धोखाधड़ी और गलत बयानी के बीच अंतर

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Indian Contract Act

यह लेख विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज, दिल्ली की छात्रा Jaya Jha द्वारा लिखा गया है। यह लेख धोखाधड़ी (फ्रॉड) और गलत बयानी (मिसरिप्रेजेंटेशन) और उनके विभिन्न घटकों (कंपोनेंटस) के बीच अंतर के तुलनात्मक विश्लेषण (कंपारिटिव एनालिसिस) से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय

आज के समय में जहां एक अनुबंध किसी भी व्यवसाय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है, गलत बयानी और धोखाधड़ी कॉर्पोरेट लेनदेन जहां महत्वपूर्ण संचार (कम्युनिकेशन) अक्सर होते रहते है में महत्वपूर्ण हो गई है। किसी समझौते से जुड़े मूल्य और/ या जोखिम की धोखाधड़ी और गलत बयानी के परिणामस्वरूप संयुक्त उद्यमों (ज्वाइंट वेंचर्स) के जोखिम को बढ़ाते हुए, व्यक्तियों और निगमों दोनों के लिए महत्वपूर्ण वित्तीय (फाइनेंशियल) नुकसान को सामने ला सकता है। नतीजतन, न्यायसम्य (इक्विटी) बनाए रखने और लोगों और उद्यमों के बीच अनुबंध से जुड़े जोखिम को कम करने के लिए, अनुबंध कानून में गलत बयानी और धोखाधड़ी का होना आवश्यक है। धोखाधड़ी और गलत बयानी के बीच अंतर एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जो इस अवधारणा को समझते समय किसी के दिमाग में आता है; धोखाधड़ी एक भौतिक तथ्य (मैटेरियल फैक्ट) के जानबूझकर छिपाव को संदर्भित करता है, जबकि गलत बयानी एक वास्तविक प्रतिनिधित्व को संदर्भित करती है जो गलत है। धोखाधड़ी के विपरीत, जो एक पक्ष द्वारा इस आशय से दिया गया तथ्यात्मक कथन है कि इसे वास्तविक माना जाता है, गलत बयानी एक पक्ष द्वारा दिया गया एक गलत कथन है जो दूसरे पक्ष को अनुबंध में प्रवेश करने के लिए प्रेरित करता है। दुलारिया देवी बनाम जनार्दन सिंह (1990) के मामले में, इन दोनों के बीच अंतर करते हुए, अदालत ने कहा कि दस्तावेज़ की प्रकृति के रूप में धोखाधड़ी और गलत बयानी से प्राप्त समझौते के बीच स्पष्ट अंतर है। जबकि धोखाधड़ी एक शून्य लेनदेन है, गलत बयानी केवल शून्यकरणीय (वॉयडेबल) होता है।

धोखाधड़ी क्या है

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 17, धोखाधड़ी को परिभाषित करती है। धोखाधड़ी का अर्थ है लाभ या हानि के लिए बेईमानी से झूठा (असत्य या भ्रामक) प्रतिनिधित्व करना। ‘धोखाधड़ी’ शब्द में एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को धोखा देने के लिए की गई सभी गतिविधियाँ शामिल की जाती हैं। भाऊराव दगडू परालकर बनाम महाराष्ट्र राज्य (2005) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने धोखाधड़ी से संबंधित विस्तृत सामग्री का अवलोकन करते हुए कहा कि धोखाधड़ी को धोखा देने के उद्देश्य के रूप में परिभाषित किया गया है; यह अप्रासंगिक है कि क्या यह इरादा एक पक्ष के लिए व्यक्तिगत लाभ की उम्मीद से या दूसरे के प्रति खराब भावनाओं से उत्पन्न होता है। धोखाधड़ी के दो घटक (कंपोनेंट) होते हैं: छल और धोखा देने वाले व्यक्ति को नुकसान।

धारा 17 के अनुसार, धोखाधड़ी तब होती है जब एक पक्ष दूसरे पक्ष को निम्नलिखित बिंदुओं पर सहमत होने के लिए मना लेता है:

  1. यह नाटक करना की झूठा तथ्य सच है। (सजेस्टियो फाल्सी)
  2. जानकारी को सक्रिय (एक्टिव) रूप से छिपाना भले ही आप इसके बारे में पूरी तरह से सच जानते हों। (सप्रेसियो वेरी)
  3. वादे को पूरा करने के इरादे के बिना करना।
  4. धोखाधड़ी के उद्देश्य से किसी अन्य समान गतिविधि में शामिल होना।
  5. ऐसा कोई कार्य या चूक करना, जिसे कानून कपटपूर्ण घोषित करता है।

यह नाटक करना की झूठा तथ्य सच है (सजेस्टियो फाल्सी)

धारा 17(1) कहती है कि धोखाधड़ी के लिए यह आवश्यक है कि संबंधित व्यक्ति द्वारा अपनी बेईमानी के ज्ञान के साथ या इसकी सत्यता पर विश्वास किए बिना ही एक बयान दिया जाए। हालाँकि, जब कोई भौतिक दावा असत्य हो जाता है, तब भी एक प्रतिनिधित्व करने वाले की सत्यता या असत्यता के बारे में जानबूझकर अज्ञानता को असत्य होने के बराबर माना जाता है। यह नियम उन मामलों में भी लागू होता है जहां प्रतिनिधित्व करने वाले के पास यह विश्वास करने का कारण था कि उसका बयान गलत हो सकता है लेकिन उसने इसकी पुष्टि नहीं की।

मंडल नियंत्रक (डिवीजन कंट्रोलर) बनाम काशीनाथ जयराम रहाटे (1997) के मामले में, महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम के एक कर्मचारी ने सेवा में शामिल होने के दौरान घोषणा की कि उसकी जन्मतिथि 22-5-1929 है और उसने इस तथ्य को साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं दिया। निगम ने स्वयं उसके स्कूल छोड़ने के प्रमाण पत्र से पाया कि उसकी जन्मतिथि 15-2-1923 है और उसके बाद निगम ने उसे सेवा से हटा दिया। कर्मचारी ने श्रम न्यायालय (लेबर कोर्ट) के समक्ष दावा किया कि वह अधिवर्षिता (सुपरएनुएटेड) अवधि में ग्रेच्युटी का हकदार था। न्यायालय ने कहा कि वह उक्त अवधि के लिए ग्रेच्युटी का दावा करने का हकदार नहीं था, क्योंकि उसने गलत बयान दिया था।

सक्रिय छिपाव

धारा 17(2) सक्रिय रूप से तथ्य को छिपाने की बात करती है। जब एक पक्ष सक्रिय रूप से अनुबंध से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी को प्रकट करने के कर्तव्य के बावजूद छुपाता है, तो इसे सक्रिय छिपाव के रूप में जाना जाता है। उदाहरण के लिए, ‘A’ B की मृत्यु के बाद B की संपत्ति का उत्तराधिकारी होने का हकदार है। ‘C’ को ‘A’ से पहले यह जानकारी मिली और इस तरह उसने प्रयास किया कि जानकारी ‘A’ तक न पहुंचे और इस तरह ‘A’ को संपत्ति में अपना हित बेचने के लिए प्रेरित किया। यह तथ्यों का एक सक्रिय छिपाव है, और यह बिक्री विकल्प ‘A’ पर अमान्य है। जब तक यह अतिरिक्त रूप से निर्धारित नहीं किया जाता है कि सहमति कुछ धोखाधड़ी के उपयोग के माध्यम से प्राप्त की गई थी, कुछ सारहीन तथ्यों की साधारण चूक अपने आप में निरसन (रिवोकेशन) के अधिकार को जन्म नहीं देगी। “निष्क्रिय छिपाव” से अलग “सक्रिय छिपाव” है। निष्क्रिय छिपाव प्रासंगिक तथ्यों के बारे में केवल चुप रहना है। धोखाधड़ी एक भौतिक सत्य का सक्रिय रूप से छिपाना है; केवल कुछ मामलों को छोड़कर, जैसे, केवल चुप्पी धोखाधड़ी का गठन नहीं करती है। अधिनियम की धारा 17(2) यह स्पष्ट करती है कि भले ही चुप्पी अपने आप में धोखाधड़ी नहीं है, लेकिन यह उन परिस्थितियों में हो सकती है जहां एक व्यक्ति को बोलने का कर्तव्य है या जहां ऐसी चुप्पी भाषण के बराबर है।

पी. एल. राजू बनाम डॉ. नंदन सिंह (2005) के मामले में, एक व्यक्ति जिसकी भूमि पहले ही 1894 के भूमि अधिग्रहण (एक्विजिशन) अधिनियम के तहत अधिग्रहित कर ली गई थी, वह बिना तथ्य का खुलासा किए अपनी जमीन दूसरे पक्ष को बेच देता है। न्यायालय ने कहा कि चूंकि खरीदार उस संपत्ति पर लंबित मुकदमे से अनजान था, खरीदार विक्रेता से 6% ब्याज के साथ मूल राशि प्राप्त करने का हकदार है।

कब चुप्पी धोखाधड़ी के बराबर होती है

जब तक बोलने की आवश्यकता न हो या वह अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) के समकक्ष (इक्विवलेंट) न हो, केवल चुप रहना धोखाधड़ी नहीं होती है। इस कानून के दो नियम होते हैं। पहला, भले ही बाकी सारे कथन सही है, कुछ ज्ञात तथ्यों को छोड़ देना भ्रमित करने वाला हो सकता है। दूसरा, विपणन उत्पादों (मार्केटेड प्रोडक्ट्स) या इसी तरह के विशेष दोषों को प्रकट करने की आवश्यकता को व्यावसायिक उपयोग के लिए लगाया जा सकता है। जब तक प्रतिवादी को किसी निश्चित लेन-देन या व्यापार के विवरण को छिपाने की आवश्यकता नहीं होती है, तब तक केवल चुप्पी या तथ्यों का खुलासा करने में विफलता धोखाधड़ी नहीं होगी। इसलिए, जहां मामले की परिस्थितियां ऐसी हैं कि व्यक्ति का कर्तव्य दूसरे पक्ष को तथ्यों के बारे में बताना और सूचित करना है, लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं, या पक्ष की चुप्पी, अभिव्यक्ति के लिए तुलनीय है, उस व्यक्ति की चुप्पी अकेले धोखाधड़ी का गठन करती है। अनुबंध के दूसरे पक्ष को धोखा दिया गया माना जाता है, और परिणामस्वरूप, उसे इससे नुकसान होता है।

श्री कृष्ण बनाम कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय (1975) के मामले में, ‘S’, एलएलबी भाग I परीक्षा के लिए एक उम्मीदवार था, जिसकी उपस्थिति (अटेंडेंस) की आवश्यक संख्या में कमी थी, और वह फॉर्म पर उस जानकारी का खुलासा करने में विफल रहा था। विधि विभाग के प्रमुख और विश्वविद्यालय के अधिकारी भी तथ्यों का पता लगाने के लिए पर्याप्त जांच करने में विफल रहे। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उम्मीदवार ने कोई धोखाधड़ी नहीं की है; बल्कि, वह केवल अपनी उपस्थिति के बारे में चुप रहा, जो अधिकारियों को पता चल सकता था यदि उनके द्वारा उचित परिश्रम किया गया होता। उस कारण से संस्था द्वारा उम्मीदवार की उम्मीदवारी (कैंडिडेसी) वापस नहीं ली जा सकती थी।

चुप्पी निम्नलिखित मामलों में धोखाधड़ी के बराबर नहीं होगी:

बोलने का कर्तव्य (कॉन्टैक्ट्स यूबररिमा फाइड्स)

जब एक अनुबंध करने वाला पक्ष दूसरे के प्रति कोई प्रतिक्रिया करता है और उस पर विश्वास करता है, तो बोलने का कर्तव्य उत्पन्न होता है। तथ्यों के बारे में चुप रहना, धोखा नहीं है। ऐसे तथ्य जो दोनों पक्षों के ज्ञान के माध्यम से समान रूप से सामने हैं या हो सकते हैं, उन्हे आम तौर पर प्रकट करने की आवश्यकता नहीं होती है।

उदाहरण के लिए- A गंभीर पीठ दर्द से पीड़ित है, और वह डॉक्टर के पास गया, जिसने पाया कि ‘A’ गुर्दे की पथरी से पीड़ित है, लेकिन उसने इसका खुलासा नहीं करना चुना। कुछ महीनों के बाद, जब यह गंभीर हो गया, तो वह दूसरे डॉक्टर के पास गया, और डॉक्टर ने उसे गुर्दे की पथरी का निदान (डायग्नोज) किया। इसलिए, इस मामले में, पिछले डॉक्टर को धोखाधड़ी के लिए उत्तरदायी ठहराया जाएगा क्योंकि उसका कर्तव्य था कि वह ‘A’ को उसकी बीमारी का खुलासा करे।

राजेश कुमार चौधरी बनाम यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस (2005) के मामले में, न्यायालय ने यह माना कि पक्ष ने इस तथ्य को छोड़ दिया कि उन्होंने अपनी संपत्ति के लिए बीमा के लिए एक समान आवेदन प्रस्तुत किया था और उसी बीमा कंपनी ने इसे ठुकरा दिया था। खुलासा करने में इस विफलता को एक महत्वपूर्ण तथ्य के दमन (सप्रेशन) के रूप में देखा गया था।

पी. सी. चाको बनाम चेयरमैन एलआईसी ऑफ इंडिया (2007) के मामले में बीमित व्यक्ति का थायराइड का ऑपरेशन हुआ था। बीमा पॉलिसी लेने से चार साल पहले उनका एक बड़ा ऑपरेशन हुआ था। जब उसने बीमा पॉलिसी के लिए आवेदन किया तो उसने यह जानकारी देने से इंकार कर दिया। उन्होंने 6 जुलाई, 1987 को पॉलिसी खरीदी और छह महीने बाद 21 फरवरी, 1987 को उनका निधन हो गया। न्यायालय के अनुसार, बीमाधारक ने अनुबंध के सभी महत्वपूर्ण विवरणों का खुलासा नहीं किया, जो धोखाधड़ी के बराबर था।

जहां चुप रहना भ्रामक है

कभी-कभी चुप रहना बोलने के बराबर होता है। एक व्यक्ति तब भी धोखाधड़ी का दोषी होता है यदि वह यह जानते हुए भी चुप रहता है कि उसकी चुप्पी का गलत अर्थ निकाला जाएगा। उदाहरण के लिए, यदि ‘X’ अपनी संपत्ति ‘Z’ को बेचता है और उस संपत्ति के मूल्य को उद्धृत (क्वोट) करता है, जो उस संपत्ति के लिए बहुत कम है, और खरीदार (Z) जानता है कि संपत्ति का मूल्य उद्धृत मूल्य से अधिक है, लेकिन वह उसे धोखा देने के लिए चुप रहने का विकल्प चुनता है। ऐसे मामले में खरीदार धोखाधड़ी के लिए उत्तरदायी हो सकता है।

परिस्थितियों का परिवर्तन

कभी-कभी एक बयान सटीक होता है जब इसे बनाया जाता है। फिर भी, परिस्थितियों में बदलाव के कारण, यह विरोधी पक्ष द्वारा भरोसा किए जाने पर झूठा हो सकता है। इन स्थितियों में, अनुबंध प्रदान करने वाले व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह परिस्थितियों में अंतर पर चर्चा करे। टी.एस. राजगोपाला अय्यर बनाम द साउथ इंडियन रबर वर्क्स (1942) के मामले में, कंपनी के निदेशकों (डायरेक्टर्स) को सूचीबद्ध (लिस्टिंग) करने का एक प्रॉस्पेक्टस आवंटन (एलॉट) के लिए जारी किया गया था। हालाँकि, कुछ निदेशक पहले ही सेवानिवृत्त (रिटायर) हो चुके थे, और आवंटन से पहले निदेशालय (डायरेक्टोरेट) बदल गया था, लेकिन प्रॉस्पेक्टस में इसके लिए कोई अनुसमर्थन (रेटिफिकेशन) नहीं किया गया था। मद्रास उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अगर निदेशालय में बदलाव की सूचना नहीं दी गई तो आवंटन प्राप्त करने वाला इस बदलाव से बच सकता है।

सत्य पूरी तरह से प्रकट नहीं होता है

यदि कोई स्वतंत्र रूप से जानकारी का खुलासा करता है, भले ही वे ऐसा करने के लिए बाध्य न हों, तब भी वे गैर- प्रकटीकरण (डिस्क्लोजर) के तरीकों का उपयोग करके धोखाधड़ी के दोषी हो सकते हैं, जहां वे कुछ खुलासा कर रहे हैं लेकिन फिर आधे रास्ते पर ही रुक जा रहे हैं। फिर भी, यदि वह बोलना ही चाहता है, तो वह पूरा सच बोलने के लिए बाध्य होता है। उदाहरण के लिए, ‘X’ को मधुमेह (डायबिटीज) है और वह अपने डॉक्टर को बताए बिना उच्च खुराक वाली दवाएं भी ले रहा है। तो, इस मामले में, X पूरी तरह से सच नहीं बोल रहा है, और यह धोखाधड़ी के बराबर होगा।

आर. सी. ठक्कर बनाम बॉम्बे हाउसिंग बोर्ड (1972) के मामले में निविदा (टेंडर) में गलत लागत (कॉस्ट) प्रदान की गई थी। ठेकेदार ने खर्च कम कर दिया क्योंकि उसे लगा कि निविदा में लगाया गया अनुमान सही है। न्यायालय ने पाया कि निविदा में दी गई लागत भ्रामक है।

वादे को निभाने के इरादे के बिना इसे करना

धारा 17(3) में धोखाधड़ी का उल्लेख तब होता है जब कोई वादा, उसे पूरा करने के इरादे से नहीं किया जाता है। इस उद्देश्य के लिए भविष्य के किसी भी आचरण या प्रतिनिधित्व पर विचार नहीं किया जाता है; इसके बजाय, यह प्रदर्शित किया जाना चाहिए कि वचनदाता का वादा निभाने का कोई इरादा नहीं था जब इस उद्देश्य के लिए इसे ध्यान में रखा गया था। उदाहरण के लिए, ‘A’ राशि का भुगतान न करने के इरादे से ‘B’ से कपड़े खरीदता है। एम. शिवराम बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2006) के मामले में न्यायालय ने कहा कि धोखा देने का इरादा उस समय मौजूद होना चाहिए जब प्रलोभन (इंड्यूसमेंट) दिया जाता है।

डीडीए बनाम स्किपर कंस्ट्रक्शन कंपनी (2005) के मामले में, बिल्डर ने खरीदारों से पैसे इकट्ठा करने और बेचने के लिए बड़ी संख्या में बुकिंग की, जो की असल में आवास की उपलब्ध इकाइयों (यूनिट्स) की संख्या का लगभग तीन गुना थी। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे धोखाधड़ी के रूप में माना क्योंकि बिल्डर को पता होना चाहिए था कि वह सभी खरीदारों के साथ अनुबंध नहीं कर पाएगा, और इस तरह उसने वादे को पूरा करने के इरादे के बिना ही किया था।

धोखा देने के लिए उपयुक्त कोई अन्य कार्य

अधिनियम की धारा 17(4) इसके बारे में बात करती है। चूंकि धोखाधड़ी के कई तरीका हैं, इसलिए सभी आकस्मिकताओं (कंटिंजेंसी) को पूरा करने के लिए धोखाधड़ी की एक सटीक और विस्तृत परिभाषा देने का प्रयास करना लगभग असंभव है क्योंकि इसकी अत्यधिक संभावना है कि दायित्व से बचने के लिए इसमें कई खामियां उपलब्ध हो सकती हैं। यह खंड न्यायपालिका को प्रभावी और सच्चा न्याय दिलाने में मदद करने के लिए एक उपकरण के रूप में लिखा गया था क्योंकि मानव नवाचार (इनोवेशन) और रचनात्मकता (क्रिएटिविटी) की कोई सीमा नहीं होती है। यह प्रावधान उन सभी व्यवहारों को शामिल कर सकता है जिनका उपयोग किसी को अन्यायपूर्ण तरीके से धोखा देने के लिए किया जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप पीड़ित को गलत नुकसान हो सकता है या धोखेबाज व्यक्ति के लिए गलत लाभ हो सकता है। धोखा देने वाले व्यक्ति का इरादा दूसरे व्यक्ति को धोखा देना का होना चाहिए।

रमेश कुमार बनाम फुरु राम (2011) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धोखाधड़ी विभिन्न रूपों और रंगों की हो सकती है। इसे सटीक रूप से परिभाषित करना मुश्किल है, क्योंकि प्रत्येक धोखाधड़ी का आकार उन लोगों की उपजाऊ कल्पना और चतुराई पर निर्भर करता है जो धोखाधड़ी की कल्पना करते हैं और उसे अंजाम देते हैं। इसकी सामग्री धोखा देने, अनुचित साधनों का उपयोग करने, भौतिक तथ्यों को जानबूझकर छिपाने या आत्मविश्वास (कॉन्फिडेंस) की स्थिति का दुरुपयोग करने का इरादा है।

इसके अलावा, संतोष बनाम जगत राम (2010) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कोई विशेष कार्य या चूक धोखाधड़ी का गठन करती है या नहीं, यह प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर करेगा और इसके लिए कोई सीधा फॉर्मूला नहीं हो सकता है।

ऐसा कोई कार्य या चूक जिसे कानून कपटपूर्ण घोषित करता है

धारा 17(5) में उन मामलों की श्रेणी शामिल है जहां कानून स्वयं विशेष रूप से किसी कार्य या चूक को कपटपूर्ण घोषित करता है। उदाहरण के लिए, 2016 का दिवाला और दिवालियापन संहिता (इंसोलवेंसी एंड बैंकरपसी कोड), कुछ प्रकार के हस्तांतरणों (ट्रांसफर) को धोखाधड़ी घोषित करता है, और संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम (ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट), 1882 की धारा 55 के तहत, एक विक्रेता, खरीदार को अचल संपत्ति (इंमूवेबल प्रॉपर्टी) में सभी अव्यक्त दोषों (लेटेंट डिफेक्ट) का खुलासा करने के लिए बाध्य है, और ऐसा नहीं करना धोखाधड़ी की श्रेणी में आएगा।

गलत बयानी क्या है

अधिनियम की धारा 18 गलत बयानी को दूसरे पक्ष के ज्ञान के बिना एक भौतिक तथ्य का खुलासा करने की उपेक्षा करने या एक निर्दोष रूप से गलत बयान देने के रूप में परिभाषित करती है। बौद्ध मिशन डेंटल कॉलेज एंड हॉस्पिटल बनाम भूपेश खुराना (2009) के मामले में, एक डेंटल कॉलेज जो न तो संबंधित विश्वविद्यालय से संबद्ध (एफिलिएट) था और न ही डेंटल काउंसिल ऑफ इंडिया (डीसीआई) ने अपने विज्ञापन में कहा था कि यह विश्वविद्यालय  या डीसीआई से संबद्ध था। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह संबंधित कॉलेज की ओर से पूरी तरह से गलत बयानी थी और यह प्रतिस्पर्धा अधिनियम (कंपटीशन एक्ट), 2002, और एकाधिकार और प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम (मोनोपोलीज एंड रिस्ट्रिक्टिव ट्रेड प्रेटिसेस एक्ट), 1969 (जो अब लागू नहीं है) के तहत एक अनुचित व्यापार अभ्यास (अनफेयर ट्रेड प्रैक्टिस) के समान था। 1872 के भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 18 के अनुसार, गलत बयानी में निम्नलिखित तत्व शामिल हैं:

अनुचित बयान (अनवारंटेड स्टेटमेंट)

जब कोई व्यक्ति अनजाने में दावा करता है कि वास्तविकता (रियलिटी) ही सच है, लेकिन उसके तथ्य इस समय इसका समर्थन नहीं करते हैं। इस तथ्य के बावजूद कि वह इसे सच मानता है, वह इसकी गारंटी नहीं देता है; यह एक गलत बयानी है। जानकारी का उपयोग करके दावा किया जाता है कि एक घोषणा आवश्यक है। जब एक प्रतिनिधित्व को निपटान प्रावधान के रूप में मान्यता दी जाती है, तब यदि यह गलत हो जाता है, तो प्रतिकूल पक्ष बचने वाला नहीं हो सकता है। हालांकि, वे समझौते के उल्लंघन के लिए नुकसान जोड़ सकते हैं और दावा भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, ‘A’ ने डुप्लेक्स के निर्माण के लिए भूमि खरीदी और प्रतिनिधित्व किया कि उसे डुप्लेक्स के निर्माण या भूमि का उपयोग करने की अनुमति लेने में कोई कठिनाई नहीं हुई, लेकिन अनुमति से इनकार कर दिया गया था जब तक कि लगभग 30,000 रुपये की लागत वाली सीवेज प्रदान नहीं की गई थी। यहां, खरीदारों को बिक्री की अनुमति है क्योंकि यह ‘A’ की ओर से गलत बयानी थी।

कर्त्तव्य का उल्लंघन

एक गलत बयानी लापरवाही का कोई भी कार्य है जो उस व्यक्ति को लाभान्वित (बेनिफिट) करता है जो दूसरे पक्ष को अपने पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस) के विपरीत कार्य करने के लिए राजी करता है। जब कोई व्यक्ति किसी भी तरह से विवेकपूर्ण तरीके से कार्य करने की अपनी जिम्मेदारी का पालन नहीं करता है, तो उस व्यक्ति ने देखभाल के अपने कर्तव्य का उल्लंघन किया होता है। कर्तव्य का कोई भी उल्लंघन जो दूसरे को अपने पूर्वाग्रह के लिए गुमराह करके इसे करने वाले व्यक्ति को लाभ पहुंचाता है, एक गलत बयानी होता है।

खांडू चरण पोली बनाम चंचला भुनिया (2003) के मामले में, वादी ने एक विलेख (डीड) की सामग्री को नहीं पढ़ा और उस पर हस्ताक्षर किए क्योंकि उसे प्रतिवादी द्वारा यह आभास दिया गया था कि इसमें दोनों के बीच पहले से तय औपचारिक (फॉर्मल) मामले शामिल थे, लेकिन विलेख में प्रतिवादियों के पक्ष में एक रिहाई शामिल थी। न्यायालय ने माना कि विलेख की सामग्री को संप्रेषित (कम्युनिकेट) करने के लिए प्रतिवादी न तो नैतिक रूप से और न ही कानूनी रूप से बाध्य था। लेकिन वादी ने प्रतिवादी पर विश्वास किया, और फिर यह उसका कर्तव्य बन गया कि वह बिना छुपाए पूरे तथ्य बताए, जो अनुबंध की सामग्री के ज्ञान के लिए आवश्यक होते है।

विषय वस्तु के बारे में गलतियाँ करना

धारा 18(3) कहती है कि गलत बयानी तब भी होती है जब एक समझौता करने वाला पक्ष अनजाने में दूसरे पक्ष को उस तत्व के पदार्थ के बारे में गलती करने के लिए प्रेरित करता है, जो निपटान का फोकस है। तथ्यात्मक त्रुटि (फैक्चुअल एरर) करने का अर्थ है विषय वस्तु के बारे में गलती करना। यह तब होता है जब दोनों पक्ष एक दूसरे को गलत समझते हैं और एक चौराहे पर छोड़ दिए जाते हैं। इस तरह की गलती या त्रुटि गलतफहमी, अज्ञानता, चूक आदि के कारण हो सकती है। ये गलतियाँ द्विपक्षीय (बाईलेटरल) या एकतरफा (यूनीलेटरल) हो सकती हैं।

1. द्विपक्षीय गलती

धारा 20 द्विपक्षीय गलती के बारे में बात करती है। द्विपक्षीय गलतियाँ तब होती हैं जब अनुबंध के दोनों पक्ष अनुबंध में उल्लिखित तथ्यात्मक आवश्यकता का उल्लंघन करते हैं। सहमति की धारणा के अनुसार, इस स्थिति में किसी भी पक्ष ने अपनी अनुमति या सहमति नहीं दी होती है। समझौता शून्य हो जाता है क्योंकि इसमें सहमति बिल्कुल भी नहीं होती है। हालांकि, एक तथ्य की त्रुटि के लिए एक अनुबंध को शून्य करने के लिए, यह एक भौतिक सत्य से संबंधित होना चाहिए जो अनुबंध के लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए, यदि विषय वस्तु के अस्तित्व या उसके शीर्षक (टाइटल), गुणवत्ता (क्वालिटी), मूल्य, आदि के बारे में कोई गलतफहमी होती है तो एक अनुबंध शून्य हो सकता है। हालाँकि, यदि त्रुटि एक मामूली प्रकृति की है, तो अनुबंध अभी भी प्रभावी रहेगा और शून्य नहीं होगा।

उदाहरण के लिए A अपनी बकरी B को बेचने की सहमति देता है। हालांकि, सौदा होने तक बकरी पहले ही मर चुकी थी। A और B दोनों इससे अनजान थे। नतीजतन, यहां कोई अनुबंध नहीं है, और एक तथ्यात्मक त्रुटि के कारण समझौता लागू करने योग्य नहीं है।

2. एकतरफा गलती

अधिनियम की धारा 22 के अनुसार, अनुबंध केवल एक पक्ष द्वारा त्रुटिपूर्ण होने के कारण शून्यकरणीय (वॉयडेबल) नहीं है। इसलिए, भले ही सिर्फ एक पक्ष ने तथ्यात्मक त्रुटि की हो, समझौता अभी भी लागू करने योग्य होता है।

उदाहरण के लिए, ‘X’ और ‘Z’ ने एक अनुबंध में प्रवेश किया जिसमें केवल ‘Z’ इस भ्रम में था कि ‘X’ एक निश्चित उत्पाद बेचेगा, जो लेनदेन में है। फिर, X के लिए अनुबंध शून्यकरणीय नहीं है, और यह अनुबंध एक वैध अनुबंध होगा।

गलत बयानी के प्रकार

गलत बयानी निम्न प्रकार की हो सकती है:

कपटपूर्ण गलत बयानी

जब एक झूठा प्रतिनिधित्व किया जाता है और इसे करने वाला व्यक्ति, मान लीजिए A, जानता था कि यह असत्य था या वह इस बात के लिए लापरवाह था कि यह सच था या नहीं, इसे एक कपटपूर्ण गलत बयानी माना जाएगा क्योंकि उसकी ईमानदारी में कोई सटीक विश्वास नहीं था। एक कथन कपटपूर्ण गलत बयानी नहीं हो सकता है यदि A वास्तव में इसे सत्य मानता है; गलत बयान देने में अज्ञानता को धोखाधड़ी नहीं माना जाएगा।

बिमला बाई बनाम शंकरलाल (1958) के मामले में, एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को अपने बेटे के रूप में प्रस्तुत करता है, फिर उसे अपने वैध प्राकृतिक (लेजिटिमेट) या दत्तक (एडोप्टेड) पुत्र के रूप में रखता है और उसकी एक लड़की से शादी भी कराता है। न्यायालय ने माना कि यह प्रतिनिधित्व एक कपटपूर्ण गलत बयानी है और विवाह शून्य है।

लापरवाह गलत बयानी

एक अनुबंध करने वाले पक्ष द्वारा दूसरे को लापरवाही से या इसे सच मानने के सीमित कारणों के साथ दिए गए बयान को लापरवाही से गलत बयानी के रूप में जाना जाता है। एक पक्ष जो किसी अन्य पक्ष को अनुबंध में प्रवेश करने के लिए प्रेरित करने का प्रयास कर रहा है, उसका यह सुनिश्चित करने का कर्तव्य है कि तथ्य के किसी भी प्रतिनिधित्व की सटीकता के संबंध में उचित देखभाल की जाती है जिससे दूसरे पक्ष को अनुबंध में प्रवेश करना पड़ सकता है। कुछ मामलों में लापरवाही से गलत बयानी भी हो सकती है जब कोई पक्ष तथ्य का लापरवाह बयान देते है या उसके पास उस बयान पर विश्वास करने के लिए पर्याप्त कारण नहीं होता है, यह अनुचित सकारात्मक आरक्षण (पॉजिटिव रिजर्वेशन) के रूप में हो सकता है जो वास्तव में सच नहीं है लेकिन इसे बनाने वाले पक्ष इसे सच मानते है।

निर्दोष गलत बयानी

बिना किसी गलती के पूरी तरह से की गई गलत बयानी को एक निर्दोष गलत बयानी के रूप में वर्णित किया जा सकता है। निर्दोष गलत बयानी में, एक गलत बयानी जिसने एक पक्ष को अनुबंध में आने के लिए प्रेरित किया है, अच्छा होता है, लेकिन गलत बयानी करने वाले व्यक्ति के पास यह मानने के लिए उचित आधार होने चाहिए थे कि प्रतिनिधित्व के समय यह सच था।

राम चंद्र सिंह बनाम सावित्री देवी (2003) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह भी अच्छी तरह से स्थापित है कि गलत बयानी ही धोखाधड़ी है। वास्तव में, निर्दोष गलतबयानी धोखाधड़ी से राहत का दावा करने का कारण भी दे सकती है।

धोखाधड़ी और गलत बयानी के बीच मुख्य अंतर

दृष्टांत (इलस्ट्रेशन)

धोखाधड़ी

  1. ‘A’ नीलामी द्वारा ‘B’ को अपना घोड़ा बेचता है, जिसके बारे में ‘A’ जानता है की वह अस्वस्थ है, लेकिन ‘A’ घोड़े की अस्वस्थता के बारे में ‘B’ को कुछ भी नहीं बताता है। यह ‘A’ की ओर से एक धोखाधड़ी है।
  2. A, दुकानदार B से 5000 रुपये का समान खरीदता है, लेकिन यह B को पैसे न देने के इरादे से किया जाता है, और इसलिए, इस प्रकार की कार्रवाई धोखाधड़ी होती है।

गलत बयानी

  1. X, Z से अपनी कार खरीदने के लिए कहता है जो अच्छी स्थिति में है, Z ने यह विश्वास करके कार खरीदी कि कार अच्छी स्थिति में है लेकिन कुछ दिनों के बाद, कार ने ठीक से काम नहीं किया और Zको कार की मरम्मत कराके नुकसान उठाना पड़ा। इसलिए यह कार्य गलतबयानी के बराबर है क्योंकि X का मानना ​​है कि कार ठीक से काम करती है लेकिन ऐसा नहीं था।

अनिवार्यताएं (एसेंशियल्स)

धोखाधड़ी

धोखाधड़ी की अनिवार्यताएं निम्नलिखित हैं-

  1. तथ्यों का झूठा प्रतिनिधित्व मौजूद होना चाहिए।

डेरी बनाम पीक (1889) के मामले में, यह देखा गया है कि धोखाधड़ी तब साबित होती है जब यह दिखाया जाता है कि झूठा प्रतिनिधित्व किया गया है;

  • जानबूझकर
  • इसकी सच्चाई पर विश्वास किए बिना
  • बेपरवाह (केयरलेस) चाहे सच हो या झूठ।

एक व्यक्ति धोखाधड़ी का दोषी नहीं होता है यदि वे सोचते हैं कि वे जो कह रहे हैं वह सत्य है। सुख सागर मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2020) के मामले में, यह माना गया था कि वास्तविक धोखाधड़ी एक जानबूझकर या लापरवाह बयान या आचरण (कंडक्ट) के माध्यम से छिपाना या गलत प्रतिनिधित्व करना है, जो किसी अन्य व्यक्ति को घायल करता है जो उसके कार्य करने में उस पर निर्भर करता है।

2. झूठा बयान अनुबंध करने वाले पक्ष द्वारा, उसकी जानकारी में या उसके एजेंट के माध्यम से दिया गया होना चाहिए। यदि कोई अजनबी बयान देता है तो अनुबंध अप्रभावित रहता है। केवल जब किसी अनुबंध का कोई पक्ष या उसका एजेंट धोखाधड़ी करता है, तो ही अनुबंध शून्यकरणीय होता है।

3. दूसरे पक्ष को धोखा देने के लिए उसका प्रतिनिधित्व का इरादा रहा होगा। ए. पी. बनाम टी. सूर्यचंद राव (2005) के मामले में, अदालत ने पाया कि छल और चोट या झूठे प्रतिनिधित्व और भौतिक तथ्य या दस्तावेज़ को दबाना धोखाधड़ी होता है।

4. दूसरे पक्ष को प्रतिनिधित्व पर कार्रवाई करने के लिए राजी किया गया होगा। धोखाधड़ी धोखा देने का प्रयास नहीं है जो असफल हो जाए।

5. अनुबंध में शामिल होने के दूसरे पक्ष की इच्छा धोखाधड़ी से गंभीर रूप से प्रभावित हुई होगी।

6. गलत सूचना देने वाले पक्ष को अवश्य ही किसी प्रकार का नुकसान हुआ होगा। कानून का सामान्य नियम यह है कि बिना नुकसान के धोखाधड़ी नहीं हो सकती है। नतीजतन, जिस पक्ष को धोखा दिया गया था उसे हारना होगा। नुकसान में मौद्रिक नुकसान या मूल्य में हानि शामिल हो सकती है। धोखाधड़ी किसी भी नुकसान के अभाव में धोखे की कार्रवाई को जन्म नहीं देती है।

गलत बयानी

गलत बयानी की अनिवार्यताएं निम्नलिखित हैं:

  1. गलत बयानी भौतिक तथ्यों की होनी चाहिए। आवश्यकता यह है कि झूठा बयान वास्तविक, भौतिक तथ्यों पर आधारित है, गलत बयानी का एक महत्वपूर्ण और आवश्यक घटक होना चाहिए। एक साधारण राय या टिप्पणी तथ्य का बयान नहीं होती है।
  2. गलत बयानी असत्य होनी चाहिए, लेकिन इसे बनाने वाले को ईमानदारी से विश्वास करना चाहिए कि यह सच है। तथ्यात्मक कथन जो गलत बयानी कहलाता है, वह भी असत्य होना चाहिए। हालाँकि, कथन सत्य के दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए।
  3. झूठे बयानों को दूसरे पक्ष को अनुबंध में प्रवेश करने के लिए राजी करना चाहिए। यह विश्वास होना चाहिए कि प्रतिनिधित्व सटीक है।
  4. एक पक्ष को झूठा बयान देना पड़ा ताकि व्यक्ति को इसे प्राप्त करने के लिए धोखा दिया जा सके। जिस पक्ष को झूठे बयान या गलत बयानी से गुमराह किया जा रहा है, वह इसे बनाने वाले व्यक्ति द्वारा किया गया होगा। यह लत बयानी नहीं है और यदि अनुबंध द्वारा उस पक्ष को संबोधित नहीं किया गया है तो गुमराह पक्ष के विवेक पर अनुबंध को रद्द नहीं किया जा सकता है।
  5. परिस्थितियों में बदलाव गलत बयानी का गठन कर सकता है। कभी-कभी एक तथ्यात्मक बयान दिया जाता है, और अनुबंध समाप्त होने से पहले, स्थिति बदल जाती है। इन स्थितियों में, विपरीत पक्ष को उन परिस्थितियों में किसी भी बदलाव के बारे में सूचित किया जाना चाहिए जो पहले से बताए गए तथ्यों पर प्रभाव डालते हैं। यदि अन्य पक्ष को परिवर्तन का खुलासा नहीं किया जाता है, तो गलत बयानी के आधार पर अनुबंध शून्य हो सकता है।

प्रतिनिधित्व

धोखाधड़ी

एक प्रतिनिधित्व इस तथ्य की एक अतीत या वर्तमान घोषणा है जो एक राय बयान (ओपिनियन स्टेटमेंट) से अलग है, फिर भी कुछ मामलों में, एक राय बयान को तथ्य के बयान के रूप में माना जा सकता है। प्रतिनिधि को समझौते को रोकने में सक्षम होने के लिए, कपटपूर्ण गलत बयानी पर्याप्त होनी चाहिए, जिसका अर्थ है कि समझौते में प्रवेश करने या न करने के बारे में एक उचित व्यक्ति के निर्णय पर इसका महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ना चाहिए। सेंट्रल नेशनल बैंक लिमिटेड बनाम यूनाइटेड इंडस्ट्रियल बैंक (1953) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि झूठे प्रतिनिधित्व से प्रेरित सहमति मुक्त नहीं होती है, लेकिन फिर भी यह वास्तविक हो सकती है और आमतौर पर धोखाधड़ी का प्रभाव लेनदेन को शून्यकर्णीय बनाना है और केवल शून्य नहीं।

ए. सी. अनंतस्वामी बनाम बोरैया (2004) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह साबित किया जाना चाहिए कि प्रतिनिधित्व इस तरह के प्रतिनिधित्व करने वाले पक्ष के ज्ञान के लिए किया गया था या यह कि पक्ष को कोई उचित विश्वास नहीं हो सकता था कि यह सच था। ऐसे मामले में आवश्यक सबूत का स्तर बहुत अधिक होता है। एक अस्पष्ट बयान अपने आप में प्रतिनिधि को धोखाधड़ी का दोषी नहीं बना सकता है।

गलत बयानी

प्रतिनिधित्व द्वारा एक अनुबंध शुरू और प्रेरित किया जाता है। यह वह सामग्री है जिस पर अनुबंध करने वाला पक्ष अनुबंध को पूरा करने के अपने निर्णय को आधार बनाता है। एक “प्रतिनिधित्व” अनुबंध के दूसरे पक्ष को दिया गया एक बयान है, या तो स्पष्ट रूप से या अस्पष्ट रूप से, अनुबंध प्रक्रिया से पहले या उसके दौरान। यह पहले या वर्तमान तथ्य के प्रकाश में दर्ज किया गया है। उदाहरण के लिए, कुछ सामानों का विक्रेता दावा कर सकता है कि पेटेंट उल्लंघन का कोई नोटिस प्राप्त नहीं हुआ है।

एक प्रतिनिधित्व शुरुआत में एक अनुबंध की अवधि नहीं हो सकता है, और गलत बयानी के परिणामस्वरूप होने वाले नुकसान के लिए दावा आम तौर पर वर्जित है। इसके बजाय, यह दावा कि एक झूठा बयान एक अनुबंध को प्रेरित करता है, धोखाधड़ी के मामले में किया जा सकता है, या तो समझौते को रद्द करने या नुकसान की वसूली के लिए।

मीरा साहनी बनाम दिल्ली के उपराज्यपाल (2008) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भूमि का हस्तांतरण जिसके लिए अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू की गई है और एक झूठा प्रतिनिधित्व किया गया है, अवैध होगा क्योंकि हस्तांतरण पर भौतिक तथ्यों का झूठा प्रतिनिधित्व आधारित है और वास्तव में, यह एक गलत बयानी है।

उपाय (रेमेडीज)

धोखाधड़ी

धोखाधड़ी के मामले में, व्यक्ति के पास निम्नलिखित उपाय होते हैं:

  1. वह समझौते को रद्द कर सकता है और प्रतिवादी के खिलाफ नुकसान के लिए दावा दायर कर सकता है और मुआवजा प्राप्त कर सकता है।

डंबरूधर बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य (1980) के मामले में विरोधी पक्ष द्वारा तथ्यों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने के कारण, वादी ने अनुबंध को रद्द कर दिया। वादी ने अनुबंध के प्रारूपण (ड्राफ्टिंग) में होने वाली लागतों के साथ-साथ खोए हुए वेतन के लिए हर्जाना मांगा, जब तक कि वादी को गलत बयानी का पता नहीं चल जाता है। अदालत ने उसे हर्जाना दिया और फैसला सुनाया कि कपटपूर्ण गलत बयानी के लिए दिया गया नुकसान उस नुकसान से अधिक नहीं होना चाहिए जो कि तब होता अगर तथ्यों को गलत तरीके से प्रस्तुत नहीं किया गया होता।

2. वह प्रतिवादी पर मुकदमा कर सकता है और प्रतिवादी के खिलाफ हर्जाने के लिए धोखाधड़ी के लिए कार्रवाई कर सकता है (जहां संपत्ति का मूल्य कम हो गया है)। धोखाधड़ी के लिए सजा एक गैर-शमनीय (नॉन कंपाउंडेबल) अपराध है क्योंकि इसमें जुर्माना और कारावास दोनों शामिल हैं। कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 447 में भी धोखाधड़ी के लिए सजा का प्रावधान है।

3. भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 19 में उल्लेख है कि धोखाधड़ी द्वारा प्राप्त सहमति धोखेबाज व्यक्ति के विकल्प पर शून्यकरणीय होती है। धारा के आगे अपवाद (एक्सेप्शन) में कहा गया है कि यदि अनुबंध में शामिल पक्ष की सहमति धोखाधड़ी या गलत बयानी द्वारा प्राप्त की जाती है, तो ऐसा अनुबंध शून्यकरणीय नहीं होगा यदि जिस पक्ष की सहमति प्राप्त की गई है वह सामान्य परिश्रम के साथ सच्चाई का पता लगा सकता है।

गलत बयानी

  1. रद्द करना: रद्द करना उसे खत्म करना है। जिस पक्ष को लगता है कि उसके साथ गलत हुआ है उसे किसी भी समय अनुबंध समाप्ति और/ या मौद्रिक हर्जाने का दावा करने का अधिकार होता है। दो पक्षों के बीच एक अनुबंध के विघटन (डिसोल्युशन) के लिए निस्तारण (रेस्किशन) कानूनी शब्द है। जो की लेन-देन को रद्द करने की प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य पक्षों को उसी स्थिति में वापस लाना है, जिसमें वे अनुबंध करने से पहले थे (यथास्थिति)।

गंगा रिट्रीट्स एंड टावर्स बनाम राजस्थान राज्य (2003) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि गलत बयानी के मामले में, पक्ष अनुबंध को रद्द कर सकते है, क्षतिपूर्ति की मांग कर सकते है, या हर्जाने की मांग के अपने अधिकार के प्रति पूर्वाग्रह के बिना अनुबंध की पुष्टि पुनर्भरण (रेस्टिट्यूशन) के माध्यम से कर सकते है।

2. प्रदर्शन की मांग करें: जिस पक्ष के साथ अन्याय हुआ है, वह पहले पक्ष के खिलाफ उद्देश्य को इस तरह से प्राप्त करने का दावा कर सकता है, जो अनुबंध में स्पष्ट रूप से प्रदान नहीं किया गया था। अधिनियम की धारा 19 उस पक्ष के विकल्प पर अनुबंध को शून्यकरणीय बनाती है जिसकी सहमति स्वतंत्र नहीं थी।

मुख्य न्यायिक घोषणाएँ

धोखाधड़ी

एस. पी. चेंगलवरैया नायडू बनाम जगन्नाथ (1993)

एस.पी चेंगलवरया नायडू बनाम जगन्नाथ (1993) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धोखाधड़ी जानबूझकर धोखे का एक कार्य है जिसमें दूसरे का अनुचित लाभ उठाकर कुछ हासिल किया जाता है। दूसरों के नुकसान से लाभ उठाना एक धोखा है।

गोपाल बगड़ा ब्राह्मण बनाम मेसर्स ओमेगा इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (2018)

गोपाल बगड़ा ब्राह्मण बनाम मेसर्स ओमेगा इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (2018) के मामले में, भुगतान की जा रही कीमत के बदले में वादी को चेक जारी किया गया था, जो अनादरित (डिसऑनर) हो गया था, और प्रतिवादी के पास यह मानने का कारण था कि खाते में पर्याप्त धनराशि नहीं थी, जो अंततः चेक को अनादरित कर देगा, फिर भी, उन्होंने वादी को इस तथ्य का खुलासा नहीं किया। न्यायालय ने माना कि प्रतिवादी ने चेक को निष्पादित (एग्जिक्यूट) न करने के इरादे से जारी किया था और दूसरे पक्ष को धोखा दिया था।

विद्या ड्रोलिया बनाम दुर्गा ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन (2021)

विद्या ड्रोलिया बनाम दुर्गा ट्रेडिंग कॉरपोरेशन (2021) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अनुबंध अधिनियम की धारा 17 लागू होगी यदि अनुबंध स्वयं धोखाधड़ी या गलत बयानी से प्राप्त किया गया था। इस प्रकार, धोखाधड़ी और अनुबंध के बाद की धोखाधड़ी और धोखाधड़ी द्वारा प्राप्त अनुबंध के बीच अंतर किया जाता है। यह अनुबंध अधिनियम की धारा 17 के बाहर होगा, और इसलिए नुकसान के लिए उपाय उपलब्ध होगा, और इस मामले में अनुबंध को शून्य मानने का उपाय नहीं किया जाएगा।

गलत बयानी

वॉन बनाम मेनलोव (1837)

वॉन बनाम मेनलोवे (1837) के मामले में, प्रतिवादी को सूचित किया गया था कि एक महत्वपूर्ण संभावना थी कि उसके घास के ढेर में आग लग सकती है और वादी के आवास को नुकसान पहुंच सकता है। उसने उनकी उपेक्षा की और घास की स्थिति को जारी रखा। घास में आग लगने और उसकी झोपड़ियों को क्षतिग्रस्त करने के बाद वादी ने प्रतिवादी पर लापरवाही बरतने का आरोप लगाते हुए मुकदमा दायर किया।

इस मामले में लापरवाही के दावों का आकलन करते समय एक प्रतिवादी की सटीक संवेदनशीलता (सेंसिबिलिटी) या कमियों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। इसके बजाय, किसी को केवल यह विचार करना चाहिए कि क्या उन्होंने एक समान परिस्थिति में एक विवेकपूर्ण सतर्क व्यक्ति के रूप में प्रदर्शन किया है।

राज कुमार सोनी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2007)

राज कुमार सोनी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2007) के मामले में महत्वपूर्ण तथ्यों के दमन को उचित प्रक्रिया पर हमला माना गया था, और यह निर्णय लिया गया था कि सच्चाई पेश करने में विफल रहने के लिए जिम्मेदार पक्ष को कोई लाभ नहीं मिलना चाहिए क्योंकि उन्हें साफ हाथों से अदालत जाने की आवश्यकता होगी।

श्री. रणबीर सिंह बनाम श्री नारायण शर्मा (2014)

श्री रणबीर सिंह बनाम श्री नारायण शर्मा (2014), के मामले में न्यायालय ने कहा कि अनुबंध में प्रवेश करते समय, स्वतंत्र सहमति होनी चाहिए, और यदि गलत व्याख्या के तहत सहमति प्राप्त की जाती है, तो अनुबंध उस पक्ष के विकल्प पर शून्यकरणीय होगा जिसकी सहमति गलत बयानी के तहत ली गई थी।

नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, सहायक प्रबंधक बनाम गुड्डी बाई (2022)

नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, सहायक प्रबंधक बनाम गुड्डी बाई (2022) के मामले में, न्यायालय ने पाया कि एक अनुबंध के लिए पक्ष जिसकी सहमति गलत बयानी से प्राप्त की जाती है, मांग कर सकता है कि अनुबंध किया जाए और वह या तो उसी स्थिति में रखा जाना चाहिए जैसे कि किए गए प्रतिनिधित्व सटीक थे।

धोखाधड़ी और गलत बयानी के बीच अंतर का सारणीबद्ध (टेब्यूलर) प्रतिनिधित्व

तुलना के लिए मानदंड धोखाधड़ी गलत बयानी
अर्थ धोखाधड़ी को एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को अनुबंध में प्रवेश करने के लिए मनाने के लिए जानबूझकर किए गए धोखाधड़ी के आचरण के रूप में परिभाषित किया गया है। गलत बयानी एक अनुबंध पर हस्ताक्षर करने के लिए किसी अन्य पक्ष को प्राप्त करने के प्रयास में एक निर्दोष रूप से झूठा बयान देने का कार्य है।
परिभाषित भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 2(17) में परिभाषित हैं। भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 2(18) में परिभाषित है।
सहमति पक्ष की सहमति अन्य पक्षों को धोखा देकर प्राप्त की जाती है। सहमति अन्य पक्षों द्वारा एक पक्ष की गलत बयानी के माध्यम से प्राप्त की जाती है।
पक्ष को धोखा देने का इरादा हां  नहीं
सत्य की सत्यता (वेरासिटी) जब कोई प्रतिनिधित्व कपटपूर्वक किया जाता है, तो इसे बनाने वाले पक्ष को पता होता है कि यह असत्य है। गलत बयानी में, प्रतिनिधित्व करने वाले पक्ष वास्तव में उसके द्वारा किए जा रहे दावे पर विश्वास करते है, भले ही वह बाद में गलत साबित हो।
कानूनी कार्रवाई धोखाधड़ी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत दंडनीय है (धारा 420धारा 424)। यह कानून द्वारा दंडनीय होने के लिए बाध्य नहीं है।
दावा पक्ष को हर्जाने के लिए दावा करने का अधिकार है। पक्ष को दूसरे पक्ष पर मुकदमा करने का अधिकार नहीं है।
शून्यकरणीय यह सामान्य परिश्रम के साथ सत्य पाए जाने पर भी शून्यकरणीय है। यदि उचित परिश्रम से सत्य का पता लगाया जा सकता है, तो अनुबंध शून्यकरणीय नहीं है।
परिणाम जिस पक्ष को धोखा दिया गया था वह अनुबंध रद्द कर सकता है।  जिस पक्ष के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है वह अनुबंध को रद्द कर सकता है।

निष्कर्ष

अनुबंध अधिनियम की धारा 17 में परिभाषित “धोखाधड़ी” की अवधारणा बहुत व्यापक है। इसमें कई तरह के सुझाव शामिल है, जो एक तथ्य के रूप में हो सकता है, जो कि सत्य नहीं है, लेकिन किसी व्यक्ति द्वारा इसे सत्य माना जाता है या नहीं माना जाता है। इसकी तुलना अनुबंध अधिनियम की धारा 18(1) से की जा सकती है, जो “गलत बयानी” को परिभाषित करती है। धारा 18 प्रदान करती है कि यह गलत बयानी है यदि कोई व्यक्ति एक सकारात्मक दावा करता है जो इस तरह से सही नहीं है या जो उसके पास मौजूद जानकारी से वारंट नहीं है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि वह इसे सच मान सकता है। दूसरे शब्दों में कपट में असत्य सुझाव देने वाला व्यक्ति उसे सत्य नहीं मानता है। वह जानता है कि यह असत्य है, फिर भी वह इस तथ्य का सुझाव देता है जैसे कि यह सत्य हो। दूसरी ओर गलत बयानी में ऐसा करने वाला व्यक्ति उसे सत्य मान लेता है। लेकिन उसके पास जो जानकारी थी और जिसे वह सच मानता था, वो सच नहीं थी, उसके आधार पर कानून इसे गलत बयानी घोषित करता है। इसलिए, उसके द्वारा किया गया प्रतिनिधित्व एक गलत बयानी बन जाता है क्योंकि यह एक ऐसा बयान है जो असत्य पाया जाता है। धोखाधड़ी तब की जाती है जब कोई व्यक्ति सक्रिय रूप से किसी तथ्य को छुपाता है, भले ही वे इस तथ्य के बारे में जानते हों या इसके अस्तित्व में विश्वास करते हों। छिपाना सक्रिय होना चाहिए। यहीं पर अपवाद में केवल चुप रहने की व्याख्या की गई है, जो अनुबंध में प्रवेश करने वाले व्यक्ति के निर्णय को तब तक प्रभावित करेगी जब तक कि परिस्थितियाँ ऐसी न हों कि बोलना उसका कर्तव्य बन जाए। उनकी चुप्पी ही भाषण के बराबर हो सकती है। एक व्यक्ति वाद पूरा करने के इरादे के बिना इसे कर सकता है। यह धोखाधड़ी है। कानून आगे घोषित करता है कि धोखा देने के लिए उपयुक्त कोई अन्य कार्य धोखाधड़ी है। इसी तरह, कोई भी कार्य या चूक जिसे कानून कपटपूर्ण घोषित करता है, धोखाधड़ी देने के अंदर आता है। तथापि, अनुबंध अधिनियम की धारा 17 के विभिन्न अंगों के माध्यम से एक सुनहरी प्रवृत्ति के रूप में और कानून की आवश्यकता के रूप में चलना छल का तत्व है। एक व्यक्ति जो धोखाधड़ी का आरोपी है, चाहे वह सिविल या आपराधिक कार्रवाई में हो, उसे धोखाधड़ी करने का इरादा होना चाहिए। धोखा कई रूप ले सकता है, और यह प्रत्येक मामले के तथ्यों पर न्याय करने का विषय होता है।

संदर्भ

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