औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 की धारा 10

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Industrial Disputes Act 1947

यह लेख विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज, दिल्ली की Jaya Jha ने लिखा है। यह लेख औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 10 और इसके विभिन्न घटकों के तुलनात्मक विश्लेषण से संबंधित है। यह उक्त अधिनियम की धारा 10A के तहत स्वैच्छिक मध्यस्थता (वोलंटरी आर्बिट्रेशन) तंत्र के पहलुओं पर भी संक्षेप में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Vanshika Gupta द्वारा किया गया है।

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परिचय

औद्योगिक विवाद किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था की प्रगति के लिए एक बाधा हो सकते हैं। श्रमिकों (वर्कर्स) और नियोक्ताओं (एम्प्लॉयर्स)  के बीच सामंजस्यपूर्ण संबंध सुनिश्चित करने के लिए, धारा 10, एक शक्तिशाली प्रावधान है जो सरकार को सुलह (कॉंसिलिएशन) या अधिनिर्णयन (एडजुडिकेशन) के माध्यम से विवादों को हल करने और हस्तक्षेप करने का अधिकार देता है, को औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 में शामिल किया गया था। यह कार्यस्थल में विवादों के शांतिपूर्ण समाधान को बढ़ावा देने और श्रमिकों और नियोक्ताओं दोनों के हितों की रक्षा करने में एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में कार्य करता है। औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 10 अधिनिर्णयन के लिए उपयुक्त प्राधिकारी (एप्रोप्रियेट अथॉरिटी) को विवादों के निर्देश की प्रक्रिया से संबंधित है।

कई असहमतियों और विवादों के बावजूद श्रमिकों और नियोक्ता के बीच संबंध बहुत भरोसेमंद है। इससे यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि उनके पास विवाद समाधान का एक गैर-प्रतिकूल (नॉन -एडविजेरिअल) तरीका हो। यह उस प्रक्रिया को रेखांकित करता है जिसके द्वारा नियोक्ता और कर्मचारियों के समूह के बीच या नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच विवाद को समाधान के लिए तीसरे पक्ष के प्राधिकरण को भेजा जा सकता है। धारा 10 का उद्देश्य औद्योगिक विवादों को व्यवस्थित और शांतिपूर्ण तरीके से हल करने के लिए एक कानूनी ढांचा प्रदान करना है। यह औद्योगिक उत्पादन में व्यवधान (डिस्ट्रप्शन) को रोकने और श्रमिकों और नियोक्ताओं के हितों की रक्षा करने का प्रयास करता है। यह लेख मुख्य रूप से अधिनियम के विस्तार से धारा 10 के सभी पहलुओं से संबंधित है और अधिनियम में प्रदान किए गए स्वैच्छिक मध्यस्थता तंत्र की योजना पर संक्षेप में चर्चा करता है।

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 10 क्या कहती है

औद्योगिक विवाद तब उत्पन्न होता है जब कर्मचारी और नियोक्ता अपने मतभेदों को हल करने में विफल रहते हैं। औद्योगिक विवाद हमेशा ऐसे उद्योग से जुड़े सभी व्यक्तियों के लिए हानिकारक होता है क्योंकि यह सभी हितधारकों (स्टेकहोल्डर्स), प्रबंधन (मैनेजमेंट), कर्मचारियों, अर्थव्यवस्था और समाज को प्रभावित करता है। नियोक्ताओं को उत्पादन, राजस्व (रेवेन्यू), मुनाफे और नुकसान होते  है; जबकि कर्मचारियों को मजदूरी और यहां तक कि नौकरियों के नुकसान के कारण नुकसान हो सकता है। क्यूंकि उद्योग आर्थिक विकास के स्तंभ हैं, इसलिए कोई भी विवाद अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर के लिए हानिकारक है जो अंततः पूरे समाज को प्रभावित करता है। इसलिए, औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 निम्नलिखित तरीकों से ऐसे विवादों को हल करने के लिए मशीनरी प्रदान करता है:

  1. सामूहिक सौदेबाजी
  2. शिकायत
  3. निवारण
  4. मध्यस्थता समझौता
  5. अधिनिर्णयन

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 10 उचित सरकार को किसी औद्योगिक विवाद में सुलह अधिकारी (कॉंसिलिएशन ऑफिसर) या समाधान के लिए बोर्ड के पास भेजकर हस्तक्षेप करने का अधिकार देती है। इस धारा में कहा गया है कि यदि कोई नियोक्ता या नियोक्ताओं का समूह, या उनका कोई कर्मचारी, या कर्मचारियों का एक समूह, औद्योगिक विवाद उठाता है, तो उपयुक्त सरकार, आधिकारिक राजपत्र (ऑफिसियल गेजेट) में अधिसूचना (नोटिफिकेशन) द्वारा, विवाद को निपटान के लिए सुलह अधिकारी के पास भेज सकती है। सुलह अधिकारी तब दोनों पक्षों को मेज पर लाकर और बातचीत की सुविधा प्रदान करके विवाद को हल करने की कोशिश करता है। यदि विवाद सुलह के माध्यम से हल नहीं होता है, तो सरकार इसे अधिनिर्णयन के लिए बोर्ड के पास भेज सकती है। इस प्रावधान का उद्देश्य शांतिपूर्ण तरीकों से श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच विवादों को हल करने के लिए एक तंत्र प्रदान करके औद्योगिक शांति और सद्भाव को बढ़ावा देना है।

इस अधिनियम के तहत एक उपयुक्त सरकार कौन है

अधिनियम की धारा 10 के तहत, केवल उपयुक्त सरकार के पास विवादों को न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल), जांच की अदालत (कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी), श्रम अदालत (लेबर कोर्ट) आदि को भेजने की शक्ति है।

प्रभाकर बनाम  संयुक्त निदेशक रेशम उत्पादन विभाग (2015), के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पीड़ित व्यक्ति अधिनिर्णयन के लिए सीधे किसी भी श्रम न्यायालय या किसी अन्य निकाय से संपर्क नहीं कर सकता है जब तक कि उचित सरकार ने इसे मंजूरी नहीं दी है, और पीड़ित व्यक्ति को उचित सरकार से विवाद का निर्देश लेना होगा।

सचिव, भारतीय चाय संघ बनाम अजीत कुमार बरात,  (2000) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय उचित सरकार की शक्ति के बारे में कुछ बिंदु दी है। जो निम्नलिखित है:-

  1. तथ्यों और परिस्थितियो से यह निर्धारित किए बिना कि कोई औद्योगिक विवाद मौजूद है या इसकी आशंका है, उपयुक्त सरकार अधिनियम की धारा 10 का उल्लेख करने में उचित नहीं होगी।
  2. उपयुक्त सरकार द्वारा निर्देश के आदेश को एक प्रशासनिक आदेश (एडमिनिस्ट्रेटिव आर्डर) माना जाएगा न कि न्यायिक या अर्ध-न्यायिक (क्वासि-ज्यूडिशियल) आदेश।
  3. पक्षों के पास अधिकार है और वे यह साबित करने के लिए खुले हैं कि उचित सरकार द्वारा दिया गया निर्देश औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत औद्योगिक विवाद नहीं है।

धारा 2(a), बताती है कि इस अधिनियम के तहत उपयुक्त सरकार कौन होगी: 

  1. केंद्र सरकार उपयुक्त सरकार होगी जहां:
  • कोई भी औद्योगिक प्रतिष्ठान (इंडस्ट्रियल इस्टैब्लिशमेंट) केंद्र सरकार के नियंत्रण में होता है या केंद्र सरकार द्वारा चलाया जाता है; या
  • रेलवे उद्योग, बैंकिंग और बीमा कंपनी, एक प्रमुख बंदरगाह (पोर्ट) और खान और तेल क्षेत्र।

सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली इंटरनेशनल एयरपोर्ट (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम भारत संघ, 2011 के मामले में फैसला सुनाया हैं कि केंद्र सरकार उचित सरकार होगी जब उद्योग केंद्र सरकार के अधीन होगा, जिसमें भारतीय हवाई अड्डा प्राधिकरण (एएआई) से संबंधित औद्योगिक प्रतिष्ठान और हवाई यातायात (एयर ट्रैफिक) से संबंधित उद्योग शामिल हैं।

2. और किसी भी अन्य औद्योगिक विवाद के लिए, राज्य सरकार उपयुक्त सरकार होगी।

हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स बनाम कर्मचारी ,(1975) के मामले में अदालत ने राज्य सरकार को कंपनी की एक अलग इकाई (यूनिट) की उपयुक्त सरकार के रूप में माना, यदि वह कंपनी राज्य के अधिकार क्षेत्र (जूरिस्डिक्शन) में है, भले ही कंपनी कंपनी के प्रधान कार्यालय (हेड ऑफिस) के तहत काम कर रही हो जो किसी अन्य राज्य में स्थित है।

विवाद अधिनियम, 1947 के तहत विवादों का निपटारा

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत विवाद निपटान तंत्र भारत में नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच विवादों को निपटाने के लिए कई विकल्प प्रदान करते हैं। इन तंत्रों का उद्देश्य विवादों के शांतिपूर्ण और त्वरित समाधान को बढ़ावा देना और हड़ताल और तालाबंदी (लॉकआउट्स) जैसी विघटनकारी औद्योगिक कार्रवाई को रोकना है। तंत्र तटस्थ (न्यूट्रल) तीसरे पक्ष की भागीदारी के साथ निष्पक्ष तरीके से विवादों को हल करने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करते हैं, जहां नियोक्ता और कर्मचारियों दोनों के हितों के लिए आवश्यक और उचित विचार किया जाता है।

अधिनियम की धारा 10 और 10A विवाद निपटान तंत्र प्रदान करते हैं।

औद्योगिक विवादों को संबंधित प्राधिकारी के पास भेजने की उपयुक्त सरकार की शक्ति

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 10 उपाय देती है और बताती है कि किन परिस्थितियों में और कब उपयुक्त सरकार श्रम न्यायालय, न्यायाधिकरण और जांच की अदालत को निर्देशित कर सकती है।

मद्रास राज्य बनाम सीपी सारथी (1953) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि विवाद के पक्ष की सीधी पहुंच नहीं है, और सरकार द्वारा दिया गया निर्देश वह तरीका है जिसके माध्यम से पक्ष न्यायिक या अर्ध-न्यायिक मंच से संपर्क कर सकते हैं। इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत निर्देश शक्ति का अत्यधिक महत्व है क्योंकि अधिनियम का मुख्य उद्देश्य विवाद को निपटाना और औद्योगिक शांति स्थापित करना है।

धारा 10 (1) के अनुसार, उपयुक्त सरकार जब यह सोचती है कि कोई विशेष विवाद एक औद्योगिक विवाद है या वह इसे औद्योगिक विवाद मानता है तो वह लिखित में कर सकती है। 

  • जांच की अदालत के पास भेज दे;
  • यदि वह विवाद औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की दूसरी अनुसूची से संबंधित मामले से संबंधित है या जुड़ा हुआ प्रतीत होता है, तो उपयुक्त सरकार मामले को श्रम न्यायालय के पास भेजेगी।
  • यदि मामले से संबंधित विवाद अधिनियम की दूसरी और तीसरी अनुसूची में दिया गया है, तो उपयुक्त सरकार विवाद को न्यायाधिकरण को निर्देशित करेगी। लेकिन जहां मामला तीसरी अनुसूची से संबंधित है और वह विवाद 100 से अधिक कामगारों को प्रभावित नहीं कर रहा है, वहां उपयुक्त सरकार, यदि वह उचित समझती है, तो विवाद को श्रम न्यायालय को भेज सकती है।

स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया बनाम भारत संघ, 2006 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर दिया कि क्या संविदात्मक श्रम (कॉन्ट्रैक्चुअल लेबर) को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। श्रम न्यायालय ने माना कि संविदात्मक श्रम को समाप्त किया जाना चाहिए। इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस प्रश्न का निर्णय केंद्र सरकार द्वारा किया जाना चाहिए, क्योंकि यह इस कार्यक्षेत्र में उपयुक्त सरकार है, न कि श्रम न्यायालय।

राष्ट्रीय न्यायाधिकरण

धारा 10 (1A) हमें बताती है कि विवाद को राष्ट्रीय न्यायाधिकरण में कब भेजा जाना चाहिए। केवल केंद्र सरकार के पास विवाद को राष्ट्रीय न्यायाधिकरण में भेजने की शक्ति है, और यह अप्रासंगिक होगा कि केंद्र सरकार उस उद्योग के लिए उपयुक्त सरकार है या नहीं। केंद्र सरकार विवाद को लिखित रूप में राष्ट्रीय न्यायाधिकरण को भेजेगी यदि सरकार की राय में 

  • विवाद राष्ट्रीय महत्व का है;या, 
  • प्रकृति की वजह से विवाद में दो या दो से अधिक राज्य शामिल हैं या उद्योग प्रतिष्ठान एक से अधिक राज्यों में स्थित है।

धारा 10 (2) पक्षों को यह कहते हुए शक्ति देती है कि यदि वे संयुक्त रूप से या व्यक्तिगत रूप से निर्देश के लिए आवेदन करते हैं, तो उचित सरकार संतुष्ट होने पर इसे निर्देशित करेगी।

धारा 10 (6) कहती है कि जब किसी मामले को धारा 10 (1A) के आधार पर राष्ट्रीय न्यायाधिकरण को भेजा जाता है, तो किसी भी श्रम न्यायालय या न्यायाधिकरण के पास राष्ट्रीय न्यायाधिकरण के समक्ष किसी भी मामले का निर्णय लेने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं होगा, और तदनुसार:

  1. यदि राष्ट्रीय न्यायाधिकरण के समक्ष निर्देशित मामला श्रम अदालत या न्यायाधिकरण के समक्ष लंबित (पेंडिंग) है तो इसे श्रम अदालत या न्यायाधिकरणों से राष्ट्रीय न्यायाधिकरण के निर्देश में रद्द माना जाएगा।
  2. उपयुक्त सरकार इसका निर्देशन नहीं करेगी क्योंकि सरकार के लिए राष्ट्रीय न्यायाधिकरण के समक्ष न्यायिक मामलों को निर्देशित करना वैध नहीं है, जबकि राष्ट्रीय न्यायाधिकरण के समक्ष उस मामले से संबंधित कार्यवाही किसी श्रम अदालत या न्यायाधिकरण में लंबित है।

अधिनियम की धारा 11 सुलह अधिकारियों, बोर्ड, अदालतों और न्यायाधिकरणों और राष्ट्रीय न्यायाधिकरणों की प्रक्रिया और शक्तियां प्रदान करती है, जिसमें वे विवादों के निपटारे के लिए आवश्यक कोई भी कदम उठा सकते हैं या किसी भी प्रक्रिया का पालन कर सकते हैं। सुलह अधिकारी उचित नोटिस के बाद निरीक्षण के लिए औद्योगिक परिसर में प्रवेश कर सकता है। बोर्ड, न्यायालयों और न्यायाधिकरणों और राष्ट्रीय न्यायाधिकरणों के पास सिविल न्यायालय के समान शक्ति है और इसलिए, किसी भी व्यक्ति जिसकी उपस्थिति की आवश्यकता होती है को मजबूर किया जा सकता है, दस्तावेजों को प्रस्तुत करने के लिए मजबूर किया जा सकता है, गवाहों की जांच की जा सकती है या जांच के लिए आवश्यक कदम उठाए जा सकते हैं।

उचित सरकार द्वारा प्रतिबंधित करने और सीमा लगाने की शक्ति

धारा 10 (3) का कहना है कि उपयुक्त सरकार द्वारा औद्योगिक विवाद के संदर्भ के समय सरकार विवाद के कारण चल रही हड़ताल, तालाबंदी आदि पर रोक लगाने के लिए नोटिस जारी कर सकती है।

दिल्ली प्रशासन, दिल्ली बनाम एडवर्ड केवेंटर्स के कर्मकार (1978) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दो महत्वपूर्ण शर्तें व्यक्त कीं जो धारा 10 (3) को लागू करने के लिए आवश्यक हैं:

  1. “एक औद्योगिक विवाद मौजूद होना चाहिए और इस तरह के मौजूदा विवाद को इस धारा, अर्थात् धारा 10(1) के तहत बोर्ड, श्रम न्यायालय, न्यायाधिकरण या राष्ट्रीय न्यायाधिकरण को भेजा जाना चाहिए। धारा 10 एक स्व-निहित संहिता (सेल्फ-कॉन्टैनेड कोड) के रूप में खड़ा है क्योंकि यह इस विषय वस्तु के संबंध में था। प्रतिबंधात्मक शक्ति (प्रोहिबिटोरी पावर) केवल तभी अस्तित्व में आती है जब इस तरह के विवाद को धारा 10(1) के तहत निर्देश का विषय बनाया गया हो।
  2. दूसरा, इस तरह के विवाद को पहले ही अधिनिर्णयन के लिए भेजा जा चुका होगा। केवल तभी इस तरह के निर्देशित विवाद के संबंध में प्रतिबंध लगाने की शक्ति का उपयोग किया जा सकता है।

मदुरा कोट्स कर्मचारी बनाम बिहार राज्य (2017) के मामले में, पटना उच्च न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की धारा 10 (3) और 26(2) के संयुक्त पठन में यह प्रावधान है कि धारा 26 (2) में उल्लिखित दंड अपराध केवल तभी लागू होगा जब हड़ताल और तालाबंदी को प्रतिबंधित करने वाली उचित सरकार द्वारा निर्देश संबंधित प्राधिकरण के समक्ष लंबित हो। अदालत ने आगे कहा कि यदि ऐसा कोई आदेश या निर्देश नहीं है तो धारा 26(2) के तहत अपराध लागू नहीं होगा।

अधिनिर्णयन कार्यवाहियों पर सीमाएं

धारा 10(4) श्रम न्यायालय, राष्ट्रीय न्यायाधिकरण आदि पर सीमाएं लगाती है, और निर्णय कार्यवाही का दायरा देती है। जब उपयुक्त सरकार बाद के आदेश द्वारा औद्योगिक विवाद को धारा 10 में उल्लिखित संबंधित प्राधिकरण को निर्देशित करती है और निर्णय के बिंदुओं को भी निर्दिष्ट करती है, तो संबंधित अदालत या न्यायाधिकरण को खुद को केवल उन अधिनिर्णनयन बिंदुओं तक सीमित रखना चाहिए।

नेशनल काउंसिल फॉर सीमेंट एंड बिल्डिंग मैटेरियल्स बनाम हरियाणा राज्य (1996) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 10(4) न्यायिक न्यायाधिकरणों के अधिकार क्षेत्र को सीमित करती है और यह अधिकार क्षेत्र केवल उन बिंदुओं तक ही सीमित है जिन्हें उचित सरकार द्वारा मामले में निर्देशित किया गया था।

धारा 10(5) के अनुसार, उपयुक्त सरकार को समान प्रकृति के किसी भी अन्य प्रतिष्ठान, समूह या प्रतिष्ठानों के वर्ग को शामिल करने की अनुमति है, जो इस मुद्दे में रुचि रखते हैं या प्रभावित होते हैं, या तो निर्देश के समय या अवॉर्ड जमा करने से पहले किसी भी समय। 

इस तरह का समावेश स्वीकार्य है, भले ही प्रतिष्ठान, समूह या प्रतिष्ठानों के वर्ग को शामिल करने के समय विवाद था या विवाद की आशंकाएं हों। उपयुक्त सरकार के पास यह निर्धारित करने के लिए विशेष विवेकाधिकार होना चाहिए कि विवाद इस तरह का है या नहीं कि समान प्रकृति के प्रतिष्ठानों के किसी अन्य प्रतिष्ठान, समूह या वर्ग को इस तरह के विवाद में रुचि होने या प्रभावित होने की संभावना है। उपयुक्त सरकार किसी अन्य पक्ष से आवेदन प्राप्त किए बिना इस अवॉर्ड पर आ सकती है।

मामले की चूक

धारा 10 (8) कहती है कि कोई भी औद्योगिक विवाद केवल इसके एक पक्ष की मृत्यु से समाप्त नहीं होगा, और श्रम अदालतें, राष्ट्रीय न्यायाधिकरण और न्यायाधिकरण निर्णय पारित करेंगे और इसे उचित सरकार को प्रस्तुत करेंगे।

सतीश शर्मा बनाम भारत संघ (2002) के मामले में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि जब विवाद अभी भी मौजूद है और इसे उठाया नहीं गया है और इसे उठाने में देरी हुई है, तो उस विवाद को केवल इस आधार पर अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि विवाद में देरी हुई है।

विवाद के निपटारे के लिए समय सीमा

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 10(2A) विवाद को निपटाने के लिए समय सीमा प्रदान करती है।

विवाद को उचित सरकार द्वारा श्रम न्यायालय, न्यायाधिकरणों और राष्ट्रीय न्यायाधिकरण को भेजा गया था, और फिर, निश्चित रूप से, संबंधित अधिकारियों को संबंधित समय के भीतर औद्योगिक विवाद का निपटारा करना होगा।

इस धारा के अनुसार, जब विवाद एक व्यक्तिगत कामगार से संबंधित होता है, तो विवाद को निपटाने की समय सीमा 3 महीने होती है। विवादों को अधिक से अधिक तीन महीनों में हल किया जाना चाहिए।

धारा 2(s) के अनुसार, कामगार का अर्थ किसी भी व्यक्ति से है जो कुशल (स्किल्ड), अकुशल (उनस्किल्ड), तकनीकी, मैन्युअल रूप से, परिचालन रूप (ऑपेऱशनली) से, लिपिक (क्लेरिकल), पर्यवेक्षी (सुपरवाइजरी), आदि है, और उद्योग में इनाम के लिए काम पर रखा गया है, और रोजगार की शर्तों का अनुबंध निहित या व्यक्त किया जा सकता है।

आगे संबंधित प्राधिकरण के कर्मचारियों को निर्देशित करने वाले विवाद का अर्थ है कोई भी व्यक्ति जिसे हटाया जा रहा है, बर्खास्त (डिसमिस) किया जा रहा है, छुट्टी (डिस्चार्ज) दी जा रही है, आदि।

श्रमिकों की परिभाषा से, धारा 2(s) में “वायु सेना द्वारा शासित व्यक्ति, पुलिस आदि शामिल नहीं हैं। 

इसके अलावा, धारा 10(2A) में प्रावधान है कि यदि विवाद के पक्ष, अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, संयुक्त रूप से श्रम न्यायालय, न्यायाधिकरणों और राष्ट्रीय न्यायाधिकरणों से समय के विस्तार (एक्सटेंशन) की मांग करते हैं, तो धारा 10 में उल्लिखित संबंधित अधिकारी समय बढ़ा सकते हैं जैसा कि वे उचित समझते हैं, और विस्तार का कारण लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिए। विस्तार अवधि की गणना (कंप्यूटेशन) में वह अवधि शामिल नहीं होगी जहां श्रम न्यायालय, न्यायाधिकरणों या राष्ट्रीय न्यायाधिकरणों के समक्ष कार्यवाही पर सिविल अदालत द्वारा अंतरिम (इंटेरिम) आदेश, निषेधाज्ञा (इन्जंक्शन) आदि के रूप में रोक लगाई जा रही है।

यह धारा यह भी कहती है कि इस धारा में उल्लिखित प्राधिकारियों के समक्ष कार्यवाही केवल इसलिए समाप्त नहीं होगी क्योंकि उनके द्वारा प्रदान किया गया समय समाप्त हो गया है।

धारा 10A के बारे में: मध्यस्थता का सहारा

औद्योगिक विवाद अधिनियम हमें औद्योगिक विवादों को पहचानने और उन्हें हल करने के लिए रणनीतियों (स्ट्रेटेजीज) को पहचानने के कई तरीके प्रदान करता है, और उनमें से एक अधिनियम की धारा 10A के तहत स्वैच्छिक मध्यस्थता है। यह धारा 1956 में जोड़ी गई थी। 

करनाल चमड़ा कर्मचारी बनाम लिबर्टी फुटवियर कंपनी (1989) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मध्यस्थता एक विवाद को संबोधित करने और निपटाने के लिए सबसे प्रभावी और अच्छे तरीकों में से एक है।

बॉम्बे उच्च न्यायालय ने महाप्रबंधक, वेस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड बनाम सुमित मलिक और अन्य (2012) के मामले में कहा कि धारा 10 और 10A में उल्लिखित उपाय एक-दूसरे के विकल्प हैं, और यदि मध्यस्थता के लिए धारा 10A के अनुसार पक्षों के बीच एक समझौता किया जा रहा है, तो उचित सरकार अधिनियम की धारा 10 में उल्लिखित किसी भी अधिकारी को विवाद को निर्देशित नहीं कर सकती हैं।

धारा 10A के अनुसार, इससे पहले कि उचित सरकार मामले को श्रम अदालतों या न्यायाधिकरणों को निर्देशित करे, औद्योगिक विवाद के पक्ष लिखित समझौते में विवाद को मध्यस्थता के लिए भेज सकते हैं।

धारा 10A की उपधारा 1A कहती है कि जब समान संख्या में मध्यस्थ नियुक्त किए जा रहे हों तो एक अंपायर का भी चुनाव किया जाना चाहिए ताकि जब मध्यस्थों की सम संख्या समान अनुपात में राय दे तो अवॉर्ड पारित करते समय अंपायर का निर्णय प्रबल होना चाहिए।

धारा 10A(3) कहती है कि मध्यस्थता करने का समझौता उचित सरकार को दिया जाना चाहिए, जिसे यह सुनिश्चित करना होगा कि इसे प्राप्त करने के एक महीने के भीतर आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित (पब्लिश) किया जाए।

धारा 10A(3A) में उल्लेख किया गया है कि सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि जो पक्ष विवाद में रुचि रखते हैं, लेकिन समझौते के पक्ष नहीं हैं, उन्हें मध्यस्थ न्यायाधिकरण के समक्ष अपना मामला पेश करने का अवसर मिले। इस आशय की अधिसूचना धारा 10A(3) के अनुसार जारी की जानी चाहिए।

पक्ष द्वारा नियुक्त मध्यस्थ विवादित मामले की जांच करेंगे, और मध्यस्थ जो अवॉर्ड पारित करेगा, उसे उचित सरकार को प्रस्तुत किया जाएगा। अवॉर्ड को धारा 10A(4) में उल्लिखित सभी मध्यस्थों द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना चाहिए।

जहां धारा 10A(3A) के तहत सभी दलों को एक अधिसूचना जारी की गई है, सरकार धारा 10A(4A) में वर्णित हड़ताल या तालाबंदी को जारी रखने पर रोक लगा सकती है।

रोहतास इंडस्ट्रीज बनाम रोहतास इंडस्ट्रीज स्टाफ यूनियन (1976) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 10A के तहत पक्षों द्वारा नियुक्त मध्यस्थ का निर्णय गैर-पक्षों पर बाध्यकारी हो सकता है जो मध्यस्थता के समझौते में पक्षों से संबंधित हैं और यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र के लिए उत्तरदायी था क्योंकि इन न्यायाधिकरणों ने संप्रभु न्याय प्रणाली (सॉवरेन जस्टिस  सिस्टम) का विस्तार किया।

निष्कर्ष

अंत में, औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 10 और 10A भारत में औद्योगिक विवादों के त्वरित समाधान को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जबकि धारा 10 उचित सरकार को सुलह के लिए विवाद को निर्देशित करने का अधिकार देती है, धारा 10A विवाद समाधान के लिए वैकल्पिक विधि के रूप में स्वैच्छिक मध्यस्थता प्रदान करती है। दोनों प्रावधानों का उद्देश्य पक्षों को सौहार्दपूर्ण तरीके से विवादों को हल करने के लिए प्रोत्साहित करके और हड़ताल या तालाबंदी का सहारा लिए बिना औद्योगिक शांति और सद्भाव को बढ़ावा देना है। हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इन प्रावधानों की प्रभावशीलता दोनों पक्षों की इच्छा पर निर्भर करती है कि वे सद्भाव में सुलह या मध्यस्थता प्रक्रिया में संलग्न हों। इसे ध्यान में रखते हुए, यह आवश्यक है कि नियोक्ता और श्रमिक सहयोग और आपसी समझ की भावना के साथ विवादों के समाधान का दृष्टिकोण (अप्प्रोच) रखें, ताकि भारत के औद्योगिक क्षेत्र की निरंतर वृद्धि और विकास सुनिश्चित किया जा सके।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

क्या धारा 10A के तहत मध्यस्थ द्वारा लिया गया निर्णय न्यायिक समीक्षा (रिव्यू) के अधीन है?

मध्यस्थ द्वारा पारित अवॉर्ड अर्ध-न्यायिक होते हैं और उन्हें उच्च न्यायालयों में चुनौती दी जा सकती है। इंजीनियरिंग मजदूर सभा बनाम हिंद चक्र (1962) के मामले में न्यायालय ने कहा कि “अधिनियम की धारा 10A के तहत जिन मध्यस्थों को औद्योगिक विवाद स्वेच्छा से निर्देशित किए जाते हैं, उनके निर्णय अर्ध-न्यायिक निर्णय हैं और वे अनुच्छेद 136(1) के तहत निर्धारण या आदेश के समान हैं।

क्या औद्योगिक न्यायाधिकरणों द्वारा पारित किसी अवॉर्ड को प्रवर्तनीय (इन्फोर्स) हो जाने के बाद चुनौती देना संभव है?

हां, औद्योगिक न्यायाधिकरणों द्वारा पारित किसी अवॉर्ड को लागू करने योग्य होने के बाद चुनौती देना संभव है। सर्वोच्च न्यायालय ने भारत बैंक लिमिटेड बनाम  एम्प्लाइज ऑफ़  भारत बैंक लिमिटेड (1950) के मामले में फैसला सुनाया के कर्मचारियों ने कहा कि भले ही औद्योगिक न्यायाधिकरण पारंपरिक अर्थों में एक अदालत नहीं है क्योंकि यह अर्ध-न्यायिक कर्तव्यों का पालन करता है, फिर भी यह संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत अभिभावी अधिकार क्षेत्र के अधीन है, और इसने औद्योगिक न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए निर्णय को रद्द कर दिया। 

औद्योगिक विवादों के प्रकार क्या हैं?

एक औद्योगिक विवाद को मोटे तौर पर दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  1. अधिकारों से संबंधित विवादों का मतलब किसी मौजूदा समझौते या रोजगार के अनुबंध की प्रायोज्यता (एप्लीकेशन) या व्याख्या (इंटरप्रिटेशन) से संबंधित विवाद है।
  2. हित से संबंधित विवाद कर्मचारियों द्वारा किए गए दावों या रोजगार के नियमों और शर्तों के बारे में प्रबंधन द्वारा दिए गए सुझावों से संबंधित हैं।

संदर्भ 

 

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