क्रिमिनल प्रोसिजर कोड के तहत कॉग्निजेबल ऑफेन्स

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Code of Criminal Procedure
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यह लेख नोएडा के सिम्बायोसिस लॉ स्कूल के Kashish Grover ने लिखा है। इस लेख में क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के तहत कॉग्निजेवल ऑफेन्स पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

इंडियन लीगल सिस्टम तीन प्रकार के कानूनों पर काम करती है:

  1. सब्सटेंटिव लॉ
  2. प्रोसीजरल लॉ
  3. एविडेंशियरी लॉ

प्रोसीजरल लॉ जिसे क्रिमिनल प्रोसिजर कोड, 1973 के रूप में जाना जाता है, जो इस प्रक्रिया से संबंधित है कि कोई व्यक्ति न्याय पाने के लिए अधिकारियों से कैसे संपर्क कर सकता है। उदाहरण के लिए: ऑफेन्सेस के प्रकार, विभिन्न प्रकार के ऑफेन्सेस के लिए आरोपी की गिरफ्तारी की प्रक्रिया, जांच की प्रक्रिया, जमानत प्रावधान की प्रक्रिया आदि।

ऑफेन्स, जैसा कि मरियम वेबस्टर लॉ डिक्शनरी द्वारा परिभाषित किया गया है, ऐसा कार्य है जो मोरल या फिजिकल सेंसेस को अपमानित करता है। यह एक अवैध कार्य या ऑफेन्स को संदर्भित (रेफर) करता है, जो प्रकृति में दंडनीय है और जिसके खिलाफ पुलिस या मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत दर्ज की जा सकती है।

ऑफेन्स को विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत (कैटिगराइज्ड) किया जा सकता है, लेकिन हम विशेष रूप से दो पर ध्यान केंद्रित करेंगे:

  1. कॉग्निजेबल ऑफेन्स
  2. नॉन कॉग्निजेबल ऑफेन्स

सीआरपीसी की धारा 154 के तहत, कॉग्निजेबल ऑफेन्स की चर्चा की जाती है। सीआरपीसी की धारा 2(c), इसे एक ऑफेन्स के रूप में परिभाषित करता है, जिसमें पुलिस अधिकारी बिना वारंट के आरोपी को गिरफ्तार कर सकता है और अदालत की उचित अनुमति के बिना जांच शुरू कर सकता है। ये ऐसे ऑफेन्स हैं जो आमतौर पर बहुत गंभीर और जघन्य (हिनियस) प्रकृति के होते हैं। उदाहरण के लिए: बलात्कार, हत्या, अपहरण, दहेज हत्या आदि। सभी कॉग्निजेबल ऑफेन्स अपनी गंभीर और जघन्य प्रकृति के कारण नॉन बेलेबल होते हैं।

सीआरपीसी की धारा 2(l) नॉन कॉग्निजेबल ऑफेन्स को परिभाषित करती है। यह इसे एक ऐसे ऑफेन्स के रूप में संदर्भित करती है, जिसमें एक पुलिस अधिकारी को बिना वारंट के गिरफ्तार करने का कोई अधिकार नहीं है। ये ऐसे ऑफेन्स हैं जो गंभीर नहीं हैं या आमतौर पर प्रकृति में छोटे हैं। उदाहरण के लिए: हमला (असॉल्ट), धोखाधड़ी, जालसाजी (फॉर्जरी), मानहानि (डिफेमेशन) आदि। नॉन कॉग्निजेबल ऑफेन्स आमतौर पर गैर-गंभीर प्रकृति के कारण बेलेबल होते हैं।

सीआरपीसी के तहत प्रावधान

धारा 154

कॉग्निजेबल मामलों में सूचना।

  1. किसी कॉग्निजेबल ऑफेन्स के किए जाने से संबंधित प्रत्येक सूचना, यदि मौखिक रूप से किसी पुलिस थाने के ऑफीसर इन चार्ज को दी जाती है, तो उसके द्वारा या उसके निर्देश के तहत लिखित रूप में की जाएगी, और सूचना देने वाले को पढ़ कर सुनाई जायेगी; और ऐसी प्रत्येक सूचना, चाहे वह लिखित रूप में दी गई हो या लिखित रूप में कर दी गई हो, उसे देने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित की जाएगी, और उसके सार (सब्सटेंस) को ऐसे अधिकारी द्वारा रखी जाने वाली एक पुस्तक में दर्ज किया जाएगा, जैसा कि इस संबंध में राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किया गया हो।
  2. उप-धारा (सब-सेक्शन) (1) के तहत दर्ज की गई जानकारी की एक कॉपी, सूचना देने वाले को तुरंत मुफ्त दी जाएगी।
  3. किसी पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी की ओर से उपधारा (1) में निर्दिष्ट (रेफेर) सूचना को दर्ज करने से इंकार करने से, कोई भी पीड़ित व्यक्ति ऐसी सूचना का सार लिखित और डाक द्वारा संबंधित सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस) को भेज सकता है, यदि वह संतुष्ट हो, कि ऐसी जानकारी कॉग्निजेबल ऑफेन्स के किए जाने का खुलासा करती है, तो या तो वह स्वयं मामले की जांच करेगा या अपने अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) किसी पुलिस अधिकारी द्वार, इस कोड द्वारा प्रदान किए गए तरीके से जांच करने का निर्देश देगा, और उस ऑफेन्स के संबंध में, ऐसे अधिकारी के पास पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी की सभी शक्तियां होती है।

धारा के संदर्भ में, एक अधिकारी एफ.आई.आर दर्ज कर सकता है और अदालत की पूर्वानुमति (प्रायर अप्रूवल) लिए बिना किसी संदिग्ध का कॉग्निजेंस ले सकता है, और उसे गिरफ्तार कर सकता है। यदि उसके पास “विश्वास करने का कारण” है कि एक व्यक्ति ने ऑफेन्स किया है और संतुष्ट है कि उसकी गिरफ्तारी एक आवश्यक कदम है।

फिर गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर, अधिकारी को संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा हिरासत (डिटेनशन) की पुष्टि करवानी होगी। पुलिस अधिकारी के पास एफ.आई.आर. करने से पहले तथ्यों को क्रॉसचेक करने के लिए प्रारंभिक (प्रिलिमिनरी) जांच करने का भी मौका होता है, लेकिन इसके लिए पूरी तरह से दायित्व उसी पर होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सूचना मिलने पर यदि अगर पुलिस अधिकारी एफ.आई.आर. दर्ज नहीं करता है, और कोई अनहोनी हो जाती है क्योंकि उसे हत्या जैसे गंभीर ऑफेन्स के बारे में यकीन नहीं था और किसी की जान चली जाती है, तो यह एक लापरवाह गलती होगी।

कॉग्निजेबल ऑफेन्स के मामलों में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया (प्रोसीजर टू बी फॉलोड इन केसेस ऑफ कॉग्निजेबल ऑफेन्स)

  • सूचना प्राप्त होना
  • सामान्य डायरी में दर्ज करना
  • एफ.आई.आर. दर्ज कराना
  • आरोपियों की गिरफ्तारी
  • रिमांड
  • धारा 156 के तहत जांच
  • धारा 173 के तहत चार्ज शीट
  • जांच
  • ट्रायल
  • जजमेंट

कॉग्निजेबल ऑफेन्स से संबंधित इस प्रक्रिया में से प्रत्येक का वर्णन नीचे किया गया है।

एफ.आई.आर. दर्ज कराना

एफ.आई.आर. दर्ज कराने का मतलब है कि पुलिस को जानकारी देना की, नोन या अन्नोन व्यक्ति ने ऑफेन्स किया है, जिसे सीआरपीसी की अनुसूची (शेड्यूल) 1 में कॉग्निजेबल ऑफेन्स के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। इसे सूचना देने वाले के द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना चाहिए। एफ.आइ.आर. की एक कॉपी सूचना देंने वाले को देनी चाहिए और एफ.आई.आर. की दूसरी कॉपी, उसके अवलोकन (पर्सुएल) और रिकॉर्ड के लिए मजिस्ट्रेट के पास भेजी जानी चाहिए। इसे प्रॉसिक्यूशन मामले का आधार माना जाता है। एफ.आई.आर. दर्ज होने को कहा जाता है कि यह मामले का पहला, बेदाग (अनटेंटेड) वर्जन है और यह आम तौर पर कभी भी झूठा नहीं होता है।

मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट करना

जब एक कॉग्निजेबल ऑफेन्स की सूचना दी जाती है, तो प्रभारी अधिकारी संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट करता है और जांच के लिए खुद को या अधीनस्थ अधिकारी को नियुक्त (अपॉइंट) करता है।

जाँच 

कॉग्निजेबल ऑफेन्स में सूचना मिलने पर दर्ज होते ही जांच शुरू हो जाती है। मजिस्ट्रेट के आदेश और वारंट की सभी औपचारिकताएं (फॉर्मेलिटी) बाद में आती हैं। पुलिस अधिकारी मामले के तथ्यों और परिस्थितियों का पता लगाने, संदिग्ध को गिरफ्तार करने, उसका पता लगाने के लिए सुविधा प्रदान करता है।

जघन्य ऑफेन्स के लिए, विशेष रूप से सीआरपीसी की धारा 468 में जांच पूरी करने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है, लेकिन अनुचित देरी के लिए कोई भी भारतीय संविधान द्वारा प्रदान किए गए आर्टिकल 21 में स्वतंत्रता के अधिकार के तहत कोई भी सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है।

दस्तावेजों की खोज और प्रस्तुति (सर्च एंड प्रोडक्शन ऑफ डॉक्यूमेंट्स)

अगर पुलिस का मानना ​​है कि जांच के दौरान कुछ तलाशी करनी है तो वह कॉग्निजेबल ऑफेन्स के लिए ऐसा करने के लिए अधिकृत है। वह किसी व्यक्ति को, मामले के लिए जरूरी कोई भी दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए आदेश जारी कर सकता है।

गिरफ़्तार करना

गिरफ्तारी से तात्पर्य किसी व्यक्ति पर एक कॉग्निजेबल ऑफेन्स के लिए लगाए गए आरोप के परिणामस्वरूप उस पर लगाई जाने वाली फिजिकल रिस्ट्रेन्ट से है। किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए तीन तत्व मौजूद होने चाहिए:

  • अधिकार के तहत गिरफ्तारी का इरादा;
  • कानूनी तरीके से हिरासत में लेना; तथा
  • गिरफ्तार व्यक्ति को बताना चाहिए कि उसे क्यों गिरफ्तार किया गया है और उसके क्या अधिकार है।

कॉग्निजेबल ऑफेन्स में गिरफ्तारी के लिए वारंट की आवश्यकता नहीं होती है। यह आरोप लगाने पर किया जा सकता है जो प्रकृति में इतना खतरनाक या गंभीर है कि इसे टाला नहीं जा सकता। गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर पुलिस को हिरासत में लिए गए व्यक्ति के लिए गिरफ्तारी वारंट हासिल करना होता है। 24 घंटे के भीतर पुलिस के पास ऑफेन्स की जांच करने और व्यक्ति से पूछताछ करने का पूरा समय होता है।

रिमांड

जब पुलिस 24 घंटे के भीतर कॉग्निजेबल ऑफेन्स की जांच पूरी नहीं होने की स्थिति में किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करती है, तो वे मजिस्ट्रेट को एक लिखित आवेदन देते हैं और उनसे अनुरोध करते हैं कि आरोपी को आगे की अवधि के लिए पुलिस हिरासत में रखा जाए, अन्यथा आरोपी को रिहा करना पड़ता है। रिमांड का अनुरोध पुलिस हिरासत के तहत 14 दिनों से अधिक के लिए नहीं दिया जा सकता है।

गवाहों का बयान (स्टेटमेंट ऑफ विटनेस)

जांच के दौरान, मामले में शामिल व्यक्तियों, मूल रूप से गवाहों के साथ-साथ आरोपी से पूछताछ की जाती है और उनके पक्ष के घटना के बयान दर्ज किए जाते हैं।

चिकित्सा परीक्षण (मेडिकल एग्जामिनेशन)

बलात्कार और छेड़छाड़ या ऐसे किसी भी ऑफेन्स के मामले में जहां चिकित्सा परिक्षण आवश्यक है, तो यह पुलिस अधिकारी का कर्तव्य है कि वह ऑफेन्स की सूचना के 24 घंटे के भीतर इसे अंजाम दे।

चार्ज शीट

जब एक पुलिस अधिकारी एक कॉग्निजेबल ऑफेन्स की जांच समाप्त करता है, तो वह उस जांच की मजिस्ट्रेट को एक रिपोर्ट भेजता है जिसमें आई.ओ. (इन्वेस्टिगेटिंग ऑफिसर) आरोपी के खिलाफ आगे बढ़ने के लिए तथ्यों का पता लगाता है। इस रिपोर्ट में एफ.आई.आर., पुलिस द्वारा दर्ज गवाहों के बयान, पार्टियों के नाम, संक्षिप्त (ब्रीफ) तथ्य और जांच के दौरान आई.ओ. द्वारा एकत्र की गई जानकारी शामिल है।

इन्क्वाइरी

इन्क्वाइरी की स्टेज पर, न्यायाधीश निर्णय नहीं देते है। वह एक प्रारंभिक निष्कर्ष पर पहुंचते है और आगे की कार्रवाई करने के लिए पार्टियों पर छोड़ देता है जैसे कि दोषो को स्वीकार करना आदि। इस स्टेज में, गवाहों को आम तौर पर अदालत में आने, शपथ लेने और फिर उन्होंने जो देखा है और जांच के दौरान पुलिस के सामने कहा है उसके संबंध में सबूत देने की आवश्यकता होती हैI 

ट्राय

मुकदमे का हॉलमार्क यह है कि हर गवाह जो सबूत देता है, अब वही सबूत अदालत में शपथ से बाध्य होता है।  परीक्षण में कई श्रेणियां हैं:

  1. एक मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट मामले की सुनवाई;
  2. एक मजिस्ट्रेट द्वारा समन मामले की सुनवाई;
  3. पुलिस रिपोर्ट पर कॉग्निजेंस लेने पर शुरू हुआ मुकदमा;  तथा
  4. सेशन ट्रायल।

कॉग्निजेबल ऑफेन्स में, मुकदमा आमतौर पर वारंट मामले या सेशन मामले के तहत होता है क्योंकि वे अधिक गंभीर और जघन्य ऑफेन्सों से निपटते हैं।

जजमेंट

जजमेंट में निर्धारण के लिए पॉइंट, उन पॉइंट्स पर निर्णय और परीक्षा पर विचार करके, अभियुक्तों और गवाहों का क्रॉस एग्जामिनेशन पर विचार, शामिल हैं।

सज़ा

कॉग्निजेबल मामलों में, सजा की अवधि आमतौर पर 3 वर्ष से अधिक की अवधि से आजीवन कारावास तक या फिर मृत्युदंड की सजा भी मिल सकती है, क्योंकि वे प्रकृति में गंभीर और जघन्य होते हैं।

कॉग्निजेबल ऑफेन्सों से संबंधित मुद्दे

  • पुलिस, सुप्रीम कोर्ट के उन पूर्व निर्णय पर निर्भर नहीं है जो ऑफेन्स की परिभाषा को संविधान के अनुरूप लाने के लिए संशोधित करते हैं। वे पुराने नियमों और कानूनों और तरीको का पालन करते हैं जिनका पालन ऑफेन्स का पता लगाने के लिए किया जाता है।
  • उदाहरण के लिए, केदारनाथ सिंह बनाम बिहार (1962) में राजद्रोह (सिडिशन) की परिभाषा को केवल भाषण या आचरण को शामिल करने के लिए पढ़ा गया था, जो “हिंसा को उकसा सकता है” या “अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति (टेंडेंसी) को शामिल करता है”। सुप्रीम कार्ट के अनुसार, देशद्रोह की एफ.आई.आर. की जांच करने वाले अधिकारी को ऑफेन्स का कॉग्निजेंस लेने से पहले केदारनाथ सिंह के जजमेंट को सही ढंग से समझने और लागू करने की आवश्यकता है। लेकिन इसके बावजूद कॉग्निजेबल ऑफेन्सों में एफ.आइ.आर. बढ़ती जा रही है, जैसे देशद्रोह या धार्मिक समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने का कार्य करना।
  • कॉग्निजेबल ऑफेन्स के मामले में, गिरफ्तारी को रोकने वाली पुलिस की शक्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं है। इसके साथ आने वाली कई समस्याएं और मुद्दे हैं:
  1. यह निर्धारित करने में एरर हो सकते हैं कि क्या संदिग्ध के आचरण का परिणाम डाउनस्ट्रीम प्रभाव के रूप में होगा या नुकसान पहुंचाएगा।
  2. इससे सरकार के प्रति घृणा, अवमानना (कंटेंप्ट) ​​या असंतोष पैदा हो सकता है या धार्मिक समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा मिल सकता है।
  3. इस तरह के एरर के आधार पर गिरफ्तारी असंवैधानिक रूप से न केवल गिरफ्तार व्यक्ति के भाषण और आचरण (कंडक्ट) में संलग्न (इंगेज) होने की स्वतंत्रता (आर्टिकल 19) बल्कि मनमानी (आर्बिट्ररी) गिरफ्तारी के खिलाफ स्वतंत्रता (आर्टिकल 22) को भी कम कर देगी।
  1. इसने 2009 के संशोधन का नेतृत्व किया, जिसने उन व्यक्तियों को गिरफ्तार करने की शक्ति को प्रतिबंधित कर दिया, जिनके खिलाफ “एक उचित शिकायत” या “उचित संदेह” मौजूद है, या “एक कॉग्निजेबल ऑफेन्स” करने के लिए “विश्वसनीय जानकारी” प्राप्त हुई है।
  2. हालाँकि, उचित शब्द बहुत अस्पष्ट है और इसे मनमानी के अधीन किया जा सकता है।
  • इसलिए, सीआरपीसी न तो मनमानी गिरफ्तारी को रोकता है और न ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता और व्यक्तियों की स्वायत्तता (ऑटोनोमी) के अनुरूप गिरफ्तारी करने के लिए प्रोत्साहन शामिल करता है।

सुधार के लिए प्रस्ताव (वे फॉरवर्ड)

  1. भारत को जर्मनी और फ़्रांस जैसे देशों की जाँच प्रणाली अपनानी चाहिए, जहाँ एक न्यायिक मजिस्ट्रेट जाँच की निगरानी करता है।
  2. कानून और व्यवस्था से जांच विंग को अलग करना।
  3. 2017 तक, भारत में जज-जनसंख्या अनुपात (रेशियों) प्रति मिलियन लोगों पर एक जज है, जबकि दुनिया के कई हिस्सों में प्रति मिलियन जनसंख्या पर 50 जज हैं। इसलिए, सरकार को रिक्त न्यायिक पदों को भरने की जरूरत है।
  4. ऑल इंडिया ज्यूडिशियल सर्विस की स्थापना सही दिशा में एक कदम होगा।
  5. सुप्रीम कोर्ट सहित हाई कोर्ट में एक अलग आपराधिक विभाजन होना चाहिए जिसमें आपराधिक कानून में विशेषज्ञता वाले न्यायाधीश शामिल हों।
  6. मलीमथ कमिटी के अनुसार, कॉग्निजेबल ऑफेन्स और नॉन कॉग्निजेबल ऑफेन्स के वर्तमान वर्गीकरण के बजाय सोशल वेलफेयर कोड, करेक्शनल कोड, क्रिमिनल कोड और इकोनोमिक और अन्य ऑफेंस कोड के रूप में वर्गीकृत करने की आवश्यकता है।
  7. इसने आपराधिक न्याय प्रणाली के कामकाज की पेरियोडिकल रीव्यू के लिए एक राष्ट्रपति आयोग का प्रावधान करने की भी सिफारिश की गई है।

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