राइट टू प्रोटेस्ट: ए फंडामेंटल राइट (विरोध का अधिकार: एक मौलिक अधिकार)

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Constitution of india
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यह लेख नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ, रांची की Shivangi Kumari ने लिखा है। इस लेख में विरोध का आधिकार एक मौलिक अधिकार है या नही, पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

नागरिक देश का एक अभिन्न अंग (इंटीग्रल पार्ट) हैं जिनके अधिकारों और स्वतंत्रता को कानून द्वारा संरक्षित (प्रोटेक्टेड) किया जाना चाहिए, क्योंकि एक देश ठीक से तभी काम कर सकता है जब उसके देश के नागरिक परेशान न हो और अपनी सरकार की मनमानी (आर्बिट्रेरीनेस) से दूर हो। नियमों और विनियमों (रेगुलेशन), कानूनी ढांचे (लीगल फ्रेमवर्क), नागरिकों की भलाई के लिए यह सब कुछ किया जाता है और एक सभ्य (सिविलाइज्ड) समाज बनाया जाता है ताकि नागरिक जीवित रह सकें, इसलिए, भारत का संविधान भारत के नागरिकों को विभिन्न अधिकार प्रदान करता है, जिन्हें नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट) कहा जाता है। इस प्रकार, यदि नागरिकों ने यह स्थापित (एस्टेब्लिश) किया है कि कोई भी सरकारी कार्रवाई (गवर्नमेंट एक्शन), नीति (पॉलिसी) या कानून उचित या मनमाना नहीं है, तो उन्हें सरकार का विरोध (अपोज) करने, आलोचना (क्रिटिसाइज) करने और अपने विचार व्यक्त (एक्स्प्रेस) करने का अधिकार है, जिसे शांतिपूर्ण विरोध (पीसफुल प्रोटेस्ट) के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है।

भारतीय इतिहास को पीछे मुड़कर देखें, तो स्वतंत्रता सेनानी (फ्रीडम फाइटर्स) भी शांतिपूर्ण विरोध का उपयोग भारत के स्वतंत्रता संग्राम (स्ट्रगल फॉर फ्रीडम) के लिए एक उपकरण (टूल) के रूप में करते हैं। राष्ट्र के पिता, महात्मा गांधी, भी शांतिपूर्ण विरोध में विश्वास करते थे, अहिंसा के सिद्धांतों का पालन करते हुए, कई धाना को अंजाम देते हुए, नागरिकों के नागरिक अधिकारों (सिटीजन सिविल राइट) की गारंटी के लिए नीतियों और कानूनों के खिलाफ रैलियों और आंदोलनों (मूवमेंट्स) का विरोध करते हुए और अंग्रेजों से भारत को स्वतंत्रता दिलाई।

इसलिए, इतिहास का विश्लेषण (एनालिसिस) करने के बाद, यह कहा जा सकता है कि किसी भी सरकारी नीति और कानूनों को चुनौती देने का कोई बेहतर तरीका नहीं है, शांतिपूर्वक विरोध करना लोगों की राय (ओपिनियन) व्यक्त करने और आवश्यक होने पर सरकार के खिलाफ बोलने का सबसे अच्छा तरीका है। उचित योजना (प्रॉपर प्लानिंग), पैसा, समय और बहुत कुछ जैसे विरोध रैली आयोजित (ऑर्गेनाइज) करने की आवश्यकता है, लेकिन उनमें से, प्रदर्शनकारियों (प्रोटेस्टर) द्वारा जोर देने के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीजों में से एक इसे कानूनों के अनुसार आयोजित करना है, क्योंकि इसमें कोई अवैध सामग्री (इलीगल मैटेरियल) जुड़ जाती है, तो विरोध करने का जरूरी सार (एसेंस) खो जाता है।

आधुनिक (मॉडर्न) भारत में, कई विरोध रैलियां समय की जरूरतों के अनुसार प्रचलित (प्रीवेलिंग) विभिन्न मुद्दों को देख रही हैं, क्योंकि लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था (डेमोक्रेटिक पॉलिटिकल सिस्टम) में लोगों को अपनी राय व्यक्त करने और सरकार से कहने का अधिकार है, क्योंकि कानून लोगों के लिए बनाए गए हैं और  ऐसी स्थिति में जहां जनता और सरकार की विचारधारा (आइडियोलोजी) टकराती है या कुछ नियमन की इच्छा होती है, तो जनता को अपनी इच्छा व्यक्त करने या शांतिपूर्ण विरोध के माध्यम से संवाद (कम्युनिकेट) करने का अधिकार है ताकि उनकी आवाज सरकार तक पहुंच सके।

विरोध क्या है (व्हाट इज प्रोटेस्ट)?

विरोध किसी सरकार या संगठन (ऑर्गेनाइजेशन) की किसी भी कार्रवाई, बयान (स्टेटमेंट) या नीति पर अस्वीकृति (डिसाप्रोवल) या आपत्ति (आब्जेक्शन) व्यक्त करने का एक तरीका है जो लोगों के एक समूह पर अपने खिलाफ आरोप लगाना चाहता है। अधिकांश (मोस्ट) समय, विरोध राजनीतिक मुद्दों के बारे में होता है जो प्रदर्शनकारी सामूहिक रूप से सरकार द्वारा अपने विचारों और मांगों को सुनने के लिए और अन्य नागरिकों को उनका समर्थन करने के लिए प्रभावित करने के लिए संगठित करते हैं।

विरोध आयोजित करने के पीछे का उद्देश्य सरकार से किसी कार्रवाई या नीति के बारे में सार्वजनिक रूप से पूछताछ करना और उन्हें व्यवस्थित (सिस्टमेटिकली) रूप से वही जवाब देना है। विरोध से सरकार को उनके कार्यों में उनकी खामियों की पहचान करने में मदद मिलती है जिससे उनके कार्यों में सुधार होता है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में, इस तरह का शांतिपूर्ण विरोध बुनियादी विशेषताएं (बेसिक कैरक्टिरिस्टिक) हैं जिनकी आबादी लोगों को अपनी आवाज उठाने का अधिकार देकर आलोचना कर सकती है और सामाजिक या राष्ट्रीय हित के किसी भी मुद्दे पर अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकती है।

विरोध करने का अधिकार: एक मौलिक अधिकार (राइट टू प्रोटेस्ट: ए फंडामेंटल राइट)

भारत में मौलिक अधिकारों को संविधान के बुनियादी ढांचे (स्ट्रक्चर) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है, जिसका किसी भी हाल में उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। ये मौलिक अधिकार नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करते हैं और उल्लंघन की स्थिति में उपचार (रेमेडी) प्रदान करते हैं।

वैसे तो सभी अधिकार बहुत महत्वपूर्ण हैं और अलग-अलग भूमिका निभाते हैं, लेकिन उनमें से यह एक महत्वपूर्ण अधिकार है जो संविधान के अनुच्छेद 19 में नागरिकों के लिए अलग-अलग स्वतंत्रता की गारंटी देता है। केवल अनुच्छेद 19 है जो विरोध का अधिकार भी प्रदान करता है। यद्यपि विरोध शब्द का भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों में स्पष्ट (एक्सप्लिसिटली) रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, यह निहित (इंप्लिसिटली) रूप से अनुच्छेद 19 के गहराई में पढ़ने से लिया गया है। हथियारों के बिना शांतिपूर्ण सभा (असेंबली) का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19(1) (b) के तहत एक मौलिक अधिकार है।

विरोध करने का अधिकार अनुच्छेद 19(1)(a), अनुच्छेद 19(1)(b) और अनुच्छेद 19(1)(c) के तहत संरक्षित है, जो नागरिकों को अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता का अधिकार देता है, बिना हथियार के शांति से मिलने का अधिकार और संघ (एसोसिएशन) या व्यापार संघ (ट्रेड यूनियन) बनाने का अधिकार देता है। ये तीन अनुच्छेद इस आधार पर विरोध के अधिकार का गठन करते हैं कि एक प्रदर्शनकारी राष्ट्रीय या सामाजिक हित (सोशल इंटरेस्ट) के किसी भी मुद्दे के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने के अपने अधिकार का प्रयोग कर सकता है।

  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को इशारों या मुंह आदि के माध्यम से अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने का अधिकार है।
  • बिना हथियार के शांतिपूर्ण सभा का अधिकार, अर्थात जनसभा (पब्लिक मीटिंग) करना या जुलूस (प्रोसेशन) बंद करना है।
  • संघ या व्यापार संघ बनाने के अधिकार का मतलब सामान्य हित के क्षेत्र में स्व-नियामक (सेल्फ रेगुलेटरी) सभा (क्लब), पेशेवर (प्रोफेशनल) संघ या कंपनियां बनाने का अधिकार है।

निर्णय विधि (केस लॉज)

रामलीला मैदान हादसा बनाम गृह सचिव, भारत संघ, में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, ‘नागरिकों को सभा और शांतिपूर्ण विरोध का मौलिक अधिकार है जिसे मनमाने ढंग से कार्यकारी (एग्ज़ीक्यूटिव) या विधायी (लेजिस्लेटिव) कार्रवाई से हटाया नहीं जा सकता है।’

मेनका गांधी बनाम भारत संघ में, न्यायमूर्ति भगवती ने कहा कि, ‘अगर लोकतंत्र का मतलब लोगो के लिए सरकार है, लोगों की ओर से, यह स्पष्ट है कि प्रत्येक नागरिक को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार होना चाहिए और उसे चुनाव करने के लिए अपने अधिकारों का बुद्धिमानी से प्रयोग करने की अनुमति देनी चाहिए, सार्वजनिक मुद्दों के लिए एक स्वतंत्र और सामान्य चर्चा (डिस्कशन) आवश्यक है।

सुप्रीम कोर्ट के ये निष्कर्ष संवैधानिक गारंटी की पुष्टि (रिफर्म) करते हैं कि नागरिकों को जरूरत पड़ने पर विरोध करने का अधिकार है। ये विरोध भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने में मदद करते हैं और शांतिपूर्ण प्रतिकूलता (एडवर्सिटी) के लिए जगह देते हैं, जो न केवल नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि एक कमी को ठीक करने में भी मदद करता है। अदालत की टिप्पणियों (ऑब्जर्वेशन) के अनुसार, नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए विरोध का अधिकार स्वतंत्र लोकतंत्र का एक अनिवार्य तत्व है।

क्यों जरूरी है विरोध का अधिकार (व्हाई इज द राइट टू प्रोटेस्ट एसेंशियल)?

सरकार नागरिकों के हित में और देश के विकास और सुधार के लिए कई नीतियां लाती है, जिनकी नियमित रूप से नागरिकों द्वारा निगरानी (मॉनिटर) की जाती है और उसी तरह से अपनी राय व्यक्त करते है, इसलिए यदि कोई गलती है जिसे इस राय व्यक्त करने के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शन से हल किया जा सकता है। नतीजतन, नागरिक अभिभावक (गार्जियन) के रूप में कार्य करते हैं और सभी सरकारी गतिविधियों की निगरानी करते हैं। यहां, कार्यों या नीतियों में त्रुटियों (एरर) को ठीक करने में विरोध महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

भारतीय संविधान की पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड) उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष (एंटी कोलोनियल स्ट्रगल) से बनी है, जिसमें राजनीतिक क्षेत्र और लोकतांत्रिक संविधान के बीज बोए गए थे। भारतीय लोगों ने औपनिवेशिक (कोलोनियल) नीतियों और कानूनों पर अपने विचारों को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने के लिए, असहमति के लिए कड़ी मेहनत और लंबी लड़ाई लड़ी है।

लोगों ने न केवल याचिकाओं (पेटिशन) पर हस्ताक्षर किए, बल्कि धरने भी आयोजित किए, बड़ी जनसभाएं, शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन किए, और यहां तक ​​कि, उदाहरण के लिए, गांधी के सत्याग्रह में, सविनय अवज्ञा (सिविल डिसोबेडिएंस) का शुभारंभ किया गया था। विरोध उन आवाजों को शामिल करते है और उनकी भागीदारी (इंक्लूजन) के बिंदु (पॉइंट) भी पेश करते हैं जो मुख्यधारा (मैंस्ट्रीम) का हिस्सा नहीं हैं, जैसा कि आंध्र या चिपको आंदोलन के विरोध में देखा गया है।

ऐतिहासिक रूप से, कई प्रदर्शनों ने संविधान में कई बदलाव किए हैं। उदाहरण के लिए, पोट्टी श्रीरामुलु ने एक नए तेलुगु-बोलने वाले राज्य आंद्रा और चिपको आंदोलन के निर्माण के लिए खुद को भूखा रखता था, जिससे यह रोका जा सके कि यूपी सरकार वाणिज्यिक लकड़हारों (कमर्शियल लॉगर) से बातचीत करने के लिए क्या कर सकती थी। इस प्रकार, विरोध सरकार के खिलाफ मजबूत सार्वजनिक तरीकों का रूप ले सकता है।

सरकार को सम्मान करना चाहिए और वास्तव में, इन अधिकारों के प्रयोग को प्रोत्साहित (इनकरेज) करना चाहिए। यह राज्य का दायित्व (ऑब्लिगेशन) है कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के प्रयोग में सहायता करे जैसा कि इसके समग्र (ओवरऑल) अर्थ में समझा जाता है और अपनी कार्यकारी या विधायी शक्तियों का प्रयोग करके या आदेशों को अपनाकर या इसे सीमित (लिमिट) करने के लिए कदम उठाकर उस अधिकार के प्रयोग में हस्तक्षेप (इंटरफेयर) नहीं करना है।  उचित प्रतिबंधों के नाम पर अधिकार।  इस प्रकार, विरोध का अधिकार सुधार लाने और देश के विकास की ओर ले जाने के लिए लोकतंत्र का एक अनिवार्य तत्व है।

इन मौलिक अधिकारों पर उचित प्रतिबंध (रीजनेबल रिस्ट्रिक्शन ओवर दीज़ फंडामेंटल राइट्स)

यह याद रखना चाहिए कि सभी विरोध केवल तभी वैध होते हैं जब वे अहिंसक (नॉन वायलेंट) होते हैं और उचित अनुमति के साथ किए जाते हैं। ‘संविधान में निहित बुनियादी दायित्वों के लिए कानून के शासन (रूल ऑफ लॉ) के सम्मान की आवश्यकता है न कि सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने के लिए’।

ये मौलिक अधिकार पूर्ण (एब्सोल्यूट) नहीं हैं और उचित प्रतिबंधों (रीजनेबल रिस्ट्रिक्शन) के साथ आते हैं, जैसे कि लोगों को नियंत्रण (कंट्रोल) के बिना पूरी आजादी दी गई थी जो पूरे समाज को प्रभावित कर सकती थी। इसलिए यह अधिकार भारतीय संविधान के खंड (क्लॉज) 2 से 6 के तहत उचित प्रतिबंधों के अधीन है, जिसमें एक प्रतिबंध शामिल है जिसे राज्य के कानून ने सार्वजनिक नीति को बनाए रखने के नाम पर लगाया है।

वे उचित प्रतिबंध निम्नलिखित हैं-

  1. यदि राज्य की सुरक्षा खतरे में है;
  2. अगर हम किसी पड़ोसी देश के साथ मैत्रीपूर्ण (फ्रैंडली) संबंध साझा करते हैं तो खतरा हो;
  3. सार्वजनिक व्यवस्था (पब्लिक ऑर्डर) के उल्लंघन के मामले में;
  4. अगर अदालत की अवमानना (कंटेंप्ट) ​​है;
  5. अगर भारत की संप्रभुता (सोवरेनिटी) और अखंडता (इंटीग्रिटी) को खतरा है।

रेलवे बोर्ड बनाम निरंजन सिंह के मामले में एक सीमा (लिमिटेशन) देखी गई थी। प्रतिबंध इंगित (इंडिकेट) करता है कि विरोध / सभा का अधिकार किसी और की संपत्ति के अधिकार पर लागू नहीं होता है। भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य सुरक्षा, विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था के हितों पर सभी उचित प्रतिबंध लगाए गए हैं और प्रकृति (नेचर) में मनमानी नहीं हो सकती है। इसलिए नागरिकों को अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए अपने कर्तव्यों को याद रखना चाहिए और उनका पालन करना चाहिए।

एक विरोध रैली आयोजित करने के लिए जिन अनुमति की आवश्यकता होगी, वे अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होंती है, जिसमें राज्यों को सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने से संबंधित कानून बनाने का अधिकार होता है। आमतौर पर किसी व्यक्ति को केवल पुलिस की अनुमति और पुलिस से अनापत्ति प्रमाण पत्र (नो आब्जेक्शन सर्टिफिकेट) (एनओसी) की आवश्यकता होती है। पुलिस के पास यह अधिकार है कि अगर उन्हें लगता है कि रैली सार्वजनिक व्यवस्था के खिलाफ है तो उन्हें अनुमति नहीं दी जाएगी। यह केवल कानून द्वारा ही किया जा सकता है। विरोध के सभी आवश्यक विवरणों (डिटेल) को उस याचिका में शामिल किया जाना चाहिए जिसे कोई व्यक्ति सभी आवश्यक दस्तावेजों (डॉक्यूमेंट) के साथ पुलिस को प्रस्तुत करता है।

कई राज्यों ने ऐसी बैठकों को प्रतिबंधित करने के लिए पुलिस को अधिकार देने वाले राज्य कानून पेश किए हैं।  हिम्मत लाल के शाह बनाम पुलिस आयुक्त अहमदाबाद में अदालत ने कहा कि पुलिस विरोध करने के उनके मौलिक अधिकार को तब तक प्रतिबंधित नहीं कर सकती जब तक कि कोई उचित कारण न हो।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

यह देखा जा सकता है कि शांतिपूर्ण विरोध एक मौलिक अधिकार और लोकतंत्र की जीवन रेखा है, और इसके अभाव (एब्सेंस) में, लोकतांत्रिक व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर सकती है, क्योंकि विरोध एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक समाज का सूचक (इंडिकेटर) है जिसमें लोगों की आवाज सुनी जाती है। बिना हथियारों के शांतिपूर्ण ढंग से विरोध करने और इकट्ठा होने का नागरिकों का अधिकार भारत के लोकतंत्र का एक पहलू (एस्पेक्ट) है। जबकि नागरिकों को हिंसक (वायलेंट) विरोधों से बचाना सरकार का कर्तव्य भी है, और कुछ बुनियादी सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

यद्यपि विरोध के संचालन पर उचित प्रतिबंधों की भागीदारी इसके दुरुपयोग को रोकने का एक बहुत ही महत्वपूर्ण और अनिवार्य हिस्सा है, इसलिए राज्य की जिम्मेदारी है कि वह उस अधिकार के प्रभावी प्रयोग को विनियमित करे और यह भी सुनिश्चित करे कि इसका लोगो द्वारा अत्यधिक उपयोग न किया जाये। इस प्रकार, राज्य का काम दोनों पक्षों को संतुलित (बैलेंस) करना और समाज में स्थिरता (स्टेबिलिटी) लाना है। सरकार को लोगों की उचित मांगों और रचनात्मक (कंस्ट्रक्टिव) आलोचना का स्वागत करना चाहिए, और किसी भी मामले में, गैर-प्रस्तुत (नॉन सबमिशन) करने के अधिकार को दबाया नहीं जाना चाहिए, क्योंकि विरोध वह तरीका है जिससे सरकारी गतिविधियों के संरक्षक के रूप में समाज सरकार के काम को इंगित कर सकता है या  नीति जिन्हें वे पसंद नहीं करते हैं या उन नियमों की मांग कर सकते हैं जो उनके लिए आवश्यक हैं।

दूसरी ओर, देश के जिम्मेदार नागरिक का यह भी दायित्व है कि वह जहां आवश्यक हो हर अधिकार का उपयोग करें और हर बार बिना शर्त सरकारी कार्यों और नीतियों का विरोध न करें, जो बिना शर्त पूरे देश के कामकाज को प्रभावित करता है और समाज में अस्थिरता (इंस्टेबिलिटी) को प्रमुखता (प्रिडोमिनेट्स) देता है।

इसलिए विरोध का अधिकार एक लोकतांत्रिक देश में एक आवश्यक तत्व है और आवश्यकता पड़ने पर इसका उचित उपयोग किया जाना चाहिए, और सरकार को इस मौलिक अधिकार को सीमित करने के बजाय नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों का उपयोग करने में मदद करनी चाहिए।

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