मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11

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Arbitration and Concilliation Act
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यह लेख तिरुवनंतपुरम के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज की छात्रा Adhila Muhammed Arif ने लिखा है। यह लेख मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (एबिट्रेशन एंड कॉन्सिलिएशन एक्ट), 1996 की धारा 11 पर चर्चा करता है और साथ ही वर्षों से हुए संशोधनों और मध्यस्थों की नियुक्ति (अपॉइंटमेंट) के मामले में न्यायिक हस्तक्षेप के दायरे को स्पष्ट करने का प्रयास करता है। इस लेख का अनुवाद Sameer Choudhary ने किया है।

Table of Contents

परिचय 

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11, मध्यस्थता निपटान में मध्यस्थों की नियुक्ति के प्रावधान से संबंधित है। यह कार्यवाई की विभिन्न प्रक्रियाएं प्रदान करता है जिनका उपयोग विवाद के पक्षों के द्वारा मध्यस्थों को नियुक्त करने के लिए किया जा सकता है। धारा 11 पक्षों को मध्यस्थों की नियुक्ति के लिए एक प्रक्रिया पर सहमत होकर स्वयं मध्यस्थों को चुनने की अनुमति देती है। यदि पक्ष स्वयं मध्यस्थों की नियुक्ति नहीं कर सकते हैं, तो वे धारा 11 में निर्धारित प्रक्रियाओं में से किसी एक के माध्यम से मध्यस्थ नियुक्त कर सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान, इस धारा में वर्ष 2015 और 2019 में संशोधनों के माध्यम से कई बदलाव हुए हैं, जिससे मध्यस्थता में न्यायपालिका के प्रभाव में काफी कमी आई है।

मध्यस्थता क्या है?

मध्यस्थता अनिवार्य रूप से वैकल्पिक विवाद समाधान (ए.डी.आर.) के तरीकों में से एक है जिसके तहत दो पक्षों के बीच विवाद को अदालत के समक्ष पेश किए बिना तीसरे पक्ष द्वारा सुना और निर्धारित किया जाता है। यह पक्षों को मुकदमेबाजी के समान ही विवादों के शीघ्र समाधान की मांग करने की अनुमति देता है। हालांकि, मुकदमेबाजी के विपरीत, यह अदालत के बाहर होता है और निर्णय अंतिम होता है और इसकी पुन: जांच नहीं की जा सकती। इसका परिणाम एक पुरस्कार (अवॉर्ड) की घोषणा में होता है जो अदालत द्वारा दिए गए आदेश के समान होता है। मध्यस्थता से संबंधित मामले मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 द्वारा शासित होते हैं।

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 11 के तहत मध्यस्थों की नियुक्ति

खंड 

  1. एक मध्यस्थ की राष्ट्रीयता तब तक आवश्यक नहीं है जब तक कि पक्ष अन्यथा उस पर सहमत न हों। 
  2. दोनों पक्ष मध्यस्थों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर एक समझौता भी कर सकते हैं। 
  3. नियुक्ति की प्रक्रिया पर एक समझौते तक पहुंचने में विफलता के मामले में, खंड (3), तीन मध्यस्थों की नियुक्ति के लिए निम्नलिखित प्रक्रिया निर्धारित करता है: 
  • प्रत्येक पक्ष एक मध्यस्थ नियुक्त करता है।
  • दो मध्यस्थ तब संयुक्त रूप से तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति करते हैं, जो पीठासीन (प्रेसिडिंग) मध्यस्थ के रूप में कार्य  करता है। 

4. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के पास मध्यस्थ संस्थानों को नामित करने की शक्ति है। मध्यस्थ संस्थानों को अधिनियम की धारा 43-I के तहत भारतीय मध्यस्थता परिषद द्वारा वर्गीकृत किया जाता है। यदि किसी उच्च न्यायालय में कोई श्रेणीबद्ध (ग्रेडेड) मध्यस्थ संस्था नहीं है, तो संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मध्यस्थों का एक पैनल बनाए रख सकते हैं और समय-समय पर इसकी समीक्षा (रिव्यू) भी कर सकते हैं। 

5. खंड 4 कहता है कि जब खंड (3) में उल्लिखित प्रक्रिया को लागू किया जाता है, तो दो शर्तें होती हैं, जो निम्नलिखित हैं: 

  • प्रत्येक पक्ष को, ऐसा करने के लिए दूसरे पक्ष से अनुरोध प्राप्त करने के तीस दिनों के भीतर एक मध्यस्थ नियुक्त करना होगा।
  • दोनों मध्यस्थों को उनकी नियुक्ति की तारीख से तीस दिनों के भीतर तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति पर एक समझौते पर पहुंचना होगा।

दोनों शर्तों में से किसी एक की विफलता के मामले में, किसी पक्ष के आवेदन या अनुरोध पर सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा नामित मध्यस्थ संस्थान द्वारा मध्यस्थ की नियुक्ति की जाएगी। 

6. खंड 5 में प्रावधान है कि नियुक्ति की प्रक्रिया पर किसी समझौते पर पहुंचने में विफल रहने की स्थिति में, एक पक्ष को दूसरे पक्ष द्वारा अनुरोध प्राप्त करने के तीस दिनों के भीतर एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त करने पर सहमत होना चाहिए। 

यदि तीस दिनों के भीतर ऐसी कोई नियुक्ति नहीं होती है, तो किसी पक्ष के आवेदन या अनुरोध पर सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा नामित मध्यस्थ संस्था द्वारा मध्यस्थ की नियुक्ति की जाएगी। 

7. खंड 6 में कहा गया है कि जहां पक्षों द्वारा नियुक्ति की प्रक्रिया पर एक समझौता किया जाता है, यदि: 

  • एक पक्ष प्रक्रिया द्वारा निर्धारित कार्य करने में विफल रहता है, या
  • पक्ष या नियुक्त मध्यस्थ की प्रक्रिया द्वारा निर्धारित समझौते तक पहुंचने में विफल रहते हैं, या  
  • प्रक्रिया द्वारा किसी व्यक्ति को सौंपे गए कार्य को वह व्यक्ति या संस्था पूरा करने में विफल रहता है, 

तो पक्ष समझौते द्वारा प्रदान किए गए वैकल्पिक कदमों, यदि कोई हो तो उसका पालन कर सकते हैं, या, किसी पक्ष के आवेदन या अनुरोध पर सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा नामित मध्यस्थ संस्था द्वारा मध्यस्थों की नियुक्ति की जाएगी। 

8. सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा उपलब्ध कराए गए पदनाम (डिजिगनेशन) को न्यायिक शक्ति के प्रतिनिधिमंडल (डेलिगेशन) के रूप में नहीं माना जाएगा। 

9. जब निर्णय मध्यस्थ संस्था द्वारा दिया जाता है, तो इसे निम्नलिखित कारकों पर विचार करते हुए किया जाना चाहिए:

  • पक्षों के समझौते के अनुसार मध्यस्थ के लिए आवश्यक योग्यताएं,
  • एक स्वतंत्र और निष्पक्ष मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए प्रकटीकरण (डिस्क्लोजर) की सामग्री और अन्य विचार।

10. ऐसे मामलों में जहां पक्ष कई राष्ट्रीयताओं से संबंधित हैं और एकमात्र मध्यस्थ या तीसरा मध्यस्थ नियुक्त करने की आवश्यकता है, तो सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा नामित मध्यस्थ संस्था, पक्ष की राष्ट्रीयताओं के अलावा किसी अन्य राष्ट्रीयता के मध्यस्थ की नियुक्ति कर सकती है। 

11. यदि उपरोक्त प्रावधानों में से किसी के लागू होने के दौरान कई मध्यस्थ संस्थानों को एक से अधिक अनुरोध या आवेदन किए गए हैं, तो केवल पहला अनुरोध प्राप्त करने वाली मध्यस्थ संस्था ही सक्षम होगी। 

12. अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक (कमर्शियल) मध्यस्थता से संबंधित मामलों में, केवल सर्वोच्च न्यायालय की मध्यस्थ संस्था शामिल होती है, न कि उच्च न्यायालयों की। 

13. मध्यस्थों की नियुक्ति के लिए एक आवेदन या अनुरोध को मध्यस्थ संस्था द्वारा शीघ्रता से निपटाया जाएगा। विरोधी पक्ष को नोटिस को तामील (सर्व) करने की तारीख से तीस दिनों के भीतर इसका निपटारा किया जाएगा। 

14. जब एक उच्च न्यायालय की भागीदारी होती है, तो वह हमेशा उच्च न्यायालय ही होता है जिसकी स्थानीय सीमा के भीतर जिले का प्रमुख दीवानी (सिविल) न्यायालय स्थित होता है। 

15. मध्यस्थ संस्था, अधिनियम की चौथी अनुसूची में निर्धारित दरों पर विचार करने के बाद मध्यस्थ न्यायाधिकरण को उसके भुगतान के तरीके और शुल्क का निर्धारण करेगी। हालांकि, इस उपधारा के स्पष्टीकरण में यह प्रावधान है कि गैर-व्यावसायिक मामलों में अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के मामले में, पक्ष मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार शुल्क निर्धारित करने के लिए सहमत हो सकते हैं। 

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 11 में खंडों का विकास

  1. 2015 के संशोधन अधिनियम से पहले
  • उन स्थितियों में जहां पक्ष ने नियुक्ति नहीं की, तो ऐसे में नियुक्ति उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों या उनके नामितों द्वारा की जाती थी। अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के मामलों में, भारत के मुख्य न्यायाधीश नियुक्तियां करते थे। 

2. 2015 संशोधन अधिनियम द्वारा लाए गए महत्वपूर्ण परिवर्तन:

  • संशोधन ने “मुख्य न्यायाधीश” शब्द की जगह “सर्वोच्च   न्यायालय या उच्च न्यायालय” शब्दो को शामिल किया।  
  • खंड 6A और 6B को सम्मिलित (इंक्लूड) करके, पूर्व-मध्यस्थता चरण में न्यायिक भागीदारी की भूमिका को कम कर दिया गया था। नए खंड 6A के अनुसार, मुख्य न्यायाधीशों को मध्यस्थता समझौते के अस्तित्व की जांच के लिए अपनी भूमिका को कम करना था। खंड 6B स्पष्ट करता है कि पदनाम कभी भी न्यायिक क्षमता के प्रतिनिधिमंडल के रूप में मान्य नहीं होगा। 
  • खंड 7 के संशोधन के माध्यम से यह जोड़ा गया कि किसी भी रूप में अदालत या उसके नामित के फैसले के खिलाफ अपील करना संभव नहीं है। इस संशोधन से पहले धारा ने केवल यह कहा था कि निर्णय “अंतिम” है। संशोधन ने, संशोधन से पहले की धारा की तुलना में आदेशों की अंतिमता को अधिक कठोर बना दिया। 
  • संशोधन विशेष रूप से एक मध्यस्थ की नियुक्ति करते समय प्रकटीकरण की सामग्री को एक आवश्यकता के रूप में व्यक्त करता है। 
  • इसमें दो नए खंड भी जोड़े गए थे। खंड 13 में साठ दिनों के भीतर आवेदन के शीघ्र निपटान का प्रावधान है, और खंड 14 में यह प्रावधान है कि संबंधित उच्च न्यायालय के पास शुल्क निर्धारित करने की शक्ति है।

3. 2019 संशोधन अधिनियम द्वारा लाए गए परिवर्तन:

  • संशोधन ने एक महत्वपूर्ण बदलाव किया जहां इसने अदालतों से नियुक्ति की शक्ति को अदालतों द्वारा नामित मध्यस्थ संस्थानों में स्थानांतरित (ट्रांसफर) कर दिया, इस प्रकार भारत में मध्यस्थता को संस्थागत बना दिया। 
  • इसने शीघ्र निपटान की समयावधि को साठ दिन से घटाकर तीस दिन कर दिया। 
  • खंड 6A और 7 को हटा दिया गया। खंड 6A एक मध्यस्थ समझौते के अस्तित्व की न्यायिक परीक्षा से संबंधित था। खंड 7 में प्रावधान है कि अदालत का आदेश अंतिम होगा और इसके खिलाफ कोई अपील नहीं होगी। 
  • खंड 6A को हटाने के साथ, यह स्पष्ट है कि मध्यस्थ संस्थानों को मध्यस्थों की नियुक्ति करते समय अपनी परीक्षा को एक मध्यस्थ समझौते के अस्तित्व तक सीमित रखने की आवश्यकता नहीं है। 
  • खंड 7 को हटाने से यह समझा जा सकता है कि मध्यस्थ संस्थाओं द्वारा दिए गए नियुक्ति के आदेश को चुनौती दी जा सकती है।

न्यायिक हस्तक्षेप का दायरा 

1. 2015 से पहले का संशोधन 

नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम बोघरा पॉलीफैब (2008) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यस्थता से संबंधित मुद्दों को वर्गीकृत किया कि अदालत किस में हस्तक्षेप कर सकती है और अदालत संभवतया किस में हस्तक्षेप कर सकती है। निर्णय ने मुद्दों की तीसरी श्रेणी को भी निर्दिष्ट किया जो केवल मध्यस्थ न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) द्वारा तय किया जा सकता है, जो अनिवार्य रूप से धारा 11 के अनुसार नियुक्त मध्यस्थों का एकमात्र मध्यस्थ या पैनल है। मुद्दों की श्रेणियां नीचे सूचीबद्ध हैं: 

  • मुख्य न्यायाधीश या उनके नामित व्यक्ति द्वारा तय किए जाने वाले मुद्दे : 

  1. क्या पक्ष द्वारा उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जाना उचित है।
  2. क्या कोई मध्यस्थता समझौता मौजूद है और क्या आवेदन करने वाला पक्ष समझौते का एक पक्ष है। 
  • ऐसे मुद्दे जो मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित व्यक्ति द्वारा तय किए जा भी सकते हैं और नहीं भी : 

  1. क्या दावा लंबे समय से वर्जित है या जीवित है।
  2. क्या पक्ष ने अपनी संतुष्टि दर्ज करके या बिना किसी आपत्ति के भुगतान प्राप्त करके लेनदेन पूरा कर लिया है।
  • केवल मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा तय किए जाने वाले मुद्दे : 

  1. क्या दावा मध्यस्थता खंड के दायरे में है।
  2. किसी भी दावे के गुण। 

दीपक गैल्वनाइजिंग एंड इंजीनियरिंग इंडस्ट्रीज (पी) लिमिटेड बनाम भारत सरकार , (1997) एवं कॉन्टिनेंटल कंस्ट्रक्शन लिमिटेड बनाम नेशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड, (1998) के मामलों में, यह माना गया था कि एक बार जब पक्ष मध्यस्थों की नियुक्ति में विफल हो जाते हैं, तो स्वयं यह नियुक्ति के उनके अधिकार को ज़ब्त करने की ओर ले जाता है। यह मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित व्यक्ति को नियुक्ति का अधिकार देता है।

2. 2015 संशोधन के पश्चात

  • न्यायिक हस्तक्षेप को 6A के सम्मिलन से कम कर दिया गया, जिससे अदालतों को मध्यस्थता समझौते के अस्तित्व की जांच के लिए अपनी भूमिका को सीमित करना पड़ा। नई धारा अदालत को इसकी वैधता की जांच करने की अनुमति नहीं देती है। यह प्रावधान कार्यवाही में देरी से बचने में मदद करता है। 
  • ड्यूरो फेलगुएरा, एस.ए. बनाम गंगावरम पोर्ट लिमिटेड (2017) के मामले में, खंड 6A की शाब्दिक व्याख्या को अपनाया गया था, जिसमें न्यायिक परीक्षा को एक समझौते के अस्तित्व तक सीमित रखा गया था। इसके अतिरिक्त, निर्णय ने इसके अस्तित्व के निर्धारण का आधार निर्धारित किया, जो यह जांचना है कि क्या समझौते में विवाद के मामले में मध्यस्थता प्रदान करने वाला एक खंड है। 
  • खंड 6A की प्रतिबंधात्मक (रिस्ट्रिक्टिव) प्रकृति के बावजूद, ऐसा प्रतीत होता है कि अदालतों ने कई निर्णयों में इसकी अनदेखी की है। 
  • गारवेयर वॉल रोप्स लिमिटेड बनाम कोस्टल मरीन कंस्ट्रक्शन एंड इंजीनियरिंग. लिमिटेड. (2019), में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि समझौते पर पर्याप्त मुहर होनी चाहिए। 
  • प्राइम मार्केट रीच प्राइवेट लिमिटेड बनाम सुप्रीम एडवरटाइजिंग लिमिटेड (2019) के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह पता लगाने के बाद कि समझौता अमान्य था, पक्ष को मध्यस्थता के लिए संदर्भित करने से इनकार कर दिया क्योंकि यह अधिनियम की धारा 7 में निर्धारित आवश्यकताओं का पालन नहीं करता था। 

3. 2019 संशोधन के पश्चात

  • इस संशोधन ने नियुक्ति की जिम्मेदारी को मध्यस्थ संस्थानों में स्थानांतरित करके महत्वपूर्ण परिवर्तन प्रदान किया। इस संशोधन ने न्यायिक हस्तक्षेप को काफी कम कर दिया और मध्यस्थता की प्रणाली को संस्थागत रूप दे दिया। 
  • आवेदनों के निपटान के लिए दी गई समयावधि में कमी, न केवल शीघ्र निपटान का प्रावधान करती है बल्कि ऐसे आवेदनों में न्यायिक भागीदारी को भी कम करती है। 
  • हालाँकि, इस संशोधन अधिनियम के प्रारूपण (ड्राफ्टिंग) में कुछ कमियाँ हैं। मध्यस्थों के पैनल की समीक्षा करने के लिए अदालतों की शक्ति एवं मध्यस्थ संस्थानों द्वारा अनुरक्षित (मेंटेन) किए गए लोगों तक इसके फैलाव के बारे में स्पष्टता की कमी है।

अन्य प्रासंगिक निर्णय 

विश्राम वरु और अन्य बनाम भारत संघ (2022) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धारा 11 के खंड 6 के तहत किया गया एक आवेदन परिसीमन (लिमिटेशन) द्वारा वर्जित है। इस मामले में, विवाद के उभरने के लगभग बत्तीस साल बाद मध्यस्थता खंड लागू किया गया था। 

न्यू यूरेका ट्रैवल्स क्लब बनाम साउथ बंगाल स्टेट ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन (2022) के मामले में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा कि एक इच्छुक पक्ष न तो विवाद का मध्यस्थ हो सकता है और न ही धारा 11 के तहत विवाद के लिए मध्यस्थ नियुक्त कर सकता है। 

निष्कर्ष

धारा 11 के तहत मध्यस्थों की नियुक्ति न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भागीदारी के साथ शुरू हुई। हालांकि अब यह मध्यस्थ संस्थाओं की जिम्मेदारी बन गई है। यह स्पष्ट है कि 2019 का संशोधन अधिनियम, धारा 11 के विकास में एक मील का पत्थर रहा है, जिसने मध्यस्थता की प्रणाली को संस्थागत रूप दिया और जिसने न्यायिक हस्तक्षेप को कम करने के उद्देश्य को वास्तव में प्राप्त करने में मदद की है। हालांकि, अधिनियम के प्रारूपण में कुछ खामियां हैं। 2015 और 2019 के संशोधन उनके शब्दों में और स्पष्ट हो सकते हैं, क्योंकि अस्पष्टता, अधिक न्यायिक हस्तक्षेप के लिए जगह छोड़ती है। 

धारा 11 के संबंध में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

1. प्रश्नः धारा 11 के तहत मध्यस्थों की नियुक्ति का आदेश न्यायिक है या प्रशासनिक? 

उत्तर: पहले, धारा 11 के तहत नियुक्ति के आदेश को न्यायिक माना जाता था, प्रशासनिक नहीं। एसबीपी एंड कंपनी बनाम पटेल इंजीनियरिंग लिमिटेड, (2005) के मामले में भी इसे न्यायिक प्रकृति के रूप में बरकरार रखा गया था । 2019 के संशोधन अधिनियम के साथ, मध्यस्थता के संस्थागत रूप के कारण मध्यस्थों की नियुक्ति का आदेश प्रशासनिक हो गया है।

2. प्रश्न: क्या धारा 11 के तहत नियुक्ति के आदेश को चुनौती देना संभव है?

उत्तर: धारा 11 में खंड 7 को हटाने के कारण इसके तहत की गई नियुक्ति को चुनौती देने में कोई बाधा नहीं है। इसलिए, एक पक्ष अदालत में ऐसी नियुक्ति को चुनौती देने के लिए कार्यवाही शुरू कर सकता है। इसके अलावा, मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती देने का आधार अधिनियम की धारा 12 में निर्धारित किया गया है। 

3.प्रश्न: क्या एक मध्यस्थता समझौते के लिए, एक पक्ष अपने दम पर एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त कर सकता है और इसे दूसरे पक्ष पर लगा सकता है?

उत्तर: जबकि किसी विवाद के पक्ष में एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त करना संभव है, ऐसा करने के लिए पक्षों के बीच एक समझौता होना चाहिए और इसके द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए। इस प्रकार, एक पक्ष एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति नहीं कर सकता है और दूसरे पक्ष पर नियुक्ति लागू नहीं कर सकता है यदि सहमत प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता है।

संदर्भ 

 

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