आईपीसी की धारा 363 

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5502
Indian Penal Code
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यह लेख ग्राफिक एरा हिल यूनिवर्सिटी, देहरादून के बीएएलएलबी के छात्र Monesh Mehndiratta द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारतीय दंड संहिता, 1860 में वर्णित दो प्रमुख प्रकार के व्यपहरण (किडनैपिंग) के साथ-साथ आईपीसी की धारा 363 के तहत दी गई सजा की व्याख्या करता है। इसके अलावा, यह व्यपहरण और अपहरण (एबडक्शन) के अपराध के अंतर को बताता है और प्रमुख निर्णयों के बारे में विस्तार से बताता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 359 से धारा 369, व्यपहरण और अपहरण के अपराध से संबंधित है। इन प्रावधानों को लागू करने का मुख्य उद्देश्य नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बनाए रखना, बच्चों का अवैध और अनैतिक उद्देश्यों के लिए अपहरण होने से बचाना और अभिभावकों (गार्डियन) और उनके बच्चों की अभिरक्षा (कस्टडी) के माता-पिता के अधिकारों की रक्षा करना है। व्यपहरण के अपराध में आईपीसी की धारा 363 के तहत सजा दी जाती है। व्यपहरण को अंग्रेजी में किडनैपिंग कहा जाता है जो दो शब्दों से मिलकर बना है: किड का अर्थ है बच्चा और नैपिंग का अर्थ है ले जाना या चोरी करना। इस प्रकार, इसका अर्थ है माता-पिता से बच्चे को चुराना या बच्चे को जबरदस्ती ले जाना या माता-पिता के कब्जे से प्रलोभन देकर ले जाना। धारा 363 को समझने के लिए भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत व्यपहरण की अवधारणा और उसके प्रकारों को समझना आवश्यक है। लेख व्यपहरण के प्रावधानों के साथ-साथ इसकी सजा और अपहरण और व्यपहरण के बीच के अंतर की व्याख्या भी करता है।

व्यपहरण के प्रकार

भारतीय दंड संहिता, 1860 में धारा 359 के तहत वर्गीकृत दो प्रकार के व्यपहरण हैं:

1. भारत से व्यपहरण (धारा 360)

आईपीसी की धारा 360, भारत से व्यपहरण के अपराध से संबंधित है जिसका अर्थ है किसी व्यक्ति को देश की सीमाओं से दूर ले जाना। इस अपराध को स्थापित करने के लिए, निम्नलिखित घटको को पूरा किया जाना चाहिए:

  • किसी भी व्यक्ति को भारत की सीमाओं या क्षेत्रों के बाहर ले जाना।
  • यह उस व्यपहरण किए जाने वाले व्यक्ति या उस व्यक्ति की सहमति के बिना होना चाहिए जिसे कानूनी रूप से उसकी ओर से सहमति देने की अनुमति है।

उदाहरण: ‘X’ मुंबई में रहने वाला एक व्यक्ति है। ‘Y’ बिना उसकी सहमति के उसे जबरदस्ती कनाडा ले जाता है। यहां Y ने भारत से व्यपहरण का अपराध किया है।

2. वैध अभिभावक (गार्डियन) से व्यपहरण (धारा 361)

धारा 361, 16 वर्ष से कम आयु के पुरुष और 18 वर्ष से कम आयु की महिला के उनके वैध अभिभावकों से व्यपहरण से संबंधित है। इस धारा का एक अन्य उद्देश्य विकृत मन वाले व्यक्ति की रक्षा करना है। यह प्रावधान कुछ हद तक व्यक्ति के खिलाफ अपराध अधिनियम, 1861 की धारा 55 के समान है।

इस धारा के अनुसार इस अपराध के लिए घटक निम्नलिखित हैं:

  • नाबालिग (माइनर) या विकृत मन वाले व्यक्ति को लेना या बहकाना।
  • व्यक्ति की आयु 16 वर्ष से कम होनी चाहिए।
  • यह वैध अभिभावकों की देखरेख से दूर करने के लिए किया जाना चाहिए।
  • ऐसा अभिभावक की सहमति के बिना किया जाना चाहिए।

उदाहरण: A 11 साल की एक लड़की है और अपने पिता के साथ रहती है जो उसके वैध अभिभावक है। एक दिन B उसे उसके पिता की सहमति के बिना उसके साथ आने के लिए प्रेरित करता है। इधर, B ने एक वैध अभिभावक से व्यपहरण का अपराध किया है।

हरियाणा राज्य बनाम राजा राम (1972)

मामले के तथ्य

इस मामले में, एक व्यक्ति J ने एक विकृत दिमाग वाली लड़की को, उसके पिता का घर छोड़कर अपने घर आने के लिए बहकाने की कोशिश की। जब पिता को पता चला तो उसने उस व्यक्ति को अपने घर में प्रवेश करने से मना कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप उसने लड़की को मैसेज करना शुरू कर दिया। प्रतिवादी ने लड़की को अपने घर आने के लिए कहकर और J के घर ले जाने में उसकी मदद की। एक रात, लड़की प्रतिवादी के घर गई और वह उसे J के पास ले गया।

मामले में शामिल मुद्दा 

क्या प्रतिवादी आईपीसी की धारा 361 के तहत व्यपहरण का अपराध करने का दोषी है?

अदालत का फैसला

प्रतिवादी को निचली अदालत ने दोषी ठहराया था लेकिन जब उसने उच्च न्यायालय में अपील की तो उसे बरी कर दिया गया। उसी मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धारा नाबालिग और विकृत दिमाग वाले व्यक्ति को किसी के द्वारा प्रेरित या बहकाने से बचाती है। यह उनके अभिभावकों के अभिरक्षा के अधिकार की भी रक्षा करता है। इसने आगे कहा कि यह तथ्य कि लड़की ने सहमति दी थी या नहीं, यह तय करते समय अप्रासंगिक है कि व्यपहरण का अपराध संहिता की धारा 361 के तहत किया गया है या नहीं। इसके साथ, प्रतिवादी को अपराध के लिए उत्तरदायी ठहराया गया था।

दूर ले जाना या लुभाना

बिश्वनाथ मल्लिक बनाम उड़ीसा राज्य (1995) के मामले में ‘दूर ले जाना’ और ‘लुभाने’ के बीच की अवधारणा और अंतर को स्पष्ट किया गया था। जिसमें एक लड़की का आरोपी द्वारा व्यपहरण कर लिया गया और उसे विभिन्न स्थानों पर ले जाया गया। आखिरकार लड़की आरोपी के रिश्तेदार के घर मिल गई। अदालत ने मामले का फैसला करते हुए कहा कि ‘दूर ले जाने’ का मतलब अभिभावक के कब्जे से बाहर करना है जहां व्यपहरण किए गए व्यक्ति की सहमति आवश्यक नहीं है। दूसरी ओर, ‘लुभाने’ का अर्थ है कि व्यपहरण किया गया व्यक्ति आरोपी द्वारा प्रेरित किया जाता है ताकि वह अपनी इच्छा से जाए। ‘ले जाने’ में मानसिक तत्व या मेन्स रीआ गायब होती है और यह महत्वपूर्ण नहीं है जबकि ‘लुभाने’ में इसका बहुत महत्व है।

व्यपहरण के अपराध को कब पूर्ण कहा जाता है?

अपराध तब पूरा हुआ कहा जाता है जब विकृत मन या नाबालिग व्यक्ति को सहमति के बिना वैध अभिभावक से दूर ले जाया जाता है और यह एक सतत (कंटिन्यूइंग) अपराध नहीं है।

उदाहरण: एक नाबालिग लड़की को ‘X’ ने घर छोड़ने के लिए बहकाया और उसे कार में बिठाने का वादा किया, यह माना गया कि अपराध तब पूरा हुआ जब उस व्यक्ति ने कार चलाई। (सैय्यद अब्दुल सत्तार बनाम एंपरर, 1928)

वैध अभिभावक

यह धारा वैध अभिभावकों के बारे में बात करती है न कि कानूनी अभिभावकों की। एक वैध अभिभावक और एक कानूनी अभिभावक की समान होने की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिए, एक स्कूल मास्टर एक वैध अभिभावक होता है लेकिन माता-पिता कानूनी अभिभावक होते हैं। एक वैध अभिभावक में एक प्राकृतिक अभिभावक, वसीयतनामा अभिभावक (अदालत द्वारा नियुक्त) या एक ऐसा व्यक्ति शामिल होता है जिसे नाबालिग या विकृत मन वाले व्यक्ति की देखभाल करने के लिए सौंपा जाता है। नाबालिग को एक वैध अभिभावक की अभिरक्षा में होना चाहिए अन्यथा धारा लागू नहीं की जाएगी।

धारा 363 आईपीसी: व्यपहरण के अपराध के लिए सजा

संहिता की धारा 363 के तहत धारा 360 और 361 के तहत वर्णित व्यपहरण के अपराध की सजा दी गई है। जुर्माने के साथ सजा में कारावास शामिल है जो सात साल तक है और अपराध की गंभीरता के आधार पर यह या तो सरल या कठोर हो सकती है। अपराध संज्ञेय (कॉग्निजेबल), जमानती और प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय (ट्रायबल) है।

जमानती और गैर जमानती अपराध के बीच अंतर 

आधार  जमानती अपराध  गैर जमानती अपराध 
प्रावधान  सीआरपीसी की धारा 2 (a) में परिभाषित किया गया है। अपराधों को पहली अनुसूची में वर्गीकृत किया गया है। सीआरपीसी की धारा 2 (a) में परिभाषित है। अपराधों को पहली अनुसूची में वर्गीकृत किया गया है।
अपराध की प्रकृति  प्रकृति में कम गंभीर है। यह प्रकृति में गंभीर है।
सजा  सजा आमतौर पर 3 साल या 3 साल से कम होती है। सजा 3 साल से अधिक और आजीवन कारावास तक हो सकती है।
जमानत  इसमें जमानत, व्यक्ति के अधिकार की मामला है। इसमें जमानत अदालत के विवेक पर छोड़ दी गई है।
उदाहरण  धोखाधड़ी, रिश्वतखोरी, गैरकानूनी सभा, आदि। दहेज हत्या, हत्या, बलात्कार, आदि।

कंपाउंडेबल और नॉन-कंपाउंडेबल अपराध के बीच अंतर

आधार  कंपाउंडेबल  नॉन-कंपाउंडेबल 
प्रकृति  प्रकृति में कम गंभीर है। यह प्रकृति में गंभीर है।
आरोप वापस लेना  इसमें आरोपों को वापस लिया जा सकता है। इसमें आरोपों को वापस नहीं लिया जा सकता है।
पक्षों पर प्रभाव  निजी व्यक्तियों को प्रभावित करता है। निजी व्यक्तियों और समाज दोनों को प्रभावित करता है।
कंपाउंडेबिलीटी  मामले का समझौता अदालत की अनुमति के साथ या उसके बिना आसानी से किया जा सकता है। इन अपराधों को कंपाउंड नहीं किया जा सकता है, लेकिन रद्द कर दिया जाता है।
मामला दर्ज करना  एक निजी व्यक्ति द्वारा मामला दर्ज किया जाता है। इसमें मामला राज्य द्वारा दर्ज किया जाता है।

रसिकलाल बनाम किशोरी (2009)

इस मामले में, भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आयोजित किया गया था कि एक आरोपी की जमानत का अधिकार एक जमानती अपराध में एक पूर्ण और अक्षम्य (इंडिफेसिबल) है और अदालत या पुलिस उसे जमानत देने के लिए बाध्य है।

व्यपहरण के मामले में उपलब्ध उपाय

संविधान में दी गई विषय सूची के अनुसार ‘पुलिस’ राज्य सूची का एक विषय है। इस प्रकार, पुलिस और जांच मामलों से निपटने के लिए हर राज्य की अपनी प्रक्रिया होगी। यदि कोई व्यक्ति गुम हो जाता है या उसका व्यपहरण कर लिया जाता है, तो आमतौर पर पुलिस थाने में प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की जाती है, उसके बाद आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156 के तहत जांच की जाती है। इसके बाद, विचारण (ट्रायल) की पूरी प्रक्रिया संहिता के अनुसार शुरू होगी। हालांकि, दिल्ली में, एसएचओ व्यक्तिगत रूप से ऐसे मामलों में भाग लेता है। 16 साल से कम उम्र के बच्चे की गुमशुदगी की शिकायत तुरंत दर्ज करना अनिवार्य है लेकिन वयस्क के मामले में व्यक्ति के लापता होने के 24 घंटे बाद प्राथमिकी दर्ज की जाती है। प्राथमिकी की एक प्रति दिल्ली राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण को भेजी जाती है ताकि वे लापता व्यक्ति की तलाश में अपना योगदान दे सकें। जोनल इंटीग्रेटेड पुलिस नेटवर्क भी तस्वीर में आता है और यदि व्यक्ति पाया जाता है तो उससे पूछताछ की जाती है कि उसका व्यपहरण किया गया था या नहीं और फिर अधिकारी आगे की जांच के साथ आगे बढ़ते हैं। यह इस मामले में उपलब्ध सामान्य उपाय है। अन्य उपाय इस प्रकार हैं:

  • यदि कोई बच्चा लापता है, तो महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा बनाई गई वेबसाइट ‘ट्रैक मिसिंग चाइल्ड’ के रूप में यह एक और उपाय है, जहां शिकायत दर्ज की जा सकती है और यदि कोई बच्चा पाया जाता है तो उसकी जानकारी वेबसाइट पर उपलब्ध कराई जाती है ताकि परिवार बच्चे को मिला सके और घर वापस ला सके।
  • एक अन्य उपाय राज्य में बाल कल्याण समितियों तक पहुंचना है।

बचपन बचाओ आंदोलन बनाम भारत संघ (2012)

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यपहरण और गुमशुदगी की शिकायतों के संबंध में कुछ दिशानिर्देश दिए:

  • ऐसे मामलों में प्राथमिकी को गंभीरता से लिया जाना चाहिए और ऐसी कोई भी सूचना मिलते ही अधिकारियों को जल्द से जल्द कार्रवाई करनी चाहिए।
  • पुलिस अधिकारी शुरू में यह मानेंगे कि यह तस्करी (ट्रैफिकिंग) का मामला है और तदनुसार कार्रवाई करेंगे।
  • सीआरपीसी की धारा 155 के तहत सूचना रसीद दर्ज कर जांच की जाएगी।
  • मानव तस्करी के मामले में अधिकारी मानक संचालन (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग) प्रक्रियाओं का विकल्प चुनेंगे।
  • किशोर (जुवेनाइल) न्याय अधिनियम, 2000 की धारा 63 के अनुसार प्रत्येक पुलिस स्टेशन में एक पैरालीगल वॉलंटियर के साथ अनिवार्य रूप से एक प्रशिक्षित (ट्रेंड) किशोर कल्याण अधिकारी होगा।
  • यदि लापता व्यक्ति पाया जाता है, तो उसकी जानकारी पुलिस स्टेशन में दर्ज की जानी चाहिए और ऐसी जानकारी आधिकारिक वेबसाइट पर भी डाली जाएगी ताकि माता-पिता जांच कर सकें।
  • अदालत ने मानव तस्करी रोधी इकाई को लापता व्यक्तियों की तिमाही रिपोर्ट देने का आदेश दिया है।
  • सभी राज्यों को लापता व्यक्ति जो मिल गए है लेकिन किसी के द्वारा पहचाने नहीं गए हैं, के लिए आश्रयों (शेल्टर) की व्यवस्था करनी चाहिए।

व्यपहरण पर ऐतिहासिक निर्णय

ठाकोरी लाल डी. वडगामा बनाम गुजरात राज्य (1973)

मामले के तथ्य

इस मामले में मोहिनी नाम की एक लड़की जिसकी उम्र 15 वर्ष थी, का व्यपहरण कर उसके पिता के कानूनी संरक्षण से बाहर कर दिया गया था। आरोपी ने अपने पिछले आचरण में उसे अपने पिता को इस वादे पर छोड़ने के लिए प्रोत्साहित किया कि वह उसकी रक्षा करेगा और उसे आश्रय देगा।

मामले से जुड़ा मुद्दा 

क्या आरोपी या उसका आचरण व्यपहरण के अपराध की श्रेणी में आता है?

अदालत का फैसला

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि लड़की के अपने पिता के घर छोड़ने की कार्रवाई आरोपी द्वारा प्रलोभन का परिणाम थी। हालांंकि, यह उसका तात्कालिक आचरण नहीं था, बल्कि पिछले कार्यों ने लड़की को ऐसा करने के लिए मजबूर किया था। इस प्रकार, यह देखा गया कि वह कोई बचाव नहीं कर सकता और व्यपहरण के अपराध के लिए वह उत्तरदायी था।

नेमाई चट्टोराज बनाम क्वीन एंप्रेस (1900)

मामले के तथ्य

इस मामले में ‘X’ ने एक लड़की को उसके पति के घर से ले जाकर 2 दिन तक अपने ही घर में रखा। एक अन्य व्यक्ति, ‘M’ उसे 20 दिनों के लिए अपने घर ले गया और फिर उसे ‘Y’ के घर भेज दिया गया और अंत में उसे कलकत्ता में उतार दिया।

मामले में शामिल मुद्दा 

क्या व्यपहरण का अपराध किया गया है?

अदालत का फैसला

इस मामले में, ‘Y’ को लड़की के व्यपहरण के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया गया था। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यहां उन तथ्यों को निर्धारित किया कि कब ले जाने का कार्य पूरा हो गया है। इस मामले में कार्य तब पूरा हुआ जब लड़की को उसके पति की अभिरक्षा से बाहर कर दिया गया जो उसका वैध अभिभावक है और इस स्थिति में Y की कोई भूमिका नहीं थी। यह भी माना गया कि “दूर ले जाना” एक निरंतर कार्य नहीं है।

एस. वरदराजन बनाम मद्रास राज्य (1964)

मामले के तथ्य

इस मामले में, बी.एससी. की द्वितीय वर्ष की सावित्री नाम की छात्रा और आरोपी अच्छे दोस्त बन गए क्योंकि वे पड़ोसी थे। हालांकि, एक दिन सावित्री ने अपने पिता के घर को छोड़ दिया और आरोपी को एक विशेष स्थान पर एक निश्चित समय पर मिलने के लिए बुलाया। मौके पर पहुंचकर आरोपी उसे खरीददारी के लिए व अन्य जगहों पर ले गया और अंत में कोर्ट मैरिज के लिए रजिस्ट्रार के कार्यालय में पहुंचा। उन्होंने वहीं शादी की और उसके बाद पति-पत्नी के रूप में रहने लगे। लड़की को प्रेरित नहीं किया गया लेकिन उसकी तरफ से शादी का प्रस्ताव आया। वहीं दूसरी ओर पिता ने अपनी नाबालिग बेटी के अपहरण के आरोप में आरोपी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करायी। जब आरोपी को गिरफ्तार किया गया तो उसने तर्क दिया कि उसने लड़की का व्यपहरण नहीं किया बल्कि वह अपनी इच्छा से उसके साथ आई है।

मामले में शामिल मुद्दा 

क्या आरोपी नाबालिग लड़की के अपहरण का दोषी है?

अदालत का फैसला

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘लेने’ और ‘नाबालिग को साथ जाने देने’ में अंतर है। इस मामले में यह माना गया था कि जब एक लड़की वयस्कता की उम्र तक पहुंचने वाली होती है तो उसे परिपक्वता (मैच्योरिटी) और उसके कार्यों और आचरण की समझ के बारे में कुछ पता चलता है। वह इतनी कम उम्र की नहीं है कि वह अपने पिता के घर छोड़ने के परिणामों को नहीं समझ सकती है। यह भी साबित किया जाना चाहिए कि आरोपी ने लड़की को अपने घर छोड़ने और अपने साथ जाने के लिए प्रेरित करने में सक्रिय रूप से भाग लिया था जो इस मामले में मौजूद नहीं था। आरोपी को सिर्फ इस आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि वह अपनी मर्जी से उसे अलग-अलग जगहों पर ले गया और उससे शादी कर ली।

क्वीन बनाम प्रिंस (1875)

मामले के तथ्य

इस मामले में, एक लड़की ने आरोपी से अपनी उम्र के बारे में झूठ बोला और उसने लड़की की उम्र को 16 साल से ऊपर माना और उसे उसके पिता के कब्जे से बाहर कर दिया।

मामले में शामिल मुद्दा 

क्या आरोपी व्यपहरण के अपराध के लिए उत्तरदायी है।

अदालत का फैसला

यह माना गया कि आरोपी का यह विश्वास कि एक लड़की वयस्क है, एक नाबालिग व्यक्ति को व्यक्ति के खिलाफ अपराध अधिनियम, 1861 की धारा 55 के तहत एक वैध अभिभावक के कब्जे से बाहर ले जाने के अपराध का बचाव नहीं है, जब तक कि वह वैध सहमति देने के लिए पर्याप्त आयु की न हो जाए। इस प्रकार, आरोपी को एक अविवाहित लड़की को उसके पिता के कब्जे से बाहर ले जाने का दोषी पाया गया और दोषसिद्धि को बरकरार रखा गया था।

आर बनाम हिबर्ट (1869)

मामले के तथ्य

इस मामले में, एक व्यक्ति पर एक लड़की को उसके पिता के कब्जे से बाहर करने के लिए व्यक्ति के खिलाफ अपराध अधिनियम, 1861 की धारा 55 के तहत आरोप लगाया गया था। वह लड़की को बहला-फुसलाकर एक जगह ले गया और वहीं छोड़ गया। तथ्य यह है कि वह नहीं जानता था कि लड़की अपने पिता के कब्जे में थी जो दर्शाता है कि उसका व्यपहरण करने का इरादा नहीं था क्योंकि उसे वैध अभिभावक के बारे में कोई रचनात्मक जानकारी नहीं थी।

मामले में शामिल मुद्दा 

  • क्या आरोपी का कार्य व्यपहरण के बराबर है?
  • क्या वह वैध अभिभावकों के बारे में जानता था?

अदालत का फैसला

अदालत ने माना कि व्यक्ति ने अभिभावक के बारे में पूछताछ नहीं की और इस प्रकार उसे उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए। तथ्य यह है कि उसे वैध अभिभावक के बारे में कोई रचनात्मक ज्ञान नहीं था, यह कोई बचाव नहीं है और उसकी ओर से एक गलती है और इसलिए वह दोषी होने से बच नहीं सकता है।

अपहरण के अन्य रूप

अपराध  धारा 
भीख मांगने के मकसद से व्यपहरण धारा 363A
हत्या के लिए व्यपहरण  धारा 364
फिरौती के लिए व्यपहरण धारा 364A
किसी व्यक्ति को गुप्त रूप से या गलत तरीके से कारावास में रखने के इरादे से व्यपहरण या अपहरण धारा 365
किसी महिला को जबरन शादी के लिए मजबूर करना के लिए व्यपहरण करना धारा 366
नाबालिग लड़की की खरीद के लिए व्यपहरण  धारा 366A
किसी व्यक्ति को गंभीर चोट पहुंचाने के लिए व्यपहरण धारा 367
व्यपहृत व्यक्ति को गलत तरीके से कारावास में रखना धारा 368
व्यक्ति से चोरी करने के लिए दस वर्ष से कम उम्र के बच्चे का व्यपहरण करना धारा 369
विदेशों से लड़कियों का आयात (इंपोर्ट) धारा 366B

अपहरण (धारा 362 आईपीसी)

  • इसका अर्थ है धोखाधड़ी या बल प्रयोग करके किसी व्यक्ति को दूर ले जाना। भारतीय दंड संहिता की धारा 362 अपहरण से संबंधित है।
  • यह एक सहायक कार्य है और तब तक दण्डनीय नहीं है जब तक कि इसके साथ कोई अन्य कार्य या अपराध न किया गया हो।
  • अपहृत व्यक्ति की हत्या की जा सकती है और फिर धारा लागू की जाती है।
  • अपहृत व्यक्ति पर कोई बल या छल का अर्थ अपहरण नहीं है।

व्यपहरण और अपहरण में अंतर

अंतर करने वाले बिंदु  व्यपहरण  अपहरण 
प्रावधान  आईपीसी की धारा 361 आईपीसी की धारा 362
अर्थ  किसी व्यक्ति (नाबालिग या विकृत दिमाग वाले व्यक्ति) को पहुंच से बाहर करना या वैध अभिभावक से दूर रखना। बल के प्रयोग करके एक व्यक्ति को ले जाना।
साधन  इस्तेमाल किए गए साधन अप्रासंगिक हैं। बल, कपट, छल, मिथ्या निरूपण (मिसरिप्रजेंटेशन) आदि।
सहमति  सारहीन (इमेटेरियल) अपहृत व्यक्ति की स्वतंत्र और स्वैच्छिक सहमति स्वीकार की जाती है।
आरोपी का इरादा  सारहीन महत्वपूर्ण है और अपराध निर्धारित करता है।
अपराध का प्रकार  मूल अपराध है और धारा 363 आईपीसी के तहत दंडित किया जाता है। सहायक अपराध है और तब तक दंडित नहीं किया जाता जब तक कि कोई अन्य अपराध करने का इरादा न हो।
निरंतरता यह एक सतत अपराध नहीं है। यह तब तक जारी रहता है जब तक कि अपहृत व्यक्ति को दूसरी जगह नहीं ले जाया जाता है।
दूर ले जाना या लुभाना आवश्यक है लेने या लुभाने का प्रश्न ही नहीं उठता है।

निष्कर्ष

भारतीय दंड संहिता, 1860 में व्यपहरण के अपराध और उसके उग्र रूपों को उसकी सजा के साथ स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है। संहिता की धारा 363, संहिता की धारा 360 और 361 के तहत परिभाषित व्यपहरण की सजा से संबंधित है, अर्थात, भारत से व्यपहरण और एक वैध अभिभावक से व्यपहरण। यह एक जमानती, संज्ञेय और नॉन कंपाउंडेबल अपराध है, जो प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है। जुर्माने के साथ सजा में 7 साल तक की कैद शामिल है जो साधारण या कठोर हो सकती है। साधारण कारावास में, व्यक्ति को कठोर कारावास के विपरीत कड़ी मेहनत के अधीन नहीं किया जाता है, जहां एक व्यक्ति को बहुत कठोर और कड़ी मेहनत करने की अपेक्षा की जाती है। हालांकि, व्यपहरण का अपराध केवल अपराध करने के लिए इस्तेमाल किए गए साधनों के आधार पर अपहरण से भिन्न होता है। अपहरण में बल या छल का प्रयोग व्यक्ति को ले जाने के लिए किया जाता है जबकि व्यपहरण में साधन अप्रासंगिक होते हैं। अपहरण एक सहायक अपराध है जिसका अर्थ है कि इसे तब तक दंडित नहीं किया जाता जब तक कि कोई अन्य अपराध आगे नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिए, बलात्कार का अपराध करने के लिए एक व्यक्ति का अपहरण किया जाता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

  • व्यपहरण के दो प्रकार क्या हैं?

भारतीय दंड संहिता की धारा 360 और 361 के तहत दो प्रकार के व्यपहरण भारत से व्यपहरण और वैध अभिभावकों से व्यपहरण हैं।

  • आईपीसी की धारा 360 के घटक क्या हैं?

घटक इस प्रकार हैं:

  1. भारत की सीमाओं या क्षेत्रों के बाहर किसी भी व्यक्ति को ले जाना।
  2. यह व्यपहरण किए जाने वाले व्यक्ति या उस व्यक्ति की सहमति के बिना होना चाहिए जिसे कानूनी रूप से उसकी ओर से सहमति देने की अनुमति है।
  • आईपीसी की धारा 361 के घाटक क्या हैं?

इसके घटक निम्नलिखित है:

  1. किसी नाबालिग या विकृत मन वाले व्यक्ति को लेना जाना या बहकाना।
  2. व्यक्ति की आयु 16 वर्ष से कम होनी चाहिए।
  3. यह वैध अभिभावकों की देखरेख से दूर करने के लिए किया जाना चाहिए।
  4. ऐसा अभिभावक की सहमति के बिना किया जाना चाहिए।
  • व्यपहरण की सजा क्या है?

अपहरण के अपराध में आईपीसी की धारा 363 के तहत सजा का प्रावधान है। इसमें जुर्माने के साथ 7 साल तक की कैद शामिल है जो साधारण या कठोर हो सकती है।

  • व्यपहरण का अपराध जमानती है या गैर जमानती?

व्यपहरण का अपराध संज्ञेय, जमानती और प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

संदर्भ

  • K,D. Gaur, Textbook on  Indian Penal Code (5th ed.), Universal Law Publication.

 

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