मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट के तहत अबॉर्शन

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Medical Termination of Pregnancy Act
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यह लेख Kashish Khurana ने लिखा है, जो स्कूल ऑफ लॉ, जागरण लेकसिटी यूनिवर्सिटी, भोपाल (म.प्र.) से बी.ए.एलएल.बी (ऑनर्स) कर रही हैं। इस लेख में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट के तहत अबॉर्शन पर चर्चा की गई है और इससे संबंधित कुछ मामलो को भी बताया गया है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

सार (एब्स्ट्रैक्ट)

इस लेख का उद्देश्य देश में अबॉर्शन से होने वाली मौतों की दर में वृद्धि के बारे में जागरूकता फैलाना है।  हमारे देश का संविधान हमारे देश के प्रत्येक नागरिक को कुछ मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट्स) प्रदान करता है। भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के तहत ‘जीवन का अधिकार’ भी प्रत्येक व्यक्ति को प्रदान किया गया एक मौलिक अधिकार है। इस आर्टिकल का दायरा बहुत विशाल है और न्यायपालिका द्वारा विभिन्न पहलुओं में इसकी व्याख्या (इंटरप्रेट) की गई है। अबॉर्शन का अधिकार भी मौलिक अधिकारों में से एक है जिसे इस आर्टिकल के तहत शामिल किया गया है।

भारत एक लोकतांत्रिक (डेमोक्रेटिक) देश होने के नाते प्रत्येक को वो अधिकार और विकल्प प्रदान करता है जो लोग चाहते हैं। अबॉर्शन का अधिकार न केवल मौलिक अधिकार है बल्कि मानव अधिकार भी है। हर उम्मीद करने वाली महिला को अपनी पसंद और निर्णय लेने का अधिकार है। अबॉर्शन का अधिकार एक ऐसा अधिकार और विकल्प है जो महिला को प्रदान किया जाता है।

यह शोध (रिसर्च) पत्र मुख्य रूप से उन मुद्दों पर प्रकाश डालता है जिनका सामना महिलाओं को गर्भावस्था (प्रेगनेंसी) को समाप्त करने में करना पड़ता है। महिला को असुरक्षित अबॉर्शन से बचाने के लिए विधायिका (लेजिस्लेचर) ने कानून बनाया है। इस क़ानून को मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 के नाम में जाना जाता है। इसमें कुछ शर्तें हैं जिनके आधार पर गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति है। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां महिलाओं को कानून के बावजूद उनकी गर्भावस्था को समाप्त करने से इनकार किया जाता है। न्यायपालिका ने केंद्र सरकार को महिला के लिए बेहतर जीवन प्रदान करने के लिए वर्तमान अबॉर्शन कानूनों में अमेंडमेंट करने का भी सुझाव दिया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

“कोई भी महिला खुद को तब तक स्वतंत्र नहीं कह सकती जब तक वह अपने शरीर पर स्वामित्व (ओन) और नियंत्रण नहीं रखती है”                                                                                                                                                                                                                                        -मार्गरेट सेंगर

शब्द “अबॉर्ट” एक लैटिन शब्द “अबॉर्टियो” से लिया गया था जिसका अर्थ “मिस कैरी” है। आपराधिक कानून के तहत अबॉर्शन शब्द का अर्थ गर्भावस्था की समाप्ति या अपरिपक्व भ्रूण (इमैच्योर फिटस) का पूर्ण विकास होने से पहले उसका निष्कासन (एक्सपल्शन) करना है।

अबॉर्शन की प्रथा को दुनिया के विभिन्न देशों द्वारा व्यापक (वाइड) रूप से स्वीकार किया जाता है। इस अवधारणा (कंसेप्ट) को पहले भारत में स्वीकार नहीं किया गया था क्योंकि वेदों, उपनिषदों और स्मृति साहित्य (लिटरेचर) में इसकी निंदा (कंडेम्ड) की गई थी। चूंकि इन्हें हमारे कानूनों का स्रोत (सोर्स) माना जाता है, इसलिए अबॉर्शन को समाज में एक अवैध प्रथा माना जाता था। देश की विधायिका ने महसूस किया कि अबॉर्शन एक मानव अधिकार है और इसे अवैध बनाने का मतलब अवांछित (अनवांटेड) गर्भवस्था वाली महिलाओं के स्वास्थ्य से समझौता करना है। इसलिए, मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी बिल को संसद के दोनों सदनों द्वारा पास किया गया था और 10 अगस्त, 1971 को भारत के राष्ट्रपति द्वारा सहमति दी गई थी। इस क़ानून को “द एमटीपी एक्ट, 1971” के नाम से जाना जाता है। इस कानून के साथ, अवांछित गर्भवस्था की समाप्ति को वैध कर दिया गया था लेकिन सभी प्रकार के गर्भवस्था के साथ ऐसा नहीं था। एक्ट के अनुसार, महिला, इस उद्देश्य के लिए सरकार द्वारा विनियमित (रेगुलेटेड) या अनुमोदित (अप्रूव्ड) अस्पतालों में पंजीकृत (रजिस्टर्ड) चिकित्सक प्रैक्टिशनर द्वारा ही गर्भावस्था को समाप्त करवा सकती है। एमटीपी एक्ट, 1971 की धारा 3 ने कुछ परिस्थितियों को निर्धारित (प्रेस्क्राइब) किया है जिसके तहत ऐसी अवांछित गर्भावस्था को समाप्त किया जा सकता है।  वे हैं:

  1. जब महिलाओं की जान को खतरा हो या महिलाओं के स्वास्थ्य पर किसी प्रकार का खतरा हो।
  2. जब गर्भावस्था बलात्कार आदि जैसे अपराध से उत्पन्न हुई हो।
  3. जब यह जोखिम हो कि जन्म लेने वाला बच्चा किसी भी प्रकार की शारीरिक या मानसिक विकृति (मालफोर्मेशन) से पीड़ित होगा।

यह उल्लेख (मेंशन) करना भी उचित है कि गर्भवती माँ की सहमति के बिना गर्भावस्था को समाप्त नहीं किया जा सकता है, सिवाय उस स्थिति के जब गर्भवती माँ ने 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की हो या वह पागल हो। ऐसी स्थिति में अभिभावक (गार्जियन) की सहमति जरूरी है।

भारतीय संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार के रूप में अबॉर्शन

भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के तहत सभी को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार है। यह आर्टिकल अपने संदर्भ (कॉन्टेक्स्ट) में बहुत व्यापक है और विभिन्न न्यायविदों (ज्यूरिस्ट्स) और न्यायाधीशों द्वारा विभिन्न पहलुओं में इसकी व्याख्या की गई है। ये फैसले यू.एस. सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले रो बनाम वेड्स से प्रभावित हैं। कोर्ट ने कहा कि राज्य पहली तिमाही (ट्राइमेस्टर) के दौरान किसी महिला के अबॉर्शन के अधिकार को प्रतिबंधित (रेस्ट्रिक्ट) नहीं कर सकता है। राज्य एक महिला के मानसिक और साथ ही शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए दूसरी तिमाही के दौरान इस तरह के अबॉर्शन को नियंत्रित कर सकता है। अबॉर्शन का अधिकार मौलिक होने के साथ-साथ मानव अधिकार भी माना जाता है। जस्टिस के.एस. पुट्टस्वामी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, के मामले में एपेक्स कोर्ट द्वारा विशेष रूप से मान्यता दी गई थी कि भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के एक भाग के रूप में प्रजनन (रिप्रोडक्टिव) विकल्प बनाना महिलाओं का संवैधानिक (कांस्टीट्यूशनल) अधिकार है। मेडिकल टर्मिनेशन एक्ट, 1971 भी अबॉर्शन को एक योग्य (क्वालिफाइड) अधिकार घोषित करता है।

सुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ एडमिनिस्ट्रेशन के मामले में यह भी उल्लेख किया गया था कि प्रत्येक महिला के पास प्रजनन अधिकार हैं, जिसमें गर्भावस्था को अपने पूर्ण कार्यकाल (टर्म) तक ले जाने, बच्चों को जन्म देने, उनकी परवरिश करने का अधिकार भी शामिल है और ये अधिकार एक महिला की गोपनीयता (प्राइवेसी), गरिमा (डिग्निटी) और शारीरिक अखंडता (इंटीग्रिटी) का हिस्सा हैं। चूंकि अबॉर्शन एक निहित (इंप्लाइड) मौलिक अधिकार है, इसलिए पीड़ित पक्ष इसके उल्लंघन के मामले में न्यायपालिका से संपर्क कर सकता है। कानून के अनुसार, 24वें सप्ताह में गर्भावस्था को समाप्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसमें मां के स्वास्थ्य को भी खतरा होता है। लेकिन असाधारण (एक्सेप्शनल) मामलों में, यह न्यायाधीशों का विवेक (डिस्क्रीशन) है कि वे मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट और सुझावों पर भरोसा करते हैं कि अबॉर्शन की अनुमति दी जाए या नहीं। महिलाओं का अपने शरीर पर पूरा अधिकार है और इसे उनके परिवार या राज्य को हस्तांतरित (ट्रान्सफर) नहीं किया जा सकता है। इन प्रजनन अधिकारों को यूनाइटेड नेशन इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑन पॉपुलेशन एंड डेवलपमेंट द्वारा भी मान्यता प्राप्त है। इन अधिकारों में गर्भनिरोधक (कंट्रेसेप्शन) तक एक्सेस, कानूनी और सुरक्षित अबॉर्शन का अधिकार, प्रजनन मुक्त भेदभाव, जबरदस्ती और हिंसा से संबंधित निर्णय लेने का अधिकार, बच्चों को जबरन पालने जैसी हानिकारक प्रथाओं के अधीन होने का अधिकार और एलजीबीटीक्यू व्यक्तियों के समान अधिकार शामिल हैं।

भारत में अबॉर्शन से संबंधित मामले

डॉ. निखिल डी. दत्तर व अन्य बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया

  • मामले के तथ्य (फैक्ट्स ऑफ केस)

इस मामले में याचिकाकर्ता (पेटीशनर) गर्भावस्था के 22वें सप्ताह में थी, जब उसके डॉक्टर ने भ्रूण में गंभीर असामान्यताओं (अब्नोर्मेलिटीज) के लक्षण पाए थे। डॉक्टर ने उसे डायग्नोसिस की पुष्टि (कन्फर्म) के लिए दो सप्ताह और प्रतीक्षा करने का सुझाव दिया था। उसकी गर्भावस्था के 24वें सप्ताह में फिर से परीक्षण (टेस्ट) किया गया और भ्रूण को जन्मजात पूर्ण हृदय ब्लॉक का पता चला था। इसके बाद डॉक्टर ने उसे अबॉर्शन कराने की सलाह दी थी। लेकिन गर्भावस्था की समाप्ति मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 के प्रावधानों (प्रोविजन) के खिलाफ थी, इसलिए डॉक्टर ने बॉम्बे हाई कोर्ट से न्यायिक प्राधिकरण (ऑथराइजेशन) की मांग की थी। एक याचिका (पेटिशन) दायर की गई थी और 29 जुलाई, 2008 को बॉम्बे हाई कोर्ट में सुनवाई के लिए आई थी। पहली सुनवाई पर कोर्ट ने जेजे अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधिकारी/डीन को कार्डियोलॉजी गर्भावस्था की समाप्ति के पहलू पर याचिकाकर्ता की जांच की रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए स्त्री रोग विशेषज्ञों (गाइनाकोलॉजिस्ट) और बाल रोग विशेषज्ञों (पेडियाट्रिशियन्स) की एक समिति (कमिटी) बनाने का निर्देश दिया था। 

रिपोर्ट डॉक्टरों द्वारा तैयार की गई थी जिसमें एक स्त्री रोग विशेषज्ञ, एक हृदय रोग विशेषज्ञ (कार्डियोलॉजिस्ट) और एक बाल रोग विशेषज्ञ शामिल थे। डॉक्टरों द्वारा निम्नलिखित अवलोकन (ऑब्जर्वेशन) किए गए थे:

  1. याचिकाकर्ता 24 सप्ताह की गर्भवती थी।
  2. भ्रूण की इकोकार्डियोग्राम रिपोर्ट वास्तविक निष्कर्षों के 80 से 85% तक अवलोकन में सटीक (एक्यूरेट) हो सकती है।
  3. सोनोग्राफिक जांच में वेंट्रिकुलर दर 50-55 प्रति मिनट के साथ पूर्ण हृदय ब्लॉक दिखाया गया है और हृदय संरचनात्मक (स्ट्रक्चरली) और कार्यात्मक (फंक्शनली) रूप से सामान्य है।
  4. बडी आर्टरीज बिना किसी अन्य संरचनात्मक दोष के खराब स्थिति (एल-मैलपोजिशन) में हैं और यह सामान्य जीवन के लिए व्यवहार्य (वायबल) है बशर्ते (प्रोवाइडेड) हृदय में कोई अन्य संरचनात्मक विसंगतियां न हों।
  5. बाहर किए गए इकोकार्डियोग्राम में, किसी अन्य संरचनात्मक विसंगतियों की पहचान नहीं की गई है।
  6. बच्चों का केवल एक छोटा प्रतिशत रोगसूचक (सिम्टोमेटिक) होगा और इसके लिए 1 लाख रुपये से कम की लागत (कॉस्ट) वाले पेस मेक के आरोपण (इंप्लांटेशन) की आवश्यकता होगी, जिसे वयस्क (एडल्ट) पेसमेकर द्वारा प्रतिस्थापित (रिप्लेस) किया जाएगा जिससे बच्चे के लिए सामान्य जीवन जीना आसान हो जाएगा।

समिति ने यह भी कहा कि इस बात की बहुत कम संभावना है कि जन्म लेने वाला बच्चा विकलांग या अक्षम होगा।

  • याचिकाकर्ताओं की ओर से तर्क (आर्गुमेंट)

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि चिकित्सा जांच के परिणामों के अनुसार, याचिकाकर्ता के गर्भ में पल रहा बच्चा हृदय की रुकावट से पीड़ित था और रिपोर्ट्स के अनुसार इस बात की संभावना थी कि गर्भावस्था से पैदा हुआ बच्चा या तो विकलांग होगा या अक्षम होगा।  उन्होंने यह भी तर्क दिया कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 की धारा 3(2)(b)(ii) के अनुसार, यदि अजन्मे बच्चे के जीवन के लिए कोई वास्तविक (सब्सटेंटिव) जोखिम है या गर्भावस्था का परिणाम विकलांग होगा या अक्षम बच्चा होगा तो ऐसी गर्भावस्था को समाप्त किया जा सकता है।

  • राज्य की ओर से तर्क

राज्य का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंट) करने वाले वकील ने तर्क दिया कि मां की गर्भावस्था को समाप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि यह मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 के प्रावधानों के खिलाफ है। एक्ट कुछ परिस्थितियों को निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) करता है जिसके तहत गर्भावस्था की समाप्ति निषिद्ध (प्रोहिबिट)  है। यह भी तर्क दिया गया कि मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट में कहा गया है कि बच्चे के स्वस्थ पैदा होने की सबसे अधिक संभावना है। इसलिए, बिना किसी कारण के गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

  • कोर्ट का फैसला

बॉम्बे के माननीय हाई कोर्ट ने 24 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने के लिए याचिकाकर्ताओं द्वारा की गई याचिका को खारिज कर दिया था क्योंकि यह पता चला था कि यदि बच्चा पैदा होता है तो वह अक्षम या विकलांग होगा। कोर्ट ने कहा कि ऐसी गर्भावस्था को समाप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि स्त्री रोग विशेषज्ञ, हृदय रोग विशेषज्ञ और बाल रोग विशेषज्ञ द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार, बच्चे के विकलांग या अक्षम के रूप में पैदा होने की संभावना कम है। यह भी माना गया कि याचिकाकर्ताओं की ओर से डॉक्टर द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में किसी भी गंभीर शारीरिक या मानसिक बीमारी का उल्लेख नहीं किया गया है जो बच्चे के जीवन को जोखिम में डाल सकती है। साथ ही, मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 की धारा 3(2)(b)(ii) का संदर्भ देते हुए, जिसे याचिकाकर्ताओं ने आगे रखा था, कोर्ट ने कहा कि प्रावधान में कहीं भी यह वर्णित नहीं है कि बच्चे की समाप्ति गर्भावस्था के 24वें सप्ताह के बाद की जा सकती है। यदि किसी डॉक्टर या गर्भवती महिला के परिवार के किसी सदस्य द्वारा ऐसा कोई कदम उठाया जाता है, तो इस स्थिति में वे व्यक्ति इंडियन पीनल कोड, 1860 की धारा 313 के तहत दंडनीय हैं।

यह भी कहा गया कि न्यायपालिका का प्रमुख कार्य कानूनों की व्याख्या करना है न कि उन्हें बनाना है। कोर्ट ने डिविजनल मैनेजर, अरावली गोल्फ क्लब और अन्य चंदर हस और अन्य में एपेक्स कोर्ट के फैसले का भी उल्लेख किया था कि न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका (एग्जिक्यूटिव) के क्षेत्र में डोमेन नहीं कर सकती है। पी. रामचंद्र राव बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र करते हुए, यह फैसला सुनाया गया था कि सत्ता के पृथक्करण (सेप्रेशन ऑफ पावर) के सिद्धांत (डॉक्ट्राइन) की परिकल्पना (इन्वाइसेज) है कि विधायिका को कानून बनाना चाहिए, कार्यपालकों को इसे निष्पादित (एक्जीक्यूट) करना चाहिए और न्यायपालिका को मौजूदा कानूनों के अनुसार विवाद को निपटाना चाहिए।

  • केस कमेंट

मेरे विचार में, बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा दिया गया निर्णय उचित नहीं था और आलोचना (क्रिटिसिज्म) का विषय था। प्रत्येक महिला को यह तय करने का अधिकार होना चाहिए कि वह बच्चे को जन्म देना चाहती है या नहीं। यह उसका विवेक होना चाहिए। हालांकि समाप्त करने के अनुरोध (रिक्वेस्ट) में देरी हुई, जैसे ही डॉक्टरों और याचिकाकर्ताओं को बच्चे की असामान्यता का पता चला, कोर्ट के सामने एक याचिका दायर की गई थी। विभिन्न डॉक्टरों द्वारा महिला की मेडिकल जांच से यह बात स्पष्ट हो गई थी कि बच्चा पैदा होने के बावजूद वह स्वस्थ जीवन नहीं जी पाएगा। कम उम्र में बच्चे की मृत्यु की संभावना थी जिसे डॉक्टरों ने इंगित (पॉइंट आउट) किया था। याचिकाकर्ता की गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए बॉम्बे हाई कोर्ट के इनकार से बच्चे की स्वस्थ डिलीवरी नहीं हुई थी, बल्कि तत्काल प्रभाव  के कारण गर्भ में भ्रूण की मृत्यु हो गई थी और याचिकाकर्ता का अबॉर्शन हुआ था।

सुरजीभाई बड़ाजी कलस्वा बनाम स्टेट ऑफ गुजरात

  • मामले के तथ्य

इस मामले में याचिकाकर्ता श्री सुरजीभाई बड़ाजी कलस्वा ने अपनी 13 वर्षीय बेटी की ओर से एक रिट याचिका दायर की थी जिसका आरोपी ने यौन उत्पीड़न (सेक्शुअली असॉल्ट) किया था। आरोपी वडारी गांव स्थित आश्रम शाला में 8वीं का छात्र था। पीड़िता ने पहले अपने माता-पिता को घटना के बारे में नहीं बताया था। बाद में याचिकाकर्ता और उसकी पत्नी ने कुछ शारीरिक परिवर्तन देखे जैसे कि पीड़ित के पेट का असामान्य तरीके से बढ़ना। पीड़िता ने पेट में दर्द और बेचैनी की भी शिकायत की थी। याचिकाकर्ता पीड़िता को विजयनगर के सरकारी अस्पताल ले गया और चिकित्सकीय जांच में पता चला कि लड़की गर्भवती है। रिपोर्ट के बाद गर्भावस्था स्पष्ट होने के बाद, पीड़िता के माता-पिता ने घटना के बारे में पूछताछ की। उसने कबूल किया कि आरोपी ने उसका यौन शोषण किया था। गर्भावस्था के चिकित्सीय समाप्ति के समय, पीड़िता पहले से ही 25-27 सप्ताह के भ्रूण को गर्भ धारण करे थी।

  • सेशन कोर्ट की कार्यवाही

याचिकाकर्ता ने पीड़िता के साथ सेशन कोर्ट में अबॉर्शन कराने का मामला दायर किया था। मामले को इन-चार्ज स्पेशल जज (पॉक्सो) और 2 एडिशनल सेशन जज, हिम्मतनगर द्वारा निपटाया गया था। संबंधित न्यायाधीशों द्वारा सिविल अस्पताल, हिम्मतनगर को तीन डॉक्टरों का एक पैनल बनाने का आदेश पास किया गया था जो उचित चिकित्सा जांच के बाद भ्रूण और पीड़ित के बारे में रिपोर्ट दे सकते हैं। कोर्ट के आदेश पर तीन डॉक्टरों की टीम ने मेडिकल जांच की थी। डॉक्टरों ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि पीड़िता 30 सप्ताह और 1 दिन का गर्भ धारण कर रही थी। उन्होंने यह भी कहा कि इस समय भ्रूण का अबॉर्शन मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 के प्रावधानों के खिलाफ था। अगर इस तथ्य के बावजूद अबॉर्शन किया जाता है, तो भ्रूण या मातृ (मेटरनल) जीवन जोखिम हो सकता है।

पीड़िता के पिता ने भारतीय संविधान के आर्टिकल 226 के तहत रिट याचिका के माध्यम से माननीय हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया क्योंकि सेशन कोर्ट के निर्णय में देरी हुई थी।

  • चिकित्सा जांच का परिणाम

कोर्ट ने सेशन कोर्ट की कार्यवाही के दौरान रिपोर्ट पेश करने वाले डॉक्टरों को कोर्ट में उपस्थित रहने का आदेश दिया था। रिपोर्ट को पढ़ने के बाद, कोर्ट ने सुझाव दिया कि वर्तमान चिकित्सा स्थिति के समाधान के बारे में जानने के लिए एक पैनल बनाया जाना चाहिए। पैनल में बी.जे. मेडिकल कॉलेज और सिविल अस्पताल, अहमदाबाद के पांच डॉक्टर शामिल थे, जिन्होंने मामले में निवेश (इन्वेस्ट) किया था।

चिकित्सकों ने चिकित्सकीय जांच के बाद स्पष्ट किया कि पीड़िता साढ़े सात (7½)माह की गर्भवती थी।  उनका ब्लड प्रेशर, शुगर लेवल और अन्य जांच सामान्य पाई गई थी।  डॉक्टरों ने कहा कि इस स्तर (लेवल) पर गर्भावस्था की समाप्ति मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 के प्रावधानों के खिलाफ थी। उन्होंने रिपोर्ट में यह भी कहा कि गर्भावस्था को समाप्त करने के विकल्प को पूरी तरह से खारिज किया जाना चाहिए। उन्हें ऐसा इसलिए करना चाहिए क्योंकि इससे मां और बच्चे दोनों की जान को खतरा होता है। भ्रूण का वजन 1.7 किलोग्राम था और इसलिए बच्चे के जीवित रहने की संभावना अधिक थी।

डॉक्टरों का सुझाव था कि पीड़िता की उम्र 13-14 साल होने के कारण वह सामान्य रूप से बच्चे को जन्म नहीं दे पाएगी। इसलिए सिजेरियन की प्रक्रिया को अंजाम देना चाहिए। उन्होंने यह भी समझाया कि चूंकि डिलीवरी समय से पहले होगी, इसलिए जन्म लेने वाले बच्चे को उचित देखभाल की आवश्यकता होगी। यदि पीड़िता या उसके माता-पिता बच्चे को स्वीकार नहीं करते हैं तो इसे या तो राज्य या कानूनी अभिभावक को दिया जाएगा।

  • याचिकाकर्ता की ओर से तर्क

याचिकाकर्ता की ओर से विद्वान वकील ने तर्क दिया कि महिला की सहमति के विरुद्ध किसी भी गर्भ को समाप्त नहीं किया जा सकता है। उसी तरह, किसी भी महिला को बच्चे को गर्भ धारण करने के लिए यदि वह इसे समाप्त करना चाहती है, मजबूर नहीं किया जा सकता है । यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जिन परिस्थितियों में पीड़िता ने गर्भ धारण किया वह सामान्य नहीं थी। ऐसे मामलों में, किसी भी महिला को गर्भावस्था जारी रखने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। याचिकाकर्ता की ओर से यह भी कहा गया था कि यदि एक मां के अधिकार और एक अजन्मे बच्चे के अधिकार संघर्ष में हैं तो एमटीपी एक्ट की धारा 5 की स्पष्ट भाषा के अनुसार मां के अधिकार प्रबल (प्रीवेल) होंगे।

चिकित्सा विशेषज्ञों और जांच अधिकारियों की ओर से लापरवाही के कारण कानून के तहत पीड़ित को उपलब्ध कराए गए विकल्पों पर विचार करने की अनुमति नहीं थी। प्रारंभिक (इनिशियल) चिकित्सा जांच के समय भ्रूण को समाप्त किया जा सकता था जब भ्रूण 20 सप्ताह से कम का था। वर्तमान मामले में, चूंकि लड़की नाबालिग है, तो केवल माता-पिता की सहमति की आवश्यकता थी। वकील ने बशीर खान बनाम पंजाब और स्टेट ऑफ हरियाणा के मामले को भी निर्धारित किया, जहां कोर्ट्स ने कहा है कि ऐसे मामलों में कोर्ट्स से संपर्क करना समय की बर्बादी है। उन्होंने यह भी कहा कि पुलिस अधिकारियों, चिकित्सा अधिकारियों, वकीलों या कोर्ट्स सहित सभी लोग कानून के प्रावधानों से अच्छी तरह वाकिफ है। ऐसे महत्वपूर्ण मामलों में समय बहुत सार है और इसलिए, गर्भावस्था की समाप्ति के मामले में उपलब्ध किसी भी उपाय के बारे में बताया जाना चाहिए और याचिकाकर्ताओं को प्रदान किया जाना चाहिए। वकील ने ऊपर दिए हुए मामले का संदर्भ भी दिया और कहा कि न्यायिक अधिकारियों को ऐसे मामलों में सक्रिय (प्रोएक्टिव) रहना चाहिए। भले ही नाबालिग के मामले में कानूनी अभिभावक की सहमति की आवश्यकता हो, लेकिन गर्भ धारण करने वाली मां की सहमति भी महत्वपूर्ण है।

वकील ने आगे यह तर्क दिया कि मुरुगन नायककर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य के मामले में, माननीय सुप्रीम कोर्ट ने एक 13 वर्षीय लड़की की गर्भावस्था को उसी परिस्थितियों में समाप्त करने की अनुमति दी, जिसमें उसका कथित रूप से बलात्कार किया गया था। यह कहा गया था कि चूंकि लड़की पहले से ही मानसिक आघात से पीड़ित है, तो कोर्ट पीड़िता को और अधिक आघात नहीं पहुंचा सकता है।

इसलिए, कोर्ट द्वारा पीड़िता की गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दी जाती है।

  • राज्य की ओर से तर्क

राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील ने तर्क दिया कि डॉक्टरों की ओर से ऐसी अवस्था में गर्भावस्था को समाप्त करना उचित नहीं है। पीड़िता 31 सप्ताह के भ्रूण को गर्भ में धारण करे है, जो लगभग एक पूर्ण बच्चा है। ऐसी अवस्था में गर्भावस्था को समाप्त करना न केवल कानून के खिलाफ है बल्कि इससे मां की जान को भी खतरा होगा। वकील ने इस बात पर भी जोर दिया कि डॉक्टरों ने स्पष्ट किया है कि अगर इस स्तर पर डिलीवरी की जाती है, तो बच्चे के जीवित रहने की संभावना 99% है। कोर्ट से अनुरोध है कि अंत तक परिवार की सहायता करें लेकिन समाप्ति का विकल्प नहीं है। भले ही, लड़की एक बलात्कार पीड़िता है, इस अवस्था में गर्भावस्था की समाप्ति उसके दुःख और कष्टों को ही बढ़ाएगी।

वकील ने आगे तर्क दिया कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सुचिता श्रीवास्तव और अन्य बनाम चंडीगढ़ एडमिनिस्ट्रेशन के मामले में ने यह माना है कि भारतीय कानूनों की भाषा से यह स्पष्ट है कि गर्भावस्था की समाप्ति की अनुमति केवल तभी दी जाती है जब गर्भावस्था एक्ट, 1971 की चिकित्सा समाप्ति की कुछ शर्तें पूरी होती हैं। भारत में अबॉर्शन के कानून यूनाइटेड किंगडम के अबॉर्शन कानूनों से प्रेरित हैं। हालांकि भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के व्यापक दायरे में हर महिला को अबॉर्शन का अधिकार है, लेकिन भावी (प्रोस्पेक्टिव) बच्चे के हित में काम करना भी राज्य की जिम्मेदारी है। यही एकमात्र कारण है कि विधायिका द्वारा मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 के तहत ऐसे प्रावधान किए गए हैं। कोर्ट ने यह माना कि मां की सहमति को कमजोर या उपेक्षित (नेगलेक्ट) नहीं किया जा सकता है क्योंकि इससे सामाजिक बुराइयों को बढ़ावा मिलेगा। यह एक्ट के प्रावधानों को भी गुमराह करेगा।

वकील ने सभी तर्कों और संदर्भित मामलों के आधार पर गर्भावस्था को समाप्त न करने का अनुरोध किया था।

  • कोर्ट का फैसला

वर्तमान मामले में माननीय हाई कोर्ट ने गर्भावस्था को समाप्त करने से इनकार कर दिया क्योंकि यह कानून के प्रावधानों के खिलाफ था। इसके अलावा, भ्रूण को समाप्त करना संभव नहीं था क्योंकि उस समय पहले से ही 31 सप्ताह हो चुके थे। कोर्ट ने फैसले में पीड़ित के साथ-साथ बच्चे की उचित देखभाल और सुरक्षा के बारे में विशेष दिशा-निर्देश दिए। वे दिशानिर्देश इस प्रकार थे:

  • लीगल कम-प्रोबेशन ऑफिसर के मार्गदर्शन (गाइडेंस) में शेष डेढ़ माह तक पीड़ित की जांच की जानी चाहिए। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि पीड़ित को डिलीवरी की तारीख से 10 दिन पहले सिविल अस्पताल हिम्मतनगर लाया जाना चाहिए। इस अवधि के दौरान एक उचित देखभाल की जानी चाहिए।
  • पीड़ित के माता-पिता के लिए एक अलग कमरे सहित अस्पताल द्वारा पीड़ित को प्रत्येक सुविधा प्रदान की जानी है। यदि पीड़िता और उसके माता-पिता बच्चे को गोद लेने के लिए छोड़ने का फैसला करते हैं तो इस तरह के गोद लेने की प्रक्रिया सेंट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी या किसी अन्य संस्थान (इंस्टीट्यूशन) के किसी भी अधिकारी को शामिल करके की जानी चाहिए।
  • कोर्ट ने स्वास्थ्य एवं कल्याण डिपार्टमेंट के प्रिंसिपल सेक्रेटरी को पीड़ित के माता-पिता को चिकित्सा खर्च के लिए 1 लाख रुपये देने का निर्देश दिया था। यदि याचिकाकर्ता के पास कोई बैंक खाता है तो पैसा उसके बैंक खाते में भेजा जाना चाहिए, यदि नहीं, तो तुरंत उपलब्ध कराया जाना चाहिए। याचिकाकर्ता किसी और मदद के लिए स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी से भी संपर्क कर सकता है।
  • पीड़िता को घर पर ही काउंसलिंग की सुविधा प्रदान की जानी चाहिए, जब तक कि उसे अस्पताल ले जाना आवश्यक न हो।
  • पीड़िता के साथ-साथ नवजात शिशु के रिकॉर्ड को अस्पताल के अधिकारियों द्वारा पीड़ित को छुट्टी देने के बाद एक सीलबंद कवर में रखा जाना चाहिए।
  • जब पीड़िता नियमित जांच और काउंसलिंग के लिए जाती है तो उसके साथ सहानुभूतिपूर्वक (सिंपेथेटिकली) व्यवहार किया जाना चाहिए। उसे उसके मानसिक स्वास्थ्य और आवश्यकता के अनुसार परामर्श प्रदान किया जाना चाहिए।
  • कोर्ट द्वारा पीड़ित को दी गई राशि इंडियन पीनल कोड में निर्दिष्ट राशि के अतिरिक्त है।
  • कोर्ट ने केंद्र सरकार को मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 में अमेंडमेंट करने की भी सलाह दी ताकि डॉक्टरों के खिलाफ मुकदमा चलाने के संबंध में शब्द स्पष्ट हो सकें। मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 के तहत सद्भाव (गुड फेथ) में गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति है और यह कोई अपराध नहीं है।
  • ऐसे मामलों में पीड़ितों की काउंसलिंग के तरीके से सभी लोगों को अवगत कराने के लिए जांच एजेंसियों, डॉक्टरों, वकीलों और न्यायिक अधिकारियों के लिए एक सेमिनार आयोजित (ऑर्गेनाइज) किया जाना चाहिए। यह उन्हें बलात्कार पीड़ितों के मामलों में स्थिति की तात्कालिकता (अर्जेंसी) और संवेदनशीलता के बारे में जागरूक करने के लिए किया जाता है। इन अधिकारियों को एक रिपोर्ट भी बनानी चाहिए और संबंधित मामले के लिए जिम्मेदार कानूनी अथॉरिटी को प्रस्तुत करना चाहिए।
  • कोर्ट ने यह भी कहा कि अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) न्यायपालिका के न्यायिक अधिकारियों को मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 के प्रावधानों से अवगत होने की जरूरत है। कोर्ट ने अधीनस्थ न्यायपालिका को भी आदेश दिया कि वह महिला को गर्भावस्था के 20 सप्ताह से कम समय के मामले में गर्भावस्था को समाप्त करने के विकल्प के बारे में जागरूक करे।
  • पीड़ित का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील को किसी भी परिस्थिति में याचिका के मुख्य नोट में पीड़ित की पहचान का खुलासा नहीं करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति ऐसा करते पाया जाता है, तो उस पर कोर्ट के कंटेंप्ट ​​और आईपीसी की धारा 228A का आरोप लगाया जाएगा।
  • यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि पीड़िता 8वीं कक्षा में है। राज्य जिम्मेदारी ले सकता है कि पीड़िता ने अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ी है या स्कूल जाने में किसी भी तरह की परेशानी का सामना नहीं किया है।
  • जांच अधिकारी को डीएनए की पहचान के लिए जरूरी कदम उठाने चाहिए।

केस कमेंट

मेरे विचार से कोर्ट द्वारा दिया गया निर्णय कुछ अलग हो सकता था यदि कोर्ट की कार्यवाही में मामले को सुलझाने में उचित गति (पेस) होती। यद्यपि प्रत्येक महिला को यह चुनने का अधिकार है कि वे गर्भ धारण करना चाहती हैं या नहीं, राज्य गर्भावस्था की समाप्ति से होने वाले परिणामों की उपेक्षा (नेगलेक्ट) नहीं कर सकता है। जिन मामलों में मां बलात्कार पीड़िता है, उनके पास बिना किसी अन्य औचित्य (जस्टिफिकेशन) के समाप्ति का विकल्प होता है। लेकिन वर्तमान मामले में, गर्भावस्था को समाप्त होने में बहुत देर हो चुकी थी क्योंकि इस स्तर पर एक भ्रूण एक बच्चे के रूप में विकसित हो जाता है और उसका मस्तिष्क और हृदय काम करना शुरू कर देता है। अधीनस्थ कोर्ट की कार्यवाही में देरी ने पीड़िता के जीवन को संकट में डाल दिया था। कोर्ट के पास बच्चे की समाप्ति के अनुरोध को खारिज करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। यह निर्णय एक एतिहासिक निर्णय था क्योंकि कोर्ट द्वारा अधीनस्थ कोर्ट्स के लिए आगे के दिशा-निर्देश निर्धारित किए गए हैं ताकि ऐसे मामलों में मां को अबॉर्शन के अधिकारों के बारे में पता हो। माननीय हाई कोर्ट ने भविष्य के प्रयासों को ध्यान में रखते हुए निर्णय दिया था।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को उनके अधिकारों और विकल्पों के बारे में जागरूक करने के लिए यह शोध पत्र प्रस्तुत किया गया है। यह हर महिला की पसंद है कि वह बच्चा पैदा करने की जिम्मेदारी के लिए तैयार है या नहीं। तकनीकी और विकास के युग में भी, ऐसे कई मामले हैं जहां महिला अबॉर्शन की उचित सुविधाओं के कारण पीड़ित हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां एक महिला को बच्चे को सहन करने या इसे समाप्त करने के लिए विभिन्न बाहरी और भावनात्मक दबाव का सामना करना पड़ता है। पेपर उन स्थितियों का विश्लेषण (एनालिसिस) करता है जिनमें एक महिला विभिन्न मामलो की सहायता से बच्चे को समाप्त कर सकती है या नहीं। कोर्ट द्वारा निर्धारित विभिन्न सुझाव और दिशा-निर्देश प्रस्तुत किए गए हैं।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

  • ‘The Niketa Mehta case: does the right to abortion threaten disability rights?’ by Neha Madhiwalla<https://ijme.in/articles/the-niketa-mehta-case-does-the-right-to-abortion-threaten-disabili ty-rights/?galley=html>  

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