सी.पी.सी. के तहत पक्षों की मृत्यु, उनका विवाह और दिवाला

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Civil Procedure Code

यह लेख सिम्बायोसिस लॉ स्कूल नोएडा में प्रथम वर्ष में पढ़ रहे कानून के छात्र Gurkaran Babrah द्वारा लिखा गया है। यह लेख सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत पक्षों की मृत्यु, विवाह और दिवालेपन (इंसोल्वेसी) से संबंधित प्रावधानों का एक अवलोकन (ओवरव्यू) प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Shubhya Paliwal  द्वारा किया गया है।

परिचय

पक्षों की मृत्यु, विवाह और दिवाला, ये तीन अलग-अलग अवधारणाएँ हैं। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत इनका उल्लेख और चर्चा की गई है। पक्षों की मृत्यु, विवाह और दिवालियेपन के मामलों में क्या होता है, यह सब चर्चा उनसे संबंधित शीर्षकों के तहत की गई है। इन तीनों मामलों में प्रत्येक के लिए अलग-अलग प्रावधान हैं। मृत्यु के मामलों में एक सामान्य नियम यह कहता है कि किसी एक पक्ष की मृत्यु के साथ वाद समाप्त नहीं होगा। इसी तरह इस लेख में सिविल प्रक्रिया संहिता के अनुसार सभी प्रावधानों पर चर्चा की गई है और संबंधित मामले भी दिए गए है।

पक्ष की मौत

कार्यवाही के दौरान यदि किसी एक पक्ष की मृत्यु हो जाती है या जब  पक्षों की मृत्यु, विवाह या दिवालिया होने जैसे वाद की आकस्मिकताएँ (कंटिंजेंसीज) उत्पन्न होती हैं तब क्या होगा?

इस तरह की स्थितियों के लिए कानून के तहत मानक प्रक्रिया (स्टैंडर्ड प्रोसीजर) या मानक अभ्यास (स्टैंडर्ड प्रैक्टिस) क्या है? यह स्वाभाविक रूप से हमें वाद के लम्बित रहने की अवधारणा की ओर ले जाती है क्योंकि यह वाद के प्रारंभ और निर्णय के पारित होने के चरण के बीच आता है।

ऐसी स्थिति कुछ ऐसी मांग करती है जो वाद के लम्बित होने की समस्या को हल करने में मदद करती है और उसी को समनुदेशन के निर्माण (क्रिएशन ऑफ असाइनमेंट) या पक्षों के हितों के हस्तांतरण (डेवोल्यूशन) द्वारा निपटाया जा सकता है।

समनुदेशन बनाने और हितों के हस्तांतरण की प्रक्रिया बहुत विस्तृत है और इसे सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 22 के तहत परिभाषित किया गया है। इस संहिता के आदेश 22 के तहत निर्धारित प्रक्रिया को लागू किया जाता है और न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए विचार किया जाता है।

किसी एक पक्ष की मृत्यु के मामले में क्या होगा? या इस प्रकार की स्थिति में किस प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए? इन सभी प्रकार के प्रश्नों के उत्तर सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 22 के तहत हल किए जाते हैं। उस तरह की स्थिति में, मूल प्रश्न जिसे किसी भी हित के निर्माण के लिए परीक्षण के रूप में माना जाता है, वह वाद दायर करने के अधिकार का अस्तित्व है। किसी भी पक्ष की मृत्यु के साथ वाद समाप्त नहीं होना चाहिए। यदि वाद जारी रखा जाता है तो मामला आगे बढ़ाने के लिए कोई उचित कारण नहीं रह जाएगा। ये प्रावधान संहिता के आदेश 22 के नियम 1-6, 9 और 10 (क) के तहत स्पष्ट रूप से प्रदान किए गए हैं।

पहला प्रावधान उन मामलों के बारे में बात करता है जिनमें सह-वादी या सह-प्रतिवादी हैं और वाद दायर करने का अधिकार भी है। ऐसी स्थिति जहां कई वादी में से एक की मृत्यु हो गई हो और जीवित वादी या वादी के पक्ष में वाद चलाने का अधिकार हो, ऐसे मामले में न्यायालय इन सभी तथ्यों को दर्ज करेगी और वाद को आगे बढ़ाएगी।

दूसरी ओर, एक ऐसी स्थिति जहां कई प्रतिवादी या प्रतिवादियों में से एक की मृत्यु हो गई है और वाद दायर करने का अधिकार जीवित प्रतिवादी या प्रतिवादी के पक्ष में है, ऐसे मामले में न्यायालय तथ्य को लिखित रूप में बताकर वाद को आगे बढ़ाएगी।

इसके विपरीत, एक ऐसी स्थिति जहां वाद दायर करने का अधिकार नहीं रहता है या जहां कई वादी में से एक की मृत्यु हो जाती है और वाद दायर करने का अधिकार जीवित वादी के लिए नहीं रहता है या यहां तक ​​कि ऐसी स्थिति जहां एकमात्र जीवित वादी की मृत्यु हो जाती है वहां वाद का अधिकार ऐसे मामले में रखने के लिए, कानूनी प्रतिनिधि द्वारा आवेदन किया जाता है, और न्यायालय मृतक पक्ष के कानूनी प्रतिनिधियों को वाद के साथ आगे बढ़ने के लिए आदेश देती है।

और, यदि निर्धारित अवधि के भीतर कोई आवेदन नहीं किया जाता है, तो जहां तक ​​मृतक वादी का संबंध है, वाद समाप्त हो जाएगा। यदि प्रतिवादी द्वारा एक आवेदन किया जाता है, तो अदालत उसे मृतक वादी की संपत्ति से वह खर्च प्रदान करेगी जो उसने वाद का बचाव करने में खर्च किया हो।

इसी तरह की स्थिति में, यदि कई प्रतिवादियों में से एक की मृत्यु हो जाती है और वाद करने का अधिकार प्रतिवादी के खिलाफ जीवित नहीं रहता है या जहां एकमात्र जीवित प्रतिवादी मर जाता है, ऐसी स्थिति में न्यायालय मृतक प्रतिवादी पक्ष के कानूनी प्रतिनिधि को वाद को आगे बढ़ाने के लिए अनुमति प्रदान करेगी।

लेकिन इसमें एक शर्त यह भी है कि यदि निर्दिष्ट समय अवधि के भीतर कोई आवेदन नहीं किया जाता है, तो मृतक प्रतिवादी के खिलाफ वाद समाप्त हो जाएगा और अदालत के विवेकाधिकार (डिस्क्रिशन) से वादी को गैर-प्रतियोगी (नॉन कॉन्टेस्टिंग और प्रो फॉर्मा) प्रतिवादी के कानूनी प्रतिनिधियों को प्रतिस्थापित करने से छूट मिल जाएगी और उसकी मृत्यु के बावजूद भी निर्णय सुनाया जाएगा।

ऐसा मामला जिसमें वादी को कोई जानकारी नहीं थी या यदि वह प्रतिवादी की मृत्यु से अनभिज्ञ था और इसके परिणामस्वरूप वह निर्धारित अवधि के भीतर आवेदन नहीं कर सका और वाद समाप्त हो गया, तो वादी यह कर सकता है कि निर्धारित अवधि के भीतर इस तरह के उपशमन (अबेटमेंट) के लिए एक आवेदन करें और उक्त आवेदन पर विचार करते हुए न्यायालय को वादी की इस तरह की अज्ञानता के तथ्य पर ध्यान देना होगा क्योंकि वह अदालत ही है जिसे मृत व्यक्ति के हितों का निर्धारण करना है।

एक स्थिति जहां सुनवाई की प्रक्रिया और निर्णय की घोषणा के दौरान किसी भी पक्ष की मृत्यु हो जाती है, वह स्थिति सबसे भ्रमित करने वाली स्थिति में से एक है। इस तरह की स्थिति का समाधान सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 22 के नियम 6 के तहत प्रदान किया गया है। ऐसी स्थिति में, वाद करने के अधिकार और कार्रवाई के कारण के अस्तित्व की परवाह किए बिना वाद समाप्त नहीं होगा। लेकिन अगर ऐसी स्थिति में जहां पहले से ही मृत व्यक्ति के खिलाफ वाद दायर किया जाता है, तो इसे शून्य माना जाएगा और इसका कोई कानूनी प्रभाव नहीं होगा।

वादी की मृत्यु

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 22 इस प्रावधान के बारे में बात करता है कि वादी की मृत्यु होने पर क्या होता है। सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 के नियम 2 में कहा गया है कि “ऐसी प्रक्रिया जहां कई वादी या प्रतिवादियों में से एक की मृत्यु हो जाती है और मुकदमा करने का अधिकार जीवित रहता है- जहां एक से अधिक वादी या प्रतिवादी होते हैं, और उनमें से कोई भी मर जाता है, और जहां मुकदमा करने का अधिकार जीवित रहता है जीवित वादी या जीवित प्रतिवादी के विरुद्ध, न्यायालय रिकॉर्ड पर प्रभाव की प्रविष्टि (एंट्री) करवाएगा, और वाद के आगे की कार्यवाही जीवित वादी एवं जीवित प्रतिवादी के बीच सुचारू रूप से आगे बढ़ाई जाएगी।”

राधू नपित बनाम तारापडो नपित 

माननीय झारखंड उच्च न्यायालय ने राधू नपित बनाम तारापडो नपित के ऐतिहासिक मामले में न्यायमूर्ति श्री चंद्रशेखर की एकल न्यायाधीश पीठ ने एक रिट याचिका खारिज कर दी, जो परीक्षण न्यायाधीश (ट्रायल जज) के आदेश के खिलाफ दायर की गई थी, जिसमें याचिकाकर्ता के आवेदन में प्रतिवादियों में से एक की मृत्यु के आधार पर विभाजन वाद के उपशमन की मांग की गई थी, वह आवेदन अस्वीकार कर दिया गया था।

मुद्दा

इस मामले में न्यायालय के समक्ष जो मौलिक प्रश्न या यूं कहें कि जो मुद्दा उठा था, वह यह था कि क्या किसी भी पक्ष की मृत्यु के मामले में वाद को समाप्त किया जा सकता है या नहीं?

निर्णय 

माननीय उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 22 के नियम का पालन किया। नियम 1 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि वाद दायर करने का अधिकार बचा रहता है तो किसी भी पक्ष की मृत्यु के आधार पर वाद समाप्त नहीं किया जा सकता है। सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 के नियम 1, 2 और 4 में अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं। ये नियम विभिन्न स्थितियों के बारे में बात करते हैं जैसे कि एक पक्ष की मृत्यु, कई वादी या प्रतिवादियों में से एक की मृत्यु, वाद करने के अधिकार का अस्तित्व और कई प्रतिवादी में से एक या एकमात्र प्रतिवादी की मृत्यु।

न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 22 के तहत उल्लिखित प्रावधानों के अनुसार, यह यथोचित (रीजनेबल) रूप से देखा जा सकता है कि जिन मामलों या स्थितियों में किसी भी पक्ष की मृत्यु हो जाती है और वाद करने का उनका अधिकार जीवित रहता है, उसमे वाद का उपशमन न हो। इसके अलावा, न्यायालय ने माना कि यह मामला कोई अपवाद (एक्सेप्शन) नहीं है और याचिकाकर्ता आदेश 22 के नियम 1 के दायरे में आता है और कहा कि याचिकाकर्ता के वाद को खत्म करने के आवेदन को खारिज कर दिया जाता है।

प्रतिवादी की मृत्यु

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 22 इस प्रावधान के बारे में बात करता है कि प्रतिवादी की मृत्यु होने पर क्या होता है। सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 के नियम 4 में कहा गया है कि कई प्रतिवादियों में से एक या एकमात्र प्रतिवादी की मृत्यु के मामले में प्रक्रिया- जहां दो या अधिक प्रतिवादियों में से एक की मृत्यु हो जाती है और मुकदमा करने का अधिकार केवल जीवित प्रतिवादी या प्रतिवादी के खिलाफ जीवित नहीं रहता है, या एकमात्र प्रतिवादी या एकमात्र जीवित प्रतिवादी की मृत्यु हो जाती है और मुकदमा करने का अधिकार जीवित रहता है, तो न्यायालय, उस संबंध में किए गए एक आवेदन पर, मृतक प्रतिवादी के कानूनी प्रतिनिधि को एक पक्ष बना देगा और मुकदमे को आगे बढ़ाएगा।

इसके अलावा, यह कहता है कि जब 90 दिनों की निर्धारित समय सीमा के भीतर कोई आवेदन नहीं किया जाता है, तो मृत प्रतिवादी के खिलाफ वाद समाप्त हो जाएगा, अदालत वादी को एक गैर-प्रतिवादी के कानूनी प्रतिनिधि को प्रतिस्थापित करने से छूट दे सकती है और इसके बावजूद निर्णय सुना सकती है। 

ऐसी स्थिति हो सकती है जहां वादी जागरूक नहीं है या यदि वह प्रतिवादी की मृत्यु से अनजान है और मृत प्रतिवादी के कानूनी प्रतिनिधि के प्रतिस्थापन के लिए सीमा अवधि के भीतर आवेदन करने में असमर्थ है, और मुकदमा खत्म कर दिया जाता है, तो वह उस स्थिति में सीमा अवधि के भीतर इसको रद्द करने के लिए एक आवेदन कर सकता है, जिसमें कहा गया है कि प्रतिवादी की मृत्यु की अज्ञानता के कारण वह समय के भीतर आवेदन नहीं कर सका। अदालत ऐसी परिस्थितियों के तथ्य को ध्यान में रखते हुए आवेदन पर विचार करेगी।

एलियट बनाम क्लाइन कानूनी इतिहास में ऐतिहासिक निर्णयों में से एक था। इस मामले में, अदालत ने देखा कि व्यादेश (इंजंक्शन) के लिए कार्रवाई का कारण किसी भी पक्ष की मृत्यु से बचता है, जहां यदि कार्य पूरी तरह से व्यक्तिगत प्रकृति के हैं, तो प्रतिवादी की मृत्यु पर कार्रवाई का अधिकार समाप्त हो जाता है। हालाँकि, ऐसी स्थिति जिसमें यदि कोई वाद हर्जाने और व्यादेश के लिए है, तो प्रतिवादी की मृत्यु के बाद हर्जाने का अधिकार बच जाएगा।

इसके अलावा, यह भी चर्चा की गई कि जहां प्रतिवादी की सुनवाई के बाद और निर्णय सुनाए जाने से पहले मृत्यु हो जाती है, उस स्थिति में वाद समाप्त नहीं होगा। महत्वहीन पक्ष (अनइंपोर्टेंट पार्टी) की मृत्यु के कारण भी वाद समाप्त नहीं होगा।

जितेंद्र बल्लव बर्धन बनाम धीरेंद्रनाथ बर्धन 

यह एक और ऐतिहासिक मामला  है, जिसमें वादी ने भूमि के विभाजन के लिए एक वाद दायर किया और संपत्ति में I/5 वें हिस्से का दावा किया। इस वाद का सफलतापूर्वक विरोध किया गया और एक प्रारंभिक डिक्री द्वारा वादी के I/5 हिस्से की घोषणा करते हुए एक डिक्री घोषित की गई। इसे न्यायालय में चुनौती दी गई लेकिन इसे वापस ले लिया गया, इसके बाद अंतिम डिक्री की कार्यवाही शुरू की गई और डिक्री को अंतिम बनाया गया।

अंतिम डिक्री कार्यवाही के दौरान, प्रतिवादी संख्या 4 की मृत्यु हो गई। अतः उक्त डिक्री कार्यवाही में मृतक प्रतिवादी संख्या 4 के कानूनी वारिसों को प्रतिस्थापित करने की प्रार्थना के साथ प्रतिस्थापन के लिए एक आवेदन दायर किया गया था। मृतक प्रतिवादी संख्या 4 के प्रस्तावित कानूनी वारिसों को नोटिस जारी किए गए थे।

जो प्रतिवादी मर गया यानी प्रतिवादी संख्या 4, उसने मुकदमा नहीं लड़ा और प्रतिवादी संख्या 1 के पक्ष में प्रतिवादी संख्या 5 को संयुक्त रूप से I/5 वां हिस्सा दिया गया क्योंकि वे सभी एक सामान्य पूर्वज से थे जो जगत बल्लव थे। अंतिम डिक्री कार्यवाही में ओडिशा के माननीय उच्च न्यायालय द्वारा आदेश पारित किया गया था।

एक्सियो पर्सनालिस मोरिटर कम परसोना

इस कहावत का शाब्दिक अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत अधिकार उस व्यक्ति की मृत्यु के साथ मर जाता है। इस कहावत को पहली बार 1496 में उद्धृत (कोट) किया गया था। एक ऐसा मामला था जिसमें एक महिला जिसके खिलाफ मानहानि (डिफामेशन) का फैसला जारी किया गया था, टॉर्टफीजर को हर्जाने का भुगतान करने से पहले ही मर गई। इसके बाद ब्रिटेन में, किंग्स बेंच ने क्लेमंड बनाम विन्सेंट (1523) में पहली बार इस कहावत का इस्तेमाल किया था। कुछ शिक्षाविदों (एकेडमीशियंस) ने तर्क दिया कि यह प्रारंभिक कानून का सिद्धांत है कि व्यक्तिगत कर्तव्य के लिए किसी भी पक्ष की मृत्यु सभी उपचारों को दूर कर देती है और कर्तव्य को नष्ट कर देती है।

कुछ कानूनी स्थितियों में, कार्रवाई का कारण वादी की मृत्यु तक जीवित रह सकता है, उदाहरण के लिए, अनुबंध कानून के तहत कार्रवाई या स्थितियां। कुछ ऐसे कार्य हैं जिन्हें वादी के लिए व्यक्तिगत माना जाता है, उदाहरण के लिए मानहानि। इसलिए, ऐसी स्थिति जहां कोई कार्रवाई जो किसी भी तरह वादी के निजी चरित्र से संबंधित है, उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है, लेकिन एक झूठे, अपमानजनक या दुर्भावनापूर्ण बयान के प्रकाशन के लिए ऐसी कार्रवाई जो वादी की निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है अपने निजी प्रतिनिधियों के लाभ के लिए जीवित रहता है। यह सिद्धांत निष्पादक (एग्जिक्यूटर) और संपत्ति को मृतक के व्यक्तिगत कार्यों के लिए दायित्व से भी बचाता है, उदाहरण के लिए धोखाधड़ी के आरोप।

उदाहरण 

यदि A, C पर बैटरी करता है और यदि दोनों में से किसी एक की मृत्यु हो जाती है, तो वह अधिकार जो C को मिला है, लेकिन यदि A, C पर बैटरी करता है, या C को अन्य हानि पहुँचाता है, तो कार्रवाई का कोई भी अधिकार जो तीसरे व्यक्ति को प्राप्त होता है, C की मृत्यु से प्रभावित नहीं होगा ।

इसके अलावा, नूरानी जमाल और अन्य बनाम नाराम श्रीनिवास राव के ऐतिहासिक मामले में विद्वान न्यायाधीश ने सहमति व्यक्त की कि यह कहावत “एक्सियो पर्सनालिस मोरिटर कम परसोना” सभी व्यक्तिगत गलतियों के संबंध में लागू होती है, लेकिन इसके साथ ही, उन्होंने इसके अपवाद को भी मान्यता दी, उन्होंने कहा, “जहां एक गलत काम करने वाले को फायदा होता है गलत करने वाले के प्रतिनिधियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। इसलिए, इस निर्णय से तीसरे प्रतिवादी को मदद नहीं मिली।

वाद दायर करने का अधिकार

वाद करने का अधिकार, कहावत “एक्टियो पर्सनलिस मोरिटर कम पर्सोना” के समान है। कार्रवाई का एक व्यक्तिगत अधिकार एक विचलन (डिविएशन) है जो इस लैटिन कहावत से निकला है कि उस व्यक्ति की मृत्यु के साथ मर जाता है ।

यह जाँचने के लिए कि किसी भी पक्ष की मृत्यु की परवाह किए बिना मुकदमा करने का अधिकार कब और कैसे जीवित रहता है, उसके लिए एक सरल प्रयोग है। ऐसे कुछ मामले हैं जहां वादी ज्यादातर ऐसे दावे के संबंध में मुकदमा करता है जो उनके व्यक्तित्व से जुड़ा हुआ है या जो उनके व्यक्तित्व में निहित है। हर्जाने का मुकदमा उसके लिए एक ऐसी श्रेणी है। यदि ऐसे मामले में जहां वादी क्षति के लिए वाद के लंबित रहने के दौरान मर गया, वाद का अधिकार, जिसे दूसरे शब्दों में राहत मांगने का अधिकार भी कहा जा सकता है, जीवित नहीं रहेगा, लेकिन यदि वादी अपील के लंबित रहने के दौरान हर्जाने के खिलाफ डिक्री प्राप्त करने में सफल हो जाता है, और प्रतिद्वंद्वी की मृत्यु हो जाती है, तो अधिकार उसके कानूनी प्रतिनिधियों के पास रहेगा।

एक मामला जिसमें मुकदमा करने का अधिकार मौजूद है, एक पक्ष की मृत्यु पर मुकदमा समाप्त नहीं होता है, लेकिन 90 दिनों की अवधि के भीतर उसके कानूनी वारिसों के प्रतिस्थापन आवश्यक हो जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जीवित रहने का अधिकार अब कानूनी वारिसों में निहित है, जब तक कि किसी व्यक्ति के पास अधिकार है, वह उस व्यक्ति की मृत्यु पर जीवित नहीं रहता है। सामान्य नियम यह है कि कार्रवाई के सभी कारण और सभी मांगें जो किसी व्यक्ति की मृत्यु के समय उसके पक्ष में या उसके खिलाफ मौजूद हैं, उसके कानूनी प्रतिनिधियों के लिए या उसके खिलाफ बनी रहती हैं। उत्तराधिकार अधिनियम के तहत भी इस सिद्धांत का उल्लेख किया गया है, लेकिन इसमें, इसका केवल एक अपवाद है जो कहता है कि मृतक के व्यक्तित्व के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े अधिकार एक्टियो पर्सनलिस मोरिटर कम पर्सनल कहावत के आधार पर भी जीवित नहीं रहेंगे क्योंकि एक व्यक्ति की मृत्यु के साथ उसके वाद दायर करने के अधिकार की भी मृत्यु हो जाती है।

उपशमन (अबेटमेंट)

उपशमन एक ऐसी स्थिति को संदर्भित करता है जिसमें सिविल वाद में किसी भी पक्ष की मृत्यु हो जाती है और यदि वाद करने का उनका अधिकार जीवित रहता है तो मृतक पक्ष के कानूनी प्रतिनिधि या कानूनी वारिस द्वारा वाद जारी रखा जा सकता है। लेकिन अगर ऐसी स्थिति या मामले में जहां मुकदमा करने का अधिकार नहीं बचता है तो वाद स्वतः समाप्त हो जाएगा। उपशमन को प्रभावित करने वाले एक महत्वपूर्ण भाग का मूल भाग किसी भी पक्ष की मृत्यु के बाद वाद करने का अधिकार है क्योंकि पक्ष की मृत्यु के बाद यदि वाद करने का अधिकार जीवित रहता है तो वाद जारी रखा जा सकता है।

इसमें सामान्य नियम यह है कि किसी कार्रवाई या वाद पर केवल जीवित पक्षों द्वारा और उनके विरुद्ध मुकदमा चलाया जा सकता है। यदि ऐसी स्थिति में जहां व्यक्ति के खिलाफ व्यक्तिगत कार्रवाई की जाती है और उस व्यक्ति को प्रतिवादी के रूप में नामित करने वाले वाद पत्रों से पहले मर जाता है, तो ऐसी स्थिति में मृतक के व्यक्तिगत प्रतिनिधि या कानूनी प्रतिनिधि को प्रतिस्थापित करके वाद पत्रों को बदला जा सकता है।

पुनस्र्त्थान (रिवाइवल) के लिए कानूनी प्रक्रिया स्थापित करने वाले अधिनियमों में कार्यवाही के मनमाने ढंग से समाप्ति को रोकने का प्रयास किया जाता है जहां कार्रवाई का कारण जीवित रहता है और व्यक्तिगत प्रतिनिधि या अन्य उचित पक्ष के प्रतिस्थापन और उस पक्ष के नाम पर मामले की निरंतरता प्रदान करता है। ऐसी स्थिति जहां एक महत्वपूर्ण पक्ष की मृत्यु हो जाती है, तो तब तक कार्रवाई समाप्त हो जाती है जब तक कि मृत पक्ष के कानूनी प्रतिनिधि को प्रतिस्थापित नहीं किया जाता है।

एक मृत पक्ष कानूनी कार्यवाही के लिए एक पक्ष होने के योग्य नहीं है और किसी भी पक्ष की मृत्यु पर, इसका प्रभाव मृतक के रूप में कार्रवाई को निलंबित करना है जब तक कि उसके कानूनी प्रतिनिधि को एक पक्ष के रूप में प्रतिस्थापित नहीं किया जाता है। एक मृत व्यक्ति किसी कानूनी कार्यवाही का पक्ष नहीं हो सकता है। जबकि एक पक्ष की मृत्यु एक लंबित कार्रवाई को समाप्त नहीं करती है, लेकिन ऐसे मामले जहां कार्रवाई का कारण बचता है, हालांकि मृत्यु का प्रभाव मृतक के रूप में कार्रवाई को निलंबित करना है जब तक कि किसी को कानूनी कार्यवाही के पक्ष के रूप में मृतक के लिए प्रतिस्थापित नहीं किया जाता है। जब तक कार्रवाई निलंबित होने के बाद किसी व्यक्ति को एक पक्ष के रूप में उचित रूप से प्रतिस्थापित नहीं किया जाता है, तब तक उस विशेष मामले में आगे की कार्यवाही मृतक के रूप में शून्य है।

एक पक्ष की मृत्यु के साथ-साथ कार्रवाई के अस्तित्व और पुनस्र्त्थान के मामले में कार्रवाई के उपशमन के मामले को समझना, कार्रवाई के कारण और कार्रवाई के बीच एक पूर्ण अंतर है। कार्रवाई का एक कारण जीवित रह सकता है, हालांकि एक विशेष कार्रवाई इस पर आधारित होती है कि यह किसी पक्ष की मृत्यु से रद्द हो गई है या नहीं।

कानूनी शब्दावली में, उपशमन का अर्थ है उन्मूलन (एलिमिनेशन), समाप्ति या बंद करना। यह कई अलग-अलग संदर्भों में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। उपशमन कुछ भी नहीं है, लेकिन यह कुछ तथ्य के कारण न्यायिक कार्यवाही को बंद कर देता है जो विवाद के गुण को प्रभावित नहीं करता है। उपशमन के लिए सबसे आम आधार किसी भी पक्ष की मृत्यु या किसी अन्य वाद का लंबित होना है। वादों को रद्द करने के अन्य आधार भी हैं। ये आधार पक्षों के दोष हैं जैसे अक्षमता या मिथ्या नाम, न्यायालय का अमान्य क्षेत्राधिकार (ज्यूरिस्डिकशन) किसी कार्रवाई का समय से पहले शुरू होना, निगम का विघटन (डिसोल्यूशन), और वाद में पक्ष के हित का हस्तांतरण (ट्रांसफर), आदि।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हमेशा दो पक्ष शामिल होते हैं अर्थात वादी और प्रतिवादी। वह पक्ष जो मुकदमा दायर करता है या मुकदमा शुरू करता है उसे वादी के रूप में जाना जाता है और जिस पक्ष के खिलाफ कार्रवाई की जाती है उसे प्रतिवादी के रूप में जाना जाता है। उपशमन की अवधारणा से संबंधित कानून अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हैं लेकिन वादी आम तौर पर प्रतिवादी के खिलाफ मौद्रिक राहत की वसूली का दावा करता है।

वास्तविक समय से पहले समाप्त होना या किसी वाद का समय से पहले समाप्त होना उपशमन कहलाता है। यदि वादी द्वारा दायर की गई दलील पर उपशमन का कारण स्पष्ट नहीं है, तो प्रतिवादी मामले को खत्म करने के लिए आगे बढ़ सकता है। लेकिन अगर प्रतिवादी उपशमन के लिए दावा करने में विफल रहता है, तो बचाव को माफ कर दिया जाएगा। न्यायालय निर्णय की घोषणा करने से पहले किसी कार्रवाई को खत्म करने की याचिका पर विचार करता है क्योंकि याचिका पर निर्णय अदालत के अंतिम निर्णय को प्रभावित करेगा।

पक्षों की शादी

एक पक्ष के विवाह का वाद पर कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं पड़ता है लेकिन इसका एक अपवाद है। एक मामला या स्थिति जिसमें एक विवाहित महिला के खिलाफ डिक्री निष्पादित की गई है, डिक्री केवल उसके खिलाफ निष्पादित की जाएगी। सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 के नियम 7 के तहत यह उल्लेख किया गया है कि एक डिक्री जो पत्नी के पक्ष में या उसके खिलाफ है, जहां पति कानूनी रूप से डिक्री की विषय वस्तु का हकदार है या यदि वह अपनी पत्नी के कर्ज के लिए उत्तरदायी है, न्यायालय की स्पष्ट अनुमति के साथ, इसे उसके द्वारा या उसके खिलाफ निष्पादित किया जाना चाहिए।

पक्ष का दिवाला

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 22 के तहत पक्ष के दिवाला होने की स्थिति को परिभाषित किया गया है और इसकी चर्चा की गई है। आदेश 22 के नियम 8 में कहा गया है:

  • जहां एक वादी दिवालिया हो जाता है और एक रिसीवर या समनुदेशिती (असाइनी) वादी के लेनदारों के लाभ के लिए वाद को बनाए रखना चाहता है, उन मामलों को छोड़कर जहां समनुदेशिती या रिसीवर वाद जारी रखने से इनकार करते है, या कुछ मामले जिनमें न्यायालय स्वयं समनुदेशिती या प्राप्तकर्ता को लागतों के लिए सुरक्षा का भुगतान करने का निर्देश देता है और समनुदेशिती या प्राप्तकर्ता उसी का भुगतान करने की उपेक्षा करने से इनकार करता है, वाद समाप्त नहीं होना चाहिए।
  • जहां रिसीवर या समनुदेशिती वाद के साथ आगे बढ़ना चाहता है या समय सीमा के भीतर लागत के लिए सुरक्षा का भुगतान करने में विफल रहते है, तब प्रतिवादी अदालत में एक आवेदन कर सकता है और मुकदमे को खारिज करने का दावा कर सकता है।
  • इसके अलावा, अदालत आदेश दे सकती है कि प्रतिवादी को लागत का भुगतान किया जाए और इसे वादी की संपत्ति के खिलाफ एक ऋण माना जाना चाहिए।
  • यह नियम प्रतिवादी के दिवालियेपन पर बिल्कुल भी लागू नहीं होता है। इस प्रकार के मामलों में, अदालत ऐसे प्रतिवादी के खिलाफ कार्यवाही या मुकदमे पर रोक लगा सकती है।
  • इसी आदेश के नियम 9 में कहा गया है कि जहां एक वाद को समाप्त कर दिया जाता है, रिसीवर या समनुदेशिती उन मामलों में जहां वादी दिवालिया हो जाता है, वह उपशमन को रद्द करने के लिए अदालत में आवेदन कर सकते है। 
  • रिसीवर या समनुदेशिती को यह दिखाना होगा कि वाद जारी न रखने का उचित कारण था और यदि न्यायालय संतुष्ट हो जाता है तो वह इस संबंध में आदेश पारित कर सकता है।
  • न्यायालय में आवेदन परिसीमा (लिमिटेशन) अधिनियम की धारा 5 के तहत निर्धारित समय सीमा के भीतर दायर किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

पहले आम कानून प्रणाली के तहत, एक पक्ष की मृत्यु पर वाद को स्वत: समाप्त कर दिया जाता था। हालांकि, कार्रवाई का कारण समाप्त हो गया है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि वाद पक्षो के लिए व्यक्तिगत माना गया था या नहीं। उदाहरण के लिए, संपत्ति और अनुबंध के मामलों को पक्षों से अलग मुद्दों को शामिल करने के लिए सोचा गया था और जरूरी नहीं कि एक पक्ष की मृत्यु हो गई। दूसरी ओर, व्यक्तिगत हानि के मामलों में व्यक्ति को हानि लगने के साथ-साथ मानहानि, बदनामी और दुर्भावनापूर्ण अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) के मामलों को व्यक्तिगत माना जाता था और पक्ष की मृत्यु पर समाप्त हो जाता था।

आज, ऐसे कई राज्य हैं जहां ऐसे कानून हैं जो एक पक्ष के मरने पर लंबित कार्रवाई को पुनस्र्त्थान करने की अनुमति देते हैं। लेकिन कार्रवाई के सामान्य क्रम में, मृतक पक्ष के लिए एक प्रशासक या निष्पादक को प्रतिस्थापित किया जाता है और वाद जारी रहता है। ऐसी स्थिति हो सकती है जहां मुकदमे को पुनस्र्त्थान नहीं किया जा सकता है जब तक कि कार्रवाई का अंतर्निहित कारण अपना कानूनी अस्तित्व जारी नहीं रखता। प्रत्येक राज्य की अपनी पुनस्र्त्थान विधियां होती हैं और ये अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होती हैं, लेकिन आज वाद किसी भी पक्ष की मृत्यु के कारण समाप्त नहीं होते हैं।

ऐसी स्थिति में यदि दो या दो से अधिक व्यक्ति अदालत में कार्रवाई करते हैं और यदि उस दौरान उनमें से एक की मृत्यु हो जाती है तो कार्रवाई का कारण जीवित रहने पर कार्रवाई समाप्त नहीं होगी। जीवित पक्ष या मृतक के प्रतिनिधियों के नाम पर कार्रवाई जारी रहेगी। किसी पक्ष की मृत्यु के बाद, यदि लागू होने का अधिकार जीवित पक्ष के विरुद्ध या उसके पक्ष में जीवित रहता है, तो कार्रवाई समाप्त नहीं होगी बल्कि जीवित पक्षों के विरुद्ध और उनके लिए जारी रहेगी। सामान्य कानून में, यदि प्रतिवादी की मृत्यु हो जाती है, तो वह अन्य प्रतिवादियों के खिलाफ या तो पूरी तरह से टोर्ट या अनुबंध कानून में कार्रवाई को समाप्त नहीं करेगा। यदि मृतक पक्ष या उसके उत्तराधिकारियों के अधिकार कार्रवाई के कारण में रहते हैं तो मामला या तो निलंबित कर दिया जाता है या तब तक समाप्त कर दिया जाता है जब तक कि कार्रवाई को ठीक से पुनस्र्त्थान नहीं किया जाता है और एक उत्तराधिकारी का नाम नहीं लिया जाता है। जब तक ये कदम नहीं उठाए जाते, तब तक मृतक के उत्तराधिकारियों के हित में या उसके पूर्व अधिकारों के खिलाफ निर्णय नहीं लिया जाता है।

यदि दो सह-पक्षों में से एक पक्ष आवश्यक पक्ष है, और यदि निर्णय का पक्ष के रूप में उसके बिना कोई अर्थ नहीं होगा, तो पक्ष की मृत्यु पर कार्रवाई समाप्त हो जाएगी और इसे पुनस्र्त्थान नहीं किया जा सकता है। हालांकि, यदि शेष प्रतिवादियों के खिलाफ एक वैध निर्णय दिया जाता है, तो उस पक्ष की मृत्यु जिसके लिए कोई प्रतिस्थापन नहीं किया जा सकता है, केवल मृतक के रूप में कार्रवाई को पुनस्र्त्थान करने की संभावना के बिना समाप्त कर देता है।

संदर्भ 

 

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