सी.आर.पी.सी. के तहत पीड़ित की चिकित्सा जांच की प्रक्रिया

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Criminal Procedure Code
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यह लेख Abhinav Anand द्वारा लिखा गया है, जो वर्तमान में डीएसएनएलयू, विशाखापत्तनम से बी.ए एलएलबी (ऑनर्स) कर रहे हैं। इस लेख में, उन्होंने सी.आर.पी.सी. के तहत पीड़ित की चिकित्सा जांच के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के बारे में बताया है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय

आपराधिक न्याय प्रणाली में विभिन्न तकनीकों के आने के साथ, स्थिति की मांग होने पर चिकित्सा जांच/अन्वेषण (इन्वेस्टिगेशन) का एक जरूरी हिस्सा बन गई है। आरोपी या पीड़ित की जांच के बाद एकत्र किए गए साक्ष्य के महत्व को देखते हुए चिकित्सा जांच की अवधारणा पूरी दुनिया में विकसित हुई है।

भारत में अपराध में शामिल पक्षों की चिकित्सा जांच को पीड़ित के अनुकूल (फ्रेंडली) बनाया गया है। प्रक्रिया में शामिल संबंधित अधिकारियों को अनिवार्य रूप से कानून के शासन का पालन करने का निर्देश दिया जाता है। पीड़ितों की निजता का अधिकार सभी मामलों में सुरक्षित है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई निर्णयों में नागरिक की चिकित्सा जांच करते समय उसके मूल मौलिक अधिकारों की रक्षा करने की आवश्यकता को स्पष्ट किया है।

चिकित्सा जांच की आवश्यकता

पीड़िता के साथ हुई घटना के बारे में सही तथ्य जानने के लिए चिकित्सा जांच की जाती है। यह पुलिस अधिकारियों को पर्याप्त सबूत प्रदान करता है जो उन्हें जांच की प्रक्रिया में तेजी लाने में मदद करता है। चिकित्सा जांच की मदद से तथ्यों की पुष्टि की जाती है और इससे किसी निष्कर्ष पर शीघ्रता से पहुँचने में सहायता मिलती है।

इसने उन देशों में जांच की गुणवत्ता में सुधार किया है जहां प्रक्रिया में शामिल संबंधित व्यक्ति की योग्यता ठीक है। यह पुष्टि (कॉरोबोरेशन) की ओर जाता है जिसके परिणामस्वरूप मामलों का त्वरित निपटान होता है।

चिकित्सा जांच के लिए प्रक्रिया

सी.आर.पी.सी. की धारा 53 में आरोपी की चिकित्सा जांच की प्रक्रिया का प्रावधान है।

  • जब भी आरोपी कोई कार्य करता है या उस पर कोई कार्य करने का आरोप लगाया जाता है, तो पुलिस के पास यह मानने के लिए उचित आधार होते हैं कि आरोपी व्यक्ति की चिकित्सा जांच से पुलिस को उसके द्वारा अपराध किए जाने का सबूत प्राप्त करने में मदद मिल सकती है, तब वे पंजीकृत (रजिस्टर्ड) चिकित्सक से उस व्यक्ति की जांच के लिए अनुरोध कर सकते हैं। चिकित्सा व्यवसायी को निर्देश देने वाला पुलिस अधिकारी सब-इंस्पेक्टर होना चाहिए या सब-इंस्पेक्टर के पद से ऊपर का होना चाहिए।
  • जब आरोपी एक महिला हो तो महिला चिकित्सक की देखरेख में उसकी जांच की जा सकती है।

सी.आर.पी.सी. की धारा 53 A में बलात्कार के मामलों के आरोपियों की जांच की प्रक्रिया का प्रावधान है:

  • जब भी किसी व्यक्ति पर बलात्कार करने या बलात्कार करने के प्रयास करने का आरोप लगाया जाता है और इस विश्वास के लिए उचित आधार होते है कि आरोपी की जांच अपराध करने के लिए एक सबूत दे सकती है, तो सरकारी अस्पताल के पंजीकृत चिकित्सक या कोई स्थानीय प्राधिकारी (अथॉरिटी), और यदि वह उपस्थित नहीं है तो अपराध घटित होने के स्थान से 16 किलोमीटर के दायरे के भीतर, पुलिस अधिकारी, जो सब-इंस्पेक्टर की रैंक से नीचे का नहीं है, के अनुरोध पर किसी भी पंजीकृत चिकित्सक के साथ जांच की जा सकती है और ऐसा करना वैध होगा।
  • पंजीकृत चिकित्सक बिना किसी देरी के जांच आयोजित करेगा और निम्नलिखित जानकारी प्रदान करके ऐसे व्यक्ति की रिपोर्ट तैयार करेगा:
  1. आरोपी का नाम और उस व्यक्ति का नाम जिसके द्वारा उसे लाया गया था,
  2. आरोपी की उम्र,
  3. चोट के निशान,
  4. डी.एन.ए. प्रोफाइलिंग के लिए व्यक्ति से ली गई सामग्री का विवरण,
  5. विशेष रूप से कोई अन्य जानकारी।
  • रिपोर्ट में प्रत्येक निष्कर्ष पर पहुंचने का कारण स्पष्ट रूप से बताया जाएगा।
  • रिपोर्ट में शुरू होने और पूरा होने की तारीख का उल्लेख किया जाना चाहिए।
  • पंजीकृत चिकित्सक बिना किसी देरी के पुलिस अधिकारी को रिपोर्ट भेजेगा और पुलिस अधिकारी सी.आर.पी.सी. की धारा 173 के तहत मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट भेजेगा।

एक बलात्कार पीड़िता की चिकित्सा जांच की प्रक्रिया

सी.आर.पी.सी. की धारा 164 में बलात्कार पीड़ितों की जांच की प्रक्रिया का प्रावधान है:

  1. बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के अपराध की जांच के दौरान, पीड़ित को सरकार या किसी स्थानीय प्राधिकारी के पंजीकृत चिकित्सक के साथ चिकित्सकीय जांच करने का प्रस्ताव दिया जाता है, यदि वह मौजूद नहीं है, तो किसी भी पंजीकृत चिकित्सक की सहमति से महिला या उसकी ओर से किसी सक्षम व्यक्ति की सहमति से जांच की जा सकती है। अपराध की सूचना मिलने के 24 घंटे के भीतर महिला को चिकित्सक के पास जांच के लिए भेजा जाना चाहिए।
  2. पंजीकृत चिकित्सक को निम्नलिखित जानकारी के साथ बिना किसी देरी के रिपोर्ट तैयार करनी चाहिए:
  1. पीड़िता और उसे लाने वाले व्यक्ति का नाम और पता,
  2. पीड़िता की उम्र, 
  3. डी.एन.ए. प्रोफाइलिंग के लिए व्यक्ति से ली गई सामग्री का विवरण,
  4. महिला की सामान्य मानसिक स्थिति,
  5. विशेष रूप से विस्तार से कोई अन्य सामग्री,
  1. रिपोर्ट में प्रत्येक निष्कर्ष पर पहुंचने का तर्क सटीक रूप से प्रदान किया जाना चाहिए,
  2. रिपोर्ट में विशेष रूप से महिला या उसकी ओर से सक्षम व्यक्ति की सहमति का उल्लेख होना चाहिए।
  3. रिपोर्ट में जांच के सही समय और शुरू होने का उल्लेख होना चाहिए।
  4. पंजीकृत चिकित्सक को तुरंत जांच की रिपोर्ट, अधिकारी को भेजनी चाहिए और जांच अधिकारी को धारा 173 के तहत तुरंत इसे मजिस्ट्रेट को भेजना चाहिए।
  5. इस धारा में किसी भी बात को महिला और उसकी ओर से किसी सक्षम व्यक्ति की सहमति के बिना वैध बनाने के रूप में नहीं माना जाएगा।

पॉक्सो अधिनियम की धारा 27 (2), चिकित्सा जांच का प्रावधान करती है। एक बच्ची के मामले में, एक महिला डॉक्टर के द्वारा उसकी चिकित्सा जांच की जानी चाहिए।

रिपोर्ट में विवरण

चिकित्सा जांच रिपोर्ट में निम्नलिखित बातें शामिल होंगी:

  • पीड़िता का नाम और पता।
  • पीड़िता की उम्र।
  • डी.एन.ए. प्रोफाइलिंग करने वाले व्यक्ति से ली गई सामग्री का विवरण।
  • पीड़ित की सामान्य मानसिक स्थिति।
  • रिपोर्ट में पीड़िता या उसकी ओर से सक्षम व्यक्ति की सहमति भी शामिल होगी।
  • रिपोर्ट में निष्कर्ष पर पहुंचने के तर्क का भी ठीक-ठीक उल्लेख किया जाएगा।

पीड़िता की सहमति

यौन हिंसा की शिकार किसी भी महिला का चिकित्सा परीक्षण तभी किया जाता है जब वह महिला सहमति देती है। धारा 164A (7) अदालत और पुलिस को पीड़िता की सहमति के बिना पीड़िता की चिकित्सा जांच करने से रोकती है। पीड़िता या उसकी ओर से सहमति देने के लिए सक्षम व्यक्ति द्वारा सहमति दी जा सकती है। सहमति प्राप्त करते समय निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जाना चाहिए:

  • यदि पीड़िता सहमति देने की स्थिति में नहीं है तो पीड़ित के माता-पिता सहमति दे सकते हैं।
  • अगर पीड़िता 12 साल से कम उम्र की बच्ची है और उसकी ओर से सहमति देने वाला कोई नहीं है, तो अस्पताल के अधिकारियों के पैनल के वरिष्ठ डॉक्टर सहमति दे सकते हैं। ऐसे में बच्ची के हित में निर्णय लिया जाएगा।
  • आई.पी.सी. की धारा 89 और 90 के प्रावधान के अनुसार, यदि पीड़ित की आयु 12 वर्ष से अधिक है तो वह चिकित्सकीय जांच के लिए सहमति दे सकती है।
  • आई.पी.सी. की धारा 92 के अनुसार, एक डॉक्टर, रोगी की सहमति के बिना उसकी जीवन रक्षा प्रक्रिया का संचालन कर सकता है।
  • यदि बच्चे के माता-पिता उसके कल्याण के खिलाफ हैं तो बाल कल्याण समिति को सूचित किया जाना चाहिए क्योंकि किशोर न्याय अधिनियम, 2015 के तहत बच्चे की देखभाल की जिम्मेदारी इस समिति की है।
  • मानसिक रूप से विकलांग किसी भी व्यक्ति की चिकित्सा जांच कराने के लिए किसी भी व्यक्ति की सहमति ली जा सकती है जो उसके सर्वोत्तम हित में कार्य करेगा।
  1. क्षेत्राधिकार (ज्यूरिसडिकशन) न्यायालय,
  2. माता-पिता या स्थानीय अभिभावक (गार्डियन),
  3. अस्पताल के डॉक्टर,
  4. बच्चे के मामले में बाल कल्याण समिति।
  • सुनने और बोलने में अक्षम पीड़ित व्यक्ति की चिकित्सा जांच करने के लिए, दुभाषिया (इंटरप्रेटर) का उपयोग करके सूचित सहमति प्राप्त की जा सकती है।
  • सहमति फॉर्म पर पीड़ित, गवाह और जांच करने वाले डॉक्टर के हस्ताक्षर होने चाहिए।

ऐतिहासिक निर्णय

देवमन शामजी पाटिल बनाम स्टेट

इस मामले में याचिकाकर्ता आरोपी था। मामले के तथ्य यह थे कि एक दिन पुलिस अधिकारी को सूचना मिली कि एक व्यक्ति शराब के नशे में सार्वजनिक सड़क पर बदतमीजी कर रहा था। इसकी सूचना के आधार पर संबंधित पुलिस अधिकारी ने 5 से 6 सिपाहियों की टीम बनाकर मौके पर पहुंच कर पाया कि वह व्यक्ति शराब के नशे में था और उन्होंने उसे पास के डॉक्टर के पास ले जाने का फैसला किया, ताकि उसकी चिकित्सकीय जांच की जा सके।

इस बीच जब पुलिस अधिकारियों ने उसे डॉक्टर के पास ले जाने की कोशिश की तो उसने मना कर दिया और उसके और एक पुलिस कांस्टेबल के बीच हाथापाई भी हुई, जिसे उसने हाथापाई के दौरान घूंसा मारा था। आरोपी को चिकित्सा जांच के लिए डिस्पेंसरी ले जाया जा रहा था, बीच में किसी तरह से वह मौके से फरार हो गया।

कुछ दिनों के बाद उसने अपने कार्य की गंभीरता को देखते हुए पुलिस के सामने आत्मसमर्पण (सरेंडर) कर दिया। लोक सेवक को अपने कर्तव्य का निर्वहन करने से रोकने के लिए उसे आई.पी.सी. की धारा 353 के तहत दोषी ठहराया गया था।

दोषसिद्धि एक अपील में बदल गई और अदालत ने आई.पी.सी. की धारा 99(1) की तकनीकी व्याख्या पर भरोसा किया, जिसमें आरोपी को निजी प्रतिरक्षा के अधिकार से वंचित कर दिया गया था। आरोपी को चिकित्सा डिस्पेंसरी ले जाने का आदेश कांस्टेबल ने दिया था, जिसे ऐसा आदेश जारी करने की अनुमति नहीं है।

अदालत ने माना कि आरोपी आई.पी.सी. की धारा 352 और 354 के तहत दोषी नहीं है और निचली अदालत के आदेश को रद्द कर दिया।

राम स्वरूप पाठक बनाम स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश 

इस मामले में अभियोजन पक्ष आठवीं कक्षा का एक छात्र था। अपीलकर्ता अंग्रेजी का शिक्षक था। घर में अभिभावक के न होने पर अपीलकर्ता पीड़िता के घर आया और उससे दूध के लिए पैसे लेने को कहा। बाद में, उसे एक सुनसान जगह पर ले जाया गया जो एक किराए का कमरा था और शिक्षक द्वारा उसके साथ बलात्कार किया गया। शिक्षिक ने उसे धमकी दी कि वह इस तथ्य को किसी को न बताए अन्यथा उसे परिणाम भुगतने होंगे।

निचली अदालत ने अपने फैसले में अपीलकर्ता को जिम्मेदार ठहराया और उसे पहली गिनती में 10 साल के कठोर कारावास और अंतिम गिनती में 3 साल के कठोर कारावास के लिए जेल भेज दिया गया था।

अपीलकर्ता ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की जिसमें अदालत ने उसे निम्नलिखित आधारों पर जमानत की अनुमति दी:

  • मौजूदा मामले में चिकित्सा जांच में दो दिन की देरी हुई थी।
  • इसके अलावा, अभियोजन पक्ष की कहानी उसकी मां द्वारा समर्थित नहीं है, उसकी मां ने कहा कि उसने उसे बताया कि अपीलकर्ता ने सिर्फ उसकी शील (मोडेस्टी) भंग करने की कोशिश की थी।
  • इसके अलावा, चिकित्सा परीक्षण के दौरान जिन साक्ष्यों पर भरोसा किया जाता है, वह वीर्य (सीमेन) की उपस्थिति है, वीर्य की उपस्थिति आरोपी के शरीर पर नहीं थी।
  • उपरोक्त निष्कर्षों के आधार पर, अदालत ने आंशिक रूप से अपील की अनुमति दी और आई.पी.सी. की धारा 506 के तहत दोषसिद्धि को बरकरार रखा और उसे 3 साल तक के कठोर कारावास की सजा सुनाई।

सेल्वी बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक 

इस मामले में, 2004 में, श्री सेल्वी और अन्य ने आपराधिक अपीलों का पहला बैच दायर किया और उसके बाद, बाद में अपील की गई थी। पहले मामलों में जहां यह कहा गया था कि जांच एजेंसियों द्वारा जानकारी निकालने से भविष्य में अपराध की रोकथाम में मदद मिलेगी। यह भी आग्रह किया गया था कि इस तरह की तकनीकों को लागू करने से तथ्यों को मजबूत करने में मदद मिलेगी और इससे दोषसिद्धि और बरी होने की दर में भी वृद्धि होगी।

इस मामले ने तकनीकी साक्ष्यों के आधार पर अपराध का निर्धारण करने पर काफी हद्द तक प्रकाश डाला था। इस मामले में निम्नलिखित तकनीकी साक्ष्य पर चर्चा की गई थी:

  • नार्को एनालिसिस टेस्ट: इस टेस्ट में आरोपी को एक हिप्नोटिक ड्रग दिया जाता है और जब वह अवचेतन (सबकांशियस) में पहुंचता है तो उससे सवाल पूछे जाते हैं। इसकी सफलता दर अधिक नहीं है। इसके अलावा, कनाडा के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक कृत्रिम निद्रावस्था (हिप्नोटिक स्टेट) में दिया गया बयान स्वैच्छिक नहीं है और इसे सबूत के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
  • ब्रेन इलेक्ट्रिकल एक्टिवेशन प्रोफाइल: इस तरीके को यह जानने के लिए प्रयोग किया जाता है कि क्या व्यक्ति कुछ निश्चित सूचनाओं से परिचित है जो कार्य को मापने के माध्यम से होते है जो उत्तेजनाओं (स्टीमुली) के चयनित जोखिम से शुरू होते है।

अदालत ने कहा है कि नार्को एनालिसिस का अनैच्छिक प्रशासन क्रूर, अपमानजनक और अमानवीय है। यदि यह आरोपी की सहमति के बिना किया गया है तो नार्को एनालिसिस टेस्ट के द्वारा एकत्र किए गए साक्ष्य अस्वीकार्य हैं।

अदालत ने उपरोक्त तकनीकों के साथ एकत्र किए गए सबूतों की सीमा पर भी जोर दिया। अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 20(3) की व्याख्या की जो स्वयं को दोषी ठहराने की बात करता है।

अदालत ने कहा कि चिकित्सा जांच और डी.एन.ए. प्रोफाइलिंग, ब्रेन मैपिंग, पॉलीग्राफ टेस्ट जैसी किसी अन्य तकनीक के जरिए साक्ष्य एकत्र करना आरोपी को दोषी ठहराने की सीमा तक सीमित होना चाहिए। इसके अलावा, आरोपी के निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

पीड़िता की चिकित्सा जांच की प्रक्रिया को मौजूदा स्थिति के हिसाब से बदला जाना चाहिए। प्रक्रिया में अपराध के स्थान के आसपास चिकित्सक की उपस्थिति की परिकल्पना की गई है, लेकिन यदि अपराध दूरस्थ (रिमोट) क्षेत्र में किया जाता है जहां चिकित्सा सुविधाओं तक पहुंच नहीं है, तो क्या संभावनाएं हैं जिनका प्रयोग किया जा सकता है, यह भी देखा जाना चाहिए। सरकारी अस्पताल में सुधार किया जाना चाहिए और हाल के दिनों की चिंता को दूर करने के लिए इसे आधुनिक मशीनों से लैस (इक्विप) किया जाना चाहिए।

 

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