कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 236 का विश्लेषण

0
1243
Company Act 2013
Image Source- https://rb.gy/ydexyw

इस ब्लॉगपोस्ट में, Priyanka Kansara, jo नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, जोधपुर की छात्रा है, कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 236, प्रावधान में कमियां, न्यायिक व्याख्या और न्यायिक हस्तक्षेप के बारे में लिखती हैं। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash द्वारा किया गया है।

सामान्य परिचय

धारा 236 (संबंधित धारा 395, कंपनी अधिनियम 1956) बहुसंख्यक (मेजोरिटी) शेयरधारिता (शेयरहोल्डिंग) द्वारा अल्पांश (माइनॉरिटी) शेयरधारिता की खरीद के बारे में बात करती है; यह कहता है कि यदि किसी अधिग्रहणकर्ता (एक्वायरर) के पास कंपनी की जारी इक्विटी शेयर पूंजी का 90% या उससे अधिक है, तो वह शेष शेयरों को खरीदने के लिए एक अधिसूचना द्वारा कंपनी को एक प्रस्ताव दे सकता है। इस प्रावधान को पूरी तरह से पढ़ने से यह आभास होता है कि अल्पसंख्यक शेयरधारकों के किसी भी अधिकार का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है कि क्या उन्हें इसके बारे में ठीक से सूचित किया जा सकता है; क्या असहमति जताने वाले शेयरधारकों के हितों पर ध्यान दिया जाएगा, आदि।

प्रावधानों में खामियां

इस प्रावधान में कुछ अन्य खामियां भी हैं, जैसे-

  • क्या अल्पांश शेयरधारक ‘प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं’। यह अनिवार्य है या वैकल्पिक, स्पष्ट नहीं है;
  • कुछ कंपनियों को निर्धारित मूल्यांकन दिशानिर्देशों के अभाव में शेयर मूल्यांकन में समस्या का सामना करना पड़ रहा है;
  • यह समान या विभिन्न वर्गों में शेयरों के अधिग्रहण के बीच अंतर को चित्रित करने सहित कई अन्य परिदृश्यों पर विचार और समाधान नहीं करता है;
  • प्रस्ताव नोटिस की सामग्री में अस्पष्टता और अल्पांश शेयरधारकों को नोटिस तामील करने के प्रावधान का अभाव;
  • यूके अधिनियम के विपरीत, कोई निर्धारित समय-सीमा भी नहीं है, जिसके भीतर अल्पसंख्यक शेयरधारकों को बहुसंख्यक शेयरधारकों को अपने प्रस्ताव प्रस्तुत करने होंगे। सीधे शब्दों में कहें, तो यह संदेहास्पद है कि क्या 2013 का अधिनियम वास्तव में माइनॉरिटी स्क्वीज़ आउट मैकेनिज्म के लिए प्रदान करता है;
  • यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्या भारतीय न्यायपालिका अल्पसंख्यक शेयरधारकों के अधिकारों की रक्षा करने में सक्षम होगी, जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे अन्य देशों में है;
  • अल्पसंख्यक शेयरधारकों की एक अलग बैठक सुनिश्चित करने के लिए वैधानिक प्रावधानों की आवश्यकता है, जहां बहुसंख्यक शेयरधारक भाग नहीं ले सकते हैं;
  • इससे भी अजीब बात यह है कि इस योजना को मंजूरी देने वाले बहुसंख्यकों को यह नहीं होना चाहिए जिनके शेयर वापस खरीदे जा रहे हैं; शेयरधारकों की सहमति के बिना ऐसे बायबैक को विशेष रूप से प्रतिबंधित करने के लिए कानून में संशोधन करने की आवश्यकता है।

न्यायिक व्याख्या और न्यायिक हस्तक्षेप

इन रे इंडियन नेशनल प्रेस के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने सामान्य सिद्धांत को सामने रखा है, यानी कंपनी को अपनी पूंजी की कमी की सीमा, तरीका और घटना को निर्धारित करने का अधिकार है। लेकिन अदालत को, पूंजी की कमी की पुष्टि करने के लिए आगे बढ़ने से पहले, यह देखना चाहिए कि अल्पसंख्यक और लेनदारों के हितों को पर्याप्त रूप से संरक्षित किया गया है और इसमें कोई अन्याय नहीं है, भले ही यह कंपनी का घरेलू मामला है। अपनी पूंजी को कम करने के लिए किसी कंपनी के विशेष संकल्प की पुष्टि करने या इनकार करने की शक्ति अदालत को प्रदान की जाती है ताकि वह उस व्यक्ति के हितों की रक्षा कर सके जिसने असहमति व्यक्त की या यहां तक ​​कि उन व्यक्तियों के भी जो उपस्थित नहीं हुए। एक अन्य भाषा में, बॉम्बे उच्च न्यायलय ने इन रे पीएमपी ऑटो इंडस्ट्रीज के मामले में यह माना है कि न्यायलय के पास योजना को मंजूरी देने की शक्ति है, जो कंपनी के लाभ में है। साद्विक एशिया लिमिटेड के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायलय में एक एकल जज बेंच, ब्रिटिश एंड अमेरिकन ट्रस्टी एंड फाइनेंस कॉरपोरेशन बनाम कूपर के फैसले पर भरोसा करते हुए, जिसमें कहा गया था कि ‘शेयरधारकों के एक वर्ग के साथ व्यवहार में कोई असमानता नहीं हो सकती है, हालांकि उन सभी को एक ही सिक्के में, या एक ही मूल्यवर्ग के सिक्के में भुगतान नहीं किया जाता है; उसी न्यायालय ने वेस्टबर्न शुगर रिफाइनरीज लिमिटेड के एक अन्य अंग्रेजी फैसले पर भी भरोसा किया, जहाँ अदालत ने कहा था की अल्पसंख्यक शेयरधारकों को बचने के लिए अदालत खुद आगे आ सकता है।

दूसरी ओर, साद्विक एशिया लिमिटेड बनाम भारत कुमार पदमसी और अन्य के मामले में खंडपीठ ने फैसले को उलट दिया और कहा कि एक बार यह स्थापित हो जाने के बाद कि गैर-प्रवर्तक शेयरधारकों को उनके शेयरों का उचित मूल्य दिया जा रहा है, किसी भी समय उनके द्वारा यह भी सुझाव नहीं दिया जाता है कि भुगतान की जा रही राशि वैसे भी कम है और यहां तक ​​कि भारी भी। प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने वाले गैर-प्रवर्तक शेयरधारकों के बहुमत से पता चलता है कि अदालत को प्रस्ताव की मंजूरी को रोकना उचित नहीं होगा।

इसके अलावा, माननीय बॉम्बे उच्च न्यायलय ने ऑर्गन (इंडिया) लिमिटेड के मामले में, उचित मूल्यांकन के बारे में कहा कि अदालत का दायित्व संतुष्ट होना है कि मूल्यांकन कानून के अनुसार था, और यह एक स्वतंत्र निकाय द्वारा किया गया था। वर्तमान अधिनियम ‘स्वतंत्र निकाय’ प्रदान करता है, जो अधिनियम की धारा 247 के तहत निर्धारित है और पंजीकृत मूल्यांकक (रजिस्टर्ड वेल्यूअर) के रूप में जाना जाता है। कैडबरी इंडिया लिमिटेड बनाम सामंत ग्रुप और अन्य के एक अन्य फैसले में, बॉम्बे हाई अदालत ने अपने शेयरों के लिए शेयरधारक को उचित मूल्य प्रदान करने के लिए एक मूल्यांकक नियुक्त किया था और एक मूल्य पर पूंजी में कमी के माध्यम से उन्हें निकल देने को मंजूरी दे दी, जो कि अदालत द्वारा नियुक्त एक स्वतंत्र मूल्यांकनकर्ता द्वारा निर्धारित किया गया था।

जबरन अधिग्रहण और निष्पक्ष और न्यायसंगत तरीके के सवाल के लिए, रमेश बी देसाई बनाम बिपिन वाडीलाल मेहता के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक उचित और निष्पक्ष योजना वह होगी जहां अन्य सभी शेयरधारक, अन्य प्रमोटरों की तुलना में, जो अपने शेयरों को बनाए रखना चाहते थे, उन्हें इस योजना से बाहर रखा गया था ताकि उनके शेयर अनिवार्य अधिग्रहण द्वारा पूंजी की जबरन कमी के अधीन न हों।

कई मामलों में, न्यायालय इस विचार के साथ आया है कि अल्पांश शेयरधारकों के हितों को एक वर्ग के रूप में देखा जाएगा; जबकि एक अन्य निर्णय में, यह कहा गया है कि न्यायालय, माइनॉरिटी स्क्वीज़ आउट के मामले में, प्रत्येक शेयरधारक के हित पर ध्यान दिया जाएगा और योजना को अस्वीकार किया जा सकता है यदि यह एक भी शेयरधारक के हित के लिए अनुचित है।

लेखक की टिप्पणी

इसलिए, कई न्यायालयों के कई मामलों के माध्यम से, यह स्पष्ट है कि कंपनी कोई भी प्रस्ताव पारित कर सकती है यदि वह उचित और निष्पक्ष और अल्पसंख्यक शेयरधारकों के हित में है। माननीय बॉम्बे हाई अदालत ने एल्प्रो इंटरेशनल लिमिटेड के मामले में भी यह माना कि अदालत को दो मामलों को देखना होगा: (i) लेनदेन अनुचित नहीं है, (ii) सभी लेनदार कमी के अधीन या तो सहमति दी गई है या भुगतान किया गया है या सुरक्षित किया गया है।

उक्त प्रावधान में, कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया गया है कि नोटिस का एक निर्धारित प्रारूप होना चाहिए, या प्रत्येक अल्पसंख्यक शेयरधारकों को व्यक्तिगत रूप से नोटिस देना चाहिए, जिनके शेयर कम खरीदे जाने हैं; हालांकि इसका उल्लेख धारा 236 (2) के तहत किया गया है क्योंकि बहुसंख्यक शेयरधारक अल्पसंख्यक शेयरधारकों को पेशकश करेंगे, या क्या उनके लिए बहुसंख्यक शेयरधारकों यानी प्रमोटर शेयरधारकों द्वारा ‘प्रस्ताव’ को स्वीकार करना अनिवार्य है, या शिकायतों के मामले में, अल्पसंख्यक शेयरधारक ट्रिब्यूनल में जा सकते हैं क्योंकि यह अधिनियम की धारा 235 (2) में निर्धारित है। इसके अलावा, इस प्रावधान में यह भी उल्लेख नहीं किया गया है कि प्रस्ताव की ‘स्वीकृति’ से पहले हस्तांतरणकर्ता कंपनी एक बैठक आयोजित करेगी, जिसमें अल्पसंख्यक शेयरधारक भाग ले सकते हैं, और प्रस्ताव का भविष्य मतदान द्वारा तय किया जाएगा; भले ही मतदान हो रहा हो, और 75% बहुमत ने योजना को मंजूरी दे दी, इसका मतलब यह नहीं है कि शेष अल्पसंख्यक शेयरधारकों ने इसे मंजूरी दे दी है।

कानून बनाते समय विधायिका को प्रमोटर शेयरधारकों के समूह और गैर-प्रमोटर शेयरधारकों के समूह यानी बहुसंख्यक शेयरधारकों और अल्पसंख्यक शेयरधारकों के अधिकारों के बीच संतुलन के दृष्टिकोण की तलाश करनी चाहिए। सेबी के लिस्टिंग समझौते के अनुसार, क्लॉज़ 24 (f) का कहना है कि कंपनी स्टॉक एक्सचेंज के साथ व्यवस्था/ समामेलन (अमलगमेशन)/ विलय (मर्जर)/ पुनर्निर्माण (रीकंस्ट्रक्शन)/ पूंजी की कमी आदि की किसी भी योजना के लिए किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण के समक्ष दायर की जाने वाली प्रस्तावित कोई भी योजना/ याचिका अनुमोदन के लिए दायर करेगी; यहां सेबी की भूमिका कंपनियों पर नजर रखने के लिए उठती है क्योंकि अल्पसंख्यक शेयरधारकों के अधिकारों को हटाने से पहले कंपनियां सूचीबद्ध कंपनियां के लिए कानूनी प्रक्रिया से बचने के लिए खुद को असूचीबद्ध (और निजीकरण (प्राइवेटाईज़ेशन)) कर लेती हैं।

संदर्भ

  1. Section 236 (1), Indian Company Act 2013.
  2. Aakash Choubey and Sukanya Hazarika, Minority Squeeze-Out | Impact of the Companies Act 2013, Khaitan & Co., December 2013, https://kcomail-web.sharepoint.com/Documents/ERGO-Perspective-P4-Dec-2013.pdf,  (last accessed on April 13, 2016).
  3. Guth v. Loft (1939); Sinclair Oil Corporation v. Levien (1971); In Re Wheelabrator Technologies, Inc. Shareholders Litigation (1995
  4. MANU/MP/0068/1986.
  5. 1991(4)BomCR387.
  6. (2004) 121CompCas58(Bom.).
  7. (1891-4) All England Law Reports Reprint 667.
  8. (1951) 1 All England Law Reports 881
  9. Supra Note 4.
  10. 2009(3)BomCR57.
  11. (2010) 101 SCL 270 (Bom).
  12. Company Petition No 1072 of 2009, Decided on 25th February. 2014 (Bombay High Court).
  13. (2006) 5 SCC 638.
  14. Miheer H. Mafatlal v. Mafatlal Industries Ltd., JT 1996 (8) 205.
  15. In Re Panruti Industrial Co. (P) Ltd., AIR 1960 Mad 537.
  16. (2009) 149 Comp Cas 646 (Bom).
  17. SEBI Circular 17/2003, dtd. May 8, 2003, http://www.sebi.gov.in/circulars/2003/smdcir17.html, (last accessed on April 13, 2016).

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here