सीपीसी के आदेश 33 का विश्लेषण (निर्धन व्यक्तियों द्वारा वाद)

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Civil Procedure Code
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यह लेख Yashika Kapoor द्वारा लिखा गया है, जो लॉसिखो से एडवांस सिविल लिटिगेशन में सर्टिफिकेट कोर्स कर रही हैं। इस लेख में सीपीसी के आदेश 33 और उसके नियमों को एक निर्धन व्यक्ति के द्वारा इस्तेमाल किए जाने पर चर्चा की गयी है।  इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash द्वारा किया गया है।

परिचय

भारत की गरीबी दर को ध्यान में रखते हुए, समाज के वंचित वर्गों के लिए, अदालत में मामला दर्ज करना और मुकदमेबाजी के सभी खर्चों को वहन करना काफी चुनौती भरा है। लेकिन केवल यह कहना कि इन कमजोर लोगों को अदालत में मौका नहीं मिलता है, समाधान नहीं है। ऐसा ही एक समाधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39A के तहत निहित है, जो समाज के कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा करता है। यह समाज के गरीब और कमजोर वर्गों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करता है और सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करता है। अनुच्छेद 39A के अलावा, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 22 (1) में भी यह प्रावधान है कि कानून के समक्ष समानता सुनिश्चित की जाए और न्याय को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक कानूनी प्रणाली प्रदान की जाए जो राज्य की ओर से अनिवार्य होगी।

‘गरीब व्यक्ति’ शब्द का अर्थ एक ऐसे व्यक्ति को संदर्भित करता है, जो अत्यधिक गरीबी, दरिद्रता (इम्पॉवरिश्मेंट) से पीड़ित है, या जिसके पास सामान्य जीवन में आवश्यक बुनियादी संसाधनों की कमी है। कानूनी भाषा में, एक गरीब व्यक्ति के पास न्यायालय शुल्क का भुगतान करने की वित्तीय क्षमता नहीं होती है। ऐसे व्यक्तियों को न्याय प्रदान करने के उद्देश्य से, नागरिक प्रक्रिया संहिता (कोड ऑफ़ सिविल प्रोसीजर), 1908 के आदेश 33 के तहत प्रावधान पेश किए गए थे। कोई भी व्यक्ति जो एक निर्धन व्यक्ति के रूप में प्रतिनिधित्व करना चाहता है, उसे सक्षम न्यायालय के समक्ष एक आवेदन दाखिल करना होता है, जिसमें वह खुद को एक निर्धन व्यक्ति घोषित करता है। यदि न्यायालय ऐसे आवेदन से संतुष्ट होता है और इस बात से सहमत होता है कि ऐसे व्यक्ति के पास न्यायालय शुल्क देने का कोई साधन नहीं है, तो न्यायालय ऐसे व्यक्ति को निर्धन व्यक्ति घोषित करेगा। मुख्य रूप से, “निर्धन व्यक्ति” अभिव्यक्ति की शुरुआत से पहले, “गरीब” शब्द का इस्तेमाल समाज के वंचित वर्ग को दर्शाने के लिए किया जाता था। हालांकि, बाद में इसे “निर्धन व्यक्ति” शब्द से प्रतिस्थापित किया गया।

नागरिक प्रक्रिया संहिता के आदेश XXXIII के नियम 1-18, निर्धन व्यक्तियों द्वारा दायर किए गए मुकदमों से संबंधित है।

एक निर्धन व्यक्ति कौन है?

जैसे ही अदालत में एक दीवानी मुकदमा दायर किया जाता है, वादी(ओं) को, अपना वाद दायर करते समय, न्यायालय शुल्क अधिनियम (कोर्ट फीस एक्ट), 1870 द्वारा निर्देशित अपेक्षित अदालत शुल्क जमा करना आवश्यक होती है। हालांकि, नागरिक प्रक्रिया संहिता का आदेश XXXIII, आवश्यक अदालती शुल्क का भुगतान करने के दायित्व से निर्धन व्यक्तियों को मुक्त करके उन्हें इससे बचाता है। इसके बाद यह ऐसे व्यक्तियों को भिखारी के रूप में मुकदमा चलाने की अनुमति देता है, जो सीपीसी के आदेश XXXIII के नियम 1 के तहत कुछ शर्तों के अधीन होते है।

यूनियन बैंक ऑफ इंडिया बनाम खादर इंटरनेशनल कंस्ट्रक्शन के मामले में एक निर्धन व्यक्ति की परिभाषा पर चर्चा

यूनियन बैंक ऑफ इंडिया बनाम खादर इंटरनेशनल कंस्ट्रक्शन के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्धन व्यक्ति की परिभाषा पर चर्चा की थी। अदालत द्वारा यह देखा गया कि एक गरीब व्यक्ति वह है जिसके पास कानून द्वारा निर्धारित शुल्क का भुगतान करने के लिए पर्याप्त राशि (डिक्री के निष्पादन (एग्जिक्यूशन) में अटैचमेंट से छूट वाली संपत्ति और मुकदमे की विषय-वस्तु के अलावा) नहीं है जिसे वह ऐसे मुकदमे में दे सके। यदि ऐसा कोई शुल्क निर्धारित नहीं होता है, या यदि ऐसा व्यक्ति डिक्री के निष्पादन में अटैचमेंट से छूट प्राप्त हुई संपत्ति के अलावा, एक हजार रुपये मूल्य की संपत्ति का हकदार नहीं है, तो वह एक निर्धन व्यक्ति होगा।

ए.ए. हाजा मुनिउद्दीन बनाम भारतीय रेलवे

ए.ए. हाजा मुनिउद्दीन बनाम भारतीय रेलवे के मामले में अदालत ने कहा कि “न्याय तक पहुंच से किसी व्यक्ति को केवल इसलिए इनकार नहीं किया जा सकता है कि उसके पास निर्धारित शुल्क का भुगतान करने का साधन नहीं है।”

  • नियम 1 हमें एक निर्धन व्यक्ति की परिभाषा देता है। कोई भी व्यक्ति जिसके पास न्यायालय शुल्क अधिनियम द्वारा निर्धारित अपेक्षित शुल्क का भुगतान करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं है। हालांकि, नियम 1 में यह भी कहा गया है कि पर्याप्त साधनों पर विचार करते हुए, एक निर्धन व्यक्ति के पास संपत्ति के मूल्यांकन को डिक्री के निष्पादन और मुकदमे की विषय-वस्तु में अटैचमेंट से छूट दी जाएगी। ऐसी छूट प्राप्त संपत्ति, व्यक्तियों के लिए जीवन यापन की मूलभूत आवश्यकता है। इस प्रकार, कानून के अनुसार, इसे अटैच करने की अनुमति नहीं है।
  • ऐसे मामलों में जहां न्यायालय शुल्क अधिनियम द्वारा ऐसा कोई शुल्क निर्धारित नहीं किया गया है और यदि आवेदक के पास एक हजार रुपये की संपत्ति नहीं है, या जहां संपत्ति की कीमत एक हजार रुपये से कम है, तो ऐसे मामले में उस व्यक्ति को एक निर्धन व्यक्ति माना जाएगा। हालांकि, इस नियम का वही अपवाद है जो ऊपर बताया गया है। इसमें कहा गया है कि संपत्ति के मूल्यांकन की गणना करते समय नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 60 को ध्यान में रखना होगा।

निर्धन व्यक्ति के पास की संपत्ति के मूल्यांकन की गणना करते समय, निम्नलिखित संपत्तियों को छूट दी गई है और उन्हें अटैच नहीं किया जाना चाहिए:

a. आवश्यक परिधान, खाना पकाने के बर्तन, बिस्तर;

b. कारीगरों, कृषक के उपकरण;

c. एक किसान, मजदूर या घरेलू नौकर के घर और भवन;

d. खाते की किताबें;

e. नुकसान के लिए मुकदमा करने का एक मात्र अधिकार;

f. व्यक्तिगत सेवा का कोई अधिकार;

g. पेंशनभोगियों को अनुमत वजीफा (स्टाईपेंड) और ग्रेच्युटी;

h. मजदूरों और घरेलू नौकरों की मजदूरी;

i. भरण-पोषण की डिक्री के अलावा किसी डिक्री के निष्पादन में पहले चार सौ रुपये और शेष के दो-तिहाई की सीमा तक वेतन:

ia. भरण-पोषण के लिए किसी डिक्री के निष्पादन में वेतन का एक तिहाई;

j. उन व्यक्तियों के वेतन और भत्ते जिन्हें वायु सेना अधिनियम, 1950 या सेना अधिनियम, 1950 या नौसेना अधिनियम (1957 का 62), लागू होता है;

k. भविष्य निधि अधिनियम (प्रोविडेंट फंड्स एक्ट), 1925 में अनिवार्य जमा (कंपल्सरी डिपॉजिट्स) और राशि;

ka. जमा और रकम, जिन पर लोक भविष्य निधि अधिनियम (पब्लिक प्रोविडेंट फण्ड एक्ट) लागू होता है;

kb. एक निर्णय देनदार की बीमा पॉलिसी के तहत देय सभी धन;

kc. एक आवासीय भवन के पट्टेदार (लेसी) का हित;

l. किसी सरकारी कर्मचारी की परिलब्धियों (एमोलुमेंट्स) का हिस्सा बनने वाला कोई भत्ता;

m. उत्तरजीविता या अन्य केवल आकस्मिक (कंटिंजेंट) या संभावित अधिकार या हित द्वारा उत्तराधिकार की प्रत्याशा (एक्सपेक्टेंसी);

n. भविष्य के रखरखाव का अधिकार;

o. किसी भी भारतीय कानून द्वारा किसी डिक्री के निष्पादन में अटैचमेंट या बिक्री के दायित्व से छूट के लिए घोषित कोई भत्ता; तथा

p. जहां निर्णय-देनदार भू-राजस्व (लैंड रेवेन्यू) के भुगतान के लिए उत्तरदायी व्यक्ति है; कोई चल (मूवेबल) संपत्ति, जो उस पर लागू होने वाले किसी भी कानून के तहत, ऐसे राजस्व के बकाया की वसूली के लिए बिक्री से छूट प्राप्त है।

नोट: यह तय करते समय कि कोई व्यक्ति निर्धन है या नहीं, कोई भी संपत्ति जो निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति मांगने के लिए सक्षम अदालत में अपना आवेदन प्रस्तुत करने के बाद प्राप्त/ खरीदी/ बेची गई है, और यदि किसी संपत्ति का ऐसा आदान-प्रदान किया जाता है, और यह अदालत द्वारा आवेदन पर निर्णय लेने से पहले किया जाता है, तो ऐसे मामले में, इस प्रकार प्राप्त / खरीदी / बेची गई संपत्तियों को अनिवार्य रूप से ध्यान में रखा जाना आवश्यक है, यह तय करते समय कि आवेदक एक निर्धन व्यक्ति है या नहीं।

एक निर्धन के रूप में कानूनी प्रतिनिधि

लक्ष्मी बनाम विजया बैंक के मामले में, आर.वी. रेवन्ना ने आदेश 33 के नियम 1 और नियम 7 के तहत एक याचिका दायर की जिसमें उन्होंने खुद को एक निर्धन व्यक्ति होने का प्रतिनिधित्व किया था। प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता के एक निर्धन व्यक्ति होने पर दावा किया और उसकी निर्धनता पर सवाल उठाया। याचिकाकर्ता से जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन) होने से पहले ही, उसकी पत्नी और बच्चों को छोड़कर, उसकी मौत हो गई। इसके बाद याचिकाकर्ता की पत्नी द्वारा एक कानूनी प्रतिनिधि के रूप में मुकदमा दायर करने की अनुमति देने के लिए एक आवेदन दायर किया गया था। ट्रायल  न्यायालय ने देखा कि आवेदक की मृत्यु के मामले में, कानूनी प्रतिनिधियों को निर्धन व्यक्ति को प्रतिस्थापित करने की अनुमति नहीं दी जाएगी क्योंकि एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने का अधिकार एक व्यक्तिगत अधिकार है। हालांकि, उच्च न्यायालय ने कानूनी प्रतिनिधि द्वारा दायर आवेदन को स्वीकार कर लिया और उन्हें निर्धन व्यक्तियों के रूप में याचिका दायर करने की अनुमति दी।

एक निर्धन व्यक्ति के साधन की जांच

आदेश 33 के नियम 1A में कहा गया है कि अदालत के मुख्यमंत्री अधिकारी (चीफ मिनिस्टीरियल ऑफिसर) को जांच करने का अधिकार है। यह जानने के लिए प्रथम दृष्टया जांच की जाती है कि आवेदक निर्धन व्यक्ति है या नहीं। यह न्यायालय के विवेक पर है कि ऐसे अधिकारी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को स्वीकार किया जाए या उसकी जांच की जाए।

निर्धन व्यक्ति के रूप में वाद दायर करने की प्रक्रिया

एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर करने से पहले, आवेदन में सभी प्रासंगिक सामग्री जोड़ना महत्वपूर्ण है, जो एक निर्धन व्यक्ति होने की अनुमति मांगता है [नियम 2]। आदेश XXXIII के नियम 2 के अनुसार, आवेदन में वादपत्र (प्लेंट) में उल्लिखित विवरण के समान विवरण और निर्धन व्यक्ति/ आवेदक की सभी चल या अचल (इम्मूवेबल) संपत्तियां उसके अनुमानित मूल्य के साथ शामिल होनी चाहिए।

निर्धन व्यक्ति/ आवेदक स्वयं व्यक्तिगत रूप से न्यायालय के समक्ष आवेदन प्रस्तुत करेगा। किसी मामले में अगर ऐसे व्यक्ति को अदालत में पेश होने से छूट दी गई है, तो एक अधिकृत (ऑथराइज्ड) एजेंट उसकी ओर से आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। कुछ परिस्थितियों में जहां दो या दो से अधिक वादी हों, उनमें से कोई भी आवेदन प्रस्तुत कर सकता है [नियम 3]। जैसे ही एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने का आवेदन न्यायालय के समक्ष विधिवत प्रस्तुत किया जाता है, वाद शुरू हो जाता है। इसके बाद, निर्धन व्यक्ति/ आवेदक से न्यायालय द्वारा पूछताछ की जाती है। हालांकि, यदि आवेदक का प्रतिनिधित्व उसके एजेंट द्वारा किया जा रहा है, तो ऐसे मामले में, अदालत आयोग द्वारा आवेदक की जांच कर सकती है [नियम 4]।

आवेदन की अस्वीकृति

सीपीसी के आदेश XXXIII के नियम 5 के अनुसार, अदालत निम्नलिखित मामलों में एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति मांगने वाले आवेदन को प्रथम दृष्टया खारिज कर देगी:

  1. ऐसे मामले में जहां आवदेन निर्धारित तरीके में तैयार और प्रस्तुत नहीं किया जाता है। यहां, ‘निर्धारित तरीके’ शब्द का अर्थ है कि आवेदन को आदेश XXXIII के नियम 2 और नियम 3 का पालन करना चाहिए। नियम 2 और नियम 3 क्रमशः आवेदन की विषय-वस्तु और उसके प्रस्तुतीकरण से संबंधित हैं।
  2. यदि आवेदक निर्धन व्यक्ति नहीं है तो आवेदन न्यायालय द्वारा अस्वीकार किया जा सकता है।
  3. अदालत द्वारा आवेदन को तब खारिज किया जा सकता है जब आवेदक ने आवेदन की प्रस्तुति से दो महीने के भीतर धोखाधड़ी से किसी संपत्ति का निपटान किया हो। इसे तब भी खारिज किया जा सकता है जब आवेदक केवल एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने के लिए अदालत से अनुमति लेने के उद्देश्य से बेईमानी से आवेदन करता है।
  4. अदालत के पास एक ऐसे मामले में एक निर्धन व्यक्ति द्वारा दायर आवेदन को खारिज करने की शक्ति है, जहां कार्रवाई का कोई कारण नहीं है।
  5. ऐसे मामले में, जहां आवेदक ने किसी तीसरे पक्ष के साथ एक समझौता किया है और ऐसा समझौता मुकदमे की विषय वस्तु से संबंधित है जिसमें अन्य पक्ष (आवेदक के अलावा) ब्याज प्राप्त करता है, तो, यह अस्वीकृति के कारणों में से एक है। यह अदालत को धोखा देने के लिए आवेदक के इरादे को दर्शाता है।
  6. आवेदन की अस्वीकृति तब की जाती है जब आरोपों से संकेत मिलता है कि मुकदमा किसी भी कानून द्वारा वर्जित है।
  7. आवेदन की अस्वीकृति उन मामलों में की जाती है जहां कोई अन्य व्यक्ति आवेदक के साथ मुकदमे में आर्थिक रूप से मदद करने के लिए एक समझौता करता है।
  • माननीय उच्च न्यायालय ने एम एल सेठी बनाम आर पी कपूर के मामले में देखा कि दस्तावेजों की खोज से जुड़े आदेश 11 नियम 12 के प्रावधान नागरिक प्रक्रिया संहिता के आदेश XXXIII के तहत कार्यवाही पर लागू होंगे।
  • धनलक्ष्मी बनाम सरस्वती के मामले में, वादपत्र का मूल्यांकन कम पाया गया था। इसलिए, इसे उचित मूल्यांकन और अदालत शुल्क के साथ अदालत में पेश करने के लिए वापस कर दिया गया था। ऐसा करने के लिए एक महीने का समय दिया गया और वादी ने निर्धारित अवधि के भीतर वाद दायर किया था। इसके बाद, याचिका को उप-न्यायालय में एक और याचिका के साथ पेश किया गया जिसमें निर्धन व्यक्तियों के रूप में मुकदमा करने की अनुमति मांगी गई थी, जिस पर अदालत ने देखा कि याचिका आदेश XXXIII के नियम 1 के तहत दायर की गई थी, लेकिन कोई यह नहीं कह सकता कि आवेदन नियम 2 के तहत दायर किया गया था। क्योंकि आदेश XXXIII सीपीसी के नियम 5 के अनुसार निर्धन व्यक्तियों के रूप में मुकदमा दायर करने की अनुमति को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। सीपीसी के आदेश XXXIII नियम 5 और आदेश VII नियम 11 के बीच एक समानता खींची गई थी। जबकि आदेश VII नियम 11 का उपयोग वादपत्र को अस्वीकार करने में किया जाता है और आदेश XXXIII का नियम 5 निर्धन व्यक्तियों के रूप में मुकदमा करने की अनुमति के लिए दायर एक आवेदन की अस्वीकृति से संबंधित है।
  • आदेश 33 नियम 6 में प्रावधान है कि अदालत को विपक्षी और सरकारी वकील दोनों को नोटिस जारी करना आवश्यक है। जिसके बाद एक दिन तय किया जाता है, जिस पर साक्ष्य प्राप्त होते है। ऐसे दिन आवेदक अपने आवेदन के लिए प्रमाण प्रस्तुत करता है। विरोधी पक्ष या सरकारी वकील आवेदक की निर्धनता का विरोध करते हुए अपना साक्ष्य भी प्रस्तुत कर सकते हैं।
  • आदेश 33 नियम 7 में आवेदन की सुनवाई में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया का प्रावधान है। अदालत दोनों पक्षों द्वारा पेश किए गए गवाहों (यदि कोई हो) की जांच करेगी और अदालत द्वारा स्वीकार किए गए आवेदन या साक्ष्य (यदि कोई हो) पर दलीलें सुनेगी। इसके बाद, अदालत या तो आवेदन को अनुमति देगी या इसे खारिज कर देगी।
  • आदेश 33 का नियम 8 आवेदन के प्रवेश के बाद पालन की जाने वाली प्रक्रिया की व्याख्या करता है। भर्ती होने के बाद आवेदन को क्रमांकित और पंजीकृत किया जाना चाहिए। ऐसे आवेदन को वाद में वाद (प्लेंट इन सूट) माना जाएगा। इसके बाद, ऐसा वाद उसी तरीके से आगे बढ़ेगा जैसे सामान्य वाद होते है।
  • आदेश 33 नियम 9 में कहा गया है कि अदालत के पास वादी को एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की दी गई अनुमति को रद्द करने का विकल्प भी है। अदालत इस विवेकाधीन शक्ति का उपयोग प्रतिवादी या सरकारी वकील द्वारा निम्नलिखित परिस्थितियों में आवेदन प्राप्त करने पर कर सकती है:
  1. जहां आवेदक वाद के दौरान तंग करने वाले या अनुचित आचरण का दोषी है; या
  2. जहां आवेदक के साधन ऐसे हैं कि वह एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करना जारी नहीं रखेगा; या
  3. जहां आवेदक ने एक समझौता किया है जिसके तहत किसी अन्य व्यक्ति ने मुकदमे की विषय वस्तु में रुचि प्राप्त की है।
  • आर. जयराजा मेनन बनाम डॉ. राजकृष्णन और अन्य के मामले में केरल उच्च न्यायालय ने एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति वापस लेने के संबंध में एक आवेदन पर निर्णय लेते हुए कहा था कि आदेश 33 का नियम 9, एक ऐसी स्थिति प्रदान करता है जहां वादी, जिसे शुरू में एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति दी गई थी, मुकदमा दायर होने के बाद एक निर्धन व्यक्ति नहीं रह जाता है। यदि कोई वादी निर्धन व्यक्ति नहीं रह जाता है, तो न्यायालय उसे उस न्यायालय शुल्क का भुगतान करने के लिए बाध्य करेगा, जिसका उसने भुगतान किया होता यदि उसे एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति नहीं दी गई होती तो। यह स्पष्ट रूप से संहिता के नियम 9 के तहत आदेश का एक हिस्सा है, जिसमें वादी को अदालत शुल्क का भुगतान करने का निर्देश दिया गया है, जिसका अगर उसे शुरू से ही एक निर्धन व्यक्ति के रूप में दायर करने की अनुमति नहीं दी जाती, तो वह भुगतान करता है।
  • संहिता के नियम 9A में प्रावधान है कि अदालत निर्धन व्यक्ति को प्लीडर नियुक्त करके उसकी सहायता करेगी। एक प्लीडर वह व्यक्ति होता है जो अदालत में अन्य व्यक्तियों की ओर से पेश होने और पैरवी करने का हकदार होता है।

मुकदमे से जुड़ी लागत

सीपीसी के आदेश XXXII नियम 16 ​​में कहा गया है कि मुकदमे में एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने के लिए एक आवेदन की लागत के साथ-साथ निर्धनता की जांच की लागत भी शामिल होगी।

  1. जब एक निर्धन व्यक्ति सफल होता है: आदेश XXXIII के नियम 10 के अनुसार, जहां वादी (निर्धन व्यक्ति) मुकदमे में सफल होता है, अदालत अपने शुल्क और लागत की गणना करेगी और वादी से इस तरह से वसूल करेगी जैसे कि उसे एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति नहीं दी गई थी। यदि वादी (निर्धन व्यक्ति) राशि का भुगतान करने में विफल रहता है, तो ऐसे मामले में, राशि किसी भी ऐसे पक्ष द्वारा वसूली योग्य होगी जिसे डिक्री द्वारा आदेश दिया गया था।
  2. जहां एक निर्धन व्यक्ति विफल रहता है: नियम 11 और नियम 11-A आदेश XXXIII के अनुसार, जहां वादी (निर्धन व्यक्ति) विफल रहता है या नियम 9A के तहत निर्धन व्यक्ति को दी गई अनुमति वापस ले ली जाती है, या जहां मुकदमा वापस ले लिया जाता है या खारिज कर दिया जाता है, अदालत ऐसे मामले में या तो उसे (वादी) या सह-वादी को अदालत का शुल्क और लागत का भुगतान करने का आदेश देगी, जैसे कि उसे एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति नहीं दी गई थी। जहां वादी की मृत्यु के कारण वाद समाप्त हो जाता है, ऐसी अदालती फीस मृतक वादी की संपत्ति से वसूल की जाती है।
  3. यूनियन बैंक ऑफ इंडिया बनाम खादर इंटरनेशनल कंस्ट्रक्शन के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सीपीसी का आदेश 33 एक सक्षम प्रावधान है जो प्रारंभिक चरण में अदालत शुल्क का भुगतान किए बिना निर्धन व्यक्ति को मुकदमा दायर करने की अनुमति देता है। यदि वादी मुकदमे में सफल हो जाता है, तो अदालत अपनी शुल्क की राशि की गणना करती है जो वादी द्वारा भुगतान की गई होती यदि उसे एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति नहीं दी गई होती और वह राशि राज्य द्वारा आदेशित उसी का भुगतान करने के डिक्री द्वारा किसी भी पक्ष से वसूली योग्य होती है। हालांकि, यदि वाद खारिज कर दिया जाता है, तो राज्य वादी द्वारा देय न्यायालय शुल्क की वसूली के लिए भी कदम उठाएगा और यह अदालत शुल्क मुकदमे की विषय-वस्तु पर पहला शुल्क होगा।
  4. अतः न्यायालय शुल्क के आस्थगित (डेफर्ड) भुगतान का केवल एक प्रावधान है और इस परोपकारी प्रावधान का उद्देश्य उन गरीब वादियों की मदद करना है जो अपनी गरीबी के कारण मुकदमा दायर करने के लिए अपेक्षित अदालती शुल्क का भुगतान करने में असमर्थ होते हैं।
  5. आदेश XXXIII के नियम 12 के अनुसार, राज्य सरकार के पास नियम 10 के तहत भुगतान की जाने वाली अदालती शुल्क के भुगतान से संबंधित आदेश पारित करने के लिए अदालत में आवेदन करने का अधिकार है।
  6. नियम 13 उन मामलों से संबंधित है जहां राज्य सरकार को एक पक्ष माना जाएगा।
  7. नियम 14 में प्रावधान है कि अदालत कलेक्टर को आदेश या डिक्री अग्रेषित (फॉरवर्ड) करके, अदालत शुल्क वसूल करेगी, और शुल्क इस तरह से वसूल किया जायगा जैसे कि यह भू-राजस्व का बकाया हो।
  8. यदि एक निर्धन व्यक्ति के रूप में वाद करने के आवेदन को अस्वीकार कर दिया जाता है, तब भी उसके पास सामान्य तरीके से वाद दायर करने का अधिकार होगा। हालांकि, ऐसे व्यक्ति को उसी मामले के संबंध में समान प्रकृति का आवेदन दाखिल करने से मना किया जाएगा [नियम 15]।
  9. नियम 17 में प्रावधान है कि कोई भी प्रतिवादी (निर्धन व्यक्ति) जो सेट-ऑफ़ या प्रतिदावा (काउंटरक्लेम) दायर करना चाहता है, उसे ऐसा करने की अनुमति दी जाएगी।
  10. नियम 18 में कहा गया है कि संहिता के आदेश XXXIII के अलावा, राज्य या केंद्र सरकार निर्धन व्यक्तियों के संबंध में मुफ्त कानूनी सेवाओं के लिए अतिरिक्त प्रावधान बना सकती है।

निष्कर्ष

यह देखा गया है कि आदेश XXXIII, निराश्रित (डेस्टीट्यूट), गरीब और दलितों को, जो आदेश XXXIII द्वारा प्रदान किए गए एक निर्धन व्यक्ति के मानदंडों को पूरा करते हैं, उन्हें आवश्यक न्यायालय शुल्क का भुगतान करने से छूट देकर न्याय प्राप्त करने के लिए अनुमति देता है। आदेश XXXIII आगे ​​ऐसे गरीब लोगों को अपने नाम पर मुकदमा दायर करने के लिए भी अधिकृत करता है। अदालत को शुरुआत में ही आवेदन पर फैसला करते समय पर्याप्त साधन रखने वाले व्यक्तियों को ध्यान में रखना चाहिए और उन्हें निर्धन के रूप में मुकदमा करने के लिए सीधे खारिज कर देना चाहिए। निर्धन व्यक्तियों के रूप में मुकदमा दायर करने की अनुमति उन लोगों को सावधानी से दी जानी चाहिए जो वित्तीय बाधाओं का सामना करते हैं और जिनके पास बुनियादी संसाधनों की कमी है क्योंकि न्याय तक पहुंच कभी-कभी अन्याय के रूप में भी हो सकती है।

ऐसे प्रावधानों के साथ-साथ मुफ्त कानूनी सहायता सेवाओं की उपलब्धता के बारे में लोगों में जागरूकता की कमी है। इसलिए, प्रत्येक व्यक्ति को समाज के कमजोर वर्गों को मुफ्त कानूनी सहायता सेवाओं के बारे में जागरूक करने का प्रयास करना चाहिए। इसके अलावा, यह माना जाता है कि पीड़ित लोगों को अधिक नुकसान होगा क्योंकि मुफ्त कानूनी सहायता सेवाएं अधिवक्ताओं द्वारा गुणवत्ता सेवाओं से समझौता करेंगी। निःसंदेह, कुछ मामलों में ऐसा ही होता है जहां जिला विधिक सेवा प्राधिकारियों (डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विसेज अथॉरिटीज) द्वारा नियुक्त अधिवक्ता अनुत्तरदायी (अनरिस्पोंसिव) और उदासीन (डिसपैशनेट) होते हैं, लेकिन, संबंधित प्राधिकारी/ विभाग को शिकायत की रिपोर्ट करके इसका समाधान किया जा सकता है।

संदर्भ

 

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