ट्रायल का इतिहास, ट्रायल के प्रकार और फेयर ट्रायल की अवधारणा

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Code of Criminal Procedure
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यह लेख निरमा विश्वविद्यालय के Nimish Mundra द्वारा लिखा गया है। यह लेख ट्रायल के इतिहास, इसके प्रकारों और फेयर ट्रायल की अवधारणा से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Sonia Balhara द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

प्रसिद्ध यूनानी (ग्रीक) दार्शनिक (फिलोसोफर) हेराक्लिटस ने एक बहुत लोकप्रिय और व्यापक (वाईडली) रूप से स्वीकृत (एक्सेप्ट) उद्धरण (कॉट) दिया, ‘केवल एक चीज जो निरंतर (कॉन्स्टन्ट) है वह है परिवर्तन।’ जैसा कि हम सभी जानते हैं, यह प्रसिद्ध कहावत हर मायने में बिल्कुल सच है। इसलिए, जब हम एक राष्ट्र में परिवर्तन के बारे में बात करते हैं, तो हम जनसांख्यिकीय (डेमोग्राफिक) परिवर्तन, आर्थिक (इकनॉमिक) परिवर्तन, राजनीतिक परिवर्तन, सामाजिक (सोशल) परिवर्तन और एक बहुत ही महत्वपूर्ण परिवर्तन के बारे में बात करते हैं जो एक राष्ट्र का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है जो कि एक राष्ट्र में कानूनी परिवर्तन है। हम सभी ने पूरी कानूनी व्यवस्था को दुनिया भर में बड़ी तेजी से आगे बढ़ते हुए देखा है। एक राष्ट्र की एक कानूनी व्यवस्था मूल रूप से अपने नागरिकों के लिए नियमों और विनियमों (रेगुलेशंस) को निर्धारित करती है और निर्धारित नियमों और कानूनों का उल्लंघन करने वालों के लिए दंड देती है।

भारत, एक ऐसा राष्ट्र जहां सबसे महत्वपूर्ण और ध्यान देने योग्य चीज जिसे कोई भी आसानी से देख सकता है, वह है राष्ट्र की विविधता (डाइवर्सिटी), इसलिए जब हमें राष्ट्र के कानूनी परिवर्तनों के बारे में चर्चा करनी होती है, तो हम भारत में विशाल विविधता को नहीं भूल सकते। भारतीय राष्ट्र ने निर्भया कांड, 26/11 के ताज हमले जैसे कई महत्वपूर्ण कानूनी केस को देखा है और सूची जारी है। भारत ने बहुत ही कम समय में अपनी कानूनी व्यवस्था में एक बहुत ही कठोर परिवर्तन देखा है और समय के साथ इसकी गति बढ़ने के साथ, भारतीय उपमहाद्वीप (सबकॉन्टिनेंट) के कानूनी माहौल में कई और प्रगति और नई नीतियां (पॉलिसीज़), विनियम आदि जोड़े जाएंगे।

भारत में ट्रायल का इतिहास

पहला केस 1665 में हुआ था, जो एक ब्रिटिश महिला का था, जिसका नाम एसेंटिया डावेस था, जिस पर उसकी साल्व लड़की की हत्या का आरोप लगाया गया था। इसलिए, यात्रा एक ब्रिटिश महिला के केस से शुरू हुई और के.एम. नानावती बनाम महाराष्ट्र राज्य के बहुत प्रसिद्ध केस से जूरी ट्रायल को समाप्त कर दिया गया (हालांकि नानावती केस जूरी ट्रायल की प्रथा को समाप्त करने वाला अंतिम केस नहीं था, लेकिन सबसे प्रसिद्ध केस था जिसके कारण जूरी ट्रायल की प्रक्रिया बंद हो गई)।

भारतीय उपमहाद्वीप में ईस्ट इंडिया कंपनी के विकास के साथ, जूरी ट्रायल की व्यवस्था को दो भागों में स्थापित किया गया था, पहला बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास के प्रेसीडेंसी शहरों के अंदर और दूसरा प्रेसीडेंसी शहरों के बाहर का क्षेत्र। वर्ष 1860 में, भारत सरकार ने इंडियन पीनल कोड को अपनाया जिसने केवल प्रेसीडेंसी के हाई कोर्ट्स में अनिवार्य आपराधिक जूरी का गठन (कॉन्स्टिट्यूटेड) किया।

तब से, राष्ट्र की कानूनी व्यवस्था में एक पूर्ण क्रांति (रेवोल्यूशन) की यात्रा शुरू हुई, जिसने न केवल उत्कृष्ट (एक्सीलेंट) परिणाम दिखाए बल्कि भारत में ज्यूडिशियरी व्यवस्था का विकास भी किया।

ट्रायल

भारत में आपराधिक व्यवस्था में ट्रायल से जुड़ी विभिन्न अवधारणाओं के साथ आगे बढ़ने के लिए, हमें ट्रायल की मूल अवधारणा के साथ सीखना चाहिए। ‘ट्रायल’ शब्द का अर्थ मूल रूप से न्यायालय का निर्णय या न्यायालय द्वारा ज्यूडिशियल निर्णय है ताकि व्यक्ति के अपराध या बेगुनाही का फैसला किया जा सके। एक आपराधिक केस में एक मुकदमे का बहुत महत्वपूर्ण महत्व है। सी.आर.पी.सी की धारा 190 उन आवश्यकताओं को बताता है जिन्हें मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही शुरू करने से पहले पूरा करने की आवश्यकता होती है, इस कथन का मूल रूप से मजिस्ट्रेट की किसी केस का ज्ञान लेने की शक्ति है। सी.आर.पी.सी की धारा 204 मूल रूप से मजिस्ट्रेट को केस पर विचार करने या कुछ आधारों पर केस को खारिज करने की एकमात्र शक्ति प्रदान करती है। यह धारा उस चरण को भी निर्धारित करता है कि कोई केस ट्रायल के चरण में प्रवेश कर सकता है या नहीं।

ट्रायल के प्रकार

मुख्य रूप से चार प्रकार के ट्रायल होते हैं:

वारंट केसेस

एक वारंट केस खुद को उस केस से जोड़ता है जहां अपराधों की सजा मृत्यु, आजीवन कारावास या 2 वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास पर विचार किया जाता है। वारंट केस के ट्रायल को आगे दो और प्रकारों में वर्गीकृत (क्लासिफाइड) किया गया है, अर्थात्:

  • पुलिस रिपोर्ट द्वारा स्थापित केसेस- एक पुलिस रिपोर्ट मूल रूप से एक रिपोर्ट है जो मजिस्ट्रेट को धारा 173 के तहत एक पुलिस अधिकारी से प्राप्त होती है। जांच पूरी होते ही पुलिस को अपनी रिपोर्ट भेजनी चाहिए और मुकदमा शुरू करने से पहले आरोपी मजिस्ट्रेट के सामने पेश होता है।
  • पुलिस रिपोर्ट के अलावा अन्य स्थापित केसेस- यहां किसी प्रकार की पुलिस रिपोर्ट या जांच की आवश्यकता नहीं है। मजिस्ट्रेट को सीधे एक शिकायत प्राप्त होती है जो उसके सामने दायर की जाती है।

क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की धारा 225-237 मूल रूप से सेशन कोर्ट द्वारा वारंट केस से संबंधित है।

नरोत्तमदास एल. शाह बनाम पाठक नथालाल सुखराम एवं अन्य के केस में, आरोपी को मानहानि (डिफेमेशन) के लिए उत्तरदायी ठहराया गया था, जिसके लिए गवाहों से क्रॉस-एग्जामिनेशन की गई थी और मजिस्ट्रेट का विचार था कि केस को स्थानांतरित (ट्रांसफर) किया जाना चाहिए, जबकि आरोपी ने फिर – गवाहों की सुनवाई की मांग करी जिस पर मजिस्ट्रेट ने कहा कि आरोपी को यह अधिकार तभी हो सकता है जब केस की सुनवाई चल रही हो और यहां केस जांच के स्तर पर ही हो। सेशन कोर्ट के न्यायाधीश का विचार था कि आरोपी द्वारा की गई मांग को खारिज करना गलत था। गुजरात हाई कोर्ट ने इस केस में कहा कि वारंट केस में ट्रायल तब शुरू होती है जब आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है और इस तरह मजिस्ट्रेट के आदेश को रद्द कर दिया जाता है।

सेशन केसेस

ये ऐसे केस हैं जहां कानून द्वारा अपराध मृत्यु सजा के अधीन है, सात साल से अधिक की अवधि के लिए आजीवन कारावास, ऐसे केसेस में एक सेशन कोर्ट में ट्रायल का निपटारा करना पड़ता है, जब केस पहले ही, या अपराध के कमीशन के बाद एक मजिस्ट्रेट द्वारा न्यायालय को भेज दिया गया हो ।

सी.आर.पी.सी में उल्लिखित 238-250 से शुरू होने वाली धाराएं मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट केस से संबंधित हैं।

जैसा कि पुलिस इंस्पेक्टर बनाम आर जीवा जोथी और अन्य के केस में निर्णय लिया गया था, मजिस्ट्रेट ने एक केस की जांच करते समय कुछ अनियमितताएं (इर्रेगुलरिटीज़) दिखाईं, जब पुलिस इंस्पेक्टर द्वारा एक अंतिम रिपोर्ट उन्हें सौंपी गई थी। जैसा कि सी.आर.पी.सी में उल्लेख किया गया है, कि जब मजिस्ट्रेट धारा 190(b) के तहत पुलिस रिपोर्ट को स्वीकार करती है, तो मजिस्ट्रेट को उस विशेष अपराध का भी कॉग्नीज़न्स लेना चाहिए। धारा 209 के तहत, एक मजिस्ट्रेट ने जब यह नोट किया है कि केस का प्रयोग केवल सेशन कोर्ट में किया जा सकता है, तो उसके लिए यह अनिवार्य है कि केस सही अधिकारियों को दिया जाए, जिनके पास प्रक्रिया पर विचार करने के बाद केस पर उचित अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) है और धारा 207 और 208 के तहत उल्लिखित औपचारिकताएं (फॉर्मलिटीज)। वर्तमान केस में, मजिस्ट्रेट ने केस से संबंधित सभी सामग्रियों और दस्तावेजों पर विचार किया और आरोपी को आई.पी.सी की धारा 307 और 450 के तहत उल्लिखित अपराधों के लिए छोड़ दिया गया, ऐसा करने के लिए एक मजिस्ट्रेट को अनुमति नहीं है और उसके लिए कोई शक्ति नहीं है। और हटाने के बाद, मजिस्ट्रेट ने केस को अपनी फाइल में ले लिया और एक मुकदमा शुरू किया जो कानून के तहत स्पष्ट रूप से निषिद्ध (प्रोहिबिटेड) है।

इस केस में मद्रास हाई कोर्ट ने मजिस्ट्रेट की योग्यता पर सवाल उठाया और यह भी कहा कि लिए गए निर्णय और मजिस्ट्रेट द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया गैरकानूनी और गलत प्रकृति की थी और कहा कि केस में और देरी किए बिना, इसे सेशन कोर्ट में तुरंत भेजा जाना चाहिए।

सम्मन केसेस

ये ऐसे केसेस हैं जहां अपराध के लिए दो साल से कम की सजा वाले अपराध सम्मन केसेस की श्रेणी में आते हैं, आगे इन केसेस में आरोप तय करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अदालत इन केसेस को खोजने पर आरोप के लिए एक सामग्री के रूप में ‘नोटिस’ जारी करती है और फिर इसे आरोपी को भेजती है। यदि किसी भी प्रकार की संभावना है कि सम्मन केसेस में आरोप ऐसे हैं कि उन्हें न्याय दिलाने के लिए मजिस्ट्रेट की नजर में वारंट केसेस में परिवर्तित किया जा सकता है।

गुलाबजीत सिंह और अन्य बनाम रवेल सिंह के केस में मुद्दा यह था कि क्या नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत शुरू की गई कार्यवाही पर धारा 258 लागू हो सकती है? धारा 258 में सरलता से कहा गया है कि कार्यवाही केवल तभी रोकी जा सकती है जब शिकायत के अलावा अन्य केसेस दर्ज किए जाते हैं, लेकिन जब राज्य द्वारा प्रॉसिक्यूशन पहले ही स्थापित कर दिया जाता है, तो यह धारा लागू नहीं होगी और आगे विस्तार से बताया गया है कि ऐसे केसेस में जहां एक निजी पार्टी ने शिकायत दर्ज की तो धारा 258 लागू नहीं होगी। याचिका को हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया था।

समरी केसेस 

मूल रूप से, समरी ट्रायल उन प्रकार के ट्रायल हैं जहां स्पीडी जस्टिस दी जाएगी जिसका अर्थ है कि वे केस जिन्हें तेजी से निपटाया जायेगा और इन केसेस की प्रक्रिया काफी सरल है। एक बात जो यहां महत्वपूर्ण नहीं है वह यह है कि केवल छोटे अपराधों को समरी केस के एक भाग के रूप में लिया जाता है, ऐसे केस जो प्रकृति में जटिल होते हैं और काफी बड़े होते हैं, सम्मन या वारंट ट्रायल के लिए रिजर्व्ड होते हैं। इस प्रकार के ट्रायल्स के साथ, ‘न्याय में देरी न्याय से वंचित है’ की अवधारणा को आसानी से इंगित (पॉइंट) किया जा सकता है। इस प्रकार के ट्रायल्स से जुड़ा एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रक्रियात्मक हिस्सा यह है कि समरी ट्रायल्स में केवल कार्यवाही दर्ज की जाती है और इस तरह कार्यवाही का कोई बड़ा हिस्सा नहीं बनाया जाता है। समरी ट्रायल्स में साक्ष्य और स्वभाव से संबंधित घटकों (कंपोनेंट्स) को संक्षिप्त तरीके से दर्ज किया जाता है जबकि नियमित ट्रायल्स में, साक्ष्य और केस से संबंधित सभी पदार्थों (सबस्टान्सेस) पर सावधानीपूर्वक विचार किया जाता है।

प्रक्रिया जहां वारंट केस में आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना है

मजिस्ट्रेट द्वारा ट्रायबल वारंट केस में, यदि मजिस्ट्रेट को आरोपी को उत्तरदायी ठहराने का कोई आधार नहीं मिलता है, तो मजिस्ट्रेट आरोपी को मुक्ति कर सकता है, लेकिन उसे इसके लिए कारण बताने होंगे। लेकिन जब मजिस्ट्रेट को यह विश्वास करने के लिए कुछ कारण मिलते हैं कि केस से संबंधित कुछ पॉइंट्स हैं जिसके साथ वह केस के साथ आगे बढ़ सकता है, तो मजिस्ट्रेट आरोपी के खिलाफ आरोप तय करके और सी.आर.पी.सी की धारा 240 के तहत आगे बढ़ता है। धारा 240(2) आरोपी के खिलाफ लगाए गए आरोपों को पढ़ा जाएगा और फिर उससे पूछा जाना चाहिए कि क्या वह उसी के लिए दोषी लोगों के अपराध के लिए मुकदमा चलाने का दावा करता है, और यदि आरोपी मुकदमा चलाने का दावा करता है तो वह गवाहों को पेश करने के लिए कहा जाएगा यदि कोई हो।

सेशन कोर्ट की प्रक्रिया

सेशन कोर्ट सीधे उस अपराध का कॉग्निजेंस नहीं ले सकता जो उनके अधिकार क्षेत्र में ट्रायबल है। सेशन कोर्ट के सामने ट्रायल की प्रक्रिया को कई भागों में विभाजित किया गया है:

  1. धारा 225: प्रक्रिया का पहला चरण एक पब्लिक प्रोसिक्यूटर द्वारा मुकदमा चलाना है।
  2. पहले चरण के बाद, धारा 226 के तहत  प्रोसिक्यूटर अपना प्रारंभिक बयान पेश करके अपना केस खोलता है और आरोपी के खिलाफ अपराध के आरोपों की व्याख्या भी करता है।
  3. आरोपियों के साथ-साथ प्रॉसिक्यूशन द्वारा दिए गए बयानों को सुनने के बाद और केस से संबंधित दस्तावेजों और रिकॉर्ड पर ध्यान देने के बाद, यदि न्यायाधीश को लगता है कि आरोपी के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए पूरे घटक पर्याप्त नहीं थे, तो न्यायाधीश 227 आरोपियों को बरी कर देगा।
  4. यदि न्यायाधीश को लगता है कि दोनों पक्षों के दस्तावेज, रिकॉर्ड और बयान आरोपी के खिलाफ आगे की कार्यवाही के लिए आधार तैयार करने के लिए पर्याप्त थे, तो न्यायाधीश धारा 228 के तहत आरोप तय करता है। अब, यहां दो अवधारणाएं सामने आती हैं कि न्यायालय का अधिकार क्षेत्र है, यदि केस सेशन कोर्ट द्वारा ट्रायबल नहीं है, तो न्यायाधीश केस को उच्च प्राधिकारी (अथॉरिटी) अर्थात चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट या फर्स्ट क्लास के किसी अन्य मजिस्ट्रेट को स्थानांतरित कर सकता है, और यदि न्यायालय के पास केस पर अधिकार क्षेत्र है, तो न्यायाधीश आरोपी के खिलाफ आरोप तय करके आगे बढ़ेगा।
  5. यदि आरोपी ने अपने द्वारा किए गए अपराध के लिए दोषी ठहराया है, तो न्यायाधीश रिकॉर्ड करेगा और अपने फैसले पर आरोपी को दोषी ठहरा सकता है।
  6. यदि आरोपी ने केस से जुड़े गवाहों की परीक्षा के लिए अनुरोध करने से इनकार कर दिया है तो न्यायाधीश एक तारीख तय करता है।
  7. तारीख तय होने के बाद, उस तारीख को न्यायाधीश द्वारा प्रोसिक्यूटर से उन सबूतों के लिए कहा जा सकता है जिनके लिए उनके समर्थन की आवश्यकता होती है। इस कदम पर, न्यायाधीश के विवेक के आधार पर गवाहों की क्रॉस-एग्जामिनेशन भी हो सकती है। इस पूरे चरण का उल्लेख धारा 231 में किया गया है।
  8. कोड की धारा 232 आरोपी के बरी होने के बारे में बात करती है, यदि आरोपी की परीक्षा, अभियोजन पक्ष द्वारा दिए गए बयान और साथ ही बचाव पक्ष आरोपी के खिलाफ आरोपों को साबित करने में विफल रहता है।
  9. यदि आरोपी को बरी नहीं किया जाता है, तो धारा 233 के तहत उसे बुलाया जा सकता है और उसके पक्ष में सबूत लाने की भी आवश्यकता हो सकती है।
  10. धारा 234 और 235 तर्कों के भाग की व्याख्या करती है और यह तय करती है कि आरोपी को क्रमशः (रेस्पेक्टिवेली) उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए या रिहा किया जाना चाहिए।

फेयर ट्रायल: यह क्या है और क्रिमिनल सिस्टम में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका कैसे होती है?

जब कोई राष्ट्र की न्याय प्रदान करने वाली व्यवस्था के बारे में बात करता है, तो एक सवाल या यूँ कहें कि एक मज़ाक न्याय व्यवस्था से बना है जो लंबी और थकाऊ प्रक्रिया के बारे में है जो अक्सर पीड़ितों के साथ अन्याय की ओर ले जाती है। सबसे प्रसिद्ध केस जो हमारे दिमाग में आता है जब हम देरी से न्याय की बात करते हैं तो वह है निर्भया कांड, घटना 2012 में हुई और अब साल 2020 में दोषियों को फांसी पर लटका दिया गया।

ऐसे में सवाल उठता है कि फेयर ट्रायल क्या है? क्या यह किसी केस को निपटाने में लगने वाले लंबे समय से संबंधित है या क्या हिरासत में आरोपी को उसके अधिकार प्रदान किए जाते हैं और प्रश्नों की सूची समाप्त नहीं होती है।

इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन ने अपने नागरिकों को मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट्) दिए है जो कि आर्टिकल 22(1) में निर्धारित मुफ्त कानूनी सहायता का अधिकार है। न केवल कॉन्स्टिट्यूशन, बल्कि सी.आर.पी.सी ने भी धारा 304 में इसके बारे में बात की है। धारा 304 ‘कुछ केसेस में राज्य के खर्च पर आरोपी को कानूनी सहायता’ है। सरल भाषा में धारा 304 मूल रूप से आरोपी को सहायता प्रदान करती है, उप-धारा (1) इस धारा का वर्णन है कि जब भी आरोपी एक प्लीडर द्वारा अपना प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंट) करने में असमर्थ होता है, तो न्यायालय आरोपी का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक प्लीडर नियुक्त (अपॉइंट) करेगा और इससे संबंधित खर्च राज्य द्वारा वहन किया जाएगा। धारा की उप-धारा (2) मूल रूप से आरोपी को प्लीडर नियुक्त नियुक्ति का तरीका, सुविधाएं आदि करने का प्रक्रियात्मक हिस्सा है।

किशोर सिंह रविंदर देव बनाम राजस्थान राज्य के एक निश्चित केस में, यह माना गया था कि भारत की कानूनी व्यवस्था में उल्लिखित नियमों के साथ-साथ विनियमों ने आरोपी के अधिकारों की रक्षा के लिए विस्तृत (इलाबोरेट) व्यवस्था प्रदान की है ताकि आरोपी की गरिमा की रक्षा की जा सके और उसे एक स्वतंत्र, फेयर और निष्पक्ष (इम्पार्शिअल) पाठ्यक्रम (कोर्स) का लाभ दे सके।

फेयर ट्रायल के सिद्धांत से विभिन्न अवधारणाएं, जटिलताएं (कम्प्लेक्सशंस) और सिद्धांत जुड़े हुए हैं। फेयर ट्रायल का न केवल यह मतलब है कि न्याय जल्द से जल्द दिया जाना चाहिए, बल्कि जाहिरा हबीबुल्लाह शेख और अन्य बनाम गुजरात राज्य के केस में भी कहा गया है कि फेयर ट्रायल का सिद्धांत यह दर्शाता है कि न्याय बिना किसी पक्षपात के किया गया है। एक फेयर न्यायाधीश के सामने मुकदमा चलाया गया और केस से संबंधित व्यक्तियों को केस में अपनी बात रखने का उचित अवसर दिया गया। यह आवश्यक नहीं है कि जिन केस में समाज ने न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाया है, आरोपी को हमेशा आरोपों का आरोप लगाया जाना चाहिए, एक सच्चा और फेयर न्याय यह होगा कि जहां आरोपी की गलती नहीं थी, उसे आरोपो से मुक्त किया जाए और उसे न्याय प्रदान किया जाए।

आरोपी और समाज के बीच हमेशा हितों का टकराव होता है, हालांकि ऐसी स्थितियों में न्यायाधीश को हमेशा केस में अपने तर्क को लागू करना चाहिए और उसके अनुसार निर्णय लेना चाहिए। फेयर ट्रायल की अवधारणा एक बहुत व्यापक (वाइड) और व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) अवधारणा है और इसे कानूनी व्यवस्था में वर्णित विभिन्न कानूनों और फैसलों तक सीमित नहीं किया जा सकता है, प्रत्येक व्यक्ति को फेयर ट्रायल का अधिकार है जो दिन-ब-दिन बदलता है और न्यायालयों ने आयामों (डाइमेंशन्स) को भी बढ़ाया है जो फेयर ट्रायल की अवधारणा से संबंधित है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

इसलिए, संक्षेप में, इस लेख में ‘ट्रायल’ की अवधारणा से संबंधित महत्वपूर्ण पहलुओं को शामिल किया गया है, जो कानून से संबंधित व्यक्ति के लिए सीखना और जानना काफी आवश्यक है। भारत में, क्रिमिनल सिस्टम  व्यवस्था ने विभिन्न अपराधों, दंडों में भारी बदलाव देखा है और जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, अधिक से अधिक अवधारणाओं का पता लगाया जाएगा और निश्चित रूप से इसमें जोड़ा जाएगा।

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