हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11 और 12 

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Hindu Marriage Act

यह लेख फेयरफील्ड इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी, जीजीएसआईपीयू की बीबीएएलएलबी की छात्रा Tarini Kalra द्वारा लिखा गया है। वर्तमान लेख हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत शून्य (वॉइड) और शून्यकरणीय (वॉयडेबल) विवाहों के बारे में विस्तृत विवरण प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Shubhya Paliwal द्वारा किया गया है।  

Table of Contents

परिचय

विवाह की संस्था को एक पवित्र बंधन और पवित्र मिलन माना जाता है। हिंदू विवाह को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत शासित किया जाता है, जिसका प्राथमिक उद्देश्य हिंदुओं और अन्य लोगों के बीच विवाह को नियंत्रित करने वाले नियमों को संशोधित (मोडिफाई) और विनियमित (रेगुलेट) करना है। यह हिंदुओं और अन्य लोगों के लिए एक व्यक्तिगत कानून है जो हिंदू विवाह, वैवाहिक अधिकारों की बहाली (रेस्टिट्यूशन), न्यायिक अलगाव (सेपरेशन), तलाक, विवाह को रद्द करने (एनुलमेंट), भरण पोषण (मेंटेनेंस) और संरक्षकता (गार्जियनशिप) को नियंत्रित करता है। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अधिनियमन के परिणामस्वरूप सभी हिंदुओं के लिए कानून की स्थिरता (कंसिस्टेंसी) और एकरूपता (यूनिफॉर्मिटी) आई। धारा 2 में कहा गया है कि अधिनियम ऐसे व्यक्ति पर लागू होता है जो अपने किसी भी रूप या विकास में धर्म से हिंदू है, जिसमें वीरशैव, लिंगायत या ब्रह्मो, प्रार्थना या आर्य समाज का अनुयायी (फॉलोवर), या कोई भी व्यक्ति जो बौद्ध, जैन या सिख है या कोई अन्य व्यक्ति जो उस क्षेत्र में रहता है, जिस पर अधिनियम का विस्तार होता है, जो मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं है, जब तक कि यह स्थापित नहीं किया जा सकता कि ऐसा व्यक्ति हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में शामिल हिंदू कानून की किसी भी प्रथा द्वारा शासित नहीं होता, तो उस मामले के संबंध में इस अधिनियम को लागू किया जाएगा। धारा 4 अधिनियम के ओवरराइडिंग प्रभाव पर चर्चा करती है। कोई भी हिंदू कानून नियम, व्याख्या, प्रथा जो इस अधिनियम के लागू होने से पहले अस्तित्व में थी, अब इस अधिनियम द्वारा शामिल किए गए किसी भी मामले पर लागू नहीं होगी। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के लागू होने से ठीक पहले प्रभावी कोई भी पिछला क़ानून, जो इसके किसी भी प्रावधान के साथ विवाद करता है, को निरस्त कर दिया जाना चाहिए।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत “विवाह”

प्राचीन काल से ही विवाह सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक संस्थाओं में से एक रहा है। हिन्दू विवाह को एक पवित्र संस्कार माना जाता है। यह एक आध्यात्मिक (स्पिरिचुअल) धार्मिक समारोह का संस्कार है। जब मान्यता प्राप्त अनुष्ठान (रिचुअल) और समारोह किए जाते हैं तो इसे एक धार्मिक संस्कार के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।

मद्रास उच्च न्यायालय ने मनोरमा अक्किनेनी बनाम जानकीरामन गोविंदराजन (2011) के मामले में फैसला सुनाया कि हिंदू विवाह ने अपनी पवित्रता नहीं खोई है और इसे एक संस्कार माना जाता है न कि अनुबंध।

धारा 5 विवाह पूर्ति के लिए आवश्यक शर्तों की रूपरेखा तैयार करती है। शर्तें इस प्रकार हैं:

  1. विवाह के समय किसी भी पक्ष का जीवित जीवनसाथी नहीं होना चाहिए।
  2. शादी के समय कोई भी पक्ष,
  • मानसिक विकार के कारण वैध सहमति देने में असमर्थ था; या
  • वैध सहमति प्रदान करने में सक्षम था लेकिन एक मानसिक विकार से पीड़ित था जो उन्हें प्रसव (प्रोक्रिएशन) के लिए अनुपयुक्त बना देता है; या
  • पागलपन के आवर्ती (रिकरिंग) हमलों से पीड़ित था।

3. विवाह के समय वर की आयु 21 वर्ष तथा वधु की आयु 18 वर्ष होती चाहिए;

4. जब तक प्रथा विवाह की अनुमति नहीं देती तब तक विवाह के पक्ष निषिद्ध संबंध में नहीं होने चाहिए;

5. विवाह के पक्ष एक-दूसरे के सपिंड नहीं होने चाहिए जब तक कि प्रथा विवाह की अनुमति नहीं देती।

रेंसी मैथ्यू बनाम भरत कुमार (2020) के मामले में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि भले ही हिंदू प्रथागत (कस्टमरी) संस्कारों और समारोहों के अनुसार विवाह किया जाता है, यदि पक्ष में से एक हिंदू नहीं है और धारा 5 के तहत अन्य शर्तें हैं जो पूरी हो गई है, तो यह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 के दायरे में “हिंदू विवाह” नहीं है।

धारा 7 एक हिंदू विवाह के अनुष्ठापन (सोलेमनाइजेशन) की बात करती है। इसमें कहा गया है कि एक हिंदू विवाह को किसी भी पक्ष के प्रथागत संस्कारों और समारोहों के अनुसार संपन्न किया जा सकता है। ऐसे संस्कारों और समारोहों में सप्तपदी शामिल है। सप्तपदी एक रस्म है जिसमें दूल्हा और दुल्हन संयुक्त रूप से पवित्र अग्नि के सामने सात बार परिक्रमा करते हैं ताकि विवाह पूर्ण और बाध्यकारी हो जाए।

धारा 7 के तहत राज्य संशोधन

पोंडिचेरी राज्य संशोधन अधिनियम, 1971 और तमिलनाडु राज्य संशोधन अधिनियम, 1967

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 ने धारा 7A की शुरुआत की, जिसमें कहा गया है कि यह धारा रिश्तेदारों, दोस्तों, या अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति में संपन्न दो हिंदुओं के बीच किसी भी विवाह पर लागू होती है,

  1. विवाह के पक्ष जिस भी भाषा में समझते हैं, उसमें घोषणा करते हैं कि प्रत्येक पक्ष दूसरे पक्ष को अपनी पत्नी या पति के रूप में स्वीकार करता है; या
  2. विवाह के पक्ष एक-दूसरे को माला पहनाते हैं या एक-दूसरे की उंगलियों पर अंगूठियां पहनाते हैं;
  3. थाली बांधने से।

सभी विवाह जो हिंदू विवाह तमिलनाडु संशोधन अधिनियम, 1967 की शुरुआत के बाद अनुष्ठापन पर लागू होते हैं, धारा 7 में उल्लिखित किसी भी बात के बावजूद और इस अधिनियम के अन्य प्रावधानों के अधीन कानूनन वैध होंगे।

धारा 7A के तहत कुछ भी नहीं माना जाएगा:

  1. हिंदू विवाह तमिलनाडु संशोधन अधिनियम, 1967 के लागू होने से पहले धारा 7(2)(b) में वर्णित किसी भी विवाह को मान्यता दें यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं:
  • ऐसा विवाह किसी रीति-रिवाज या कानून द्वारा भंग कर दिया गया हो;
  • वह महिला जो विवाह की पक्ष थी, ने विधिपूर्वक दूसरी शादी कर ली है, चाहे दूसरा पक्ष जीवित था या बाद में; या
  1. ऐसी शुरुआत से पहले किसी भी समय किसी भी दो हिंदुओं के बीच किसी भी विवाह को अमान्य घोषित करें, यदि ऐसा विवाह उस समय वैध था; या
  2. यदि दो हिंदुओं के बीच विवाह को पहले किसी भी कारण से अमान्य घोषित किया गया था, इस तथ्य के अलावा कि किसी भी पक्ष ने पारंपरिक अनुष्ठानों और समारोहों का प्रदर्शन नहीं किया है, तो ऐसे विवाह को वैध माना जाएगा। संशोधन शुरू होने से पहले किसी को भी उसके द्वारा किए गए या किए जाने में विफल रहने के लिए दंडित नहीं किया जाएगा।
  3. धारा 7A (2)(b) में निर्दिष्ट विवाह से पैदा हुए किसी भी बच्चे को पक्ष का वैध बच्चा माना जाएगा।

ए. असुवथामन बनाम भारत संघ (2015) के मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने धारा 7A की वैधता को बरकरार रखा। अदालत ने कहा कि अधिनियमन की संवैधानिकता के पक्ष में एक धारणा है और हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 7A एक विशिष्ट प्रकार के विवाह, सुयामारियाथाई विवाह की अनुमति देती है। अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि भेदभाव के आधार पर प्रावधान को अमान्य नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह धारा 7A की आवश्यकताओं के अनुसार विवाह करने का पक्ष का अधिकार है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत शून्य विवाह

शून्य विवाह एक ऐसा विवाह है जो अमान्य या नाजायज है। एक शून्य विवाह शुरू से ही शून्य होता है, यानी वॉइड एब इनीशियो। शून्य विवाह की डिक्री पूर्व विद्यमान (प्री एक्सिस्टिंग) तथ्य की न्यायिक घोषणा है। धारा 11 में कहा गया है कि किसी भी विवाह को अकृतता (नलिटी) की डिक्री द्वारा शून्य माना जाएगा यदि यह धारा 5 (i), (iv), और (v) के प्रावधानों का उल्लंघन करता है।

शून्य विवाह के लिए आधार

शून्य विवाह के आधार इस प्रकार हैं:

द्विविवाह 

द्विविवाह का अर्थ है किसी और से कानूनी रूप से विवाहित रहते हुए किसी और से विवाह करने की क्रिया। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, धारा 5(i) के तहत द्विविवाह पर रोक लगाता है। धारा 17 द्विविवाह की सजा से संबंधित है। बौद्ध, जैन, या सिख सहित दो हिंदुओं के बीच संपन्न कोई भी विवाह शून्य है यदि विवाह के समय किसी भी पक्ष का पति या पत्नी जीवित था और यह भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 और 495 के प्रावधानों के अधीन है।

शिरोमणि जैन बनाम डॉ. अशोक कुमार जैन (2017) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 17 में यह आदेश दिया गया है कि विवाह को कानून या रिवाज द्वारा आवश्यक संस्कारों के साथ उचित रूप से संपन्न किया जाए। धारा 17 के तहत विवाह की शून्यता धारा 494 का एक आवश्यक घटक है क्योंकि दूसरा विवाह तभी शून्य होगा जब धारा 17 के प्रावधान संतुष्ट होंगे।

पक्ष निषिद्ध संबंध की डिग्री के भीतर हैं

जब तक प्रथा विवाह की अनुमति देती है तब तक विवाह के पक्ष निषिद्ध संबंध में नहीं हैं। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 3(g) निषिद्ध संबंधों को परिभाषित करती है।

निम्नलिखित स्थितियाँ निषिद्ध संबंध की परिभाषा के अंतर्गत आती हैं:

  1. जब एक पक्ष दूसरे का वंशगत लग्न (लिनियल एंटीसीडेंट) हो। वंशगत लग्न में पिता, दादा और परदादा शामिल हैं; या
  2. जब एक पक्ष पारंपरिक पूर्वज या दूसरे के वंशज की पत्नी या पति था; या
  3. जब एक पक्ष दूसरे के भाई या पिता या माता के भाई या दादा या दादी के भाई की पत्नी थी; या
  4. यदि दो भाई-बहन हैं, चाचा और भतीजी, चाची और भतीजा, या भाई और बहन या चचेरे भाई के बच्चे;

संबंध में निम्न शामिल हैं:

  1. आधे या गर्भाशय (यूटरीन) के रक्त से और पूर्ण रक्त से संबंध;
  2. अवैध और वैध रक्त संबंध;
  3. गोद लेने और खून से रिश्ता।

पंजाब-हरियाणा न्यायालय ने किरण कौर बनाम जगीर सिंह बमराह (2014) के मामले में स्पष्ट किया कि अधिनियम की धारा 23(1)(a) के प्रावधान विवाह के किसी भी पक्ष को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, की धारा 11 के तहत ऐसी याचिका जिसमे यह घोषणा करने की मांग की गई हो कि दूसरी शादी शून्य है, दायर करने से नहीं रोकते हैं। 

पक्ष एक-दूसरे के सपिंडा हैं

धारा 3(f) सपिंडा संबंध को परिभाषित करती है। एक व्यक्ति को एक सपिंड रिश्ते में माना जाता है यदि उन्हें व्यक्ति से ऊपर की पीढ़ी की ओर पाया जाता है, माता के माध्यम से उसकी ऊपर के ओर की लग्न में तीसरी पीढ़ी तक (जिसके अंतगर्त तीसरी पीढ़ी भी आती है) और पिता के माध्यम से उसकी ऊपर के ओर की लग्न में पांचवी पीढ़ी तक (जिसके अंतगर्त पांचवी पीढ़ी भी आती है)। यदि दो व्यक्ति एक सपिंड संबंध की सीमाओं के भीतर आने वाले एक वंशीय लग्न को साझा करते हैं, या यदि वे उन मापदंडों (पेरामीटर्स) के भीतर एक दूसरे के वंशीय लग्न हैं, तो उन्हें एक दूसरे का “सपिंड” कहा जाता है।

शून्य विवाह द्वारा हुए बच्चों की वैधता

धारा 16(1) शून्य विवाह द्वारा हुए बच्चों की वैधता से संबंधित है। चाहे बच्चे का जन्म विवाह कानून (संशोधन) अधिनियम, 1976 के पहले या बाद में हुआ हो, चाहे उस विवाह के संबंध में शून्यता की डिक्री प्रदान की गई हो, या इस अधिनियम के तहत एक याचिका के अलावा विवाह को शून्य माना गया हो, लेकिन यह कहा गया है कि एक शून्य विवाह द्वारा हुए कोई भी बच्चा उसी तरह वैध होगा जैसे एक वैध विवाह द्वारा पैदा हुआ बच्चा होता है।

धारा 16(3) के अनुसार, भले ही एक शून्य विवाह द्वारा हुए बच्चे को वास्तविक घोषित किया गया हो, ऐसा बच्चा अपने माता-पिता की संपत्ति अर्जित कर सकता है और पैतृक संपत्ति का अधिकार प्राप्त कर सकता है।

बालकृष्ण पांडुरंग हल्दे बनाम यशोदाबाई बालकृष्ण हल्दे (2018) के मामले में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि एक बच्चे की, शून्य विवाह से हिस्से का दावा करने की क्षमता उसके पिता की अलग संपत्ति की राशि तक सीमित है और वे उनके पिता के जीवनकाल के दौरान कोई दावा नहीं कर सकते। उत्तराधिकार के माध्यम से उनके पिता की अलग संपत्ति पर उनका अधिकार उनकी मृत्यु पर उपलब्ध हो जाता है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत शून्यकरणीय विवाह

शब्द ‘शून्यकरणीय’ का अर्थ है अमान्य या अशक्त होने की क्षमता। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 12, शून्यकरणीय विवाहों से संबंधित है। एक शून्यकरणीय विवाह कानूनी रूप से बाध्यकारी और वैध विवाह होता है। यह तब तक अस्तित्व में रह सकता है जब तक कि सक्षम अदालत विवाह को रद्द करने का आदेश जारी नहीं कर देती है। जब तक कि पक्ष में से एक, विवाह की वैधता के लिए किसी और चीज का उल्लंघन नहीं करता है तब तक इसे एक वैध विवाह माना जा सकता है। एक शून्यकरणीय विवाह के पक्षों के पास विवाह के सभी अधिकार और कर्तव्य होते हैं जब तक कि अदालत एक डिक्री द्वारा संघ का विघटन नहीं कर देती है।

शून्यकरणीय विवाह के आधार

एक शून्यकरणीय विवाह के आधार इस प्रकार हैं:

नपुंसकता

नपुंसकता (इंपोटेंसी) संभोग के कार्य को करने में असमर्थता है। यह एक शारीरिक, मनोवैज्ञानिक या भावनात्मक घृणा हो सकती है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत, नपुंसकता धारा 12(1)(a) के तहत विवाह को शून्यकरणीय कर देती है। यदि विवाह के समय दोनों में से कोई एक पक्ष नपुंसक था तो नपुंसकता के आधार पर दावा किया जा सकता है। प्रतिवादी की नपुंसकता के आधार पर राहत पाने के लिए प्रासंगिक तथ्यों और सबूतों को स्थापित किया जाना चाहिए। नपुंसकता के आधार पर दावा करने के लिए केवल एक आरोप नहीं लगाया जा सकता है।

देवकी नंदन दास बनाम श्रीमती मनोरमा दास (2022), के मामले में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने माना कि यातना और नपुंसकता का झूठा आरोप मानसिक क्रूरता के बराबर है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने युवराज दिग्विजय सिंह बनाम युवरानी प्रताप कुमारी (1969) में फैसला सुनाया कि यदि उनकी मानसिक या शारीरिक स्थिति वैवाहिक उपभोग को यथार्थवादी (रियलिस्टिक) असंभव बनाती है तो एक पक्ष नपुंसक है।

धारा 5(ii) का उल्लंघन

धारा 5 (ii) के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर विवाह को शुन्यकरणीय माना जाएगा यदि विवाह के समय पति या पत्नी में से कोई भी पीड़ित हो:

  1. मानसिक विकार के कारण वैध सहमति देने में असमर्थ; या
  2. वैध सहमति प्रदान करने में सक्षम है लेकिन एक मानसिक विकार से पीड़ित है जो उन्हें प्रसव के लिए अनुपयुक्त बना देता है; या
  3. पागलपन के आवर्ती हमलों से पीड़ित है।

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने तल्लम सुरेश बाबू बनाम टी. स्वेता रानी (2018) के मामले में टिप्पणी की, कि एक व्यक्ति को धारा 12(1)(b) के तहत प्रतिवादी को प्रसव के लिए अयोग्य, या पागलपन के आवर्ती हमलों को साबित करने के लिए, दिमाग को प्रभावित करने वाली सहमति, मानसिक विकार और गंभीरता की अस्वस्थता को साबित करना होगा।

जबरदस्ती या धोखे से प्राप्त सहमति

अगर सहमति बलपूर्वक या धोखे से प्राप्त की जाती है तो विवाह को शुन्यकरणीय माना जाएगा। बल, शारीरिक बल या धमकी के रूप में हो सकता है। धोखाधड़ी की प्रकृति, उम्र की गलत प्रस्तुति, तथ्यों को छुपाने, या प्रतिवादी की किसी भी अन्य परिस्थिति से की जा सकती है जो सहमति को प्रभावित कर सकती है।

याचिकाकर्ता के विवाह में बलपूर्वक या धोखाधड़ी से प्राप्त अभिभावक की सहमति भी धारा 12(1)(c) के दायरे में एक शून्यकरणीय विवाह के लिए एक आधार होगी। बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 भारत में बाल विवाह को रोकने के लिए अधिनियमित किया गया है। यह बाल विवाह के पीड़ितों की सुरक्षा और सहायता भी करता है।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने ममता रानी बनाम सुधीर शर्मा (2014) में टिप्पणी की, कि अपीलकर्ता की मानसिक स्थिति को छुपाना हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 12(1)(c) के तहत विवाह को रद्द करने का आधार है।

विवाह पूर्व गर्भावस्था  को छुपाना

प्रतिवादी द्वारा विवाह पूर्व गर्भावस्था को छुपाना शून्यकरणीय विवाह का एक आधार है। यह वाद हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के प्रारंभ होने के एक वर्ष के भीतर और अधिनियम के प्रारंभ होने के बाद विवाह के एक वर्ष के भीतर स्थापित किया जाना चाहिए। इन आधार के लिए निम्नलिखित आवश्यकताएं हैं

  1. विवाह के समय प्रतिवादी गर्भवती थी;
  2. प्रतिवादी याचिकाकर्ता के अलावा किसी और से गर्भवती थी;
  3. याचिकाकर्ता इस बात से अनजान था कि प्रतिवादी उनकी शादी के समय गर्भवती थी।

नीलावा बनाम मारुति (2013) के मामले में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता जो शून्यता की डिक्री से राहत मांग रहा है, वह धारा 12(1)(d) के तहत आधार साबित करने के लिए उत्तरदायी नहीं है, लेकिन विवाह को शून्य घोषित करने के लिए उसे सबूत की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में, सिविल वाद संस्थित करने के लिए आवश्यक सबूत कि शादी के समय प्रतिवादी याचिकाकर्ता के अलावा किसी अन्य के द्वारा गर्भवती थी संभावना के मामले से अधिक है लेकिन एक उचित संदेह से परे प्रमाण से कम है। याचिकाकर्ता को बिना किसी संदेह के यह स्थापित करना चाहिए कि प्रतिवादी विवाह के समय किसी अन्य व्यक्ति के बच्चे द्वारा गर्भवती थी।

वह आधार जिन पर शून्यकरणीय विवाहों के लिए याचिका स्वीकार नहीं की जा सकती है

जिन आधारों पर शून्यकरणीय विवाहों की याचिका को स्वीकार नहीं किया जा सकता है वे इस प्रकार हैं:

  1. जब बल का संचालन बंद हो गया था या धोखाधड़ी का पता चल गया था, याचिका उसके एक वर्ष से अधिक समय के बाद प्रस्तुत की गई है; या
  2. यदि बल का अस्तित्व समाप्त हो गया था या धोखाधड़ी का खुलासा हो गया था, तो याचिकाकर्ता पति या पत्नी के रूप में विवाह के प्रतिवादी के साथ सहवास (कोहैबिटेट) करने के लिए सहमत हो गया था।

शून्यकरणीय विवाहों द्वारा हुए बच्चों की वैधता

धारा 16(2) शून्यकरणीय विवाह द्वारा हुए बच्चे की वैधता से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि यदि धारा 12 के तहत एक शून्यकरणीय विवाह में शून्यता की डिक्री दी जाती है, तो डिक्री पारित होने से पहले पैदा हुआ या गर्भ धारण करने वाला कोई भी बच्चा विवाह के पक्ष का वैध बच्चा होगा, यदि डिक्री की तारीख पर विवाह का विघटन (डिसोल्यूशन) करने के बजाय उसे रद्द कर दिया गया हो तो, शून्यता की डिक्री के बावजूद वह उनका वैध बच्चा होगा। एक शून्यकरणीय विवाह द्वारा हुए किसी भी बच्चे का माता-पिता की संपत्ति पर अधिकार होता है।

अनिल कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) के मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की, कि एक शून्य या शून्यकरणीय विवाह से पैदा हुआ बच्चा वैध है और ‘परिवार’ की अवधारणा में शामिल होने का हकदार है और इसलिए वह डाइंग इन हार्नेस रूल्स, 1974 के तहत नामांकित होने के लिए भी योग्य है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने रेवनसिद्दप्पा और अन्य बनाम मल्लिकार्जुन और अन्य (2011) के मामले में धारा 16(3) के दायरे को परिभाषित किया। यह बताया गया कि धारा 16(3) ऐसे बच्चों के संपत्ति अधिकारों पर उनके माता-पिता की संपत्ति तक ही सीमित रखने के अलावा कोई प्रतिबंध नहीं लगाती है। नतीजतन, ऐसे बच्चों का अपने माता-पिता की संपत्ति पर अधिकार होगा, चाहे वह स्व-अर्जित हो या विरासत में मिली हो।

शून्य और शून्यकरणीय विवाह का अपवाद

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 (iii) में कहा गया है कि शादी के समय दूल्हे की उम्र 21 साल और दुल्हन की उम्र 18 साल होनी चाहिए। यह प्रावधान न तो शून्य है और न ही शून्यकरणीय है। धारा 18, धारा 5 (iii) के उल्लंघन के मामले में दो साल तक के कारावास या एक लाख रुपये तक के जुर्माने या दोनों की  सजा से संबंधित है।

श्री जितेन्द्र कुमार शर्मा बनाम राज्य और अन्य (2010), के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 (iii) में निर्धारित आयु के उल्लंघन में किए गए विवाह शून्य या शुन्यकरणीय नहीं हैं, लेकिन बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 के प्रावधानों के साथ हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 18 के तहत दंडनीय हैं। 

योगेश कुमार बनाम प्रिया (2021) के मामले में, पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि रद्द करने के लिए कोई याचिका दायर नहीं की जाती है और बच्चा अपनी 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले इसे शून्य घोषित नहीं करता है तो बाल विवाह एक वैध विवाह बन जाता है।

शून्य और शून्यकरणीय विवाह के बीच अंतर 

क्र.सं. आधार  शून्य विवाह शून्यकरणीय विवाह
1. धारा एक शून्य विवाह को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 11 के तहत निपटाया जाता है। एक शून्यकरणीय विवाह को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 12 के तहत निपटाया जाता है।
2. अर्थ एक शून्य विवाह एक विवाह है जो अमान्य या नाजायज है। एक शून्य विवाह, शुरू से ही शून्य होता है। एक शून्यकरणीय विवाह कानूनी रूप से बाध्यकारी है और इसे अमान्य किया जा सकता है या पक्षों में से एक के विकल्प पर रद्द किया जा सकता है।
3. वाद के पक्ष पक्ष पति और पत्नी की वैवाहिक स्थिति को साझा नहीं करते हैं। पक्ष पति और पत्नी की वैवाहिक स्थिति साझा करते हैं।
4. भरण पोषण  शून्य विवाह में भरण-पोषण का दावा नहीं किया जा सकता है। शून्यकरणीय विवाह में भरण-पोषण का दावा किया जा सकता है।
5. शून्यता की डिक्री  शून्य विवाह के लिए शून्यता की डिक्री एक पूर्व-मौजूदा तथ्य की न्यायिक घोषणा है। एक अदालत का आदेश विवाह को अमान्य घोषित कर सकता है।

निष्कर्ष

हालाँकि विवाह एक पति और पत्नी के बीच एक पवित्र रिश्ता है, फिर भी कुछ ऐसे प्रभाव हैं जो विवाह को शून्य या शून्यकरणीय बना सकते हैं। हिंदू विवाह अधिनियम,1955 की धारा 11 और 12 उन पक्षों के लिए एक उपाय प्रदान करती है जो एक शून्य या शून्यकरणीय विवाह में हैं। जब विवाह का कोई पक्ष हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 के प्रावधानों का उल्लंघन करता है, तो विवाह शून्य या शून्यकरणीय होता है। शून्य या शून्यकरणीय विवाहों से बच्चों की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। विवाह कानून संशोधन अधिनियम, 1976 ने स्पष्ट किया है कि इस तरह के विवाह से बच्चों को वैधता की स्थिति प्रदान करने के लिए एक शून्य विवाह की घोषणा की आवश्यकता नहीं है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

क्या एक शून्य विवाह को विवाह माना जा सकता है?

नहीं, एक शून्य विवाह के पक्ष, पति और पत्नी की वैवाहिक स्थिति को साझा नहीं करते हैं।

शून्य विवाह के आधार क्या हैं?

यदि धारा 5 (i), (iv), और (v) के प्रावधान पूरे नही होते हैं, तो विवाह को शून्य घोषित किया जा सकता है।

शून्यकरणीय विवाह और तलाक में क्या अंतर है?

एक शून्यकरणीय विवाह कानूनी रूप से बाध्यकारी है और इसे अमान्य किया जा सकता है जबकि तलाक विवाह का विघटन (डिजोल्युशन) है।

क्या एक शून्यकरणीय विवाह कानूनी होता है?

हां, एक शून्यकरणीय विवाह, कानूनी रूप से बाध्यकारी विवाह है जिसे किसी भी पक्ष की पसंद पर रद्द किया जा सकता है।

संदर्भ

 

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