को चुनौती दी गई थी। कॉलेज की स्थापना, प्रशासन और प्रबंधन एक सोसायटी द्वारा किया गया था जो जम्मू एंड कश्मीर रजिस्ट्रेशन ऑफ सोसाइटी एक्ट, 1898 के तहत पंजीकृत थी। बोर्ड ऑफ गवर्नर्स ने एक्ट के तहत, एक संकल्प (रेजोल्यूशन) द्वारा कॉलेज में विभिन्न पाठ्यक्रमों (कोर्सेज) में छात्रों के प्रवेश के लिए प्रक्रिया निर्धारित की। उक्त कॉलेजों में प्रवेश प्रक्रिया के लिए एक छात्र को 100 अंकों की लिखित परीक्षा और 50 अंकों की मौखिक परीक्षा देनी होती है।

याचिकाकर्ताओं ने रिट याचिकाओं में बी.ई. इंजीनियरिंग की एक या दूसरी शाखा (ब्रांच) में प्रथम सेमेस्टर के लिए पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए आवेदन किया था, और वे लिखित परीक्षा में उपस्थित हुए और उसके बाद मौखिक परीक्षाओं के भी उपस्थित होना पड़ा। याचिकाकर्ताओं के मामले में, उनमें से प्रत्येक का इंटरव्यू औसतन (एवरेज) प्रति उम्मीदवार 2 या 3 मिनट से अधिक नहीं चला। जब सीटों पर प्रवेश की घोषणा की गई, तो याचिकाकर्ताओं ने पाया कि भले ही उन्होंने लिखित परीक्षा में बहुत अच्छे अंक प्राप्त किए हों, लेकिन दूसरी ओर वे कॉलेज में प्रवेश नहीं ले पा रहे थे क्योंकि मौखिक परीक्षा में उन्हें दिए गए अंक बहुत कम थे, औसत अंकों की तुलना में और जिन उम्मीदवारों के विशेषक (क्वालीफाइंग) परीक्षा में बहुत कम अंक थे, वे मौखिक परीक्षा में बहुत अधिक अंक प्राप्त करने में सफल रहे थे। वे लोग याचिकाकर्ताओं की प्राथमिकता (प्रिफरेंस) में प्रवेश सुरक्षित करने में कामयाब रहे।  

पहली बात यह पता लगाने की थी कि एक पंजीकृत सोसायटी द्वारा स्थापित किया गया कॉलेज आर्टिकल 12 के तहत एक स्टेट है या नहीं। समाज को स्टेट  के रूप में माना जाता था क्योंकि यह स्टेट का एक एजेंट था। इस न्यायालय की एक कॉन्स्टीट्यूशन बेंच ने मामले में निर्धारित टेस्ट को मंजूरी देते हुए कहा कि ये टेस्ट प्रकृति में अंतिम या निर्णायक नहीं हैं। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि इसमें हर स्वायत्त (ऑटोनोमस) बॉडी शामिल नहीं हो सकती है जिसका सरकार के साथ कुछ संबंध है।

प्रदीप कुमार विश्वास बनाम इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल बायोलॉजी और अन्य (2002)

यह मामला आगे के सभी मामलों के लिए एक मिसाल के रूप में काम करता है जो आर्टिकल 12 के तहत ‘अदर ऑथोरिटी’ की व्याख्या पर सवाल उठाता है। यह बात को काफी हद तक इस मामले में स्पष्ट कर दिया गया है। इस मामले ने अजय हसिया के मामले को खारिज कर दिया और कहा कि ऐसा कोई सख्त नियम नहीं है कि सरकार के साथ कोई संबंध रखने वाली पंजीकृत समितियों को हर मामले में एक स्टेट के रूप में माना जाए। मामले का न्याय, मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर किया जाना है। सभाजीत तिवारी के मामले में, सीएसआईआर को एक स्टेट के  रुप में नहीं माना गया था। इस तरह के पुनर्विचार (रिकंसिडरेशन) का तात्कालिक (इमेडिएट) कारण याचिकाकर्ताओं द्वारा कलकत्ता हाई कोर्ट में दायर एक रिट आवेदन है, जो प्रतिवादी नंबर 1 द्वारा उनकी सेवाओं की समाप्ति को चुनौती देता है, जो सीएसआईआर की एक इकाई (यूनिट) है।

इस मामले में शामिल प्रश्न थे:

  1. क्या सीएसआईआर आर्टिकल 12 के अर्थ में स्टेट का एक साधन था, और
  2. यदि उपरोक्त प्रश्न का उत्तर हाँ है, तो क्या सुप्रीम कोर्ट को सभाजीत तिवारी मामले में इसके विपरीत निर्णय को उलट देना चाहिए, जो अब लंबे समय से चलता आ रहा था।

यह माना गया था कि सीएसआईआर स्टेट का एक साधन है और आर्टिकल 12 के तहत अधिकार क्षेत्र के लिए उत्तरदायी होगा। सभाजीत तिवारी के मामले में दिए गए निर्णय को उलट दिया गया था और माना गया था कि सुप्रीम कोर्ट ने मामले में अपना फैसला सुनाते समय गलती की थी। भले ही सरकार इतना बड़ा वित्त देती है और नियंत्रण भी गहरा है, इसे आर्टिकल 12 के तहत अदर ऑथोरिटी माना जाता है।

डॉ. जेनेट जयपॉल बनाम.  एसआरएम विश्वविद्यालय (2015)

इस मामले में, सवाल यह था कि क्या एसआरएम विश्वविद्यालय जो एक डीम्ड विश्वविद्यालय है, “स्टेट” के अर्थ में आता है या नही। एसआरएम विश्वविद्यालय, जो विभिन्न विषयों में उच्च शिक्षा प्रदान करने में लगा हुआ है और जिसे अधिसूचना (नोटिफिकेशन) द्वारा यू.जी.सी. (यूनिवर्सिटी ग्रांट कमिशन) एक्ट, 1956 के तहत एक डीम्ड विश्वविद्यालय माना जाता था। याचिकाकर्ता (एसआरएम विश्वविद्यालय का एक कर्मचारी) ने रिट क्षेत्राधिकार के लिए अपील की, मद्रास हाई कोर्ट में आर्टिकल 226 के तहत एसआरएम विश्वविद्यालय द्वारा उसकी सेवाओं को समाप्त करने के नोटिस को चुनौती देते हुए। हाई कोर्ट ने माना कि एसआरएम विश्वविद्यालय एक स्टेट नहीं था और इसलिए कोई रिट याचिका दायर नहीं की जायेगी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट  ने इसे एक स्टेट के रूप में माना क्योंकि विश्वविद्यालय शिक्षा प्रदान करने में लगा हुआ था जो एक सार्वजनिक समारोह था। एसआरएम विश्वविद्यालय यूजीसी एक्ट के तहत एक डीम्ड विश्वविद्यालय है, यूजीसी एक्ट के सभी प्रावधान एसआरएम विश्वविद्यालय पर लागू होते हैं, जो अन्य बातों के साथ-साथ जनता के लाभ के लिए शिक्षा जैसे सार्वजनिक कार्य के प्रभावी निर्वहन के लिए प्रदान करता है।

क्या बीसीसीआई एक स्टेट है?

मामले की बात यह है कि बीसीसीआई एक स्टेट है या नहीं, यह कई बार कोर्ट के सामने आ चुका है। न्यायालय ने अपने विभिन्न मामलों के माध्यम से निर्णय दिया है कि बीसीसीआई एक स्टेट नहीं है।

ज़ी टेलीफिल्म्स बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया  (2005)

ज़ी टेलीफ़िल्म्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, मुद्दा यह था कि क्या बोर्ड आर्टिकल 12 के तहत एक स्टेट है या नही। यह कहा गया था कि अजय हसिया और प्रदीप के मामले को ध्यान में रखते हुए और इन मामलों में दिए गए नियमों के अनुसार यह निर्धारित करने के लिए कि कोई बॉडी एक स्टेट है या नहीं, बीसीसीआई एक स्टेट नहीं है।

बीसीसीआई बनाम क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार एंड ओआरएस (2016)

इस मामले में आगे यह पता चला कि बीसीसीआई एक स्टेट  नहीं है। इस न्यायालय ने माना कि इंडियन क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड भी आर्टिकल 12 के अर्थ में “स्टेट” नहीं था, यह इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के आर्टिकल 226 के तहत न्यायालय के रिट क्षेत्राधिकार के लिए उत्तरदायी था, क्योंकि यह महत्वपूर्ण सार्वजनिक कार्यों का निर्वहन कर रहा था। फिर भी, पीड़ित पक्ष आर्टिकल 32 के तहत नहीं आ सकता है।

क्या ज्यूडिशियरी एक स्टेट  है?

नरेश श्रीधर मिराजकर बनाम महाराष्ट्र स्टेट  (1966)

नरेश श्रीधर मिराजकर बनाम महाराष्ट्र स्टेट में यह सवाल सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट में आया था। इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट ने कोई फैसला नहीं दिया है। इसने केवल यह देखा कि यदि अदालत यह तय करती है कि अदालत एक स्टेट है, तो उसके आदेशों या निर्णयों के खिलाफ आर्टिकल 32 (संवैधानिक उपचार) के तहत रिट जारी नहीं की जा सकती क्योंकि ऐसे आदेश या निर्णय नागरिकों के फंडामेंटल राइट का उल्लंघन करते हैं।

ए.आर अंतुले बनाम आर.एस नायक (1988)

इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट के 7 जजेस ने बहुमत के साथ, कांस्टीट्यूशनल बेंच ने कहा कि अदालत ऐसे आदेश और निर्देश नहीं दे सकती है जो नागरिकों के फंडामेंटल राइट का उल्लंघन करती है, यानी अदालत को भी आर्टिकल 12 के तहत स्टेट में शामिल किया जा सकता है, लेकिन जब तक नरेश श्रीधर मिराजकर बनाम महाराष्ट्र स्टेट, एआईआर 1967 मामले में दिए गए निर्णय को उलटा नही कर दिया जाता है, तब तक स्थिति उलटी रहेगी।

विभिन्न मामलों से यह निष्कर्ष निकाला गया है, कि ज्यूडिशियरी को एक स्टेट के रूप में माना जाता है, जबकि यह लेजिस्लेटिव और एक्जिक्यूटिव कार्य कर रहा है, जैसे, सुप्रीम और हाई कोर्ट के जजेस की नियुक्ति (अपॉइंटमेंट) और अपने न्यायिक कार्यों को करते हुए एक स्टेट नहीं है।

भारत का क्षेत्र (टेरिटरी ऑफ इंडिया)

भारत के क्षेत्र में शामिल हैं:

  1. सभी स्टेट्स के क्षेत्र;
  2. कॉन्स्टीट्यूशन की पहली अनुसूची में निर्दिष्ट केंद्र शासित प्रदेश;
  3. स्टेट  द्वारा अन्य अधिग्रहित (एक्वायर्ड) क्षेत्र।

यह माना गया है कि आर्टिकल 12 के उद्देश्य के लिए भारत के क्षेत्र का अर्थ कॉन्स्टीट्यूशन के आर्टिकल 1 (3) में परिभाषित भारत के क्षेत्र से है।

भारत सरकार का नियंत्रण (कंट्रोल ऑफ द गवर्नमेंट ऑफ इंडिया)

आर्टिकल 12 के तहत सरकार बॉडी पर जो नियंत्रण रखती है, वह जरूरी नहीं कि पूर्ण हो। इसका तात्पर्य केवल यह है कि सरकार का कुछ मात्रा में नियंत्रण होना चाहिए। यह हमेशा सत्य नहीं होता है, कि यदि कोई बॉडी एक ‘स्टेट्यूटरी बॉडी’ है। दोनों स्टेट्यूटरी, साथ ही अन्य बॉडी को एक स्टेट के रूप में माना जा सकता है यदि उन्हें सरकार से एक हद तक वित्तीय संसाधन मिलते हैं और यह उस पर गहरा और व्यापक नियंत्रण रखता है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

आर्टिकल 12 की व्याख्या बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि फंडामेंटल राइट  को केवल स्टेट के विरुद्ध ही लागू किया जा सकता है। ‘स्टेट ‘ कौन है यह आर्टिकल 12 के प्रावधानों द्वारा निर्धारित किया जाता है। ज्यूडिशियरी अधिक से अधिक बॉडीज को स्टेट के दायरे में शामिल करने का प्रयास करती है ताकि अधिक से अधिक लोग इसके खिलाफ अपने फंडामेंटल राइट  को लागू कर सकें। “अदर ऑथोरिटी” की व्याख्या में भारी परिवर्तन देखा गया है। जिन लोगों के फंडामेंटल राइट का उल्लंघन होता है, उन्हें न्याय दिलाने के लिए आर्टिकल 12 का दायरा दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। इसका एकमात्र उद्देश्य इस आर्टिकल के अंतर्गत आने वाले लोगों को उपाय प्रदान करना है।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

 

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