डज राईट टू लाइफ इंक्लूड राइट टू डाई (क्या जीने के अधिकार में मरने का अधिकार भी शामिल है)?

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Constitution of India
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यह लेख Diganth Raj Sehgal, छात्र, स्कूल ऑफ लॉ, क्राइस्ट यूनिवर्सिटी, बैंगलोर द्वारा लिखा गया है।  लेखक ने चर्चा की है कि क्या मरने के अधिकार को जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) के दायरे में शामिल किया जा सकता है या नहीं। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

मरने का अधिकार एक अवधारणा (कांसेप्ट) है जो इस राय पर आधारित है कि एक इंसान अपने जीवन को समाप्त करने के बारे में कोई भी निर्णय ले सकता है (इसमें स्वैच्छिक इच्छामृत्यु (वॉलंट्री यूथेनेशिया) भी शामिल है)। इस अधिकार के कब्जे (पज़ेशन) का अर्थ अक्सर यह समझा जाता है कि एक लाइलाज बीमारी (टर्मिनल इलनेस) वाले व्यक्ति, या जिसे जीवित रहने की इच्छा न हो, अपने स्वयं के जीवन को समाप्त करने या आजीवन उपचार (लाइफ प्रोलोंगिंग ट्रीटमेंट) को अस्वीकार करने की अनुमति होती है। पहला सवाल यह उठता है कि क्या लोगों को मरने का अधिकार होना चाहिए और इस तरह के अधिकार को सही ठहराने वाला सिद्धांत (प्रिंसिपल) क्या हो सकता है।

जीवन का अधिकार मनुष्य का मौलिक प्राकृतिक (बेसिक नेचरल) अधिकार है। भारत में, यह अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत एक मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट) है जो भारत संविधान के भाग-III में है। अनुच्छेद 21 कहता है कि:

“कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता (पर्सनल लिबर्टी) से वंचित नहीं किया जाएगा”

यह मौलिक अधिकार नागरिकों और अन्य लोगों के लिए जीवन की अच्छी गुणवत्ता (क्वालिटी), आजीविका (लाइवलीहुड), स्वतंत्रता और एक सम्मानजनक (डिग्नीफाइड) जीवन सुनिश्चित (इंश्योर) करने के लिए राज्य पर एक दायित्व (ऑब्लिगेशन) प्रदान करता है।

जीवन के इस अधिकार की भारतीय न्यायपालिका द्वारा विभिन्न तरीकों से व्याख्या की गई है ताकि इसके दायरे में कई नए अधिकार शामिल किए जा सकें जैसे मानव गरिमा (ह्यूमन डिग्निटी) के साथ जीने का अधिकार, आजीविका का अधिकार, आश्रय (शेल्टर) का अधिकार, निजता (प्राइवेसी) का अधिकार, भोजन का अधिकार,  शिक्षा का अधिकार, प्रदूषण मुक्त हवा और पानी पाने का अधिकार और कुछ अन्य अधिकार जो लोगों के जीवन की स्थिति में सुधार करने के लिए काफी आवश्यक हैं, अर्थात – जीवन के अधिकार के सच्चे आनंद के लिए आवश्यक हैं।

सवाल यह है कि जीवन के अधिकार में जीने का अधिकार या मरने का अधिकार शामिल हो सकता है, जिस पर कई मामलों में बहस हुई है। मृत्यु को जीवन की समाप्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। मृत्यु को मूल रूप से दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है – 

  1. प्राकृतिक  (नेचरल)
  2. अप्राकृतिक (अननेचरल) मृत्यु 

यह किसी व्यक्ति की क्रिया (एक्शन) के साथ-साथ निष्क्रियता (इनेक्शन) के कारण भी हो सकता है। स्वयं के ऊपर या किसी और के ऊपर स्वयं की क्रिया से किसी के जीवन का अप्राकृतिक रूप से समाप्त होने का कारण नैतिक (मोरली) रूप से बुरा है और साथ ही कानूनी रूप से दंडनीय है। इस संसार का प्रत्येक प्राणी एक लंबा जीवन जीना चाहता है और हर संभव तरीके से अपने जीवन की उम्र बढ़ाना चाहता है और ऐसे जीवन के अंत को बढ़ावा देना इस अधिकार का इच्छित (इंटेंडेड) परिणाम नहीं है।

एक आम आदमी के लिए जब जीवन मौत से कहीं ज्यादा दर्दनाक (पेनफुल) और असहनीय (अनबियरेबल) हो जाता है, तो उसके लिए मौत की इच्छा करना बहुत सामान्य बात है। मृत्यु के इस स्वैच्छिक आलिंगन (एंब्रेसिंग) को इच्छामृत्यु या दया हत्या (मर्सी किलिंग) के रूप में जाना जाता है। इच्छामृत्यु को ‘दयामरन’ भी कहा जाता है। कुछ लोग महान संतों या वीर (हीरोइक) व्यक्तियों के रूप में ‘इच्छामरण’ या जानबूझकर मृत्यु को गले लगाते हैं, जब उन्हें लगता है कि उन्होंने अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर लिया है। हमारे देश में विभिन्न प्रकार की स्वैच्छिक मौतें होती हैं जैसे ‘सती’, ‘जौहर’, ‘समाधि’, ‘प्रायोपवेशन’ (भूख से मरना) आदि।

मरने के अधिकार का विश्लेषण (एनालिसिस ऑफ राइट टू डाई)

यदि किसी को इस अधिकार का होहफेल्डियन विश्लेषण करना है, तो प्रश्न में लाए गए न्यायिक संबंध (जुरल कोरिलेटिव्स) आधिकार और कर्तव्य (ड्यूटी) होंगे। उनके अनुसार प्रत्येक अधिकार का एक समान कर्तव्य होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि X को मरने का अधिकार है, तो Y का कर्तव्य होगा कि वह उसे मार डाले। यह, जैसा कि हम सभी जानते हैं, ऐसा नहीं है। आईपीसी (इंडियन पीनल कोड,1860) की धारा 300 और 302 के तहत किसी अन्य व्यक्ति की हत्या की सजा दी जाती है। तो मरने के अधिकार में क्या शामिल है?

जब भारतीय न्यायपालिका ने इस विषय पर गौर किया, तो उसने देखा कि आत्महत्या के लिए उकसाने (एबेटमेंट) वाली आईपीसी की धारा 309 पर चर्चा करने वाले बहुत सारे मामले हैं। उपरोक्त विश्लेषण से गुजरते हुए, यदि मरने के अधिकार का अर्थ है कि X को आत्महत्या करने का अधिकार है, तो Y का कर्तव्य होगा कि वह ऐसा करने में उसकी मदद करे, पर यह निष्कर्ष निकालना सही नहीं है।

भारत में मरने के अधिकार का दायरा केवल गंभीर रूप (टर्मिनली) से बीमार रोगियों या उनके परिवार को यह तय करने की अनुमति देने तक है कि जीवन समर्थन (सपोर्ट) कब वापस लेना है और व्यक्ति को सम्मान के साथ मरने देना है। यहां, यदि X को गंभीर रूप से बीमार होने पर गरिमा के साथ मरने का अधिकार है, तो Y या राज्य का कर्तव्य है कि वह उसे इस अधिकार का प्रयोग करने दे।

जैसा कि आत्महत्या करने के मामले में, आईपीसी की धारा 309 को मनमाना (आर्बिट्ररी) माना गया था, साथ ही राज्य ने आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्तियों के लिए पूर्व सजा (प्रायर पनिशमेंट) को वापस ले लिया, राज्य अभी भी आत्महत्या को बढ़ावा नहीं देता है। राज्य केवल यह समझकर अपराधीकरण (क्रिमिनलाइजिंग) करने से अलग रखता है क्योंकि यह मानसिक (मेंटल) स्वास्थ्य का मामला है।

जॉन लोके ने, अन्य दार्शनिकों (फिलॉसोफर) के बीच, मे कहा कि व्यक्तियों को अपने जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति का अधिकार है और उस तर्क (लॉजिक) से, यह सार (आर्गुमेंट) उत्पन्न होते हैं कि यदि किसी को जीवन का पूर्ण अधिकार है, तो उन्हें यह तय करने का अधिकार भी दिया जाना चाहिए कि क्या वे मरना चाहते हैं या वे लाइलाज बीमारियों के मामले में, अपना जीवन समाप्त करना चाहते हैं।

इच्छामृत्यु को वैध बनाने के लिए कई तर्क दिए गए हैं (सेवरल आर्गुमेंट्स फॉर लीगलाइजिंग यूथेनेशिया हैव बीन पुट फोर्थ)

जिनमें शामिल हैं:

  • यह एक अत्यंत दयनीय (एक्सट्रेमिली मिजरेबल) और दर्दनाक जीवन को समाप्त करने का एक तरीका है और रोगी की इच्छा के विरुद्ध मृत्यु को स्थगित (पोस्टपोन) करने का आग्रह कानून के विरुद्ध है।
  • मरने वाले रोगी के परिवार के सदस्यों को शारीरिक, भावनात्मक (इमोशनल), आर्थिक और मानसिक तनाव (मेंटल स्ट्रेस) से राहत मिलती है। यह रोगी को आराम भी प्रदान करता है और उसे दर्द से राहत (रिलीफ) भी देता है।
  • रोगियों को चिकित्सा उपचार से इंकार करने का भी अधिकार है। यदि कोई डॉक्टर किसी मरीज का इलाज उसकी इच्छा के विरुद्ध करता है, तो उस पर मारपीट (असॉल्ट) का आरोप लगाया जा सकता है।
  • इच्छामृत्यु के प्रदर्शन (परफॉर्मेंस) से अन्य गरीब और जरूरतमंद लोगों की मदद के लिए राज्य के चिकित्सा कोष (फंड) को मुक्त कर दिया जाएगा।
  • एक व्यक्ति को अपने मरने के अधिकार का प्रयोग करने की स्वतंत्रता है। संविधान मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता की गारंटी देता है जहां एक सकारात्मक (पॉज़िटिव) अधिकार में एक नकारात्मक (निगेटिव) अधिकार शामिल है। उदाहरण के लिए, बोलने की आज़ादी में न बोलने की आज़ादी भी शामिल है।

इसके अलावा, इच्छामृत्यु को वैध बनाने के खिलाफ तर्क (फर्दर, आर्गुमेंट्स अगेंस्ट लीगलाइजिंग यूथेनेशिया)

इसमें शामिल हैं:

  1. धर्म से प्रेरित भारतीय समाज इच्छामृत्यु की अवधारणा को स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि धार्मिक ग्रंथ (स्क्रिप्चर्स) इसकी अवहेलना (डिफाइ) करते हैं।
  2. इच्छामृत्यु का व्यावसायीकरण (कमर्शियलाइजेशन) हो सकता है।
  3. दवा (मेडिकेशन) की आर्थिक (पिक्युनियरी) कठिनाइयों से बचने के लिए गरीब लोग इसका सहारा ले सकते है। 
  4. बूढ़े और बेसहारा (डेस्टीट्यूट) को कभी-कभी एक बोझ माना जाता है और लोग इसका उपयोग अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए कर सकते हैं।
  5. इच्छामृत्यु की अनुमति देना मानवीय गरिमा का अवमूल्यन (डिवैल्यू) करेगा और जीवन की पवित्रता के सिद्धांत को ठेस पहुंचाएगा। यह बीमार, विकलांग लोगों को बाकी आबादी की तुलना में अधिक असुरक्षित (वल्नरेबल) छोड़ देगा और ‘हत्या के लिए एक लबादा (क्लॉक फॉर मर्डर)’ भी प्रदान कर सकता है।

मरने के अधिकार की कानूनी स्थिति (लीगल स्टेटस ऑफ राइट टू डाई)

पिपेल और एम्सेल के शब्दों में “तर्कसंगत (रेशनल) आत्महत्या’ या ‘मरने के अधिकार’ के समकालीन समर्थक (कंटेंपरेरी प्रोपोनेंट्स) आमतौर पर ‘तर्कसंगतता’ से मांग करते हैं।

भारत में मरने के अधिकार की वैधता का इतिहास राज्य बनाम संजय कुमार भाटिया के मामले से शुरू होता है, जहां दिल्ली उच्च न्यायालय ने आईपीसी की धारा 309 को ‘अनैतिकता और एक विरोधाभास (अनार्क्रोनिज्म एंड ए पैराडॉक्स)’ के रूप में आलोचना (क्रिटिसाइज) की और फिर आईपीसी की धारा 309 पर उच्च न्यायालय ने विभिन्न विचारों का पालन किया।  

नरेश मारोत्राओ साखरे बनाम भारत संघ के मामले में अदालत ने इच्छामृत्यु और आत्महत्या के बीच अंतर देखा। यह चर्चा की गई कि आत्महत्या आत्म-विनाश (सेल्फ डिस्ट्रक्शन) का एक कार्य था, किसी अन्य मानव संस्था (एजेंसी) की सहायता के बिना अपने स्वयं के जीवन को समाप्त करने के लिए, जबकि इच्छामृत्यु अलग है क्योंकि इसमें किसी के जीवन को समाप्त करने के लिए एक मानव संस्था का हस्तक्षेप शामिल है। यह दया हत्या कहीं से भी भारतीय दंड संहिता की धारा 309 में शामिल नहीं है जिसमें कहा गया है कि;

“आत्महत्या करने का प्रयास – जो कोई आत्महत्या करने का प्रयास करता है और ऐसे अपराध के लिए कोई कार्य करता है, उसे एक अवधि (टर्म) के लिए साधारण कारावास से दंडित किया जाएगा जिसे एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है [या जुर्माना, या दोनों के साथ]”

पी. रथिनम बनाम भारत संघ में, अदालत ने आत्महत्या का प्रयास करने वाले बेचारो को राहत देते हुए, धारा 309 को तर्कहीन (इरेशनल) माना और हमारे दंड कानूनों को मानवीय बनाने के लिए क़ानून की किताब से हटाए जाने के योग्य बताया। यह उस व्यक्ति को दोगुना दंड देने का प्रयास करता है जिसे अत्यधिक पीड़ा होती है और आत्महत्या करने में विफलता के कारण बदनामी का सामना करना पड़ता है।

जल्द ही, इसे जियान कौर बनाम पंजाब राज्य के मामले में खारिज कर दिया गया और यह माना गया कि जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार या मारे जाने का अधिकार शामिल नहीं है। आगे यह माना गया कि जीवन का अधिकार अनुच्छेद 21 में सन्निहित (इम्बोडीड) एक प्राकृतिक अधिकार था, लेकिन आत्महत्या अप्राकृतिक समाप्ति या जीवन का विलुप्त (एक्सटिंक्शन) होना था और इसलिए, जीवन के अधिकार की अवधारणा के साथ असंगत (इंकंसिस्टेंट) था। जीवन के अधिकार में मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल है, जिसका अर्थ है इस तरह के अधिकार का अस्तित्व प्राकृतिक जीवन के अंत तक है। हालाँकि, अदालत यह मानते हुए निष्क्रिय (पैसिव) इच्छामृत्यु को मंजूरी देती प्रतीत होती है कि गरिमा के साथ जीने के अधिकार में गरिमा के साथ मरने का अधिकार भी शामिल है।

इस प्रकार, अरुणा शानबाग के मामले तक और एन जी ओ द्वारा हाल ही में दायर किए गए मामले में, जहां मुद्दे की वैधता पर फिर से चर्चा की गई थी और 9 मार्च 2018 को मामले में जीवन की अप्राकृतिक समाप्ति से जुड़े किसी भी रूप को अवैध (इल्लीगल) माना गया है। कॉमन कॉज़ (ए रजिस्टर्ड सोसाइटी) बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की बेंच ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु और जीवित इच्छा / अग्रिम निर्देश (एडवांस डायरेक्टिव) को मान्यता और मंजूरी दी। इसका निहितार्थ (इंप्लीकेशन) यह है कि अब से सम्मान के साथ मरने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। निर्णय बेच द्वारा दिया गया था जिसमे भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी, न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलकर, न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति अशोक भूषण शामिल थे। मामले को तीन-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा संदर्भित (रेफर्ड) किया गया था, जिसमें कहा गया था कि जियान कौर बनाम पंजाब राज्य के मामले में संविधान पीठ (कंस्टीट्यूशनल बेंच) ने सक्रिय (एक्टिव) या निष्क्रिय इच्छामृत्यु की वैधता पर फैसला नहीं किया था, भले ही बेंच ने फैसला सुनाया था कि  भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा के साथ जीने का अधिकार में सम्मान के साथ मरने का अधिकार भी शामिल था।

तीन-न्यायाधीशों की बेंच ने तब ध्यान दिया कि अरुणा शानबाग बनाम भारत संघ में सुनाया गया निर्णय एक गलत प्रस्ताव (प्रिपोज़िशन) पर आधारित है कि जियान कौर बनाम पंजाब राज्य के मामले में संविधान पीठ ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु को बरकरार रखा था। हालांकि, कॉमन कॉज (एक पंजीकृत सोसायटी) बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में पांच-न्यायाधीशों की बेंच ने माना है कि अरुणा शानबाग के मामले में दो-न्यायाधीशों की बेंच ने गलत तरीके से फैसला सुनाया था कि निष्क्रिय इच्छामृत्यु हो सकती है केवल ज्ञान कौर मामले में निर्णय की गलत व्याख्या के माध्यम से कानून द्वारा वैध बनाया गया था। न्यायाधीशों ने अपने फैसले में एक “लिविंग विल” या “एडवांस डायरेक्टिव” के लिए प्रक्रिया भी निर्धारित की है जिसके माध्यम से गंभीर रूप से बीमार लोग या बिगड़ते स्वास्थ्य वाले लोग जीवन समर्थन प्रणाली (सिस्टम) के साथ वानस्पतिक अवस्था (वेजिटेटिव स्टेट) में नहीं रहने का विकल्प चुन सकते हैं यदि वे एक ऐसी स्थिति में है जहा उनके लिए अपनी इच्छा व्यक्त करना संभव नहीं होता है।

अन्य देशों में मरने के अधिकार की कानूनी स्थिति (लीगल पोज़िशन ऑफ राइट टू डाई इन अदर कंट्रीज़)

उपलब्ध रिकॉर्ड के अनुसार, यह ज्ञात है कि नीदरलैंड, बेल्जियम, आयरलैंड, कोलंबिया और लक्ज़मबर्ग में मानव इच्छामृत्यु कानूनी है और सहायता प्राप्त आत्महत्या (असिस्टेड सुसाइड) स्विट्ज़रलैंड, जर्मनी जापान, कनाडा और अल्बेनीया और संयुक्त राज्य अमेरिका (यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका) के कुछ हिस्सों में कानूनी है।

  • संयुक्त राज्य अमेरिका – यह देखा गया है कि सक्रिय इच्छामृत्यु पूरे संयुक्त राज्य अमेरिका में अवैध है लेकिन ओरेगन, वाशिंगटन, वरमोंट, कैलिफोर्निया और मेक्सिको के एक देश में सहायता प्राप्त इच्छामृत्यु कानूनी है।
  • ऑस्ट्रेलिया- 1995 में, इच्छामृत्यु को वैध बनाकर यह दुनिया का पहला कानून बन गया, लेकिन सहायता प्राप्त आत्महत्या को केवल एक अवधि के लिए वैध बनाया गया था और अब ऐसा नहीं है। टर्मिनली इल के अधिकार एक्ट 1995 के तहत चार रोगियों की मृत्यु के कारण, 1997 में ऑस्ट्रेलिया की संघीय संसद (फेडरल पार्लियामेंट) द्वारा अधिनियम को उलट दिया गया था।
  • फ्रांस- ‘अच्छी तरह से विकसित देखभाल कार्यक्रम (वेल डेवलप्ड हॉस्पिस केयर प्रोग्राम)’ के कारण देश का विवाद ज्यादा बड़ा नहीं है। लेकिन 2000 में विन्सेंट हम्बर्ट के मामले के बाद, इसने नए कानून की शुरुआत की, जिसमें कहा गया है कि जब दवा ‘जीवन के आधिकारिक (ऑफिशियल) समर्थन के अलावा कोई अन्य उद्देश्य नहीं है’ तो उन्हें निलंबित (सस्पेंड) नहीं किया जा सकता है।’

अब तक, ऑस्ट्रेलियाई राज्य विक्टोरिया दुनिया में सहायता प्राप्त मृत्यु को वैध बनाने वाला पहला राज्य बन गया है। विधेयक को संसद में पारित कर दिया गया है और यह 2019 से राज्य में सहायक मृत्यु को कानूनी बना देगा। स्वैच्छिक सहायता प्राप्त मृत्यु को शुरू करने के लिए एक व्यापक प्रक्रिया (एक्सटेंसिव प्रोसेस) से गुजरने वाली दुनिया की पहली संसद के रूप में विक्टोरियन कानून के बाद, अन्य देशों ने भी जनमत संग्रह (रेफरेंडम) या अदालत की प्रक्रिया के माध्यम से कानून पेश किए हैं।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

डॉ जैक केवोर्कियन के शब्दों में :-

“उन लोगों के लिए जो एक लाइलाज बीमारी का सामना कर रहे हैं, जो अपूरणीय (इर्रेमीडिएबल) पीड़ा में हैं, और सम्मान के साथ मरने के अपने अधिकार का प्रयोग करना चाहते हैं, उनके लिए एक प्रणाली उपलब्ध होनी चाहिए”।

मानव जीवन की पवित्रता, दर्द और पीड़ा में जबरन निरंतरता (फोर्स्ड कंटीन्यूशन) का अर्थ नहीं है। यह देखते हुए कि किसी व्यक्ति को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार है, उसे अपने नुकसान के लिए जीने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति असाध्य (इंक्यूरेबल) रोग से ग्रसित (सफर) है तो उसे कष्टमय जीवन जीने के लिए विवश करना अमानवीय होगा। एक मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति को ऐसा करने का विकल्प चुनकर अपने दर्द और पीड़ा को समाप्त करने की अनुमति दी जानी चाहिए।

दरअसल, ये जीवन को खत्म करने के मामले नहीं हैं, बल्कि प्राकृतिक मौत की प्रक्रिया को तेज करने के हैं, जो पहले ही शुरू हो चुकी है। प्रस्ताव केवल यह है कि कानून में एक विकल्प का प्रावधान होना चाहिए, यदि गंभीर रूप से बीमार रोगी आवश्यक शर्तों का पालन करने के बाद, अपनी धीमी और दर्दनाक मौत को एक त्वरित (क्विक) और दर्द रहित मौत के साथ बदलना चाहता है।

विश्व की तरह भारत में भी चिकित्सा विज्ञान प्रगति कर रहा है, और इसलिए वर्तमान में हमारे पास ऐसी तकनीकें हैं जो कृत्रिम (आर्टिफिशियल) तरीकों से जीवन को लम्बा खींच सकती हैं। यह परोक्ष (इंडिरेक्टली) रूप से पीड़ा को लम्बा खींच सकता है और संबंधित विषय के परिवारों के लिए बहुत महंगा भी साबित हो सकता है। इसलिए, भारत में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में जीवन के अंत के मुद्दे प्रमुख नैतिक (एथिकल) विचार बन रहे हैं। मानसिक रूप से बीमार रोगियों के मामले में विशेष रूप से इच्छामृत्यु की अनुमति देना सही है।

2018 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने इच्छामृत्यु समर्थक कार्यकर्ताओं (एक्टिविस्ट) को एक बड़ा बढ़ावा दिया है, हालांकि इसे संसद में कानून बनने से पहले एक लंबा रास्ता तय करना है। इसके अलावा, इसके दुरुपयोग की चिंता एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है जिसे हमारे देश में कानून बनने से पहले संबोधित किया जाना चाहिए। इस बहस का अंतिम परिणाम अनिश्चित बना हुआ है। हालांकि, यह याद रखना चाहिए कि एक कलाबाजी (एक्रोबेटिक) तर्क जो तकनीकी प्रगति को स्वीकार करता है लेकिन उभरते नैतिक मुद्दों को खारिज करता है जो असुविधाजनक (अनकम्फर्टेबल) और परेशान करने वाले प्रश्न हैं, रोगियों के समुदाय (कम्युनिटी) के लिए अनुचित (अनफेयर) है।

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