संविधान के तहत आर्टिकल 36 – 51

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Constitution of India
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यह लेख यूपीईएस देहरादून के स्कूल ऑफ लॉ से बी.कॉम एलएलबी करने वाले तृतीय वर्ष के छात्र Avinash Kumar द्वारा लिखा गया है। यह लेख राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी) की अवधारणा (कांसेप्ट) पर चर्चा करता है। इस लेख में, मैंने प्रासंगिक (रिलेवेंट) मामलो के साथ निर्देशक सिद्धांत के सभी प्रावधानों का उल्लेख किया है और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत और मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट्स) की तुलना करने की कोशिश की है। इस लेख का अनुवाद Sakshi  Gupta के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारतीय संविधान का भाग IV राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (डीपीएसपी) को परिभाषित करता है। मूल रूप से, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को आयरिश संविधान से लिया गया है। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत राज्य के लिए दिशानिर्देश हैं जो भारतीय संविधान में लिखे गए हैं। लेकिन आप कानून की कोर्ट में राज्य को उनकी प्रवर्तनीयता (एंफोर्सिबिलिटी) के लिए बाध्य नहीं कर सकते। जबकि मौलिक अधिकार कानून की कोर्ट में लागू करने योग्य है। निर्देशक सिद्धांत निर्देशों का एक समूह है जिसका नागरिकों के लिए नीति बनाते समय सांसदों को पालन करना होता है।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत समाज की बेहतरी के लिए अच्छी नीतियां बनाने के लिए राज्य पर एक दायित्व बनाता है ताकि वह नागरिकों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को विकसित कर सके।

निर्देशक सिद्धांतों के पीछे अंतर्निहित (अंडरलाइंग) उद्देश्य

यदि केंद्र या राज्य सरकार ने कोई कानून बनाया है तो यह केंद्र या राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि वह राज्य नीति के मार्गदर्शक सिद्धांत का पालन करे। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के पीछे का उद्देश्य राज्य का कल्याण है। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के पीछे एक महत्वपूर्ण उद्देश्य कल्याणकारी (वेल्फेयर) राज्य के लक्ष्य को प्राप्त करना है। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का उद्देश्य नागरिकों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार करना है ताकि वे अच्छे जीवन का आनंद उठा सकें।  राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत सरकार के लिए एक नियंत्रण और संतुलन के रूप में कार्य करते हैं ताकि आगामी चुनाव में देश का नागरिक पिछली सरकार के प्रदर्शन के अनुसार अपना वोट डाल सके।

सरकार की सफलता और विफलता को उनकी नीतियों और सिद्धांतों से आंका जा सकता है और यदि सरकार राज्य में निर्देशक सिद्धांत को उचित तरीके से लागू करने में विफल रहती है, तो वे आगामी चुनाव हार सकते हैं। इसलिए राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत राज्य पर यह दायित्व डालते हैं कि इस सिद्धांत को लागू करके समयावधि के भीतर राज्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।

निर्देशों का वर्गीकरण

सामाजिक और आर्थिक चार्टर

न्याय पर आधारित एक सामाजिक व्यवस्था

भारतीय संविधान का आर्टिकल 38(1) न्याय पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की बात करता है। आर्टिकल 38(1) कहता है कि लोगों के कल्याण के लिए काम करना राज्य की जिम्मेदारी है। सामाजिक व्यवस्था में कानून और व्यवस्था शामिल है। इसमें सार्वजनिक व्यवस्था और राज्य की सुरक्षा भी शामिल है। इसलिए सार्वजनिक शांति, सार्वजनिक सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखना राज्य की जिम्मेदारी है।

नागरिकों की सुरक्षा बनाए रखने के लिए राज्य के पास कानूनी कर्तव्य के साथ-साथ संवैधानिक जनादेश (मैंडेट) भी है।

आर्थिक न्याय हासिल करने के लिए राज्य द्वारा अपनाए जाने वाले नीति के सिद्धांत

भारतीय संविधान का आर्टिकल 39 राज्य को नागरिकों के लिए नीति बनाते समय सिद्धांतों का पालन करने का निर्देश देता है।

  • आजीविका (लाइवलीहुड) के साधनों में पुरुषों और महिलाओं का समान अधिकार होगा।
  • आम लोगों को सामग्री का स्वामित्व (ओनरशिप) और नियंत्रण वितरित करना राज्य की जिम्मेदारी है।
  • यह राज्य की जिम्मेदारी है कि वह लिंग के आधार पर भेदभाव न करे अर्थात पुरुषों और महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन मिलेगा।
  • बच्चों और श्रमिकों के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करना राज्य की जिम्मेदारी है।
  • आर्टिकल 39(b) में भौतिक संसाधन (मैटेरियल रिसोर्सेज) भी शामिल हैं। विकास के उद्देश्य से, घर के निर्माण के लिए, सड़क, खेल के मैदान, पुल जैसी सार्वजनिक सुविधाएं प्रदान करने के उद्देश्य से, सरकार निजी मालिकों की भूमि का अधिग्रहण (एक्वायर) कर सकती है।

सामाजिक सुरक्षा चार्टर

आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को समान न्याय और मुफ्त कानूनी सहायता

भारतीय संविधान का आर्टिकल 39A कहता है कि देश के सभी नागरिकों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करना राज्य का कर्तव्य है। नि:शुल्क कानूनी सहायता के संबंध में प्रावधान और योजनाएँ बनाना राज्य का दायित्व है ताकि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग इसका लाभ उठा सकें। कानूनी सहायता और त्वरित सुनवाई अब एक मौलिक अधिकार है जो भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के अंदर आता है। यहां तक ​​कि सभी कैदी भी इस अधिकार का लाभ उठा सकते हैं।

ग्राम पंचायतों का संगठन

भारतीय संविधान का आर्टिकल 40 पंचायती राज व्यवस्था के बारे में बात करता है। पंचायती राज की स्थापना के लिए सभी कदम उठाने की जिम्मेदारी राज्य की होती है।

पंचायती राज भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का स्तंभ (पिलर) है। यह स्थानीय स्वशासन (सेल्फ गवर्नमेंट) का सबसे पुराना रूप है। पंचायती राज चुनाव भारतीय लोकतंत्र का आधार है। पंचायती राज के सभी सदस्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा चुने जाते हैं। पंचायती राज व्यवस्था को 1973 में 73वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में शामिल किया गया था। राजस्थान पंचायती राज व्यवस्था को अपनाने वाला पहला राज्य था। पंचायती राज व्यवस्था का चुनाव राज्य चुनाव आयोग (कमीशन) द्वारा कराया जाता है।  राज्य वित्त (फाइनेंस) आयोग पंचायती राज व्यवस्था की बेहतरी के लिए धन उपलब्ध कराता है।

1992 में 73वें संविधान संशोधन द्वारा भारतीय संविधान में पंचायती राज व्यवस्था को शामिल किया गया था।

बलवंत राय समिति की सिफारिशों पर पंचायती राज व्यवस्था को तीन स्तरों में विभाजित किया गया है:

  • ग्राम पंचायत;
  • पंचायत समिति;
  • जिला परिषद।

कुछ मामलों में काम, शिक्षा और सार्वजनिक सहायता का अधिकार

भारतीय संविधान का आर्टिकल 41 कहता है कि राज्य का कर्तव्य है कि वह रोजगार, शिक्षा और बेरोजगारों और उनको भी जो वृद्ध लोगों की तरह अपनी देखभाल नहीं कर सकते है, को सहायता प्रदान करे।

काम की न्यायसंगत (जस्ट) और मानवीय शर्तें

भारतीय संविधान का आर्टिकल 42 राज्य को मनुष्यों की स्थिति विकसित करने और मातृत्व (मैटरनिटी) राहत प्रदान करने का निर्देश देता है।

श्रमिकों के लिए एक जीवित मजदूरी (लिविंग वेज)

आर्टिकल 43 श्रमिकों के लिए जीवित मजदूरी को संदर्भित करता है, जिसका अर्थ है कि राज्य की जिम्मेदारी है कि वह श्रमिक के वेतन के संबंध में प्रावधान करे और मजदूरी ऐसी होनी चाहिए कि वह कपड़े, भोजन, आश्रय जैसी सभी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सके।

उद्योगों (इंडस्ट्रीज) के प्रबंधन (मैनेजमेंट) में श्रमिकों की भागीदारी

भारतीय संविधान का आर्टिकल 43A उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी के बारे में बात करता है। आर्टिकल 43A कहता है कि कानून के माध्यम से, राज्य की जिम्मेदारी है कि वह श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित करे।

6 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए प्रारंभिक बाल्यावस्था (अर्ली चाइल्डहुड) देखभाल और शिक्षा का प्रावधान

भारतीय संविधान का आर्टिकल 45 राज्य को 14 वर्ष की आयु तक सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के संबंध में प्रावधान करने का निर्देश देता है। सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का कारण निरक्षरता (इल्लिटरेसी) दर को मिटाना है।

उन्नी कृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि 14 वर्ष की आयु तक शिक्षा का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और यह आर्टिकल 21 के दायरे में आएगा जो कि जीवन और  व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार है। 86वें संविधान संशोधन में, एक नया आर्टिकल जोड़ा गया है जो कि आर्टिकल 45 है जो कहता है कि राज्य 6 साल तक की उम्र के सभी बच्चों की देखभाल करेगा और मुफ्त शिक्षा प्रदान करेगा।

कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देना

भारतीय संविधान का आर्टिकल 46 राज्य को अनुसूचित जातियों (शेड्यूल कास्ट), अनुसूचित जनजातियों (ट्राइब्स) और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने की शक्ति प्रदान करता है। समाज से होने वाले हर प्रकार के शोषण (एक्सप्लॉयटेशन) और अन्याय से उन्हें बचाने की जिम्मेदारी भी राज्य की है।

जीवन स्तर को ऊपर उठाने और स्वास्थ्य में सुधार करने का कर्तव्य

भारतीय संविधान का आर्टिकल 47 पोषण (न्यूट्रीशन) के स्तर में सुधार और जीवन स्तर को बनाए रखने के लिए राज्य पर एक दायित्व बनाता है। यह सार्वजनिक स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार के लिए राज्य पर एक दायित्व भी बनाता है।

राज्य के पास सभी नशीले पेय और दवाओं को प्रतिबंधित करने की शक्ति है जो चिकित्सा उद्देश्यों को छोड़कर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं।

समुदाय (कम्युनिटी) कल्याण चार्टर

समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड)

भारतीय संविधान के आर्टिकल 44 में कहा गया है कि भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करना राज्य का कर्तव्य है।

मूल रूप से, समान नागरिक संहिता का अर्थ कानूनों का एक समूह है जिसके माध्यम से विभिन्न धर्मों के सभी व्यक्तिगत कानून एक मंच के अंदर आएंगे और एक ही कानून द्वारा शासित होंगे। लेकिन वर्तमान में, भारत में, प्रत्येक धर्म का एक अलग व्यक्तिगत कानून है और वे अपने व्यक्तिगत कानून का पालन करते हैं। गोवा एक समान नागरिक संहिता वाला एकमात्र राज्य है।

शाह बानो मामला

समान नागरिक संहिता को लेकर पहला मुद्दा शाह बानो मामले में उठा था। शाह बानो के मामले में, उसके पति अहमद खान ने उसे तलाक दे दिया और भरण-पोषण (मेंटेनेंस) देने से इनकार कर दिया। शाह बानो ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।

सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 125 के आधार पर शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया। यह देश के सभी नागरिकों पर लागू होता है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। लेकिन, मुस्लिम समुदाय सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानने को तैयार नहीं था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ प्रदर्शनकारियों (प्रोटेस्टर) द्वारा कई विरोध प्रदर्शन किए गए। प्रदर्शनकारियों का तर्क था कि सुप्रीम कोर्ट को व्यक्तिगत कानून में दखल देने का कोई अधिकार नहीं है।

इस मामले के बाद राजीव सरकार एक नया कानून लेकर आई जो मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) अधिनियम 1986 है, जिसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया। अधिनियम में कहा गया है कि तलाक के मामले में व्यक्तिगत कानून मान्य होगा।

अधिनियम में, यह भी उल्लेख किया गया था कि तलाक के मामले में मुस्लिम पुरुषों को केवल इद्दत अवधि के समय तक, यानी तलाक से 90 दिन तक भरण-पोषण देने का अधिकार होगा। उसके बाद भरण-पोषण देने की जिम्मेदारी वक्फ बोर्ड की होगी।

सरला मुद्गल मामला

इस मामले में कल्याणी नाम का एक एनजीओ था, और सरला मुद्गल कल्याणी एनजीओ की अध्यक्ष थीं, जिन्होंने मीना माथुर के लिए लड़ाई लड़ी थी। हिंदू व्यक्तिगत कानून के तहत मीना माथुर की शादी जितेंद्र माथुर से हुई थी। मुस्लिम कानून के अनुसार, एक प्रावधान है कि मुस्लिम पुरुष अपने जीवनकाल में अधिकतम चार पत्नियों से शादी कर सकते हैं। उसके बाद जितेंद्र माथुर ने इस्लाम धर्म अपना लिया और दूसरी लड़की से शादी कर ली और उस लड़की ने भी इस्लाम धर्म अपना लिया।

सरला मुद्गल ने जितेंद्र माथुर के खिलाफ मामला दर्ज कराया था। जितेंद्र माथुर के वकील की ओर से दलील दी गई कि उन्होंने मुस्लिम कानून के तहत शादी की है, जो दूसरी शादी की इजाजत देता है।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मीना माथुर के पक्ष में फैसला सुनाया और माना कि इस्लामी कानून चार विवाह की अनुमति देता है लेकिन शादी के उद्देश्य से धर्मांतरण (कन्वर्जन) व्यक्तिगत कानूनों का दुरुपयोग है।

आगे कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह केवल हिंदू विवाह अधिनियम के तहत भंग (डिसॉल्व) किया जाएगा। इस तरह के विवाह को रोकने के लिए कोर्ट ने यह भी कहा कि इसी तरह के मामलों को रोकने के लिए यूसीसी को लागू किया जाना चाहिए।

सहकारी समितियों का संवर्धन (प्रमोशन ऑफ कॉपरेटिव सोसाइटीज)

97वें संशोधन 2011 द्वारा सहकारी समितियों को बढ़ावा दिया गया है। सहकारी समितियों को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी राज्य की है। सहकारी समितियों में प्रबंधन, नियंत्रण, कार्य शामिल हैं।

कृषि और पशुपालन का संगठन (ऑर्गेनाइजेशन)

भारतीय संविधान का आर्टिकल 48 कृषि और पशुपालन के संगठन के बारे में बात करता है। कृषि और पशुपालन को व्यवस्थित करना राज्य की जिम्मेदारी है। आर्टिकल 48 राज्य को गायों और बछड़ों और अन्य डेयरी जानवरों के वध (स्लॉटर) पर रोक लगाने का भी निर्देश देता है।

वनों और वन्यजीवों का संरक्षण और सुधार

भारतीय संविधान के आर्टिकल 48A में कहा गया है कि पर्यावरण, जंगल और वन्यजीव जानवरों की रक्षा के लिए सभी आवश्यक कदम उठाना राज्य की जिम्मेदारी है। एम.सी मेहता मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि प्रदूषित पानी की गुणवत्ता (क्वालिटी) में सुधार के लिए कदम उठाने की जिम्मेदारी राज्य की है।

राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों (मॉन्यूमेंट्स) और स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण

भारतीय संविधान का आर्टिकल 49 राज्य को स्मारकों और ऐतिहासिक स्थानों की देखभाल करने और उनकी रक्षा करने की शक्ति प्रदान करता है। प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारकों की रक्षा करना भी राज्य की जिम्मेदारी है।

न्यायपालिका को कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव) से अलग करना

भारतीय संविधान का आर्टिकल 50 न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने की बात करता है। न्यायपालिका एक स्वतंत्र संस्था है। संविधान का संरक्षक (गार्डियन) न्यायपालिका है। यदि कार्यपालिका न्यायपालिका की तरह काम करने लगेगी तो सत्ता का टकराव होगा इसलिए आर्टिकल 50 न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करता है।

हालांकि, कुछ मामलों में, कार्यपालिका द्वारा न्यायिक कार्य किए जाते हैं।

जैसे न्यायाधीशों की नियुक्ति में उन्हें कार्यपालिका द्वारा नियुक्त किया जाता है।

हालांकि, क्षमा करने और प्राप्त करने के मामले में कार्यपालिका को अधिकार प्राप्त है।

अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देना

भारतीय संविधान का आर्टिकल 51 अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने की बात करता है। दूसरे देश के साथ शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देना राज्य की जिम्मेदारी है।

दूसरे देश के साथ अच्छे संबंध बनाए रखना राज्य की जिम्मेदारी है। दूसरे देश के साथ अच्छे संबंध राज्य की कई तरह से मदद करते हैं।

ऐसे कई अंतर्राष्ट्रीय कानून और संधियाँ (ट्रीटी) हैं जिन पर दोनों राज्यों के बीच हस्ताक्षर किए गए थे, इसलिए यह राज्य का दायित्व है कि वह सभी संधियों और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का सम्मान करे या उनका पालन करे। इसमें यह भी कहा गया है कि यदि दोनों राज्यों के बीच कोई विवाद उत्पन्न होता है तो विवाद को मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) द्वारा निपटाने की जिम्मेदारी राज्य की होती है।

निर्देशक सिद्धांतों और मौलिक अधिकारों के बीच संबंध

मौलिक अधिकार किसी भी कानून को बनाते समय सरकार की शक्ति को सीमित करता है जिसका अर्थ है कि सरकार के पास ऐसा कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है जो मौलिक अधिकार से असंगत (इनकंसिस्टेंट) हो।  लेकिन राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत कुछ लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए राज्य के लिए दिशानिर्देश हैं। यदि आपके मौलिक अधिकार का हनन हुआ है तो आप आर्टिकल 32 के द्वारा कोर्ट जा सकते हैं लेकिन राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का उल्लंघन करके आप कोर्ट नहीं जा सकते।

आजकल, कई बहसें चल रही हैं कि राज्य में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का कोई उपयोग नहीं है क्योंकि यह कोर्ट में लागू नहीं है लेकिन वर्तमान परिदृश्य (सिनेरियो) में, यह समाज की बेहतरी के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

आप राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत को मौलिक अधिकार में पढ़ सकते हैं। आप शिक्षा के अधिकार का उदाहरण ले सकते हैं।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत मौलिक अधिकारों के दायरे का विस्तार करते हैं।

अतीत में, कई न्यायिक घोषणाएं हैं जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाई गई हैं जिसमें वे उनके बीच की रेखा खींचते हैं।

मद्रास बनाम चंपकम दोरैराजन

इस मामले में, एपेक्स कोर्ट ने माना कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत मौलिक अधिकार के सहायक है क्योंकि मौलिक अधिकार कानून की कोर्ट में लागू करने योग्य है जबकि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत नहीं है। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत मौलिक अधिकार के अनुसार चलेंगे।

रे केरल शिक्षा विधेयक (बिल)

रे केरल शिक्षा विधेयक के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत के बीच कोई विरोध नहीं है। मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत एक दूसरे के पूरक (सप्लीमेंट्री) हैं।

इसके अलावा, कोर्ट ने माना कि वे प्रकृति में व्यापक हैं ताकि भविष्य में यह समाज की जरूरतों के अनुसार बदल सके। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत एकीकृत (इंटीग्रेटेड) योजना है।

मिनर्वा मिल्स मामला

मिनर्वा मिल्स मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मौलिक अधिकार रास्ते का अंत नहीं हैं और अंत राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत में निर्दिष्ट हैं। इसके अलावा, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि आप किसी एक को प्राथमिकता नहीं दे सकते। दोनों को प्राथमिकता देनी होगी।

मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के बीच सामंजस्य (हार्मोनी) और संतुलन संविधान की एक अनिवार्य विशेषता है।

अशोक कुमार ठाकुर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया

इस मामले में, कोर्ट ने कहा कि आप अधिकारों के सेट के बीच अंतर नहीं कर सकते है। मौलिक अधिकार के अलग-अलग लक्ष्य होते हैं जबकि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत के अलग-अलग लक्ष्य होते हैं। मौलिक अधिकार नागरिक और राजनीतिक अधिकार का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंट) करते हैं जबकि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत सामाजिक और राजनीतिक अधिकार का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके अलावा, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत को कोर्ट में लागू नहीं किया जा सकता है, इसका मतलब यह नहीं है कि ये सबोर्डिनेट हैं।

निर्देशक सिद्धांतों को मौलिक अधिकारों का दर्जा दिया है: एक नया आयाम (डायमेंशन)

यह सच है कि न्यायिक घोषणाओं द्वारा कोर्ट ने राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को एक नया आयाम दिया है। कुछ मामलों में, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत ने मौलिक अधिकार की अवधारणा की व्याख्या की है।

उन्नीकृष्णन मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने निर्देशक सिद्धांत की स्थिति को मौलिक अधिकार में बदल दिया है। इसीलिए भारतीय संविधान के आर्टिकल 45 की स्थिति को निर्देशक सिद्धांत से बदलकर मौलिक अधिकार कर दिया गया है। ताकि 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना राज्य की जिम्मेदारी हो और यह कानून की कोर्ट में लागू करने योग्य है। एक और उदाहरण है जिसने मौलिक अधिकार का रूप ले लिया है वह है समान कार्य के लिए समान वेतन। रणधीर सिंह के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि समान काम के लिए समान वेतन एक मौलिक अधिकार है और यह एक कोर्ट में लागू करने योग्य है।

एम.एच.होसकोट बनाम मद्रास राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि उचित कानूनी सहायता कोर्ट की निष्पक्ष प्रक्रिया का एक अभिन्न (इंटीग्रल) अंग है और यह सरकार का कर्तव्य है कि वह मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करे। नि:शुल्क कानूनी सहायता भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के अंदर आती है। जबकि हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि विचाराधीन (ट्रायल) कैदियों को हिरासत में रखना आर्टिकल 21 का उल्लंघन है और त्वरित सुनवाई का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, जो  भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के तहत आएगा।

डीपीएसपी और मौलिक अधिकारों के बीच अंतर

मौलिक अधिकार राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत
भारतीय संविधान का आर्टिकल 12 से 35 मौलिक अधिकार से संबंधित है। यह भारतीय संविधान के भाग III में है। भारतीय संविधान का आर्टिकल 36 से 51 राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत से संबंधित है। यह भारतीय संविधान के भाग IV में है।
ये प्रकृति में नकारात्मक हैं क्योंकि ये राज्य को कुछ चीजें करने से रोकते हैं। ये प्रकृति में सकारात्मक हैं क्योंकि इसके लिए राज्य को कुछ चीजें करने की आवश्यकता होती है।
मौलिक अधिकार किसी भी कोर्ट में लागू करने योग्य हैं। निर्देशक सिद्धांत कानून की कोर्ट में लागू करने योग्य नहीं हैं।
मौलिक अधिकार व्यक्ति के कल्याण को बढ़ावा देते हैं। निर्देशक सिद्धांत समुदाय के कल्याण को बढ़ावा देते हैं।
मौलिक अधिकार के क्रियान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) के लिए इसे किसी कानून की आवश्यकता नहीं है। निर्देशक सिद्धांत को लागू करने के लिए कानून की आवश्यकता है।

डीपीएसपी और संशोधन

यदि केंद्र सरकार को लगता है कि निर्देशक सिद्धांत में संशोधन करने या कुछ जोड़ने की आवश्यकता है तो संसद को विशेष बहुमत (मेजॉरिटी) द्वारा निर्देशक सिद्धांत में कुछ संशोधन करने या जोड़ने की शक्ति है। संसद द्वारा कई संशोधन किए गए हैं जो नीचे दिए गए हैं।

  • 42वां संशोधन अधिनियम, 1976

42वें संशोधन 1976 में संसद ने निर्देशक सिद्धांत में चार संशोधन किए हैं। भारतीय संविधान के आर्टिकल 39 संसद ने लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए एक सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित करने के लिए राज्य पर एक दायित्व बनाया है।

उसके बाद संसद ने एक नया आर्टिकल जोड़ा है जो कि आर्टिकल 39A है जो कहता है कि सभी को समान न्याय और मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करना राज्य का कर्तव्य है। 42वें संशोधन अधिनियम के तहत संसद ने  एक नया आर्टिकल जोड़ा है जो आर्टिकल 48A है जो कहता है कि पर्यावरण की रक्षा करना और हर संभव तरीके से पानी और हवा की गुणवत्ता में सुधार करना राज्य का कर्तव्य है।

  • 44वां संशोधन अधिनियम, 1978

भारतीय संविधान के 44वें संशोधन ने राज्य पर व्यक्ति की आय में असमानताओं को दूर करने के लिए सभी कदम उठाने और अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्तियों और लोगों के समूह को सुविधाएं देने का दायित्व बनाया।

  • 73वां संशोधन अधिनियम, 1992

73वें संविधान संशोधन द्वारा, संसद ने भारतीय संविधान के भाग IX में पंचायत को जोड़ा है जो ग्राम पंचायत के संगठन के बारे में बात करता है।

  • 86वां संशोधन अधिनियम, 2002

86वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान में एक नया आर्टिकल जोड़ा गया है जो कि आर्टिकल 21A है जो कहता है कि शिक्षा का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। यह राज्य पर 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का दायित्व बनाता है। यदि राज्य ऐसा करने में विफल रहता है तो आप कानून की कोर्ट में मुकदमा कर सकते हैं।

  • 97वां संशोधन अधिनियम, 2011

भारतीय संविधान में आर्टिकल 43B जोड़ा गया जो सहकारी समितियों से संबंधित है। यह राज्य को सहकारी समितियों के स्वैच्छिक (वॉलंटरी) गठन, स्वायत्त (ऑटोनोमस) कामकाज, लोकतांत्रिक नियंत्रण और पेशेवर प्रबंधन को बढ़ावा देने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाने का निर्देश देता है।

न्यायिक घोषणा

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत पर मौलिक अधिकार की सुपरमैसी को लेकर समय-समय पर कई संघर्ष होते रहे हैं।

सवाल यह था कि क्या मौलिक अधिकार राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत से बेहतर है या नहीं? तो कई न्यायिक घोषणाओं के माध्यम से, सुप्रीम कोर्ट ने उस पर अपना रुख साफ कर दिया है।

  • मद्रास राज्य बनाम चंपकम दोरायजान (एआईआर 1951 एससी 226)

इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यदि संसद कोई ऐसा कानून बनाती है जो मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है तो वह कानून शून्य होगा लेकिन यह राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत पर लागू नहीं होगा। यह दर्शाता है कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की तुलना में मौलिक अधिकार उच्च स्तर पर हैं। मौलिक अधिकार की सहायक राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत है। निर्देशक सिद्धांत मौलिक अधिकार के अनुसार कार्य करेगा।

  • केरल शिक्षा विधेयक (1959 1 एससीआर 995)

इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने नए सिद्धांत दिए जो कि सामंजस्यपूर्ण निर्माण का सिद्धांत (डॉक्ट्राइन ऑफ हार्मोनीयस कंस्ट्रक्शन) है। इस मामले में एपेक्स कोर्ट ने कहा कि यदि मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत के बीच कोई टकराव होता है तो सामंजस्यपूर्ण निर्माण का सिद्धांत लागू होगा। हालांकि यदि सामंजस्यपूर्ण निर्माण के सिद्धांत को लागू करने के बाद भी कोई संघर्ष रहता है तो राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों पर मौलिक अधिकार प्रबल होगा।

  • गोलकनाथ और अन्य बनाम पंजाब राज्य (1967 एआईआर 1643)

इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि संसद भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार में संशोधन नहीं कर सकती है। इस मामले में एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह था कि क्या आर्टिकल 13(2) के तहत संशोधन एक “कानून” है। आर्टिकल 39 (b) और आर्टिकल 39 (c) राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत के दायरे में आते हैं और इन आर्टिकलों को लागू करने में यदि वह कानून भारतीय संविधान के आर्टिकल 14, 19 और 21 का उल्लंघन करता है तो उस कानून को असंवैधानिक घोषित नहीं किया जा सकता है।

  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) 4 एससीसी 225)

इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत को मौलिक अधिकार से उच्च स्थान पर रखा। मिनर्वा मिल्स मामले में एक सवाल था कि क्या राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का उस पर सुपरमैसी है। फिर, इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला किया है कि सामंजस्यपूर्ण निर्माण का सिद्धांत लागू होगा।

दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और राज्य के बेहतर कार्य के लिए दोनों को संतुलित किया जाना चाहिए।

  • उन्नीकृष्ण बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993 एससीसी (1) 645)

इस मामले में, कोर्ट का विचार था कि मौलिक अधिकार और निर्देशक सिद्धांत एक-दूसरे के लिए अनन्य (एक्सक्लूसिव) नहीं हैं, इसलिए उन्हें बहिष्करण (एक्सक्लूजन) में नहीं पढ़ा जाना चाहिए। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत के लक्ष्य को मौलिक अधिकार के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है।

निष्कर्ष

आप राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत के महत्व को नकार नहीं सकते है। यह एक समान भूमिका निभाता है। आप निर्देशक सिद्धांत से केवल इसलिए घृणा नहीं कर सकते क्योंकि यह कोर्ट में लागू नहीं होता है बल्कि वे राज्य के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत हैं। कानून बनाते समय इन सिद्धांतों को लागू करना राज्य की जिम्मेदारी है। हालांकि, यह कानून की कोर्ट में लागू करने योग्य नहीं है, लेकिन राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत मौलिक अधिकार की रीढ़ हैं। निर्देशक सिद्धांत के पीछे मुख्य कारण लोगों की स्थिति को मजबूत करना है। यह एक संरचना (स्ट्रक्चर) और नीति की तरह है जिसके द्वारा सरकार कानून बनाती है। आजकल बहुत सी नीति निर्देशक नीतियाँ हैं जो मौलिक अधिकार का रूप ले रही हैं। भारत एक लोकतांत्रिक देश है और हर 5 साल के बाद सरकार बदलती है और हर सरकार नए कानून बनाती है इसलिए उस स्थिति में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं क्योंकि हर सरकार को देश के लिए कानून बनाते समय इन सिद्धांतों का पालन करना होता है। 

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