मथुरा रेप केस से निर्भया रेप केस तक का सफर: भारत में रेप से सम्बंधित कानून

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1944
Indian Penal Code
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यह लेख, दिल्ली यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ लॉ से  Subiya Masood द्वारा लिखा गया है। इस लेख में वह मथुरा रेप केस और निर्भया रेप केस का विश्लेषण (एनालिसिस) करती है और भारत में इन 2 प्रमुख रेप केसेस की समय-सीमा के बीच लेजिस्लेचर द्वारा, रेप  कानूनों में किए गए परिवर्तनों और अमेंडमेंट्स के बारे में लिखती है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

अपने गौरवशाली (ग्लोरियस) कानूनी इतिहास में, भारत कई ऐतिहासिक निर्णयों का गवाह रहा है और  इन निर्णयों के द्वारा  कई नए लेजिस्लेशन आए ये जो पहले नहीं थे। उदाहरण के लिए:

इसके अलावा और भी बहुत सारे केस है। मथुरा रेप केस और निर्भया रेप केस निश्चित रूप से ऐसे ही अनोखे केसेस में से एक थे।

मथुरा रेप केस

तुका राम और अन्य बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, जिसे आमतौर पर मथुरा रेप केस के नाम से भी जाना जाता है, यह केस राष्ट्रीय-स्तर (नेशनल लेवल) के मुद्दों में से ऐसा एक केस था जिसने, महिलाओं के समूहों (ग्रुप) को एक साथ आने और आवाज उठाने पर मजबूर कर दिया। यह केस नए लेजिस्लेशंस को अस्तित्व में लाया जो पहले नहीं थे। इस केस का फैसला देने वाली बेंच में, जस्टिस पी.एस. कैलाशम, ए.डी. कोशल, और जसवंत सिंह थे। बेंच के फैसले की अत्यधिक आलोचना (क्रिटिसिज्म) और निंदा की गई और इस तरह देश के कानूनों के खिलाफ भारी जन आक्रोश (आउटक्राइ) और विरोध हुआ और इस दिन को महिला सशक्तिकरण (एंपावरमेंट) के इतिहास में काला दिन माना गया।

केस के तथ्य

इस केस में जिस लड़की के साथ रेप हुआ है वह मथुरा की थी और उसके माता-पिता की मृत्यु तब हो गई थी जब वह बच्ची थीऔर वह अपने भाई गामा के साथ रहती थी। अपने लिए जीविका कमाने के लिए दोनों मजदूरी का काम करते थे। मथुरा काम के लिए नुंशी के घर जाती थी और काम के दौरान वह अशोक के संपर्क में आ गई, जो नुंशी की बहन का बेटा था। उसने अशोक के साथ यौन संबंध बनाए और उसके बाद उन्होंने शादी करने का फैसला किया। 26 मार्च 1972 को मथुरा के भाई गामा द्वारा एक शिकायत दर्ज कराई गई, जिसमें आरोप लगाया गया कि मथुरा का अपहरण, नुंशी, उनके पति लक्ष्मण और अशोक ने कर लिया था। मथुरा के साथ तीनों को थाने लाया गया और बयान दर्ज किए गए।

बयान देने के बाद मथुरा, नुंशी और गामा के साथ पुलिस स्टेशन के बाहर जाने लगे,  लेकिन उसी वक्त, पहले अपीलकर्ता (अपीलेंट) गणपत ने नुंशी और गामा को बाहर जाने का निर्देश दिया और मथुरा को पुलिस स्टेशन में इंतजार करने के लिए कहा। इसके तुरंत बाद, गणपत, मथुरा को लू में ले गया और उसके विरोध और कड़े प्रतिरोध (रेजिस्टेंस) के बावजूद उसका रेप किया। अपनी वासना को संतुष्ट करने के बाद वह चला गया और अन्य अपीलकर्ता तुकाराम ने आकर मथुरा के निजी अंगो के साथ छेड़-छाड़ की और वह उसके साथ रेप भी करना चाहता था लेकिन ऐसा करने में असफल रहा क्योंकि वह अत्यधिक नशे में था।

थाने के बाहर स्वाभाविक चिंता थी क्योंकि बत्तियां बंद थीं और दरवाजे बंद थे। भीड़ को हटाने के लिए, तुकाराम बहार आये और उन्होंने कहा की मथुरा पहले ही जा चुका है, लेकिन उसके आश्चर्य के लिए, मथुरा किसी न किसी तरह दरवाजे तक पहुंची और चिल्लाई कि गणपत ने उसके साथ रेप किया है।

डॉक्टर्स ने मथुरा की जांच की। उसे कोई चोट नहीं आई थी। उसके हाइमन के पहले से टूटने का पता चला। शारीरिक परीक्षण के अन्य पहलुओं से पता चला कि उसने अतीत में संभोग (इंटरकोर्स) किया था। उसके कपड़ों पर और गणपत के पायजामा पर भी स्खलन (इजेक्युलेट) की उपस्थिति का पता चला था।

सेशंस कोर्ट

सभी को आश्चर्यचकित करते हुए, सेशंस कोर्ट ने पाया कि आरोपी को दोषी ठहराने के लिए सबूत पर्याप्त नहीं है। और उन्होंने यह माना कि मथुरा ने गणपत के साथ संभोग किया था। अत: डिस्ट्रिक्ट जज ने अपीलार्थी को बरी कर दिया।

हाई कोर्ट 

सेशंस कोर्ट के फैसले को मुंबई हाई कोर्ट ने पलट दिया और तुकाराम को एक साल और गणपत को पांच साल की कठोर कारावास की सजा सुनाई। सजा बदलने का आधार यह था कि वह दोनों पुरुष मथुरा के लिए अजनबी थे, इसलिए यहां बहुत कम संभावना थी कि मथुरा आरोपी को अपनी यौन इच्छाओं को पूरा करने के लिए आमंत्रित करेगी। हाई कोर्ट का विचार यह था कि पुलिस कर्मियों ने इस तथ्य का फायदा उठाया कि मथुरा उसके भाई द्वारा दर्ज़ एक शिकायत में शामिल थी, और वह रात में थाने में अकेली थी। यहाँ, यह अच्छी तरह से सिद्ध किया जा सकता है कि उसने किसी भी संभावना में संभोग के लिए सहमत नहीं दी होगी।

स्पेश्ल लीव

अपीलकर्ता ने स्पेश्ल लीव की अपील में तर्क दिया कि:

  • यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि लड़की को किसी डर का शिकार होना पड़ा था या वह किसी मजबूरी में थी क्योंकि लड़की की सहमति की प्रकृति के बारे में कोई प्रत्यक्ष (डाइरेक्ट) प्रमाण नहीं है।
  • कथित संभोग शांतिपूर्ण था और कोई प्रतिरोध नहीं था।
  • लड़की के चिल्लाने का दावा भी झूठा है।

अपील की अनुमति देते हुए, कोर्ट ने कहा:

इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 375 के तहत केवल “चोट या मौत का डर” संभोग के लिए ही नहीं होता। ऐसी कोई खोज साबित नहीं हुई थी। जहां तुकाराम का सवाल है, मथुरा ने अपने बयान में उन्हें और अधिक गंभीर बातें बताईं और बाद में इन कृत्यों के लिए गणपत को दोषी ठहराया गया। 

अपीलकर्ताओं को यह कहते हुए बरी कर दिया गया कि यह कथित संभोग एक “शांतिपूर्ण मामला” था।

परिणाम (आफ्टरमथ)

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भारी जन आक्रोश और कानूनों और अदालत द्वारा दिए गए फैसले के खिलाफ विरोध किया गया।

  • केस की सुनवाई के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के कानून के प्रोफेसरों द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा गया था। निर्णय की अवधारणा (कांसेप्ट) का प्रोफेसरों द्वारा विरोध किया गया था।
  • फैसले के परिणामस्वरूप, दिल्ली में सहेली समूह सहित कई महिला समूहों का गठन हुआ था। रेप के खिलाफ भारत में पहली बार नारीवादी (फेमिनिस्ट) समूह, ‘रेप  के खिलाफ फोरम’ के नाम से बनाया गया था जिसका नाम बाद में बदलकर ‘महिलाओं के उत्पीड़न के खिलाफ फोरम’ कर दिया गया, इस फोरम ने एक राष्ट्रीय सम्मेलन (कांफ्रेंस) करने के लिए कहा, जिसमें कानूनी सुधारों के लिए कई विवाद हुए।
  • अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद और नागपुर सहित विभिन्न राज्यों की महिलाएं सड़कों पर उतरीं।

हालाँकि, जनता के आक्रोश के परिणामस्वरूप 1983 में, क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट पास किया गया।

कानूनी सुधार: द क्रिमिनल लॉ (सेकंड) अमेंडमेंट एक्ट, 1983

  1. 25 दिसंबर, 1983 को, इंडियन एविडेंस एक्ट के सेक्शन 114(A)  का वैधानिक (स्टेट्यूटरी) प्रावधान किया गया था, जिसमें कहा गया था कि अगर पीड़िता कहती है कि उसने संभोग के लिए सहमति नहीं दी तो अदालत उसे मान लेगी।
  2. सेक्शन 376(A), 376(B), 376(C), 376(D) को आई.पी.सी. के सेक्शन 376 (इंडियन पीनल कोड के तहत रेप की सजा) में अधिनियमित (इनेक्टेड) किया और जोड़ा गया, जिसकी वजह से इस सेक्शन में यह बदलाव आया की इस सेक्शन के तहत कस्टोडियल रेप को दंडनीय बना दिया गया। (इस कानून को निर्भया कांड के बाद 2013 में और अमेंड किया गया था)।
  3. इसके अलावा, सबूत का बोझ (बर्डन ऑफ़ प्रूफ) पीड़ित से अपराधी पर डाल दिया गया, और इसमें इन-कैमरा ट्रायल, पीड़ित की पहचान पर प्रतिबंध (रेस्ट्रिक्शन) और सख्त सजा के प्रावधान भी शामिल थे।

इस केस ने महिलाओं के कानूनी अधिकारों के मुद्दों, उत्पीड़न और पितृसत्तात्मक (पैट्रिआर्किअल) मानसिकता (माइंडसेट) के बारे में अधिक जागरूकता पैदा की और इसलिए यह, भारत में महिला अधिकार आंदोलन में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।

निर्भया रेप केस

एक फिजियोथेरेपिस्ट, जिन्हें निर्भया के नाम से जाना गया, के साथ दक्षिण दिल्ली में चलती बस के अंदर छह लोगों ने गैंग रेप किया, जिन्होंने पहले गंभीर रूप से उस पर हमला किया और फिर उसको सड़क पर फेंक दिया, जिसकी वजह से निर्भया ने 29 दिसंबर को सिंगापुर के माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में अपना दम तोड़ दिया।

निडर ‘निर्भया’

आई.पी.सी. का सेक्शन 228A(2) पीड़िता की पहचान उजागर करने के लिए मीडिया पर पूरी तरह से रोक लगाता है। इस कारण से, विभिन्न पब्लिकेशंस ने उन्हें अलग-अलग नाम दिए, जिनमें से ‘निर्भया’ जिसका अर्थ है ‘निडर’ व्यापक (वाइडली) रूप से इस्तेमाल किया गया था।

केस के तथ्य और निर्णय

16, दिसंबर 2012 की रात को सिनेमाघर से लौटते समय, निर्भया और उनके दोस्त, मुनिरका बस स्टैंड पर एक ऑफ-ड्यूटी चार्टर बस में सवार हुए, जहाँ बस में अन्य पाँच पुरुष यात्री थे। थोड़ी देर बाद, बस चालक ने बस को गलत दिशा में मोड़ा, और यात्रियों का नाटक कर रहे लोगों ने बस का दरवाजा बंद कर दिया। इस कार्य का विरोध करने पर निर्भया के दोस्त, पांड्या को अन्य पांच लोगों ने बंद कर दिया और वे निर्भया के साथ छेड़छाड़ करने लगे। पांड्या ने निर्भया को बचाने की कोशिश की लेकिन आरोपियों ने उन्हें रॉड से पीटा और उसके बाद वे निर्भया को खींचकर बस के पीछे ले गए और एक घंटे से अधिक समय तक उसका रेप किया। जैसे ही उसने हमलावरों के चंगुल से निकलने की कोशिश की,  हमलावरों में से एक ने, जो किशोर (ज्यूवेनाइल) था,   उसके गुप्तांगों में रॉड डाली जिससे उसकी आंतों को बहुत नुकसान पहुंचा, और जब तक वो लोग उसके साथ ये दुष्कर्म कर रहे थे तब तक बस चालक पूरी दिल्ली में बस घुमा रहा था।

हमले के बाद निर्भया को उसके दोस्त के साथ सड़क के किनारे मरने के लिए, बस से बाहर फेंक दिया गया। दिल्ली पुलिस को सूचना देने वाले राहगीर ने दोनों को अधमरा पाया। उसे और उसके दोस्त को जल्दी से अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने पाया कि उसकी आंतें बाहर आ गयी थी और उसके शरीर के अंदर केवल 5 प्रतिशत आंतें बची थीं और डॉक्टरों द्वारा उसकी जान बचाने के सभी प्रयासों के बाद, उसने 29 दिसंबर, 2012 को दम तोड़ दिया। उसने मरने से पहले पुलिस को बताया कि वह छह हमलावरों के खिलाफ न्याय चाहती है।

सभी आरोपियों को गिरफ्तार किया गया और उन पर हत्या और यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया गया। 11 मार्च, 2013 को तिहाड़ जेल में आत्महत्या से एक आरोपी की पुलिस कस्टडी में ही मौत हो गई। किशोर को रिफॉर्मेटरी सेंटर भेजा गया था और उसे रिफॉर्म फैसिलिटी में तीन साल के कारावास की सजा सुनाई गई थी। 4 अन्य शेष प्रतिवादी (डिफेंडेंट) को मौत की सजा सुनाई गई क्योंकि उन्हें रेप और हत्या का दोषी पाया गया था। 2014 में, दोषियों ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली, जिसने उनकी फांसी पर रोक लगा दी। 5 मई, 2017 को, चारों दोषियों की मौत की सजा को बरकरार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “यह केस रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर केस है और हम न्याय सुनिश्चित करने के लिए अत्यधिक सजा देने के लिए मजबूर हैं”

परिणाम (आफ्टरमथ)

इस घटना के बाद पूरे देश में विरोध और प्रदर्शन हुआ। परिणामस्वरूप दो कमेटी का गठन किया गया:  जस्टिस वर्मा कमेटी और उषा मेहरा कमेटी। कानून में विभिन्न महत्वपूर्ण और प्रक्रियात्मक (प्रोसीज़रल) परिवर्तनों के परिणामस्वरूप समिति के प्रस्तावित कानूनी सुधारों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट लाई गई।

  1. आई.पी.सी. के सेक्शन 375 का दायरा बढ़ा दिया गया था, अब इसमें ओरल, वैजिनल, और एनल के सभी प्रकार शामिल होते हैं जो महिलाओं की गरिमा (डिग्निटी) का उल्लंघन करते हैं।
  2. गैंग रेप के लिए सजा को शामिल किया गया जो अपराधी को 20 साल की सजा देता है जो जीवन भर तक के लिए बढ़ सकता है।
  3. सेक्शन 376A में कम से कम 20  साल के कारावास की कठोर सजा, या अगर रेप से महिला की मृत्यु होती है या यदि महिलाओं को वेजिटेटिव स्थिति में छोड़ दिया जाता है, तो आजीवन कारावास या मृत्यु की सजा का प्रावधान किया गया।
  4. 376E ने बार-बार अपराध करने वाले अपराधियों को सजा की अनुमति दी, यदि उन्हें बाद में 376A और 376D के तहत अपराधों के लिए दोषी ठहराया जाता है, जिसमें अपराधियों को आजीवन कारावास या मृत्यु तक की सजा दी जाएगी।
  5. आई.पी.सी. के सेक्शन 376(1) और 376(2) को हटा दिया गया जिसके तहत अदालतों को सजा कम करने की अनुमति होती थी।
  6. आई.पी.सी. में सेक्शन 166A पेश की गई थी जो ऐसे लोक सेवकों को दंडित करती है जो ऐसी जानकारी दर्ज करने में विफल रहते हैं।
  7. इसके अलावा, आई.पी.सी. के सेक्शन 166 B ने अस्पतालों के लिए रेप पीड़िता का इलाज करना अनिवार्य कर दिया।
  8. क्रिमिनल अमेंडमेंट ने, वोयरिज्म, महिलाओं के कपड़े उतारना, पीछा करना और अपनी इच्छा से तेजाब फेंकना विभिन्न सेक्शंस के तहत दंडनीय बना दिया।

दोनो कानूनों के बीच की महत्वपूर्ण तुलना

अब के कानूनों की पहले से मौजूद कानूनों के साथ तुलना करने पर काफी बदलाव दिखाई देता है। नए मूल्यों और तकनीको के साथ समय-समय पर सामाजिक विचार बदलते हैं और उसी तरह कानून भी समय-समय पर बदलते रहते हैं। मथुरा रेप केस, निर्भया रपे केस, अरुणा शानबग केस, प्रिया पटेल रेप केस आदि जैसे प्रमुख रेप केसेस ने इन सभी मामलों में सुधार और व्याख्या द्वारा, मौजूदा रेप कानूनों में बदलाव किये हैं।

चूंकि देश में पर्सनल प्राइवेसी के लिए खतरा बढ़ गया था, क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऑर्डिनेंस को क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट (2013) द्वारा बदल दिया गया। जो समय के साथ आई.पी.सी. और सी.आर.पी.सी. में बदलाव करने के लिए अनिवार्य था, कुछ अपराधों को आई.पी.सी. में शामिल किया गया था। वोयरिज्म एक ऐसा अपराध है जिसे आई.पी.सी. में शामिल किया गया था। एक ‘वोयर’ को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो दूसरों के गुप्त अवलोकन (ऑब्ज़र्वेशन) से यौन संतुष्टि प्राप्त करता है क्योंकि वे कपड़े उतारते या यौन गतिविधियों में संलग्न (इंगेज) होते हैं

इंडियन एविडेंस एक्ट के सेक्शन114 A के प्रावधान एक अन्य महत्वपूर्ण अमेंडमेंट था। महिलाओं के चरित्र की रक्षा के लिए यह कदम उठाया गया था। इस प्रकार इंडियन एविडेंस एक्ट में सेक्शन 53A को पेश किया गया, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि यौन उत्पीड़न और रेप के मामलों में अदालत पीड़िता के पिछले यौन अनुभव या उसके चरित्र से संबंधित सबूतों को ध्यान में नहीं रखेगी। इतने सख्त कानूनों के बाद भी समाज में महिलाओं का चरित्र हनन (एसएससीनेशन) आज तक जारी है।

अंत में और बहुत महत्वपूर्ण बात यह है कि द सेक्शुअल हर्रेसमेंट एट वर्कप्लेस एक्ट, 2013 के अलावा इंडियन पीनल कोड में सेक्शन 354 के तहत अमेंडमेंट ने रेप की परिभाषा को बढ़ाया है।

निष्कर्ष (कन्क्लूज़न)

रेप कानूनों में विकास एक लंबा सफर तय कर चुका है, लेकिन अभी भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें संबोधित (एड्रेस) करने की आवश्यकता है जैसे कि आई.पी.सी. के अनुसार जेंडर न्यूट्रैलिटी जिसके तहत एक पुरुष रेप का शिकार नहीं हो सकता और वैवाहिक रेप की अवधारणा, आदि। कानून गतिशील (डाइनेमिक) हैं वे समय के साथ बदलते हैं लेकिन रेप कानूनों के साथ, प्रमुख चिंता यह है कि कानून में अमेंडमेंट तभी होता है जब हम में से कोई पीड़ित होता है, इसलिए यह जरूरी है कि रेप कानून अपनी सभी गतिशीलता में काम करें और आवश्यक परिवर्तन किए जाएं।

संदर्भ (रेफरेन्सेस)

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