सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार: अनुच्छेद 29-30

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Constitution of India
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यह लेख जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल में पढ़ने वाले द्वितीय वर्ष के छात्र Milia Dasgupta ने लिखा है। यह लेख अल्पसंख्यकों (माइनॉरिटी) के सांस्कृतिक (कल्चरल) और शैक्षिक (एजुकेशनल) अधिकारों को शामिल करता है और विषय से संबंधित विभिन्न ऐतिहासिक मामलों पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi kumari ने किया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

हम सभी ने सुना है कि आरक्षण (रिजर्वेशन) की घोषणा करने वाले लिविंग रूम चाचा या गपशप करने वाली चाची हमारे देश को बर्बाद कर रही हैं और उनमें से अधिकांश वह होते है जो प्रवेश के समय पीड़ित होते हैं। लेकिन किसी को रुक कर सोचना चाहिए कि क्या सरकार का झुकाव वास्तव में अल्पसंख्यक समुदायों और उनके शैक्षिक और सांस्कृतिक अधिकारों के लिए शासन करने की ओर है? उस प्रश्न का उत्तर देने के लिए, हमें पहले यह पता लगाना होगा कि अल्पसंख्यक समुदायों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार क्या हैं और सरकार और अदालतें उनसे संबंधित न्यायिक प्रश्नों (ज्यूडिशियल क्वेश्चंस) से कैसे निपटती हैं। यह लेख ऐसे पहलुओं (एस्पेक्ट्स) का विस्तार से पता लगाएगा।

अल्पसंख्यक कौन है?

संविधान का अनुच्छेद 30 दो प्रकार के अल्पसंख्यक समुदायों के बारे में बात करता है – भाषाई (लिंग्विस्टिक) और धार्मिक (रिलिजियस)। लेकिन जब अल्पसंख्यक समुदायों की श्रेणियों को परिभाषित किया जाता है तो सरकार द्वारा इस शब्द की कोई आधिकारिक परिभाषा नहीं दी गई है।

हमारे संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों और सरकार की रिपोर्टों से कुछ संकेत प्राप्त किए जा सकते हैं। अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों की रक्षा करने वाले अनुच्छेद 29(1) में कहा गया है कि “अपनी एक अलग भाषा, लिपि (स्क्रिप्ट) या संस्कृति” वाले किसी भी व्यक्ति को इसे संरक्षित करने का अधिकार है।

पाठ की भाषा से, हम समझ सकते हैं कि विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति वाले समुदाय अल्पसंख्यक समुदायों के अंतर्गत आते हैं। लेकिन बाद के मामलों में जैसे कि बाल पाटिल बनाम भारत संघ और इस्लामी शिक्षा अकादमी बनाम कर्नाटक राज्य में हम देखते हैं कि अदालतें आर्थिक कल्याण (इकोनोमिक वेलफेयर) जैसे अन्य कारकों (फैक्टर्स) पर भरोसा करती हैं ताकि यह तय किया जा सके कि कोई समुदाय अल्पसंख्यक है या नहीं।

धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के संदर्भ में, अल्पसंख्यक अधिनियम (माइनॉरिटी एक्ट) की धारा 2 (c) 5 धर्मों को अल्पसंख्यक समुदायों अर्थात् मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और पारसी (एनसीएमए) के रूप में मान्यता देती है।

एसपी मित्तल बनाम भारत संघ, एआईआर 1983 एससी 1

इस मामले के तथ्य कुछ इस प्रकार है;

तथ्य (फैक्ट)

श्री अरबिंदो न केवल एक उत्कृष्ट (एक्सीलेंट) शिक्षाविद (एकेडमिस्ट) और प्रशासक (एडमिनिस्ट्रेटर) थे, बल्कि वे राजनीतिक कार्यों में भी लगे हुए थे। बाद में, उन्होंने इसे ध्यान (मेडिटेशन) के जीवन के लिए त्याग दिया और तमिलनाडु के पांडिचेरी चले गए। यहीं पर उनकी मुलाकात मैडम एम. अल्फासा से हुई, जो बाद में उनकी शिष्या बनीं, जो बाद में माता के नाम से जानी गईं। बाद में, उनके शिष्यों और माता ने श्री अरबिंदो के आदर्शों और विश्वासों के प्रचार और अभ्यास के लिए श्री अरबिंदो सोसाइटी की स्थापना की।

इस समाज के माध्यम से, संस्थापक अध्यक्ष, माँ यानी मैडम एम. अल्फासा ने ऑरोविले नामक एक बस्ती की स्थापना की, जो लोगों के आने और विभिन्न गतिविधियों में संलग्न (इंगेज) होने के लिए थी। बाद में, संयुक्त राष्ट्र शिक्षा, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने ऑरोविले के विकास में मदद के लिए प्रावधानों को फंड देने के लिए इसकी जिम्मेदारी को अपने ऊपर ले लिया।

जब माँ का निधन हो गया, तो परियोजना के कुप्रबंधन (मिसमैनेजमेंट ऑफ प्रोजेक्ट) और धन के दुरुपयोग जैसी कई समस्याएं सामने आईं, जिससे टाउनशिप का कामकाज और विकास असंभव हो गया। इस प्रकार, यूनेस्को के साथ समझौते के कारण ऑरोविले के अंतर्राष्ट्रीय चरित्र को ध्यान में रखते हुए, तमिलनाडु सरकार ने प्रबंधन (मैनेजमेंट) अपने हाथों में ले लिया और एक राष्ट्रपति अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) दायर किया जो बाद में ऑरोविले (आपातकालीन प्रावधान) अधिनियम, 1980 बन गया।

यह देखते हुए कि सरकार ने एक ‘धार्मिक’ उद्यम (एंटरप्राइज) पर नियंत्रण कर लिया, अधिनियम की संवैधानिक वैधता को 4 आधारों पर चुनौती दी गई। एक आधार यह था कि यह अनुच्छेद 29 और 30 का उल्लंघन किया गया है।

उठाए गए मुद्दे

क्या अधिनियम अनुच्छेद 29 और 30 का उल्लंघन करता है?

फैसला

बेंच ने कहा कि पूर्वोक्त (फॉरसेड) अधिनियम अनुच्छेद 29 और 30 का उल्लंघन नहीं करता है। अदालत ने माना कि यह किसी भी तरह से उनके अधिकार को कम नहीं करता है या किसी भी नागरिक को अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति के संरक्षण से नहीं रोकता है और इस प्रकार अनुच्छेद 29 का उल्लंघन नहीं करता है। 

साथ ही इस मामले में, अनुच्छेद 30 के तहत सुरक्षा प्राप्त करने के लिए, किसी को यह साबित करना होगा कि वे भाषाई या धार्मिक अल्पसंख्यक हैं और उनके द्वारा ही संस्था की स्थापना की गई थी। यह मानते हुए कि ऑरोविले धार्मिक नहीं था और श्री अरबिंदो की विचारधारा पर स्थापित था, वे इन अनुच्छेद के तहत सुरक्षा नहीं मांग सकते थे।

अल्पसंख्यकों के अधिकार

अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ अधिकार निर्धारित किए गए हैं। अनुच्छेद 29 यह सुनिश्चित करता है कि भारत में रहने वाले किसी भी व्यक्ति को एक अलग भाषा, लिपि या संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार है और कोई भी राज्य शैक्षणिक संस्थान या राज्य से सहायता प्राप्त करने वाला कोई भी संस्थान जाति, पंथ आदि के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा। अनुच्छेद 30 सुनिश्चित करता है शैक्षणिक संस्थानों में अल्पसंख्यक समुदायों का अधिकार और उनके खिलाफ भेदभाव को प्रतिबंधित (प्रोहिबिट) करता है।

अल्पसंख्यक समुदायों के लिए आरक्षण और विशेष प्रावधानों के संबंध में, कई लोगों ने तर्क दिया है कि ऐसे प्रावधान ‘क्यूशनिंग’ हैं। लेकिन अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात और अन्य के मामले में, जस्टिस खन्ना ने कहा कि इस तरह के प्रावधान आवश्यक हैं ताकि “किसी को भी यह महसूस न हो कि आबादी का कोई भी वर्ग प्रथम श्रेणी के नागरिक हैं और अन्य द्वितीय श्रेणी के नागरिक है ”। उन्होंने यह भी कहा कि संविधान के अधिकांश मौलिक अधिकार बहुसंख्यकों (मेजॉरिटी) के अधिकारों की रक्षा करते हैं इसलिए आरक्षण अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा करता है।

टीएमए पाई मामले में, न्यायाधीश ने अल्बानिया में अल्पसंख्यक स्कूलों के मामले में अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थायी न्यायालय (परमानेंट कोर्ट ऑफ इंटरनेशनल जस्टिस) की राय पर विचार किया, सलाहकार राय यह थी कि ऐसे प्रावधानों की आवश्यकता है जो अल्पसंख्यक समूहों को उनकी विशिष्ट संस्कृति और लिपि और अल्पसंख्यक धर्मो को अपनी संस्कृति की विशिष्टता को बनाए रखने में मदद करें। जस्टिस खन्ना ने कहा कि “संरक्षण का उद्देश्य अल्पसंख्यक समुदायों को उन विशेषताओं को संरक्षित करने में सक्षम बनाना है जो खुद को अल्पसंख्यक से अलग करता हैं”।

केरल शिक्षा विधेयक मामले में, अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा संचालित (हैंडल्ड) संस्थानों के संबंध में, मुख्य न्यायधिस हिदायतुल्ला ने कहा कि अनुच्छेद 30 (1) अलग-अलग भाषाओं और लिपियों पर सामान्य संरक्षण हो सकता है, लेकिन पसंद के शैक्षिक प्रश्नों को स्थापित करना भी सही है। इस प्रकार यह अधिनियम कम नहीं होता है यदि संस्था का प्राथमिक कार्य अल्पसंख्यक संस्कृति की रक्षा नहीं कर रहा है, यह उन संस्थानों के लिए भी है जो अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा स्थापित और प्रबंधित किए जाते हैं और वे अन्य छात्रों को भी स्वीकार करते हैं।

अनुच्छेद 29(2) और अनुच्छेद 15(1) के बीच अंतर

अनुच्छेद 29 (2) और अनुच्छेद 15 (1) इस तथ्य के कारण बहुत समान हैं कि वे दोनों जाति, नस्ल लिंग आदि के आधार पर भेदभाव को रोकते हैं और कभी-कभी परस्पर अनन्य (म्यूचुअली एक्सक्लूसिव) के रूप में देखे जाते हैं। हालाँकि, दोनो में एक बड़ा अंतर है की अनुच्छेद 15 जाति, नस्ल लिंग, आदि के आधार पर भेदभाव के खिलाफ एक व्यापक दायरा (ब्रोडर एंबिट) प्रदान करता है जबकि अनुच्छेद 29 उन लोगों के लिए विशिष्ट क्षतिपूर्ति (रेस्टिट्यूशन) प्रदान करता है जिन्होंने प्रवेश या प्रवेश के समय राज्य द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों से भेदभाव का सामना किया है।

संविधान के जनक (फादर्स) ने शैक्षणिक संस्थानों (एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन) द्वारा भेदभाव को रोकने के लिए एक अतिरिक्त (एक्स्ट्रा) कदम क्यों उठाया? एक निश्चित समुदाय के फलने-फूलने और बढ़ने के लिए शिक्षा महत्वपूर्ण है। जब ठीक से और कुशलता से शिक्षित किया जाता है, तो व्यक्ति सार्वजनिक सेवाओं में प्रवेश करने और नौकरियों की तलाश करने के लिए सक्षम हो जाता है। शिक्षा के साधनों के बिना, समुदाय केवल सांस्कृतिक रूप से ही नही लेकिन आर्थिक रूप से भी हावी होगा। इस प्रकार, यह अनिवार्य है कि किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय को शिक्षा प्राप्त हो और उसे भेदभाव के विरुद्ध राहत भी मिले।

शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन के लिय अल्पसंख्यकों का अधिकार

अनुच्छेद 30 के तहत, संविधान अल्पसंख्यक समुदायों को शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना (इस्टेबलिश) और प्रबंधन (मैनेज) करने और सरकार द्वारा सहायता प्रदान करने के भेदभाव से खुद को बचाने के लिए प्रावधान प्रदान करता है। अनुच्छेद 29(1) किसी भी नागरिक को अपनी एक अलग भाषा, लिपि या संस्कृति के संरक्षण का अधिकार देता है। जबकि अनुच्छेद 29 (2) भी उनकी रक्षा करता है परन्तु यह प्रत्येक नागरिक के लिए  है और विशेष रूप से अल्पसंख्यक समूहों के लिए नहीं बनाया गया है।

न्यायिक इतिहास में सबसे बड़ी बहसों में से एक बहस यह रही है कि क्या इन संस्थानों का प्रबंधन करते समय अल्पसंख्यक समुदायों को स्वायत्तता (ऑटोनोमी) का अधिकार है। इस तरह के सवालों ने प्रसिद्ध टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य के मामले को जन्म दिया  जिसमें 11 जजों की बेंच थी। वर्तमान समय में, आम सहमति यह है कि सरकारों को ऐसे संस्थानों को विनियमित (रेगूलेट) करने की अनुमति तब तक दी जाती है जब तक कि इस तरह के विनियमन अकादमिक उत्कृष्टता (एकेडमिक एक्सलेंस) सुनिश्चित करने के प्रयास में हैं और यह अल्पसंख्यक संस्थान के चरित्र को नुकसान नहीं पहुंचाता है।

संवैधानिक (44वां संशोधन) अधिनियम, 1978

संवैधानिक (44वां संशोधन) अधिनियम ने अनुच्छेद 19 के तहत संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप से हटा दिया गया था। हालांकि, यह सुनिश्चित करता है कि “मौलिक अधिकारों की सूची से संपत्ति के अधिकार को हटाने से अल्पसंख्यक समुदायों को उनकी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकार पर कोई प्रभाव नहीं होगा। 

अनुच्छेद 29(1) और 30(1) के बीच संबंध

अनुच्छेद 29(1) उन समुदायों के सदस्यों के अधिकारों की रक्षा करता है जिनकी भाषा, संस्कृति और लिपि अलग है।

अनुच्छेद 30(1) शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन के संबंध में अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा करता है।

इस प्रकार दोनों अधिनियम अल्पसंख्यक अधिकारों को अपने स्वयं के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन की सुविधा प्रदान करते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि 29(1) में यह परिभाषित करने का प्रयास किया गया है कि अल्पसंख्यक समुदाय कौन हैं। अनुच्छेद लगभग समान होने के कारण, कई लोग यह मान सकते हैं कि सुरक्षा की मांग करते समय, आप दोनो में से केवल एक अधिकार के तहत सुरक्षा प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य में, यह कहा गया था कि अनुच्छेद 29(1) और 30(1) परस्पर अनन्य नहीं है।

अल्पसंख्यक संचालित शैक्षणिक संस्थानों को विनियमित करने की सरकार की शक्ति

सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य, एआईआर 1974 एससी 1389

तथ्य

सेंट जेवियर्स कॉलेज, गुजरात विश्वविद्यालय अधिनियम, 1949 के तहत संबद्ध (एफिलिएटेड) एक धार्मिक संप्रदाय (डिमोनिशन), न केवल ईसाइयों को बल्कि अन्य धर्मों और पंथों के छात्रों को भी शिक्षा प्रदान करता है। उन्होंने गुजरात विश्वविद्यालय अधिनियम, 1972 की धारा 35-A, 40, 41, 51-A और 52-A को चुनौती दी थी, जो अल्पसंख्यक समुदायों के शिक्षकों और छात्रों की नियुक्ति से संबंधित है। उन्होंने कहा कि इस अधिनियम ने विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का अतिक्रमण (इंक्रोच) किया है।

पार्टियों का विवाद (कंटेंशन ऑफ द पार्टीज)

  • संविधान का अनुच्छेद 29 (1) एक नागरिक के अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति को संरक्षित करने के अधिकार की रक्षा करता है, और अनुच्छेद 30 (1) में कहा गया है कि अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी संस्थाओं को स्थापित करने और प्रबंधित (रिस्ट्रिक्ट)करने का अधिकार है।
  • अनुच्छेद 30(2) में यह भी कहा गया है कि सरकार को अल्पसंख्यक प्रबंधन के तहत किसी भी संस्था के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए।
  • अनुच्छेद 32 के तहत, उन्हें न केवल अपनी पसंद के संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार है बल्कि उन्हें संबद्धता (एफिलिएशन) का भी अधिकार है (स्वतंत्र रूप से संचालित करने का अधिकार होगा लेकिन राज्य सरकार के साथ औपचारिक सहयोगात्मक समझौता (फॉर्मल कॉलेब्रेटिव अग्रीमेंट) भी रखना होगा)।

विपक्ष ने कहा कि अनुच्छेद 29 और 30 परस्पर अनन्य हैं और इन अधिनियमों के तहत संरक्षण एक ही समय में नहीं लाया जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि संबद्धता एक मौलिक अधिकार नहीं है और यदि वे संबद्ध होना चाहते हैं तो अल्पसंख्यक संस्थान को प्रावधान का पालन करना चाहिए। एक और तर्क यह था कि जब तक कानून अनुच्छेद 30 (1) के तहत अल्पसंख्यक अधिकारों का पूर्ण उल्लंघन नहीं किया गया है, तब तक अधिनियम को रद्द करने का कोई कारण नहीं है। उन्होंने दलील दी कि अदालत विवादित धाराओं (डिस्प्यूटेड सेक्शंस) की खोज में क़ानून और अध्यादेश जारी होने तक प्रतीक्षा करें।

फैसला

यह माना गया था कि

  • अनुच्छेद 29 और 30 परस्पर अनन्य नहीं थे।
  • जबकि संबद्धता मौलिक अधिकार नहीं है, ऐसे संस्थानों के सार्थक (मीनिंगफुल) प्रबंधन और स्थापना के लिए यह आवश्यक है।
  • अधिनियम की धारा 35-A, 40, 41, 51-A और 52-A अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होगी क्योंकि वे अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन के अपने मौलिक अधिकार के साथ छेड़छाड़ करते हैं।

मुख्य न्यायाधीश रे और न्यायधिश पालेकर,  ने कहा कि उनके अधिकारों को केवल उन संस्थानों तक सीमित करना गलत होगा जो भाषा, लिपि और संस्कृति का प्रबंधन करते हैं।यह अधिनियम को बेमानी (रेडुंडेंट) बना देगा। यह मानना ​​भी गलत है कि अनुच्छेद 29 और 30 परस्पर अनन्य हैं क्योंकि अनुच्छेद 29 सभी नागरिकों के लिए है, जबकि अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए रखा गया था। इस प्रकार अनुच्छेद 30 को अनुच्छेद 29 के विस्तार के रूप में माना जाना चाहिए।

न्यायधीश जगनमोहन रेड्डी, ने कहा कि संबद्धता एक मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन राज्य इसे कुछ नियमों का पालन करने के लिए किसी संस्था को मजबूर करने के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग नहीं कर सकता है। संस्थान को “अपने संस्थान स्थापित करने, अपने स्वयं के पाठ्यक्रम निर्धारित करने, अपनी पसंद के विषयों में निर्देश (डायरेक्शन) प्रदान करने, परीक्षा आयोजित करने और डिग्री या डिप्लोमा प्रदान करने, उनकी डिग्री और डिप्लोमा के लिए मान्यता प्राप्त करने और सहायता मांगने का अधिकार है जहां उन्हें सहायता दी जाती है। अन्य शैक्षणिक संस्थान”। राज्य केवल संस्था की उत्कृष्टता के आधार पर भेदभाव कर सकता है।

अधिनियम की विभिन्न विवादित धाराओं के संबंध में, पीठ की आम सहमति यह थी कि अल्पसंख्यक प्रबंधित संस्थानों को इस तरह की सरकारी घुसपैठ (इंट्रूजन) के बिना कार्य करने का अधिकार था।

पुन केरल शिक्षा विधेयक, एआईआर 1958 एससी 956

तथ्य

इस मामले में संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति ने केरल शिक्षा अधिनियम 1958 के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। अपनी कई पूछताछों में से, राष्ट्रपति ने खंड (क्लॉज) 3 के उप-खंड (5) पर सवाल उठाया, जिसमें कहा गया था कि ‘कोई भी नया स्कूल या कोई उच्च वर्ग जो की भारत में खोला गया है। कोई भी निजी स्कूल जो सरकारी विनियमन (गवर्मेंट रेगुलेशन) के मानकों (स्टैंडर्ड्स) पर खरा नहीं उतरा, उसे सरकार द्वारा मान्यता नहीं दी जाएगी’।

राष्ट्रपति का प्रश्न था कि क्या सरकार को ऐसी शक्ति देना अनुच्छेद 30 का उल्लंघन होगा क्योंकि अल्पसंख्यक समुदायों को अपने स्वयं के संस्थानों को प्रबंधित करने और स्थापित करने का अधिकार है।

उठाए गए मुद्दे

जबकि अल्पसंख्यक समुदायों को प्रशासन का अधिकार है, क्या उन्हें कुशासन (मालएडमिनिस्टर) का भी अधिकार है?

फैसला

यह माना गया कि अल्पसंख्यक समूहों को कुप्रशासन का अधिकार नहीं था। मुख्य न्यायाधीश दास ने कहा, “राज्य द्वारा उचित नियम निश्चित रूप से सहायता या मान्यता के लिए एक शर्त के रूप में लगाए जा सकते हैं”।

इसने यह भी कहा कि अल्पसंख्यक समुदायों के लिए अनुच्छेद 30 के तहत अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए शैक्षणिक संस्थान खोलना आवश्यक था, सभी शैक्षणिक संस्थान अनुच्छेद 29 (2) के अधीन हैं, जिसमें कहा गया है कि राज्य या राज्य सहायता प्राप्त संस्थानों में सभी नागरिकों के साथ जाति, लिंग, पंथ आदि के आधार पर प्रवेश के समय भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। 

शैक्षणिक संस्थानों पर सरकारी विनियमन और अनुच्छेद 29(2) पर अदालत की राय को ऐतिहासिक मामलों के लिए प्रेरक उदाहरण के रूप में इस्तेमाल किया गया है। इसका एक उदाहरण है टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य का मामला।

सिद्धराजभाई बनाम गुजरात राज्य, एआईआर 1963 एससी 540

तथ्य

याचिकाकर्ता यानी पिटीशनर (सिद्धराजभाई) एक ऐसे समाज के सदस्य हैं, जिसने शिक्षकों के लिए एक प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) स्कूल सहित कई शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए हैं। बॉम्बे सरकार ने एक आदेश जारी किया कि गैर-सरकारी प्रशिक्षण स्कूलों में 80% शिक्षण सीट सरकार द्वारा चुने गए उम्मीदवारों के लिए आरक्षित होगी। सरकार ने उस प्रशिक्षण विद्यालय के प्रिंसिपल को भी निर्देश दिया कि वे शैक्षिक निरीक्षक (एजुकेशनल इंस्पेक्टर) की अनुमति के बिना कक्षा के 20% से अधिक निजी छात्रों को प्रवेश न दें।

प्रिंसिपल ने आदेशों का पालन करने में असमर्थता व्यक्त की और सरकार ने उन्हें अनुशासनात्मक कार्रवाई (डिसिप्लिनरी एक्शन) की धमकी दी। समाज ने यह कहते हुए सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया कि इस आदेश ने अनुच्छेद 30 सहित उनके कई मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है।

 उठाया गया मुद्दा

क्या सरकार के आदेशों ने अनुच्छेद 30 का उल्लंघन किया?

फैसला

आदेशों ने अनुच्छेद 30 का उल्लंघन किया है। अनुच्छेद 30 एक पूर्ण अधिकार है और अनुच्छेद 19 के विपरीत, इसे ‘उचित प्रतिबंध (रीजनेबल रिस्ट्रिक्शन)’ के अधीन नहीं किया जा सकता है। यह कहा गया था कि ऐसा अधिकार अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा और उनके अपने शिक्षण संस्थानों के प्रबंधन के अधिकार के लिए है। यदि नाम में इसे कम कर दिया जाए तो उचित प्रतिबंध हो तो यह केवल एक भ्रम होगा और इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। केरल शिक्षा विधेयक मामले का हवाला दिया गया था क्योंकि उस मामले में यह माना गया था कि राज्य शैक्षणिक संस्थानों पर कानून तभी लागू कर सकता है जब ऐसे प्रतिबंध “अल्पसंख्यक संस्थान के चरित्र” के लिए हानिकारक न हों। इस प्रकार, जब तक ये विधायी प्रतिबंध (लेजिस्लेटिव रिस्ट्रिक्शन) संस्था को अपने अल्पसंख्यक चरित्र को बनाए रखने में मदद करते हुए शैक्षिक उत्कृष्टता की दिशा में सहायता नहीं करते हैं, तब तक अदालत उन्हें ध्यान में नहीं रखेगी।

मान्यता या संबद्धता का अधिकार, मौलिक अधिकार नहीं है (राईट ऑफ रिकॉग्निशन और एफिलिएशन, नॉट ए फंडामेंटल राइट)

जब अल्पसंख्यक समुदायों का शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, तो यह आपको आश्चर्यचकित करता है कि क्या संबद्धता या मान्यता भी एक मौलिक अधिकार है? दिन के अंत में, किसी संस्था को पर्याप्त (सफीशिएंट) उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए, यह अनिवार्य है कि उन्हें राज्य से किसी प्रकार की मान्यता या संबद्धता प्राप्त हो।

यह सटीक प्रश्न सिद्धराज भाई बनाम गुजरात राज्य में लाया गया था। जबकि अदालत ने संबद्धता के महत्व को पहचाना, उन्होंने इनकार किया कि यह एक मौलिक अधिकार था। बाद में टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य और पी.ए. इनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य, यह माना गया कि सरकार को ऐसे नियम और कानून स्थापित करने की अनुमति है जिनका पालन संस्थानों को संबद्धता प्राप्त करने के लिए करना चाहिए और ये नियम शैक्षिक उत्कृष्टता की खोज में होने चाहिए।

गैर सहायता प्राप्त (नॉन-एडेड) अल्पसंख्यक संस्थानों में छात्रों का प्रवेश और शिक्षकों की योग्यता

टी.एम.ए. के मामले के माध्यम से पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य और पी.ए. इनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में अदालतों की आम सहमति (जेनरल कंसेंसस) यह है कि ऐसे संस्थानों के पास प्रबंधन पर स्वायत्तता है, ऐसे संस्थानों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रवेश के दौरान वे अनुच्छेद 29 (2) का पालन करते हैं जिसमे बहुसंख्यक समुदाय के छात्रों और नियोक्ताओं (एंप्लॉयर्स) को भी प्रवेश दिया जाना चाहिए। 

सहायता प्राप्त (एडेड) अल्पसंख्यक संस्थानों में प्रवेश

सरकार के पास फीस संरचना (स्ट्रक्चर), छात्रों के प्रवेश और शिक्षकों के रोजगार सहित ऐसे संस्थानों के प्रबंधन को विनियमित करने का अधिकार है। स्थानीय आवश्यकता के आधार पर उनके पास निश्चित कोटा भी होगा।

गैर-अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान चलाने का अधिकार

दो अधिकार हैं, अनुच्छेद 19(1)(g) जो की पेशे का अधिकार (राइट टू प्रोफेशन) देता है (अनुच्छेद 19(6) में प्रतिबंधों के अधीन है) और अनुच्छेद 26 जो शैक्षणिक संस्थानों को बनाए रखने और स्थापित करने के लिए सभी धार्मिक संप्रदायों का अधिकार देता है।

टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य, एआईआर 2003 एससी 355

तथ्य

सेंट स्टीफंस कॉलेज बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय का मामला, जिसकी पहले 5 जजों की बेंच द्वारा समीक्षा (रिव्यू) की गई थी, जिसे अल्पसंख्यक अधिकारों की स्थिति तय करने के लिए 6 जजों की बेंच और फिर 11 जजों की बेंच को स्थानांतरित (ट्रान्सफर) कर दिया गया था।

उठाए गए मुद्दे

मुख्य न्यायाधीश कृपाल ने 5 मुख्य प्रश्न तैयार किए, जो अनुच्छेद के लिए प्रासंगिक (रिलेवेंट) हैं, उन्हें नीचे बताया गया है-

  1. “क्या शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने का मौलिक अधिकार है और यदि हां, तो वह किस प्रावधान के तहत है?”
  2. निजी विश्वविद्यालयों को किस हद तक विनियमित किया जा सकता है?
  3. “अनुच्छेद 30 के संबंध में एक धार्मिक अल्पसंख्यक के अस्तित्व को निर्धारित करने के लिए, इकाई (यूनिट) क्या होनी चाहिए?”
  4. “सहायता प्राप्त निजी अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकारों को किस हद तक विनियमित किया जा सकता है?”

फैसला

  1. गैर-अल्पसंख्यक समूहों के लिए, दो अधिकार हैं अनुच्छेद 19(1)(g) [पेशे का अधिकार जो अनुच्छेद 19(6) के प्रतिबंधों के अधीन है] और अनुच्छेद 26 जो “सभी नागरिकों और धार्मिक संप्रदायों को अधिकार देता है जो की शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और रखरखाव करने के लिए ” है। अल्पसंख्यक समुदायों के लिए, संविधान द्वारा अनुच्छेद 29(1) और अनुच्छेद 30(1) प्रदान किया गया है।

शैक्षिक संस्थानों की स्थापना के संबंध में अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकार में छात्रों और शिक्षकों का चयन करने की विधि (मेथड) तय करने का अधिकार भी शामिल है। यह निष्पक्ष (अनबायस्ड), पारदर्शी (ट्रांसपेरेंट) और सबसे महत्वपूर्ण योग्यता के आधार पर होना चाहिए। गैर सहायता प्राप्त स्कूलों का भी यही हाल है।

लेकिन ऐसे अधिकारियों के लिए प्रवेश के दौरान अनुच्छेद 29 (2) का पालन करना महत्वपूर्ण है। उन्हें प्रवेश के समय लिंग, नस्ल, पंथ आदि के आधार पर छात्रों, विशेषकर बहुसंख्यक समुदाय के छात्रों के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए।

  1. इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए निजी संस्थानों को तीन श्रेणियों में बांटा गया है-
  • निजी गैर-सहायता प्राप्त गैर-अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान- हालांकि सरकार संबद्धता के लिए नियम और कानून (अकादमिक उत्कृष्टता के आधार पर) निर्धारित कर सकती है, लेकिन संस्थान का प्रबंधन स्वायत्त होना चाहिए।
  • निजी गैर सहायता प्राप्त व्यावसायिक (प्रोफेशनल) कॉलेज- फीस संरचना और प्रवेश जैसे पहलुओं के संबंध में उनके पास स्वायत्तता है। लेकिन ऐसे कॉलेजों को योग्यता के सिद्धांत को नहीं छोड़ना चाहिए और कुछ सीटें आरक्षित करनी चाहिए। ये सीटें प्रबंधन के विवेक (डिस्क्रीशन) पर उन लोगों के लिए आरक्षित होंगी जिन्होंने प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की है। बाकी सीटें राज्य द्वारा काउंसलिंग के आधार पर लोगों को मिलनी चाहिए। संबद्धता के लिए, इसे प्राप्त करने के लिए नियम और कानून प्रकृति में एकजुट नहीं होने चाहिए।
  • निजी सहायता प्राप्त व्यावसायिक संस्थान (गैर-अल्पसंख्यक) – चूंकि सरकार सहायता दे रही है, वे प्रबंधन के लिए कुछ नियम और कानून निर्धारित कर सकते हैं। वे शुल्क संरचना, छात्रों के लिए प्रवेश और शिक्षकों की नियुक्ति के लिए दिशा-निर्देश भी दे सकते हैं।
  • अन्य सहायता प्राप्त संस्थान- ऐसे संस्थानों के लिए सरकार नियम और कानून बना सकती है।
  1. भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत “अल्पसंख्यक” अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) के रूप में कवर किए गए हैं। केंद्रीय और राज्य दोनों कानूनों के संबंध में, राज्य को यह तय करने के लिए इकाई के रूप में लिया जाएगा कि एक निश्चित समुदाय अल्पसंख्यक है या नहीं। क्या होता है जब एक समुदाय जो देश में अल्पसंख्यक है, एक निश्चित राज्य में बहुसंख्यक है, उसे बिना उत्तर दिए छोड़ दिया गया था।
  2. अनुच्छेद 30(1) कानून या सरकारी नियमों को ओवरराइड नहीं करता है, ऐसे नियमों को ध्यान में रखते हुए अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के चरित्र को नष्ट नहीं करता है। स्वास्थ्य और नैतिकता (मॉरलिटी) जैसे विषयों से संबंधित कानून अभी भी उन पर लागू होते हैं। यह अनुच्छेद 30 के शब्दों की प्रकृति के बावजूद है। विनियम जो अकादमिक उत्कृष्टता सुनिश्चित करते हैं और शिक्षकों और छात्रों के कल्याण के लिए हैं, अभी भी लागू होते हैं।

जब ऐसे संस्थानों को सहायता दी जाती है, तो उसमें कुछ शर्तें या नियम नहीं होने चाहिए जो संस्था के प्रबंधन और प्रकृति को नुकसान पहुंचाते हैं। लेकिन अगर ऐसे नियम इसके प्रबंधन और चरित्र के लिए हानिकारक नहीं हैं, तो यह अनुच्छेद 30 का उल्लंघन नहीं है।

इस्लामी शिक्षा अकादमी बनाम कर्नाटक राज्य, एआईआर 2003 एससी 3724

इस मामले के तथ्य कुछ इस प्रकार है-

तथ्य

टीएमए पाई मामले के कई प्रश्नों का समाधान किया गया। इस मामले का महत्व यह है कि टीएमए पाई फाउंडेशन मामले में विभिन्न खामियों को दर्शाता है, विशेष रूप से प्रबंधन के संबंध में सीटों के आरक्षण और संस्थानों की स्वायत्तता के संबंध में।

फैसला

  • जिन शिक्षण संस्थानों को राज्य द्वारा सहायता नहीं दी जाती है, वे स्वायत्तता के हकदार हैं, उन्हें योग्यता के सिद्धांत की अवहेलना (डिसरिगार्ड) नहीं करनी चाहिए।
  • गैर-सहायता प्राप्त गैर-अल्पसंख्यक संस्थानों का प्रबंधन उन छात्रों के लिए निश्चित संख्या में सीटें आरक्षित कर सकता है, जिन्होंने प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की थी, लेकिन शेष छात्रों को राज्य द्वारा विनियमित परामर्श (काउंसलिंग) से उत्तीर्ण होना चाहिए।
  • इन गैर सहायता प्राप्त कॉलेजों को भी वंचितों के लिए प्रावधान करना चाहिए।
  • सीट का प्रतिशत इलाके और ऐसे क्षेत्र की जरूरतों के हिसाब से तय किया जाना चाहिए। अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक समूहों के लिए अलग-अलग प्रतिशत तय किए जा सकते हैं।
  • पीठ ने अनुच्छेद 19 को गैर-अल्पसंख्यक समुदायों के लिए शैक्षणिक संस्थानों के प्रबंधन का अधिकार और अनुच्छेद 30 (1) को अल्पसंख्यक समुदायों के लिए शैक्षणिक संस्थानों के प्रबंधन का अधिकार माना।
  • सीटों के अप्रोप्रेशन (अप्रूपरिएशन) को ‘उचित नियमन’ या अल्पसंख्यक समुदायों के हितों में एक विनियमन के रूप में नहीं माना जा सकता है।
  • पीठ ने यह भी कहा कि वे निजी विश्वविद्यालयों में शुल्क संरचना और प्रवेश प्रक्रिया की निगरानी के लिए समितियों का गठन करेंगे।

पी.ए. इनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य: निजी शैक्षणिक संस्थान में आरक्षण अनुच्छेद 30 और 19(1)(g) का उल्लंघन है

इस मामले के तथ्य कुछ इस प्रकार है;

तथ्य

टी.एम.ए. पाई के फैसले से कई और प्रश्नों को संबोधित किया गया और इस्लामिक एजुकेशनल अकादमी मामले की भी समीक्षा की गई। यह फैसला इस्लामिक एकेडमी ऑफ एजुकेशन के फैसले के खिलाफ जाता है और वापस पाई पर वापस जाता है।

फैसला

  • केरल शिक्षा विधेयक मामले के संबंध में, लोहोटी, सी.जे. ने शैक्षणिक संस्थानों (अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक दोनों) की सुरक्षा की राशि को अनुच्छेद 30 से तीन श्रेणियों में विभाजित किया है।
  1. गैर-सहायता प्राप्त या गैर-मान्यता प्राप्त संस्थान जो इस अनुच्छेद के तहत अपने “दिल की सामग्री” के लिए सुरक्षा का आनंद ले सकते हैं।
  2. राज्य से संबद्धता या मान्यता मांगने वाले संस्थानों को सरकार द्वारा लागू नियमों और विनियमों का पालन करना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब इस तरह के विनियमों की प्रकृति संस्था के लाभ के लिए है।
  3. राज्य सहायता प्राप्त करने वाले संस्थानों को धन के प्रबंधन के संबंध में नियमों का पालन करना चाहिए। अनुच्छेद 29 (2) भी लागू होगा क्योंकि उन्हें गैर-अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों को प्रवेश देना होगा।
  • पीठ उन नीतियों (पॉलिसी) पर भी रोक लगाती है जिनमें पिछड़े वर्गों के नागरिकों के लिए सीटें आरक्षित करने के लिए गैर-सहायता प्राप्त निजी कॉलेजों की आवश्यकता होती है। उनका मानना ​​है कि ऐसी नीतियों से सीटों का ‘राष्ट्रीयकरण’ होगा। उनका मानना ​​है कि इस तरह की नीतियों ने स्वायत्त रूप से शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन के लिए अल्पसंख्यक समुदायों के अनुच्छेद 30 का उल्लंघन किया और किसी भी व्यापार या पेशे का अभ्यास करने के लिए गैर-अल्पसंख्यक कॉलेजों के 19 (1) (g) का उल्लंघन किया। इसके बजाय, उन्होंने राज्य को प्रबंधन के बीच सीटों के बंटवारे के कोटे को नियंत्रित करने दिया।
  • दिलचस्प बात यह है कि वे अनिवासी भारतीयों या एनआरआई के लिए सीटों के आरक्षण की अनुमति देते हैं। इसके पीछे वे कारण बताते हैं कि ऐसे छात्रों से ली जाने वाली उच्च फीस समाज के कमजोर वर्गों के छात्रों की मदद कर सकती है।
  • गैर-सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों में प्रवेश प्रक्रिया के संबंध में, बेंच ने फैसला किया कि शिक्षा के विभिन्न स्तरों में प्रवेश के लिए योग्यता महत्वपूर्ण है, लेकिन शिक्षा के बढ़ते स्तर के साथ इसका महत्व बढ़ जाता है। हो सकता है कि किंडरगार्टन में प्रवेश में मेरिट की ज्यादा भूमिका न हो, लेकिन कॉलेज प्रवेश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • पीठ यह भी निर्णय लेती है कि प्रत्येक संस्थान को अपना स्वयं का शुल्क ढांचा स्थापित करने की अनुमति है, लेकिन अत्यधिक मुनाफाखोरी को रोकने के लिए इसे नियमों के अधीन किया जाएगा।
  • और आखिरी, लेकिन सबसे विवादास्पद, बेंच ने कहा कि इस्लामिक एकेडमी ऑफ एजुकेशन का मामला टीएमए पाई से अधिक नहीं होगा। निजी विश्वविद्यालयों की फीस संरचना और प्रवेश प्रक्रिया की निगरानी के लिए समितियां नहीं होंगी।

जैन समुदाय अल्पसंख्यक नहीं है

बाल पाटिल बनाम भारत संघ के मामले में, इस बात पर बहस हुई कि क्या अल्पसंख्यक अधिनियम की धारा 2 (c) के तहत जैन अल्पसंख्यक बन सकते हैं। अदालत ने इस दावे को खारिज कर दिया और कहा कि उसके पास वैधानिक कर्तव्य हैं। उन्होंने यह भी कहा-

“इससे पहले कि केंद्र सरकार अधिनियम की धारा 2 (c) के तहत जैनियों के ‘अल्पसंख्यक’ के दावों पर निर्णय लेती है, पहचान राज्य के आधार पर की जानी चाहिए। केंद्र सरकार की शक्ति का प्रयोग न केवल आयोग की सलाह और सिफारिश पर बल्कि प्रत्येक राज्य में जैन समुदाय की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थितियों पर विचार करने पर किया जाना है। सांख्यिकीय (स्टेटिस्टिकल) डेटा यह दिखाने के लिए तैयार किया गया है कि एक समुदाय संख्यात्मक रूप से अल्पसंख्यक है और इसका एकमात्र मानदंड (स्टैंडर्ड) नहीं हो सकता है।”

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

इस लेख के माध्यम से हमने न केवल यह समझने की कोशिश की है कि सरकार किसे अल्पसंख्यक मानती है, बल्कि अल्पसंख्यक कॉलेजों के लिए वर्तमान आरक्षण नीतियों को तय करने के लिए सरकार ने किस तर्क का इस्तेमाल किया है। हमने उस कठिन प्रक्रिया को देखा है जिसके माध्यम से ‘अल्पसंख्यक किसे माना जा सकता है’ और ‘क्या संबद्धता एक मौलिक अधिकार है’ जैसे आवश्यक प्रश्न हैं। हालांकि यह स्पष्ट है कि हमारी न्यायपालिका ने सांस्कृतिक और शैक्षिक अल्पसंख्यक अधिकारों के क्षेत्र में व्यापक काम किया है, ऐसा लगता है कि हमें मीलों दूर जाना है।

 

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