भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के तहत प्रस्ताव की स्वीकृति

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Indian Contract Act
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यह लेख Shivangi Tiwari के द्वारा लिखा गया है, जो हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, रायपुर से बी.ए. एल.एल.बी. की पढ़ाई कर रही हैं और द्वितीय वर्ष की छात्रा है। यह संविदा (कॉन्ट्रेक्ट) के कानून के तहत ‘स्वीकृति (एक्सेप्टेंस)’ की अवधारणा (कांसेप्ट) से संबंधित एक विस्तृत लेख है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 2 (h) संविदा को परिभाषित करती है। इस धारा के अनुसार, एक संविदा, कानून के द्वारा प्रवर्तनीय (इनफॉर्सेबल) एक समझौता है। इसलिए, इस धारा के अनुसार, संविदा के गठन (फॉर्मेशन) के लिए दो आवश्यकताएं हैं।

  • सबसे पहले, किसी कार्य को करने या न करने के लिए एक समझौता होना चाहिए; तथा
  • दूसरा, समझौता कानून द्वारा प्रवर्तनीय होना चाहिए।

इसलिए, संविदा का कानून, कानून की वह शाखा है जो उन परिस्थितियों को तय करती है जिसमें किसी व्यक्ति द्वारा किया गया वादा, वादा करने वाले व्यक्ति पर कानूनी रूप से बाध्यकारी होता है। जबकि सभी संविदा समझौते होते हैं, लेकिन सभी समझौते संविदा नहीं होते हैं। एक समझौते को, एक संविदा में बदलने के लिए, इसकी कानूनी प्रवर्तनीयता होनी चाहिए। जो समझौता कानूनी रूप से लागू करने योग्य नहीं हैं, वे संविदा नहीं हैं, बल्कि वे केवल शून्य (वॉयड) समझौते होते हैं, जो कानून द्वारा लागू नहीं किए जा सकते हैं या एक पक्ष के विकल्प पर शून्य हो सकते हैं।

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (b), एक प्रस्ताव की स्वीकृति के बारे में बात करती है। इस धारा के अनुसार, जिस व्यक्ति को ऐसे व्यक्ति की सहमति प्राप्त करने की दृष्टि से किसी कार्य को करने या करने से परहेज करने की पेशकश की जाती है, यदि वह उस पर अपनी सहमति देता है, तो यह कहा जाता है कि उसने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। यह लेख स्वीकृति के बारे में बात करता है, जो भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अनुसार एक वैध संविदा की अनिवार्यताओं में से एक है।

एक वैध संविदा की अनिवार्यता

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 10 उन शर्तों के बारे में बात करती है जो एक वैध संविदा के लिए आवश्यक होती हैं। एक वैध संविदा के लिए आवश्यक शर्तें इस प्रकार हैं:

  1. प्रस्ताव (ऑफर): भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (a) प्रस्ताव या प्रस्थापना (प्रपोजल) के अर्थ को परिभाषित करती है। इस धारा के अनुसार एक प्रस्ताव या प्रस्थापना उस व्यक्ति द्वारा दिया जाता है, जो दूसरे व्यक्ति की सहमति प्राप्त करने की दृष्टि से किसी कार्य को करने या करने से परहेज करने की अपनी इच्छा को दर्शाता है;
  2. स्वीकृति: भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (b) “स्वीकृति” के बारे में बात करती है। इस धारा के अनुसार, जब वह व्यक्ति जिसे कोई प्रस्ताव दिया जाता है, वह उस पर अपनी सहमति देता है, तो यह कहा जाता है कि उसने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है;
  3. सहमति: भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 13 सर्वसम्मति (कंसेंसस) शब्द को परिभाषित करती है, जिसे किसी संविदा के लिए पक्षों के समझौते के रूप में परिभाषित किया गया है। एक वैध संविदा के गठन के लिए, यह आवश्यक है कि उनके पास “कंसेंसस एड इडम” हो, अर्थात सारे पक्ष एक ही बात के एक ही अर्थ में सहमत हों;
  4. संविदा करने की क्षमता: धारा 11 संविदा की योग्यता के मानदंड निर्धारित करती है। एक वैध संविदा में प्रवेश करने के लिए, संविदा में प्रवेश करने वाले पक्षों में, संविदा में प्रवेश करने की क्षमता होनी चाहिए;
  5. वैध प्रतिफल (कंसीडरेशन): प्रतिफल का अर्थ अनिवार्य रूप से ‘क्विड प्रो क्वो’ है, जिसका अर्थ है दूसरे के कार्य की वापसी में किया गया कोई कार्य। यह संविदा की शर्तों की पूर्ति के लिए किसी व्यक्ति द्वारा किए गए कार्य या चूक के लिए मुआवजा है;
  6. समझौते को स्पष्ट रूप से शून्य घोषित नहीं किया जाना चाहिए: पक्षों द्वारा किए गए समझौते को किसी भी कानून द्वारा स्पष्ट रूप से शून्य या अवैध घोषित नहीं किया जाना चाहिए।

स्वीकृति का तरीका

शब्द “स्वीकृति” को भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 2 (b) के तहत परिभाषित किया गया है। इस धारा के अनुसार, एक प्रस्ताव या प्रस्थापना को तब स्वीकार किया जाता है, जब वह व्यक्ति जिसे प्रस्ताव या प्रस्थापना या कार्य करने का प्रस्ताव दिया जाता है, यदि वह ऐसे कार्य या चूक के लिए अपनी सहमति देता है। इसलिए, संविदा की स्वीकृति तब होती है, जब वह व्यक्ति जिसे प्रस्ताव दिया जाता है, वह संविदा की शर्तों के लिए अपनी सहमति या इरादे को व्यक्त करता है। भारतीय संविदा अधिनियम के तहत, स्वीकृति निम्नलिखित दो तरीकों से हो सकती है:

  • निहित (इंप्लाइड) स्वीकृति: स्वीकृति जो स्पष्ट रूप से भाषण या लेखन के माध्यम से नहीं, बल्कि उस व्यक्ति के आचरण (कंडक्ट) से होती है, जिसे प्रस्ताव दिया जाता है। बोली लगाने वाले के द्वारा किए गए प्रस्ताव को अपनी स्वीकृति दिखाने के लिए नीलामीकर्ता द्वारा तीन बार हथौड़े का प्रहार करना, नीलामी में बोली लगाने वाले के द्वारा, नीलामीकर्ता को दिए गए प्रस्ताव को निहित स्वीकृति का एक उदाहरण है;
  • व्यक्त (एक्सप्रेस) स्वीकृति: जो स्वीकृति मौखिक या लिखित शब्दों के माध्यम से की जाती है, उसे व्यक्त स्वीकृति के रूप में जाना जाता है। उदाहरण के लिए, A, B को मेल के माध्यम से बिक्री के लिए अपनी घड़ी की पेशकश करता है और A ईमेल द्वारा प्रस्ताव का सकारात्मक जवाब देता है।

स्वीकृति: पूर्ण और अयोग्य (एब्सोल्यूट एंड अनक्वालिफाइड)

कानूनी रूप से लागू करने योग्य होने की स्वीकृति पूर्ण और अयोग्य होनी चाहिए। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 7(1) में प्रावधान है कि किसी प्रस्ताव को समझौते में बदलने के लिए प्रस्ताव की स्वीकृति पूर्ण और अयोग्य होनी चाहिए। इस सिद्धांत के पीछे तर्क यह है कि प्रस्ताव की स्वीकृति पूर्ण और अयोग्य होनी चाहिए, कि जब स्वीकृति पूर्ण नहीं होती है और योग्य होती है, तो यह एक प्रति प्रस्ताव में परिणत होता है जो एक प्रस्तावक (ऑफरर) द्वारा प्रस्तावी (ऑफरी) को दिए गए मूल प्रस्ताव को अस्वीकार कर देता है। यदि प्रस्तावी, प्रस्तावित संविदा की मूल शर्तों में कोई बदलाव करता है और फिर संविदा को स्वीकार करता है, तो ऐसी स्वीकृति संविदा की अमान्यता में परिणत होगी।

उदाहरण के लिए, यदि A अपनी बाइक B को 10,000 रुपये में बेचने की पेशकश करता है। लेकिन B उसे 7,000 रुपये में बाइक बेचने के लिए राजी करता है, जिससे A इनकार कर देता है और अगर B बाद में 10,000 रुपये में बाइक खरीदने के लिए सहमत होता है। तब A पर उसे बाइक बेचने का कोई दायित्व नहीं है क्योंकि B द्वारा किया गया प्रति-प्रस्ताव, मूल प्रस्ताव को समाप्त कर देता है।

यह भी महत्वपूर्ण है कि प्रस्तावी द्वारा की गई स्वीकृति पूर्ण रूप से होनी चाहिए, अर्थात प्रस्ताव के सभी नियमों और शर्तों को स्वीकृति दी जानी चाहिए क्योंकि प्रस्ताव के केवल एक हिस्से की स्वीकृति कानून के तहत अच्छी स्वीकृति नहीं है। उदाहरण के लिए, A, B को 700 रुपये में 30 किलो गेहूं बेचने की पेशकश करता है, लेकिन B केवल 10 किलो गेहूं खरीदने के लिए सहमत होता है। यहां B द्वारा की गई स्वीकृति, संविदा की शर्तों के संबंध में पूर्ण नहीं है और इसलिए, B द्वारा की गई स्वीकृति कानून की नजर में कोई स्वीकृति नहीं है और इसलिए, B को गेहूं बेचने का कोई दायित्व नहीं है क्योंकि उनके बीच कोई संविदा नहीं है।

प्रति प्रस्ताव (काउंटर प्रपोजल)

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (a), एक प्रस्थापना के अर्थ को परिभाषित करती है। इस धारा के अनुसार, एक प्रस्ताव, एक व्यक्ति द्वारा उसकी इच्छा को, किसी अन्य व्यक्ति की सहमति प्राप्त करने की दृष्टि से किसी कार्य को करने या करने से रोकने का संकेत है। वह व्यक्ति जो दूसरे व्यक्ति की सहमति प्राप्त करने की अपनी इच्छा को दर्शाता है, उसे “प्रस्तावक” कहा जाता है और जिस व्यक्ति को प्रस्ताव दिया जाता है, उसे “प्रस्तावी” कहा जाता है।

प्रति-प्रस्ताव या प्रस्थापना तब उत्पन्न होता है, जब वह व्यक्ति जिसे कोई प्रस्ताव सीधे स्वीकार करने के लिए दिया जाता है, वह इस प्रस्ताव को स्वीकर करने के बजाय ऐसी कोई शर्त लगाता है, जिसके परिणामस्वरूप संविदा की मूल शर्तों में संशोधन या परिवर्तन होता है। ऐसा कहा जाता है कि जो व्यक्ति इस तरह के परिवर्तन या संशोधन करता है, उसके बारे में कहा जाता है कि उसने एक प्रति-प्रस्ताव दिया है। प्रति प्रस्ताव मूल प्रस्ताव को अस्वीकार कर देता है और जिसके परिणामस्वरूप, जो व्यक्ति मूल प्रस्ताव देता है वह अब संविदा की शर्तों से बाध्य नहीं रहेगा।

आंशिक (पार्शियल) स्वीकृति

यह संविदा के कानून का एक स्थापित सिद्धांत है कि जो प्रस्ताव प्रस्तावी के सामने रखा जाता है, उसे उसके द्वारा संपूर्ण रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए और वह केवल संविदा की उन शर्तों से सहमत नही हो सकता, जो उसके अनुकूल (फेवरेबल) हैं, और वह शेष शर्तो को अस्वीकृत नहीं कर सकता, और प्रस्ताव के तहत शेष शर्तों के रूप में प्रस्ताव की अपूर्ण स्वीकृति के परिणामस्वरूप यह एक प्रति-प्रस्ताव होगा और इसलिए, यह प्रस्तावक को बाध्य नहीं करेगा क्योंकि उसके और प्रस्तावी के बीच कोई बाध्यकारी संविदा नहीं है।

रमनभाई एम. नीलकंठ बनाम घासीराम लाडलीप्रसाद के मामले में एक कंपनी में कुछ शेयरों के लिए आवेदन (एप्लीकेशन) इस शर्त पर किया गया था कि आवेदक को कंपनी की नई शाखा में कैशियर के रूप में नियुक्त किया जाएगा। कंपनी ने शर्त पूरी किए बिना आवेदक को शेयरों का आवंटन (एलॉटमेंट) कर दिया और उससे शेयर के पैसे की मांग की। इस मामले में, अदालत ने माना कि याचिकाकर्ता का 100 शेयरों के लिए आवेदन सशर्त (कंडीशनल) था और कंपनी की ओर से संविदा की शर्तों को पूरी तरह से स्वीकार करने का कोई इरादा नहीं था, जहां कंपनी में शेयरों के लिए तभी आवेदन किया था, जब तक कि उसे कैशियर के रूप में नियुक्त नहीं किया जाता और इसलिए, प्रस्ताव की केवल आंशिक स्वीकृति थी।

प्रस्तावों के संदर्भ में पूछताछ

“दर्पण छवि (मिरर इमेज)” नियम, आम कानून के तहत पारंपरिक संविदा कानून का नियम है। इस नियम के अनुसार, स्वीकृति प्रस्ताव की दर्पण छवि होनी चाहिए। प्रस्ताव की मूल शर्तों को बदलने के लिए प्रस्तावी द्वारा किए गए प्रयासों को प्रति प्रस्ताव के रूप में माना जाता है क्योंकि वे स्पष्ट रूप से यह इंगित करते हैं कि प्रस्तावी उस संविदा से बाध्य नहीं है जो उसके सामने रखा गया है। हालाँकि, हाल के दिनों में इस नियम को लागू करने के प्रति न्यायपालिका का रवैया यह मानते हुए अधिक उदार (लिबरल) हो गया है कि केवल वे बदलाव जो संविदा की भौतिक (मैटेरियल) शर्तों को सीधे प्रभावित करते हैं, उन्हें प्रति प्रस्ताव के रूप में माना जाना चाहिए, जो कि कथित स्वीकृति का एक परिणाम है।

यहां तक ​​​​कि दर्पण छवि के नियम के तहत भी, यादि प्रस्तावी केवल प्रस्ताव की शर्तों के बारे में पूछताछ करता है, तो यहां यह माना जाएगा की प्रस्ताव को अस्वीकार नहीं किया गया है, क्योंकि प्रस्तावी ने अस्वीकार करने का कोई इरादा नहीं दिखाया है। व्यावहारिक रूप से, प्रति-प्रस्ताव के और संविदा की शर्तों के बारे में पूछताछ करने के बीच अंतर करने की आवश्यकता है। हालांकि, दोनो के बीच अंतर करते समय, जिस मौलिक मुद्दे पर विचार किया जाना है, वह यह है कि क्या प्रस्तावी संविदा की शर्तों का पालन न करने के अपने इरादे को निष्पक्ष रूप से इंगित करता है।

बाद की शर्त के साथ स्वीकृति

संविदा के कानून के तहत, “शर्त” शब्द का प्रयोग ढीले अर्थ में किया जाता है और इसे “शर्तें”, “शर्त” या “खंड (क्लॉज)” के समानार्थक रूप से उपयोग किया जाता है। अपने उचित अर्थ में, शब्द शर्त का अर्थ स्वीकृति के बाद और स्वीकृति से पहले कुछ कार्यकारी शब्द है, यह एक ऐसा तथ्य है जिस पर संविदा के पक्षकारों के अधिकार और कर्तव्य निर्भर करते हैं। तथ्य किसी भी संविदाकारी पक्ष द्वारा कोई कार्य या चूक, तीसरे पक्ष का कार्य या किसी प्राकृतिक घटना का घटित होना या न होना हो सकता है। शर्तें तीन प्रकार की होती हैं, जो इस प्रकार हैं:

  • व्यक्त (एक्सप्रेस) शर्त: एक व्यक्त शर्त में, कुछ तथ्य शर्त के रूप में काम कर सकते हैं क्योंकि पक्षों द्वारा संविदा पर स्पष्ट रूप से सहमति व्यक्त की गई है;
  • निहित शर्त: जब कुछ तथ्य, जो एक शर्त के रूप में काम करते हैं, पक्षों द्वारा उनका उल्लेख स्पष्ट रूप से नहीं किया जाता है, लेकिन संविदा के लिए पक्षों के आचरण से अनुमान लगाया जा सकता है, तो उसे एक निहित शर्त के रूप में जाना जाता है;
  • रचनात्मक (कंस्ट्रक्टिव) शर्त: जब अदालत का मानना होता ​​​​है कि संविदा के पक्ष कुछ शर्तों को संचालित करने का इरादा रखते हैं क्योंकि अदालत का मानना ​​​​है कि न्याय को शर्त की उपस्थिति की आवश्यकता होती है। इन स्थितियों को रचनात्मक स्थितियों के रूप में जाना जाता है।

एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष के कार्यों या आचरण से एक संविदा लागू होता है। पक्ष के कार्यों या आचरण को केवल, दोनो के मन के मिलने या दोनों पक्षों के बीच एक समझौते से एक वादे में बदला जा सकता है। एक स्वीकृति जो बाद की शर्त रखती है, उस पर प्रति-प्रस्ताव का प्रभाव नहीं हो सकता है। इस प्रकार, जहां एक व्यक्ति ‘A’ ने इस चेतावनी के साथ स्वीकृति के साथ माल की बिक्री के लिए संविदा की शर्तों को स्वीकार कर लिया है कि यदि किसी विशेष तिथि तक पैसा नहीं दिया गया, तो संविदा अस्वीकार कर दिया जाएगा। तो ऐसे में, प्रस्ताव की स्वीकृति को प्रति-प्रस्ताव नहीं माना जाएगा।

प्रति प्रस्तावों की स्वीकृति

कुछ मामलों में, जिस व्यक्ति की प्रस्थापना या प्रस्ताव को प्रस्तावी द्वारा पूरी तरह या अयोग्य रूप से स्वीकार नहीं किया गया है क्योंकि प्रस्तावी मूल प्रस्ताव के लिए एक प्रति-प्रस्ताव ले आता है, तो ऐसे में प्रस्तावक प्रति-प्रस्ताव से बाध्य हो जाता है, और ऐसा तब ही हो सकता है यदि, प्रस्तावक के आचरण से, वह यह इंगित करता है कि उसने प्रस्तावी द्वारा निर्धारित प्रति-प्रस्ताव की शर्तों को स्वीकार कर लिया है।

हरगोपाल बनाम पीपल्स बैंक ऑफ नॉर्दर्न इंडिया लिमिटेड के मामले में, बैंक द्वारा शेयर के लिए एक आवेदन, एक सशर्त उपक्रम (अंडरटेकिंग) के साथ किया गया था कि आवेदक को स्थानीय शाखा के स्थायी निदेशक के रूप में नियुक्त किया जाएगा। बैंक द्वारा आवेदक को शेयर बिना शर्त की पूर्ति के आवंटित किए गए थे और आवेदक ने संविदा की शर्तों को पूरा न करने के संबंध में बिना किसी विरोध के इसे स्वीकार कर लिया था। जब न्यायालय में पक्षकारों के बीच विवाद उत्पन्न हुआ, तो आवेदक ने तर्क दिया कि मूल संविदा में निर्धारित शर्तों को पूरा न करने के आधार पर आवंटन शून्य था। अदालत ने आवेदक के पक्ष की दलील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उसके द्वारा यह दलील नहीं दी जा सकती क्योंकि उसने अपने आचरण से शर्त को माफ कर दिया है।

बिस्मी अब्दुल्ला एंड सन्स बनाम एफ.सी.आई. के मामले में, अदालत ने कहा कि जहां पैसे जमा करने के लिए निविदाएं (टेंडर) आमंत्रित की गई थीं, तो निविदाकारों (टेंडरर) के लिए यह खुला था कि वे आवश्यकता को छोड़ दें और बिना जमा किए निविदा को दी गई स्वीकृति निविदाकार के लिए बाध्यकारी है।

डी.एस. कंस्ट्रक्शन लिमिटेड बनाम राइट्स लिमिटेड के मामले में, अदालत ने माना कि निविदाकर्ता (टेंडरर) ने अनुमेय (पर्मिसिबल) अवधि के भीतर अपनी निविदा की शर्तों में बदलाव किया था, लेकिन निविदाकर्ता की सहमति के बिना दूसरे पक्ष द्वारा भिन्नताओं को केवल आंशिक रूप से स्वीकार किया गया था, जिससे संविदा का खंडन हुआ था, और इसलिए कोई संविदा नहीं था। इसलिए, पक्ष द्वारा जमा की गई बयाना राशि को जब्त नहीं किया जा सकता है।

अनंतिम (प्रोविजनल) स्वीकृति

अनंतिम स्वीकृति, प्रस्तावी द्वारा स्वीकृति का प्रकार है, जिसे अंतिम अनुमोदन (अप्रूवल) के अधीन किया जाता है। एक अनंतिम स्वीकृति आमतौर पर किसी भी पक्ष को संविदा के लिए बाध्य नहीं करती है जब तक कि प्रस्तावी द्वारा की गई अनंतिम स्वीकृति को अंतिम स्वीकृति नहीं दी जाती है। जब तक अनुमोदन नहीं दिया जाता है, तब तक प्रस्तावक, प्रस्तावी को दिए गए प्रस्ताव को रद्द करने के लिए स्वतंत्र है।

यूनियन ऑफ इंडिया बनाम एस. नारायण सिंह, के ममाले में, पंजाब उच्च न्यायालय ने कहा कि जहां शराब की नीलामी बिक्री से जुड़ी शर्त यह थी कि बोली की स्वीकृति मुख्य आयुक्त (चीफ कमिश्नर) द्वारा पुष्टि के अधीन होगी। जब तक मुख्य आयुक्त द्वारा उच्चतम बोली की पुष्टि नहीं की जाती है और जब तक पुष्टि नहीं हो जाती है, तब तक संविदा पूरा नहीं होगा, जिस व्यक्ति की बोली अनंतिम रूप से स्वीकार की जाती है, वह बोली वापस लेने के लिए स्वतंत्र है।

इसी तरह, मैकेंज़ी लायल एंड कंपनी बनाम चमरू सिंह एंड कंपनी के मामले में, नीलामी में बोली, प्रकृति में अनंतिम स्वीकृति की थी, संविदा की शर्तों में कहा गया था कि बोली को माल के मालिक को उसकी स्वीकृति और मंजूरी के लिए भेजा जाएगा। अदालत ने इस मामले में भी, उस व्यक्ति को अपनी बोली रद्द करने की अनुमति दी, जिसकी बोली अनंतिम रूप से स्वीकार कर ली गई थी।

सोमसुंदरम पिल्लई बनाम मद्रास की प्रांतीय सरकार के मामले में, अदालत ने कहा कि बोली लगाने वाले को अनंतिम स्वीकृति के अंतिम अनुमोदन से पहले अपनी वसीयत वापस लेने की स्वतंत्रता होगी, जहां संविदा की शर्तों में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि एक बोली जिसे अनंतिम रूप से स्वीकार किया गया है, उसे बाद में रद्द नहीं किया जाएगा।

जब एक अनंतिम स्वीकृति को बाद में अनुसमर्थित (रेटिफाई) या स्वीकार किया जाता है, तो यह प्रस्तावी का कर्तव्य है कि वह प्रस्तावक को इसकी सूचना दे, जैसा कि तब होता है जब प्रस्तावक संविदा की शर्तों से बाध्य हो जाता है। स्वीकृति तब तक पूर्ण नहीं होती जब तक प्रस्तावक द्वारा इसकी सूचना नहीं दी जाती।

निविदाओं की स्वीकृति और वापसी

एक निविदा, एक कानूनी प्रस्थापना या प्रस्ताव है, जो किसी कार्य को करने या न करने का प्रस्ताव है और यह पक्ष को, उस पक्ष के प्रदर्शन के लिए बाध्य करता है जिसे प्रस्ताव दिया गया है। पैसे या विशिष्ट वस्तुओं के संबंध में एक निविदा की जा सकती है। यदि निविदा एक प्रस्ताव नहीं है, तो यह मूल्य के कोटेशन के समान श्रेणी में आती है। जब निविदा स्वीकार कर ली जाती है तो यह एक स्थायी प्रस्ताव बन जाती है। एक संविदा तभी उत्पन्न हो सकता है जब निविदा के आधार पर कोई प्रस्ताव दिया जाता है।

बंगाल कोल कंपनी बनाम होमी वाडिया एंड कंपनी के मामले में, प्रतिवादी (डिफेंडेंट) ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। संविदा की शर्तों में से एक शर्त यह भी थी कि संविदा पर हस्ताक्षर करने के दिन से अधोहस्ताक्षरी (अंडरसाइन्ड) को संविदा द्वारा निर्धारित शर्त का पालन करना होगा, जो प्रदान करता है कि उन्हें दूसरे पक्ष को 12 महीने की एक निश्चित अवधि के लिए कोयले की एक निश्चित गुणवत्ता (क्वालिटी) प्रदान करने की आवश्यकता होगी। प्रतिवादी ने कुछ समय के लिए संविदा की शर्तों का पालन किया लेकिन संविदा की अवधि समाप्त होने से पहले, प्रतिवादी ने संविदा के तहत निर्धारित शर्तों का पालन करने से इनकार कर दिया था। वादी (प्लेंटिफ) ने बाद में संविदा के उल्लंघन के लिए प्रतिवादी पर मुकदमा दायर किया। अदालत ने माना कि पक्षों के बीच कोई संविदा नहीं था और इसकी निर्धारित शर्तें केवल एक स्थायी प्रस्ताव का हिस्सा थीं और वादी द्वारा दिए गए क्रमिक (सक्सेसिव) आदेश प्रतिवादी द्वारा पेश की गई मात्रा के प्रस्तावों की स्वीकृति थे और इसलिए दिया गया आदेश वादी द्वारा और प्रतिवादी के प्रस्ताव ने एक साथ संविदा की एक श्रृंखला का गठन किया। प्रतिवादी, इस मामले में, उन प्रस्तावों को रद्द करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं जो वास्तव में उनके द्वारा दिए गए थे। लेकिन उन प्रस्तावों को छोड़कर, प्रतिवादियों के पास निरसन (रिवोकेशन) की पूरी शक्ति थी।

राजस्थान स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड बनाम दयाल वुड वर्क के मामले में, आपूर्ति (सप्लाई) की व्यवस्था के आधार पर क्रय (परचेस) आदेश जारी किये गये थे। लेकिन क्रय प्रस्ताव में ही यह प्रावधान था कि निविदाकर्ता माल की आपूर्ति करने से मना कर सकता है। अदालत ने, इस मामले में, यह माना कि कोई भी संविदा जो लागू हुआ था वह समाप्त नहीं हुआ था और इसलिए, ठेकेदार अपनी सुरक्षा जमा राशि वापस करने के लिए स्वतंत्र था।

ऐसे मामले में जहां निविदाकर्ता ने किसी विचार पर निविदा वापस नहीं लेने का वादा किया है या जहां निविदा को वापस लेने पर रोक लगाने वाला वैधानिक प्रावधान है, तो तब निविदा अपरिवर्तनीय हो जाती है। जिस प्रकार निविदाकार को अपनी निविदा को निरस्त करने का अधिकार होता है, उसी प्रकार निविदा स्वीकार करने वाले को भी कोई भी आदेश देने से इंकार करने का अधिकार है।

माधो राम बनाम द सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया के मामले में, सैन्य अधिकारियों ने कुछ सामानों की आपूर्ति के लिए एक निविदा स्वीकार की, लेकिन निविदा की अवधि के दौरान, कभी भी कोई मांग जारी नहीं की गई थी। सैन्य अधिकारियों के खिलाफ एक कार्रवाई में, अदालत ने माना कि सैन्य अधिकारी संविदा के तहत निर्दिष्ट (स्पेसिफाइड) किसी भी या सभी सामान को उस मुद्दे पर किसी भी वाचा (कोवनेंट) के बिना खरीदने के प्रस्ताव की स्वीकृति के लिए बाध्य नहीं था, और इसलिए प्रस्ताव को अपनी सहमति देने वाला पक्ष किसी भी समय निविदाकर्ता को घोषित कर सकता है कि वे अब माल की खरीद के लिए आदेश नहीं देना चाहते हैं।

स्वीकार करने का आशय पत्र

किसी प्रस्ताव को स्वीकार करने का आशय पत्र कभी-कभी प्रस्ताव की अंतिम स्वीकृति से पहले जारी किया जाता है। आशय पत्र का संविदा के किसी भी पक्ष पर कोई बाध्यकारी प्रभाव नहीं पड़ता है। दिबाकर स्वैन बनाम काजू विकास निगम के मामले में, कंपनी द्वारा जारी किए गए स्वीकृति पत्र में केवल निविदा में प्रवेश करने के उनके इरादे का संकेत दिया गया था। स्वीकृति को स्पष्ट रूप से लिखित रूप में कम नहीं किया गया था। अदालत ने माना कि पक्षों द्वारा कोई बाध्यकारी संविदा नहीं किया गया था और कोई कार्य आदेश जारी नहीं किया जा सकता है और इसलिए निविदाकर्ता द्वारा जमा की गई राशि को जब्त नहीं किया जा सकता है।

निविदा पर विचार करने में विफलता के लिए दायित्व

यदि कोई वैध निविदा खोली जाती है, तो उसे आमंत्रित प्राधिकारी द्वारा विधिवत विचार किया जाना चाहिए क्योंकि यदि वैध निविदा पर विधिवत विचार नहीं किया जाता है तो यह निविदाकर्ता की ओर से अनुचित होगा। विजय कुमार अजय कुमार बनाम स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड के मामले में, अदालत ने देखा कि कुछ परिस्थितियों में, निविदा का निमंत्रण उस व्यक्ति की ओर से बाध्यकारी संविदात्मक दायित्व को जन्म दे सकता है, जिसने निविदाओं को आमंत्रित किया था, जिन्होंने निविदा की शर्तों को पूरा किया था।

ए.के. कंस्ट्रक्शन बनाम झारखंड राज्य के मामले में, एक ऐसे व्यक्ति को ठेका दिया गया था जो एक योग्य निविदाकर्ता नहीं था और उसे एक योग्य निविदाकार की कीमत पर चुना गया था, जिसने अयोग्य निविदाकार को निविदा देने के निर्णय के खिलाफ कार्रवाई की थी। अदालत ने इस मामले में, निविदाकर्ता को अपना काम पूरा करने की अनुमति दी और पीड़ित पक्ष को एक लाख रुपये का मुआवजा, उन दोषी अधिकारियों के वेतन से वसूलने की अनुमति दी, जो अनुचित तरीके से निविदा देने के दोषी थे।

आवश्यकताओं का अनुपालन (कंप्लायंस) न करना

विजय फायर प्रोटेक्शन सिस्टम बनाम विशाखापत्तनम पोर्ट ट्रस्ट और अन्य के मामले में, निविदा आमंत्रित करने वाले अधिकारियों ने निविदाकारों को यह स्पष्ट कर दिया कि पंप सेट का केवल एक ब्रांड स्वीकार किया जाएगा। अधिकारियों ने अंतिम समय में निविदाकारों को कोटेशन बदलने का अवसर भी दिया। जिस निविदाकार को माल की आपूर्ति के लिए निविदा दी गई थी, उसने संविदा की शर्तों का पालन करने से इंकार कर दिया। इसके बाद, निविदा आमंत्रित करने वाले अधिकारियों ने उनके और उसके निविदाकर्ता के बीच संविदा को रद्द कर दिया। अदालत ने माना कि अधिकारियों द्वारा किया गया निर्णय मनमाना नहीं था और उन्हें ऐसा करने का अधिकार था।

केसुलाल मेहता बनाम राजस्थान आदिवासी क्षेत्र के मामले में, निविदा में एक शर्त यह थी कि निविदाकर्ता को विचाराधीन कार्य में कम से कम एक वर्ष का कार्य अनुभव होना चाहिए। इस मामले में अदालत ने माना कि ऐसी शर्तों में ढील दी जा सकती है और किसी भी अन्य सक्षम ठेकेदार को निविदा दी जा सकती है और बाद में उसे काम का प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने की आवश्यकता हो सकती है।

के.एम. परीथ लाभ बनाम केरल पशुधन विकास बोर्ड के मामले में, यह माना गया था कि जहां एक निविदा ने पेड़ों को काटने के लिए कोटेशन आमंत्रित किए थे, निविदा में पेड़ों के अनुमानित मूल्य का उल्लेख होना चाहिए जिसका मूल्यांकन निविदाकारों द्वारा किया जा सकता है, जो उनकी कीमत कोट कर सकते हैं।

रियायती दर (कंसेशनल) के साथ निविदा

कन्हैया लाल अग्रवाल बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य के मामले में, निविदा ने स्थिर (फर्म) दरों के साथ-साथ रियायती दर की पेशकश की थी, बशर्ते निविदा को सामान्य रूप से पालन की तुलना में कम समय के भीतर अंतिम रूप दिया गया हो। अदालत ने माना कि यह एक सशर्त प्रस्ताव के गठन में परिणत नहीं होगा, जो किसी भी घटना के होने या न होने पर निर्भर करता है और जो शर्त रखी गई थी वह केवल अधिक शीघ्र स्वीकृति लाने के लिए थी।

शर्तों की निश्चितता

अचल (इम्मूवेबल) संपत्ति की बिक्री के संबंध में एक समझौते को निश्चित रूप से संपत्ति की पहचान करनी चाहिए। समझौता पारस्परिकता (म्यूचुअलिटी) पर आधारित होना चाहिए और कीमत तय करनी चाहिए। न्यू गोल्डन बस सर्विस बनाम पंजाब राज्य और अन्य के मामले में, वाहन के लिए सेवाओं को किराए पर लेने के लिए निविदा आमंत्रित की गई थी, लेकिन इसमें कोई समय अवधि निर्धारित नहीं की गई थी। सबसे कम निविदाकार को तीन वर्ष की अवधि के लिए निविदाकर्ता को पुरस्कृत किया गया। इस मामले में, अदालत ने माना कि इसमें कुछ भी गलत नहीं था क्योंकि एक ओपन-एंडेड टेंडर को इसकी अस्पष्टता के कारण शून्य नहीं माना जा सकता है। निविदा, इस मामले में, निर्दिष्ट करती है कि छह महीने से अधिक पुराने वाहन के लिए निविदा जारी नहीं की जा सकती है और निविदाकर्ता जिसे निविदा प्रदान की गई थी, वह निविदा के तहत निर्दिष्ट शर्तों का अनुपालन करता है। निविदा आमंत्रित करने वाले प्राधिकारी द्वारा समान दक्षता और लागत वाले स्थानापन्न (सब्सटीट्यूट) वाहनों की स्वीकृति मनमानी नहीं थी।

निविदा और ब्लैकलिस्ट में डालने से रोकना

उत्पल मित्रा बनाम मुख्य कार्यपालक अधिकारी के मामले में, एक बोलीदाता को कार्यालय के अंदर कुछ तत्वों ने निविदा जमा करने से रोक दिया था। अधिकारियों ने आरोपों की पुष्टि करते हुए जांच जारी रखी। जिस व्यक्ति को इस प्रकार निविदा से बाहर कर दिया गया था, उसे बाद में दो मध्यवर्ती (इंटरवेनिंग) छुट्टियों के बाद अपनी निविदा जमा करने की अनुमति दी गई थी और बाद में उसकी निविदा स्वीकार कर ली गई थी। अदालत ने माना कि अन्य निविदाकारों के लिए कोई पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस) नहीं था क्योंकि उन्हें दिए गए कार्य में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया था।

मेरिटट्रैक सर्विसेज प्राइवेट बनाम पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट के मामले में, यह माना गया था कि एक ठेकेदार को ब्लैक लिस्ट करने का प्रावधान केवल तभी होता है, जब संविदा दिया जाता है और निविदाकर्ता संविदा में निर्धारित किसी भी शर्त को पूरा करने में विफल रहता है। अपना प्रस्ताव प्रस्तुत करने की अनुमति प्राप्त करने के प्रयोजन के लिए, बोलीदाता से उसके अनुभव के बारे में कुछ भौतिक तथ्यों की आवश्यकता हो सकती है।

ठेके आवंटित करने वाले पक्ष के पास ठेकेदार को ब्लैक लिस्ट में डालने की अनिवार्य शक्ति है। लेकिन जब ऐसे मामलों में जहां पक्ष राज्य है, तो आनुपातिकता (प्रोपोर्शनलिट) और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को सुनिश्चित करने के लिए, ब्लैक लिस्ट में डालने का निर्णय न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) के लिए खुला है।

निष्कर्ष

संविदा, लोगों के रोजमर्रा के जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बन गए हैं, यहां तक ​​कि अधिकांश लोग इसे महसूस किए बिना भी संविदा में प्रवेश करते हैं। वैध संविदा करने के लिए कई आवश्यक चीजें जरूरी हैं। एक वैध संविदा के गठन के बाद, अंतिम उद्देश्य जो दोनों पक्षों द्वारा प्रतिफल के संदर्भ में निर्धारित किया जाता है, उसी की मांग की जाती है। एक बार जिस उद्देश्य के लिए संविदा में प्रवेश किया गया था, वह संविदा के पक्षकारों को प्राप्त हो जाता है, तो अब वह पक्ष संबंधित संविदात्मक दायित्व से बाध्य नहीं हैं।

संदर्भ

 

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