भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3

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Indian Evidence Act
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यह लेख Shivi Khanna के द्वारा लिखा गया है जो सुशांत विश्वविद्यालय, गुड़गांव के स्कूल ऑफ लॉ की छात्रा हैं। इस लेख में वह भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की व्याख्या खंड (इंटरप्रेटेशन क्लॉज) यानी धारा 3 में वर्णित प्रमुख शब्दों को समझाने का एक प्रयास करती है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

सर टेलर ने साक्ष्य के नियम को एक ऐसे तरीके के रूप में वर्णित किया है जिसके माध्यम से तथ्य के किसी भी मुद्दे को साबित या न साबित करने के लिए तर्क दिया जा सकता है और बाद मे जिसकी सच्चाई न्यायिक जांच के लिए दी जाती है। साक्ष्य के कानून का सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह है की वह सत्य का पता लगाने में अदालतों की सहायता करता है, पूछताछ को आवश्‍यकता से अधिक लंबा चलने से रोकता है और साथ ही न्यायिक प्रक्रिया को लंबा करने से रोकता है, और यह भी सुनिश्चित करता है कि न्यायाधीश अप्रासंगिक (इररेलीवेंट) या महत्वहीन साक्ष्य के कारण भ्रमित या अव्यवस्थित न हों जाए। अदालत में किसी भी मामले का साक्ष्य एक महत्वपूर्ण पहलू है क्योंकि अदालत में हर आरोप या मांग को कुछ साक्ष्यों द्वारा समर्थित किया जाता है नहीं तो इसे निराधार माना जाएगा। शब्द ‘एविडेंस’ लैटिन अभिव्यक्ति ‘एविडेरे’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है कि साक्ष्य की स्थिति स्पष्ट, या कुख्यात (इनफेमस) है।

भारत में साक्ष्य के कानून की उत्पत्ति का पता अंग्रेजी कानून के तहत प्रदान की गई अवधारणाओं से लगाया जा सकता है। भारत में प्रतिदिन विभिन्न प्रकार के साक्ष्य न्यायालय में प्रस्तुत किए जाते हैं और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (जिसे आगे लेख में अधिनियम के रूप में संदर्भित किया गया है), भारत में साक्ष्य के कानून के नियम को नियंत्रित करता है, लेकिन यह संपूर्ण नहीं है, इसलिए, उपर दिए गए अधिनियम के प्रावधानों की व्याख्या करते समय अंग्रेजी कानून का इस्तेमाल, एक संदर्भ के रूप में किया जा सकता है। हालांकि, अंग्रेजी कानून के तहत कोई भी ऐसा सिद्धांत, जो इस अधिनियम से असंगत होता है उसका प्रयोग इस अधिनियम पर नहीं किया जा सकता है।

कोई भी साक्ष्य जो अधिनियम के अंतर्गत नहीं शामिल होता है, उसे अदालत में स्वीकार नहीं किया जा सकता है, भले ही वह मामले की सच्चाई को निर्धारित करने का समाधान ही क्यों न हो। इसके अलावा, कोई भी पक्ष संविदा (कॉन्ट्रेक्ट) आदि जैसे, के माध्यमों के आधार पर इस अधिनियम के प्रावधानों का पालन करने से इनकार नहीं कर सकता हैं, और न ही अदालतों के पास यह शक्ति है की वह सार्वजनिक नीति के अनुरूप (कन्फर्म) होने का बहाना करके प्रासंगिक तथ्यों को नज़रअंदाज़ न कर दे।

साक्ष्य के कानून को तीन मुख्य आधारों के द्वारा समर्थित किया जा सकता है:

  1. एक साक्ष्य में केवल उन्हीं मुद्दों को शामिल किया जाना चाहिए जो एक ही मामले में मौजूद हो; 
  2. अनुश्रुति (हियरसे) साक्ष्य की कोई साक्ष्य मूल्य (एविडेंशियरी वैल्यू) नहीं होती है; 
  3. सभी मामलों में सबसे अच्छा साक्ष्य प्रदान करने का प्रयास होना चाहिए।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 एक बहुत ही महत्वपूर्ण खंड है, जो की पूरे अधिनियम के तहत प्रकट होने वाले ज़रूरी शब्दों की परिभाषाएं प्रदान करता है। इस अधिनियम की धारा 3 के तहत स्पष्ट रूप से यह परिभाषित किया गया है कि एक अदालत का गठन कैसे किया जाता है, जो इस अधिनियम द्वारा साक्ष्य एकत्र करने और निर्णय पर पहुंचने के लिए अधिकृत (ऑथराइज्ड) होती है। धारा 3 के तहत यह भी बताता गया है कि एक तथ्य क्या है, कौन सी चीजे प्रासंगिक है, विभिन्न प्रकार के साक्ष्य कौन से होते हैं, दस्तावेज क्या हैं, एक तथ्य को साबित या न साबित (डिस प्रूव्ड) और साबित नहीं हुआ (नॉट प्रूव्ड) कैसे और कब माना जा सकता है। धारा 3 की सबसे एहम बात इस चीज में निहित है कि इस अधिनियम के बाकी हिस्सों को पढ़ने और समझने के तरीक़े को निर्धारित किया है, और साथ ही इसके अनुसार साक्ष्य के कानून की व्याख्या करने में भी मदद करता है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 – व्याख्या खंड

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 के तहत, निम्नलिखित शब्दो की व्याख्या पर विवरण प्रदान किया गया  हैं – अदालत, तथ्य, प्रासंगिक तथ्य, विवाद्यक तथ्य (फैक्ट इन इश्यू), दस्तावेज़, साक्ष्य, साबित, न साबित, साबित नहीं हुआ, भारत – जब तक कि संदर्भ से इसके तत्प्रतिकूल (कॉनट्रेरी) आशय प्रतीत न हो जाए।

अदालत

‘अदालत’ शब्द के तहत सभी न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट शामिल किए जाते हैं, और इसके अलावा कोई भी ऐसा व्यक्ति जो कानूनी रूप से साक्ष्य लेने के लिए अधिकृत है वह भी इसमें शामिल है, लेकिन इसके तहत मध्यस्थो (आर्बिट्रेटर) और न्यायाधिकरणों (ट्रिब्यूनल) को शामिल नहीं किया जाता हैं। मध्यस्थ और न्यायाधिकरण नैसर्गिक (नेचुरल) न्याय के आधार पर कार्य करते हैं और साथ ही साक्ष्य एकत्र करने के लिए भी अधिकृत होते हैं, हालांकि, उन्हें इस अधिनियम के अर्थ के भीतर “अदालत” की परिभाषा के अंतर्गत शामिल नहीं किया जाता हैं।

इसके अलावा, यह परिभाषा “साक्ष्य लेने के लिए कानूनी रूप से अधिकृत व्यक्तियों” को संदर्भित करती है, तो यहां यह समझना होगा कि जब तक कोई व्यक्ति ‘साक्ष्य’ नहीं ले रहा है, तब तक अधिनियम के लागू होने की कोई गुंजाइश नहीं है, लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति, या प्राधिकरण, जैसे अर्ध-न्यायिक न्यायाधिकरण (क्वासी ज्यूडिशियल ट्रिब्यूनल) या साक्ष्य प्राप्त करने वाला घरेलू न्यायाधिकरण एक न्यायालय के तहत आते है। यह उस मामले के कानून से स्पष्ट है जिसका अब हम उल्लेख करेंगे।

अधिनियम के तहत ‘अदालत’ की परिभाषा एक समावेशी (इंक्लूसिव) परिभाषा है और संपूर्ण नहीं है, इसे ब्रजानंदन सिन्हा बनाम ज्योति नारायण (1955) के मामले में आयोजित किया गया था, लेकिन सी.आई.टी. बनाम ईस्ट कोर्ट कमर्शियल कंपनी लिमिटेड (1967), के मामले में यह माना गया था कि आयकर प्राधिकारी (इनकम टैक्स ऑफिसर) को “अदालत” की परिभाषा के तहत शामिल नहीं किया जाता है।

इस तथ्य पर ध्यान देना दिलचस्प होगा कि, 69 वें विधि आयोग की रिपोर्ट के तहत किसी भी भ्रम से बचने के लिए ‘अदालत’ की परिभाषा को और अधिक व्यापक बनाने की सिफारिश की गई थी। विधि आयोग की परिभाषा में “अदालत” की परिभाषा के तहत दीवानी (सिविल), आपराधिक, राजस्व (रेवेन्यू) न्यायालय और न्यायाधिकरण शामिल थे। हालांकि, अब तक राजस्व अदालतों या न्यायाधिकरणों को शामिल करने के लिए ‘अदालत’ की परिभाषा में कोई संशोधन नहीं किया गया है।

ब्रजानंदन सिन्हा बनाम ज्योति नारायण (1956), के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने “अदालत” की परिभाषा में बहुत सोच विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुंने, कि कोई भी ऐसा निकाय (बॉडी) या मंच, जो निर्णय या फैसला लेने में सक्षम हो और ऐसा निर्णय प्रकृति में अंतिम और आधिकारिक होना चाहिए। यह न्यायिक घोषणा का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण है, और साथ ही “अदालत” की एक प्रमुख विशेषता भी है।

तथ्य

‘तथ्य’ को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है:

कोई भी ऐसी चीज, चीजों की स्थिति, चीजों का संबंध, जिसे महसूस किया जा सकता है (बाहरी तथ्य)।

उदाहरण के लिए –

  • जब कुछ चीजों को एक निश्चित तरीके या पैटर्न में रखा जाता है, तो यह एक तथ्य बन जाता है।
  • जब कोई व्यक्ति कुछ देखता या सुनता है, तो वह एक तथ्य बन जाता है।
  • किसी व्यक्ति द्वारा बोले गए शब्द भी एक तथ्य का रूप होते है।

कोई भी मानसिक स्थिति जिसके बारे में कोई भी व्यक्ति सचेत है (आंतरिक तथ्य)।

उदाहरण के लिए-

  • एक व्यक्ति की राय।
  • एक व्यक्ति के इरादे।
  • नेकनीयती से या धोखाधड़ी से कार्य करने वाला व्यक्ति।
  • किसी व्यक्ति द्वारा उसके शब्दों का जानबूझकर चुनाव करना।
  • एक निश्चित समय पर एक निश्चित अनुभूति (सेंसेशन) महसूस करना।
  • एक व्यक्ति की प्रतिष्ठा।

भौतिक (फिजिकल) और मनोवैज्ञानिक तथ्य

भौतिक तथ्य वे तथ्य होते हैं जिन्हें किसी व्यक्ति की इंद्रियों (सेंसेज) के उपयोग से खोजा जा सकता है। उदाहरण के लिए, कुछ वस्तुओं की व्यवस्था का अवलोकन करना, किसी हॉर्न की एक अलग सी ध्वनि सुनना, आदि। हालांकि, साक्ष्य का कानून “केवल” भौतिक तथ्यों तक ही सीमित नहीं होता है। भौतिक तथ्य से परे मनोवैज्ञानिक तथ्य भी होते हैं, जो किसी व्यक्ति की मानसिक स्थिति पर आधारित होते हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति किसी के साथ धोखाधड़ी करता है, तो दूसरे पक्ष को धोखा देने का उसका इरादा भी एक तथ्य ही होता है।

सकारात्मक (पॉजिटिव) और नकारात्मक (नेगेटिव) तथ्य

जब किसी परिस्थिति या स्थिति के अस्तित्व की पुष्टि की जा सकती है, तो यह एक सकारात्मक तथ्य है। उदाहरण के लिए, एक संपत्ति के ऊपर विवाद के मामले में, मृतक ने अपनी संपत्ति को वसीयत करने के लिए एक इच्छा पत्र दिया। इच्छा पत्र का अस्तित्व एक सकारात्मक तथ्य है। दूसरी ओर, किसी परिस्थिति या स्थिति का न होना एक नकारात्मक तथ्य है। उदाहरण के लिए, हत्या के स्थान पर हथियार की कमी होना एक नकारात्मक तथ्य है।

विवाद्यक तथ्य (फैक्ट्स इन इश्यू)

विवाद्यक तथ्य वे तथ्य होते हैं जिन्हें साबित करने की कोशिश की जाती है और इन्हें “प्रमुख तथ्य” या तथ्यात्मक परिवीक्षा (फैक्टम प्रोबैंडम) भी कहा जाता है। जब पक्ष के अधिकार और दायित्व किसी ऐसे तथ्य पर निर्भर होते हैं जो विवाद में है, तो उस तथ्य को विवाद्यक तथ्य माना जाता  है।

उदाहरण के लिए, ‘X’ पर मानहानि (डिफेमेशन) के माध्यम से ‘Y’ को बदनाम करने का आरोप लगाया गया था। संभावित तथ्य विवाद में हो सकते हैं: कि ‘X’ ने ‘Y’ की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाया है; ‘X’ की मानहानि के कारण ‘Y’ के व्यवसाय को नुकसान हुआ है; ‘X’ ने ‘Y’ के बारे में द्वेष, घृणा, आदि के कारण मानहानिकारक बयान लिखे और प्रकाशित किए है।

विवाद्यक तथ्य वादी और प्रतिवादी दोनों के तर्कों को निर्धारित करते हैं। पक्षों को यह साबित करना होगा कि उनके पक्ष में अदालत के फैसले को प्रभावित करने के लिए विवाद्यक तथ्य उनकी दलीलों की ओर झुके हुए हैं। अपराध पर लागू होने वाला वास्तविक कानून यह निर्धारित करता है कि विवाद्यक तथ्य क्या हैं। आपराधिक मामलों में, विवाद्यक तथ्य आरोप-पत्र की सामग्री पर निर्भर करते हैं, जबकि दीवानी मामलों में मुद्दों का निर्धारण होता है।

विवाद्यक तथ्य उस नींव का निर्माण करते हैं जिस पर पक्ष अपने मामले में बहस करते हैं, और जब ये तथ्य अदालत की संतुष्टि के लिए साबित हो जाते हैं, तो निर्णय लिया जा सकता है।

प्रासंगिक तथ्य

प्रासंगिक तथ्य वे तथ्य होते हैं जिनकी आवश्यकता किसी विवाद्यक तथ्य को साबित करने या न साबित करने के लिए होती है। प्रासंगिक तथ्यों को प्रमाणिक तथ्य (तथ्यात्मक परिवीक्षा) भी कहा जाता है। ये तथ्य विवाद्यक तथ्य नहीं होते हैं- यह पक्षों के बीच विवाद या झगड़े का मुख्य मुद्दा नहीं होते हैं। इसके बजाय, प्रासंगिक या प्रमाणिक तथ्य विवाद्यक तथ्य के संदर्भ या परिस्थितियों की गहराई को जांचते हैं, और उनके बारे में निष्कर्ष निकालने में मदद करते हैं।

स्वीकृति (एडमिशन) और स्वीकारोक्ति (कन्फेशन), उन लोगों के बयान होते है, जो गवाह नहीं हैं, मामले के कानूनों से मिसालें, विशेष परिस्थितियों में दिए गए बयान, ऐसे तथ्य जो विवाद्यक तथ्यों के साथ तर्क की एक श्रृंखला (चेन) बनाते हैं, तीसरे पक्ष की राय और एक व्यक्ति के चरित्र के रूप में साक्ष्य- यह सभी प्रासंगिक तथ्यों की श्रेणी में आते हैं।

प्रासंगिक तथ्य, तथ्यों के बीच के संबंध को इंगित करते हैं, जो तर्क और सामान्य ज्ञान की एक ध्वनि श्रृंखला के अनुसार, एक दूसरे के अस्तित्व को साबित या अस्वीकार करते हैं। प्रासंगिक तथ्य मामले में तथ्यों के संबंध में तर्क देने वाले पक्ष के अनुरूप अदालत की राय को प्रभावित करने के लिए पूरक (सप्लीमेंट्री) सामग्री के रूप में कार्य करते हैं।

उदाहरण के लिए, ‘A’ पर चोरी करने का आरोप लगाया जाता है। एक प्रासंगिक तथ्य यह होगा कि ‘A’ का चोरी और दुकान से सामान उठा लेने का इतिहास रहा है, और उस पर पहले भी मुकदमा चलाया जा चुका है। विवाद्यक तथ्य यह होगा कि- क्या A ने चोरी की है।

दस्तावेज

इस अधिनियम के अर्थ के भीतर एक दस्तावेज, किसी मामले को दर्ज करने के उद्देश्य से सतह पर अंकित कोई भी लेखन, चिह्न, या अंक होता है। आर बनाम दाये (1908) के मामले में अदालत ने पाया कि बेकर्स और दूध वालों द्वारा ब्रेड या दूध की आपूर्ति की मात्रा को इंगित करने के लिए लकड़ी पर बनाए गए निशान भी दस्तावेज में शामिल होते हैं। जिस सतह पर लेखन या चिह्न अंकित होते हैं, वह कागज तक ही सीमित नहीं होते है। लेखन, तस्वीरों में शब्द, नक्शे, योजनाएं, धातु की सतहों पर शिलालेख (इंस्क्रिप्शन) – ये सभी दस्तावेज़ की श्रेणी में आते हैं।

साक्ष्य

‘साक्ष्य’ को अंग्रेजी में ‘एविडेंस’ कहा जाता है जिसकी उत्पत्ति लैटिन शब्द “एविडेंट” या “एविडेरे” से की गई है – जिसका अर्थ सत्य की खोज, निर्धारण या उस तक पहुंचना है। साक्ष्य का तात्पर्य- स्पष्ट, निश्चित या कुख्यात बनाना हैं। पक्षों के बीच तथ्य या विवाद के मामले को साबित या अस्वीकृत करने के संबंध में, अदालत के समक्ष एक तर्क का समर्थन या निर्माण करके साक्ष्य न्यायिक प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

मौखिक साक्ष्य

अधिनियम की धारा 59 और 60 के तहत विस्तार से कवर किया गया, मौखिक साक्ष्य को गवाहों द्वारा दिए गए बयानों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिन्हें अदालत द्वारा अनुमति दी जाती है या इसकी आवश्यकता होती है। गवाहों के ये बयान पक्षों के बीच विवाद के मामले को निर्धारित करने में मदद करते हैं। जब कोई गवाह मौखिक रूप से बयान देता है तो उसे मौखिक साक्ष्य माना जाता है। गवाह की गवाही को ‘जीवित प्रमाण’ भी कहा जा सकता है। हालांकि, ऐसे मामलों में जहां गवाह बोलने में असमर्थ होता है, तो संकेतों या लेखन के माध्यम से कोई भी संचार (कम्युनिकेशन) को मौखिक साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाता है।

आमतौर पर, सभी साक्ष्य जो दस्तावेजों में नहीं लिखे जाते हैं, वे मौखिक साक्ष्य होते हैं और एक तथ्य या शीर्षक प्रदान करने के लिए पर्याप्त होते हैं। हालांकि, धारा 60 के अनुसार, दस्तावेजी साक्ष्य और मौखिक साक्ष्य दोनों की उपस्थिति में, दस्तावेजी साक्ष्य को हमेशा प्रधानता दी जाती है।

मौखिक साक्ष्य को प्रत्यक्ष होना चाहिए अर्थात बयान देने वाले गवाह ने घटना को प्रत्यक्ष रूप से देखा होगा या सुना होगा या अनुभव किया होगा।

अनुश्रुति साक्ष्य 

जब भी सूचना अप्रत्यक्ष चैनलों से गुजरती है, जैसे कि अफवाहें या गपशप, इसे अनुश्रुति साक्ष्य कहा जा सकता है। अनुश्रुति साक्ष्य वह जानकारी है जो प्रत्यक्ष माध्यम से प्राप्त नहीं की गई है, और गवाह द्वारा प्रत्यक्ष रूप से अनुभव नहीं की गई है। अनुश्रुति साक्ष्य के साक्ष्य अदालत में स्वीकार नहीं किए जाते हैं और कोई साक्ष्य मूल्य नहीं रखते हैं।

हालांकि, निम्नलिखित अपवादों के मामले में अनुश्रुति साक्ष्य को स्वीकार किया जाता हैं:

  • एक गवाह के अलावा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दिया गया एक बयान स्वीकार किया जाता है जब यह धारा 6 में रेस गेस्टा के सिद्धांत के अनुसार लेन-देन का हिस्सा होता है। उदाहरण के लिए, एक पीड़ित की हत्या होने से एक घंटे पहले, ‘A’ ने ‘B’ को, उसके घर में मारने की धमकी देते हुए सुना था। हत्या के पहले B द्वारा दी गई मौत की धमकी विचाराधीन लेन-देन का हिस्सा थी क्योंकि हत्या उसके एक घंटे बाद हुई थी।
  • एक गवाह की गवाही जिसके लिए अदालत के बाहर एक स्वीकृति या स्वीकारोक्ति की गई थी।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 32(1) के तहत की गई मृत्यु की घोषणा।
  • धारा 34 के तहत कारोबार के दौरान खाते की किताबों में प्रविष्टियां (एंट्रीज); धारा 35 के तहत सार्वजनिक रजिस्टरों में प्रविष्टियां।
  • धारा 60 के तहत विशेषज्ञों की अनुपस्थिति या मृत्यु में, उनके ग्रंथों और पुस्तकों में व्यक्त उनके विचारों और शब्दों को साक्ष्य के रूप में गिना जा सकता है।
  • जब एक गवाह की उपस्थिति में एक निंदात्मक बयान दिया जाता है, तो गवाह इस तथ्य की गवाही दे सकता है कि बयान दिया गया था।

दस्तावेज़ी साक्ष्य

दस्तावेजी साक्ष्य अधिनियम की धारा 61-90 के अंतर्गत आते हैं। जांच के लिए न्यायालय में प्रस्तुत किए गए सभी दस्तावेज, दस्तावेजी साक्ष्य के तहत आते हैं। विश्वसनीयता और स्थायित्व (परमानेंस) दोनों के संदर्भ में, मौखिक साक्ष्य की तुलना में दस्तावेजी साक्ष्य को प्राथमिकता दी जाती है। दस्तावेजी साक्ष्य को ‘डेड प्रूफ’ भी कहा जाता है। प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) में सुधार और आई.टी. अधिनियम, 2000 जैसे कानून के आने के कारण इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को भी दस्तावेजी साक्ष्य के दायरे में शामिल किया गया है।

दस्तावेजी साक्ष्य दो प्रकार के हो सकते हैं: 

  1. प्राथमिक साक्ष्य (प्राइमरी एविडेंस), और 
  2. द्वितीयक साक्ष्य (सेकेंडरी एविडेंस)।

प्राथमिक साक्ष्य

प्राथमिक साक्ष्य में मूल दस्तावेज; अलग-अलग हिस्सों में निष्पादित (एग्जीक्यूट) एक दस्तावेज; एक दस्तावेज जो एक वर्दी, सामूहिक प्रक्रिया (उदाहरण के लिए, फोटोग्राफ, लिथोग्राफ, आदि) द्वारा निर्मित किया गया है, शामिल होते हैं।

द्वितीयक साक्ष्य

द्वितीयक साक्ष्य में मूल दस्तावेज की प्रमाणित प्रतियां शामिल हैं। इसके अलावा, जब मूल दस्तावेजों का उपयोग यांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से बड़ी संख्या में प्रतियां बनाने के लिए किया जाता है, उदाहरण के लिए, प्रिंटिंग, फोटोकॉपी आदि।

साक्ष्य का वर्गीकरण

साक्ष्य को विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है और यह एक संकीर्ण (नैरो), कठोर परिभाषा तक सीमित नहीं है।

प्रत्यक्ष और परिस्थितिजन्य (सर्कमस्टेंशियल) साक्ष्य

प्रत्यक्ष साक्ष्य सीधे तौर पर विवाद्यक मुद्दे या पक्षों के बीच विवाद के मामले को संबोधित करते हैं। इसमें गवाहों के बयान और दस्तावेजी साक्ष्य दोनों शामिल होते हैं। उदाहरण के लिए, ‘A’ ने ‘B’ को चाकू से ‘C’ को मारते हुए देखा। ‘B’ द्वारा ‘C’ की हत्या का ‘A’ का गवाह, प्रत्यक्ष साक्ष्य है। प्रत्यक्ष साक्ष्य को परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर प्रधानता दी जाती है। प्रत्यक्ष साक्ष्य गवाह की गवाही और प्रस्तुत दस्तावेजों की विश्वसनीयता पर निर्भर करते है।

जबकि, परिस्थितिजन्य साक्ष्य प्रासंगिक तथ्यों पर आधारित होते हैं जो इस तथ्य को साबित या न साबित करते हैं। परिस्थितिजन्य साक्ष्य को आरोपी के अपराध को संदेह से परे साबित करना चाहिए यदि इन्हें अदालत में स्वीकार किया जाता है। परिस्थितिजन्य साक्ष्य विवाद्यक तथ्य को प्रदान करने या अस्वीकार करने के लिए अप्रत्यक्ष मार्ग लेते है, हालांकि, इसे द्वितीयक साक्ष्य के साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए।

उमेदभाई बनाम स्टेट ऑफ गुजरात (1977) और गाडे लक्ष्मी मंगराजू बनाम स्टेट ऑफ आंध्र प्रदेश (2001), के मामलों में यह कहा गया था की जब परिस्थितिजन्य साक्ष्य की एक श्रृंखला एक तर्क श्रृंखला के माध्यम से एक संचयी (क्यूमुलेटिव) प्रभाव बनाती है, और परिस्थितियाँ प्रकृति में निर्णायक होती हैं, और संदेह से परे आरोपी के अपराध को साबित करती हैं, तो परिस्थितिजन्य साक्ष्य अदालत में बहुत अधिक स्वीकार्य होते है।

विद्यमान (रियल) और व्यक्तिगत साक्ष्य

विद्यमान साक्ष्य में वे अनुमान या निष्कर्ष शामिल होते हैं जो न्यायालय को उपलब्ध जानकारी से प्राप्त होते है। उदाहरण के लिए, अपराध स्थल पर डी.एन.ए. मिलना; न्यायाधीश के समक्ष आरोपी का घबराहट भरा व्यवहार; हत्या के हथियार पर मिले उंगलियों के निशान आदि। व्यक्तिगत साक्ष्य को मानव एजेंसी के माध्यम से प्राप्त किया जाता है।

मूल और अप्रमाणिक साक्ष्य

मूल साक्ष्य प्रत्यक्ष साक्ष्य है, जिसका अनुभव एक गवाह ने व्यक्तिगत रूप से अपनी इंद्रियों के माध्यम से किया है। जबकि, अप्रामाणिक साक्ष्य द्वितीयक या अनुश्रुति है और अप्रत्यक्ष रूप से किसी तीसरे पक्ष के माध्यम से पाए जाते है।

वास्तविक और अवास्तविक साक्ष्य

वास्तविक साक्ष्य वह साक्ष्य है जिसकी पुष्टि करने की आवश्यकता नहीं है और जो किसी तथ्य को साबित या अस्वीकृत करने का कार्य करते है। वास्तविक साक्ष्य परिस्थितिजन्य या प्रत्यक्ष दोनों हो सकते हैं। अवास्तविक साक्ष्य अपने आप में पर्याप्त महत्व नहीं रखते है और किसी तथ्य को साबित या न साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं होते है।

सकारात्मक और नकारात्मक साक्ष्य

सकारात्मक साक्ष्य साबित करते हैं कि कोई घटना हुई है या एक निश्चित तथ्य मौजूद है। जबकि, नकारात्मक साक्ष्य यह साबित करते हैं कि तथ्य मौजूद नहीं है।

अभियोजन (प्रॉसिक्यूटर) साक्ष्य और बचाव पक्ष के साक्ष्य

अभियोजन पक्ष द्वारा प्रतिवादी या आरोपी के अपराध को साबित करने के लिए इस्तेमाल किए गए साक्ष्य को अभियोजन साक्ष्य कहा जाता है। दूसरी ओर, प्रतिवादी द्वारा अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए इस्तेमाल किए गए साक्ष्य को बचाव पक्ष के साक्ष्य कहा जाता है।

साबित

जब अदालत एक निश्चित तथ्य के अस्तित्व में एक उचित संदेह से परे विश्वास करती है या यह मानती है कि एक उचित व्यक्ति विश्वास के आधार पर एक निश्चित तरीके से कार्य कर सकता है कि उक्त तथ्य मौजूद है, तो तथ्य को “साबित” कहा जाता है। 

न साबित

जब अदालत उचित संदेह से परे विश्वास करती है कि एक तथ्य मौजूद नहीं है, और एक उचित व्यक्ति मामले के विवरण जानने पर, इस विश्वास पर कार्य करता है कि तथ्य मौजूद नहीं है, तो तथ्य को “न साबित” कहा जाता है।

साबित नहीं हुआ

एक तथ्य को “साबित नहीं हुआ” तब कहा जाता है जब इसे न तो साबित किया जाता है और न ही न साबित किया जाता है, और एक उचित व्यक्ति इस तथ्य के अस्तित्व में होने या अस्तित्व में न होने में विश्वास नहीं करता है।

निष्कर्ष

साक्ष्य का कानून न्यायपालिका को प्रत्येक मामले में प्रस्तुत विशाल जानकारी के माध्यम से निर्णय लेने में सहायता करने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण है। केवल साक्ष्य जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अंतर्गत आते है, उन्हें ही स्वीकार किया जाता है और इसका प्रमाणिक मूल्य होता है। यह अदालत को अपना समय बर्बाद करने से रोकता है और अदालत को किसी मामले के परिणाम को निर्धारित करने के लिए प्रासंगिक और सही साक्ष्यों तक त्वरित पहुंच प्राप्त करने में मदद करता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 एक व्याख्या और परिभाषा खंड है जो अधिनियम में प्रयुक्त प्रमुख शब्दों और अवधारणाओं का वर्णन करता है, और साक्ष्य कानून को समझने में भी मदद करता है।

संदर्भ

  • R v Daye, [1908] 2 KB 333
  • Ashok Jain, Law of Evidence, Ascent Publications, 2014

 

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