हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट के बारे में सारे तथ्य

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Hindu Minority and Guardianship Act
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यह लेख Ashpreet Kaur द्वारा लिखा गया है जो की बी.बी.ए.एलएलबी कोर्स सिंबोयसिस लॉ स्कूल, नोएडा की छात्रा है। इस लेख में, लेखक हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट में विसंगतियों (डिस्क्रेपेंसीज) पर चर्चा करता है और यह हमारे समाज को कैसे प्रभावित कर रहा है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Kumari ने किया है।

परिचय और अर्थ

हिंदू धर्मशास्त्रों में संरक्षता (गार्डियनशिप) के बारे में बहुत कुछ नहीं कहा गया है। यह संयुक्त परिवारों (जॉइंट फैमिलीज) की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) के कारण था जहां माता-पिता के बिना एक बच्चे की देखभाल संयुक्त परिवार के मुखिया द्वारा की जाती है। इस प्रकार अभिभावक के संबंध में किसी विशिष्ट (स्पेसिफिक) कानून की आवश्यकता नहीं थी। आधुनिक (मॉडर्न) समय में अभिभावक की अवधारणा पितृ शक्ति (पेटरनल पावर) से संरक्षण (प्रोटेक्शन) के विचार में बदल गई है और हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशीप एक्ट (हिंदू अप्प्राप्तवयता और संरक्षता अधिनियम), 1956 बच्चे के कल्याण के साथ अप्राप्तवय (माइनर) और संरक्षकता से संबंधित कानूनों को संहिताबद्ध (कोडिफाइड) करता है।

हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट, 1956  के तहत एक व्यक्ति जो माइनर है यानी अठारह वर्ष से कम उम्र का है, वह खुद की देखभाल करने या अपने मामलों को संभालने में असमर्थ (इनकैपेबल) है और इस प्रकार उसे सहायता, समर्थन (सपोर्ट) और सुरक्षा की आवश्यकता होती है। फिर, ऐसी स्थिति में उसके शरीर और उसकी संपत्ति की देखभाल के लिए एक अभिभावक नियुक्त किया गया है।

हिंदू कानूनी परंपरा के प्रचलित परिदृश्य (सिनेरियो) को आधुनिक बनाने के लिए 1956 में हिंदू कोड बिल के एक हिस्से के रूप में, हिंदू विवाह अधिनियम (हिंदू मैरिज एक्ट), हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (हिंदू सक्सेशन एक्ट) और हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम (हिंदू अडॉप्शन एंड मेंटेनेंस एक्ट) के साथ हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट की स्थापना जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व (लीडरशिप) में की गई थी। हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट की स्थापना 1890 के संरक्षक और वार्ड अधिनियम (गार्डियन एंड वर्ड्स एक्ट) को सशक्त बनाने और पहले से ही प्रचलित अधिनियम के स्थान पर बच्चों को बेहतर अधिकार और सुरक्षा प्रदान करने के लिए की गई थी।

यह अधिनियम वयस्कों (एडल्ट्स) और माइनर्स के बीच अधिकारों, दायित्वों (ऑब्लिगेशन), संबंधों को परिभाषित करने के उद्देश्य से पास किया गया था। इस अधिनियम के तहत न केवल हिंदू बल्कि लिंगायत, वीरशैव, ब्रह्म अनुयायी (ब्राह्मो फॉलोअर्स), पार्थना समाज अनुयायी, आर्य समाज अनुयायी, बौद्ध, सिख और जैन भी शामिल हैं। दूसरे शब्दों में, मुस्लिम, ईसाई, पारसी और यहूदी (जेविश) इस अधिनियम के अंतर्गत नहीं आते हैं।

किसी व्यक्ति विशेष के माइनर को उस व्यक्ति की उम्र के अनुसार परिभाषित किया जाता है। कुटुंब प्रमुख होने की आयु धर्म और समय के अनुसार भिन्न होती है, उदाहरण के लिए, पुराने हिंदू कानून में 15 या 16 वर्ष की आयु बालिग (मेजॉरिटी) होने की आयु थी, लेकिन अब इसे बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया गया है, मुसलमानों के लिए, यौवन की आयु (एज ऑफ प्यूबर्टी) को बालिग होने की उम्र माना जाता है ।

वैध (लेजिटीमेट) और नाजायज (इलेजिटिमेट) माइनर दोनों, जिनके माता या पिता में से कोई एक हैं जो ऊपर उल्लिखित शर्तों को पूरा करते हैं, इस अधिनियम के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) में आते हैं। व्यक्तिगत कानूनों के बावजूद व्यक्तिगत समुदायों (कम्यूनिटी) द्वारा पालन किए जाने वाले एक सामान्य अधिनियम को इंडियन मेजॉरिटी एक्ट, 1875 के रूप में जाना जाता है और यह सभी समुदायों पर लागू होता है।

इस अधिनियम के तहत वयस्क होने की आयु 18 वर्ष है लेकिन यदि कोई व्यक्ति संरक्षक की देखरेख में है तो वयस्क होने की आयु 21 वर्ष तक बढ़ जाती है। अभिभावक और वार्ड अधिनियम, 1890 हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट के विपरीत सभी पर उनकी जाति, पंथ या समुदाय के बावजूद लागू होता है, जो केवल हिंदुओं और धर्म पर लागू होता है जिन्हें केवल हिंदू माना जाता है।

न्यायशास्र पहलू और विकास (जुरिस्प्रुडेंशियल एस्पेक्ट एंड इवोल्यूशन)

बता दें कि हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट 1956 को हिंदुओं के बीच अप्राप्तवय (माइनॉरिटी) और संरक्षकता (गार्डियनशिप) से संबंधित कानून के कुछ हिस्सों के संशोधन (अमेंडमेंट) और संहिताकरण (कोडिफिकेशन) के माध्यम से क़ानून की किताब पर अंकित किया गया है। यह उल्लेख करना भी अनुचित नहीं है कि हिंदू कानून न्यायशास्त्र की सबसे पुरानी ज्ञात प्रणाली (सिस्टम्स) में से एक होने के कारण पतन (डिक्रेपिट्यूड) का कोई संकेत नहीं दिखा है और आज भी इसके मूल्य और महत्व हैं।

लेकिन, कानून निर्माताओं ने समाज में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए कानून की प्रचलित अवधारणा (कॉन्सेप्ट) को एक उपयोगी अर्थ और वैधानिक मंजूरी देने के लिए कानून के कुछ हिस्सों को संहिताबद्ध करने को समझदारी का काम समझा। यह इस परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) पर है, हालांकि कानून के कुछ पहलुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि यह संहिताकरण से पहले था।

संयोग से, हिंदुओं के बीच माइनॉरिटी और गार्डियनशिप से संबंधित कानून न केवल पुराने हिंदू कानून में पाया जाता है, जैसा कि स्मृतियों, श्रुति और टिप्पणियों (कमेंट्रीज) द्वारा निर्धारित किया गया है, जैसा कि कानून की अदालतों द्वारा मान्यता प्राप्त है, बल्कि हिंदुओं के बीच लागू होने वाली दूसरी कानूनों में भी पाया जाता है जैसे की संरक्षक और वार्ड अधिनियम 1890 और इंडियन मेजॉरिटी एक्ट 1875।

यह आगे ध्यान दिया जाना चाहिए कि 1956 का अधिनियम किसी भी तरह से इस विषय में पहले की कानूनों के विपरीत नहीं है, लेकिन वे एक दूसरे के पूरक (सप्लीमेंट्स) हैं जैसा कि 1956 के अधिनियम की धारा 2 में ही परिलक्षित (रिफ्लेक्ट) होता है जो यह प्रदान करता है कि जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, अधिनियम पहले के अधिनियमों के अतिरिक्त होगा और उनका अपमान नहीं करेगा।

हालांकि, आगे बढ़ने से पहले, अधिनियम के प्रावधानों पर इसके वास्तविक परिप्रेक्ष्य में, यह नोट करना सुविधाजनक है कि हाल ही में, इंग्लैंड में प्रशासित समानता के नियम का पालन करने वाले भारतीय न्यायालयों ने नाबालिग बच्चों की पितृ अधिकार (पैटरनल पॉवर) के अनम्य (इनफ्लेक्सिबल) आवेदन को प्रभावी करने से इनकार कर दिया है। इक्विटी में, पिता या संरक्षक के हिरासत के कानूनी अधिकारों को नियंत्रित करने के लिए एक विवेकाधीन शक्ति (डिस्क्रेशनरी पॉवर) का प्रयोग किया गया है, जहां इस तरह के अधिकार का प्रयोग प्रकृति में सनकी (कैप्रीशियस) या सनक (व्हिम्सिकल) नहीं कहा जा सकता है या यह नहीं खा जा सकता की यह बच्चे की खुशी और कल्याण में भौतिक रूप से हस्तक्षेप करेगा। 

इसलिए कानूनी रूप से इस्तेमाल किए गए शब्दों के शाब्दिक अर्थ के साथ-साथ उसकी नियत (इंटेंशन) देखने पर ये यह दर्शाता है कि माता के प्राकृतिक अभिभावक (नेचुरल गार्डियन) के रूप में कार्य करने का अधिकार पिता के जीवनकाल के दौरान निलंबित (सस्पेंड) रहता है और यह केवल पिता की मृत्यु की स्थिति में है। माँ को एक हिंदू नाबालिग के प्राकृतिक अभिभावक के रूप में कार्य करने का ऐसा अधिकार प्राप्त है। यह व्याख्या है जिसे लैंगिक पूर्वाग्रह (जेंडर बायस्ड) होने के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है और इस प्रकार संवैधानिक प्रावधान का विरोध किया गया है।

यह तर्क दिया गया है कि वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन) वैवाहिक स्थिति पर आधारित है जो पिता के जीवनकाल के दौरान एक बच्चे की संरक्षकता से मां को  वंचित करता है, जिसे संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत निषिद्ध (प्रोहिबीटेड) मार्कर भी नहीं कहा जा सकता है। 1956 के अधिनियम का पूरा कार्यकाल बच्चे के कल्याण की रक्षा करना है और इस तरह की व्याख्या क़ानून की किताब पर क़ानून को लागू करने के विधायी इरादे के अनुरूप होनी चाहिए, न कि समान और बाद में यह शब्द धारा 6A में आने के बाद इसके परिपेक्ष के अनुसार में परिभाषित करनी पड़ेगी।

अब यह तय हो गया है कि संवैधानिक जनादेश (कांस्टीट्यूशनल मैंडेट) के विपरीत चलने वाली एक संकीर्ण पांडित्यपूर्ण (नैरो पेडेंटिक) व्याख्या से हमेशा बचना चाहिए, जब तक कि निश्चित रूप से, यह विधायी इरादे से हिंसक प्रस्थान नहीं करता है और जिसके प्रासंगिक तथ्य के संदर्भ में व्यापक बहस हो सकती है। 

विधि आयोग की रिपोर्ट (लॉ कमिशन रिपोर्ट)

तदनुसार, विधि आयोग की यह रिपोर्ट हिरासत और संरक्षकता से संबंधित मौजूदा कानूनों की समीक्षा (रिव्यू) (करती है और संरक्षक और वार्ड अधिनियम, 1890 और हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट, 1956 में विधायी संशोधन (लेजिस्लेटिव अमेंडमेंड)  की सिफारिश करती है। इन कानूनों को आधुनिक सामाजिक विचारों के अनुरूप लाने के लिए ये संशोधन आवश्यक हैं। 

अभिरक्षा (कस्टडी) और मुलाक़ात (विजिटेशन) की व्यवस्था पर एक नया अध्याय पेश करके, संरक्षक और वार्ड अधिनियम, 1890 में प्रमुख संशोधनों की सिफारिश की जाती है। आयोग का मानना ​​​​है कि संरक्षक और वार्ड अधिनियम, 1890, एक धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) कानून होने के नाते, सभी व्यक्तिगत कानूनों के अलावा, सभी हिरासत कार्यवाही के लिए प्रासंगिक (रिलेवेंट) होगा, जो लागू हो सकते हैं।

नया अध्याय उद्देश्यों के एक सेट के साथ खुलता है, यह स्पष्ट करने के लिए कि ऐसे सभी मामलों में बच्चे का कल्याण प्राथमिक मार्गदर्शक कारक (प्राइमरी गाइडिंग फैक्टर) है। भारत में पहली बार, संशोधनों में संयुक्त अभिरक्षा (ज्वाइंट कस्टडी) और बाल कल्याण से संबंधित कई अवधारणाएँ  (कॉन्सेप्ट) भी शामिल हैं, जैसे कि बाल सहायता, मध्यस्थता प्रक्रिया (मीडियेशन प्रोसेस), पालन-पोषण योजनाएँ और भव्य-पालन समय शामिल है।

आयोग ने हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट  में निम्नलिखित संशोधनों का सुझाव दिया है-

यह अधिनियम की धारा 6 (A) का विश्लेषण (एनालिसिस) करता है, जो माइनर के व्यक्ति और संपत्ति के संबंध में एक हिंदू माइनर के प्राकृतिक संरक्षको को सूचीबद्ध करता है। लड़के या अविवाहित लड़की के मामले में, यह धारा स्पष्ट रूप से कहती है कि एक हिंदू माइनर का प्राकृतिक संरक्षक पिता होता है और उसके बाद मां। आयोग ने नोट किया कि गीता हरिहरन बनाम भारतीय रिजर्व बैंक में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी, माता पिता के जीवनकाल में केवल असाधारण परिस्थितियों में ही एक प्राकृतिक संरक्षक बन सकती है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि “संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता के सिद्धांतों  (प्रिंसिपल्स ऑफ इक्वालिटी) को पूरा करने के लिए” इसे बदलने की आवश्यकता है। तदनुसार, विधि आयोग ने सिफारिश की कि एक माता-पिता की दूसरे पर इस श्रेष्ठता को हटा दिया जाना चाहिए और माता और पिता दोनों को एक साथ, एक माइनर के प्राकृतिक संरक्षक के रूप में माना जाना चाहिए। माइनर का कल्याण हर परिस्थिति में सर्वोपरि (सुप्रीम) होना चाहिए।

इसने धारा 7 में भी बदलाव की सिफारिश की है। इस धारा में प्रावधान है कि दत्तक पुत्र (एडोप्टेड सन) की प्राकृतिक संरक्षकता, जो कि माइनर है, दत्तक ग्रहण करने पर दत्तक पिता को और उसके बाद दत्तक माता को दी जाती है। इस खंड (क्लॉज) की भाषा इस मायने में असंगत है कि यह केवल एक दत्तक पुत्र की प्राकृतिक संरक्षकता को संदर्भित (रेफर) करता है, और एक दत्तक पुत्री को संदर्भित नहीं करता है।

हिंदू माइनॉरिटी गार्डियनशिप एक्ट, 1956 ऐसे समय में लागू हुआ जब अदालतों द्वारा प्रशासित सामान्य हिंदू कानून बेटी को गोद लेने को मान्यता नहीं देता था। इस प्रकार, अधिनियम के पास होने के समय, बेटियों को गोद लेने की अनुमति केवल प्रथा के तहत दी गई थी, न कि संहिताबद्ध कानून के तहत। इसे हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 से पहले भी अधिनियमित किया गया था, जिसने वैधानिक रूप से बेटी को गोद लेने की कानूनी स्थिति को सही किया।

इसलिए यह अनुशंसा (रिकमैंड्स) करता है कि अब अधिनियम में एक दत्तक पुत्र और एक दत्तक पुत्री दोनों को प्राकृतिक संरक्षकता के दायरे में शामिल किया जाना चाहिए। इसके अलावा, आयोग ने सिफारिश की कि एक दत्तक बच्चे के प्राकृतिक संरक्षक को ऊपर प्रदान की गई धारा 6 (A) की सिफारिशों के अनुसार, दत्तक माता-पिता दोनों को शामिल करना चाहिए।

हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम का आलोचनात्मक विश्लेषण

हिंदू मिनोरिटू एंड गार्डियनशिप एक्ट की धारा 7 के अनुसार, दत्तक पुत्र की प्राकृतिक संरक्षकता, जो एक नाबालिग है, गोद लेने पर, दत्तक पिता और उसके बाद दत्तक माता को पास हो जाती है। यह पारंपरिक धारणा के कारण केवल बेटे के लिए गोद लेने के मामले में प्राकृतिक संरक्षकता प्रदान करता है कि गोद लेने का मतलब उन जोड़ों के लिए है जिनके पास बेटा नहीं है। हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट इस मुद्दे पर फिलहाल खामोश है। समय के साथ-साथ समाज ने लिंग और लिंग अनुपात के रूप में महिलाओं के सशक्तिकरण (एंपावरमेंट) के लिए कई कानूनी उपाय किए हैं, लेकिन बेटी पर बेटे की गहरी जड़ें होने के कारण इस कानूनी कमी को ठीक नहीं किया गया है।

परस्पर विरोधी कानून (कॉन्फ्लिक्ट लॉ)

भारत के विधि आयोग ने अपनी 2015 की रिपोर्ट में समाज में प्रचलित लिंग विसंगतियों (जेंडर एनोमालाइज)  पर प्रकाश डाला है जिन् कारणों ने लिंग अनुपात और भेदभाव को प्रभावित किया है और यह भी बताया कि समाज मे महिला सशक्तिकरण (एंपावरमेंट) की आवश्यकता क्यों है। हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट लागू होने के कुछ समय बाद, 1956 का हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम भी अधिनियमित किया गया, जिसने बेटियों को गोद लेने को मान्यता दी थी। राय और नीति का यह अंतर इसलिए हुआ क्योंकि हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट 1956 का अधिनियम संख्या 32 था और हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम 1956 का अधिनियम संख्या 78 था, ऐसा प्रतीत होता है कि नेहरू सरकार की लिंग चेतना (जेंडर कॉन्शियसनेस) कुछ महीने की अवधि में बहुत विकसित हुई थी। 

विधि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट संसद द्वारा पारित किया गया था जब हिंदू कानून और हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम के तहत बेटियों को गोद लेने को मान्यता नहीं दी गई थी, फिर भी बेटियों की स्थिति में वैधानिक रूप से सुधार किया गया था, लेकिन इन दोनों कानूनों के बीच संघर्ष बना रहा। इस संघर्ष को हल करने के लिए, भारत के विधि आयोग ने हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट  की धारा 7 में संशोधन करने की सिफारिश की।

पिता का पहला अधिकार

आयोग ने हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट ,की धारा 6 के एक और पुराने प्रावधान पर सिफारिश की है, यह धारा एक बच्चे और उसकी संपत्ति की प्राकृतिक संरक्षकता से संबंधित है। इस धारा के अनुसार, पहला प्राकृतिक संरक्षक पिता होता है और उसके बाद माता बच्चे की प्राकृतिक संरक्षक होती है। इसका मतलब यह है कि जब तक पिता जीवित है तब तक मां प्राकृतिक संरक्षक की स्थिति का दावा नहीं कर सकती है।

हमारा पितृसत्तात्मक समाज इतना प्रचलित है कि हमारे कानून इसके संकेत को दर्शाते हैं। विधि आयोग ने पाया कि प्राकृतिक संरक्षकता का मुद्दा इतना छोटा नहीं है कि इसे नज़रअंदाज़ किया जाए और पितृसत्ता का प्रभाव इतना प्रबल है कि यह एक माँ के अधिकारों का दमन (सप्रेसिंग) कर रहा है।

विधि आयोग धारा 6 को केवल तभी देख सकता है जब वह 1989 में “माइनर बच्चों की संरक्षकता और अभिरक्षा से संबंधित मामलों में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव” को दूर करने के स्पष्ट इरादे से इस विषय पर वापस आया। उद्देश्य का अनुपालन करते हुए विधि आयोग ने धारा 6 में संशोधन की सिफारिश की ताकि माता और पिता को एक प्राकृतिक संरक्षक होने के समान अधिकार मिल सकें और संयुक्त रूप से और अलग-अलग संरक्षकता का आनंद ले सकें।

यह मामला वर्ष 1999 में तब प्रकाश में आया जब गीता हरिहरन द्वारा दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने इस शर्त की वैधता को चुनौती देने के लिए फैसला सुनाया कि उसके बाद केवल पिता ही पहले प्राकृतिक संरक्षक हो सकते हैं और उसके बाद मां को संरक्षक माना जाता है। भले ही इसने धारा 6 के किसी भाग में संशोधन नहीं किया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की कि इसकी गंभीरता को कम किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 6 में ‘आफ्टर’ शब्द की व्याख्या की जिसका मूल अर्थ था “पिता की मृत्यु के बाद” लेकिन अब यह “पिता की अनुपस्थिति में” है। इसमें अनुपस्थिति का अर्थ है कि पिता लंबे समय से दूर था या बच्चे के प्रति लापरवाह था या बीमारी के कारण अयोग्य था।

इसलिए, सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था जहां प्राकृतिक संरक्षकता के मामले में पिता को हमेशा प्राथमिकता दी जाती है लेकिन असाधारण परिस्थितियों में मां को प्राकृतिक संरक्षक माना जाता है। यह गीता हरिहरन प्रसिद्ध लेखिका के मामले में देखा गया था जब वह अपने बेटे के लिए कुछ पैसे निवेश करना चाहती थी, लेकिन शर्तों के लिए उसे पिता के विवरण का उल्लेख करना आवश्यक था, लेकिन वह अलग थी और अपने बेटे की एकमात्र संरक्षक थी। यहां समानता के सिद्धांत को चुनौती दी गई और 2010 में संसद द्वारा संरक्षकता के इस अनसुलझे मुद्दे को कुछ हद तक कम कर दिया गया।

जब संसद ने संरक्षक और वार्ड अधिनियम, 1890 की धारा 19 में संशोधन किया। इस धारा ने अदालत को एक अप्राप्तवय के लिए संरक्षक नियुक्त करने से रोक दिया था, जिसके पिता जीवित थे और वह जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार नहीं थे। 2010 का संशोधन इस धारा को उन मामलों पर लागू करता है जहां मां भी जीवित है, इस प्रकार जीडब्ल्यूए के तहत पिता की तरजीही (प्रेफरेंशियल) स्थिति को हटा दिया जाता है जो सभी समुदायों पर लागू होता है।

अभिरक्षा को साझा करना (शेयरिंग कस्टडी)

भारत के विधि आयोग ने वर्ष 2015 की अपनी रिपोर्ट में कहा है कि हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट की धारा 6 में संशोधन किया जाना चाहिए, जिसमें कहा गया है कि यदि एक कानून ने ऐसी विसंगति (एनोमली) को दूर किया है तो दूसरे को भी इसे लागू करने के लिए स्वीकार करना चाहिए। इस रिपोर्ट में एक बच्चे की कस्टडी और उस हिरासत में माता और पिता की स्थिति से संबंधित मुद्दों पर भी प्रकाश डाला गया है और प्रस्ताव किया है कि संरक्षक के संबंध में पिता और माता को समान अधिकार देने के लिए आयोग ने बच्चे की अभिरक्षा को साझा करने  का सुझाव दिया है।

संयुक्त हिरासत की अवधारणा को आसान बनाने के लिए आयोग ने इसके लिए कुछ दिशानिर्देश (गाइडलाइंस) भी निर्धारित किए थे ताकि नाबालिगों के कल्याण से समझौता न हो। इसी सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए संरक्षकता, अभिरक्षा और गोद लेने से संबंधित हमारे कानूनों को अद्यतन किया जाना चाहिए।

अविवाहित माताओं की एकमात्र संरक्षकता की स्थिति

पितृसत्तात्मक समाज (पैट्रियार्कल सोसाइटी) की एक झलक हमारे हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट से देखी जा सकती है जहां संपत्ति और व्यक्ति दोनों के लिए बच्चे का पहला प्राकृतिक संरक्षक पिता होता है और दूसरा मां होती है। लेकिन जैसे-जैसे समाज का आधुनिकीकरण (मॉडर्नाइजेशन) हो रहा है, वैसे-वैसे इसके कानूनों को बदलना होगा ताकि लोग बदल सकें और विकसित हो सकें, शीर्ष अदालत ने इस प्रस्ताव को बहुत अच्छी तरह से समझा था। नतीजतन, हाल के फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने एक अविवाहित मां को नाबालिग बच्चों की एकमात्र संरक्षकता के लिए आवेदन करने की अनुमति दी।

सुश्री (मिस) गीता हरिहरन और एनआर बनाम भारतीय रिजर्व बैंक और एनआर (एआईआर 1999, 2 एससीसी 228) के मामले में, एक शिक्षित और नियोजित मां अपने निवेश के लिए अपने पांच साल के बच्चे को नामांकित करना चाहती है, लेकिन उसे कागजी कार्रवाई के लिए कहा गया की उसे या तो पिता का नाम या संरक्षकता प्रमाण पत्र प्रदान करना आवश्यक है। जिला अदालत ने उसके दावे को खारिज कर दिया क्योंकि अभिभावक और वार्ड अधिनियम, 1890 की धारा 11 के तहत उसे उस बच्चे के पिता की जानकारी का खुलासा करने की जरूरत है जो वह करने को तैयार नहीं थी।

जब यह मामला हाई कोर्ट में स्थानांतरित (ट्रांसफर) किया गया, तो उन्होंने इस फैसले को बरकरार रखने का तर्क दिया कि भले ही मां अविवाहित हो, उस बच्चे के पिता को बच्चे में रुचि हो सकती है। लेकिन जस्टिस विक्रमजीत सेन की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने दो बुनियादी नियम तय करके इस फैसले को पलट दिया; बच्चे के पहले हित सर्वोच्च हैं और उसके अनुसरण में एक मां को संरक्षक माना जा सकता है; दूसरा निजता (प्राइवेसी) के आधार पर महिला को पिता की पहचान छिपाने का मौलिक अधिकार है।

इस मामले के फैसले ने कम से कम उन महिलाओं को आशा की किरण दी थी, जिन्होंने संरक्षक के समान अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी है, जो उनके दैनिक जीवन को स्कूल में प्रवेश और बैंक खाता खोलने के फॉर्म से लेकर निवेश के कागजात तक आसान बना देगा, आधिकारिक दस्तावेज इस पर जोर देते हैं पिता का नाम लिखना अनिवार्य है। गीता हरिहरन मामला जहां उसने सुप्रीम कोर्ट  में अपील की, जब वह अपने बेटे के लिए उसके संरक्षक के रूप में निवेश करने में सक्षम नहीं थी, इस तथ्य के कारण कि इसमें पिता की जानकारी का उल्लेख करने की आवश्यकता होती है। इस मामले में दंपति अलग हो गए थे और मां ही बच्चे की संरक्षक थी।

कानून की अदालत ने माना कि संरक्षक के उद्देश्य के लिए माता-पिता दोनों के साथ समान व्यवहार किया जाएगा और  हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट में शब्द ‘बाद’ को मां की स्थिति को गौण (रेंडर) नहीं बनाना चाहिए। लेकिन कई निजी और सार्वजनिक संस्थानों को अभी भी पिता की जानकारी की आवश्यकता होती है।

इस नए फैसले से समाज को दो तरह से लाभ हुआ था, पहला विवाह से पैदा हुए बच्चे के अधिकारों की सुरक्षा और दूसरा विशेष रूप से यौनकर्मियों (प्रॉस्टिट्यूट) के बच्चों के लिए एकल मां को कानूनी दर्जा प्रदान करना। यह निर्णय कम से कम कुछ अच्छा करेगा और अविवाहित माताओं या नाजायज बच्चे के अधिकारों की रक्षा करेगा जिसका उल्लेख गार्डियनशिप एक्ट ने किया था लेकिन समाज ने अभी भी स्वीकार नहीं किया था।

फैसले के निहितार्थ-

  • इसके बाद बच्चे की सत्तारूढ़ (लीगल) मां को संरक्षकता के मामले में समान अधिकार प्राप्त हुए।
  • ‘बाद’ शब्द की व्याख्या ‘पति की मृत्यु के बाद’ से ‘पति की अनुपस्थिति में’ में बदल दी गई है, इसलिए अब मां की माध्यमिक स्थिति को बराबर कर दिया गया है।
  • यह निर्णय कुछ हद तक विवाह या व्यावसायिक यौनकर्मियों की संतानों से पैदा हुए बच्चे के लिए फायदेमंद होगा।
  • यह ऐतिहासिक निर्णय भारत में एकल, स्वतंत्र महिलाओं द्वारा गोद लेने को भी प्रोत्साहित करेगा

निष्कर्ष

भारत एक ऐसा देश है जहां लोग मानते हैं कि बच्चे भगवान के आदर्श हैं। लेकिन हर विचारधारा, हर मान्यता और हर परंपरा के दो पहलू होते हैं एक अच्छा और दूसरा बुरा। जबकि सामान पक्ष में, भारत में उठाए गए बच्चे को लाड़ प्यार किया जा रहा है, देखभाल की जा रही है और बढ़ने के लिए स्वस्थ वातावरण प्रदान किया जा रहा है।

इसके विपरीत, बुरी बात यह है कि भारत में हर साल 60,000 से अधिक बच्चे ऐसे हैं जिन्हें छोड़ दिया जाता है। ज्यादातर मामलों में, इन बच्चों को जबरन श्रम, मानव तस्करी या वेश्यावृत्ति के दुष्चक्र में धकेल दिया जाता है। इन बच्चों के जीवन को बचाने और उन्हें हुए नुकसान को कम करने के लिए, एक बच्चे को गोद लेने के माध्यम से दूसरा जीवन दिया जाता है। अपने सरलतम अर्थों में, दत्तक ग्रहण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे के लिए पालन-पोषण ग्रहण करता है और ऐसा करने पर, जैविक माता-पिता या माता-पिता से सभी अधिकारों और जिम्मेदारियों को स्थायी रूप से स्थानांतरित कर देता है। इसलिए, बच्चों के जीवन को बचाने या अपने स्वयं के बच्चे की संरक्षकता के मुद्दे से निपटने के लिए स्वतंत्र रूप से गोद लेने को बढ़ावा देने के लिए हमारे प्रचलित कानून में कुछ सुधार और संशोधन की आवश्यकता है।

अब लिंग भेदभाव और लिंग अंतर पर एक नज़र डालें, भारत में प्राकृतिक जन्म के बच्चे और गोद लिए गए बच्चे के इलाज की अवधारणा का पालन हिंदू कानून द्वारा किया जाता है। परिवार का पारंपरिक, आध्यात्मिक और भौतिक होने का कारण पुत्र के कारण ही कायम रह सकता है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके जीवन के अंतिम समय में जब वे मरने वाले होते है तब माता-पिता की ‘मोक्ष प्राप्ति’ के लिए एक संतान पैदा करना जरूरी माना जाता है।

इतना ही नहीं, ऊपर बताए गए कानूनों में पितृसत्ता का संकेत देखा जा सकता है जहां पिता पहले प्राकृतिक संरक्षक होते हैं और पिता की अनुपस्थिति में मां को पहले संरक्षक माना जाता है। लेकिन आजकल जब महिलाओं को सशक्त बनाया जा रहा है और समाज तेजी से विकसित हो रहा है, तो बदलते परिवेश (एनवायरनमेंट) से निपटने के लिए इन सदियों पुराने कानूनों में संशोधन की आवश्यकता है अन्यथा भविष्य में अपने ही बच्चे की संरक्षकता के मामले हमारी अदालतों में उठाए जाएंगे।

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