भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार

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Constitution of India
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यह लेख उस्मानिया विश्वविद्यालय के पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज ऑफ लॉ से बीए.एलएलबी कर रहे R Sai Gayatri द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 12 से 35) के बारे में विस्तार से बताता है। यह मौलिक अधिकारों के संबंध में ऐतिहासिक मामलो की एक अंतर्दृष्टि भी देता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारतीय संविधान, 1950 में कुछ प्रावधान हैं जो भारत के सभी नागरिकों के बुनियादी मानवाधिकारों की गारंटी देते हैं। छह मौलिक अधिकार हैं और वे धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव से मुक्त हैं। इन अधिकारों का उल्लंघन होने पर व्यक्तियों द्वारा इन अधिकारों का आह्वान किया जा सकता है। मौलिक अधिकार भारतीय संविधान के भाग- III में शामिल हैं, इसे भारतीय संविधान के ‘मैग्ना कार्टा’ के रूप में भी जाना जाता है। इस लेख के माध्यम से हम भारतीय संविधान में निहित मौलिक अधिकारों के बारे में जानेंगे।

मौलिक अधिकारों की अनुसूची

भारतीय संविधान में छह मौलिक अधिकार निहित हैं, वे इस प्रकार हैं –

  • समानता का अधिकार (अनुच्छेद 1418)
  • स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 1922)
  • शोषण के खिलाफ अधिकार (अनुच्छेद 2324)
  • धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 2528)
  • सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (अनुच्छेद 2930)
  • संवैधानिक उपाय का अधिकार (अनुच्छेद 32)

यह ध्यान रखना उचित है कि संपत्ति का अधिकार संविधान में मौलिक अधिकारों में से एक था। हालांकि, संपत्ति का अधिकार 44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा मौलिक अधिकारों की अनुसूची से हटा दिया गया था। मौलिक अधिकारों के दायरे में होने के कारण, संपत्ति का अधिकार संपत्ति वितरण, समानता और समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने में एक बाधा के रूप में कार्य कर रहा था। इस प्रकार, वर्तमान में, संपत्ति का अधिकार अनुच्छेद 300A के तहत एक कानूनी अधिकार है और मौलिक अधिकार नहीं है।

मौलिक अधिकारों की मुख्य विशेषताएं

भारत के संविधान में निहित मौलिक अधिकारों की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं –

  • भारतीय संविधान मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है और उनकी रक्षा करता है।
  • संसद के पास मौलिक अधिकारों को उचित आधार पर प्रतिबंधित करने की शक्ति और अधिकार है, हालांकि, ऐसे प्रतिबंध केवल एक निश्चित अवधि के लिए ही लगाए जा सकते हैं। जिन आधारों पर संसद द्वारा मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित किया जाता है, उनकी न्यायपालिका द्वारा तर्कसंगतता (रीजनेबिलिटी) के लिए समीक्षा (रिव्यू) की जाएगी। इसलिए, मौलिक अधिकार न तो पूर्ण हैं और न ही पुण्यमय (सेक्रोसैंक्ट) है।
  • राष्ट्रीय आपात स्थिति के मामले में मौलिक अधिकारों को निलंबित (सस्पेंड) किया जा सकता है, हालांकि, अनुच्छेद 20 और 21 के तहत गारंटीकृत अधिकार तब भी लागू रहते है। सैन्य शासन के मामले में, भारतीय क्षेत्र के भीतर किसी भी क्षेत्र में मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित किया जा सकता है।
  • भारत का संविधान किसी व्यक्ति को उनके मौलिक अधिकार के उल्लंघन या प्रतिबंधित होने की स्थिति में उनके प्रवर्तन (एंफोर्समेंट) के लिए सीधे भारत के सर्वोच्च न्यायालय में जाने में सक्षम बनाता है। इस प्रकार मौलिक अधिकार न्यायोचित (जस्टिशिएबल) हैं।

मौलिक अधिकारों का महत्व

मौलिक अधिकार उस नींव के रूप में कार्य करते हैं जो भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था और धर्मनिरपेक्षता (सेकुलरिज्म) को कायम रखती है। वे सामाजिक न्याय और समानता सुनिश्चित करने वाले व्यक्ति की भौतिक और नैतिक (मोरल) सुरक्षा के लिए आवश्यक शर्तें स्थापित करते हैं। वे अल्पसंख्यकों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के अधिकारों की भी रक्षा करते हैं। मौलिक अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता को भी सुनिश्चित करते हैं। ये अधिकार कानून के शासन को स्थापित करते हैं जिससे सरकार के अधिकार की पूर्णता पर नियंत्रण रहता है।

मौलिक अधिकारों का संशोधन

सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती, (1974) के मामले में कहा कि संसद संविधान के ‘मूल संरचना (बेसिक स्ट्रक्चर) के सिद्धांत’ के अधीन सभी मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन कर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने न तो विशेष रूप से परिभाषित किया है कि मूल संरचना में क्या शामिल है और न ही उसने संविधान की मूल संरचना की सामग्री के बारे में किसी विस्तृत सूची का उल्लेख किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मूल संरचना में केवल किसी भी चीज को जोड़ा जा सकता है और किसी भी प्रकार की चीज को हटाने की अनुमति नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णयों की एक श्रृंखला में यह माना है कि निम्नलिखित प्रावधान संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा हैं –

  • भारत की संप्रभुता (सोवरेग्निटी)
  • लोकतंत्र
  • धर्मनिरपेक्षता
  • गणतंत्र
  • स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव
  • न्यायिक समीक्षा, आदि।

विच्छेदनीयता (सेवरेबिलिटी) का सिद्धांत

विच्छेदनीयता के सिद्धांत को “पृथक्करणीयता (सेप्रेबिलिटी) के सिद्धांत” के रूप में भी जाना जाता है।  यह हमारे मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 13(1) में निहित है, जिसमें कहा गया है कि संविधान की शुरुआत से पहले भारत में लागू किए गए सभी कानून लागू रहेंगे, हालांकि, जिस हद तक वे मौलिक अधिकारों के विरोध में हैं, इस तरह की अनियमितता की डिग्री शून्य हो जाएगी। सरल शब्दों में, पूरे कानून को अमान्य या शून्य नहीं माना जाएगा, केवल कानून का वह हिस्सा जो मौलिक अधिकारों से असंगत है, उसे शून्य या अमान्य माना जाएगा।

आच्छादन (एक्लिप्स) का सिद्धांत

आच्छादन का सिद्धांत तब लागू होता है जब कानून का एक प्रावधान दूसरे प्रावधान पर हावी हो जाता है और जैसा कि नाम से पता चलता है कि यह सिद्धांत तब लागू होता है जब कोई कानून या अधिनियम मौलिक अधिकारों की अवहेलना करता है या असंगत होता है। इस सिद्धांत के मामले में, मौलिक अधिकार उस कानून या अधिनियम का आच्छादन करते हैं जो असंगत है, जिससे यह अप्रवर्तनीय हो जाता है, फिर भी शुरू से ही शून्य नहीं होता है। मौलिक अधिकारों द्वारा स्थापित सीमाओं को समाप्त कर दिए जाने पर ऐसा कानून या अधिनियम एक बार फिर से लागू किया जा सकता है।

समानता का अधिकार

अनुच्छेद 14 – कानून के समक्ष समानता

  • अनुच्छेद 14 कानून की नजर में सभी व्यक्तियों को समान मानता है।
  • इस अनुच्छेद में कहा गया है कि भारत के सभी नागरिकों के साथ कानून के समक्ष समान व्यवहार किया जाना चाहिए।
  • उक्त अनुच्छेद में आगे कहा गया है कि कानून सभी की समान रूप से रक्षा करता है।
  • समान परिस्थितियों में, कानून को लोगों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए।

अनुच्छेद 15 – भेदभाव का निषेध

भारतीय संविधान का यह प्रावधान किसी भी प्रकार के भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। धर्म, मूलवंश (रेस), जन्म स्थान, जाति, लिंग के आधार पर यदि कोई नागरिक किसी भी अक्षमता, प्रतिबन्ध, दायित्व या शर्त के अधीन है –

  • सार्वजनिक स्थानों की पहुंच के लिए;
  • सार्वजनिक संपत्तियों जैसे टैंक, घाट, कुएं, आदि का उपयोग जिन्हे राज्य द्वारा बनाए रखा जाता है या जो आम जनता के उपयोग के लिए है;
  • उपरोक्त अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि इस अनुच्छेद के बावजूद महिलाओं, बच्चों और पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान बनाए जा सकते हैं।

अनुच्छेद 16 – सार्वजानिक रोजगार (पब्लिक एम्प्लॉयमेंट) के मामले में समान अवसर

  • यह संवैधानिक प्रावधान सभी नागरिकों के लिए राज्य सेवा में समान रोजगार के अवसर प्रदान करता है।
  • सार्वजनिक रोजगार के मामले में, किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, मूलवंश, लिंग, जन्म स्थान, निवास या वंश (डिसेंट) के आधार पर भेदभाव या नियुक्ति नहीं की जानी चाहिए।
  • पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान प्रदान करने के लिए उक्त अनुच्छेद के अपवाद बनाए जा सकते हैं।

अनुच्छेद 17 – अस्पृश्यता का उन्मूलन (एबोलिशन ऑफ अनटचैबिलिटी)

  • उपरोक्त अनुच्छेद में अस्पृश्यता की प्रथा का सख्त निषेध है।
  • इस अनुच्छेद के माध्यम से सभी रूपों में अस्पृश्यता का अंत किया गया है।
  • यदि अस्पृश्यता के कारण कोई अक्षमता या विवाद उत्पन्न होता है तो उसे अपराध माना जाता है।

अनुच्छेद 18 :- उपाधियों का उन्मूलन

  • उक्त अनुच्छेद उपाधियों को समाप्त कर देता है। इसमें कहा गया है कि राज्य कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा। हालांकि, जो उपाधियाँ शैक्षणिक या सैन्य प्रकृति की हैं उन्हे अनुमति दी गई है।
  • उक्त अनुच्छेद आगे भारत के नागरिकों को किसी विदेशी देश से किसी भी प्रकार की उपाधि स्वीकार करने से रोकता है। राय बहादुर, खान बहादुर जैसी ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली उपाधियों को भी इस अनुच्छेद के आधार पर समाप्त कर दिया गया है।
  • पद्म श्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण, भारत रत्न और सैन्य सम्मान जैसे अशोक चक्र, परमवीर चक्र जैसे पुरस्कारों पर इस श्रेणी के तहत विचार नहीं किया जाएगा।

स्वतंत्रता का अधिकार

संविधान के निम्नलिखित अनुच्छेद स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से संबंधित हैं –

अनुच्छेद 19

अनुच्छेद 19 निम्नलिखित छह स्वतंत्रताओं की गारंटी देता है। वे इस प्रकार हैं-

अनुच्छेद 19(1)(a) – वाक् और अभिव्यक्ति (स्पीच एंड एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता

यह प्रावधान भारत के प्रत्येक नागरिक को वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। हालांकि, कानून देश की अखंडता (इंटीग्रिटी), सुरक्षा और संप्रभुता के हितों को ध्यान में रखते हुए इस स्वतंत्रता के दायरे पर प्रतिबंध लगा सकता है। अपवादों में- विदेशी राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखना, किसी अपराध के लिए उकसाने, मानहानि या अदालत की अवमानना (कंटेंप्ट) शामिल हैं​​।

अनुच्छेद 19(1)(b) – इकट्ठा होने की स्वतंत्रता

यह प्रावधान प्रत्येक व्यक्ति को बिना हथियारों के शांतिपूर्वक इकट्ठा होने की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। हालांकि, देश की संप्रभुता और अखंडता के हितों को ध्यान में रखते हुए और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।

अनुच्छेद 19(1)(c) – संगठन (एसोसिएशन) या संघ या सहकारी समितियां (को-ऑपरेटिव सोसाइटीज) बनाने की स्वतंत्रता

यह प्रावधान भारत के नागरिकों को संगठन, संघ या सहकारी समितियां बनाने की अनुमति देता है, लेकिन इसमें देश की अखंडता और सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव को ध्यान में रखते हुए कुछ अपवाद दिए गए हैं।

अनुच्छेद 19(1)(d) – स्वतंत्र रूप से घूमने की स्वतंत्रता

यह प्रावधान कहता है कि भारत के नागरिक भारत के पूरे क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से घूम सकते हैं। हालांकि, इस स्वतंत्रता को सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था या अनुसूचित जनजातियों के हितों की सुरक्षा के आधार पर प्रतिबंधित किया जा सकता है।

अनुच्छेद 19(1)(e) – निवास की स्वतंत्रता

यह प्रावधान कहता है कि भारत के सभी नागरिकों को देश के किसी भी हिस्से में निवास करने का अधिकार है। हालांकि, इस स्वतंत्रता को सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था या अनुसूचित जनजातियों के हितों की सुरक्षा के आधार पर प्रतिबंधित किया जा सकता है।

अनुच्छेद 19(1)(g) – पेशे की स्वतंत्रता

यह प्रावधान कहता है कि सभी नागरिकों को किसी भी व्यापार या पेशे या व्यवसाय को करने का अधिकार है, बशर्ते कि ऐसा व्यापार या पेशा अवैध या अनैतिक न हो। साथ ही, कानून राज्य को व्यवसाय या व्यापार के अभ्यास के लिए आवश्यक तकनीकी या व्यावसायिक योग्यताओं से संबंधित कानून बनाने से नहीं रोकता है।

अनुच्छेद 20 – अपराधों के लिए दोषसिद्धि के मामले में नागरिकों का संरक्षण

यह प्रावधान अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में नागरिकों के संरक्षण से संबंधित है। इसमें राज्य के खिलाफ व्यक्ति को तीन प्रकार की सुरक्षा का उल्लेख है, वे पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) आपराधिक कानून, दोहरा खतरा और आत्म-अपराध के खिलाफ निषेध हैं।

अनुच्छेद 21 – जीवन का अधिकार

यह प्रावधान कहता है कि कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाना चाहिए। जीवन के अधिकार का मतलब केवल जीना नहीं है, यह कहता है कि एक व्यक्ति को एक सम्मानजनक जीवन जीना चाहिए। उक्त अनुच्छेद का बहुत व्यापक दायरा है और इसकी व्याख्या दशकों से लगातार बदलती रही है।

अनुच्छेद 21A – 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा

इस प्रावधान को 2002 में 86वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान में शामिल किया गया था। इसमें उल्लेख है कि राज्य को 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।

अनुच्छेद 22 – कुछ मामलों में गिरफ्तारी और नजरबंदी (डिटेंशन) के खिलाफ संरक्षण

यह प्रावधान नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों के लिए उपलब्ध है। यह गिरफ्तारी के मामले में लोगों को कुछ प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय प्रदान करता है। यह ध्यान देने योग्य है कि यह प्रावधान नजरबंदी और गिरफ्तारी के खिलाफ मौलिक अधिकार नहीं है। इस अधिकार का उद्देश्य मनमानी गिरफ्तारी और नजरबंदी को रोकना है। इस प्रावधान में निवारक (प्रिवेंटिव) नजरबंदी कानूनों और दुश्मन एलियंस के तहत गिरफ्तार किए गए लोगों को शामिल नहीं किया गया है। यह अनुच्छेद आगे निम्नलिखित प्रदान करता है –

अनुच्छेद 22(1)

इस प्रावधान में कहा गया है कि हिरासत में लिए गए किसी भी व्यक्ति को सूचित किया जाना चाहिए कि उन्हें क्यों गिरफ्तार किया गया है। साथ ही, उन्हें वकील से परामर्श करने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।

अनुच्छेद 22(2)

इस प्रावधान में कहा गया है कि गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए। यह प्रावधान आगे कहता है कि गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति को न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा निर्धारित अवधि से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।

शोषण के खिलाफ अधिकार

अनुच्छेद 23 – मानव तस्करी और बाल श्रम का निषेध

इस प्रावधान को आगे निम्नलिखित में विभाजित किया गया है –

अनुच्छेद 23(1)

मानव तस्करी और ‘बेगर’ और इस तरह के अन्य प्रकार के जबरन श्रम को इस प्रावधान के आधार पर प्रतिबंधित किया गया है और इस प्रावधान का किसी भी प्रकार का उल्लंघन कानून के तहत दंडनीय अपराध होगा।

अनुच्छेद 23(2)

इस अनुच्छेद में कुछ भी राज्य को सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए अनिवार्य सेवा लागू करने से नहीं रोकेगा, और ऐसी सेवा लागू करने में राज्य धर्म, जाति या वर्ग या इनमें से किसी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।

यह प्रावधान न केवल नागरिकों को राज्य से बल्कि निजी नागरिकों से भी बचाता है। इस प्रावधान के संबंध में संसद द्वारा कुछ कानून पारित किए गए, वे हैं- बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 और महिलाओं और लड़कियों में अनैतिक व्यापार का दमन (सप्रेशन) अधिनियम, 1956

अनुच्छेद 24 – कारखानों आदि में बच्चों के रोजगार का निषेध

इस प्रावधान में कहा गया है कि 14 वर्ष से कम उम्र के किसी भी बच्चे को किसी कारखाने या खदान में काम करने के लिए या किसी अन्य ऐसे खतरनाक रोजगार में नहीं लगाया जाना चाहिए। यह प्रावधान 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को किसी भी खतरनाक उद्योग या कारखानों या खानों में किसी भी अपवाद के बावजूद रोजगार पर रोक लगाता है। लेकिन कानूनी तौर पर बच्चों को गैर-खतरनाक काम में लगाने की अनुमति है। इस प्रावधान के संबंध में संसद द्वारा कुछ कानून पारित किए गए, वे हैं – फैक्ट्री अधिनियम, 1948, खान अधिनियम 1952, बाल श्रम (निषेध और विनियमन (रेगुलेशन) अधिनियम, 1986, बाल श्रम (निषेध और विनियमन) संशोधन अधिनियम,  2016, आदि।

धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार

अनुच्छेद 25 – अंतःकरण (कंसाइंस) और धर्म के स्वतंत्र पेशे, आचरण और प्रचार (प्रोपोगेशन) की स्वतंत्रता

यह प्रावधान अंतःकरण की स्वतंत्रता, सभी नागरिकों को अपने धर्म को मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। हालांकि, उक्त स्वतंत्रता सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य और नैतिकता के अधीन हैं। इस अनुच्छेद में आगे उल्लेख किया गया है कि राज्य धार्मिक अभ्यास से संबंधित वित्तीय, आर्थिक, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों को विनियमित या प्रतिबंधित करने के लिए कानून बना सकता है। यह आगे सामाजिक कल्याण और हिंदुओं के सभी वर्गों के लिए सार्वजनिक प्रकृति के हिंदू धार्मिक संस्थानों के सुधार या खोलने की अनुमति देता है।

अनुच्छेद 26 – धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता

यह प्रावधान कहता है कि नैतिकता, स्वास्थ्य और सार्वजनिक व्यवस्था के अधीन, प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय (डिनॉमिनेशन) के पास निम्नलिखित अधिकार हैं –

  • धार्मिक और धर्मार्थ (चेरिटेबल) उद्देश्यों के लिए संस्थान बनाने और बनाए रखने का अधिकार।
  • धर्म के मामले में अपने मामलों का प्रबंधन करने का अधिकार।
  • चल और अचल संपत्ति अर्जित करने का अधिकार।
  • ऐसी संपत्ति को कानून के अनुसार प्रशासित (एडमिनिस्टर) करने का अधिकार।

अनुच्छेद 27 – किसी धर्म विशेष के प्रचार के लिए करों के भुगतान के बारे में स्वतंत्रता

इस प्रावधान के अनुसार, ऐसी आय पर कोई कर नहीं लगाया जाएगा जिसे सीधे तौर पर किसी विशेष धर्म/धार्मिक संप्रदाय के प्रचार और/या रखरखाव के लिए उपयोग किया जाता है।

अनुच्छेद 28 – कुछ शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक पूजा में उपस्थिति के बारे में स्वतंत्रता

यह प्रावधान धार्मिक शिक्षा के प्रसार के लिए धार्मिक समूहों द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना को सक्षम बनाता है।

सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार

अनुच्छेद 29 – अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण

संविधान के इस प्रावधान का उद्देश्य अल्पसंख्यक समूहों के हितों की रक्षा करना है।

अनुच्छेद 29(1)

इस प्रावधान में कहा गया है कि भारत में रहने वाले नागरिकों के किसी भी वर्ग की एक विशिष्ट संस्कृति, भाषा या लिपि (स्क्रिप्ट) है, उन्हें अपनी संस्कृति, भाषा और लिपि के संरक्षण का अधिकार है।

अनुच्छेद 29(2)

इस प्रावधान में उल्लेख किया गया है कि राज्य को उसके द्वारा चलाए जा रहे शैक्षणिक संस्थानों में या उनसे सहायता प्राप्त करने वाले किसी भी व्यक्ति को जाति, धर्म, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर प्रवेश देने से इनकार नहीं करना चाहिए।

अनुच्छेद 30 – अल्पसंख्यकों का शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार

यह अधिकार अल्पसंख्यकों को अपने स्वयं के शिक्षण संस्थानों को बनाने और संचालित करने के लिए प्रदान किया जाता है। यही कारण है कि उक्त प्रावधान को ‘शिक्षा अधिकारों का चार्टर’ भी कहा जाता है।

अनुच्छेद 30(1)

यह प्रावधान कहता है कि सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार है।

अनुच्छेद 30(2)

यह प्रावधान प्रदान करता है कि राज्य, शिक्षण संस्थानों को सहायता प्रदान करते समय, किसी भी शैक्षणिक संस्थान के खिलाफ इस आधार पर भेदभाव नहीं करेगा कि वह अल्पसंख्यक के प्रबंधन में है, चाहे वह धर्म या भाषा पर आधारित हो।

संवैधानिक उपाय का अधिकार

अनुच्छेद 32

नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर संविधान कुछ उपायों की गारंटी देता है। राज्य के पास किसी व्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन करने या उस पर अंकुश लगाने की शक्ति या अधिकार नहीं है। यदि इन अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो पीड़ित व्यक्ति अदालतों का दरवाजा खटखटा सकता है। वे सीधे भारत के सर्वोच्च न्यायालय से भी संपर्क कर सकते हैं जो मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट जारी कर सकता है। न्यायालय द्वारा पांच प्रकार की रिट जारी की जा सकती हैं, वे हैं –

बन्दी प्रत्यक्षीकरण (हेबियस कॉर्पस)

‘बंदी प्रत्यक्षीकरण’ शब्द का अर्थ “शरीर का होना” है। इस रिट के अनुसार, अदालत को किसी भी व्यक्ति को हिरासत में लेने की वैधता का आकलन करने के लिए बुलाने का अधिकार है।

सर्चिओररी

‘सर्चिओररी’ शब्द का अर्थ “प्रमाणित होना” है। इस रिट के आधार पर, एक उच्च न्यायालय उस मामले की समीक्षा करता है जिस पर निचली अदालत में विचार किया गया है। यह मूल रूप से किसी अदालत या सरकारी प्राधिकरण (अथॉरिटी) द्वारा दिए गए निर्णय की न्यायिक समीक्षा करने के लिए कार्यरत (एम्प्लॉयड) है।

निषेध (प्रोहिबिशन)

निचली अदालतों, ट्रिब्यूनल और अन्य ऐसे अर्ध-न्यायिक (क्वासी ज्यूडिशियल) अधिकारियों को उनके कानूनी अधिकार से परे कार्य करने से प्रतिबंधित करने के लिए एक अदालत द्वारा ‘निषेध’ का रिट जारी किया जाता है। यह निष्क्रियता (इनैक्टिविटी) की जाँच के लिए कार्यरत है जबकि परमादेश की रिट गतिविधि की जाँच करती है।

परमादेश (मैनडेमस)

‘परमादेश’ शब्द का अर्थ “हम आज्ञा देते हैं” है। इस रिट को अदालत द्वारा एक सार्वजनिक अधिकारी को निर्देश देने के लिए नियोजित किया जाता है जो विफल हो गया है या अपना कर्तव्य करने से इनकार करता है, अपना काम फिर से शुरू करता है। परमादेश की रिट एक सार्वजनिक निकाय, एक निचली अदालत, एक निगम, एक ट्रिब्यूनल, या एक सरकार के खिलाफ भी जारी की जा सकती है।

क्यो वारंटो

‘क्यो वारंटो’ शब्द का अर्थ “किस अधिकार या वारंट से” है। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय इस रिट को किसी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक कार्यालय के अवैध हड़पने से बचाने के लिए नियोजित करते हैं। क्यो वारंटो की रिट अदालत को किसी सार्वजनिक कार्यालय में किसी व्यक्ति के दावे की वैधता की जांच करने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) करती है।

मौलिक अधिकारों से संबंधित ऐतिहासिक मामले 

ए. के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950)

इस मामले में, ए.के. गोपालन ने अनुच्छेद 32 के तहत एक याचिका दायर की, जिसमें उनकी नजरबंदी के खिलाफ बंदी प्रत्यक्षीकरण का रिट लागू किया गया। बाद में, उन्हें उन आधारों का खुलासा करने से प्रतिबंधित कर दिया गया जिनके आधार पर उन्हें हिरासत में लिया गया था क्योंकि निवारक निरोध अधिनियम, 1950 की धारा 14 ने अदालत में इस तरह के खुलासे को प्रतिबंधित किया था। नतीजतन, उन्होंने दावा किया कि इस तरह की हिरासत संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन करती है और आगे अधिनियम के प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 22 का उल्लंघन करते हैं।

इस मामले ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय का नेतृत्व किया जिसमें माननीय न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 में भारतीय अदालतों को कानून के मानक की उचित प्रक्रिया को लागू करने की आवश्यकता नहीं होगी। इसके अलावा, माननीय न्यायालय ने धारा 14 को छोड़कर निवारक निरोध अधिनियम, 1950 की वैधता को बरकरार रखा, जिसमें प्रावधान था कि बंदी को हिरासत में लेने के कारणों के खिलाफ उसके द्वारा किए गए किसी भी प्रतिनिधित्व का खुलासा अदालत में नहीं किया जाएगा।

शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1952)

इस मामले में, संपत्ति के अधिकार को कम करने वाले 1951 के पहले संशोधन की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। इस मामले में, यह चुनौती दी गई थी कि अनुच्छेद 31A और 31B के संबंध में अनुच्छेद 13 द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकार पर अंकुश लगाने वाले संशोधनों की अनुमति नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय  ने कहा कि अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करने की शक्ति में मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति भी शामिल है।

गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य (1967)

इस मामले में, गोलक नाथ और उनके परिवार ने पंजाब में 500 से अधिक खंड भूमि का दावा किया। इस बीच, राज्य सरकार ने पंजाब सिक्योरिटीज एंड लैंड टेन्योर एक्ट, 1950 नामक एक अधिनियम बनाया, जिसके आधार पर गोलक नाथ और उनके परिवार को केवल 30 भूमि खंड रखने की अनुमति दी गई और उससे अधिक नहीं। परिणामस्वरूप, गोलक नाथ ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका दायर की जिसमें अधिनियम की वैधता पर सवाल उठाया गया और आगे कहा गया कि संपत्ति के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया जा रहा है।  सर्वोच्च न्यायालय के सामने सवाल यह था कि क्या संसद में भारत के संविधान के भाग III के तहत उल्लिखित मौलिक अधिकारों को संशोधित करने की क्षमता है या नहीं। अदालत ने फैसला सुनाया कि संसद के पास संविधान में किसी भी मौलिक अधिकार को कम करने की शक्ति नहीं है।

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973)

इस मामले में, उपरोक्त गोलकनाथ मामले की समीक्षा की गई थी। अदालत ने कहा कि संविधान के “मूल संरचना” में संशोधन नहीं किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय  ने अपने 7:6 के फैसले के माध्यम से फैसला सुनाया था कि संसद के पास संविधान की मूल संरचना को बदलने की कोई शक्ति या अधिकार नहीं है।

इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण (1975)

यह मामला संविधान के 39वें संशोधन के उद्देश्य के साथ-साथ प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से जुड़े चुनावी विवादों से संबंधित था। मामले में शामिल प्राथमिक प्रश्न 39वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1975 के खंड (4) की वैधता का था। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती मामले में निर्धारित बुनियादी विशेषताओं जैसे कि कानून का शासन, लोकतंत्र और न्यायिक समीक्षा की पहले से मौजूद सूची में ‘बुनियादी विशेषताओं’ के रूप में कुछ विशेषताओं को जोड़ा। 

मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978)

इस मामले में ‘जनहित’ में मेनका गांधी का पासपोर्ट जब्त कर लिया गया था। जब उनसे पासपोर्ट जब्त करने का कारण पूछा गया तो सरकार ने आम जनता के हित में कोई विवरण देने से इनकार कर दिया। नतीजतन, मेनका गांधी ने अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका दायर की जिसमें कहा गया कि सरकार की कार्रवाई संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन करती है। सरकार ने यह कहते हुए जवाब दिया कि उनका पासपोर्ट जब्त कर लिया गया था क्योंकि ‘जांच आयोग’ के समक्ष कुछ कानूनी कार्यवाही के संबंध में उसकी उपस्थिति की आवश्यकता होने की संभावना थी। सर्वोच्च न्यायालय  ने माना कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक ‘प्रक्रिया’ मनमानी, अनुचित, दमनकारी (ऑप्रेसिव) या अनुचित पहलुओं से मुक्त होनी चाहिए।

मिनर्वा मिल्स लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (1980)

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने मूल संरचना सिद्धांत की व्याख्या पर कुछ स्पष्टीकरण दिए। अदालत ने माना कि संविधान में संशोधन करने में संसद की शक्ति सीमित है। इसलिए, संसद खुद को संविधान में संशोधन करने का असीमित अधिकार देने के लिए इस तरह की सीमित शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकती है। इस प्रकार, संसद व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों को नहीं छीन सकती है। इस मामले में फैसले ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान लागू किए गए 42 संशोधन अधिनियम, 1976 के खंड 4 और 5 को भी रद्द कर दिया।

निष्कर्ष

भारतीय संविधान में निहित मौलिक अधिकार एक गारंटी की तरह हैं जिसका अर्थ है कि जब तक वे भारतीय संविधान में मौजूद हैं, लोकतंत्र कायम रहेगा और सभी भारतीय नागरिकों को उनके मूल अधिकारों की सुरक्षा का आश्वासन दिया जा सकता है। ऐसी नागरिक स्वतंत्रताएं देश के किसी भी अन्य कानून पर प्रबल होती हैं। लोगों और राष्ट्र की व्यापक प्रगति के लिए मौलिक अधिकार आवश्यक हैं।

संदर्भ

 

  

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