यह लेख पैरालीगल एसोसिएट डिप्लोमा कर रहे Siddiqua Abdullah द्वारा लिखा गया है और इसे Oishika Banerji (टीम लॉसीखो) द्वारा संपादित (एडिट) किया गया है। इस लेख में लोकस स्टैंडी के सिद्धांत पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।
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परिचय
लोकस स्टैंडी का सिद्धांत एक बहुत पुराना सिद्धांत है। यह सिद्धांत किसी दिए गए प्रश्न पर अदालत के समक्ष या किसी के समक्ष उपस्थित होने का प्रतीक है। लोकस स्टैंडी के सिद्धांत के अनुसार, किसी विवादित मामले के लिए अपरिचित व्यक्ति को न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। केवल एक व्यक्ति जिसके कानूनी अधिकार का उल्लंघन किया गया है, यानी पीड़ित व्यक्ति जिसके खिलाफ फैसला सुनाया गया है, को ही अदालत में कार्रवाई करने की अनुमति है। लैटिन शब्द लोकस (बहुवचन लोकी) “स्थान” को दर्शाता है। “लोकस स्टैंडी” “प्लेस टू स्टैंड” के लिए एक लैटिन वाक्यांश है और यह एक मुकदमा दायर करने के निहित कानूनी अधिकार को संदर्भित करता है जो एक पक्ष को कानून की अदालत के सामने जा कर, जिस कानून या कार्रवाई को चुनौती दी गई है, उसके संबंध में अपना पक्ष स्थापित करने और उसको हुए परिणामी नुकसान, के कारण मामले में उसकी भागीदारी को सही ठहराने का अधिकार देता हैं। यह संयुक्त राज्य अमेरिका का सर्वोच्च न्यायालय है जिसने सही पुष्टि की है कि इस सिद्धांत का सार इस प्रश्न में निहित है कि क्या वादी के मामले के आधार पर उसके पास इतना अधिकार है कि अदालत उसके मामले के बुनियादी तथ्य निर्धारित करे या केवल उससे जुड़े विशिष्ट मुद्दों का ही निर्धारण करे। यह लेख लेखक को लोकस स्टैंडी के सिद्धांत के बारे में एक विचार प्रदान करता है और कुछ उदाहरणों का जिक्र किया गाय है जो इस अवधारणा को बढ़ाते हैं।
लोकस स्टैंडी की आवश्यकताएं
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 7 नियम 11 के तहत जो आवश्यकताएं निर्धारित की गई है, उसे नीचे लिखा गया है:
क्षति की उपस्थिति
यह ध्यान रखना आवश्यक है कि एक मुकदमे की स्थापना के लिए मूलभूत आवश्यकता में वह व्यक्ति शामिल है जो किसी प्रकार की चोट से पीड़ित है। यह चोट निजी पक्षों या राज्य द्वारा किए गए कार्य का परिणाम हो सकती है। यह उल्लेख करना उल्लेखनीय है कि हम जिस चोट के बारे में बात कर रहे हैं वह अपनी प्रकृति से या तो वास्तविक या पूर्वानुमानित (एंटीसिपेटरी) हो सकती है।
शांति कुमार बनाम होम इंश्योरेंस कंपनी (1975) के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि “पीड़ित व्यक्ति” शब्द का अर्थ उस व्यक्ति से नहीं है जिसे कोई काल्पनिक चोट लगी है, बल्कि इसका मतलब है कि व्यक्ति के अधिकार का वास्तविकता में प्रतिकूल रूप से उल्लंघन किया गया है। इसका अर्थ है कि चोट शारीरिक, मानसिक, मौद्रिक आदि होनी चाहिए और न कि केवल एक कल्पना होनी चाहिए।
परंपरागत रूप से लोकस स्टैंडी के कठोर दृष्टिकोण का पालन किया गया था और जिसके अनुसार केवल वही व्यक्ति अदालत में कार्रवाई कर सकता था जिसका मामले में कोई सीधा हित था। लेकिन 20वीं शताब्दी में, लोकस स्टैंडी का एक समानांतर दृष्टिकोण सामने आया जो कि लोकस स्टैंडी की छूट है।
करणीय संबंध (कॉजेशन)
सीधे शब्दों में कहें तो ‘करणीय संबंध’ शब्द कारण और प्रभाव संबंध को दर्शाता है। इसका मतलब यह है कि एक पीड़ित पक्ष को लगी चोट और दूसरे पक्ष के कार्य के बीच पर्याप्त संबंध की उपस्थिति होनी चाहिए। इस घटक के पीछे का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि परिणामी क्षति को प्रतिवादी से संबंधित कार्रवाई के कारण वापस खोजा जा सकता है। घटक यह भी सुनिश्चित करता है कि चोट किसी स्वतंत्र या तीसरे पक्ष के कारण नहीं हुई है, तब करणीय संबंध स्थापित करना मुश्किल होगा।
लोकस स्टैंडी के सिद्धांत के अपवाद (एक्सेप्शन)
जनहित याचिका (पीआईएल) के संबंध में लोकस स्टैंडी
लोकस स्टैंडी के संबंध में जनहित याचिका के मामलों में परिदृश्य निजी मुकदमेबाजी से जुड़ी स्थितियों की तुलना में कम जटिल प्रतीत होता है। न्यायालयों ने जनहित याचिका के मामलों में लोकस स्टैंडी के पहलू को नियंत्रित करने के लिए एक सरल, अधिक लचीला और व्यापक नियम लाने में योगदान दिया है। जनहित याचिका के मामलों में लोकस स्टैंडी जन कल्याण पर आधारित है, जिससे समुदाय, वंचित समूहों और व्यक्तियों, या सार्वजनिक हित को आगे बढ़ाने के लिए संविधान के मूल सिद्धांतों का पालन किया जाता है।
एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1982) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि भारत में बड़ी संख्या में लोगों का शोषण किया जाता है और वे अपने कानूनी अधिकारों से अनभिज्ञ (इग्नोरेंट) हैं। देश के ये कमजोर वर्ग न्यायिक उपचार के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने की स्थिति में नहीं हैं। इसलिए इन लोगों को न्याय दिलाने के लिए लोकस स्टैंडी के सिद्धांत में ढील दी जानी चाहिए। इसने आगे कहा कि जब भी किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के वर्ग के कानूनी अधिकारों का उल्लंघन होता है और किसी भी कारण से वे अदालत का दरवाजा नहीं खटखटा सकते हैं, तो कोई भी जनहितैषी (स्पिरिटेड) व्यक्ति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 और 32 के तहत उनकी ओर से उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में क्रमशः याचिका दायर कर सकता है।
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि अधिवक्ता और न्यायाधीश न्याय व्यवस्था का अहम हिस्सा हैं। और जैसा कि कानून मंत्री के पत्र ने भारतीय संविधान की एक आवश्यक विशेषता का उल्लंघन किया था, अधिवक्ताओं की इस मामले में रुचि थी और इस प्रकार, उनके पास लोकस स्टैंडी भी थी। इसका अर्थ यह भी है कि प्रत्येक भारतीय नागरिक को संसद द्वारा पारित कानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने का अधिकार है क्योंकि भारतीय संविधान उसके सभी नागरिकों का है (यह भारतीय संविधान की प्रस्तावना (प्रिएंबल) में वर्णित है)।
यह अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ (1980) के मामले में था, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि हालांकि अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ (रेलवे) एक अपंजीकृत (अनरजिस्टर्ड) संघ था, यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत एक रिट याचिका दायर करने के लिए पात्र था- ताकि वह एक लोकप्रिय शिकायत का निवारण पा सके। न्यायालय ने आगे कहा था कि संवैधानिक न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) वर्ग कार्यों, जनहित याचिका और प्रतिनिधि कार्यवाही के माध्यम से न्याय तक पहुंच प्रदान करता है।
विधान संवैधानिकता
यह नोट करना आदर्श है कि जब कानून की संवैधानिकता के मुद्दे की बात आती है तो लोकस स्टैंडी के सिद्धांत को अक्सर शिथिल (रिलैक्स) किया जाता है। भारतीय संदर्भ में, वैधानिक वैधता को उसकी कार्यक्षमता को प्रभावित किए बिना अदालत के समक्ष चुनौती दी जा सकती है।
चरण लाल साहू और अन्य बनाम ज्ञानी जैल सिंह (1984), के मामले में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति अधिनियम, 1952 के अनुसार राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव को चुनौती देने के संबंध में प्रश्न उठाया गया था। यह 1982 में राष्ट्रपति के चुनाव से संबंधित है जिसके लिए याचिकाकर्ता चरण लाल साहू सहित 36 नामांकन दाखिल किए गए थे। चूंकि 34 उम्मीदवारों के दस्तावेज सही नहीं थे, इसलिए रिटर्निंग ऑफिसर ने उनका नामांकन खारिज कर दिया। जिन दो उम्मीदवारों को खारिज नहीं किया गया था, वे थे जैल सिंह और एचआर खन्ना (सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त (रिटायर्ड) न्यायाधीश)।
12 जुलाई 1982 को जैल सिंह भारत के राष्ट्रपति बने। चूंकि चरण लाल का नामांकन रद्द कर दिया गया था और इस तरह वह चुनाव नहीं लड़ सके थे। चुनाव समाप्त होने के बाद, उन्होंने इस आधार पर चुनाव को चुनौती दी कि जैल सिंह ने मतदाताओं पर अनुचित प्रभाव डाला था। साहू ने यह भी आरोप लगाया कि एचआर खन्ना सक्षम नहीं थे क्योंकि उन्होंने मौलिक अधिकारों के मामलों पर गलत फैसले दिए थे। अटॉर्नी जनरल ने भारत के राष्ट्रपति का प्रतिनिधित्व किया और चरण लाल के अधिकार को चुनौती दी। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति अधिनियम, 1952 की धारा 14A के अनुसार राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव को केवल चुनाव के उम्मीदवारों द्वारा ही चुनौती दी जा सकती है। और अधिनियम की धारा 13(1) कहती है कि एक उम्मीदवार वह है जिसे एक चुनाव में एक उम्मीदवार के रूप में नामित किया गया है। इसलिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि चूंकि याचिकाकर्ता को राष्ट्रपति चुनाव में एक उम्मीदवार के रूप में नामित नहीं किया गया था, इसलिए उसका कोई अधिकार नहीं था और इसलिए उसकी याचिका खारिज कर दी गई थी।
मौजूदा कानूनों द्वारा निर्धारित उपचार
ऐसे क़ानून हो सकते हैं जो स्पष्ट रूप से लोकस स्टैंडी की कठोर आवश्यकता को शिथिल करते हैं। कोई व्यक्ति “पीड़ित हुआ व्यक्ति” या “पीड़ित व्यक्ति” जैसे वाक्यांशों के उपयोग से इस तरह की छूट को पहचान सकता है। हालाँकि, अंतिम निर्णय कानून की अदालत द्वारा किया जाता है जो उसके सामने आने वाले विवाद से संपर्क करती है। वाक्यांश ‘पीड़ित व्यक्ति’ एक भिन्न दायरे को प्रदर्शित करता है और इसमें न केवल उस व्यक्ति को शामिल किया जाता है जिसे वास्तव में नुकसान हुआ है बल्कि वे लोग भी शामिल हैं जिन्हें भविष्य में नुकसान होने की आशंका है। सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन (1980) का मामला इस मामले में एक संदर्भ की आवश्यकता है।
इस मामले में सुनील बत्रा तिहाड़ जेल में बंद थे। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने उल्लेख किया कि जेल वार्डन एक अन्य कैदी यानी प्रेम चंद जिसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, को बेरहमी से मार रहा था। वार्डन ने प्रेम पर इसलिए हमला किया ताकि वह अपने रिश्तेदारों से पैसे ऐंठ सके। एक दिन वार्डन द्वारा लोहे की रॉड से मारने से प्रेमचंद गंभीर रूप से घायल हो गया। इस प्रकार, चंद का इलाज जेल के डॉक्टर ने किया लेकिन जब उसकी हालत बिगड़ी तो उसे अस्पताल में स्थानांतरित (ट्रांसफर) कर दिया गया। तो, इस मामले में यह सवाल उठा कि क्या एक पत्र को रिट याचिका माना जा सकता है या नहीं। इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय ने बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) रिट के दायरे को बढ़ा दिया जिसमें जेल में चल रही सभी प्रकार की गलत प्रथाओं को शामिल किया गया था। और इसलिए पत्र को एक रिट याचिका में बदल दिया गया। इस मामले के बाद निम्नलिखित सुधार किए गए:
- प्रावधान किए गए ताकि कैदियों को उनके कानूनी अधिकारों के बारे में पता चल सके।
- बंदियों की शिकायत दर्ज कराने के संबंध में प्रावधान किया गया था। प्रत्येक जेल में एक रजिस्टर रखा जाए ताकि कैदी अपनी शिकायत दर्ज करा सकें।
- न्यायालय द्वारा नियुक्त अधिवक्ताओं के साथ कैदियों के गोपनीय साक्षात्कार की व्यवस्था की गई।
- सत्र न्यायाधीशों को भी बंदियों से पूछताछ करने के लिए समय-समय पर जेलों का दौरा करना पड़ता था, ताकि जब भी आवश्यक हो वे इसके खिलाफ कार्रवाई कर सकें।
निष्कर्ष
इन सभी वर्षों में, लोकस स्टैंडी का सिद्धांत काफी हद तक विकसित हुआ है। पारंपरिक अवधारणा कि केवल व्यथित व्यक्ति ही अदालत में वाद ला सकते हैं, ने कई लोगों को न्याय से वंचित कर दिया। इसलिए अब कठोर नजरिए में ढील दी गई है ताकि कमजोर वर्ग के लोगों को भी न्याय मिल सके। इसका मतलब है कि कोई भी व्यक्ति जो नेक नीयत से काम कर रहा है, अदालत में मुकदमा दायर कर सकता है। लोकस स्टैंडी के सिद्धांत में यह छूट न्यायिक सक्रियता (एक्टिविज्म) का परिणाम है। हमारी न्यायिक प्रणाली का मुख्य उद्देश्य समाज में न्याय को बनाए रखना है और इस कारण से 1970 के दशक में भारत में जनहित याचिका अस्तित्व में आई और लोकस स्टैंडी जनहित याचिका का एक अभिन्न अंग है। लोकस स्टैंडी की छूट ने जनहित याचिका को बढ़ावा दिया है और इससे न्याय प्रशासन में एक क्रांति हुई है। लेकिन इस छूट के कारण लोकस स्टैंडी के सिद्धांत का दुरुपयोग होता है जिससे अदालतों में तुच्छ मामले बढ़ते है। इसलिए, अदालतों को किसी मामले को स्वीकार करते समय सतर्क रहना चाहिए ताकि लोकस स्टैंडी के सिद्धांत का कोई दुरुपयोग न हो।
संदर्भ