हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9

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Hindu Marriage Act
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यह लेख Shreya Pandey ने लिखा है, जो रामस्वरूप विश्वविद्यालय, लखनऊ से एलएलएम कर रही हैं। यह लेख विशेष रूप से हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 से संबंधित है और इसकी संवैधानिकता का विश्लेषण करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

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परिचय

भारत में, विवाह को एक संस्कार माना जाता है, जहां शादी करने वाले पुरुष और महिला को एक रिश्ते में बंधा हुआ माना जाता है, जहां उन्हें एक आत्मा माना जाता है। जब एक पुरुष और महिला की शादी होती है तो वे अपनी संस्कृति और धर्म के अनुसार कुछ रीति-रिवाजों का पालन करते हैं जो उन्हें जीवन भर के लिए साथ लाते हैं। उन्हें अंतिम सांस तक साथ रहने वाला माना जाता है और वे अपने सभी सुख-दुख साझा करते हैं और एक-दूसरे का सहारा बनते हैं।

एक ऐसी स्थिति की कल्पना करें जहां दो व्यक्ति एक-दूसरे से शादी कर लेते हैं और शादी के बाद पति पत्नी को छोड़ देता है और बिना कुछ बताए या बिना कोई कारण बताए कहीं और बस जाता है। इस स्थिति में, जिस महिला ने अपने परिवार को छोड़ दिया और एक पुरुष से शादी कर ली, उसके सारे सपने टूट जाते है। इस मामले में, महिला को अपने पति को अपने साथ रहने और ऐसा जीवन जीने के लिए मजबूर करने के लिए कानूनी कदम उठाने का पूरा अधिकार है, जहां वह अपने पति द्वारा परित्यक्त (एबॉन्डन) महसूस करती है। ऐसा कानूनी अधिकार न केवल महिलाओं के लिए उपलब्ध है, बल्कि एक पुरुष भी इस अधिकार का लाभ उठा सकता है यदि उसकी पत्नी बिना कोई उचित बहाना दिए पति के समाज से हट जाती है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (एचएमए) विवाहित जोड़े को उनके विवाह में एक-दूसरे के विरुद्ध कुछ कर्तव्य और अधिकार प्रदान करता है। विवाह में, यह माना जाता है कि विवाह के बाद पुरुष और महिला को एक साथ रहना चाहिए। विवाह में दोनों पक्षों को अपने पति या पत्नी से आराम पाने का अधिकार है और यदि पति-पत्नी में से एक अनुचित रूप से अपने दायित्वों को पूरा करने में विफल रहता है, तो दूसरे पति या पत्नी को ऐसा करने के लिए उसे मजबूर करने का अधिकार है और इसके लिए उपाय है।

वैवाहिक अधिकारों की बहाली (रेस्टिट्यूशन ऑफ कंज्यूगल राइट्स)

वैवाहिक अधिकारों की बहाली का अर्थ है दोनों पति-पत्नी के बीच वैवाहिक संबंधों को फिर से शुरू करना। मुख्य उद्देश्य विवाह को संपन्न करना और एक दूसरे के समाज और आराम के साथ जुड़ना है। वैवाहिक अधिकारों की बहाली की याचिका अदालत को मामले का फैसला करने के लिए पक्षों के बीच हस्तक्षेप करने और विवाह संघ को संरक्षित करने के लिए बहाली की डिक्री प्रदान करने के लिए दायर की जाती है।

वैवाहिक अधिकारों की बहाली विवाह के किसी भी पक्ष के लिए उपलब्ध एक राहत या उपाय है, जिसे दूसरे पति या पत्नी द्वारा परित्याग का कोई उचित आधार दिए बिना छोड़ दिया गया है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 को समझना

श्रीमती सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा, 1984 में विवाह को एक ऐसा बंधन माना गया था जहां पति और पत्नी दोनों को एक सामान्य जीवन साझा करना चाहिए, जहां वे सुख साझा करेंगे और दुखों में भी एक-दूसरे के साथ खड़े रहेंगे।

एचएमए, 1955 की धारा 9 वैवाहिक अधिकारों की बहाली के बारे में बात करती है जिसमें कहा गया है कि ऐसी स्थिति में जहां एक पति या पत्नी दूसरे पति या पत्नी को बिना कोई उचित कारण बताए समाज से अलग हो जाते हैं, तो दूसरे पति या पत्नी के पास वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक जिला अदालत में याचिका दायर करने का उपाय होता है। यदि अदालत संतुष्ट है कि याचिका में प्रस्तुत बयान सही हैं और बहाली का उपाय देने में कोई कानूनी रोक नहीं है, तो अदालत वैवाहिक अधिकारों की बहाली की डिक्री पास कर सकती है।

इस धारा में कहा गया है कि अदालत निम्नलिखित शर्तों के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक डिक्री दे सकती है:

  1. जब कोई भी पक्ष बिना कोई उचित कारण बताए दूसरे पति या पत्नी के समाज से हट गया हो;
  2. अदालत इस तथ्य से संतुष्ट है कि याचिका में दिए गए बयान सही हैं;
  3. कोई कानूनी आधार नहीं है जिस पर याचिका को अस्वीकार किया जा सकता हो।

इस धारा के तहत, ‘समाज’ शब्द का अर्थ है सहवास (कोहेबिटेशन) और साहचर्य (कंपेनियनशिप), जो एक व्यक्ति एक विवाह में अपेक्षा करता है। ‘समाज से वापसी’ शब्द का अर्थ है ‘एक वैवाहिक संबंध से हटना’।

श्रीमती मंजुला झवेरीलाल बनाम झवेरीलाल विट्ठल दास, 1973 में, न्यायालय ने कहा कि जब पीड़ित पक्ष वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक याचिका दायर करता है और यह साबित करता है कि बचाव पक्ष पीड़ित पक्ष के समाज से हट गया है, तो बचाव पक्ष यह साबित करने के लिए कामयाब होगा कि उसके पास अपने पति या पत्नी को छोड़ने का एक उचित कारण था।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के आवश्यक तत्व

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं:

  1. आवेदक और प्रतिवादी के बीच विवाह कानूनी, वैध और अस्तित्व में है।
  2. प्रतिवादी को आवेदक के समाज से हट जाना चाहिए।
  3. समाज से इस तरह से हटना अन्यायपूर्ण और अनुचित होना चाहिए।
  4. अदालत को संतुष्ट होना चाहिए कि आवेदक द्वारा बताई गई याचिका और तथ्य सही हैं।
  5. अदालत को संतुष्ट होना चाहिए कि डिक्री को अस्वीकार करने का कोई कानूनी आधार नहीं है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के तहत कौन याचिका दायर कर सकता है?

  • पति या पत्नी में से कोई भी हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के तहत याचिका दायर कर सकता है।
  • जिस पक्ष को शादी में दूसरे व्यक्ति ने छोड़ दिया है, उसे इस धारा के तहत मामला दर्ज करना चाहिए।
  • याचिका उस व्यक्ति द्वारा की जाती है जो दूसरे व्यक्ति को अपने दायित्वों को पूरा करने और अपनी शादी को पूरा करने के लिए मजबूर करने के लिए अपनी शादी को फिर से स्थापित करना चाहता है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के तहत मामला दर्ज करने के लिए आवश्यक शर्तें

इस धारा के तहत मामला दर्ज करने के लिए निम्नलिखित दो आवश्यक शर्तें पूरी होनी चाहिए:

  1. पति और पत्नी को बिना किसी उचित बहाने के अलग-अलग रहना चाहिए।
  2. पीड़ित पति या पत्नी ने एचएमए की धारा 9 के तहत मामला दर्ज कराया है।

इस धारा के तहत याचिका कैसे और कहाँ दर्ज करें?

वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए याचिका एक परिवार न्यायालय के समक्ष दायर की जाती है, जिसका क्षेत्राधिकार (ज्यूरिस्डिक्शन) उस क्षेत्र पर होता है जहां:

  • विवाह समारोह संपन्न हुआ था;
  • पति-पत्नी साथ रहते थे;
  • पत्नी फिलहाल रह रही है।

उपयुक्त पारिवारिक न्यायालय दोनों पक्षों को सुनने के बाद और संतुष्ट होने के बाद कि पति या पत्नी बिना कोई उचित कारण बताए चले गए, अदालत उस पति या पत्नी को पीड़ित पक्ष के साथ रहने का आदेश देगी और यदि आवश्यक हो तो प्रतिवादी की संपत्ति को कुर्क (अटैच) करने का आदेश देगी। यदि प्रतिवादी परिवार न्यायालय द्वारा डिक्री में दिए गए निर्देश को एक वर्ष के भीतर पूरा नहीं करता है, तो याचिकाकर्ता तलाक का मामला दायर कर सकता है।

डिक्री के निष्पादन (एग्जिक्यूशन) के लिए आवेदन कैसे दर्ज करें

वैवाहिक अधिकारों की बहाली के एक डिक्री के निष्पादन के लिए, याचिकाकर्ता ट्रायल अदालत के समक्ष निष्पादन याचिका का मामला दायर कर सकता है। वैवाहिक अधिकारों की बहाली के तहत एक डिक्री प्राप्त करने के बाद पति या पत्नी को यह दूसरा कदम उठाना चाहिए। एचएमए की धारा 9 के तहत पास डिक्री के निष्पादन के लिए, डिक्री धारण करने वाले पति या पत्नी सीपीसी के आदेश 21 नियम 32 के तहत मामला दर्ज कर सकते हैं। यह वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए पास डिक्री के निष्पादन से संबंधित है।

आदेश 21 नियम 32 कहता है कि जिस पक्ष के खिलाफ विशिष्ट प्रदर्शन (स्पेसिफिक परफॉर्मेंस) के लिए डिक्री पास की गई है, वह इसका पालन नहीं करता है या स्वेच्छा से पालन करने में विफल रहता है, तो दूसरा पक्ष निष्पादन का मामला दर्ज कर सकता है, जिसे निम्नलिखित दो तरीकों से लागू किया जा सकता है:

  • सिविल जेल में नजरबंदी (डिटेंशन); या
  • संपत्ति की कुर्की।

याचिका खारिज करने के आधार

सुशीला बाई बनाम प्रेम नारायण, 1986 में अदालत ने कहा कि बहाली के मुकदमे के लिए निम्नलिखित बचाव हो सकते हैं:

  1. प्रतिवादी वाद के खिलाफ वैवाहिक राहत का दावा कर सकता है।
  2. कोई भी सबूत जो साबित करता है कि याचिकाकर्ता किसी भी कदाचार (मिसकंडक्ट) का दोषी है।
  3. ऐसी स्थिति में जहां दोनों पति-पत्नी का एक साथ रहना नामुमकिन हो।

वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए याचिका को खारिज करने के आधार हो सकते हैं:

  1. याचिकाकर्ता द्वारा क्रूरता
  2. वैवाहिक कदाचार
  3. पति या पत्नी में से किसी एक का पुनर्विवाह
  4. कार्यवाही प्रारंभ करने में विलम्ब।

सबूत का बोझ

सबूत का बोझ दोनों पक्षों पर निम्नलिखित तरीकों से होता है:

  1. याचिकाकर्ता – याचिका दायर करने वाले के पास यह साबित करने के लिए सबूत का प्रारंभिक बोझ है कि प्रतिवादी ने बिना कोई उचित कारण बताए याचिकाकर्ता के समाज से त्याग कर लिया है।

श्रीमती अरुणा गॉर्डन बनाम श्री जी.वी. गॉर्डन, 1999 के मामले में प्रतिवादी को उचित कारण बताए बिना यह साबित करने के बोझ को स्थानांतरित (शिफ्ट) करने के लिए पुनरीक्षण (रिवीजन) याचिका दायर की गई थी कि क्या प्रतिवादी ने समाज से त्याग कर लिया है। अदालत ने माना कि सबूत का बोझ शुरू में याचिकाकर्ता पर रहेगा कि वह यह साबित करे कि प्रतिवादी बिना कोई उचित कारण बताए याचिकाकर्ता के समाज से हट गया है और फिर सबूत का बोझ प्रतिवादी पर स्थानांतरित कर दिया जाएगा ताकि वह उसके खिलाफ दिए गए बयानों से खुद को मुक्त कर सके और यह साबित करें कि उचित कारण बताने के बाद त्याग किया गया था।

2. प्रतिवादी – जब याचिकाकर्ता यह साबित कर देता है कि प्रतिवादी याचिकाकर्ता के समाज से हट गया है, तो सबूत का बोझ प्रतिवादी पर यह साबित करने के लिए स्थानांतरित हो जाता है कि याचिकाकर्ता के समाज से हटने का एक उचित बहाना था।

पी राजेश कुमार बागमार बनाम स्वाति राजेश कुमार बागमार, 2008 के मामले में अदालत ने माना कि शुरुआत में सबूत का बोझ याचिकाकर्ता पर है जो यह साबित करने के लिए बहाली के डिक्री का दावा कर रहा है कि प्रतिवादी ने बिना किसी उचित कारण के याचिकाकर्ता के समाज से त्याग कर लिया है और जब अदालत याचिकाकर्ता द्वारा दिए गए बयानों के सच होने से संतुष्ट हो जाती है, तो यह साबित करने के लिए कि इस तरह के त्याग के लिए एक उचित बहाना मौजूद है, यह बोझ प्रतिवादी पर स्थानांतरित हो जाता है।

उचित बहाना का अर्थ

एचएमए की धारा 9 के तहत प्रयुक्त ‘उचित बहाना’ शब्द का अर्थ निम्नलिखित हो सकता है:

  1. एक उचित बहाना कुछ भी हो सकता है, जो प्रतिवादी को वैवाहिक राहत प्रदान कर सकता है।
  2. यदि याचिकाकर्ता वैवाहिक दुराचार का दोषी है, जो अधिनियम के तहत तलाक या अलगाव (सेपरेशन) का आधार नहीं है, लेकिन यह एक उचित बहाना बनाने के लिए पर्याप्त है।
  3. यदि याचिकाकर्ता वैवाहिक दुराचार या किसी ऐसे कार्य या चूक का दोषी है, जो प्रतिवादी के लिए याचिकाकर्ता के साथ रहना मुश्किल या लगभग असंभव बना देता है तो उसे भी एक उचित बहाना माना जाएगा।

निम्नलिखित एक उचित बहाना हो सकते है:

  • क्रूरता;
  • नपुंसकता (इंपोटेंसी);
  • दहेज की मांग;
  • व्यभिचार (एडल्ट्री) के झूठे आरोप;
  • सहवास से इंकार;

ऐसा कोई भी कार्य दूसरे व्यक्ति के लिए याचिकाकर्ता के साथ रहना असंभव बना देता है।

अन्य विधियों में वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए प्रावधान

भारत में, वैवाहिक अधिकारों की बहाली का उपाय न केवल हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के तहत ही नहीं, बल्कि निम्नलिखित प्रावधानों में भी उपलब्ध है:

वैवाहिक अधिकारों की बहाली की आवश्यकता

भारत में विवाह को एक ऐसा बंधन माना जाता है, जिसे मृत्यु के बाद भी जारी रखना होता है। त्याग या परित्याग को अच्छा या सामान्य नहीं माना जाता है, इसलिए यह कठिन होता है कि शादी के दोनों पक्ष अपनी समस्याओं को सुलझाएं और एक-दूसरे का साथ दें और साथ रहें। जब एक पुरुष और महिला एक-दूसरे से शादी करते हैं, तो उन्हें एक आत्मा माना जाता है, जो एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं और इसलिए यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि ऐसे मामले में जहां एक व्यक्ति दूसरे को छोड़ देता है, जोड़े को एक साथ लाने के लिए कुछ कदम उठाए जाते हैं। वे जिस रिश्ते में हैं, उसकी गंभीरता को समझें। वैवाहिक अधिकारों की बहाली वह कदम है जो दोनों पक्षों को एक दूसरे के साथ रहने के लिए मजबूर करता है।

वैवाहिक अधिकारों की बहाली एक उपाय है, जिसका एक व्यक्ति लाभ उठा सकता है यदि वह अपने रिश्ते को फिर से एक मौका देना चाहता है। इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि कानून में एक कानूनी उपाय हो जो एक वैवाहिक रिश्ते में एक व्यक्ति को एक साथ रहने में मदद कर सकता है, जहां वे अपने मतभेदों को सुलझा सकते हैं और अपने बंधन को मौका दे सकते हैं, या आपसी समझ में आ सकते हैं कि वे भविष्य में साथ रह सकते हैं या नहीं। एक मौका दिए बिना एक व्यक्ति को अनुत्तरित (अनआंसर्ड) और उचित बहाने के बिना छोड़ दिया जाता है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के संबंध में न्यायिक निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा, 1984 में एचएमए की धारा 9 की संवैधानिकता को मान्य किया था। अदालत ने माना कि प्रतिवादी वैवाहिक दायित्वों का पालन करेगा और याचिकाकर्ता के साथ सहवास करेगा। अदालत ने यह भी कहा कि यदि प्रतिवादी एक वर्ष के भीतर डिक्री का पालन करने में विफल रहता है या जानबूझकर विफल रहता है तो याचिकाकर्ता को एचएमए की धारा 13 के तहत तलाक के लिए मामला दर्ज करने का अधिकार है।

सर्वोच्च न्यायालय ने सीमा बनाम राकेश कुमार, 2000 में यह माना कि याचिकाकर्ता अपने पति से गुजारा भत्ता (मेंटिनेंस) पाने की हकदार है यदि वह एक साथ रहने के बावजूद अपने दम पर एक अच्छा जीवन जीने में सक्षम नहीं है।

जगदीश लाल बनाम श्रीमती श्यामा मदन और अन्य, 1966 के मामले में पति द्वारा वैवाहिक अधिकारों की बहाली का मामला दायर किया गया था। इस मामले में पत्नी ने साबित कर दिया कि उसका पति नपुंसक था। अदालत ने इसे याचिका को खारिज करने का आधार माना और इसलिए वाद को खारिज कर दिया।

हरविंदर कौर बनाम हरविंदर सिंह, 1984 में अदालत ने माना कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली की डिक्री जोड़ों के लिए एक साथ रहने के लिए एक प्रलोभन के रूप में कार्य करती है। अदालत ने आगे कहा कि यह पति-पत्नी में से किसी पर भी शारीरिक संबंध बनाने के लिए कोई दबाव नहीं बनाता है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 की संवैधानिकता

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 की संवैधानिकता पर सवाल टी. सरिता बनाम टी. वेंकट सुब्बैया, 1983 के मामले में उठाया गया था, जहां यह तर्क दिया गया था कि यह धारा संवैधानिक रूप से अमान्य है क्योंकि यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है। आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने माना कि एचएमए की धारा 9 असंवैधानिक और शून्य है क्योंकि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन है जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकार है। अदालत ने कहा था कि अगर पत्नी को अपने पति के साथ रहने के लिए मजबूर किया जाता है, तो यह उसके निजता (प्राइवेसी) के अधिकार का भी उल्लंघन होगा और न्यायालय ने आगे कहा कि बहाली का उपाय शरीर और मन की हिंसात्मकता (इन्वियोबैलिटी) को ठेस पहुँचाता है और ऐसे व्यक्ति की वैवाहिक गोपनीयता और घरेलू अंतरंगता (इंटिमेसी) पर आक्रमण करता है।

बाद में, सर्वोच्च न्यायालय ने सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चंद्र, 1984 के मामले में हरविंदर कौर बनाम हरविंदर सिंह, 1984 के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा किए गए निर्णय को बरकरार रखते हुए एचएमए की धारा 9 और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के बीच संघर्ष को हल किया और यह माना कि “डिग्री का उद्देश्य केवल जीवनसाथी को साथ रहने के लिए प्रलोभन देना था, और यह अनिच्छुक पत्नी को पति के साथ यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर नहीं करता है।”

वैवाहिक अधिकारों की बहाली एक उपाय है जो एक जोड़े के वैवाहिक संबंधों की रक्षा करने की कोशिश करता है और यह भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है। अदालत ने आगे स्पष्ट किया कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली की डिक्री जोड़े को एक-दूसरे के साथ यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर नहीं करती है, बल्कि यह केवल उनके बीच एक साहचर्य लाने की कोशिश करती है।

ओजस्वा पाठक बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, 2019 में वैवाहिक अधिकारों की बहाली की संवैधानिकता को निम्नलिखित आधारों पर चुनौती दी गई थी:

  1. इस धारा के तहत दी गई डिक्री एक महिला की स्वायत्तता (ऑटोनोमी) के खिलाफ है क्योंकि यह एक महिला को उसकी इच्छा के बिना अपने पति के घर वापस जाने के लिए मजबूर करती है, जहां उसे क्रूरता या दुराचार का शिकार होना पड़ सकता है।
  2. यह धारा अप्रत्यक्ष (इंडायरेक्ट) रूप से यौन स्वायत्तता के निजी हितों के खिलाफ जाती है और उन्हें एक-दूसरे के साथ यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करती है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
  3. यह धारा महिलाओं पर एक असमान और अन्यायपूर्ण बोझ डालती है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15(1) के विपरीत है।

अदालत ने अभी तक मामले का फैसला नहीं किया है और मामला अभी भी लंबित है।

इंग्लैंड के मध्ययुगीन चर्च के कानून ने परित्याग को वैवाहिक राहत के रूप में नहीं माना। इसने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के उपाय के लिए प्रदान किया है। यह उपाय ब्रिटिश आम कानून में उपलब्ध नहीं था और 9 जुलाई 1969 को मिस्टर जस्टिस स्कारमैन की अध्यक्षता में ब्रिटिश लॉ कमीशन ने बहाली के असभ्य उपाय को समाप्त करने का सुझाव दिया था। ब्रिटिश संसद ने आयोग द्वारा दिए गए सुझाव को स्वीकार कर लिया और वैवाहिक कार्यवाही और संपत्ति अधिनियम, 1970 की धारा 20 को अधिनियमित (इनेक्ट) किया, जिसके माध्यम से उसने वैवाहिक अधिकारों की बहाली को समाप्त कर दिया।

निष्कर्ष

इस उपाय की दोनों संभावनाओं का विश्लेषण करते हुए यह समझना जरूरी है कि यह जनता के लिए फायदेमंद है या नहीं। भारतीय संस्कृति के अनुसार, एक जोड़े को एक-दूसरे का साथ रहने और अपने रिश्ते को काम करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए। यह धारा इन संस्कृतियों को एक कानूनी आधार प्रदान करती है लेकिन दूसरी तरफ यह दो व्यक्तियों को एक साथ रहने के लिए मजबूर करती है जो एक दूसरे के साथ नहीं रहना चाहते हैं और जो रिश्ते बल से बने हैं उनका कोई भविष्य नहीं है।

अदालत ने अभी ओजस्वा मामले के तहत धारा 9 की संवैधानिकता पर फैसला नहीं किया है। यह आशा की जाती है कि माननीय न्यायालय एक निर्णय पर आएगा जो जनता के हित में होगा और जिसमें भारतीय संस्कृति का सार भी होगा।

संदर्भ

 

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