सिटिजनशिप (अमेंडमेंट) एक्ट, 2019: एवरीथिंग इंपॉर्टेंट यू शुड़ नों (नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019)

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citizenship amendment act 2019
Image Source- https://rb.gy/psvvti

इस लेख को आरएमएलएनएलयू, लखनऊ के द्वितीय वर्ष के छात्र Ayush Verma ने लिखा है। लेख नागरिकता अधिनियम,1955  के तहत नागरिकता प्राप्त करने के तरीकों पर चर्चा करता है और नागरिकता (संशोधन (अमेंडमेंट)) अधिनियम, 2019 का विश्लेषण (एनालिसिस) प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar ने किया हैI 

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

संसद (पार्लिमेंट) ने 11 दिसंबर को नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (सीएए) पास किया है। संशोधन में, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिंदुओं, जैनियों, सिखों, ईसाइयों, बौद्धों और पारसियों के अल्पसंख्यक समुदायों (माइनॉरिटी कम्युनिटी) से संबंधित व्यक्तियों, जिन्होंने 31 दिसंबर 2014 को या उससे पहले भारत में प्रवेश किया है, उन्हें “अवैध आप्रवासियों (इल्लीगल मायग्रेंट्स)” की परिभाषा (डेफिनिशन) से बाहर रखा गया है और इसके बारे में नागरिकता अधिनियम की धारा 2(1)(b) में दिया गया है। इसने इन समुदायों के लिए प्राकृतिककरण (नेचरलायजेशन) के माध्यम से नागरिकता प्राप्त करने के लिए आवश्यक अधिग्रहण (एक्विजिशन) की अवधि (पिरेड) को ग्यारह वर्ष से घटाकर पांच वर्ष कर दिया है। इस संशोधन को पूरे भारत में कई विरोधों का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें से कई सारे उत्तर-पूर्वी (नॉर्थ ईस्टर्न) राज्यों से हैं। मुख्य आपत्ति संविधान के अनुच्छेद 14 के उल्लंघन के रूप में संशोधन की धार्मिक गड़बड़ी (रिलिजियस इंक्लीमेंट) के संबंध में है जो समानता के अधिकार (राइट टू इक्वालिटी) की गारंटी देता है।

असाम में, संशोधन ने बहुत सारे हिंसक विरोध (वायोलेंट प्रोटेस्ट) शुरू कर दिए हैं क्योंकि यह 1985 के असाम समझौते (एग्रीमेंट) के विरोध में है, जो अपनी संस्कृति और परंपरा की रक्षा के लिए बांग्लादेश से असाम में आए अवैध प्रवासियों (इमिग्रंट्स) की पहचान और निर्वासन (डिपॉर्टेशन) की मांग करता है। नागरिकता अधिनियम, 2019 की संवैधानिक (कंन्स्टिट्यूशनल) वैधता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं (पेटिशन) दायर की गई हैं।

नागरिकता अधिनियम, 1955 क्या है (व्हाट इज द सिटिजनशिप एक्ट 1955)

नागरिकता अधिनियम, 1955 उन तरीकों को  निर्धारित (स्पेसिफाई) करता है जिनके द्वारा भारत की नागरिकता प्राप्त की जा सकती है। इसमें कहा गया है कि भारत में नागरिकता पांच तरीकों से हासिल की जा सकती है: जन्म से, वंश (डिसेंट), पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन), देशीयकरण (नेचरलायजेशन) (बढ़ा हुआ निवास), और भारत में एक क्षेत्र शामिल हो जाने के बाद।

अधिनियम के तहत नागरिकता प्राप्त करने के तरीके (व्हाट आर द वेज फॉर एक्विजिशन ऑफ़ सिटिजनशिप अंडर द एक्ट)

जन्म से नागरिकता – धारा 3 (सिटिजनशिप बाय बर्थ- सेक्शन 3)

धारा 3 तहत भारत में जन्म लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति जन्म से भारत का नागरिक होगा:

  • 26 जनवरी 1950 को या उसके बाद लेकिन 1 जुलाई 1987 से पहले।
  • 1 जुलाई 1987 को या उसके बाद लेकिन नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2003 के लागू होने से पहले, जहां उसके माता-पिता में से एक उसके जन्म के समय भारत का नागरिक है।
  • नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2003 के शुरू होने पर या उसके बाद जहां―

(i) उसके माता-पिता दोनों भारत के नागरिक हैं; या 

(ii) उसके माता-पिता में से एक भारत का नागरिक है और दूसरा उसके जन्म के समय अवैध प्रवासी नहीं है।

एक व्यक्ति अपने जन्म के आधार पर नागरिक नहीं होगा जहां:

  • उसके पिता या माता के पास वादों से ऐसी प्रतिरक्षा (इम्यूनिटी फ्रॉम सूट्स) है जो भारत के राष्ट्रपति को अधिकृत (ऑथराइज्ड) विदेशी संप्रभु (फोरेन सोवरिन) शक्ति के एक दूत (एन्वॉय) को प्रदान की जाती है और वह भारत का नागरिक नहीं है; या
  • उसके पिता या माता एक शत्रु विदेशी (एनमी अलायन) हैं और उसका जन्म शत्रु के कब्जे वाले (ऑक्यूपाइड टेरिटरी) क्षेत्र में होता है। 

वंश द्वारा नागरिकता – धारा 4 (सिटिजनशिप बाय डिसेंट – सेक्शन 4)

धारा 4 के तहत प्रत्येक व्यक्ति मूल रूप से भारत का नागरिक होगा जो भारत के बाहर पैदा हुआ था:

  • 26 जनवरी 1950 को या उसके बाद लेकिन 10 दिसंबर 1992 से पहले यदि उनके पिता उनके जन्म के समय भारतीय नागरिक हैं।
  • 10 दिसंबर 1992 को या उसके बाद यदि उसके जन्म के समय उसके माता-पिता में से कोई एक भारतीय नागरिक है।

हालाँकि, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2003 के लागू होने के बाद, किसी व्यक्ति को भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा यदि उसका जन्म उसकी जन्म तिथि के एक वर्ष के अंदर भारतीय वाणिज्य दूतावास (इंडियन कंसूलेट) में पंजीकृत नहीं है, या केंद्र सरकार (यूनियन गवर्नमेंट) की अनुमति (परमिशन) से, दी गई अवधि की समाप्ति के बाद हुआ है। पंजीकरण के आवेदन (एप्लिकेशन) में माता-पिता से यह घोषणा करनी होगी कि उनके नाबालिग (माइनर) बच्चे के पास दूसरे देश का पासपोर्ट नहीं है।

नाबालिग की स्थिति (पोजिशन ऑफ़ माइनर)

एक अवयस्क (माइनर) जो इस धारा के तहत भारतीय नागरिक है और साथ ही किसी अन्य देश का भी नागरिक है, तो वह भारत का नागरिक नहीं रहेगा यदि वह पूर्ण आयु (फूल एज) प्राप्त करने के छह महीने के भीतर उस देश की नागरिकता का त्याग (रेनाउंस) नहीं करता है।

पंजीकरण द्वारा नागरिकता – धारा 5 (सिटिजनशिप बाय रजिस्ट्रेशन – सेक्शन 5)

धारा 5 के तहत किसी भी व्यक्ति को केंद्र सरकार द्वारा भारत के नागरिक के रूप में उसके आवेदन पर पंजीकृत किया जा सकता है, यदि ऐसा व्यक्ति अवैध अप्रवासी नहीं है और निम्नलिखित श्रेणियों (कैटेगरीज) से संबंधित है:

  1. जो भारतीय मूल का है और धारा 5(A) के तहत आवेदन करने से पहले सात साल के लिए भारत का सामान्य निवासी है।
  2. जो भारतीय मूल (ओरिजिन) का है और अविभाजित (अनडिवाइडेड) भारत के बाहर किसी भी देश या स्थान में सामान्य रूप से निवासी (रेसिडेंट) है।
  3. जिस व्यक्ति का विवाह भारत के नागरिक से हुआ है और आवेदन करने से पहले सात साल के लिए भारत में सामान्य रूप से निवासी है।
  4. जो नाबालिग है और उसके माता-पिता भारत के नागरिक हैं।
  5. जो पूरी उम्र और क्षमता (कैपेसिटी) का है और उसके माता-पिता भारत के नागरिक के रूप में पंजीकृत हैं।
  6. जो  पूर्ण आयु और क्षमता का है, और यदि वह स्वयं या उसके माता-पिता में से कोई एक स्वतंत्र भारत का पूर्व नागरिक था, और पंजीकरण के लिए आवेदन करने से पहले एक वर्ष से भारत में रह रहा है।
  7. जो पूरी उम्र और क्षमता का है और पांच साल के लिए भारत के एक प्रवासी नागरिक (ओवरसीज सिटिज़न) के रूप में पंजीकृत है और एक आवेदन करने से पहले एक वर्ष के लिए भारत में रह रहा है।  

खंड (क्लॉज़) (1) और (3) के उद्देश्य के लिए, एक व्यक्ति को सामान्य रूप से निवासी माना जाता है यदि वह आवेदन करने से ठीक पहले बारह महीने के लिए और बारह महीने से पहले के आठ वर्षों में कुल मिलाकर छह साल के लिए भारत में रहा है।

प्राकृतिककरण द्वारा नागरिकता – धारा 6 (सिटिजनशिप बाय नेचरलायजेशन)

धारा 6 के तहत एक विदेशी जो एक अवैध अप्रवासी नहीं है और बारह वर्षों के लिए भारत में सामान्य रूप से निवासी है (आवेदन की तारीख से तुरंत पहले बारह महीने की अवधि के दौरान और बारह महीनों से ठीक पहले चौदह वर्षों में कुल मिलाकर ग्यारह साल के लिए) भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकता है अधिनियम की 3 अनुसूची (शेड्यूल) में दिए गए अन्य योग्यताओं के अधीन प्राकृतिककरण द्वारा।

हालाँकि, यदि केंद्र सरकार की राय में, आवेदक ने विज्ञान, दर्शन (फिलॉसफि), कला, साहित्य (लिटरेचर), विश्व शांति या मानव प्रगति के लिए कुछ विशिष्ट सेवा प्रदान की है, तो यह तीसरे अनुसूची में निर्दिष्ट सभी या किसी भी शर्त को माफ कर सकता है। 

क्षेत्र को शामिल करके नागरिकता – धारा 7 (सिटिजनशिप बाय इंकॉर्पोरेशन – सेक्शन 7)

धारा 7 के तहत जहां एक क्षेत्र भारत का हिस्सा बन जाता है, तब केंद्र सरकार अपने आदेश द्वारा उन व्यक्तियों को भारत के नागरिक घोषित कर सकती है, जो उस क्षेत्र के साथ उनके संबंध के कारण भारत के नागरिक बन जाएंगे।

नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत अवैध अप्रवासी (हू आर इल्लीगल इमिग्रांट्स अंडर द सिटिजनशिप एक्ट, 1955)?

अधिनियम की धारा 2(1)(b) के अनुसार, “अवैध अप्रवासी” का अर्थ है एक विदेशी जो भारत में प्रवेश करता है:

  1. एक वैध पासपोर्ट या अन्य यात्रा दस्तावेजों (ट्रैवल डॉक्युमेंट्स) और ऐसे अन्य दस्तावेज या प्राधिकरण (अथॉरिटी) के बिना जो उस संबंध में किसी कानून द्वारा या उसके तहत वह प्रवासी है यह निर्धारित किया जा सकता है; या
  2. वैध दस्तावेजों के साथ लेकिन वह व्यक्ति समय की दि गई अवधि से अधिक भारत में रहता है।

अवैध अप्रवासियों को नियंत्रित करने वाले कानून (लॉज् गवर्निंग इल्लीगल माइग्रेंट)

पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920 और विदेशी अधिनियम, 1946 के अनुसार अवैध अप्रवासियों को निर्वासित या कैद (डिपॉर्टेड ऑर इंप्रिजंड) किया जा सकता है। ये अधिनियम केंद्र सरकार द्वारा विदेशियों के प्रवेश, निकास और निवास (एक्जिट एंड रेसीडेंस) के संबंध में विनियमन (रेगुलेशन) बताता हैं।

विदेशी अधिनियम (फॉरेनर्स एक्ट), 1946

विदेशी अधिनियम की धारा 3(2)(c) के तहत, केंद्र सरकार के पास एक विदेशी नागरिक के निर्वासन का आदेश देने की शक्ति है। विदेशी नागरिकों को निर्वासित करने या उनकी पहचान करने की यह शक्ति राज्य सरकारों, केंद्र शासित प्रदेशों और आप्रवासन (इमिग्रेशन) ब्यूरो को भी दी गई है।

पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम (पासपोर्ट (एंट्री इंटू इंडिया)), 1920

इस अधिनियम की धारा 5 में कहा गया है कि केंद्र सरकार के पास भारत में अवैध रूप से प्रवेश करने वाले किसी भी व्यक्ति को सीधे हटाने की शक्ति है। इसमें ऐसे व्यक्ति को शामिल किया गया है जिसने बिना पासपोर्ट के प्रवेश किया है या पासपोर्ट की शर्तों का पालन नहीं किया है।

नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1955 में संशोधन की आवश्यकता (व्हाट वाज द नीड फॉर अमेंडिंग द सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट 1955)?

अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता अवैध अप्रवासियों के एक निश्चित विशिष्ट वर्ग को एक पहचान देने के लिए थी। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के देशों में हजारों लोग धार्मिक उत्पीड़न (परसिक्यूशन) का सामना कर चुके हैं। जिसके परिणामस्वरूप, वे सुरक्षित पनाह (रिफ्यूजी) पाने के लिए भारत भाग आए। इस अधिनियम से पहले, इन अप्रवासियों को भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन करने की अनुमति (परमिशन) नहीं थी क्योंकि वे अवैध रूप से भारत आए थे। इसके अलावा, पिछले अधिनियम ने लोगों को प्राकृतिककरण द्वारा नागरिकता पाने की अनुमति नहीं दी थी, जब तक कि वे यह दिखाने में सक्षम न हों कि वे 11 वर्षों से भारत में रह रहे हैं। इसलिए संशोधित अधिनियम इन लोगों को भारतीय नागरिकता देने का प्रयास करता है जो 3 देशों में उत्पीड़न का सामना करके भारत आए हैं।

भारत के एक प्रवासी नागरिक (ओवरसीज सिटिज़न ऑफ़ इंडिया) (ओसीआई) के पंजीकरण को रद्द करने का भी कोई प्रावधान नहीं था, जहां ऐसे व्यक्ति ने अधिनियम या किसी अन्य कानून जो उस समय लागू है  उसके प्रावधानों का उल्लंघन किया है, और जिन्हे सुनवाई (हीयरिंग) का अवसर भी उपलब्ध नहीं था। इसलिए, 1955 के अधिनियम में सुधारों की आवश्यकता थी।

नागरिकता (संशोधन) विधेयक, (व्हाट इज सिटिज़न (अमेंडमेंट) बिल) 2016?

नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 अवैध अप्रवासियों की परिभाषा को बदलने के लिए लाया गया था। इस विधेयक में अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के अवैध प्रवासियों को नागरिकता प्रदान की गई, जो बौद्ध, हिंदू, जैन, सिख, पारसी या ईसाई इन धर्मों से संबंधित थे। विधेयक ने प्राकृतिककरण द्वारा नागरिकता प्राप्त करने के लिए भारत में लगातार रहने कि ग्यारह वर्षों की संख्या को भी कम करके छह साल तक आवश्यक कर दिया। विधेयक ने 1955 के अधिनियम की धारा 7D के तहत विदेशी नागरिक, यदि ओसीआई ने इस अधिनियम या किसी अन्य कानून के किसी भी प्रावधान का उल्लंघन किया है, तो उसके पंजीकरण को रद्द करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा एक और आधार जोड़ा गया है।

विधेयक लोकसभा से पास हुआ था (वाज द बिल पास्ड बाय द लोक सभा)?

विधेयक को 19 जुलाई 2016 को लोकसभा में पेश किया गया था। फिर इसे एक संयुक्त संसदीय समिति (जॉइंट पार्लियामेंट्री कमिटी) के पास भेजा गया, जिसने 7 जनवरी 2019 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। विधेयक को बाद में 8 जनवरी को लोकसभा द्वारा पास कर दिया गया। इस बिल को राज्य सभा को भेजा गया था, लेकिन परिणामस्वरूप, 16वीं लोकसभा के भंग (डिजोल्यूशन) होने के कारण, बिल व्यपगत (लैप्स) हो गया।

नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, (सिटिजनशिप (अमेंडमेंट) एक्ट) 2019 

नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के देशों में उत्पीड़न का सामना करने के बाद 31 दिसंबर 2014 को या उससे पहले भारत में प्रवेश करने वाले कुछ धार्मिक अल्पसंख्यकों (रिलिजियस माइनॉरिटीज) से संबंधित अवैध प्रवासियों को नागरिकता अधिकार देकर नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन करना चाहता है। इसने इन समुदायों के लिए प्राकृतिककरण द्वारा नागरिकता प्राप्त करने की समय सीमा को 11 वर्ष से कम करके 5 वर्ष कर दिया है। संशोधन में ओसीआई कार्डधारकों के संबंध में भी नए प्रावधान किए गए हैं।

जांच (इन्वेस्टिगेशन) ब्यूरो ने अपने रिकॉर्ड से 31,313 लोगों की गिनती की, जो इस संशोधन के बाद तत्काल लाभ पाने योग्य हो रहे हैं, जिनमें हिंदुओं का सबसे बड़ा हिस्सा 25,447 है, जिसके बाद सिखों की संख्या 5,807, ईसाईयों की संख्या 56 और बौद्धों और पारसियों की संख्या केवल प्रत्येकी दो है।

इसे 10 दिसंबर को लोकसभा और 11 दिसंबर को राज्य सभा द्वारा पास किया गया था, और अंत में 12 दिसंबर को राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त करने के बाद यह एक अधिनियम बन गया है। हालांकि, यह अभी तक सरकार की अधिसूचना (नोटिफिकेशन) के अधीन लागू नहीं हुआ है।

विधेयक के दायरे में आने वाले लोग (हू औल आर कवर्ड अंडर द बिल)?

संशोधन में 6 समुदायों के अवैध अप्रवासी शामिल हैं, जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से हिंदू, सिख, जैन, पारसी, ईसाई और बौद्ध हैं, और जिन्होंने 31 दिसंबर 2014 को या उससे पहले भारत में प्रवेश किया है। इन समुदायों के व्यक्ति जिन्होंने भारत में अवैध रूप से प्रवेश किया है (अर्थात पासपोर्ट/अन्य दस्तावेजों के बिना या अनुमती दि गई अवधि से अधिक रह रहे हैं) वह भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के हकदार होंगे। 2015 में, इन देशों के गैर-मुस्लिम शरणार्थियों (नॉन मुस्लिम रिफ्यूजीज) को वैध दस्तावेजों के बिना प्रवेश करने पर भी भारत में रहने की अनुमति देने के लिए विदेशी अधिनियम और पासपोर्ट अधिनियम में भी बदलाव किए गए थे। सरकार ने इन समुदायों का समर्थन इस आधार पर किया है कि ये 3 देशों में उत्पीड़ित अल्पसंख्यांक हैं।

जो लोग छूट गए हैं (हू औल आर लेफ्टाउट)?

संशोधन ने अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुस्लिम समुदाय से संबंधित अवैध अप्रवासियों को छोड़ दिया है। फिर भी मुसलमान भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक धर्म का गठन (कंस्टिटूट) करते हैं, उन्हें गैर-मुस्लिम समुदायों के समान नागरिकता प्राप्त करने का अधिकार नहीं दिया गया है। इसने म्यांमार में श्रीलंकाई तमिलों और रोहिंग्या मुसलमानों को भी मान्यता नहीं दी गई है जो अपने देशों में धार्मिक उत्पीड़न का सामना करते हैं। साथ ही, इसमें अहमदिया और शिया जैसे मुस्लिम संप्रदायों के लिए कोई प्रावधान नहीं है, जिन्हें पाकिस्तान में भी उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।

राज्यों को दी गई छूट (व्हिच स्टेट्स आर गिवन एग्जेमप्शन)?

7 पूर्वोत्तर (नॉर्थ ईस्ट) राज्यों को संशोधित प्रावधानों से छूट दी गई है। अधिनियम कहता है, “इस खंड (सेक्शन) में कुछ भी असाम, मेघालय, मिजोरम या त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा जैसा कि संविधान की 6 अनुसूची (शेड्यूल) में शामिल है और बंगाल पूर्वी (ईस्टर्न फ्रंटियर) सीमांत के तहत अधिसूचित ‘इनर लाइन परमिट’ (आईएलपी) के तहत आने वाले बंगाल पूर्वी सीमांत  विनियमन, 1873” क्षेत्र में शामिल है। जिन आदिवासी क्षेत्रों को बाहर रखा गया है उनमें असाम में कार्बी आंगलोंग, मेघालय में गारो हिल्स, मिजोरम में चकमा जिला और त्रिपुरा में जनजातीय क्षेत्र जिला (ट्राइबल एरियाज डिस्ट्रिक्ट) शामिल हैं। “इनर लाइन परमिट” के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड हैं। इसका मतलब है कि इन क्षेत्रों में प्रवेश करने से  या वहा से गुजरने के लिए, अन्य राज्यों के भारतीयों को “इनर लाइन परमिट” प्राप्त करना होगा। यह शंका जताई जा रही है कि संशोधन से मणिपुर सबसे ज्यादा प्रभावित हो सकता है, इसलिए गृह मंत्री (होम मिनिस्टर) अमित शाह ने मणिपुर को आईएलपी के तहत लाने की घोषणा की है। हालांकि, सिक्किम के मुख्यमंत्री पी एस तमांग ने अमित शाह को पत्र लिखकर संविधान के अनुच्छेद 371(F) के तहत संवैधानिक सुरक्षा को रेखांकित करते हुए संशोधन से छूट मांगी थी, जो सिक्किम राज्य को नियंत्रित करता है और इसे विशेष दर्जा प्रदान करता है।

अधिनियम के तहत भारत के प्रवासी नागरिकों की स्थिति (व्हाट इज द पोजिशन ऑफ़ ओवरसीज सिटिज़न्स ऑफ़ इंडिया अंडर द एक्ट)?

संशोधन में कहा गया है कि एक विदेशी ओसीआई (भारत के विदेशी नागरिक) के रूप में पंजीकरण के लिए आवेदन कर सकता है यदि वे भारतीय मूल के हैं (अर्थात भारत के पूर्व नागरिक या उनके वंशज) या ऐसे व्यक्ति का जीवनसाथी भारतीय मूल का है। यह केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किसी भी कानून का उल्लंघन होने पर उनके ओसीआई पंजीकरण को रद्द करने की अनुमति देना चाहता है। हालांकि, संशोधन कानूनों की प्रकृति पर कोई मार्गदर्शन प्रदान नहीं करता है जिसे केंद्र सरकार द्वारा प्रावधान की प्रयोज्यता के लिए अधिसूचित किया जा सकता है। साथ ही, केंद्र सरकार को ऐसे कानूनों को अधिसूचित करने की शक्ति देना जिनके उल्लंघन से ओसीआई कार्ड रद्द हो जाएगा, एक व्यापक विवेक (एक्सेसिव डेलिगेशन) है जो विधायिका द्वारा अत्यधिक प्रतिनिधिमंडल (डिस्क्रीशन ऑफ़ लेजिस्लेचर) की राशि हो सकती है। हमदर्द दवाखाना बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी किया है कि मार्गदर्शन देने के लिए कार्यकारी प्राधिकारी (एक्जीक्यूटिव अथॉरिटी) को शक्ति सौंपते समय विधायिका द्वारा एक नीति, मानक या नियम (पॉलिसी, स्टैंडर्ड ऑर रूल) निर्धारित किया जाना चाहिए, जो प्राधिकरण की शक्तियों पर सीमा निर्धारित करने और शक्तियों के प्रयोग में किसी भी मनमानी से बचने के लिए के लिए आवश्यक है। रद्द करने से पहले ओसीआई कार्डधारकों को सुनवाई का अवसर देने के लिए एक प्रावधान भी जोड़ा गया है।

अधिनियम का समर्थन करने वाले तर्क (आर्गुमेंट सपोर्टिंग द एक्ट)

सरकार ने स्पष्ट किया है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश इस्लामिक गणराज्य हैं और इसलिए, उन देशों में रहने वाले मुसलमानों को सताया नहीं जा सकता। इसने आगे आश्वासन दिया है कि किसी अन्य समुदाय के आवेदन पर मामला दर मामला आधार पर निर्णय लिया जाएगा।

गृह मंत्री अमित शाह ने नेहरू-लियाकत समझौते (पैक्ट) का उल्लेख किया है जिस पर 1950 में भारत और पाकिस्तान के बीच दिल्ली में हस्ताक्षर किए गए थे। इस समझौते में दोनों देशों में अल्पसंख्यकों के बेहतर इलाज के लिए प्रावधान किया गया था। गृह मंत्री ने कहा कि यह समझौता पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल रहा और इस दोष को भारत सरकार द्वारा संशोधन के माध्यम से दूर किया जा रहा है।

एनडीए सरकार ने उद्देश्यों और कारणों के वक्तव्य (स्टेटमेंट) में तर्क दिया है कि:

1947 में धार्मिक आधार पर भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन के बाद अविभाजित (अन डिवाइडेड) भारत के लाखों नागरिक 1947 से पाकिस्तान और बांग्लादेश (पहले पूर्वी पाकिस्तान) में रह रहे थे। पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश का संविधान एक विशिष्ट राज्य धर्म यानी इस्लाम प्रदान करता है। जिसके परिणामस्वरूप उन देशों में हिंदू, जैन, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदायों के कई लोगों को उनके धर्मों के आधार पर उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। इन देशों में इन समुदायों के कुछ लोगों को अपने दैनिक जीवन में ऐसे उत्पीड़न का सामना करने का भी डर है, जहां उनके धर्म को मानने और प्रचार (प्रोफेस) करने का अधिकार बाधित (आब्स्ट्रक) हो गया है। इस तरह के डर से बहुत से लोग शरण (शेल्टर) लेने के लिए भारत भाग गए हैं और यात्रा दस्तावेज समाप्त होने के बाद भी भारत में रहना जारी रखा है या उनके पास अधूरे या कोई दस्तावेज नहीं हैं।

तीन देशों में उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों के लिए अवधि को 11 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष करने के लिए, सरकार ने तर्क दिया कि प्राकृतिककरण द्वारा नागरिकता प्राप्त करने के लिए 11 वर्ष के निवास की शर्त लगाने से “उन्हें कई अवसर और लाभ से वंचित किया जाता है जो केवल भारत के नागरिकों को प्राप्त हो सकते हैं भले ही उनके स्थायी (परमानेंट) रूप से भारत में रहने की संभावना हो।”

अधिनियम का विरोध करने वाले तर्क (अर्गुमेंट्स अपोजिंग द एक्ट)

अनुच्छेद 14 का उल्लंघन (इज देअर ए वॉयलेशन ऑफ़ आर्टिकल 14)?

भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि “राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के सामने समानता या भारत के क्षेत्र में कानूनों के समान संरक्षण से वंचित (डिनाय) नहीं करेगा।” वाक्यांश (फ्रेज) “भारत के क्षेत्र के भीतर” बताता है कि भारत में रहने वाले सभी व्यक्तियों को समानता दी जानी चाहिए जिसमें विदेशी और नागरिक शामिल हैं। इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण के मामले में, अदालत ने “समानता के अधिकार” को संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक के रूप में मान्यता दी। यह नियम पूर्ण नहीं है और यह लोगों के समूहों के बीच वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन) की अनुमति देता है यदि कोई तर्क मौजूद है जो एक उचित उद्देश्य की पूर्ति करता हो, जैसा कि पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार के मामले में किया गया था। अधिनियम को उचित वर्गीकरण परीक्षा भी पास करनी होगी जैसा कि मद्रास राज्य बनाम वी.जी.रो. के मामले में दिया गया था, जिसने परीक्षण के लिए दो सिद्धांतों को रेखांकित किया है, पहला यह कि एक उचित वर्गीकरण होना चाहिए और दूसरा, प्राप्त की जाने वाली वस्तु और कानून के बीच एक सांठगांठ (नेक्सस) होनी चाहिए। इसलिए, यह जांचने की आवश्यकता है कि क्या अवैध अप्रवासियों के वर्गीकरण के लिए कुछ उचित तर्क मौजूद हैं?

  • उनका मूल देश,
  • धर्म,
  • भारत में प्रवेश की तिथि, और
  • भारत में निवास स्थान।

मूल देश (कंट्री ऑफ़ ओरिजिन)

इस संशोधन ने अवैध अप्रवासियों को उनके मूल देश के आधार पर वर्गीकृत किया है। इसने केवल उन अप्रवासियों को भारत की नागरिकता प्राप्त करने की अनुमति दी है जो अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से संबंधित हैं। उद्देश्यों और कारणों के बयान में कहा गया था कि इन देशों में एक राज्य धर्म है जिसके परिणामस्वरूप इन देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों को उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। इसमें कहा गया है कि अविभाजित भारत के लाखों नागरिक विभाजन के बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश में रह रहे थे और इसलिए उनके साथ अलग व्यवहार किया जाता है लेकिन इसमें अफगानिस्तान को शामिल करने के कारणों को निर्दिष्ट नहीं किया गया है।

तमिल ईलम, श्रीलंका में एक भाषाई अल्पसंख्यक और म्यांमार में एक धार्मिक अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों के उत्पीड़न का इतिहास है, जो भी उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं और इन देशों में उत्पीड़न के परिणामस्वरूप, कई लोग शरणार्थी के रूप में भारत भाग आए हैं। यह देखते हुए कि संशोधन का उद्देश्य उन प्रवासियों को नागरिकता प्रदान करना है जो धार्मिक उत्पीड़न से भाग रहे हैं, यह स्पष्ट नहीं है कि संशोधन ने इन देशों के अल्पसंख्यकों को क्यों बाहर रखा है जो उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं।

धर्म (रिलिजन)

संशोधन में भारत की नागरिकता प्राप्त करने के लिए अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के गैर-मुस्लिम समुदायों के अवैध अप्रवासियों को शामिल किया गया है। हालाँकि, इसने उन मुसलमानों को बाहर कर दिया है जिन्हें शायद उत्पीड़न का सामना करना पड़ा हो। इसमें अहमदिया और शिया के मुस्लिम संप्रदाय भी शामिल नहीं हैं, जिन्हें पाकिस्तान में भी उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। यह स्पष्ट नहीं है कि अधिनियम केवल गैर-मुस्लिम समुदायों को ही नागरिकता प्राप्त करने की अनुमति क्यों देता है।

भारत में प्रवेश की तिथि (डेट ऑफ़ एंट्री इंटू इंडिया)

संशोधन केवल 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में प्रवेश करने वाले लोगों को नागरिकता के लिए आवेदन करने की अनुमति देता है। सवाल उठता है कि उस तारीख से पहले और बाद में भारत में प्रवेश करने वाले प्रवासियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार क्यों किया जाता है।

निवास की जगह (प्लेस ऑफ़ रेसीडेंस)

संशोधन छठी अनुसूची में दिए गए अनुसार असाम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के आदिवासी क्षेत्रों (ट्राइबल एरियाज) से संबंधित प्रवासियों के लिए विभेदक उपचार (डिफरेंशियल ट्रीटमेंट) देता है। भारत के संविधान में छठी अनुसूची को स्वायत्त परिषदों (ऑटोनोमस काउंसिल) के माध्यम से आदिवासी क्षेत्रों के विकास में सहायता के लिए लाया गया था, जबकि इन क्षेत्रों में स्वदेशी आबादी को शोषण से बचाने और उनके विशिष्ट सामाजिक रीति-रिवाजों को संरक्षित किया गया था। इसने “इनर लाइन परमिट” क्षेत्रों से संबंधित प्रवासियों को भी छूट दी है। जब इन क्षेत्रों से संबंधित एक अवैध अप्रवासी को नागरिकता मिलती है, तो उस पर उसी तरह के प्रतिबंध लगाए जाएंगे, जो इन क्षेत्रों में अन्य भारतीय नागरिकों पर लागू होते हैं। इन क्षेत्रों में रहने वाले अवैध अप्रवासियों को संशोधन से बाहर क्यों रखा गया है, इसका कोई स्पष्ट कारण नहीं बताया गया है।

अधिनियम धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है (इज़ द एक्ट अगेंस्ट सेक्यूलरीज्म)?

भारत में पारित प्रत्येक कानून बुनियादी संरचना सिद्धांत (बेसिक स्ट्रक्चर थेरी) का उल्लंघन नहीं करेगा। इसलिए कोई भी कानून जो “बुनियादी ढांचे” की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, असंवैधानिक है। एसआर. बोम्मई बनाम भारत संघ, मामले में यह माना गया कि धर्मनिरपेक्षता “मूल संरचना” का एक हिस्सा है। इसलिए, संसद द्वारा पारित कोई भी अधिनियम धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ नहीं होना चाहिए। हालाँकि, अभी के संशोधन ने केवल गैर-मुसलमानों को तभी नागरिकता प्राप्त करने दिया है जब वे 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आए हों, जो कि धर्मनिरपेक्षता के विचार के प्रतिकूल (अनफेवरेबल) है।

असाम के लोग इसका विरोध क्यों कर रहे हैं (व्हाय द पीपल ऑफ़ असाम आर प्रोटेस्टिंग अगेंस्ट इट)?

10 दिसंबर 2019 को लोकसभा द्वारा विधेयक पारित होने के बाद असम में बहुत सारे विरोध शुरू हो गए हैं। यह विधेयक इस वर्ष प्रकाशित होने वाले राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एन आर सी) के उद्देश्य को समाप्त करने का प्रयास करता है। एनआरसी असाम में रह रहे हजारों अवैध बांग्लादेशियों को निकालने (एलिमिनेट) के लिए पास किया गया था। हालांकि, इस कार्य के बाद 19 लाख लोगों ने खुद को एनआरसी से बाहर पाया। इन लोगों में हिंदू और मुसलमान शामिल थे। अब हाल ही के संशोधन में असाम में अवैध रूप से प्रवेश करने वाले गैर-मुसलमानों को नागरिकता देने का प्रयास करता है। लेकिन जब मुसलमानों को नागरिकता देने की बात आती है तो वह चुप रहती है। असाम के लोगों को डर है कि ऐसे प्रवासियों को समायोजित करने से उनकी संस्कृति, परंपरा, भाषा और क्षेत्र की जातीयता (नेशनालिटी) को खतरा हो सकता है, जो उनके विरोध का कारण बन गया है। अवैध अप्रवासियों को असम में रहने की अनुमति देने से राज्य पर आर्थिक बोझ भी पड़ेगा और असम का राजनीतिक भविष्य तय हो सकता है।

असम समझौते का खंड 6 (क्लॉज 6 ऑफ़ असाम अकार्ड)

असाम समझौते पर 1985 में केंद्र सरकार और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (ए ए एस यू) के नेताओं के बीच बांग्लादेश से अवैध अप्रवासियों के निष्कासन (एक्सपल्शन) की मांग को लेकर छह साल के लंबे आंदोलन के अंत में हस्ताक्षर किए गए थे। समझौते का खंड 6 असमिया लोगों की सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई (लिंग्विस्टिक) पहचान और विरासत की रक्षा, संरक्षण और बढ़ावा देने के लिए संवैधानिक, विधायी और प्रशासनिक सुरक्षा प्रदान करने की बात करता है। हालाँकि, समझौते को लागू नहीं किया गया है क्योंकि इसके कार्यान्वयन के लिए नक्शा देने के लिए बनाई गई समिति ने अभी तक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की है। समझौते में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जो 24 मार्च 1971 से पहले अपने पूर्वजों की उपस्थिति साबित नहीं कर सकता है, उसे अवैध अप्रवासी माना जाएगा। एनआरसी अवैध प्रवासियों की पहचान करने और उन्हें निर्वासित करने के लिए असम समझौते में किया गया एक वादा था, लेकिन नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 के बाद, गैर-मुस्लिम समुदायों से संबंधित अवैध प्रवासियों को निर्वासित नहीं किया जा सकता है।

सीएए और एनआरसी में अंतर (व्हाट इज़ द डिफरेंस बिटवीन सीएए एंड एनआरसी)

सीएए और एनआरसी के बीच टकराव है क्योंकि सरकार दोनों को लागू करने की कोशिश कर रही है। हालाँकि, दोनों के बीच अंतर हैं:

  • एनआरसी का उद्देश्य 24 मार्च 1971 के बाद अवैध रूप से बांग्लादेश से असम में प्रवेश करने वाले लोगों को बाहर निकालना है, लेकिन सीएए का उद्देश्य अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के देशों में उत्पीड़न का सामना करने के बाद 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आए छह समुदायों को नागरिकता देना है। 
  • एनआरसी धर्म पर आधारित नहीं है बल्कि सीएए धर्म पर आधारित है।
  • एनआरसी का आधार वर्ष 1971 है लेकिन सीएए के लिए यह 2014 है।
  • एनआरसी अब तक केवल असम पर लागू है, लेकिन सीएए अधिनियम में निर्दिष्ट कुछ क्षेत्रों को छोड़कर पूरे भारत में लागू है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न )

संशोधन के साथ प्रमुख मुद्दा यह है कि यह केवल गैर-मुस्लिम अप्रवासियों को नागरिकता प्रदान करता है जो तीन देशों से 5 साल तक यह रहे हैं। हालाँकि, कोई भी विदेशी अभी भी नागरिकता के लिए आवेदन कर सकता है, लेकिन केवल 11 साल तक भारत में रहने के बाद ही प्राकृतिककरण की सामान्य प्रक्रिया द्वारा पंजीकृत किया जा सकता है। यानी वर्तमान में, संशोधन को चुनौती  देने वाली याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित (पेंडिंग) है जो इसकी संवैधानिक वैधता तय करेगी।

संदर्भ (रेफरेंसेज)

 

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