हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के तहत ज्यूडिशियल सेपरेशन की अवधारणा

0
1633
Hindu Marriage Act
Image Source- https://rb.gy/g7sz91

यह लेख ओडिशा के केआईआईटी स्कूल ऑफ लॉ के Chandan Kumar Pradhan द्वारा लिखा गया है। यह लेख हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के तहत पति और पत्नी के ज्यूडिशियल सेपरेशन के बारे में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

विवाह की अवधारणा (कंसेप्ट) पति और पत्नी के बीच संबंध स्थापित (एस्टेब्लिश) करना है। पुराने हिंदू कानूनों के अनुसार, विवाह एक औपचारिक (फॉर्मल) समारोह है और एक धार्मिक बंधन है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता। स्मृतिकारों के अनुसार मृत्यु भी पति-पत्नी के सम्बन्ध को नहीं तोड़ सकती है। विवाह का उद्देश्य एक पुरुष और एक महिला को ईश्वर द्वारा बनाए गए जीवन के धार्मिक कर्तव्यों (ड्यूटीज) को पूरा करने की अनुमति देना है। पहले के शास्त्रों के अनुसार, एक पुरुष एक महिला के बिना अधूरा था और एक महिला (अर्धंगीनी) भी अपने पति के बिना अधूरी थी।

आधुनिक (मॉडर्न) कानूनों में, यदि कोई व्यक्ति विवाहित जीवन में नहीं रहना चाहता है और उसे आगे नहीं बढ़ाना चाहता है तो वह ज्यूडिशियल सेपरेशन के माध्यम से हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के तहत राहत का अनुरोध (रिक्वेस्ट) कर सकता है।

हिंदू कानून में विवाह की अवधारणा

विवाह प्रकृति के सबसे आवश्यक संस्कारों में से एक है। विवाह के धार्मिक कर्तव्यों की निम्नलिखित 3 विशेषताएं हैं:

  • एक स्थायी (पर्मानेंट) संबंध है, जो एक बार जुड़ जाने के बाद टूट नहीं सकता है।
  • एक अंतहीन (एंडलेस) संबंध है, जो न केवल इस जीवन में बल्कि आने वाले जीवन में भी मान्य है।
  • एक धार्मिक संबंध है, जिसमें धार्मिक समारोहों (सेरेमनीज) का प्रदर्शन आवश्यक है।

हिंदू विवाह को एक धार्मिक समारोह के रूप में डिजाइन किया गया था और औपचारिक रूप से विशिष्ट (स्पेसिफिक) आशीर्वाद देने के लिए आयोजित (कंडक्ट) किया गया था; पुराने हिंदू कानून में पार्टियों की सहमति का कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं था।

हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 12 के तहत, यह परिभाषित किया गया है कि विवाह को अमान्य (वाॅइड) किया जा सकता है यदि निम्नलिखित संतुष्ट हैं:

  • बच्चे के प्रोक्रिएशन के लिए कोई भी पार्टी इंपोटेंट या अनुपयुक्त (अनफिट) है।
  • धारा 5 के क्लॉज (ii) में निर्दिष्ट शर्त:
  1. कोई भी पार्टी विवाह के समय अनसाउंड दिमाग में सहमति देती है।
  2. एक मानसिक विकार (डिसऑर्डर) से पीड़ित होने पर बच्चे के प्रोक्रिएशन के लिए अयोग्य है, लेकिन सहमति देने में सक्षम है।
  3. कोई भी पार्टी मानसिक विकार के आदतन (हैबिचुअल) हमले का शिकार होती है।
  • अगर शादी दुल्हन की सहमति के बिना या उसके माता-पिता या गार्जियन के दबाव में हुई हो।
  • शादी के समय दुल्हन दूल्हे के अलावा किसी अन्य पुरुष से गर्भवती थी।

हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 5 परिभाषित करती है कि विवाह वैध है यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं:

  • विवाह के समय किसी भी पार्टी का कोई अन्य जीवित जीवनसाथी नहीं होना चाहिए।
  • कोई भी पार्टी वैध सहमति देने में असमर्थ नही होनी चाहिए है। सहमति तभी मान्य होगी जब सहमति देने के समय पार्टी साउंड दिमाग की होगी।
  • कोई भी पार्टी मानसिक विकार के आदतन हमले के अधीन नहीं होनी चाहिए।
  • विवाह कानून 1976 के अनुसार दोनों पति-पत्नी की उम्र कानूनी होनी चाहिए (दूल्हे की उम्र 21 साल और दुल्हन की उम्र 18 साल होनी चाहिए)।
  • किसी भी पार्टी को हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 3(g) के तहत प्रदान किए गए निषिद्ध (प्रोहिबिटेड) संबंध की डिग्री के भीतर नहीं आना चाहिए।
  • पति-पत्नी के बीच सपिंड संबंध नहीं होने चाहिए।

हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 11 में कहा गया है कि यदि धारा 5 के क्लॉज (i), (iv), (v) संतुष्ट नहीं है तो विवाह अमान्य है। ये निम्नलिखित क्लॉजेस हैं:

  • विवाह के समय किसी भी पार्टी का कोई अन्य जीवित जीवनसाथी नहीं होना चाहिए।
  • किसी भी पार्टी को हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 3(g) के तहत प्रदान किए गए निषिद्ध संबंध की डिग्री के भीतर नहीं आना चाहिए।
  • पति-पत्नी के बीच सपिंड संबंध नहीं होना चाहिए।

विवाह की उन्नत (एडवांस्ड) अवधारणा प्रकृति में कॉन्ट्रैक्चुअल है।  यह स्वतंत्रता और समानता (स्वतंत्र विकल्प और व्यक्ति) की नैतिकता (एथिक्स) है। आज, लोगों की एक स्थापित राय है कि विवाह को संचालित (ऑपरेटिव) करना है और दोनों पार्टियों द्वारा दर्ज की गई पसंद से एक समझौता (एग्रीमेंट) है।

पुराने हिंदू कानून में विवाह के रूप

हिंदू विवाह अपनी बेटी पर पिता के डोमिनियन को खत्म करने पर आधारित है। पति और पत्नी के बीच का रिश्ता काफी खूबसूरत होता है और यह हिंदू कानून का धार्मिक कर्तव्य है। सभी प्रकार के विवाह के लिए धार्मिक समारोह अनिवार्य है।

यहां विवाह के 8 प्रकार है। इनमें से 4 स्वीकृत (एप्रूव्ड) हैं और 4 अस्वीकृत (अनएप्रूव्ड) हैं। वे निम्नलिखित में हैं:

स्वीकृत विवाह के प्रकार

1. ब्रम्हा

इस प्रकार के विवाह में पिता अपनी बेटी को आभूषणों से सजाकर उसका उपहार उस पुरुष को देता है, जिसने वेदों में सीखा हो। लड़की का पिता स्वयं दूल्हे को आमंत्रित करता है, जिसे “ब्रह्म विवाह” कहा जाता है।

2. देव

लड़की एक ऐसे व्यक्ति को दी जाती है, जो पुजारी के रूप में कार्य करता है और विवाह का यह प्रकार केवल ब्राह्मणों में ही हुआ करता है।

3. अर्शा

यह विवाह हिंदू समाज के ग्रामीण चरण (स्टेज) का प्रतीक (सिंबल) है जहां मवेशियों (कैटल) को महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। इसमें एक गाय और एक बैल या दो गाय और दो बैल की उपस्थिति दुल्हन की कीमत बनाती है।

4. प्रजापत्य

इस विवाह में उपहार इस शर्त के साथ दिया जाता है कि “आप दोनों एक साथ अपने नागरिक और धार्मिक कर्तव्यों का पालन करेगे”।

अस्वीकृत विवाह के प्रकार

1. असुर

“कन्यासुलकम” नामक प्रतिफल (कंसीडरेशन) के भुगतान में दुल्हन को पति को दिया गया था।

2. गंधर्व

यह विवाह दूल्हा-दुल्हन की सहमति से ही होता था। विवाह के इस प्रकार का अभ्यास जनजाति (ट्राइब) द्वारा किया जाता था जो हिमालय की ढलान पर रहते थे।

3. राक्षसा

इस प्रकार के विवाह की अनुमति केवल क्षत्रियों या सैन्य वर्गों (मिलिट्री क्लासेस) को ही दी जाती थी। यहां, दुल्हन का उसके माता-पिता के घर से जबरन अपहरण (एबडक्शन) करना स्वाभाविक है।

4. पैसाचा

हिंदू संस्कृति में यह विवाह का सबसे खराब प्रकार है। शादी के इस प्रकार को आईपीसी के तहत बलात्कार के रूप में दंडित किया जाता है। क्योंकि इस प्रकार के विवाह में पति गुप्त रूप से वधू को अपनी बुद्धि में धारण (एंब्रेस) कर लेता है, यह पापपूर्ण (सिंफुल)  विवाह है और इस प्रकार के विवाह को पैशाच कहा जाता है जो विवाह के रूपों में सबसे अंतिम और सबसे खराब स्थिति में होता है।

आधुनिक हिंदू कानून में विवाह के रूप

हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 किसी भी प्रकार के विवाह के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं करता है।

दूसरे पक्ष से देखें तो हिंदू समाज में आमतौर पर विवाह के दो रूप होते हैं जैसा कि नीचे दिया गया है:

  • माता पिता द्वारा तय किया गया विवाह (अरेंज्ड मैरिज)
  • प्रेम विवाह

ज्यादातर हिंदू विवाह अभी भी माता पिता द्वारा तय किए गए विवाह हैं। माता पिता द्वारा तय किया गया विवाह या तो ब्रह्म विवाह के रूप में या असुर विवाह के रूप में किया जा सकता है। शूद्रों के बीच, विवाह का असुर रूप एक सामान्य तरीका है, लेकिन उच्च स्तर (स्टैंडर्ड) के हिंदुओं में, ब्रह्म विवाह आम है और युवा पीढ़ी के बीच गंधर्व विवाह बहुत लोकप्रिय है।

विवाह समारोह

हिंदुओं के बीच विवाह, एक धार्मिक और एक अटूट बंधन होने के कारण, वैध विवाह के लिए विशिष्ट समारोहों का निष्पादन (एग्जिक्यूशिन) अभी भी अनिवार्य है। 3 महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं जहां विशिष्ट समारोहों का कार्य किया जाना है।  वे:

  • सगाई

यह पिता की ओर से लड़की को शादी में देने का औपचारिक वादा है।

  • कन्यादान 

यह लड़की का उसके पिता द्वारा विवाह में वास्तविक (एक्चुअल) त्याग है।

  • सप्तपदी

यह दूल्हा और दुल्हन द्वारा पवित्र अग्नि के चारों ओर आकर्षक “सात फेरे” के समारोह को करना है। सप्तपदी के इस प्रदर्शन से यह निष्कर्ष निकलता है कि विवाह समारोह संपन्न हो गया है। यह विवाह को पूरी तरह से अपरिवर्तनीय (अनचेंजेबल) बनाता है।

हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 7 के तहत यह परिभाषित किया गया है कि विवाह औपचारिक और पार्टियों की सहमति से होना चाहिए। सप्तपदी विवाह समारोह का एक अनिवार्य हिस्सा है।

हिंदू कानून हिंदू और गैर-हिंदू के बीच अंतर-जातीय (इंटर-कास्ट) विवाह की भी अनुमति देता हैं, लेकिन स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954 के तहत कुछ विशेष प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए।

ज्यूडिशियल सेपरेशन की अवधारणा

ज्यूडिशियल सेपरेशन अशांत विवाहित जीवन के दोनों पक्षों को आत्म-विश्लेषण (सेल्फ-एनालिसिस) के लिए कुछ समय देने के लिए कानून के तहत एक माध्यम है। कानून पति और पत्नी दोनों को अपने रिश्ते के विस्तार (एक्सटेंशन) के बारे में पुनर्विचार करने का मौका देता है जबकि साथ ही उन्हें अलग रहने का मार्गदर्शन (गाइड) भी करता है। ऐसा करने से, कानून उन्हें अपने भविष्य के मार्ग के बारे में सोचने के लिए स्वतंत्र स्थान और स्वतंत्रता की अनुमति देता है और यह विवाह को कानूनी टूटने के लिए दोनों पति-पत्नी के लिए उपलब्ध अंतिम विकल्प है।

हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 10 दोनों पति-पत्नी के लिए ज्यूडिशियल सेपरेशन प्रदान करती है, जो हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के तहत विवाहित हैं। वे एक याचिका (पिटीशन) दायर करके ज्यूडिशियल सेपरेशन की राहत का दावा कर सकते हैं। एक बार आदेश पास हो जाने के बाद, उन्हें सहवास (कोहैबिट) करने के लिए बाध्य नहीं किया जाता है।

ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए याचिका दायर करना

कोई भी पति या पत्नी जो किसी अन्य पति या पत्नी से आहत (हर्ट) है, हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 10 के तहत डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए याचिका दायर कर सकता है और निम्नलिखित को संतुष्ट किया जाना चाहिए:

  • हिंदू मैरिज एक्ट के तहत पति और पत्नी के बीच विवाह को ठीक से किया जाना चाहिए।
  • प्रतिवादी (रेस्पोंडेंट) को उस कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में बसाया जाना चाहिए जहां याचिकाकर्ता (पेटिशनर) ने याचिका दायर की थी।
  • याचिका दायर करने से पहले पति और पत्नी एक विशेष अवधि के लिए एक साथ रहते थे।

प्रत्येक याचिका में सिविल प्रोसिजर कोड, 1973 के ऑर्डर VIII रूल 1 के अनुसार निम्मलिखित चीज़े शामिल होनी चाहिए:

  • विवाह की तिथि और स्थान।
  • व्यक्ति को अपने हलफनामे (एफिडेविट) से हिंदू होना चाहिए।
  • दोनों पार्टियों का नाम, स्थिति, पता
  • बच्चों का नाम, जन्मतिथि और लिंग (यदि कोई हो)।
  • ज्यूडिशियल सेपरेशन या तलाक के लिए डिक्री दाखिल करने से पहले दायर मुकदमे का विवरण (डिटेल)।
  • ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए, साक्ष्य को आधार (ग्राउंड) साबित करना चाहिए।

ज्यूडिशियल सेपरेशन  के लिए आधार

यह एक्ट की धारा 10 के तहत दिये गए है; पति या पत्नी निम्नलिखित आधारों पर ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए याचिका दायर कर सकते हैं:

  • एडल्टरी [धारा 13(1)(i)]

इस धारा का मतलब है कि जहां पति या पत्नी में से किसी ने अपनी इच्छा से अपने पति या पत्नी को छोड़कर किसी अन्य व्यक्ति के साथ यौन संबंध (सेक्सुअल इंटरकोर्स) बनाए हों। यहां, पीड़ित पार्टी राहत का दावा कर सकती है लेकिन वह संभोग (इंटरकोर्स) विवाह के बाद किया जाना चाहिए।

मामला- रेवती बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य

इस मामले में, कोर्ट ने कहा कि आईपीसी की धारा 497 को इस तरीके से तैयार किया गया है, जैसे की पति पत्नी पर एडल्टरी के आरोप में विवाहित बंधन की पवित्रता को अपवित्र करने के लिए मुकदमा नहीं चला सकता है। कानून अपराध करने वाली पत्नी के पति को अपनी पत्नी पर मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं देता है और पत्नी को भी अपमानजनक (ऑफेंडिंग) पति पर उसके प्रति विश्वासघाती (डिसलोयल) होने के लिए मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी है। इसलिए पति-पत्नी दोनों को एक-दूसरे पर आपराधिक कानून के हथियार से वार करने का कोई अधिकार नहीं है।

  • क्रूरता [धारा 13(1)(i-a)] 

इस धारा में, जब पति या पत्नी अपने साथी के साथ क्रूरता के साथ व्यवहार करते हैं या शादी के बाद कोई मानसिक या शारीरिक पीड़ा देते हैं। पीड़िता क्रूरता के आधार पर याचिका दायर कर सकती है।

मामला- श्यामसुंदर बनाम संतादेवी

इस मामले में विवाह के बाद पत्नी को उसके पति के सगे-संबंधियों ने बुरी तरह प्रताड़ित (हार्म) किया और पति भी अपनी पत्नी की रक्षा के लिए कोई कदम न उठाते हुए खड़ा रहा।

कोर्ट ने कहा कि अपनी पत्नी की रक्षा के लिए जानबूझकर उपेक्षा (नेगलेक्ट) करना पति की ओर से क्रूरता है।

  • परित्याग (डिजर्शन) [धारा 13(1)(i-b)]

इस धारा में, यह परिभाषित किया गया है कि यदि पति या पत्नी किसी अन्य कारण से दूसरे पति या पत्नी द्वारा याचिका दायर करने से कम से कम 2 वर्ष की अवधि के लिए उसे बताए बिना किसी अन्य कारण से छोड़ दिया है, तो परित्याग आहत पार्टी के लिए ज्यूडिशियल सेपरेशन की राहत का दावा करने का अधिकार देता है।

मामला- गुरु बचन कौर बनाम प्रीतम सिंह 

इस मामले में पति ने घोषित (डिक्लेर्ड) परित्याग के 7 साल बाद तलाक के लिए याचिका दायर की और पत्नी की समस्याओं को कभी नहीं समझा, जो एक कामकाजी महिला भी थी। लेकिन पत्नी सर्विस के स्थान पर अपने पति के साथ अपने घर में रहने को तैयार थी।

हाई कोर्ट ने कहा कि आपसी परित्याग जैसा कुछ नहीं है। परित्याग में एक पार्टी दोषी होती है।

  • धर्मांतरण/धर्मत्याग (कन्वर्जन/अपोस्टेसी) [धारा 13(1)(ii)]

इस धारा के तहत यदि कोई पति/पत्नी हिंदू के अलावा किसी अन्य धर्म में परिवर्तित हो जाता है, तो दूसरा पति/पत्नी ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए दायर कर सकता है।

मामला- दुर्गा प्रसाद राव बनाम सुदर्शन स्वामी 

इस मामले में यह देखा गया कि प्रत्येक धर्म परिवर्तन के मामले में, धर्म की औपचारिक अस्वीकृति या यज्ञ समारोह का संचालन आवश्यक नहीं है। इसलिए धर्मांतरण के मामले में तथ्य का सवाल खड़ा होता है।

  • अनसाउन्ड माइंड [धारा 13(1)(iii)]

इस धारा में यदि विवाह में कोई पति या पत्नी किसी मानसिक रोग से पीड़ित है जिसमे पीड़ित के साथ दूसरे पति या पत्नी के लिए रहना मुश्किल है। दूसरा जीवनसाथी ज्यूडिशियल सेपरेशन से राहत का दावा कर सकता है।

मामला- एनिमा रॉय बनाम प्रबोध मोहन रे (एआईआर 1969) 

इस मामले में, प्रतिवादी शादी के 2 महीने बाद एक असामान्य (एब्नॉरमल) बीमारी से पीड़ित पाया गया था। प्रतिवादी की जाँच करने वाले डॉक्टर को भी बीमारी शुरू होने का समय पता नहीं चला। इसलिए, यह माना गया कि शादी के समय बीमारी साबित नहीं हुई थी।

  • लेप्रसी [धारा 13(1)(iv)]

इस धारा में यदि कोई पति या पत्नी लेप्रसी जैसी किसी बीमारी से पीड़ित है, जिसे ठीक नहीं किया जा सकता है, तो दूसरी पार्टी ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए याचिका दायर कर सकती है क्योंकि वह पीड़ित की वजह से अपना समय बर्बाद नहीं कर सकता है।

उदाहरण- ‘A’ एक असामान्य बीमारी से पीड़ित है और ‘B’ ‘A’ की पत्नी है। यदि ‘A’ ऐसी बीमारी से पीड़ित है जो लाइलाज है और डॉक्टर भी बीमारी को नहीं समझ पा रहा  है। इस मामले में, ‘B’ ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए याचिका दायर कर सकती है यदि वह अपने पति के साथ सम्बंध जारी नहीं रखना चाहती है।

  • वेनरेबल डिजीज [धारा 13(1)(v)]

इस धारा में यदि विवाह की किसी पार्टी या पति या पत्नी को किसी भी प्रकार की बीमारी है जो लाइलाज और संचारी (कम्युनिकेबल) है और पति या पत्नी को शादी के समय इस तथ्य के बारे में पता नहीं है, तो यह  ज्यूडिशियल सेपरेशन की याचिका दायर करने के लिए पति या पत्नी के लिए एक वैध आधार हो सकता है।

उदाहरण- ‘A’ एक असामान्य बीमारी से पीड़ित है जो संचार द्वारा फैलती है। रोग अपरिवर्तनीय (इरेवोकेबल) है। इस मामले में, ‘A’ की पत्नी ‘B’ अपने दो बच्चों के भविष्य के लिए सद्भाव (गुड फेथ) में ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए याचिका दायर कर सकती है।

  • संसार को त्याग देना [धारा 13 (1)(vi)]

इस धारा में हिंदू कानून में, संसार को त्यागने का अर्थ है “संन्यास”। संसार से त्याग यह बताता है कि व्यक्ति ने संसार को त्याग कर पवित्र जीवन व्यतीत किया है। उन्हें सिविल डेड माना जाता है। यदि कोई पति या पत्नी पवित्र जीवन जीने के लिए संसार को त्याग देता है, तो उसका साथी ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए अर्जी दे सकता है।

उदाहरण- यदि ‘A’ अपना धर्म बदल कर कहीं चला गया, जहाँ लोग भी उसे ढूँढ़ नहीं पाते। यह समाचार सुनकर ‘A’ की पत्नी ‘B’ को बहुत दुख होता है। इसलिए वह ज्यूडिशियल सेपरेशन दायर कर सकती है।

  • सिविल डेथ/प्रेज्यूम्ड डेथ [धारा 13(1)(vii)]

इस धारा में यदि कोई व्यक्ति 7 या अधिक वर्षों से नहीं मिला हो और उसके रिश्तेदारों या किसी अन्य व्यक्ति ने उसके बारे में नहीं सुना हो या यह माना लिए हो कि वह मर गया है। यहां, दूसरा जीवनसाथी ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए दायर कर सकता है।

उदाहरण- ‘A’ और ‘B’ 4 साल से पति-पत्नी हैं और अचानक करीब 8 साल के लिए पति गायब हो गया। ‘B’ ने उसकी पत्नी के रूप में इन 8 वर्षों में अपने पति को खोजने की पूरी कोशिश की लेकिन वह उसे नहीं खोज पाई। फिर, ‘B’ इस मामले के लिए ज्यूडिशियल सेपरेशन दायर कर सकती है।

पत्नी के लिए न्याय का दावा करने के लिए अतिरिक्त आधार (एडिशनल ग्राउंड्स फॉर द वाइफ टू क्लेम जस्टिस)

  • बायगेमी [धारा 13(2)(i)] 

इस धारा में इसका मतलब है कि अगर पति पहले से शादीशुदा है, तो उसकी दोनों पत्नियों को इस शर्त के साथ ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए याचिका का दावा करने का अधिकार है कि दूसरी पत्नी दाखिल करने के समय जीवित है।

उदाहरण- ‘A’ और ‘B’ 5 साल से पति-पत्नी हैं और वे अपने परिवार के साथ खुश हैं। अचानक ‘A’ ने अपनी पहली पत्नी ‘B’ की सहमति के बिना दूसरी महिला ‘C’ से दोबारा शादी कर ली और ‘C’ को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि ‘A’ पहले से शादीशुदा है। जब ‘B’ और ‘C’ को इस बारे में पता चलाता है। तो ‘B’ ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए याचिका दायर कर सकती है।

  • रेप, सोडोमी या बेस्टियलिटी [धारा 13(2)(ii)]

इस धारा में पत्नी को ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए याचिका दायर करने का अधिकार है यदि उसका पति शादी के बाद रेप, सोडोमी या बेस्टियलिटी जैसे आरोपों का दोषी है।

उदाहरण- ‘A’ और ‘B’ 3 साल से पति-पत्नी हैं, अगर पति ‘A’ ने किसी अन्य महिला का रेप किया और वह उसके लिए दोषी पाया गया, तो इस मामले में पत्नी ‘B’ ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए याचिका दायर कर सकती है  

  • विवाह का रेपुडिएशन/ऑप्शन ऑफ़ प्यूबर्टी [धारा 13(2)(iv)]

इस धारा में यदि किसी लड़की की शादी 15 वर्ष की आयु से पहले हुई हो, तो उसे ज्यूडिशियल सेपरेशन का दावा करने का अधिकार है।

उदाहरण- 14 साल की एक लड़की है और वह एक आदिवासी (ट्राइबल) इलाके की है। वहां, बाल विवाह एक बहुत ही सामान्य प्रकृति है, उसके माता-पिता उसे उसकी सहमति के बिना दूल्हे को उपहार के रूप में देते हैं। विवाह के बाद यह एक्ट बिना किसी वैध कारण के संबंध छोड़ने की अनुमति नहीं देता है। ऐसे विशेष आधार होने चाहिए जिन पर पति या पत्नी ज्यूडिशियल सेपरेशन या तलाक के लिए मामला दायर कर सके।

पति-पत्नी के बीच के विवादों को सुलझाने और उन्हें वैवाहिक संबंधों से मुक्त करने के लिए इस एक्ट में एक महान नियम है। इस मामले में, उसने अपनी कम उम्र के कारण ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए याचिका दायर की थी।

ज्यूडिशियल सेपरेशन और तलाक के बीच अंतर

ज्यूडिशियल सेपरेशन तलाक
यह हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 10 के तहत प्रदान किया गया है। यह हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 13 के तहत प्रदान किया गया है।
ज्यूडिशियल सेपरेशन के लिए याचिका विवाह के बाद किसी भी समय दायर की जा सकती है। विवाह के 1 या अधिक वर्षों के बाद ही तलाक के लिए याचिका दायर की जा सकती है।
यह केवल अस्थायी (टेंपरेरी) रूप से विवाह को निलंबित (सस्पेंड) करता है। यह विवाह का अंत है।
एडल्टरी एक बहुत बड़ा आधार है, जिसके द्वारा कोई भी याचिका दायर करता है। पति और पत्नी को एक एडल्टरस संबंध में रहना चाहिए, तभी कोई पार्टी तलाक के लिए दायर कर सकती है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

हमारे देश में शादी को एक पवित्र रिश्ता माना जाता है लेकिन जब एक व्यक्ति उस रिश्ते से खुश न हो तो उसे उस रिश्ते से बाहर निकल जाना चाहिए। हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के प्रति लोगों का विश्वास है कि वे तलाक दाखिल करके विवाह से राहत प्राप्त कर सकते हैं।

यह एक्ट बिना किसी वैध कारण के किसी रिश्ते को छोड़ने की अनुमति नहीं देता है। ऐसे विशेष आधार होने चाहिए जिन पर पति या पत्नी ज्यूडिशियल सेपरेशन या तलाक के लिए मामला दायर कर सकते हैं।

पति-पत्नी के बीच के विवादों को सुलझाने और उन्हें वैवाहिक संबंधों से मुक्त करने के लिए इस एक्ट में एक महान नियम है।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here